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पश्चिम बंगाल में ‘अपराजिता विधेयक’ का पेंच: राज्यपाल की ना, TMC का तेवर, जानिए क्या है पूरा खेल।

पश्चिम बंगाल में ‘अपराजिता विधेयक’ का पेंच: राज्यपाल की ना, TMC का तेवर, जानिए क्या है पूरा खेल।

चर्चा में क्यों? (Why in News?):** हाल ही में, पश्चिम बंगाल की ममता सरकार द्वारा महिलाओं के खिलाफ, विशेषकर दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराधों के लिए, बहुत सख्त सजा के प्रावधानों वाला ‘अपराजिता विधेयक’ को राज्यपाल डॉ. सी.वी. आनंद बोस ने पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिया है। राज्यपाल का यह कदम राज्य की राजनीति में गरमा-गरमी का कारण बन गया है, जहाँ तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने राज्यपाल के इस फैसले का कड़ा विरोध करने का ऐलान किया है। यह घटनाक्रम न केवल विधायी प्रक्रियाओं पर प्रकाश डालता है, बल्कि राज्यपाल की भूमिका, राज्य सरकार की मंशा और संघवाद के ढांचे पर भी महत्वपूर्ण सवाल खड़े करता है। UPSC परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों के लिए, यह विषय भारतीय राजव्यवस्था, विधायी प्रक्रिया, न्यायपालिका की भूमिका और सामाजिक न्याय जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है।

यह ब्लॉग पोस्ट ‘अपराजिता विधेयक’ के पूरे घटनाक्रम को विस्तार से समझाने, इसके पीछे की कानूनी और राजनीतिक कड़ियों को उजागर करने, और UPSC परीक्षा के दृष्टिकोण से इसके विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण करने का प्रयास करेगा।

‘अपराजिता विधेयक’: पृष्ठभूमि और उद्देश्य (The ‘Aparajita Bill’: Background and Objective)

‘अपराजिता विधेयक’ (Aparajita Bill) पश्चिम बंगाल विधानसभा द्वारा पारित एक महत्वपूर्ण कानून है जिसका मुख्य उद्देश्य राज्य में महिलाओं के खिलाफ, विशेषकर यौन अपराधों, बलात्कार और अन्य प्रकार की हिंसक वारदातों में शामिल अपराधियों को अत्यंत कठोर दंड देना है। इस विधेयक के माध्यम से सरकार का लक्ष्य यह संदेश देना था कि ऐसे अपराधों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और अपराधियों को उनके कृत्य का उचित, यानी कड़ा, दंड मिलेगा।

  • कठोर सजा का प्रावधान: विधेयक में दुष्कर्म और गैंगरेप जैसे अपराधों के लिए मृत्युदंड या आजीवन कारावास जैसी अत्यंत कठोर सजाओं का प्रस्ताव था। इसका उद्देश्य अपराधियों में भय पैदा करना और पीड़ितों को न्याय दिलाना था।
  • त्वरित न्याय: विधेयक का एक और महत्वपूर्ण पहलू मामलों के त्वरित निपटान पर जोर देना था, ताकि पीड़ितों को लंबा इंतजार न करना पड़े।
  • महिला सुरक्षा को प्राथमिकता: पश्चिम बंगाल में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर लगातार चिंताएं उठती रही हैं। इस विधेयक को इन्हीं चिंताओं को दूर करने और महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक कदम के रूप में देखा जा रहा था।

यह विधेयक एक ऐसे समय में आया जब देश भर में महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर जनमानस में भारी आक्रोश था। ऐसे में, ममता सरकार ने इस विधेयक के माध्यम से एक मजबूत रुख अपनाने का प्रयास किया।

राज्यपाल का हस्तक्षेप: विधेयक वापसी के कारण (Governor’s Intervention: Reasons for Bill Rejection)

