परिवार
( Family )
विश्व का ऐसा कोई भी समाज नहीं है , जहाँ परिवार नाम की संस्था नहीं है । यह प्रत्येक समाज में किसी – न – किसी रूप में अवश्य पाया जाता है । परिवार के द्वारा मनुष्य की जिन – जिन आवश्यकताओं की पूर्ति होती है वह अन्य समूहों अथवा संस्थाओं के द्वारा सम्भव नहीं है । यही कारण है कि मनुष्य परिवार की आवश्यकता का अनुभव करता है और परिवार में रहता है । व्यक्ति इस संसार में असहाय रूप में जन्म लेता है , किन्तु परिवार में उसका भरण – पोषण होता है और धीरे – धीरे वह समाज के रीति – रिवाजों को सीखता है । अर्थात् परिवार में ही व्यक्ति का समाजीकरण होता है और वह एक सामाजिक प्राणी बन जाता है । वैसे व्यक्ति आजीवन कुछ – न – कुछ सीखता ही रहता है , किन्तु परिवार में उसे सामाजिक जीवन की प्रारम्भिक शिक्षा मिलती है । अतः परिवार सबसे महत्त्वपूर्ण केन्द्र है । समाज का अस्तित्व बहुत हद तक परिवार नाम की संस्था पर ही निर्भर है । प्रत्येक समाज की अपनी संस्कृति होती है , जिन्हें परिवार ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित करता है । समाज एवं उसकी संस्कृति की निरन्तरता बनाये रखने का कार्य परिवार के द्वारा ही होता है । इस प्रकार परिवार एक सार्वभौमिक संस्था के रूप में हर समाज में पाया जाता है ।
परिवार का अर्थ एवं परिभाषा ( Meaning and Definition of Family )
परिवार ( Family ) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘ Famulus ‘ शब्द से हुई है जिसके अन्तर्गत माता – पिता . बच्चे , नौकर और गुलाम भी सम्मिलित किये जाते है । सामान्य तौर पर परिवार में माता – पिता एवं उनके बच्चे सम्मिलित किये जाते है । विभिन्न समाज में परिवार के लिए भिन्न – भिन्न शब्दों का प्रयोग होता रहा है । परिवार की परिभाषा के सम्बन्ध में भी समाजशास्त्रियों के बीच एक मत नहीं है । विभिन्न विद्वानों ने अपने – अपने शब्दों में अपने विचारों को व्यक्त किया है । यहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण परिभा षाओं का उलेख किया जा रहा है
मेकाइवर एवं पेज ( Maclver and Page ) के अनुसार , ” परिवार एक समूह है , जो यौन सम्बन्धों पर आधारित होता है । इसका आकार छोटा होता है और यह बच्चों के जन्म एवं पालन – पोषण की व्यवस्था करता मेकाइवर की परिभाषा में चार प्रमुख बातें कही गई हैं – ( ) यौन सम्बन्धों पर आधारित समूह ( ii ) सीमित आकार ( iii ) बच्चों का जन्म तथा ( iv ) उनका लालन – पालन । इस परिभाषा से परिवार की संरचना एवं उसके प्रकार्यों के विषय में भी जानकारी होती है ।
( Ogburn and Nimcoff ) के अनुसार , ” परिवार पति – पत्नी का बच्चों सहित स्थायी संघ है या फिर एक स्त्री अथवा पुरुष का अकेले बच्चों के साथ रहने का स्थायी संघ है । इस परिभाषा में परिवार को एक संघ बताया गया है जिसमें पति – पत्नी तथा बच्चे होते हैं अथवा एक स्त्री या पुरुष बच्चे के साथ रहते हैं । अर्थात् पति – पत्नी में से किसी एक के नहीं रहने पर भी बच्चों के साथ का संघ परिवार कहलाता है ।
किंग्सले डेविस ( Kingsley Davis ) ने परिवार की परिभाषा देते हुए कहा है कि परिवार व्यक्तियों का समूह है , जिसमें वैवाहिक सम्बन्ध के आधार पर लोग एक – दूसरे से सम्बद्ध होते हैं तथा वे एक दूसरे के रक्त – सम्बन्धी भी होते है ।
जिस्बर्ट ( Gisbert ) ने भी ऑगबर्न के समान ही परिवार की परिभाषा देते हुए कहा कि ” साधारणतया परिवार में एक स्त्री और पुरुष का एक या एक से अधिक बच्चों के साथ स्थायी सम्बन्ध होता है ।
बर्गेस तथा लॉक ( Burgess and Locke ) के अनुसार , ‘ परिवार व्यक्तियों का समूह है , जो विवाह , रक्त या गोद लेने के सम्बन्धों द्वारा संगठित होता है , एक गृहस्थी का निर्माण करता है , जिसमें पति – पत्नी , माता – पिता , पुत्र – पुत्री तथा भाई – बहन अपने सामाजिक कार्यों के लिए एक – दूसरे के साथ अन्तःक्रिया करते हैं और एक सामान्य संस्कृति का निर्माण करते हैं तथा उसे बनाये रखते हैं ।
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि परिबार व्यक्तियों का एक समूह है जो विवाह तथा रक्त – सम्बन्धों द्वारा संगठित होता है । इनके बीच प्रत्यक्ष तथा प्राथमिक सम्बन्ध होते हैं । यह एक स्थायी संगठन है , जिसमें लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और वे परस्पर हम की भावना से बँधे होते हैं । मेकाइवर ने अपनी परिभा षा मे यौन सम्बन्ध को परिवार का आधार बताया है । विवाह – संस्था के द्वारा पति – पत्नी को परिवार में यौन सम्बन्ध रखने की स्वीकृति मिलती है , जिसके फलस्वरूप बच्चों का जन्म होता है और समाज की निरन्तरता बनी रहती है ।
परिवार की विशेषताएँ ( Characteristics of Family )
भावनात्मक आधार ( Emotional Basis ) – परिवार के सदस्यों के बीच भावनात्मक सम्बन्ध पाये जाते हैं । इनके बीच प्रेम , सहयोग , सहानुभूति , त्याग एवं स्नेह की भावना उमड़ती रहती है । ये गुण अन्य किसी समिति या संगठन में देखने को नहीं मिलते । परिवार इन्हीं भावनात्मक आधारों पर टिका हआ है । परिवार के सभी सदस्यों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध का आधार भी यही है जो इसे स्थायित्व प्रदान करता है ।
सीमित आकार ( Limited Size ) – परिवार का आकार सीमित होता है । साधारणतया परिवार में पति – पत्नी एवं उनके बच्चे होते हैं किन्तु इनके अतिरिक्त अन्य नजदीक के रक्त – सम्बन्धी भी होते हैं । परिवार का आकार समाज की संरचना पर निर्भर करता है । ग्रामीण एवं सरल समाज में परिवार का आकार अपेक्षाकृत बड़ा हाता है , किन्तु आधुनिक एवं जटिल समाज में परिवार का आकार दिनोदिन छोटा होता जा रहा है । इसमें सिर्फ पति – पत्नी एवं उनके अविवाहित बच्चे ही रहते
रचनात्मक प्रभाव(Eormative Influence ) – परिवार का रचनात्मक प्रभाव होता है । व्यक्ति के तत्व के निर्माण में परिवार की बहुत बड़ी भूमिका होती है । प्रत्येक समाज के अपने नियम एवं तरीके होते जिसे व्यक्ति परिवार के माध्यम से सीखता है । परिवार व्यक्ति को समाज के अनुकूल बनाता है । यह व्यक्ति को जैवकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी के रूप में बदल देता है । जीवन के प्रारम्भिक स्तर पर व्यक्ति जिन आदतो एवं व्यवहारो को अपनाता है उसे जीवन भर नहीं भूलता । यह उसके व्यक्तित्व का गुण बन जाता है । परिवार के सभी सदस्य एक – दूसरे के ऊपर रचनात्मक प्रभाव डालते है ।
विवाह सम्बन्ध ( A mating relationship ) – विवाह सम्बन्ध के द्वारा ही एक स्त्री – पुरुष परिवार का निर्माण करते हैं । यह सम्बन्ध थोड़े समय के लिए या जीवन भर के लिए होता है । संसार के विभिन्न समाज में विवाह का कोई – न – कोई रूप अवश्य होता है । वैवाहिक सम्बन्ध के द्वारा स्त्री – पुरुष , पति – पत्नी के रूप में बँध जाते हैं और समाज के दायित्वों को निभाते हैं । वैवाहिक सम्बन्ध टूटने पर परिवार में विघटन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है
विवाह का एक स्वरूप ( A form of marriage ) – प्रत्येक समाज में विवाह का एक स्वरूप होता है । यह भिन्न स्थानों में भिन्न स्वरूप में पाया जाता है । उदाहरण के लिए किसी समाज में एक विवाही परिवार का प्रचलन है तो किसी समाज में बहुविवाही परिवार का । इससे स्पष्ट होता है कि विवाह संस्था का एक स्वरूप होता है , जो समाज विशेष में प्रचलित होता है । (
वंशनाम की व्यवस्था ( A system of nomenclature ) प्रत्येक परिवार एक नाम के द्वारा जाना जाता है । इस नाम को उपनाम या वंशनाम कहते हैं । परिवार व्यक्ति के वंशनाम का आधार होता है । यह वंशनाम पिता व माता के वंश के आधार पर चलता है ।
