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न्यायिक शुचिता की मिसाल: CJI गवई ने जस्टिस वर्मा केस से खुद को क्यों किया अलग?

न्यायिक शुचिता की मिसाल: CJI गवई ने जस्टिस वर्मा केस से खुद को क्यों किया अलग?

चर्चा में क्यों? (Why in News?):

हाल ही में, भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली एक पीठ ने एक महत्वपूर्ण मामले की सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति भूषण आर. गवई के खुद को इस मामले से अलग करने के अनुरोध को स्वीकार कर लिया। न्यायमूर्ति गवई ने बताया कि वे इस “जस्टिस वर्मा केस” से जुड़े एक पूर्व मामले या प्रक्रिया का हिस्सा रह चुके हैं, और इसलिए वे इस नई सुनवाई में शामिल नहीं हो सकते। यह घटना न्यायपालिका में ‘न्यायिक वापसी’ (Judicial Recusal) के महत्वपूर्ण सिद्धांत को एक बार फिर सुर्खियों में ले आई है, जो न्यायिक अखंडता और निष्पक्षता की आधारशिला है। यह सिर्फ एक न्यायाधीश के खुद को एक मामले से अलग करने की घटना नहीं है, बल्कि यह उस व्यापक सिद्धांत का प्रतिबिंब है जो न्यायपालिका के प्रति जनता के विश्वास को बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है। यह घटना हमें न्यायिक आचरण की बारीकियों, नैतिक मूल्यों और संवैधानिक सिद्धांतों पर गंभीरता से विचार करने का अवसर देती है, जो UPSC उम्मीदवारों के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है।

न्यायिक शुचिता का सिद्धांत: ‘न्यायिक वापसी’ क्या है? (Principle of Judicial Impartiality: What is ‘Judicial Recusal’?)

न्यायिक वापसी, जिसे अंग्रेजी में ‘Judicial Recusal’ या ‘Disqualification’ कहा जाता है, वह प्रक्रिया है जिसके तहत एक न्यायाधीश स्वयं को किसी विशेष मामले की सुनवाई से स्वेच्छा से या किसी पक्ष की प्रार्थना पर अलग कर लेता है। इसका मूल आधार यह सार्वभौमिक न्यायिक सिद्धांत है कि “न्याय न केवल होना चाहिए, बल्कि होता हुआ दिखना भी चाहिए” (Justice must not only be done, but must also be seen to be done)। यह सिद्धांत सुनिश्चित करता है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह, व्यक्तिगत हित या पक्षपात से मुक्त हो।

कल्पना कीजिए कि आप एक क्रिकेट मैच देख रहे हैं, और अंपायर का बेटा एक टीम में खेल रहा है। अगर अंपायर कोई विवादास्पद फैसला उस टीम के पक्ष में देता है, तो भले ही फैसला सही हो, दर्शकों के मन में शक पैदा होना स्वाभाविक है। न्यायिक प्रणाली में, न्यायाधीश अंपायर के समान होते हैं, और उनका निर्णय लाखों लोगों के जीवन और देश के कानून पर सीधा प्रभाव डालता है। इसलिए, किसी भी प्रकार के ‘हितों के टकराव’ या ‘पूर्वाग्रह’ की आशंका से बचने के लिए न्यायाधीशों का खुद को अलग करना अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। यह सिर्फ न्यायाधीश की व्यक्तिगत ईमानदारी का सवाल नहीं है, बल्कि यह पूरी न्यायिक प्रणाली की विश्वसनीयता और जनता के विश्वास को बनाए रखने का सवाल है।

न्यायिक वापसी के महत्वपूर्ण पहलू:

  • निष्पक्षता और तटस्थता: यह सुनिश्चित करना कि न्यायाधीश का निर्णय व्यक्तिगत भावनाओं, संबंधों या वित्तीय हितों से प्रभावित न हो।
  • लोक विश्वास: न्यायपालिका पर जनता के विश्वास को बनाए रखना, जो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए आवश्यक है।
  • प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत: ‘कोई भी व्यक्ति अपने ही मामले में न्यायाधीश नहीं हो सकता’ (Nemo debet esse judex in propria causa) के सिद्धांत का पालन करना।
  • न्यायिक नैतिकता: न्यायाधीशों के लिए निर्धारित उच्च नैतिक और व्यावसायिक मानकों को बनाए रखना।

न्यायिक वापसी के आधार: कब होती है न्यायाधीशों की ‘किनाराकशी’? (Grounds for Judicial Recusal: When Do Judges Recuse Themselves?)