किसी भी राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को कानून बनने के लिए राज्यपाल (या राष्ट्रपति, यदि मामला केंद्र सरकार से संबंधित हो) की सहमति आवश्यक होती है। राज्यपाल, जो राज्य में राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं, विधेयक की संवैधानिकता, उसके औचित्य और उसमें निहित प्रावधानों की जांच करते हैं। इस मामले में, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल डॉ. सी.वी. आनंद बोस ने ‘अपराजिता विधेयक’ को वापस भेजने का निर्णय लिया, जिसके पीछे कुछ विशेष कारण बताए गए हैं:

  • सजा की कठोरता पर आपत्ति: राज्यपाल ने विधेयक में प्रस्तावित सजाओं की अत्यधिक कठोरता को लेकर चिंता व्यक्त की। उनका मानना था कि कुछ मामलों में, जैसे कि प्रथम बार या कम गंभीर अपराधों में, मृत्युदंड या आजीवन कारावास जैसे कठोर प्रावधान अव्यावहारिक या असंवैधानिक हो सकते हैं। उनका तर्क था कि कानून की सजा अपराध की गंभीरता के अनुपात में होनी चाहिए, न कि केवल अत्यधिक कठोरता पर आधारित।
  • न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान: राज्यपाल ने यह भी संकेत दिया कि विधेयक के कुछ प्रावधान न्यायपालिका के विवेक (judicial discretion) में अनावश्यक हस्तक्षेप कर सकते हैं। वे चाहते थे कि कानून बनाते समय न्यायपालिका की भूमिका और उसके निर्णयों का सम्मान बना रहे।
  • पुनर्विचार की आवश्यकता: विधेयक को वापस भेजने का मतलब यह नहीं है कि राज्यपाल ने इसे पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया है। बल्कि, इसका अर्थ है कि वे चाहते हैं कि राज्य सरकार विधेयक के प्रावधानों पर पुनर्विचार करे और यदि आवश्यक हो तो उनमें संशोधन करे, ताकि यह संवैधानिक सिद्धांतों और न्याय के तकाजों के अनुरूप हो।

राज्यपाल का यह कदम राष्ट्रपति की तरह ही विधेयक को लौटाने की उनकी संवैधानिक शक्ति का प्रयोग है, जिसके तहत वे विधेयक को कुछ संशोधनों के साथ या बिना संशोधनों के पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकते हैं।

TMC का रुख और राजनीतिक प्रतिक्रिया (TMC’s Stance and Political Reaction)

राज्यपाल द्वारा ‘अपराजिता विधेयक’ को वापस भेजे जाने के फैसले पर पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने कड़ी आपत्ति जताई है। TMC ने राज्यपाल के इस कदम को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधा डालने और राज्य सरकार के अधिकारों का हनन बताया है।

  • लोकतांत्रिक भावना का उल्लंघन: TMC का आरोप है कि राज्यपाल, जो एक निर्वाचित सरकार के प्रति जवाबदेह हैं, विधेयक को मनमाने ढंग से वापस भेज रहे हैं। यह जनता द्वारा चुनी गई सरकार की इच्छाशक्ति का अनादर है।
  • महिला सुरक्षा पर राजनीति: TMC का यह भी कहना है कि राज्यपाल महिलाओं की सुरक्षा के महत्वपूर्ण मुद्दे पर राजनीति कर रहे हैं। वे विधेयक की मूल भावना को कमजोर करने का प्रयास कर रहे हैं।
  • विरोध का ऐलान: TMC ने स्पष्ट किया है कि वे राज्यपाल के इस फैसले का विधानसभा और अन्य मंचों पर पुरजोर विरोध करेंगे। वे विधेयक को फिर से पारित कराने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे।

यह घटनाक्रम राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच पहले से चले आ रहे तनावपूर्ण संबंधों को और गहराता है, जो अक्सर विभिन्न नियुक्तियों, विधेयकों और प्रशासनिक मामलों पर सामने आता रहा है।

विधायी प्रक्रिया और राज्यपाल की भूमिका (Legislative Process and the Role of the Governor)