सामान्य निवास ( A common habitation ) प्रत्येक परिवार का एक सामान्य निवास स्थान होता है , जहाँ इसके सभी सदस्य निवास करते है । सामान्य स्थान में निवास करने पर ही उनके बीच पारस्परिक सम्बन्ध एवं घनिष्ठता बनी रहती है । उनके बीच कर्त्तव्य एवं दायित्व की भावना भी क्रियाशील रहती है । सामान्य स्थान पर निवास करने के कारण पति – पत्नी बच्चों का जन्म तथा उनका लालन – पालन करने में समर्थ होते हैं । परिवार के सभी सदस्य ‘ हम की भावना ‘ से प्रेरित होकर कार्य करते हैं ।
सार्वभौमिकता ( Universality ) – परिवार एक सार्वभौमिक समूह है । विश्व का कोई भी समाज , चाहे वह आधुनिक हो या परम्परागत , शहरी हो या ग्रामीण , जटिल हो या सरल , वहाँ परिवार अवश्य पाया जाता है । विभिन्न स्थानों पर परिवार के स्वरूप में अन्तर हो सकता है , किन्तु यह किसी – न – किसी रूप में अवश्य पाया जाता है । परिवार के बिना मानव – समाज की कल्पना नहीं की जा सकती । इसके द्वारा मनुष्य की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है , जिनकी पूर्ति किसी अन्य समूह के द्वारा सम्भव नहीं है । अत : परिवार एक सार्वभौमिक समूह
परिवार की स्थायी व अस्थायी प्रकृति ( Permanent and temporary nature of Family ) परिवार को जब व्यक्ति का समूह मानते हैं तब वह अस्थायी है और यदि इसे नियमों का संकलन मानते है तब यह स्थायी है । परिवार के नियम , जैसे विवाह , सम्पत्ति के उत्तराधिकार के नियम इत्यादि को ध्यान में रखते हैं , तो पाते है कि ये नियम सदैव वर्तमान रहते है । इस अर्थ में परिवार स्थायी प्रकृति का है । किन्तु जब उसर्क सदस्यता को ध्यान में रखते हैं तो इसके सदस्य समाप्त व नष्ट हो सकते हैं , जैसे – विवाह – विच्छेद , मृत्यु इत्यादि । इस दृष्टिकोण से परिवार अस्थायी है । कहने का तात्पर्य यह है कि परिवार संस्था के रूप में स्थायी है जकि समिति के रूप में अस्थायी ।
परिवार के प्रकार ( Types of Family )
परिवार एक सार्वभौमिक समूह है । यह प्रत्येक समाज में किसी – न – किसी रूप में अवश्य पाया जाता है । विभिन्न समाज में परिवार के भिन्न – भिन्न रूप देखने को मिलते है । समाज की संस्कृति के अनुसार परिवार का 48रूप निधारित होता है । समाज में विभिन्न आधार पर परिवार को विभाजित किया जा सकता है । कुछ प्रमुख प्रकारा का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है
सदस्यों की संख्या के आधार पर परिवार के भेद ( Types of Family on the basis of Number of Members )
केन्द्रीय अथवा मूल परिवार ( Nuclear Family ) – इस प्रकार के परिवार में पति – पत्नी एवं उनके अविवाहित बच्चे आते हैं । आधुनिक युग में केन्द्रीय परिवार का प्रचलन उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है । साधारणतया इनकी सदस्य संख्या 5 – 6 तक ही सीमित होती है । इसके अन्तर्गत परिवार में अन्य रिश्तेदारों को सम्मिलित नहीं किया जाता । बच्चों के वयस्क होने पर जैसे ही उनकी शादी होती है , उनका एक पृथक् परिवार बन जाता है । केन्द्रीय परिवार वस्तुत : औद्योगीकरण एवं नगरीकरण की देन है ।
संयुक्त परिवार ( Joint Family ) संयुक्त परिवार में केन्द्रीय परिवार के अतिरिक्त निकट रिश्तेदार तथा रक्त – सम्बन्धी भी सम्मिलित होते है । साधारण तौर पर इस तरह के परिवार में कई पीढ़ियों के सदस्य एक सामान्य स्थान पर ही निवास करते हैं , उनका भोजन भी एक रसोईघर में बनता है तथा उनकी सम्पत्ति भी सामूहिक होती है । संयुक्त परिवार समाजवादी विचारधारा के मुताबिक चलता है । इसके सदस्य अपनी क्षमता एवं शक्ति के अनुसार धन अर्जित करते हैं , किन्तु इसका उपभोग परिवार के सभी सदस्य समान रूप से करते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि सभी सदस्य अपनी आवश्यकता के अनुसार धन व्यय करते हैं । चाहे कोई व्यक्ति अधिक अथवा कम उत्पादन करे , पर सभी को समान रूप से उपभोग की अनुमति दी जाती है । संयुक्त परिवार भारतीय समाज की प्रमुख विशेषता है । ग्रामीण क्षेत्रों में इस तरह के परिवार आज भी पाये जाते हैं । संयुक्त परिवार में परिवार की पूरी सत्ता मुखिया में केन्द्रित होती है । मुखिया ही हर तरह के मामले में अन्तिम निर्णय लेता है । मुखिया के निर्णय को परिवार के प्रत्येक सदस्य को मानना पड़ता है । सम्पत्ति का बँटवारा , बच्चों की शादी तथा शिक्षा के सम्बन्ध में भी माता – पिता निर्णय नहीं लेते , बल्कि परिवार के मुखिया का निर्णय अन्तिम होता है । ऐसे परिवार का आकार बड़ा होता है , क्योंकि इसमें सदस्यों की संख्या काफी अधिक होती है ।
विस्तृत परिवार ( Extended Family ) – जब संयुक्त परिवार बहुत फैल जाता है तो उसे विस्तृत परिवार कहते हैं । इसमें वंशानुक्रम एक ही रहता है । वंशानुक्रम की भावना ही उन्हें एक सूत्र में बाँधे रहती है । विस्तृत परिवार में कुछ निकट पीढ़ी वाले एक निवास तथा एक आर्थिक इकाई में भी रह सकते हैं , किन्तु कुछ पृथक् इकाई के रूप में भी बँटे रहते हैं । इस प्रकार की संरचना ढीली एवं बिखरी रहती है । यह परिवार अफ्रीका के समाज में काफी प्रचलित है ।
मिश्रित परिवार ( Mixed Family ) – मिश्रित परिवार में एकाकी परिवार और संयुक्त परिवार दोनों की विशेषताओं का मिला – जुला रूप देखने को मिलता है । औद्योगिक एवं नगरी क्षेत्रों में परिवार केन्द्रीय या एकाकी रूप में कार्य करता है । किन्तु सैद्धान्तिक रूप से वह संयुक्त परिवार से बँधा होता है । संयुक्त परिवार का सदस्य रहते हुए भी शहरों में एकाकी जीवन व्यतीत करता है । फलस्वरूप धीरे – धीरे संयुक्त परिवार से उनका लगाव कम हो जाता है । किन्तु मानसिक स्तर पर संयुक्त परिवार की चेतना रहती है । इसके कारण वे शादी – विवाह , सामाजिक , सांस्कृतिक एवं धार्मिक अवसरों पर संयुक्त रूप से हिस्सा लेते हैं । इस प्रकार मिश्रित परिवार आर्थिक स्तर पर केन्द्रीय परिवार तथा मानसिक स्तर पर संयुक्त परिवार के समान होता है । भारत के शहरी क्षेत्रों में ऐसे परिवारों की संख्या बढ़ती जा रही है । इनका संगठन तथा आकार मध्यम स्तर का होता है ।
विवाह के आधार पर परिवार के भेद । ( Types of Family on Marriage Basis )
एकविवाही परिवार ( Monogamous Family ) – इस प्रकार के परिवार में एक स्त्री का एक पुरुष के साथ वैवाहिक सम्बन्ध होता है । पति या पत्नी की मृत्यु अथवा विवाह – विच्छेद के बाद ही स्त्री अथवा पुरुष को दूसरी शादी की अनुमति दी जाती है । एकविवाही परिवार का आकार काफी छोटा होता है । इसमें पति – पत्नी एवं उनके बच्चे ही सम्मिलित रहते हैं । यह परिवार सभ्य समाज में अधिक प्रचलित है । दुनिया के अधिकांश समाज में एकविवाही परिवार का रूप देखने को मिलता है । सभ्यता में उन्नति के साथ – साथ एकविवाही परिवारों की संख्या में भी वृद्धि हो रही है । विधाही परिवार ( Polygamous Family ) – इस तरह के परिवार में एक स्त्री का कई पुरुषों के COस4हाथ सुस्व की कई स्त्रियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध होता है । इस दृष्टिकोण से बहुविवाही परिवार दो । प्रकार का होता है
बहुपत्नी विवाही परिवार ( Polygynous Family ) इस तरह के परिवार में एक पुरुष की कई पलियाँ होती है । अर्थात् एक समय में एक पुरुष कई स्त्रियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करता है । इस प्रकार के परिवार में अधिकार एवं सत्ता पुरुषो के हाथ में होती है । खियों की तुलना में पुरुषों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति उच्च होती है । साधारणतया जनजातीय समाज में स्त्रियों की संख्या अधिक होने पर इस प्रकार के परिवार दिखाई पड़ते है । मुसलमानों में ऐसे परिवार अधिक पाये जाते हैं क्योंकि उन्हें एक से अधिक पत्नियाँ रखने की धार्मिक स्वीकृति प्राप्त है । हिन्दुओं में 1955 के विवाह – कानून पारित होने के कारण ऐसे परिवारों पर रोक लग गई है । किन्तु आज भी बहुपति की अपेक्षा बहपत्नी विवाही परिवारों की संख्या अधिक है ।