न्यायिक वापसी के कई कारण हो सकते हैं, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि न्याय की प्रक्रिया किसी भी पूर्वाग्रह से दूषित न हो। ये कारण व्यापक रूप से दो श्रेणियों में विभाजित किए जा सकते हैं: ‘वास्तविक पूर्वाग्रह’ और ‘अनुमानित पूर्वाग्रह’ (Actual Bias and Apprehended Bias)। भारतीय न्यायपालिका में, न्यायिक वापसी के लिए कोई कठोर या संहिता-बद्ध नियम नहीं हैं; यह अक्सर न्यायाधीश के स्वयं के विवेक और न्यायिक नैतिकता पर निर्भर करता है। फिर भी, कुछ सामान्य आधार निम्नलिखित हैं:

1. हितों का टकराव (Conflict of Interest):

  • व्यक्तिगत हित: यदि न्यायाधीश का मामले के किसी पक्षकार से सीधा या अप्रत्यक्ष संबंध हो (जैसे रिश्तेदारी, दोस्ती)। उदाहरण के लिए, यदि न्यायाधीश का बेटा या बेटी किसी मुकदमे में एक वकील है, और वह मामला उसी न्यायाधीश की अदालत में आता है।
  • वित्तीय हित: यदि न्यायाधीश का मामले के किसी पक्षकार से वित्तीय संबंध हो, या यदि निर्णय से न्यायाधीश को कोई प्रत्यक्ष वित्तीय लाभ या हानि होने की संभावना हो। मान लीजिए, न्यायाधीश के पास किसी ऐसी कंपनी के शेयर हैं जिसके खिलाफ कोई मामला चल रहा है।
  • पेशेवर हित: यदि न्यायाधीश ने मामले में शामिल किसी पक्ष का प्रतिनिधित्व पहले एक वकील के रूप में किया हो, या यदि उन्होंने उसी मामले में निचले न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में कार्य किया हो। CJI गवई के मामले में, यह एक महत्वपूर्ण आधार प्रतीत होता है, क्योंकि उन्होंने कहा कि वे “पहले भी इसका हिस्सा रहा” हैं।

2. पूर्वाग्रह की आशंका (Apprehension of Bias):

यह ‘वास्तविक पूर्वाग्रह’ से अधिक महत्वपूर्ण है। भले ही न्यायाधीश का कोई वास्तविक पूर्वाग्रह न हो, यदि किसी ‘समझदार व्यक्ति’ (reasonable person) के मन में यह आशंका पैदा हो सकती है कि न्यायाधीश पक्षपाती हो सकता है, तो भी न्यायाधीश को खुद को अलग कर लेना चाहिए। यह “न्याय होता हुआ दिखना चाहिए” के सिद्धांत पर आधारित है।

  • पूर्व अनुभव या टिप्पणी: यदि न्यायाधीश ने किसी सार्वजनिक मंच पर या किसी अन्य मामले में ऐसी टिप्पणी की हो जो यह दर्शाता हो कि उनकी राय किसी पक्ष या मामले के मुद्दे पर पहले से ही बनी हुई है।
  • मामले से परिचित होना: यदि न्यायाधीश ने किसी अन्य क्षमता में (जैसे सरकारी अधिकारी या वकील के रूप में) मामले से संबंधित किसी नीति या निर्णय में भाग लिया हो।

3. अन्य कारण:

  • कार्यभार का बंटवारा (Master of the Roster) में पारदर्शिता: कभी-कभी, न्यायिक वापसी के अनुरोध को ‘बेंच हंटिंग’ या ‘फोरम शॉपिंग’ (Forum Shopping) के प्रयास के रूप में भी देखा जा सकता है, जहां पक्षकार अपनी पसंद की पीठ से सुनवाई करवाना चाहते हैं। हालांकि, वास्तविक आधार पर की गई वापसी न्यायिक पारदर्शिता को बढ़ाती है।
  • नैतिकता और अंतरात्मा: अंततः, एक न्यायाधीश की अंतरात्मा और नैतिक विवेक भी न्यायिक वापसी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यदि न्यायाधीश को व्यक्तिगत रूप से लगता है कि वे किसी मामले में पूरी तरह से निष्पक्ष नहीं रह सकते, तो उन्हें खुद को अलग कर लेना चाहिए।

न्यायमूर्ति गवई का जस्टिस वर्मा केस से हटना, उनके पूर्व जुड़ाव के कारण, उपरोक्त ‘पेशेवर हित’ और ‘पूर्वाग्रह की आशंका’ दोनों श्रेणियों में आ सकता है। यह दर्शाता है कि न्यायिक वापसी का निर्णय अक्सर न्यायाधीशों द्वारा स्वयं अपनी व्यक्तिगत अखंडता और न्यायिक प्रणाली के प्रति सार्वजनिक विश्वास को बनाए रखने के लिए लिया जाता है।

जस्टिस वर्मा केस क्या है? (What is the Justice Verma Case?)

हालांकि खबर का मुख्य बिंदु CJI गवई की न्यायिक वापसी है, “जस्टिस वर्मा केस” का उल्लेख अपने आप में महत्वपूर्ण है। यह एक विशेष मामले का जिक्र करता है जो भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ रहा है।

प्रचलित संदर्भों के अनुसार, यह संभावना है कि “जस्टिस वर्मा केस” का संबंध 2012 के दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले (जिसे आमतौर पर ‘निर्भया’ मामला कहा जाता है) के बाद गठित की गई जस्टिस जे.एस. वर्मा समिति की रिपोर्ट और उसके बाद के कानूनी सुधारों से है।

जस्टिस जे.एस. वर्मा समिति (Justice J.S. Verma Committee):