भारतीय संविधान के तहत, राज्य विधानसभा द्वारा पारित किसी भी विधेयक को कानून बनने के लिए राज्यपाल की सहमति की आवश्यकता होती है (अनुच्छेद 200)। राज्यपाल के पास निम्नलिखित विकल्प होते हैं:

  1. सहमति देना: राज्यपाल विधेयक पर अपनी सहमति दे सकते हैं, जिसके बाद वह कानून बन जाता है।
  2. विधेयक वापस भेजना: राज्यपाल विधेयक को, यदि वह धन विधेयक न हो, तो राज्य विधानमंडल को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकते हैं। वे अपने संदेश में कुछ विशिष्ट संशोधनों का सुझाव भी दे सकते हैं।
  3. राष्ट्रपति की अनुमति के लिए आरक्षित रखना: राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति की विचार और अनुमति के लिए आरक्षित रख सकते हैं। यह तब आवश्यक होता है जब विधेयक उच्च न्यायालय की स्थिति को खतरे में डालता हो, राज्य के लिए मौलिक अधिकारों के प्रावधानों के विपरीत हो, या देश के व्यापक हितों के विरुद्ध हो (अनुच्छेद 201)।

जब विधेयक वापस भेजा जाता है: यदि राज्यपाल विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस भेजते हैं, और विधानमंडल (विधानसभा या विधान परिषद) उसे फिर से पारित कर देता है (चाहे मूल रूप में या संशोधनों के साथ), तो राज्यपाल को उस पर अपनी सहमति देनी ही होती है। हालाँकि, राष्ट्रपति की अनुमति के लिए आरक्षित रखे गए विधेयक के मामले में, यदि राष्ट्रपति उसे वापस भेजते हैं, तो विधानमंडल उस पर अपनी सहमति दे भी सकता है और नहीं भी।

इस मामले में: राज्यपाल ने ‘अपराजिता विधेयक’ को पुनर्विचार के लिए वापस भेजा है। अब पश्चिम बंगाल विधानसभा के पास यह अधिकार है कि वह विधेयक को वैसे ही दोबारा पारित करे या उसमें संशोधन करे। यदि विधानसभा विधेयक को पुनः पारित करती है, तो राज्यपाल के लिए सहमति देना बाध्यकारी होगा।

महिलाओं के खिलाफ अपराधों से निपटने के लिए कानूनी उपाय: प्रभावशीलता और चुनौतियाँ (Legal Measures to Combat Crimes Against Women: Effectiveness and Challenges)

‘अपराजिता विधेयक’ जैसे कदम महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों के प्रति समाज और सरकार की प्रतिक्रिया का हिस्सा हैं। लेकिन क्या केवल कानून को कठोर बना देने से समस्या का समाधान हो जाएगा? इस पर कई मत हैं:

कानूनों को कठोर बनाने के पक्ष में तर्क (Arguments in Favor of Stricter Laws):

  • निवारक प्रभाव (Deterrent Effect): कठोर सजा का भय अपराधियों को अपराध करने से रोक सकता है।
  • न्याय और पीड़ित का संतोष: पीड़ितों और उनके परिवारों को यह अहसास होता है कि उन्हें न्याय मिला है।
  • सामाजिक संदेश: यह समाज को एक मजबूत संदेश देता है कि ऐसे अपराधों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

कानूनों को कठोर बनाने के विपक्ष में या अन्य समाधानों की वकालत (Arguments Against Stricter Laws or Advocating Other Solutions):