बहुपति विवाही परिवार ( Polyandrous Family ) इस प्रकार के परिवार में एक स्त्री के कई पति होते हैं । वर्तमान समय में ऐसे परिवार का प्रचलन जौनसार बाबर क्षेत्र ( देहरादून ) की खस और नीलगिरि की टोड जनजाति में पाया जाता है । यदि स्त्री के सभी पति आपस में भाई – भाई होते हैं तो इसे घातक बहुपति विवाही परिवार ( Fraternal Polyandrous family ) कहा जाता है और यदि उनमें भाई – भाई अथवा रक्त – सम्बन्ध नहीं होता , तब इसे अभ्रातृक बहुपति विवाही परिवार ( Non – Fraternal Polyandrous family ) कहा जाता है । इस प्रकार के परिवारों में स्त्रियों अपने पतियों के घर नहीं जाती । अत : ये परिवार सामान्य तौर पर मातस्थानीय एवं मातृवंशीय भी होते है । अभातक बहपति विवाही परिवारों में पुरुष स्त्री की इच्छा पर एक साथ अथवा अलग – अलग अवसरों पर स्त्री के घर जाते हैं । बहुपति विवाही परिवार का प्रचलन उस समाज में होता है जहाँ स्त्रियों की संख्या पुरुषों की तुलना में बहुत कम होती है ।
समूह विवाही परिवार ( Punaluan Family ) – जब कई भाई या कई पुरुष मिलकर कई स्त्रियों के साथ विवाह करते हैं तब इस तरह का परिवार समूह विवाही परिवार कहलाता है । ऐसे परिवार में सब पुरुष सभी स्त्रियों के समान रूप से पति होते हैं ।
सत्ता के आधार पर परिवार के भेद ( Types of Family on the basis of Authority )
पितृसत्तात्मक परिवार ( Patriarchal Family ) इस प्रकार के परिवार में पिता ही परिवार का प्रधान होता है । परिवार के समस्त विषयों के सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय पिता एवं पुरुष लेता है । परिवार के अन्य सदस्य उसकी आज्ञा का पालन करते हैं । सामान्य तौर पर पितृसत्तात्मक परिवार पितृस्थानीय एवं पितृवंशीय परिवार होता है । विवाह के बाद पत्नी अपने पति के घर पर निवास करती है । सम्पत्ति का अधिकार पिता से पुत्र को हस्तांतरित होता है । भारत में अधिकांश परिवार पितृसत्तात्मक ही है । हिन्दुओं में खासकर ऐसे परिवार अधिक होते हैं ।
मातृसत्तात्मक परिवार ( Matriarchal Family ) – इस प्रकार के परिवार में स्त्रियाँ ही सर्वोपरि होती है । परिवार में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की स्थिति ऊँची होती है । परिवार के सम्बन्ध में सभी विषयों पर अन्तिम निर्णय स्त्रियाँ ही लेती हैं और वह निर्णय सभी सदस्यों को मान्य होता है । ऐसे परिवार में प्राय : स्त्रियों शादी के बाद अपने पति के घर नहीं जाती , बल्कि पुरुष ही पत्नी के घर आकर रहता है । किसी भी विषय में निर्देशन एवं नियन्त्रण माता के द्वारा होता है । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि पुरुष सभी अधिकारों से वंचित रहते हैं । पुरुषों के लायक जो काम होते हैं उन्हें पुरुष करते हैं । मातृसत्तात्मक परिवार मातृवंशीय एवं मातृस्थानीय परिवार भी होता है । मातृसत्तात्मक परिवार में सम्पत्ति माता से पुत्री को हस्तान्तरित होती है । पुरुष का सम्पत्ति पर हक नहीं होता । इस तरह के परिवार में पुरुष को हक मिलता है , लेकिन वह पुरुष स्त्री का पति न होकर उसका भाई होता है । पुरुष को अधिकार अपने माता – पिता से न मिलकर अपनी बहन से प्राप्त होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे परिवारों में स्त्री अथवा माता की प्रधानता होती है । असम की खासी जनजाति में मातृसत्तात्मक परिवार का प्रचलन है । गारो तथा मालाबार के नायरों में मातृसत्तात्मक परिवार पाये जाते हैं । ऐसे परिवार में स्त्रियों की सामाजिक आर्थिक स्थिति पुरुषों से ऊँची होती है ।
वंश के आधार पर परिवार के भेद ( Types of Family on the basis of Descent)
पितृवंशीय परिवार ( Patrilineal Family ) – पितवंशीय परिवार पिता के वंश के नाम से चलता है । विवाह के बाद स्त्रियाँ अपने पतियों के उपनाम को ग्रहण है । । हिन्दओं का परिवार पितृवंशीय परिवार होता है । है
मातृवंशीय परिवार ( Matrilineal Family ) – मातृवंशीय परिवार माता के वंश के नाम से चलता है । इसमें पिता के वंश का कोई महत्त्व नहीं होता । स्त्रियों एवं माताओं के उपनाम से उनके बच्चे जाने जाते हैं । ऐसे परिवार में स्त्रियाँ शादी के बाद अपने पति के घर नहीं जाती , बल्कि पुरुष ही पत्नी के घर पर निवास करता है । वंशनाम माँ से पुत्रियों को प्राप्त होता है । मालाबार के नायरों में ऐसे परिवार का प्रचलन है । यहाँ माता के वंश का अधिक महत्त्व होता है ।
स्थान के आधार पर परिवार के भेद ( Types of Family on the basis of Locality )
पितस्थानीय परिवार ( Patrilocal Family ) – पितृस्थानीय परिवार में परिवार के सभी सदस्य पिता अथवा पुरुष के निवास स्थान पर रहते है । विवाह के बाद पत्नी अपने पति के घर चली जाती है । परिवार की निवास – परम्परा पिता या पुरुष अधिकारी के तरफ से चलती है । हिन्दुओं , मुसलमानों एवं भील , खड़िया जनजातियों में इस तरह के परिवार का प्रचलन है । ऐसा परिवार पितृसत्तात्मक एवं पितृवंशीय भी होता है ।
मातृस्थानीय परिवार ( Matrilocal Family ) – मातृस्थानीय परिवार में परिवार के सभी सदस्य माता अथवा स्त्री के निवास स्थान पर रहते हैं । शादी के बाद पत्नी अपने पति के घर नहीं जाती , बल्कि पति ही पत्नी के निवास स्थान पर आकर रहने लगता है , इस प्रकार का परिवार मातृवंशीय एवं मातृ – सत्तात्मक भी होता है । भारत में मालाबार के नायरों , खासी एवं गारो जनजातियों में मातृस्थानीय परिवार पाया जाता है । ( iii ) नव स्थानीय परिवार ( Neo – Local Family ) – ऐसे परिवार न तो पति के निवास स्थान पर और न पत्नी के निवास स्थान पर बसते है बल्कि ये दोनों से अलग स्थान पर बसते हैं । आधुनिक युग में रोजगार , नौकरी तथा औद्योगिक केन्द्रों में जहाँ व्यक्ति काम करता है वहाँ ऐसे परिवार बसते हैं । उदाहरणस्वरूप आजकल का शहरी परिवार , व्यक्ति को इन्हें जहाँ काम मिलता है वहीं बस जाते हैं ।
सम्बन्ध के आधार पर परिवार के भेद ( Types of Family on the basis of Relations )
समान रक्त परिवार ( Consanguineous Family ) – इस प्रकार के परिवार में एक ही रक्त के व्यक्ति आपस में विवाह सम्बन्ध स्थापित करते हैं । इसलिए यह समान रक्त परिवार कहा जाता है । मुसलमानों में इस प्रकार का परिवार देखने को मिलता है ।
सहयोगी परिवार ( Conjugal Family ) – सहयोगी परिवार में विभिन्न रक्त के व्यक्ति पति – पत्नी का सम्बन्ध स्थापित करते हैं । इसलिए यह सहयोगी परिवार कहलाता है । इस प्रकार का परिवार सुप्रजनन शास्त्र की दृष्टि से अच्छा माना जाता है । हिन्दुओं में ऐसे ही परिवार का प्रचलन है । अन्य सभ्य समाज में भी सहयोगी परिवार का प्रचलन है
परिवार के कार्य एवं महत्त्व ( Functions and Importance of Family )
परिवार एक अनोखा संगठन है । इसका निर्माण स्वत : होता है और यह मानव के लिए अनिवार्य भी है । परिवार के द्वारा व्यक्ति के ऐसे कार्यों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति होती है , जिनकी पूर्ति अन्य संगठनों के द्वारा सम्भव नहीं है । इसलिए मानव – जीवन में परिवार का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । प्राचीनकाल से ही परिवार के महत्त्व को स्वीकार किया गया है । आज तक कोई भी ऐसा संगठन नहीं बना है , जो परिवार का स्थान ले सके । अतः यह अपरिहार्य ( Indispensible ) है । परिवार के विभिन्न कार्यों के फलस्वरूप मानव आज सभ्यता के शिखर पर पहुँच सका है । यहाँ परिवार के महत्त्वपूर्ण कार्यों का उल्लेख किया जा रहा है ।