  • गठन: 2012 के भयावह दिल्ली सामूहिक बलात्कार (निर्भया) मामले के बाद पूरे देश में व्यापक आक्रोश और प्रदर्शन हुए थे। तत्कालीन सरकार ने जनता की मांग पर न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा (भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश) की अध्यक्षता में एक तीन-सदस्यीय समिति का गठन किया।
  • उद्देश्य: इस समिति का मुख्य उद्देश्य भारत में महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों से संबंधित कानूनों की समीक्षा करना और उनमें आवश्यक संशोधन सुझाना था, ताकि इन अपराधों को रोकने और अपराधियों को दंडित करने के लिए कानून को अधिक प्रभावी बनाया जा सके।
  • रिपोर्ट: समिति ने रिकॉर्ड समय (लगभग एक महीने) में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें यौन अपराधों से संबंधित कानूनों में कई महत्वपूर्ण बदलावों का सुझाव दिया गया था, जिसमें बलात्कार की परिभाषा का विस्तार, पीछा करने (stalking) और छेड़छाड़ (molestation) जैसे अपराधों को शामिल करना, तथा सजा को कड़ा करना शामिल था।
  • कानूनी प्रभाव: इस रिपोर्ट की सिफारिशों के आधार पर ही भारत सरकार ने आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 (Criminal Law (Amendment) Act, 2013) पारित किया, जिसने भारतीय दंड संहिता (IPC), दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act) में महत्वपूर्ण बदलाव किए।

संभव है कि “जस्टिस वर्मा केस” का अर्थ जस्टिस वर्मा समिति की सिफारिशों से उत्पन्न किसी मुकदमे, उनकी व्याख्या, या किसी ऐसे मामले से हो जिसमें CJI गवई ने किसी अन्य क्षमता में (शायद एक वकील के रूप में या सुप्रीम कोर्ट के किसी अन्य न्यायाधीश के रूप में, यदि यह मामला समिति की रिपोर्ट से पहले या उसके तुरंत बाद उत्पन्न हुआ हो) शामिल रहे हों।

न्यायमूर्ति गवई का इस मामले से हटना यह दर्शाता है कि न्यायाधीशों को अपने अतीत के जुड़ाव को गंभीरता से लेना होता है, भले ही वह जुड़ाव कई साल पहले का हो। यह न्यायिक नैतिकता और संवैधानिक जवाबदेही का एक मजबूत उदाहरण प्रस्तुत करता है।

न्यायिक वापसी की प्रक्रिया: क्या यह एक स्वैच्छिक या बाध्यकारी कार्य है? (Process of Judicial Recusal: Is it a Voluntary or Binding Act?)

भारत में न्यायिक वापसी के लिए कोई औपचारिक, संहिता-बद्ध प्रक्रिया या कानून नहीं है। यह मुद्दा अक्सर ‘न्यायिक विवेक’ (judicial discretion) और ‘व्यक्तिगत विवेक’ (individual conscience) पर छोड़ दिया जाता है, जो इसकी सबसे बड़ी ताकत और कमजोरी दोनों है।

न्यायिक वापसी के तरीके:

  1. स्वयं पहल (Suo Motu Recusal):
    • यह सबसे सामान्य तरीका है। न्यायाधीश स्वयं, अपनी अंतरात्मा और न्यायिक नैतिकता के आधार पर, यह निर्णय लेते हैं कि वे किसी मामले की सुनवाई में शामिल नहीं हो सकते।
    • यह तब होता है जब न्यायाधीश को लगता है कि हितों का टकराव है, या पूर्वाग्रह की कोई भी आशंका है, भले ही कोई पक्षकार ऐसी मांग न करे।
    • CJI गवई का जस्टिस वर्मा केस से हटना एक स्वैच्छिक वापसी का उदाहरण है, जहाँ उन्होंने अपनी पूर्व भागीदारी के कारण खुद को अलग किया।
  2. पक्षकारों द्वारा अनुरोध (Request by Parties):
    • मुकदमे के पक्षकार (वादी या प्रतिवादी) किसी न्यायाधीश से खुद को मामले से अलग करने का अनुरोध कर सकते हैं।
    • यह अनुरोध आमतौर पर एक आवेदन के माध्यम से किया जाता है, जिसमें वे पूर्वाग्रह या हितों के टकराव के विशिष्ट कारणों का उल्लेख करते हैं।
    • यह न्यायाधीश पर निर्भर करता है कि वह इस अनुरोध को स्वीकार करे या अस्वीकार करे। न्यायाधीश को अपने निर्णय के कारणों को बताना चाहिए, खासकर यदि वे अनुरोध को अस्वीकार करते हैं।
    • यदि न्यायाधीश अनुरोध अस्वीकार कर देता है, तो उस निर्णय को ऊपरी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती, हालांकि कुछ कानूनी विशेषज्ञ इसे चुनौती देने के पक्ष में तर्क देते हैं।

प्रक्रिया की अस्पष्टता और चुनौतियाँ:

  • कोई नियम नहीं: न्यायिक वापसी के लिए भारतीय संविधान या किसी कानून में कोई स्पष्ट दिशानिर्देश या प्रक्रिया निर्धारित नहीं है। यह स्थिति ‘न्यायपालिका की स्वतंत्रता’ के नाम पर बनाई गई है, लेकिन यह ‘मनमानेपन’ का मार्ग भी खोल सकती है।
  • न्यायाधीश का विवेक: न्यायाधीश का निर्णय अंतिम होता है। यदि कोई न्यायाधीश वापसी से इनकार करता है, तो पक्षकारों के पास इसे चुनौती देने का कोई स्पष्ट कानूनी मार्ग नहीं है।
  • कारणों का खुलासा: न्यायाधीशों को वापसी के कारणों का खुलासा करना चाहिए या नहीं, इस पर भी बहस होती है। कुछ का मानना है कि कारणों का खुलासा पारदर्शिता बढ़ाता है, जबकि अन्य का तर्क है कि इससे न्यायाधीशों पर अनुचित दबाव पड़ सकता है।