  • न्यायपालिका का विवेक: अत्यंत कठोर और ‘वन-साईज-फिट्स-ऑल’ सजाएं न्यायपालिका के विवेक को सीमित कर सकती हैं, जो हर मामले की बारीकियों पर विचार करती है।
  • अनुपात का सिद्धांत: सजा अपराध की गंभीरता के अनुपात में होनी चाहिए। अत्यधिक कठोरता मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर सकती है।
  • क्रियान्वयन की समस्याएँ: कानूनों का प्रभावी क्रियान्वयन सबसे बड़ी चुनौती है। धीमी न्यायिक प्रक्रिया, पुलिस की अक्षमता, साक्ष्यों का अभाव आदि कानून की कठोरता को अप्रभावी बना सकते हैं।
  • सामाजिक और सांस्कृतिक जड़ें: महिलाओं के खिलाफ अपराधों की जड़ें गहरी सामाजिक कुरीतियों, पितृसत्तात्मक मानसिकता और लैंगिक असमानता में हैं। इन जड़ों पर प्रहार किए बिना केवल दंड संहिता में बदलाव से स्थायी समाधान नहीं मिलेगा।
  • जागरूकता और शिक्षा: जन जागरूकता, यौन शिक्षा, लैंगिक समानता को बढ़ावा देना और पीड़ित-अनुकूल वातावरण बनाना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।

उदाहरण: निर्भया जैसे जघन्य अपराधों के बाद, भारतीय दंड संहिता (IPC) और दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) में बदलाव किए गए, जिससे महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों के लिए सजाएं कड़ी की गईं (जैसे POCSO अधिनियम)। हालाँकि, इन कानूनों के बावजूद, अपराधों का ग्राफ पूरी तरह से नीचे नहीं आया है, जो प्रभावी क्रियान्वयन और सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

संघवाद, विधायी शक्ति और राज्यपाल की भूमिका: एक विश्लेषण (Federalism, Legislative Power, and the Governor’s Role: An Analysis)

‘अपराजिता विधेयक’ का मामला भारत के संघीय ढांचे में राज्यपाल की भूमिका पर एक बार फिर से बहस छेड़ता है।

  • राज्यपाल की संवैधानिक स्थिति: संविधान निर्माताओं ने राज्यपाल को राज्य में केंद्र का प्रतिनिधि बनाया था, लेकिन साथ ही उन्हें कुछ विवेकाधीन शक्तियां भी दी थीं। अनुच्छेद 163(1) के अनुसार, राज्यपाल अपनी शक्तियों का प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह पर करेंगे, सिवाय उन मामलों के जहाँ उन्हें संविधान द्वारा या इसके तहत विवेक से कार्य करने की शक्ति दी गई है।
  • विधेयक को वापस भेजना – विवेक या सलाह? जब राज्यपाल किसी विधेयक को वापस भेजते हैं, तो यह सवाल उठता है कि क्या वे मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य कर रहे हैं या अपने विवेक का प्रयोग कर रहे हैं। यदि वे सजा की कठोरता या संवैधानिकता पर आपत्ति जता रहे हैं, तो यह उनके विवेक का हिस्सा माना जा सकता है, खासकर यदि उन्हें लगता है कि विधेयक मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है।
  • राज्य बनाम केंद्र का टकराव: कई बार राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच मतभेद तब गहरा जाते हैं जब राज्य सरकारें ऐसे विधेयक लाती हैं जो केंद्र सरकार या राज्यपाल के विचार में विवादास्पद या असंवैधानिक होते हैं। यह केंद्र-राज्य संबंधों में एक संवेदनशील मुद्दा बन जाता है।
  • न्यायपालिका की भूमिका: ऐसे विवादों में अंतिम निर्णय की शक्ति अक्सर न्यायपालिका के पास होती है। यदि राज्यपाल विधेयक को वापस भेजते हैं और सरकार उसे पुनः पारित करती है, तो भी यदि राज्यपाल संतुष्ट नहीं होते हैं, तो वे राष्ट्रपति की अनुमति के लिए आरक्षित रख सकते हैं, या सरकार उन पर सहमति देने का दबाव बना सकती है। अंततः, ऐसे मामले अदालतों में जा सकते हैं जहाँ विधेयक की संवैधानिकता की जांच की जाती है।