सामाजिक कार्य ( Social Functions ) – परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई है । समाज की एक मौलिक इकाई के रूप में यह अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों को सम्पन्न करता है । पहला , समाजीकरण – व्यक्ति को जैवकीय प्राणी से । सामाजिक प्राणी में बदलने की प्रक्रिया ही समाजीकरण की प्रक्रिया है । समाजीकरण की प्रक्रिया परिवार से ही शुरू होती है । माता – पिता बच्चों का लालन – पालन करते हैं तथा उसे समाज के रीति – रिवाजों एवं आदर्शों से परिचित कराते हैं । बच्चे अपने माता – पिता को जैसा करते हुए देखते हैं , उसका अनुकरण करते हैं । धीरे – धीरे बच्चे समाज के नियमों को सीख जाते हैं और सामाजिक प्राणी के रूप में क्रियाशील हो जाते हैं । दूसरा , सामाजिक नियन्त्रण – प्रत्येक समाजके अपने नियम एवं तौर – तरीके होते हैं । समाज अपने सदस्यों से यह अपेक्षा करता है कि वह इन तौर – तरीकों के अनुसार व्यवहार करे मानव स्वभाव से ऐसा प्राणी है , जो जरा – सी छूट मिलने पर मनमानी करने लगता है । यदि प्रत्येक व्यक्ति मनमाना ढंग से कार्य करने लगे , तो समाज में अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी । अत : समाज अपने सदस्यों के व्यवहारों के ऊपर प्रतिबन्ध लगाता है , जिससे वे नियमों के अनुसार कार्य करें । इसके लिए समाज विभिन्न साधनों के द्वारा व्यक्तियों के व्यवहारों पर दबाव डालता है । सामाजिक नियन्त्रण के साधनों में परिवार एक प्रमुख साधन है । जब व्यक्ति समाज के अनुकूल कार्य करता है , तब उसकी परिवार के द्वारा सराहना होती है । यदि व्यक्ति समाज के प्रतिकूल कार्य करता है , तब उसे परिवार के लोग मान्यता नहीं देते । अत : वह सामाजिक रीति – रिवाजों के अनुकूल कार्य करने के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित होता है ।
सांस्कृतिक कार्य ( Cultural Functions ) – सांस्कृतिक तत्त्वों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अम्विार करता है । बच्चे परिवार में ही अपनी संस्कृति से अवगत होते हैं । परिवार में बड़े – हालाधा मातापिताकृतिक विशेषताओं को सीखते हैं और फिर नयी पीढ़ी को सीखाते हैं । इससे एक पीढ़ी की संस्कृति दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होती है और इसका प्रवाह बना रहता है । परिवार अपने सदस्यों को सांस्कृतिक विशेषताओं को सिखाने का प्रयत्न करता है । अतः जैसी संस्कृति होती है उसके अनुसार ही एक व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण होता है ।
मनोवैज्ञानिक कार्य ( Psychological Functions ) – परिवार का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य अपने सदस्यों को मानसिक सुरक्षा तथा संतोष प्रदान करना है । मानव – जीवन के लिए शारीरिक सुरक्षा के साथ – साथ मानसिक सुरक्षा भी आवश्यक है । परिवार के सदस्यों के बीच प्रेम , सहानुभूति , त्याग , धैर्य तथा सद्भाव पाया जाता है । इससे व्यक्ति को भावनात्मक सरक्षा मिलती है । सुख – दुख में भी वे एक – दूसरे को काफी सहयोग देते है । उन्हें कभी अकेलापन नहीं महसस होता । इससे व्यक्ति को मानसिक संतोष मिलता है । अन्य समूहों में व्यक्ति अपने – आपको मानसिक रूप से निश्चित नहीं कर पाता और न उसे मानसिक संतुष्टि मिल पाती है ।
मनोरंजन का कार्य ( Recreational Function ) – परिवार मनोरंजन का केन्द्र है । परिवार के अन्तर्गत सभी सदस्यों का मनोरंजन हो जाता है । छोटे – छोटे बच्चे शाम में दादी – नानी से कहानियाँ सुनते हैं , इससे उनका मनोरंजन हो जाता है । युवा व्यक्ति जब बाहर से थके हुए घर लौटते है तो छोटे – छोटे बच्चों की तुतली आवाज से उनकी आधी थकान दूर हो जाती है । परिवार के अन्तर्गत पर्व – त्योहार , भजन – कीर्तन आदि के द्वारा भी लोगों का मनोरंजन हो जाता है । परिवार में सभी सदस्य अपने – अपने ढंग से अपना मनोरंजन करते हैं । ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में परिवार समान रूप से मनोरंजन के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण होता है । अब टेलीविजन के प्रचलित होने से सभी सदस्य एक साथ उसका आनन्द लेते हैं । आज भी परिवार मनोरंजन के कार्य को पहले जैसा ही पूरा कर रहा है । इसके अतिरिक्त राजनैतिक क्षेत्रों में भी परिवार की भूमिका है । आदर्श नागरिक बनाने का कार्य परिवार का ही होता है । वोट देने के सम्बन्ध में भी परिवार अपने सदस्यों को निर्देश देता है । परिवार अपने सदस्यों को धार्मिक शिक्षा भी देता है । प्रत्येक परिवार में कोई – न – कोई धर्म अवश्य माना जाता है । इसके सम्बन्ध में परिवार सदस्यों को ज्ञान कराता है जिससे उनका जीवन नैतिक तथा पवित्र होता है ।
जैवकीय कार्य ( Biological functions ) – जैवकीय कार्य में परिवार तीन महत्त्वपूर्ण कार्य करता . सम्यची आवश्यकताओं की पूर्ति – परिवार ही ऐसा स्थान है जहाँ सामाजिक स्वीकृति से की पूर्ति होती है । यदि व्यक्ति मनमाने ढंग से अपनी यौन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगे . तो समाज में अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी । मानव मानव न रह कर पशु सदृश
बन जायेगा । परिवार अपनी विवाह संस्था के द्वारा स्त्री – पुरुष के यौन सम्बन्धी व्यवहारों को नियमित करता है तथा समाज में व्यवस्था बनाये रखता है । दूसरा , सन्तानोत्पत्ति – – परिवार में यौन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति मात्र ही नहीं होती , बल्कि सन्तान की उत्पत्ति का कार्य भी होता है । परिवार में उत्पन्न सन्तान को ही समाज मान्यता देता है । सन्तान की उत्पत्ति से समाज की निरन्तरता बनी रहती है । इस प्रकार परिवार सन्तानोत्पादन के द्वारा समाज के अस्तित्व को बनाये रखने का कार्य करता है । तीसरा , प्रजातीय तत्त्वों की निरन्तरता – परिवार के द्वारा मानव अपने प्रजातीय तत्त्वों की निरन्तरता को बनाये रखता है । सन्तान की उत्पत्ति के फलस्वरूप ही मानव – जाति अमर हो पायी है । इस प्रकार प्रजातीय तत्त्वों को जीवित रखने का कार्य परिवार करता है ।
शारीरिक सुरक्षा सम्बन्धी कार्य ( Functions related toPhysical Security ) – जैवकीय कार्यों के अतिरिक्त परिवार अपने सदस्यों की शारीरिक सरक्षा सम्बन्धी कार्य भी करता है । इसके अन्तर्गत कई तरह के कार्य आते है पहला , शारीरिक रक्षा – परिवार के अन्तर्गत बूढ़े , असहाय , अनाथ , विधवा तथा रोगी सदस्यों को शारीरिक सुरक्षा मिलती है । परिवार का कोई सदस्य अपंग एवं अपाहिज हो जाता है तो उसे परिवार से निकाला नहीं जाता , यदि माता – पिता की मृत्यु हो जाती है तो उनके बच्चे असहाय नहीं होते बल्कि अन्य सदस्य उनकी देख – भाल करते है । पति की अस्वाभाविक मृत्यु पर महिलाओं को दर – दर भटकना नहीं पड़ता । परिवार के अन्य सदस्य उसे सहारा देते है । इस प्रकार हम देखते है कि परिवार अपने सदस्यों की शारीरिक रक्षा सम्बन्धी कार्य करता है । अन्य किसी समूह अथवा संगठन में व्यक्ति को इस प्रकार की सुरक्षा नहीं मिलती । दूसरा , बच्चों का लालन – पालन – बच्चा जब जन्म लेता है तब वह सिर्फ हाड़ – मांस का एक पुतला होता है । परिवार में माता – पिता उसे पाल – पोषकर तैयार करते हैं । यदि परिवार न हो तो बच्चों का पालन – पोषण कठिन हो जायेगा । अन्य प्राणियों की तुलना में मानव के बच्चे को अपने पैरों पर खड़ा होने में काफी दिन लगते है । ऐसी स्थिति में परिवार में उसके भरण – पोषण का कार्य होता है । माता – पिता के अतिरिक्त बड़े – बूढ़े भी बच्चों की देख – रेख करते है । तीसरा , भोजन की व्यवस्था – शरीर के अस्तित्व एवं उसकी कार्यकुशलता के लिए भोजन अति आवश्यक है । परिवार अपने सदस्यों के लिए भोजन की व्यवस्था का कार्य करता है । यह कार्य परिवार आदिकाल से करता आ रहा है । इस प्रकार परिवार का प्रमुख कार्य अपने सदस्यों के लिए भोजन की व्यवस्था करना है । इसके बिना न तो व्यक्ति जीवित रह सकता और न समाज की रचना ही सम्भव है । चौथा , निवास की व्यवस्था – परिवार अपने सदस्यों के लिए निवास की व्यवस्था करता है । निवास का प्रबन्ध होने पर व्यक्ति का शरीर सर्दी , गर्मी तथा वर्षा से सुरक्षित रहता है । परिवार द्वारा निवास की व्यवस्था होने से व्यक्ति ज्यादा सुरक्षित महसूस करता है । पाँचवाँ , वस्त्र की व्यवस्था – रहने के प्रबन्ध के साथ – साथ वस्त्रों का प्रबन्ध होना भी आवश्यक है । जाड़े के दिनों में गर्म कपड़े तथा गर्मी के मौसम के लिए हल्के कपड़ों का प्रबन्ध परिवार द्वारा किया जाता है । इससे स्पष्ट होता है कि मौसम के अनुकूल वस्त्रों की व्यवस्था करना परिवार का कार्य है ।
आर्थिक कार्य ( Economic Functions ) – परिवार एक आर्थिक इकाई होता है । समाज में परिवार के द्वारा ही आर्थिक साधनों का उपयोग होता है । आर्थिक क्षेत्र में भी परिवार के द्वारा महत्त्वपूर्ण कार्य होते रहते पहला , उत्पादन इकाई – उत्पादन का कार्य परिवार के द्वारा होता है । आदिम समाज एवं ग्रामीण समाज में अब भी परिवार आर्थिक उत्पादन का केन्द्र है । परिवार के सारे सदस्य मिलकर आर्थिक क्रियाओं में हिस्सा लेते हैं । शहरी एवं औद्योगिक क्षेत्रों में आर्थिक उत्पादन की इकाई के रूप में परिवार का महत्व घटने लगा है , किन्तु आज भी सरल समाज में इसका महत्त्व है । दूसरा , श्रम – विभाजन – परिवार अपने सदस्यों के बीच श्रम – विभाजन का कार्य करता है । आदिम समाज में परिवार अपने सदस्यों के बीच उग्र एवं लिंग भेद के आधार पर कार्यों का बँटवारा करता था । प्रायः स्त्रियाँ घर तथा बच्चों की देख – भाल करती थी और पुरुष शिकार एवं बाहर का कार्य सम्भालते थे । बच्चे छोटे – मोटे कार्य
करते थे तथा बड़े – बूढ़े दायित्व वाले कार्य सम्पन्न करते थे । आज भी परिवार में कार्यों का बँटवारा होता है । जो व्यक्ति जिस कार्य के लायक होता है उसे वही कार्य सौंपा जाता है । प्राय : स्त्रियाँ घर का कार्य करती है तथा पुरुष बाहर का कार्य करते हैं । तीसरा , उत्तराधिकार का निर्धारण – सम्पत्ति के उत्तराधिकार का निर्धारण परिवार के द्वारा होता है । प्रत्येक समाज के अपने नियम होते है । परिवार समाज की संस्कृति एवं उसके आदर्शों के मुताबिक सम्पत्ति का हस्तान्तरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के सदस्यों में करता है । कहने का तात्पर्य यह है कि परिवार यह निश्चित करता है कि सम्पत्ति का वास्तविक उत्तराधिकारी कौन है । मातृसत्तात्मक मातवंशीय एवं मातस्थानीय परिवारों में सम्पत्ति माता से पुत्री को मिलती है । ठीक इसके विपरीत पितृसत्तात्मक , पितृवंशीय एवं पितृस्थानीय परिवारों में सम्पत्ति पिता से पुत्र को प्राप्त होती है । इस प्रकार सम्पत्ति के उत्तराधिकार सम्बन्धी कार्य परिवार करता आ रहा है । चौथा , आय तथा सम्पत्ति का प्रवन्ध – परिवार में आय तथा सम्पत्ति का भी प्रबन्ध होता है । परिवार का मुखिया ही यह निश्चित करता है कि आमदनी को किस मद में और कितना खर्च किया जायेगा । सम्पत्ति बनानी है तो उसका स्वरूप क्या होगा , अर्थात् वह नगद होगा या जेवर अथवा जमीन । कहने का मतलब यह है कि परिवार अपनी आय को उचित ढंग से व्यय करने का प्रबन्ध करता है ।
बीयरस्टीड ( Bierstedt ) ने परिवार के कार्यों को और अधिक स्पष्ट करने के लिए उसे दो भागों में बाँटा है । परिवार जो कार्य करता है उसमें वह कुछ कार्य व्यक्ति के लिए करता है तो कुछ समाज के लिए । एक के लिए किये गये कार्य दूसरे को भी प्रभावित करते हैं । इनके द्वारा किये गये कार्यों को निम्नलिखित ढंग से समझा जा सकता है व्यक्ति के लिए कार्य
1.जीवन के लिए सुविधाएँ प्रदान करना । समाज के लिए कार्य
2.प्राणियों का पुनरोत्पादन एवं निरन्तरता बनाये रखना ।
3.यौन सम्बन्धी नियन्त्रण ।
4.जीविका प्रदान करना ।
5.सांस्कृतिक हस्तान्तरण ।
6.सामाजिक पद प्रदान करना ।
- यौन सम्बन्धी अवसर प्रदान करना ।
8.सुरक्षा तथा समर्थन प्रदान करना ।
9.समाजीकरण ।
10.व्यक्ति की सामाजिक पहचान
परिवार की समस्याएँ ( Problems of Family )
वर्तमान समय में परिवार में कुछ ऐसे परिवर्तन हुए हैं जिससे इसके सामने कई समस्याएँ उत्पन्न हुई है । ये समस्याएँ सिर्फ सामाजिक जीवन को ही नहीं , बल्कि परिवार के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगाया है । परिवार के सदस्यों के बीच बन्धन कमजोर पड़ने लगे है । ये लोग बाहरी तौर पर साथ दिखते हुए भी आन्तरिक रूप से दूर हो जाते हैं । इन सब बातों से परिवार के सदस्यों के दृष्टिकोणों , मूल्यों तथा विचारों में परिवर्तन हुआ है । परिणामस्वरूप , परिवार बिखर रहा है , यही पारिवारिक विघटन सामाजिक विघटन की स्थिति उत्पन्न करता है । इलियट एवं मेरिल ने लिखा है – पारिवारिक विघटन में परिवार के सदस्यों के मध्य पाये जाने वाले बन्धना का शिथिलता , असामंजस्यता एवं पृथक्करण संभव होता है । अर्थात परिवार के लोगों के बीच अल्बाद की भावना उभरने लगती है तथा असामंजस्य की स्थिति उत्पन्न होती है , जो पारिवारिक विघटन कहलाती है ।
मार्टिन न्यूमेयर ने बताया कि पारिवारिक विघटन एक स्थिति है , जिसमें परिवार के सदस्यों के बाच एकमत समाप्त हो जाता है , आत्मत्याग , सहयोग तथा प्रेम जैसी भावनाएँ नहीं पायी जाती । वे लोग एक – दूसरे स । अलग महसूस करते हैं । उनके बीच पारिवारिक सजगता समाप्त हो जाती है । आज परिवार के सामने कुछ प्रमुख समस्याएँ इस प्रकार है
व्यक्तिवादिता एवं स्वार्थ की भावना में वृद्धि – आधुनिक युग व्यक्तिवादिता एवं स्वार्थ का युग है । पारिवारिक जीवन का आधार स्वार्थ नहीं , बल्कि त्याग एवं बलिदान होता है । आज लोग स्वार्थी हो गये हैं । लोग सामान्य हित तथा लाभ की बात न सोचकर व्यक्तिगत हित और लाभ की बात सोचते हैं । ऐसे में परिवार में सदस्यों के बीच अपनापन एवं घनिष्ठता में कमी आने लगी है , पारिवारिक बन्धन कमजोर पड़ने लगे हैं , साथ – साथ नातेदारी का भी बन्धन ढीला पड़ता जा रहा है । परिणामस्वरूप परिवार में विभिन्न प्रकार की समस्यायें उत्पन्न हो रही है । व्यक्ति संयुक्त परिवार से अलग होकर एकाकी परिवार में रुचि लेने लगा है ।
भौतिक सुख – सुविधाओं की होड़ – नगरीकरण , औद्योगीकरण तथा व्यवसायों की बहुलताओं ने लोगों के सामने विभिन्न प्रकार के अवसर प्रदान किये है वहीं दूसरी ओर सामान्य जीवन – शैली को भी प्रभावित किया है । आज पति – पत्नी कॉरपोरेट हाउस में काम करते हैं । वहाँ उनके काम करने की कोई अवधि निश्चित नहीं होती । देर शाम या रात तक जब वे घर वापस आते हैं तब आपस में तथा बच्चों के साथ संवाद पर्याप्त नहीं हो पाता । बच्चों को अपने माता – पिता से जो देखभाल एवं लाड़ – प्यार मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाता । इनके बच्चे आया . . क्रेच , बेबी सिटिंग तथा बोर्डिंग स्कूलों के सहारे पलते एवं बड़े होते हैं । ऐसे बच्चों में उस तरह के भावनात्मक । सम्बन्धों का विकास नहीं होता जैसा कि परिवार के सदस्यों के बीच पलो वाले बच्चों में होता है ।
