परिवार के कार्य एवं महत्त्व
( Functions and Importance of Family )
परिवार एक अनोखा संगठन है । इसका निर्माण स्वत : होता है और यह मानव के लिए अनिवार्य भी है । परिवार के द्वारा व्यक्ति के ऐसे कार्यों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति होती है , जिनकी पूर्ति अन्य संगठनों के द्वारा सम्भव नहीं है । इसलिए मानव – जीवन में परिवार का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । प्राचीनकाल से ही परिवार के महत्त्व को स्वीकार किया गया है । आज तक कोई भी ऐसा संगठन नहीं बना है , जो परिवार का स्थान ले सके । अतः यह अपरिहार्य ( Indispensible ) है । परिवार के विभिन्न कार्यों के फलस्वरूप मानव आज सभ्यता के शिखर पर पहुँच सका है । यहाँ परिवार के महत्त्वपूर्ण कार्यों का उल्लेख किया जा रहा है ।
सामाजिक कार्य ( Social Functions ) – परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई है । समाज की एक मौलिक इकाई के रूप में यह अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों को सम्पन्न करता है । पहला , समाजीकरण – व्यक्ति को जैवकीय प्राणी से । सामाजिक प्राणी में बदलने की प्रक्रिया ही समाजीकरण की प्रक्रिया है । समाजीकरण की प्रक्रिया परिवार से ही शुरू होती है । माता – पिता बच्चों का लालन – पालन करते हैं तथा उसे समाज के रीति – रिवाजों एवं आदर्शों से परिचित कराते हैं । बच्चे अपने माता – पिता को जैसा करते हुए देखते हैं , उसका अनुकरण करते हैं । धीरे – धीरे बच्चे समाज के नियमों को सीख जाते हैं और सामाजिक प्राणी के रूप में क्रियाशील हो जाते हैं । दूसरा , सामाजिक नियन्त्रण – प्रत्येक समाजके अपने नियम एवं तौर – तरीके होते हैं । समाज अपने सदस्यों से यह अपेक्षा करता है कि वह इन तौर – तरीकों के अनुसार व्यवहार करे मानव स्वभाव से ऐसा प्राणी है , जो जरा – सी छूट मिलने पर मनमानी करने लगता है । यदि प्रत्येक व्यक्ति मनमाना ढंग से कार्य करने लगे , तो समाज में अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी । अत : समाज अपने सदस्यों के व्यवहारों के ऊपर प्रतिबन्ध लगाता है , जिससे वे नियमों के अनुसार कार्य करें । इसके लिए समाज विभिन्न साधनों के द्वारा व्यक्तियों के व्यवहारों पर दबाव डालता है । सामाजिक नियन्त्रण के साधनों में परिवार एक प्रमुख साधन है । जब व्यक्ति समाज के अनुकूल कार्य करता है , तब उसकी परिवार के द्वारा सराहना होती है । यदि व्यक्ति समाज के प्रतिकूल कार्य करता है , तब उसे परिवार के लोग मान्यता नहीं देते । अत : वह सामाजिक रीति – रिवाजों के अनुकूल कार्य करने के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित होता है ।
सांस्कृतिक कार्य ( Cultural Functions ) – सांस्कृतिक तत्त्वों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अम्विार करता है । बच्चे परिवार में ही अपनी संस्कृति से अवगत होते हैं । परिवार में बड़े – हालाधा मातापिताकृतिक विशेषताओं को सीखते हैं और फिर नयी पीढ़ी को सीखाते हैं । इससे एक पीढ़ी की संस्कृति दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होती है और इसका प्रवाह बना रहता है । परिवार अपने सदस्यों को सांस्कृतिक विशेषताओं को सिखाने का प्रयत्न करता है । अतः जैसी संस्कृति होती है उसके अनुसार ही एक व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण होता है ।