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय: सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न निर्णयों में राज्यपाल की भूमिका को स्पष्ट किया है। उदाहरण के लिए, एस.आर. बोम्मई मामले (1994) में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) का प्रयोग करते समय निष्पक्ष रहना चाहिए और राज्य सरकार की सलाह पर ही कार्रवाई करनी चाहिए, जब तक कि मुख्यमंत्री का बहुमत स्पष्ट न हो। इसी तरह, विधेयकों पर सहमति के मामले में भी, राज्यपाल को मनमानी नहीं करनी चाहिए, बल्कि संविधान के अनुसार कार्य करना चाहिए।

आगे की राह और निष्कर्ष (The Way Forward and Conclusion)

‘अपराजिता विधेयक’ का मामला एक जटिल विधायी, राजनीतिक और संवैधानिक पहेली को प्रस्तुत करता है।

  • सरकार का दृष्टिकोण: पश्चिम बंगाल सरकार का उद्देश्य स्पष्ट है – महिलाओं के खिलाफ अपराधों के प्रति एक कठोर रुख अपनाना। वे इस विधेयक को अपनी जनता के प्रति जवाबदेही और महिला सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्धता के रूप में देख रहे हैं।
  • राज्यपाल का दृष्टिकोण: राज्यपाल का दृष्टिकोण विधायी प्रक्रिया को सुचारू और संवैधानिक रूप से मजबूत बनाने पर केंद्रित प्रतीत होता है। वे यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि कानून न केवल कठोर हों, बल्कि निष्पक्ष, न्यायसंगत और व्यावहारिक भी हों।
  • लोकतांत्रिक संतुलन: अंततः, यह मामला राज्य सरकार की विधायी शक्ति और राज्यपाल के संवैधानिक उत्तरदायित्वों के बीच संतुलन को दर्शाता है। दोनों पक्षों को संवैधानिक सीमाओं और लोकतांत्रि��क सिद्धांतों का सम्मान करना चाहिए।

UPSC के लिए महत्वपूर्ण बिंदु:

  • भारतीय संविधान में राज्यपाल की भूमिका और शक्तियां (अनुच्छेद 163, 164, 166, 167, 168, 196, 199, 200, 201)।
  • विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति पृथक्करण और संतुलन।
  • राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच संबंध।
  • महिलाओं के खिलाफ अपराधों से संबंधित कानून (IPC, CrPC, POCSO आदि) और उनकी प्रभावशीलता।
  • संघवाद के सिद्धांत और केंद्र-राज्य संबंध।

यह महत्वपूर्ण है कि उम्मीदवार केवल राजनीतिक प्रतिक्रियाओं पर ध्यान केंद्रित न करें, बल्कि घटना के पीछे के संवैधानिक और कानूनी पहलुओं को भी समझें। ‘अपराजिता विधेयक’ जैसे मुद्दे भारत के विधायी तंत्र की जीवंतता और उसमें निहित चुनौतियों को दर्शाते हैं, जो UPSC सिविल सेवा परीक्षा के लिए एक अत्यंत प्रासंगिक विषय है।

UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)

प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs

  1. प्रश्न 1: भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद के तहत राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक राज्यपाल की सहमति के लिए प्रस्तुत किया जाता है?

    (a) अनुच्छेद 167

    (b) अनुच्छेद 168

    (c) अनुच्छेद 200

    (d) अनुच्छेद 201

    उत्तर: (c) अनुच्छेद 200

    व्याख्या: अनुच्छेद 200 के अनुसार, राज्य विधानमंडल द्वारा पारित होने के बाद, प्रत्येक विधेयक राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा, और राज्यपाल उस पर अपनी सहमति दे सकते हैं, उसे वापस भेज सकते हैं, या राष्ट्रपति की अनुमति के लिए आरक्षित रख सकते हैं।
  2. प्रश्न 2: यदि कोई विधेयक (धन विधेयक के अतिरिक्त) राज्यपाल द्वारा राज्य विधानमंडल को पुनर्विचार के लिए वापस भेजा जाता है, और विधानमंडल उसे फिर से पारित कर देता है, तो राज्यपाल को क्या करना चाहिए?