तलाक की समस्या – वर्तमान परिवार में विवाह के आधार में मौलिक परिवर्तन हुआ है । पहले विवाह एक धार्मिक संस्कार माना जाता था . किन्त आज यह समझौता बन गया है । इससे विवाह सम्बन्ध कमजोर पड़न लगा है और पति – पत्नी के बीच विवाह – विच्छेद की सम्भावनाएँ बढ़ गई है । जनगणना के आँकड़े बताते है कि भारत में विवाह विच्छेद की प्रक्रिया में तेजी आयी है । पहले तलाक निम्न जातियों तक सीमित था किन्तु आज यह समाज के हर वर्ग में पाया जा रहा है । विवाह – विच्छेद से परिवार का संगठन कमजोर हो जाता है और अन्त में विघटन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।
परिवार का सीमित आकार दिनोदिन परिवार का आकार छोटा होता जा रहा है । प्राचीन एवं ग्रामीण भारत में संयुक्त परिवार प्रणाली का प्रचलन था । औद्योगीकरण , नगरीकरण , आधुनिक शिक्षा तथा नारी मुक्ति आन्दोलन के फलस्वरूप संयुक्त परिवार प्रणाली के प्रति लोगों की आस्था में कमी आने लगी है । रोजगार एवं व्यवसाय के अवसरों में बहुलता होने से लोग विभिन्न क्षेत्रों में जाकर काम करने लगे । इस प्रकार के गतिशीलता के परिणामस्वरूप संयुक्त परिवार टूटने लगा है और परिवार का स्वरूप पति – पत्नी और उनके बच्चे तक सीमित हो गया ।
वैकल्पिक संस्थाओं का विकास समाज में आज ऐसी बहुत – सी संस्थाओं का उदय हुआ है जो परिवार के परम्परागत कार्यों को बाखूबी करती हैं । यौन सम्बन्धी इच्छाओं की पूर्ति , बच्चों का लालन – पालन तथा सामाजिक सुरक्षा जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति अब सिर्फ परिवार में न होकर परिवार से बाहर भी हो रहे हैं । इससे परिवार के सदस्यों के बीच संवेगात्मक व भावनात्मक सम्बन्धों का अभाव होता है । अन्त में यह पारिवारिक विघटन की स्थिति उत्पन्न कर देता है ।
सामाजिक मूल्यों की भिन्नता परिवार के विभिन्न सदस्यों के जब मूल्य अलग – अलग होते है तब पारिवारिक विघटन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । वर्तमान युग में प्रत्येक परिवार में नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच सामाजिक मूल्यों के सम्बन्ध में संघर्ष देखने को मिलता है । घर के बड़े – बुजुर्ग अपने समय के पुरानी परम्पराओं , आदर्शों एवं मूल्यों को मानने पर बल देते हैं , जबकि नई पीढ़ी के युवा इन्हें बेकार , अतार्किक एवं अनुपयोगी समझते हैं । इस प्रकार के संघर्ष पारिवारिक विघटन की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं ।
उपर्युक्त समस्याओं के अलावे आज के परिवार के सामने एक और गंभीर समस्या है – वृद्धावस्था और = विकलांगता । बड़े परिवार में बीमार , लाचार , अपाहिज , अनाथ , विधवा एवं बेसहारा व्यक्तियों की देखभाल की जिम्मेदारी व्यक्ति विशेष पर न होकर सामूहिक जिम्मेदारी समझी जाती थी । वृद्ध व्यक्ति और विकलांग सभी 2 लोगों के साथ सामान्य जीवन व्यतीत करते थे । उनके जीवन में सूनापन , खालीपन तथा तिरस्कार की भावना का अभाव पाया जाता था । वे सदस्यों से अपने प्रति प्रेम एवं सहानुभूति की भावना का अनुभव करते थे जो उन्हें जीने के लिए , खुश रहने के लिए तथा व्यस्त रहने के लिए प्रेरणा देते है
विवाह
( Marriage )
विवाह के अलग – अलग समाजों में अलग – अलग उददेश्य हैं : जैसे – ईसाई धर्म में प्रमुख उद्देश्य यौन सन्तुष्टि है तो हिन्दू समाज में धर्म की रक्षा करना या धार्मिक संस्कार करना , मुस्लिम समाजों में विवाह का उद्देश्य वैध सन्तानोत्पत्ति को जन्म देना वहीं जनजातीय उद्देश्य साथ – साथ रहने का सामाजिक समझौता है । परन्तु समाजशास्त्रीय उद्देश्य स्त्री और पुरुष को एक प्रस्थिति देकर उसके अनुसार , भूमिकाओं का निर्वहन करना है । विवाह स्त्री – पुरुष के बीच मिलन की एक व्यवस्था है । यह मिलन सामाजिक स्वीकृति पर आधारित है , जो विविध संस्कारों एवं समारोहों द्वारा सम्पन्न होता है । इस व्यवस्था में संतुलन के लिए पति व पत्नी को अपने जीवन में अनेक भूमिकाओं ( कार्यों ) का निर्वाह करना होता है । कुछ प्रमुख परिभाषाओं के माध्यम से इसके अर्थ को और अधिक स्पष्ट रूप में जाना जा सकता है , विवाह की परिभाषाएँ :
बोगार्ड्स ” विवाह स्त्री और पुरुष के पारिवारिक जीवन में प्रवेश कराने की संस्था है । “
वेस्टरमार्क ( E . Westermarck ) के शब्दों में , “ विवाह एक या अधिक पुरुषों और स्त्रियों का सम्बन्ध है जो प्रथा या कानून द्वारा मान्य होते हैं तथा इस संगठन में आनेवाले दोनों पक्षों तथा उनसे उत्पन्न बच्चों के अधिकार एवं कर्तव्यों का समावेश होता है । ” इस परिभाषा ने चार तथ्यों को उजागर किया है – ( क ) विवाह स्त्री और पुरुष के बीच का सम्बन्ध है , ( ख ) इस सम्बन्ध को प्रथा या कानून द्वारा मान्यता प्रदान की जाती है , ( ग ) विवाह सम्बन्ध एक स्त्री और एक पुरुष के बीच हो सकता है या एक पुरुष का कई स्त्रियों से या एक स्त्री का कई पुरुषों से या कई स्त्रियों का कई पुरुषों से हो सकता है , और ( घ ) पति – पत्नी एवं बच्चों के बीच अधिकार और कर्तव्य के सम्बन्ध होते हैं ।
आर० लावी ( R . Lowie ) के अनुसार , “ विवाह उन स्वीकृत संगठनों को प्रकट करता है जो यौन सम्बन्धों की सन्तुष्टि के पश्चात भी अस्तित्व में रहता है तथा बाद में पारिवारिक जीवन की आधारशिला के रूप में आता है । ” इस परिभाषा से चार बातों का पता चलता है — ( क ) विवाह एक संगठन है जिसमें स्त्री – पुरुष पति – पत्नी के रूप में मिलते हैं , ( ख ) यह संगठन समाज द्वारा स्वीकृत होता है , ( ग ) यह यौन सन्तुष्टि का जायज माध्यम है , और ( घ ) यह पारिवारिक जीवन में प्रवेश का आधार है ।
गिलिन एवं गिलिन ( Gillin and Gillin ) ने लिखा है , “ विवाह एक प्रजननमूलक परिवार की संस्थापना की समाज द्वारा ( मान्यता प्राप्त ) विधि है । ” इस परिभाषा में तीन बातों का उल्लेख है — ( क ) विवाह स्त्री – पुरुष को मिलाने की एक विधि है ,
मजूमदार एवं मदान ” विवाह को कानूनी , धार्मिक तथा सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है . इसके द्वारा दो विभिन्न लिग के व्यक्तियों को यौन सम्बन्ध स्थापित करने की मान्यता प्रदान की जाती है ।
” जॉनसन ” विवाह एक स्थायी सम्बन्ध है जिसमें एक पुरुष और एक स्त्री समुदाय में अपनी प्रतिष्ठा को खोए बिना सन्तान उत्पन्न करने की सामाजिक स्वीकृति प्राप्त करते हैं । “
मरडॉक ” एक साथ रहते हुए नियमित यौन सम्बन्ध और आर्थिक सहयोग रखने को विवाह कहते हैं । “
गिलिन एवं गिलिन ” विवाह एक प्रजनन मूलक परिवार की स्थापना के लिए समाज स्वीकत माध्यम है । “
मैलिनोवस्की ” विवाह को एक संविदा के रूप में परिभाषित किया है । ”
लोवी ” विवाह को जायज साथियों की अपेक्षा पक्का सम्बन्ध कहा है । ” ” विवाह ही नातेदारी व्यवस्था का फाउण्टेन पेन हेड है । “विवाह केवल यौन सम्बन्ध बनाने को नहीं बल्कि पितृत्व बनने की लाइसेन्सिंग व्यवस्था है ।
”
लसी मेयर “ विवाह स्त्री – पुरुष का एक ऐसा योग है जिसमें स्त्री से जन्मी सन्तान माता – पिता की वैध सन्तान मानी जाती है । ” ” विवाह बच्चों की उत्पत्ति और देखभाल हेतु इकरार नामा है । “
आगेंस्ट एण्ड ग्रोवजी ” विवाह संगी बनकर रहने की सार्वजनिक स्वीकृति तथा कानूनी पंजीकरण है । ” रिवर्स ” जिन साधनों द्वारा मानव समाज यौन सम्बन्धों का नियमन करता है , उन्हें विवाह की संज्ञा दी जा सकती है । “
विवाह की विशेषताएँ :
–सामाजिक सुरक्षा
–संस्कृति का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरण
– वैध सन्तानोत्पत्ति
– . माता – पिता एवं बच्चों में नवीन अधिकारों , दायित्वों एवं भूमिकाओं को जन्म देना
-. यह धार्मिक , सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्देश्यों की पूर्ति करता है । वेस्टरमार्क ने विवाह को एक सामाजिक संस्था के अतिरिक्त एक आर्थिक संस्था भी माना है ।