“न्यायिक वापसी की अस्पष्टता भारतीय न्यायपालिका में एक चुनौती बनी हुई है। स्पष्ट दिशानिर्देशों का अभाव न केवल जनता के मन में संदेह पैदा कर सकता है, बल्कि ‘फोरम शॉपिंग’ जैसी अनैतिक प्रथाओं को भी बढ़ावा दे सकता है।”

यह महत्वपूर्ण है कि न्यायिक वापसी का निर्णय बिना किसी दबाव के, केवल न्यायिक शुचिता और अखंडता के सिद्धांतों के आधार पर लिया जाए। यह सुनिश्चित करता है कि न्यायपालिका एक निष्पक्ष और विश्वसनीय संस्था बनी रहे।

न्यायिक वापसी के पक्ष और विपक्ष: एक गहन विश्लेषण (Pros and Cons of Judicial Recusal: An In-depth Analysis)

पक्ष (Pros):

  1. न्यायपालिका की निष्पक्षता और अखंडता सुनिश्चित करना: यह सबसे महत्वपूर्ण लाभ है। न्यायिक वापसी सुनिश्चित करती है कि न्यायाधीश का निर्णय व्यक्तिगत पूर्वाग्रह, संबंध या वित्तीय हितों से प्रभावित न हो। यह ‘न्याय होना भी चाहिए और होता हुआ दिखना भी चाहिए’ के सिद्धांत को मजबूत करता है।
  2. सार्वजनिक विश्वास बनाए रखना: जब कोई न्यायाधीश खुद को ऐसे मामले से अलग करता है जिसमें हितों का टकराव हो सकता है, तो यह जनता के मन में न्यायपालिका के प्रति विश्वास बढ़ाता है। यह दर्शाता है कि न्यायाधीश अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी के प्रति सजग हैं और व्यवस्था की अखंडता को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं।
  3. प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन: ‘कोई भी व्यक्ति अपने ही मामले में न्यायाधीश नहीं हो सकता’ (Nemo debet esse judex in propria causa) का सिद्धांत प्राकृतिक न्याय का एक मूलभूत स्तंभ है। न्यायिक वापसी इस सिद्धांत का प्रत्यक्ष अनुप्रयोग है।
  4. न्यायिक नैतिकता को बढ़ावा देना: यह न्यायाधीशों के लिए उच्च नैतिक मानकों को स्थापित करता है और उन्हें अपने पद की गरिमा के प्रति जागरूक रहने के लिए प्रेरित करता है।
  5. ‘फोरम शॉपिंग’ पर अंकुश (विपरीत रूप से): हालांकि यह एक जटिल मुद्दा है, यदि न्यायाधीश दृढ़ता से और पारदर्शी रूप से वापसी करते हैं, तो यह उन पक्षकारों के प्रयासों को हतोत्साहित कर सकता है जो अपनी पसंद की बेंच खोजने के लिए न्यायाधीशों पर अनुचित दबाव डालना चाहते हैं।

विपक्ष (Cons):

  1. ‘फोरम शॉपिंग’ को प्रोत्साहन: न्यायिक वापसी का सबसे बड़ा नकारात्मक पहलू ‘फोरम शॉपिंग’ (Forum Shopping) का खतरा है। कुछ पक्षकार जानबूझकर ऐसे न्यायाधीशों के सामने मामले लाना चाहते हैं जिनसे वे ‘वापसी’ की उम्मीद करते हैं, ताकि वे अपनी पसंद की बेंच प्राप्त कर सकें। यह प्रक्रिया में देरी और हेरफेर का कारण बन सकता है।
  2. न्यायिक कार्यभार और देरी: न्यायिक वापसी से मामलों की सुनवाई में देरी हो सकती है, खासकर यदि विशेषज्ञता वाले न्यायाधीश कम हों या यदि सुप्रीम कोर्ट जैसी संस्था में कई न्यायाधीशों को एक ही मामले से हटना पड़े। एक नए बेंच का गठन और मामले को फिर से सुनना समय और संसाधनों की बर्बादी करता है।
  3. स्पष्ट दिशानिर्देशों का अभाव: भारत में न्यायिक वापसी के लिए कोई स्पष्ट, संहिता-बद्ध नियम नहीं हैं। यह न्यायाधीश के व्यक्तिगत विवेक पर निर्भर करता है, जिससे मनमानी, असंगति और अप्रत्याशितता हो सकती है। यह प्रणाली में पारदर्शिता की कमी भी पैदा करता है।
  4. जवाबदेही का अभाव: यदि कोई न्यायाधीश वापसी से इनकार करता है, तो उस निर्णय को चुनौती देने का कोई स्पष्ट कानूनी प्रावधान नहीं है। इससे जवाबदेही की कमी हो सकती है।
  5. अनपेक्षित परिणाम: यदि बहुत अधिक न्यायाधीश किसी मामले से हटते हैं, तो कभी-कभी एक उपयुक्त बेंच का गठन करना मुश्किल हो सकता है, जिससे महत्वपूर्ण संवैधानिक या कानूनी मामलों की सुनवाई रुक सकती है या विलंबित हो सकती है।