    (a) वे विधेयक को अपनी सहमति दे सकते हैं।

    (b) वे विधेयक को फिर से वापस भेज सकते हैं।

    (c) वे विधेयक को राष्ट्रपति की अनुमति के लिए आरक्षित रख सकते हैं।

    (d) वे विधेयक पर हस्ताक्षर करने से मना कर सकते हैं।

    उत्तर: (a) वे विधेयक को अपनी सहमति दे सकते हैं।

    व्याख्या: संविधान के अनुच्छेद 200 के अनुसार, यदि विधानमंडल विधेयक को फिर से पारित कर देता है, तो राज्यपाल को उस पर सहमति देनी होगी।
  3. प्रश्न 3: ‘अपराजिता विधेयक’ को चर्चा में आने का मुख्य कारण क्या है?

    (a) इसका यौन अपराधों के खिलाफ कड़े दंड का प्रावधान।

    (b) राज्यपाल द्वारा इसे पुनर्विचार के लिए वापस भेजना।

    (c) तृणमूल कांग्रेस द्वारा इसका पुरजोर विरोध।

    (d) उपरोक्त सभी।

    उत्तर: (d) उपरोक्त सभी।

    व्याख्या: विधेयक के प्रावधान, राज्यपाल की प्रतिक्रिया और राजनीतिक दलों के रुख, तीनों ने इसे चर्चा का विषय बनाया है।
  4. प्रश्न 4: संविधान के अनुसार, राज्यपाल अपनी मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करने के लिए बाध्य हैं, सिवाय उन मामलों के जहाँ उन्हें _____ की शक्ति दी गई है।

    (a) राज्य के मुख्य सचिव की नियुक्ति

    (b) विधानमंडल को संबोधित करना

    (c) अपने विवेक से कार्य करना

    (d) उपरोक्त में से कोई नहीं

    उत्तर: (c) अपने विवेक से कार्य करना

    व्याख्या: अनुच्छेद 163(1) राज्यपाल को अपने विवेक से कार्य करने की शक्ति प्रदान करता है, हालांकि विधेयक वापसी जैसे मामले में इस विवेक की सीमा पर बहस हो सकती है।
  5. प्रश्न 5: निम्नलिखित में से कौन सा कथन राज्यपाल की विधेयकों पर शक्तियों के संबंध में सत्य है?

    1. राज्यपाल किसी भी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रख सकते हैं।

    2. यदि कोई विधेयक राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखा जाता है और राष्ट्रपति उसे वापस भेजते हैं, तो राज्यपाल को उस पर सहमति देनी ही होती है।

    (a) केवल 1

    (b) केवल 2

    (c) 1 और 2 दोनों

    (d) न तो 1 और न ही 2

    उत्तर: (a) केवल 1

    व्याख्या: अनुच्छेद 200 के अनुसार, राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रख सकते हैं। अनुच्छेद 201 के अनुसार, यदि राष्ट्रपति उसे (संभवतः संशोधनों सहित) वापस भेजते हैं, तो विधानमंडल उस पर विचार करेगा, लेकिन यदि वह फिर से पारित हो जाता है, तो राष्ट्रपति को सहमति देनी आवश्यक नहीं है।
  6. प्रश्न 6: महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों से संबंधित कानून, ‘यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम’ (POCSO), किस वर्ष पारित किया गया था?

    (a) 2009

    (b) 2012

    (c) 2013

    (d) 2016

    उत्तर: (b) 2012

    व्याख्या: POCSO अधिनियम, 2012 बच्चों को यौन उत्पीड़न, यौन शोषण और पोर्नोग्राफी से बचाने के लिए बनाया गया था।
  7. प्रश्न 7: ‘अपराजिता विधेयक’ में राज्यपाल द्वारा प्रमुख आपत्ति किस पर जताई गई थी?