– विवाह दो विषमलिगियों का सम्बन्ध है ।
.- विवाह एक सार्वभौमिक सामाजिक संस्था है ।
– इसके माध्यम से विवाह सम्बन्धों का नियमन करता है ।
-. बच्चों का पालन – पोषण एवं समाजीकरण
– आर्थिक सहयोग
– मानसिक सुरक्षा
विवाह के उद्देश
मरडॉक इन्होंने 250 समाजों का तुलनात्मक अध्ययन करके विवाह के तीन उद्देश्य बताए हैं
( i) यौन सन्तुष्टि
( ii ) आर्थिक सहयोग
( iii ) बच्चों का पालन – पोषण एवं समाजीकरण •
गिलिन एवं गिलिन इन्होंने विवाह के पाँच उद्देश्य बताए हैं ।
( i ) यौन सम्बन्धों का नियमन
( ii ) सन्तानोत्पत्ति
( iii ) आर्थिक सहयोग
( iv ) भावनात्मक सम्बन्ध
( v ) वंश एवं नातेदारी की स्थापना
मैलिनोवस्की इन्होंने विवाह के तीन उद्देश्य बताए हैं
( i ) प्राणिशास्त्रीय उद्देश्य
( ii ) सांस्कृतिक उद्देश्य
( iii ) मनोवैज्ञानिक उद्देश्य रॉबिन फॉक्स इन्होंने भी निम्न तीन उद्देश्य बताए हैं
( i v) वैध यौन सन्तुष्टि
( v ) संस्कृति की रक्षा
( vi ) भावनात्मक सन्तुष्टि
मजूमदार एवं मदान इन्होंने निम्न चार उद्देश्य बताए हैं ।
( 1 ) घर की स्थापना
( ii ) लैंगिक सम्बन्धों में प्रवेश
( iii ) प्रजनन
( iv ) बच्चों का पालन – पोषण
मजूमदार एवं मदान ने उद्देश्यों की चर्चा करते हुए लिखा है कि ” विवाह से वैयक्तिक स्तर पर या शारीरिक स्तर पर यौन सन्तुष्टि और मनोवैज्ञानिक स्तर पर सन्तान प्राप्त करना और सामाजिक स्तर पर पद की प्राप्ति होती है । ”
हिन्दू विवाह ( HINDU MARRIAGE)
हिन्दओं में विवाह को एक संस्कार के रूप में स्वीकार किया गया है । कापडिया लिखते हैं , “ हिन्दू विवाह एक संस्कार है । ‘ हिन्दू विवाह के उद्देश्य ( Aims of Hindu Marriage ) कापडिया लिखते हैं , ” हिन्दू विवाह के उद्देश्य , धर्म , प्रजा ( सन्तान ) तथा रति ( आनन्द ) बतलाये गये हैं । “
हिन्दू विवाह के उद्देश्य हैं –
( i ) धार्मिक कार्यों की पूर्ति ,
( ii ) पुत्र – प्राप्ति ,
( iii ) रति आनन्द ,
( iv ) व्यक्तित्व का विकास ,
( v ) परिवार के प्रति दायित्वों का निर्वाह ,
( vi ) समाज के प्रति कर्तव्यों का निर्वाह ।
हिन्दू विवाह के स्वरूप ( Forms of Hindu Marriage )
हिन्दुओं में विवाह के आठ स्वरूप माने गए हैं :
( 1 ) ब्राह्म विवाह — इसमें वेदों के ज्ञाता शीलवान वर को घर बुलाकर वस्त्र एवं आभूषण आदि से सुसज्जित कन्या का दान किया जाता है ।
( 2 ) दैव विवाह — इसमें यज्ञ करने वाले पुरोहित को यजमान अपनी कन्या का दान करता है ।
( 3 ) आर्ष विवाह – इसमें पिता गाय और बैल का एक जोड़ा लेकर ऋषि को अपनी कन्या का दान करता है ।
( 4 ) प्रजापत्य विवाह — इसमें लड़की का पिता यह आदेश देता है कि तुम दोनों एक साथ रह कर आजीवन धर्म का आचरण करो । इसके बाद कन्यादान करता है
( 5 ) गान्धर्व विवाह – यह वर्तमान का प्रेम विवाह ही है ।
( 6) . असुर विवाह — इसमें वर , कन्या के पिता को धन देकर विवाह करता है ।
( 7 ) राक्षस विवाह — इसमें कन्या को जबरन उठा लाकर उससे विवाह किया जाता है ।
( 8 ) पैशाच विवाह — इसमें सोयी हुई , उन्मत्त , घबराई हुई , मदिरा पान की हुई कन्या के साथ बलात्कार कर उससे विवाह किया जाता है ।
मुसलमानों में विवाह ( MARRIAGE IN MUSLIMS )
( निकाह ) एक सामाजिक समझौता है । इनमें विवाह को ‘ निकाह ‘ कहते हैं , जिसका शाब्दिक अर्थ है नर – नारी का विषयी समागम । मुस्लिम विवाह एक धार्मिक संस्कार नहीं वरन् एक समझौता है । जिसका उद्देश्य घर बसाना , सन्तानोत्पत्ति करना एवं उन्हें वैध घोषित करना है । “
मुस्लिम विवाह के उद्देश्य ( Aims of Muslim Marriage )
– स्त्री – पुरुषों को यौन सम्बन्ध स्थापित करने की वैध स्वीकृति प्रदान करना ।
–बच्चों को जन्म देना तथा उनका पालन – पोषण करना ।
– पति – पत्नी के पारस्परिक अधिकारों को ‘ मेहर ‘ के द्वारा स्वीकृति प्रदान करना ।
– एक संविदा के रूप में पति – पत्नी को यह अधिकार देना कि एक पक्ष द्वारा संविदा का पालन न करने पर दूसरा पक्ष उसे छोड़ सकता है ।
– बच्चों के पालन – पोषण को ध्यान में रखकर मुस्लिम समाज में बहु – पत्नी विवाह प्रथा को मान्यता प्रदान की गयी है ।
विवाह के प्रकार
(Types of Marriage )
विवाह सार्वभौमिक है , लेकिन इसकी प्रकृति , उद्देश्य , आदर्श एवं स्वरूप एक समान नहीं है । पति – पत्नी की संख्या के आधार पर विवाह के जो सामान्य प्रकार पाये जाते हैं , वे निम्न हैं _
1 . एक विवाह ( Monogamy ) : जब एक पुरुष या स्त्री जीवन – साथी के रूप में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं , तो उसे एक विवाह कहा जाता है । आज एक विवाह ही सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है । वर्तमान हिन्दू विवाह अधिनियम , 1955 ने एक विवाह को ही मान्यता प्रदान की है ।
2 . बहुविवाह ( Polygamy ) : जब एक से अधिक पुरुष या स्त्री वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करे , तो उसे बहुविवाह कहा जाता है । बहुविवाह के तीन रूप हैं –
( i ) बहुपत्नी विवाह , ( ii ) बहुपति विवाह , और ( iii ) समूह विवाह ।
( i ) . बहुपत्नी विवाह ( Polygyny ) : जब एक पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से सम्बन्ध स्थापित करता है , तो उसे बहुपत्नी विवाह कहा जाता है । प्रारम्भिक हिन्दू समाज में इसका प्रचलन था । हिन्दू विवाह अधिनियम , 1955 . . के बाद इसमें काफी कमी आयी है । मुसलमानों में इसका प्रचलन है । भारत की कुछ जनजातियों ( नागा , गोंड , बैगा , टोडा आदि ) में भी इसका प्रचलन है ।
( ii ) . बहुपति विवाह ( Polyandry ) : जब एक स्त्री एक से अधिक पुरुषों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करती है , तो उसे बहुपति विवाह कहा जाता है । इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण महाभारत काल में पाँच पांडवों के साथ द्रौपदी का विवाह है । आधुनिक समय में दक्षिण भारत के नायर में यह प्रथा प्रचलित है ।
बहुपति विवाह के दो रूप हैं ( a ) भ्रातृबहुपति विवाह एवं ( b ) अभ्रातृबहुपति विवाह ।
( a ) . भ्रातृबहुपति विवाह ( Fraternal Polyandry ) : जब एक स्त्री एक से अधिक वैसे पुरुषों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करती है , जो आपस में भाई – भाई हों , तो उसे भ्रातृबहुपति विवाह कहा जाता है । द्रौपदी व पाँच पांडवों का विवाह इसके उदाहरण हैं । साथ ही , भारत की खस व टोडा जनजाति में इसका प्रचलन रहा है ।
( b ) . अभ्रातृबहुपति विवाह ( Non – Fraternal Polyandry ) : जब एक स्त्री एक से अधिक पुरुषों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करे , वे पुरुष आपस में भाई – भाई न हों , तो उसे अभ्रातृबहुपति विवाह कहा जाता है । इसका प्रचलन टोडा व नायर जाति में रहा है । समह विवाह ( Group Marriage ) : जब पुरुषों का एक समूह स्त्रियों के एक समूह से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करता है , तो उसे समूह विवाह कहा जाता है । उद्विकासवादी विचारकों का ऐसा मानना है कि परिवार व विवाह की प्रारम्भिक अवस्था में विवाह का यह रूप रहा हो , लेकिन आज यह कहीं भी नहीं पाया जा सकता । इस प्रकार विवाह के अनेक प्रकार पाये गये हैं लेकिन वर्तमान समय में हिन्दुओं में एक विवाह ही प्रचलित है । विशेष परिस्थिति में बहुपत्नी विवाह देखा जाता है ।
एकविवाह के कारण
( i ) समाज में स्त्रियों एवं पुरुषों की संख्या का समान होना ।
( ii ) पारिवारिक संघर्ष या तनाव से बचाव
( iii ) आर्थिक कारक
( iv ) दाम्पत्य जीवन में दूसरों का आना स्वीकार नहीं
( v ) हिन्दू विवाह अधिनियम ,