एक संतुलित दृष्टिकोण यह है कि न्यायिक वापसी आवश्यक है, लेकिन इसके लिए स्पष्ट और पारदर्शी दिशानिर्देश होने चाहिए ताकि इसके दुरुपयोग को रोका जा सके और न्यायपालिका की दक्षता और विश्वसनीयता बनी रहे।

चुनौतियाँ और चिंताएँ: भारतीय संदर्भ में न्यायिक वापसी (Challenges and Concerns: Judicial Recusal in the Indian Context)

भारत में न्यायिक वापसी का सिद्धांत, हालांकि न्यायिक नैतिकता का एक महत्वपूर्ण पहलू है, व्यवहार में कई चुनौतियों और चिंताओं को जन्म देता है:

1. स्पष्ट दिशानिर्देशों का अभाव:

  • यह सबसे प्रमुख चुनौती है। भारत में न्यायिक वापसी के लिए कोई संविधानिक प्रावधान, संसदीय कानून, या सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित स्पष्ट नियम नहीं हैं। यह न्यायाधीश के व्यक्तिगत विवेक पर छोड़ दिया जाता है।
  • असंगति: इस कमी के कारण, विभिन्न न्यायाधीशों द्वारा विभिन्न मामलों में वापसी के निर्णय में असंगति देखी जा सकती है। एक न्यायाधीश जिस स्थिति में वापसी करता है, दूसरा न्यायाधीश उसी स्थिति में ऐसा नहीं कर सकता।
  • पारदर्शिता की कमी: न्यायाधीश अक्सर अपनी वापसी के कारणों का विस्तृत विवरण नहीं देते, जिससे जनता और कानूनी समुदाय के मन में पारदर्शिता की कमी का सवाल उठता है।

2. ‘फोरम शॉपिंग’ का दुरुपयोग:

  • पक्षकार कभी-कभी जानबूझकर न्यायाधीशों के पूर्व संबंधों या विचारों के आधार पर उनसे वापसी की मांग करते हैं, ताकि वे अपनी पसंद की बेंच प्राप्त कर सकें। इसे ‘फोरम शॉपिंग’ या ‘बेंच हंटिंग’ कहा जाता है।
  • यह न्यायिक प्रक्रिया को दूषित करता है और न्याय के मार्ग में बाधा डाल सकता है।

3. न्याय में देरी और न्यायिक कार्यभार पर प्रभाव:

  • जब एक न्यायाधीश किसी मामले से हटता है, तो एक नई बेंच का गठन करना पड़ता है, और कभी-कभी सुनवाई को नए सिरे से शुरू करना पड़ता है। इससे महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई में अनावश्यक देरी होती है।
  • भारत जैसे देश में, जहां पहले से ही लाखों मामले लंबित हैं, ऐसी देरी न्यायिक प्रणाली पर अतिरिक्त बोझ डालती है।

4. ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ की शक्ति बनाम न्यायिक वापसी:

  • भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ होते हैं, यानी उनके पास यह शक्ति होती है कि वे मामलों को न्यायाधीशों को आवंटित करें और बेंच का गठन करें।
  • कभी-कभी, न्यायिक वापसी के अनुरोध ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ की शक्ति के साथ टकरा सकते हैं, खासकर यदि वापसी का अनुरोध किसी विशेष CJI या बेंच के प्रति किया जाता है।

5. नैतिक दुविधा:

  • न्यायाधीशों के सामने अक्सर यह नैतिक दुविधा होती है कि क्या उन्हें किसी मामले से हटना चाहिए। यदि वे हर छोटी सी आशंका पर हटते हैं, तो यह ‘फोरम शॉपिंग’ को बढ़ावा दे सकता है। यदि वे नहीं हटते, तो निष्पक्षता पर सवाल उठ सकते हैं।

6. न्यायाधीशों की स्वतंत्रता पर प्रभाव:

  • कुछ लोगों का तर्क है कि यदि न्यायिक वापसी के नियम बहुत कठोर हो जाते हैं, तो यह न्यायाधीशों की स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकता है, क्योंकि वे स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने से हिचकिचा सकते हैं यदि उन्हें लगता है कि उनके फैसलों पर वापसी का दबाव आ सकता है।

इन चुनौतियों के बावजूद, न्यायिक वापसी का सिद्धांत न्यायपालिका की अखंडता के लिए महत्वपूर्ण है। संतुलन खोजने की आवश्यकता है जहां न्यायाधीश निष्पक्षता सुनिश्चित कर सकें, लेकिन सिस्टम का दुरुपयोग न हो।

आगे की राह: न्यायिक वापसी के लिए संतुलित दृष्टिकोण (Way Forward: A Balanced Approach for Judicial Recusal)

भारत में न्यायिक वापसी के सिद्धांत को और अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:

1. स्पष्ट और संहिता-बद्ध दिशानिर्देश (Clear and Codified Guidelines):