मनोवैज्ञानिक कार्य ( Psychological Functions ) – परिवार का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य अपने सदस्यों को मानसिक सुरक्षा तथा संतोष प्रदान करना है । मानव – जीवन के लिए शारीरिक सुरक्षा के साथ – साथ मानसिक सुरक्षा भी आवश्यक है । परिवार के सदस्यों के बीच प्रेम , सहानुभूति , त्याग , धैर्य तथा सद्भाव पाया जाता है । इससे व्यक्ति को भावनात्मक सरक्षा मिलती है । सुख – दुख में भी वे एक – दूसरे को काफी सहयोग देते है । उन्हें कभी अकेलापन नहीं महसस होता । इससे व्यक्ति को मानसिक संतोष मिलता है । अन्य समूहों में व्यक्ति अपने – आपको मानसिक रूप से निश्चित नहीं कर पाता और न उसे मानसिक संतुष्टि मिल पाती है ।
मनोरंजन का कार्य ( Recreational Function ) – परिवार मनोरंजन का केन्द्र है । परिवार के अन्तर्गत सभी सदस्यों का मनोरंजन हो जाता है । छोटे – छोटे बच्चे शाम में दादी – नानी से कहानियाँ सुनते हैं , इससे उनका मनोरंजन हो जाता है । युवा व्यक्ति जब बाहर से थके हुए घर लौटते है तो छोटे – छोटे बच्चों की तुतली आवाज से उनकी आधी थकान दूर हो जाती है । परिवार के अन्तर्गत पर्व – त्योहार , भजन – कीर्तन आदि के द्वारा भी लोगों का मनोरंजन हो जाता है । परिवार में सभी सदस्य अपने – अपने ढंग से अपना मनोरंजन करते हैं । ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में परिवार समान रूप से मनोरंजन के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण होता है । अब टेलीविजन के प्रचलित होने से सभी सदस्य एक साथ उसका आनन्द लेते हैं । आज भी परिवार मनोरंजन के कार्य को पहले जैसा ही पूरा कर रहा है । इसके अतिरिक्त राजनैतिक क्षेत्रों में भी परिवार की भूमिका है । आदर्श नागरिक बनाने का कार्य परिवार का ही होता है । वोट देने के सम्बन्ध में भी परिवार अपने सदस्यों को निर्देश देता है । परिवार अपने सदस्यों को धार्मिक शिक्षा भी देता है । प्रत्येक परिवार में कोई – न – कोई धर्म अवश्य माना जाता है । इसके सम्बन्ध में परिवार सदस्यों को ज्ञान कराता है जिससे उनका जीवन नैतिक तथा पवित्र होता है ।
जैवकीय कार्य ( Biological functions ) – जैवकीय कार्य में परिवार तीन महत्त्वपूर्ण कार्य करता . सम्यची आवश्यकताओं की पूर्ति – परिवार ही ऐसा स्थान है जहाँ सामाजिक स्वीकृति से की पूर्ति होती है । यदि व्यक्ति मनमाने ढंग से अपनी यौन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगे . तो समाज में अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी । मानव मानव न रह कर पशु सदृश
