नव प्रकार्यवाद

नव प्रकार्यवाद

 Neo – Functionalism 

 

 

नव प्रकार्यवाद के जनक के रूप में अमेरिकन जेफ्री अलेक्जेण्डर का नाम लिया जाता है । किन्तु ऐसा नहीं है । वास्तव में नव प्रकार्यवाद का जन्म जर्मनी में हुआ था जब निकलस लूहमन ने पारसन्स के प्रकार्यवाद को अस्वीकार करते हुए अपनी पुस्तक ‘ डिफरेंशियेशन ऑफ सोसायटी ‘ ( The Differentiation of Society , 1982 ) के माध्यम से प्रकार्यवाद का नया विकल्प प्रस्तुत किया । किन्तु इस सिद्धान्त की विधिवत घोषणा जेफ्री अलेक्जेंडर ने अपनी पुस्तक ‘ नियो – फंक्शनेलिज्म ‘ ( Neo – Functionalism , 1985 ) के माध्यम से की और इस सिद्धान्त को ‘ नव प्रकार्यवाद ‘ नाम दिया । इसलिए नव प्रकार्यवाद के जनक के रूप में अलेक्जेण्डर का नाम लिया जाता है ।

शास्त्रीय काल की दृष्टि से समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों को तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है –

आधुनिक ,

उत्तर – आधुनिक एवं

नव प्रकार्यवाद ।

समाजशास्त्रीय सिद्धान्त क्लासिकल एवं आधुनिक समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों में कॉम्टे , दुर्थीम , स्पेन्सर , वेबर , पेरेटो , सोरोकिन एवं मर्टन इत्यादि सिद्धहस्त समाजशास्त्रियों के अनेक सिद्धान्त अपना महत्त्व रखते हैं किन्तु समाजशास्त्र के बौद्धिक गुरु टॉलकट पारसन्स का ‘ प्रकार्यवाद ‘ समाजशास्त्रीय सैद्धान्तिक परम्परा का एक उत्कृष्ट उदाहरण है । प्रकार्यवाद ने अनेक समाजशास्त्रियों को पहचान दिलायी है । स्पेन्सर , मैलिनोस्की , रेडक्लिफ ब्राउन , एवं मर्टन के प्रकार्यवादी सिद्धान्त बड़े महत्त्व के हैं किन्तु पारसन्स के समकक्ष नहीं । किन्तु सन् 1960 के आसपास पारसन्स के प्रकार्यवाद पर अंगुली उठने लगी । कुछ उत्तर – आधुनिक समाजशास्त्रियों ने पाया कि पारसन्स के प्रकार्यवाद में ‘ व्यक्तिवाद विरोध ‘ , ‘ परिवर्तन विरोध ‘ , ‘ रूढ़िवाद ‘ , ‘ आदर्शवाद ‘ जैसी अनेक कमियाँ व्याप्त हैं जिन्हें दूर किया जाना नितान्त आवश्यक है । इन्हीं कमियों को दूर करने के लिए प्रकार्यवाद का जो नया संस्करण अस्तित्व में आया उसे ही नव – प्रकार्यवाद के नाम से जाना जाता है । नव प्रकार्यवाद का अस्तित्व यूरोप एवं अमेरिका में है । यूरोप के नव प्रकार्यवाद पर निकलस लूहमन , हेबरमास एवं एंथनी गिहेन्स तथा अमेरिकन नव प्रकार्यवाद पर जेफ्री अलेक्जेंडर के विचारों का प्रभाव है ।

नव प्रकार्यवाद क्या है ? ( What is Neo – Functionalism )

नव प्रकार्यवाद को परिभाषित करते हुए अलेक्जेण्डर और पॉल कोलोमी लिखते हैं- ” यह प्रकार्यवादी सिद्धान्त की एक आत्म आलोचनात्मक धारा है जो इसकी सैद्धान्तिक आत्मा को बनाए रखते हुए प्रकार्यवाद के बौद्धिक क्षेत्र में विस्तार करना चाहती है । ” नव प्रकार्यवाद सीधे – सीधे पारसन्स के संरचनात्मक प्रकार्यवाद से प्रेरणा पाकर विकसित हुआ है । यह प्रारम्भ भी पारसन्स से होता है और समाप्त भी । कुल मिलाकर कहा जाए तो पुरानी कलाकृति को नए रंगों से रंग दिया गया है ।