  • न्यायिक वापसी के लिए एक व्यापक संहिता या नियमावली विकसित की जानी चाहिए। यह दिशानिर्देश निम्नलिखित पर आधारित हो सकते हैं:
    • अंतर्राष्ट्रीय मानक: ‘न्यायिक आचरण के बंगलौर सिद्धांत’ (Bangalore Principles of Judicial Conduct) जैसे अंतरराष्ट्रीय मानकों का अध्ययन कर भारतीय संदर्भ में उनका अनुकूलन किया जा सकता है।
    • उच्चतम न्यायालय के फैसले: विभिन्न मामलों में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों और टिप्पणियों को संकलित कर उन्हें औपचारिक दिशानिर्देशों में ढाला जा सकता है।
    • हितों के टकराव की परिभाषा: व्यक्तिगत, वित्तीय और पेशेवर हितों के टकराव की स्पष्ट परिभाषा प्रदान की जानी चाहिए।
    • प्रक्रियात्मक स्पष्टता: वापसी के अनुरोधों को कैसे संभाला जाए, न्यायाधीश को कितनी जानकारी प्रकट करनी चाहिए, और वापसी से इनकार करने पर क्या प्रक्रिया होनी चाहिए, इस पर स्पष्ट नियम होने चाहिए।

2. पारदर्शिता और कारण बताने की अनिवार्यता (Transparency and Obligation to State Reasons):

  • जब कोई न्यायाधीश किसी मामले से हटता है, तो उसे सार्वजनिक रूप से वापसी के कारणों को संक्षेप में स्पष्ट करना चाहिए। यह जनता के विश्वास को बढ़ाता है और ‘फोरम शॉपिंग’ के आरोपों को कम करता है।
  • यह भी सुनिश्चित करेगा कि वापसी के निर्णय तर्कसंगत और सुसंगत हों।

3. ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ की शक्ति का विवेकपूर्ण उपयोग (Judicious Use of ‘Master of the Roster’ Power):

  • मुख्य न्यायाधीश को मामलों के आवंटन में अधिक पारदर्शिता और तर्कसंगतता लाने का प्रयास करना चाहिए, जिससे वापसी की आवश्यकता ही कम हो।
  • यदि कोई न्यायाधीश वापसी करता है, तो मुख्य न्यायाधीश को तुरंत एक नई बेंच का गठन करना चाहिए ताकि मामले की सुनवाई में अनावश्यक देरी न हो।

4. न्यायिक शिक्षा और जागरूकता (Judicial Education and Awareness):

  • न्यायाधीशों, विशेष रूप से नए नियुक्त न्यायाधीशों के लिए न्यायिक नैतिकता, हितों के टकराव और न्यायिक वापसी के सिद्धांतों पर नियमित प्रशिक्षण और कार्यशालाएं आयोजित की जानी चाहिए।

5. ‘फोरम शॉपिंग’ से निपटने के उपाय (Measures to Counter ‘Forum Shopping’):

  • कानूनी प्रणाली को ऐसे तंत्र विकसित करने चाहिए जो ‘फोरम शॉपिंग’ के दुर्भावनापूर्ण प्रयासों को प्रभावी ढंग से पहचान सकें और उन्हें रोक सकें।
  • अदालतों को ऐसे अनुरोधों को गंभीरता से लेना चाहिए और यदि वे निराधार पाए जाते हैं तो उन पर सख्ती से निपटना चाहिए।

6. न्यायपालिका की स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच संतुलन (Balance between Judicial Independence and Accountability):

  • यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि किसी भी नियमन से न्यायाधीशों की स्वतंत्र कार्य करने की क्षमता प्रभावित न हो। हालांकि, पारदर्शिता और जवाबदेही के माध्यम से सार्वजनिक विश्वास को मजबूत करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

न्यायिक वापसी एक संवेदनशील मुद्दा है जो न्यायपालिका के आंतरिक कामकाज और उसकी सार्वजनिक धारणा दोनों को प्रभावित करता है। एक सुविचारित और संतुलित दृष्टिकोण ही यह सुनिश्चित कर सकता है कि यह सिद्धांत भारत में न्याय के प्रशासन को मजबूत करना जारी रखे।

निष्कर्ष (Conclusion)

न्यायमूर्ति गवई द्वारा जस्टिस वर्मा केस से खुद को अलग करने का निर्णय न्यायपालिका के उस मूलभूत सिद्धांत का एक ज्वलंत उदाहरण है जो ‘न्यायिक शुचिता’ और ‘सार्वजनिक विश्वास’ की नींव पर टिका है। यह घटना हमें याद दिलाती है कि न्यायाधीश का पद केवल कानूनी व्याख्या का नहीं, बल्कि गहन नैतिक दायित्व और व्यक्तिगत अखंडता का भी है। भारत की न्यायिक प्रणाली, अपनी विशालता और जटिलता के बावजूद, तभी प्रभावी रह सकती है जब वह आम नागरिक के लिए निष्पक्ष और सुलभ प्रतीत हो।