बन जायेगा । परिवार अपनी विवाह संस्था के द्वारा स्त्री – पुरुष के यौन सम्बन्धी व्यवहारों को नियमित करता है तथा समाज में व्यवस्था बनाये रखता है । दूसरा , सन्तानोत्पत्ति – – परिवार में यौन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति मात्र ही नहीं होती , बल्कि सन्तान की उत्पत्ति का कार्य भी होता है । परिवार में उत्पन्न सन्तान को ही समाज मान्यता देता है । सन्तान की उत्पत्ति से समाज की निरन्तरता बनी रहती है । इस प्रकार परिवार सन्तानोत्पादन के द्वारा समाज के अस्तित्व को बनाये रखने का कार्य करता है । तीसरा , प्रजातीय तत्त्वों की निरन्तरता – परिवार के द्वारा मानव अपने प्रजातीय तत्त्वों की निरन्तरता को बनाये रखता है । सन्तान की उत्पत्ति के फलस्वरूप ही मानव – जाति अमर हो पायी है । इस प्रकार प्रजातीय तत्त्वों को जीवित रखने का कार्य परिवार करता है ।
शारीरिक सुरक्षा सम्बन्धी कार्य ( Functions related toPhysical Security ) – जैवकीय कार्यों के अतिरिक्त परिवार अपने सदस्यों की शारीरिक सरक्षा सम्बन्धी कार्य भी करता है । इसके अन्तर्गत कई तरह के कार्य आते है पहला , शारीरिक रक्षा – परिवार के अन्तर्गत बूढ़े , असहाय , अनाथ , विधवा तथा रोगी सदस्यों को शारीरिक सुरक्षा मिलती है । परिवार का कोई सदस्य अपंग एवं अपाहिज हो जाता है तो उसे परिवार से निकाला नहीं जाता , यदि माता – पिता की मृत्यु हो जाती है तो उनके बच्चे असहाय नहीं होते बल्कि अन्य सदस्य उनकी देख – भाल करते है । पति की अस्वाभाविक मृत्यु पर महिलाओं को दर – दर भटकना नहीं पड़ता । परिवार के अन्य सदस्य उसे सहारा देते है । इस प्रकार हम देखते है कि परिवार अपने सदस्यों की शारीरिक रक्षा सम्बन्धी कार्य करता है । अन्य किसी समूह अथवा संगठन में व्यक्ति को इस प्रकार की सुरक्षा नहीं मिलती । दूसरा , बच्चों का लालन – पालन – बच्चा जब जन्म लेता है तब वह सिर्फ हाड़ – मांस का एक पुतला होता है । परिवार में माता – पिता उसे पाल – पोषकर तैयार करते हैं । यदि परिवार न हो तो बच्चों का पालन – पोषण कठिन हो जायेगा । अन्य प्राणियों की तुलना में मानव के बच्चे को अपने पैरों पर खड़ा होने में काफी दिन लगते है । ऐसी स्थिति में परिवार में उसके भरण – पोषण का कार्य होता है । माता – पिता के अतिरिक्त बड़े – बूढ़े भी बच्चों की देख – रेख करते है । तीसरा , भोजन की व्यवस्था – शरीर के अस्तित्व एवं उसकी कार्यकुशलता के लिए भोजन अति आवश्यक है । परिवार अपने सदस्यों के लिए भोजन की व्यवस्था का कार्य करता है । यह कार्य परिवार आदिकाल से करता आ रहा है । इस प्रकार परिवार का प्रमुख कार्य अपने सदस्यों के लिए भोजन की व्यवस्था करना है । इसके बिना न तो व्यक्ति जीवित रह सकता और न समाज की रचना ही सम्भव है । चौथा , निवास की व्यवस्था – परिवार अपने सदस्यों के लिए निवास की व्यवस्था करता है । निवास का प्रबन्ध होने पर व्यक्ति का शरीर सर्दी , गर्मी तथा वर्षा से सुरक्षित रहता है । परिवार द्वारा निवास की व्यवस्था होने से व्यक्ति ज्यादा सुरक्षित महसूस करता है । पाँचवाँ , वस्त्र की व्यवस्था – रहने के प्रबन्ध के साथ – साथ वस्त्रों का प्रबन्ध होना भी आवश्यक है । जाड़े के दिनों में गर्म कपड़े तथा गर्मी के मौसम के लिए हल्के कपड़ों का प्रबन्ध परिवार द्वारा किया जाता है । इससे स्पष्ट होता है कि मौसम के अनुकूल वस्त्रों की व्यवस्था करना परिवार का कार्य है ।