 नव प्रकार्यवाद के सम्बन्ध में अलेक्जेण्डर का स्पष्ट रूप से कहना है कि यह कोई विकसित सिद्धान्त नहीं है , अपितु एक प्रवृत्ति मात्र है ।

नव प्रकार्यवाद को अनेक उत्तर – आधुनिक समाजशास्त्रियों ने विकसित किया है । यद्यपि यह अभी निर्माण के दौर में है और इसकी सफलता / असफलता अभी भविष्य के गर्त में है । तथापि नव प्रकार्यवाद के सैद्धान्तिक आधार को देखते हुए इसकी सफलता की अपेक्षा की जा सकती है । जेफ्री अलेक्जेण्डर , निकलस लूहमन , पॉल कॉलॉमी , रिचर्ड मंच , नील स्मेलसर , मार्क गूल्ड एवं जॉर्ज रिट्जर नव प्रकार्यवाद के प्रमुख विचारक हैं । यहाँ पर नव प्रकार्यवाद के प्रमुख विचारक के रूप में जेफ्री अलेक्जेण्डर के योगदान की चर्चा की जाएगी

जेफ्री अलेक्जेण्डर का नव प्रकार्यवाद

 ( Neo Functionalism of Jeffrey Alexander )

 नव प्रकार्यवाद के अग्रणी विचारक जेफ्री अलेम्जेण्डर का जन्म सन् 1947 में अमेरिका में हुआ । उनकी शिक्षा – दीक्षा हारवर्ड विश्वविद्यालय , अमेरिका में हुई । नव वामपंथी मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित अलेक्जेण्डर ने छात्र आंदोलनों में जमकर सहभागिता की । शिक्षा समाप्ति के पश्चात् अलेक्जेण्डर वर्कले यूनिवर्सिटी में अध्यापक हो गए तथा पी.एच. डी . की उपाधि भी प्राप्त की । वर्तमान में अलेक्जेण्डर कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी , अमेरिका में समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष हैं । Jeffrey Alexander अलेक्जेण्डर मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित रहे हैं इसलिए उनकी गणना नव प्रकार्यवादी के साथ – साथ नव वामपंथी मार्क्सवादियों में भी की जाती है । अलेक्जेण्डर के अनुसार नव वामपंथी मार्क्सवाद परम्परागत मार्क्सवाद के आर्थिक निर्धारणवाद को स्वीकार नहीं करता क्योंकि नव वामपंथी मार्क्सवाद ने इतिहास में पुनः कर्ता को स्थान देकर उसे पुनर्स्थापित किया है जिसे मार्क्सवाद ने पूर्णतः भुला दिया था । किन्तु सन् 1970 में परिस्थितियों वश अलेक्जेण्डर का नव – मार्क्सवाद से मोह भंग हो गया । अलेक्जेण्डर की प्रमुख कृति ‘ थियोरिटिकल लॉजिक इन सोशियोलोजी ‘ है जो 1982-83 में चार खण्डों में प्रकाशित हुई । इस पुस्तक में उन्होंने सैद्धान्तिक समन्वय का कार्य किया है । इसी पुस्तक के माध्यम से अलेक्जेण्डर ने पारसन्स का विरोध प्रारम्भ किया । यह पुस्तक पारसन्स की कृतियों के समकक्ष मानी जाती है । पारसन्स ने समाजशास्त्रीय अध्ययनों में प्रत्यक्षवाद पर बल दिया था किन्तु अलेक्जेण्डर ने इस पुस्तक के माध्यम से समाजशास्त्रीय अध्ययनों में उत्तर – प्रत्यक्षवाद पर बल दिया है ।