न्यायिक वापसी का सिद्धांत, हालांकि अभी भी अनिश्चितताओं से घिरा हुआ है, न्याय की प्रक्रिया को किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से बचाने के लिए एक आवश्यक तंत्र है। यह सिर्फ न्यायाधीश की व्यक्तिगत ईमानदारी का प्रतीक नहीं, बल्कि पूरी न्यायिक संस्था की विश्वसनीयता का प्रमाण है। ‘न्याय न केवल किया जाए, बल्कि होता हुआ दिखे’ का सुनहरा नियम न्यायपालिका के हर स्तर पर लागू होना चाहिए। भविष्य में, न्यायिक वापसी के लिए स्पष्ट और पारदर्शी दिशानिर्देशों का विकास, बिना न्यायाधीशों की स्वतंत्रता को बाधित किए, भारत में न्याय प्रशासन को और मजबूत करेगा, जिससे यह एक अधिक भरोसेमंद और जवाबदेह संस्था के रूप में उभर सकेगी। यह कदम न्याय के मार्ग में मील का पत्थर साबित होगा और लोकतांत्रिक मूल्यों को पोषित करेगा।

UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)

प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs

  1. प्रश्न 1: न्यायिक वापसी (Judicial Recusal) के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:

    1. यह भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से परिभाषित एक प्रक्रिया है।
    2. इसका मुख्य उद्देश्य न्यायपालिका में सार्वजनिक विश्वास और निष्पक्षता बनाए रखना है।
    3. यह ‘कोई भी व्यक्ति अपने ही मामले में न्यायाधीश नहीं हो सकता’ के सिद्धांत पर आधारित है।

    उपरोक्त कथनों में से कौन-से सही हैं?

    (A) केवल a और b

    (B) केवल b और c

    (C) केवल a और c

    (D) a, b और c

    उत्तर: (B)

    व्याख्या: न्यायिक वापसी भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं है, बल्कि यह न्यायिक प्रथा और नैतिकता पर आधारित है। इसलिए कथन (a) गलत है। कथन (b) और (c) न्यायिक वापसी के मूल सिद्धांतों और उद्देश्यों का सही वर्णन करते हैं।

  2. प्रश्न 2: भारत में न्यायिक वापसी के संबंध में निम्नलिखित में से कौन सा कथन सही नहीं है?

    (A) न्यायाधीश स्वप्रेरणा से खुद को मामले से अलग कर सकते हैं।

    (B) मामले के पक्षकार न्यायाधीश से खुद को अलग करने का अनुरोध कर सकते हैं।

    (C) न्यायिक वापसी के लिए सर्वोच्च न्यायालय के नियमों में विस्तृत प्रक्रिया निहित है।

    (D) न्यायाधीश का निर्णय कि वह वापसी करेगा या नहीं, आमतौर पर अंतिम होता है।

    उत्तर: (C)

    व्याख्या: भारत में न्यायिक वापसी के लिए कोई विशिष्ट, विस्तृत नियम या संहिता-बद्ध प्रक्रिया नहीं है। यह अक्सर न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करता है। इसलिए कथन (C) सही नहीं है।

  3. प्रश्न 3: ‘फोरम शॉपिंग’ (Forum Shopping) शब्द का सबसे सटीक अर्थ क्या है?

    (A) विभिन्न न्यायालयों में न्यायिक मामलों की जानकारी एकत्र करना।

    (B) पक्षकारों द्वारा अपनी पसंद के न्यायाधीश या न्यायालय में सुनवाई कराने का प्रयास।

    (C) कानूनी पुस्तकालयों में न्यायिक फैसलों की खोज करना।

    (D) न्यायपालिका में सुधार के लिए विभिन्न मंचों पर चर्चा करना।

    उत्तर: (B)

    व्याख्या: ‘फोरम शॉपिंग’ एक ऐसी प्रथा है जहां पक्षकार जानबूझकर एक ऐसे न्यायालय या न्यायाधीश की तलाश करते हैं जहां उन्हें अपने मामले में अधिक अनुकूल परिणाम मिलने की संभावना हो, अक्सर न्यायिक वापसी के अनुरोधों का उपयोग करके।

  4. प्रश्न 4: ‘न्याय होता हुआ दिखना भी चाहिए’ (Justice must not only be done, but must also be seen to be done) सिद्धांत निम्नलिखित में से किससे संबंधित है?

    (A) न्यायिक समीक्षा

    (B) न्यायिक सक्रियता

    (C) प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत

    (D) शक्तियों का पृथक्करण

    उत्तर: (C)

    व्याख्या: यह सिद्धांत प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का एक अभिन्न अंग है, जो सुनिश्चित करता है कि न्यायिक प्रक्रिया न केवल निष्पक्ष हो बल्कि निष्पक्ष प्रतीत भी हो। न्यायिक वापसी इसी सिद्धांत का एक उदाहरण है।

  5. प्रश्न 5: ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ (Master of the Roster) की शक्ति भारत में किसके पास निहित है?

    (A) प्रधानमंत्री

    (B) भारत के मुख्य न्यायाधीश

    (C) कानून मंत्री

    (D) सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम

    उत्तर: (B)

    व्याख्या: भारत के मुख्य न्यायाधीश के पास यह विशेष शक्ति होती है कि वे मामलों को विभिन्न बेंचों को आवंटित करें और बेंचों का गठन करें, जिसे ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ की शक्ति कहा जाता है।

  6. प्रश्न 6: जस्टिस जे.एस. वर्मा समिति का गठन किस घटना के बाद किया गया था?