आर्थिक कार्य ( Economic Functions ) – परिवार एक आर्थिक इकाई होता है । समाज में परिवार के द्वारा ही आर्थिक साधनों का उपयोग होता है । आर्थिक क्षेत्र में भी परिवार के द्वारा महत्त्वपूर्ण कार्य होते रहते पहला , उत्पादन इकाई – उत्पादन का कार्य परिवार के द्वारा होता है । आदिम समाज एवं ग्रामीण समाज में अब भी परिवार आर्थिक उत्पादन का केन्द्र है । परिवार के सारे सदस्य मिलकर आर्थिक क्रियाओं में हिस्सा लेते हैं । शहरी एवं औद्योगिक क्षेत्रों में आर्थिक उत्पादन की इकाई के रूप में परिवार का महत्व घटने लगा है , किन्तु आज भी सरल समाज में इसका महत्त्व है । दूसरा , श्रम – विभाजन – परिवार अपने सदस्यों के बीच श्रम – विभाजन का कार्य करता है । आदिम समाज में परिवार अपने सदस्यों के बीच उग्र एवं लिंग भेद के आधार पर कार्यों का बँटवारा करता था । प्रायः स्त्रियाँ घर तथा बच्चों की देख – भाल करती थी और पुरुष शिकार एवं बाहर का कार्य सम्भालते थे । बच्चे छोटे – मोटे कार्य
करते थे तथा बड़े – बूढ़े दायित्व वाले कार्य सम्पन्न करते थे । आज भी परिवार में कार्यों का बँटवारा होता है । जो व्यक्ति जिस कार्य के लायक होता है उसे वही कार्य सौंपा जाता है । प्राय : स्त्रियाँ घर का कार्य करती है तथा पुरुष बाहर का कार्य करते हैं । तीसरा , उत्तराधिकार का निर्धारण – सम्पत्ति के उत्तराधिकार का निर्धारण परिवार के द्वारा होता है । प्रत्येक समाज के अपने नियम होते है । परिवार समाज की संस्कृति एवं उसके आदर्शों के मुताबिक सम्पत्ति का हस्तान्तरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के सदस्यों में करता है । कहने का तात्पर्य यह है कि परिवार यह निश्चित करता है कि सम्पत्ति का वास्तविक उत्तराधिकारी कौन है । मातृसत्तात्मक मातवंशीय एवं मातस्थानीय परिवारों में सम्पत्ति माता से पुत्री को मिलती है । ठीक इसके विपरीत पितृसत्तात्मक , पितृवंशीय एवं पितृस्थानीय परिवारों में सम्पत्ति पिता से पुत्र को प्राप्त होती है । इस प्रकार सम्पत्ति के उत्तराधिकार सम्बन्धी कार्य परिवार करता आ रहा है । चौथा , आय तथा सम्पत्ति का प्रवन्ध – परिवार में आय तथा सम्पत्ति का भी प्रबन्ध होता है । परिवार का मुखिया ही यह निश्चित करता है कि आमदनी को किस मद में और कितना खर्च किया जायेगा । सम्पत्ति बनानी है तो उसका स्वरूप क्या होगा , अर्थात् वह नगद होगा या जेवर अथवा जमीन । कहने का मतलब यह है कि परिवार अपनी आय को उचित ढंग से व्यय करने का प्रबन्ध करता है ।
बीयरस्टीड ( Bierstedt ) ने परिवार के कार्यों को और अधिक स्पष्ट करने के लिए उसे दो भागों में बाँटा है । परिवार जो कार्य करता है उसमें वह कुछ कार्य व्यक्ति के लिए करता है तो कुछ समाज के लिए । एक के लिए किये गये कार्य दूसरे को भी प्रभावित करते हैं । इनके द्वारा किये गये कार्यों को निम्नलिखित ढंग से समझा जा सकता है व्यक्ति के लिए कार्य
1.जीवन के लिए सुविधाएँ प्रदान करना । समाज के लिए कार्य 2.प्राणियों का पुनरोत्पादन एवं निरन्तरता बनाये रखना । 3.यौन सम्बन्धी नियन्त्रण । 4.जीविका प्रदान करना ।5.सांस्कृतिक हस्तान्तरण ।6.सामाजिक पद प्रदान करना ।7. यौन सम्बन्धी अवसर प्रदान करना ।8.सुरक्षा तथा समर्थन प्रदान करना ।9.समाजीकरण ।10.व्यक्ति की सामाजिक पहचान बनाना ।