1955 द्वारा एक विवाह ही अनिवार्य रूप से लागू । एकविवाह से लाभ ( i ) सर्वश्रेष्ठ विवाह ( ii ) पति – पत्नी व्यक्तिगत रूप से बच्चों के प्रति जिम्मेदार ( iii ) स्त्री – पुरुष का आपसी सहयोग बना रहना । ( iv ) स्त्रियों की स्थिति ऊँची हो जाती है । ( v ) बच्चों की संख्या में कमी । ( vi ) पति – पत्नी मानसिक तनाव व संघर्ष से दूर । उद्विकासीय सिद्धान्त के अनुसार , एकविवाह की प्रथा सबसे नवीन एवं आधुनिक प्रथा है । वेस्टरमार्क ने एकविवाह को ही विवाह का आदिस्वरूप माना है ।
मैलिनोवस्की के अनुसार , एकविवाह ही विवाह का सच्चा स्वरूप है , रहा था और रहेगा । बहुविवाह नमा बहुविवाह एक ऐसा विवाह है जिसमें एक पुरुष या स्त्री का एक से अधिक स्त्रियों या पुरुषों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होता है । इसके चार प्रकार पाए जाते हैं ।
बहुपत्नी विवाह के लाभ
( 1 ) बहुपत्नी विवाह के कारण कामी पुरुषों की यौन इच्छाओं की पूर्ति परिवार में ही पूरी हो जाती है । इसलिए समाज में भ्रष्टाचार एवं अनैतिकता में वृद्धि नहीं हो पाती है ।
( ii ) स्त्रियों की संख्या अधिक होने पर सबकी शादी सम्भव ।
( iii ) अनेक स्त्रियों के होने पर बच्चों का पालन – पोषण एवं घर की देख – रेख सरलता से हो जाती है ।
( iv ) बहुपत्नी विवाह समाज के अधिकांश धनी एवं समृद्ध लोगों में पाए जाते हैं । अत : ऐसे विवाह से उत्पन्न सन्ताने शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से सुदृढ़ होती हैं ।
बहुपत्नी विवाह की हानियाँ
( i ) स्त्रियों का समय प्राय : झगड़ों में ही नष्ट होता है । ( ii ) जनसंख्या में वृद्धि । ( ii ) कई पलियों के कारण पति सबकी देखभाल सही तरीके से नहीं कर पाता । ( iv ) स्त्रियों की सामाजिक प्रतिष्ठा गिर जाती है । ( v ) विधवाओं की संख्या में वृद्धि । ( i ) पुरुष द्वारा सभी पलियों की यौन सन्तष्टि न कर पाने के कारण समाज में यौनाचार पनपता है
बहुपति विवाह के कारण
( 1 ) इसका प्रमुख कारण आर्थिक क्रियाकलाप या गरीबी है । जब अकेला पुरुष स्त्रियों एवं बच्चों का भरण – पोषण नहीं कर पाता है तो अनेक – पुरुष मिलकर भरण – पोषण करते हैं ।
( ii ) वधूमूल्य का अधिक होना । वधूमूल्य प्रथा के कारण ‘ हो ‘ जनजाति में लड़कियाँ सबसे अधिक समय तक कुंवारी रहती हैं ।
( iii ) जनसंख्या को मर्यादित रखने की इच्छा के कारण ही बहुपति विवाह का पालन किया जाता है क्योंकि ऐसे विवाह में सन्ताने कम होती हैं । नातिनानि
( iv ) सम्पत्ति के विभाजन को रोकने के लिए । की
( v ) भौगोलिक प्रस्थितियों – टोडा तथा खस जहाँ रहती हैं वहाँ कृषि योग्य भूमि का अभाव पाया जाता है ।
( vi ) धार्मिक कारण – देहरादून के खस अपने को पाण्डव का वंशज मानते हैं तथा ये लोग द्रोपदी विवाह प्रथा का पालन करते हैं ।
( vii ) वेस्टरमार्क के अनुसार , बहुपति विवाह का मुख्य कारण लिंगानुपात का असन्तुलित रूप होता है । ( viii ) ‘ समनर ‘ , ‘ कनिंघम ‘ तथा ‘ सक्सेना ने बहुपति विवाह का मुख्य कारण गरीबी को माना है ।
बहुपति विवाह के लाभ
( i ) सम्पत्ति का बँटवारा न होना
( ii ) सन्तान का कम होना ,
iii ) आर्थिक सहयोग – बहुपति विवाह की हानियाँ ( i ) बाँझपन का विकसित होना । ( ii ) लड़का सन्तान अधिक होना जिससे लड़कियों की संख्या में कमी हो जाती है । – तानी ( iii ) स्त्रियों की स्थिति दयनीय होती है । ( iv ) समाज में विधुर की संख्या का ज्यादा होना । ( v ) स्त्रियों में यौन रोग पनपना ।
विलिंग सहोदरज विवाह
विवाह का महत्व या प्रकार्य ( Importance or Functions of Marriage )
पारिवारिक जीवन का आधार ( Basis of Family Life ) : विवाह के आधार पर परिवार का निर्माण होता है । इसीलिए विवाह को परिवार का प्रवेश द्वार कहा गया है । पारिवारिक परिवेश में प्रेम और स्नेह का आदान – प्रदान सम्भव हो पाता है । विवाह रूपी संस्था के माध्यम से स्थापित परिवार वह अनुपम स्थल है जहाँ व्यक्ति अपनी शारीरिक , मानसिक , सामाजिक और आर्थिक सारी इच्छाओं की पूर्ति करता है तथा समाज का योग्य नागरिक बनता है ।
. यौन – इच्छा की पूर्ति में सहायक ( Helpful in Satisfaction of Sex ) : यौन – इच्छा मानव का स्वाभाविक गुण है , जिसे व्यक्ति जन्म के साथ पाता है । इस इच्छा की पूर्ति स्वस्थ मानव के सन्दर्भ में आवश्यक है । मानव की इस इच्छा की पूर्ति विवाह व्यवस्था के द्वारा सम्भव हो पाता है । यौन इच्छा की पूर्ति बिना विवाह के किया जाना कामाचार को उत्पन्न करना है । अतः विवाह यौन इच्छा की पूर्ति की समाज – स्वीकृत व्यवस्था है ।
. बच्चों को वैधता प्रदान करना ( Legitimization of Children ) : विवाह – व्यवस्था के माध्यम से बच्चों को वैधता प्राप्त होती है । इस व्यवस्था में दो स्त्री – पुरुष के बीच यौन सम्बन्ध के फलस्वरूप जो बच्चे जन्म लेते हैं , उसे समाज द्वारा स्वीकारा जाता है । साथ ही बच्चे तथा उनके माता – पिता को एक निश्चित सामाजिक प्रस्थिति प्राप्त होती है । विवाह किये बिना भी बच्चे जन्म दिये जा सकते हैं , लेकिन इस बच्चे को अवैध माना जायगा । फिर बच्चे व सम्बन्धित माता – पिता को सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिल पाती । अतः विवाह के माध्यम से उत्पन्न बच्चे वैध माने जाते हैं ।
सामाजिक निरन्तरता में सहायक ( Helpful in Social Continuity ) : प्रत्येक समाज अपने अस्तित्व एवं निरन्तरता बनाये रखने के लिए अगली पीढ़ी को लाने की व्यवस्था करता है । विवाह व्यवस्था समाज के इस महत्वपूर्ण कार्य को करता है । हिन्दू समाज में वंशवृद्धि व वंशनिरन्तरता को विशेष महत्व दिया गया है तथा इस कार्य को धर्म से जोड़ा गया है ।
नातेदारी सम्बन्धों का विकास ( Development of Kinship Relationships ) : विवाह व्यवस्था के माध्यम से नये नातेदारों का विकास होता है । इससे व्यक्ति के नातेदारी सम्बन्धों का दायरा बढ़ता है । विवाहपूर्व व्यक्ति जनक परिवार ( जिसमें वह जन्म लिया व पाला गया ) से सम्बन्धित होता है । विवाह के उपरान्त वह जनन परिवार से सम्बन्धित होता है । फलस्वरूप व्यक्ति अपने रक्त सम्बन्धियों के साथ – साथ विवाहोपरान्त अन्य सम्बन्धियों ( सास , श्वसुर , साला , साली , साढ़ आदि ) से जुड़ता है । एच० एम० जॉनसन ( H . M . Johnson ) ने नातेदारी सह – व्यवस्था के निर्धारक तत्व के रूप में विवाह को स्वीकारा है ।
सामाजिक प्रतिष्ठा ( Social Prestige ) : विवाह सामाजिक प्रतिष्ठा का द्योतक है । विवाह – उत्सव जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उत्सव है । इस अवसर पर जिस धूमधाम से समारोह का आयोजन होता है , वह इस बात का द्योतक है कि विवाह सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने का माध्यम है । साथ ही , परिवार का सबसे बड़ा यज्ञ विवाह माना गया है । इस यज्ञ को पूरा करने के बाद परिवार की प्रतिष्ठा सुरक्षित होती है ।
व्यक्ति के समाजीकरण में सहायक ( Helpful in Socialization of Individuals ) : विवाह दो भिन्न विचारधारा , परम्परा , रहन – सहन , जीवन – शैली आदि से अनुकूलन करना सिखाती है । साथ ही यह त्याग को बढावा देती है और पारस्परिक कर्तव्य के प्रति निष्ठा उत्पन्न करती है । जब दो स्त्री – पुरुष विवाह व्यवस्था के माध्यम से पति – पत्नी के रूप में सम्बन्धित होते हैं तो उनका समाजीकरण प्रारम्भ हो जाता है । इससे एक तरफ पारिवारिक जीवन स्वस्थ व सबल होता है , तो दूसरी तरफ स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण होता है । इस प्रकार विवाह व्यक्ति के समाजीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है । 0 8 . संस्कृति के हस्तान्तरण में सहायक ( Helpful in Transmission of Culture ) : संस्कृति समाज