    (a) विधेयक का उद्देश्य

    (b) विधेयक का नाम

    (c) विधेयक में प्रस्तावित सजा की अत्यधिक कठोरता

    (d) विधेयक के वित्तीय प्रावधान

    उत्तर: (c) विधेयक में प्रस्तावित सजा की अत्यधिक कठोरता

    व्याख्या: समाचार के अनुसार, राज्यपाल ने दुष्कर्म जैसे अपराधों में बहुत सख्त सजा के कानून पर चिंता जताई थी।
  8. प्रश्न 8: भारत में संघवाद के संदर्भ में, निम्नलिखित में से कौन राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच टकराव का संभावित कारण हो सकता है?

    1. विधेयकों को पुनर्विचार के लिए वापस भेजना।

    2. राज्य सरकार की सलाह को अस्वीकार करना।

    3. राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति।

    (a) केवल 1

    (b) 1 और 3

    (c) 2 और 3

    (d) 1, 2 और 3

    उत्तर: (d) 1, 2 और 3

    व्याख्या: राज्यपाल की शक्तियों और राज्य सरकार के निर्णयों से संबंधित विभिन्न मुद्दे उनके बीच टकराव का कारण बन सकते हैं।
  9. प्रश्न 9: किसी कानून की प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिए, केवल कठोर दंड के अलावा निम्नलिखित में से कौन से उपाय आवश्यक हैं?

    1. त्वरित न्यायिक प्रक्रिया।

    2. प्रभावी पुलिस जाँच और साक्ष्य संग्रह।

    3. जन जागरूकता और सामाजिक सुधार।

    4. पीड़ितों के लिए सहायता प्रणाली।

    (a) केवल 1 और 4

    (b) 1, 2 और 4

    (c) 1, 2, 3 और 4

    (d) केवल 3

    उत्तर: (c) 1, 2, 3 और 4

    व्याख्या: किसी भी कानून की प्रभावशीलता उसके क्रियान्वयन, न्यायिक प्रक्रिया, सामाजिक स्वीकार्यता और सहायक प्रणालियों पर निर्भर करती है।
  10. प्रश्न 10: ‘अपराजिता विधेयक’ का प्राथमिक उद्देश्य क्या था?

    (a) दुष्कर्म के मामलों में त्वरित न्याय सुनिश्चित करना।

    (b) महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लिए अत्यंत कठोर दंड का प्रावधान करना।

    (c) महिला पुलिस कर्मियों की संख्या बढ़ाना।

    (d) राज्य में महिला शिक्षा को बढ़ावा देना।

    उत्तर: (b) महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लिए अत्यंत कठोर दंड का प्रावधान करना।

    व्याख्या: विधेयक के केंद्र में महिलाओं के खिलाफ, विशेषकर दुष्कर्म जैसे गंभीर अपराधों के लिए, कड़े दंड का प्रस्ताव था।

मुख्य परीक्षा (Mains)

  1. प्रश्न 1: भारतीय संविधान के तहत राज्यपाल की विधेयकों पर सहमति देने की शक्तियों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच विधायी गतिरोध के संदर्भ में इस मुद्दे पर चर्चा करें। (लगभग 150 शब्द)
  2. प्रश्न 2: महिलाओं के खिलाफ अपराधों की रोकथाम के लिए केवल कठोर दंड संहिता में संशोधन पर्याप्त नहीं है। इस कथन के आलोक में, ऐसे अपराधों से निपटने के लिए आवश्यक बहुआयामी दृष्टिकोण पर प्रकाश डालिए। (लगभग 250 शब्द)
  3. प्रश्न 3: ‘अपराजिता विधेयक’ पर पश्चिम बंगाल के राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच की घटना को भारतीय संघवाद में राज्यपाल की भूमिका के व्यापक संदर्भ में विश्लेषित कीजिए। केंद्र-राज्य विधायी शक्तियों के संतुलन पर चर्चा करें। (लगभग 250 शब्द)
  4. प्रश्न 4: भारतीय राज्य व्यवस्था में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण और संतुलन के सिद्धांत पर एक निबंध लिखिए। ‘अपराजिता विधेयक’ जैसे मामले इस संतुलन को कैसे प्रभावित करते हैं? (लगभग 250 शब्द)

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