    (A) बाबरी मस्जिद विध्वंस

    (B) निर्भया सामूहिक बलात्कार मामला (2012)

    (C) बोफोर्स घोटाला

    (D) आपातकाल की घोषणा (1975)

    उत्तर: (B)

    व्याख्या: जस्टिस जे.एस. वर्मा समिति का गठन 2012 के दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले (निर्भया) के बाद महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों से संबंधित कानूनों में सुधार हेतु सुझाव देने के लिए किया गया था।

  7. प्रश्न 7: न्यायिक वापसी के कारणों में निम्नलिखित में से क्या शामिल हो सकता है?

    1. न्यायाधीश का मामले के किसी पक्षकार से व्यक्तिगत संबंध।
    2. न्यायाधीश का मामले में पहले वकील के रूप में शामिल होना।
    3. न्यायाधीश का किसी राजनीतिक दल से जुड़ाव।

    उपरोक्त कथनों में से कौन-से सही हैं?

    (A) केवल a और b

    (B) केवल b और c

    (C) केवल a और c

    (D) a, b और c

    उत्तर: (A)

    व्याख्या: व्यक्तिगत संबंध और पूर्व में मामले में शामिल होना हितों के टकराव के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं जो न्यायिक वापसी का आधार बन सकते हैं। न्यायाधीश का राजनीतिक दल से जुड़ाव, हालांकि नैतिक रूप से प्रश्नचिह्न लगा सकता है, सीधे तौर पर न्यायिक वापसी का कानूनी आधार नहीं होता जब तक कि वह किसी विशेष मामले में पूर्वाग्रह साबित न हो।

  8. प्रश्न 8: निम्नलिखित में से कौन-सा कथन न्यायिक वापसी के ‘विपक्ष’ (Cons) से संबंधित नहीं है?

    (A) यह ‘फोरम शॉपिंग’ को प्रोत्साहित कर सकता है।

    (B) यह न्यायिक कार्यभार और मामलों की सुनवाई में देरी का कारण बन सकता है।

    (C) यह न्यायपालिका में सार्वजनिक विश्वास को कमजोर कर सकता है।

    (D) न्यायिक वापसी के लिए स्पष्ट दिशानिर्देशों का अभाव।

    उत्तर: (C)

    व्याख्या: न्यायिक वापसी का उद्देश्य और प्रभाव न्यायपालिका में सार्वजनिक विश्वास को मजबूत करना है, न कि उसे कमजोर करना। यह वापसी न करने से सार्वजनिक विश्वास कमजोर होता है। अन्य विकल्प न्यायिक वापसी के नकारात्मक पहलुओं से संबंधित हैं।

  9. प्रश्न 9: ‘न्यायिक आचरण के बंगलौर सिद्धांत’ (Bangalore Principles of Judicial Conduct) किससे संबंधित हैं?

    (A) अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्याय

    (B) न्यायाधीशों के लिए नैतिक आचरण

    (C) पर्यावरण कानून

    (D) मानवाधिकार संरक्षण

    उत्तर: (B)

    व्याख्या: ‘न्यायिक आचरण के बंगलौर सिद्धांत’ न्यायाधीशों के लिए सार्वभौमिक नैतिक मानकों और आचार संहिता का एक अंतरराष्ट्रीय ढांचा है, जिसमें न्यायिक वापसी जैसे मुद्दे भी शामिल हैं।

  10. प्रश्न 10: आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013, किस समिति की सिफारिशों का परिणाम था?

    (A) जस्टिस आर.एन. मिश्रा समिति

    (B) जस्टिस जे.एस. वर्मा समिति

    (C) मल्होत्रा समिति

    (D) न्यायमूर्ति यू.सी. बनर्जी आयोग

    उत्तर: (B)

    व्याख्या: आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 मुख्य रूप से जस्टिस जे.एस. वर्मा समिति की सिफारिशों पर आधारित था, जिसे 2012 के निर्भया मामले के बाद गठित किया गया था।

मुख्य परीक्षा (Mains)

  1. न्यायिक वापसी (Judicial Recusal) से आप क्या समझते हैं? भारतीय न्यायपालिका में न्यायिक वापसी से संबंधित चुनौतियों और चिंताओं का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए। (लगभग 250 शब्द)
  2. “न्याय न केवल होना चाहिए, बल्कि होता हुआ दिखना भी चाहिए।” इस कथन के आलोक में, न्यायिक वापसी के महत्व का विश्लेषण कीजिए और भारत में न्यायिक वापसी के लिए एक स्पष्ट और संहिता-बद्ध दिशानिर्देशों की आवश्यकता पर तर्क प्रस्तुत कीजिए। (लगभग 250 शब्द)
  3. जस्टिस वर्मा केस से CJI गवई के हटने की घटना को ध्यान में रखते हुए, न्यायिक नैतिकता और ‘फोरम शॉपिंग’ के खतरों पर विस्तार से चर्चा कीजिए। न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं? (लगभग 250 शब्द)
  4. न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायिक जवाबदेही के बीच संतुलन स्थापित करने में न्यायिक वापसी की भूमिका पर चर्चा करें। क्या भारत में न्यायिक वापसी के लिए एक बाध्यकारी तंत्र की आवश्यकता है, या वर्तमान ‘न्यायिक विवेक’ आधारित प्रणाली पर्याप्त है? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दें। (लगभग 250 शब्द)

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