अलेक्जेण्डर की प्रमुख कृतियाँ निम्नवत हैं

  1. Theoritical Logic in Sociology , 4 Vols , 1982-83

  1. Neo Functionalism , 1985
  2. Twenty Lectures : Social Theory Since World War II , 1987
  3. Durkheimian Sociology : Cultural Studies ( ed . ) , 1988
  4. Action and its Environments , 1988
  5. Fir – de – Siecle Social Theory , 1995
  6. Neo Functionalism and Beyond , 1998

अलेक्जेण्डर ने पारसन्स के प्रकार्यवाद की व्याख्या नए कलेवर में की है । यही अलेक्जेण्डर का नव प्रकार्यवाद है । वे पारसन्स के प्रकार्यवाद की कुछ मान्यताओं से संतुष्ट नहीं थे । उन्हीं कमियों को दूर करने का प्रयास करते हुए अलेक्जेण्डर ने अपने विचारों को प्रस्तुत किया है । अलेक्जेण्डर के इन विचारों को बिन्दुवार तरीके से संक्षेप में समझना आवश्यक है

 प्रत्यक्षवाद का विरोध –

उनका मत है कि समाजशास्त्र को अनुभव के साथ सैद्धान्तिक तत्व पर भी ध्यान देना चाहिए । केवल अनुभव का ही हम ध्यान रखेंगे तो नए निष्कर्ष सामने नहीं आ पाएँगे । सिद्धान्त का मत है कि अनुभववाद और सिद्धान्तवाद का समायोजन समाजशास्त्र में तार्किकता को प्रोत्साहित करेगा । सिद्धान्त का यही उत्तर प्रत्यक्षवादी दृष्टिकोण उन्हें विशिष्ट समाजशास्त्रियों की क्षेत्री में ला खड़ा करता है ।

 

 समाजशास्त्रीय अध्ययनों में प्रत्यक्षवाद का प्रतिपादन अगस्ट कॉम्ट ने किया था । प्रत्यक्षवाद अनुभव अर्थात् अवलोकन आधारित अध्ययनों का दूसरा नाम है । अनेक दिग्गज समाजशास्त्रियों ने प्रत्यक्षवाद का समर्थन किया है । यहाँ तक कि पारसन्स का प्रकार्यवाद भी प्रत्यक्षवाद पर आधारित है । अलेक्जेण्डर प्रत्यक्षवाद को स्वीकार नहीं करते । प्रत्यक्षवाद की अपनी एक भारी कमी है । मान लीजिए प्रत्यक्षवाद के आधार पर एक सिद्धान्त का निर्माण हुआ । “ मध्यम या निम्न वर्ग की तुलना में उच्च वर्ग अधिक विलासी प्रवृत्ति का होता है । ” अब जब भी इस विषय पर कोई शोधकर्ता अध्ययन करने क्षेत्र में जाएगा , वह इसी सिद्धान्त को आधार बनाकर अध्ययन क्षेत्र में तथ्य एकत्रित करेगा क्योंकि तथ्य सिद्धान्त के विपरीत एकत्र नहीं किए जाते । इसी कमी के कारण अलेक्जेण्डर ने उत्तर प्रत्यक्षवाद को प्रस्तुत किया है ।

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 क्रिया और व्यवस्था की अवधारणा –

 

 

उन्होंने पारसन्स की क्रिया और व्यवस्था की व्याख्या को स्वीकार नहीं किया है । क्रिया और व्यवस्था के सम्बन्ध में अलेक्जेण्डर का मत है कि किसी भी क्रिया को सम्पन्न करने के पीछे कर्ता के दो उद्देश्य हो सकते हैं – या तो उसे वह क्रिया उपयोगी लगती है या फिर वह केवल व्यवस्था को बनाए रखने के लिए वह क्रिया करता है । क्रिया एवं व्यवस्था की यह अवधारणा केवल नव प्रकार्यवाद में देखने को मिलती है ।

अलेक्जेण्डर समाजशास्त्र को एक नया सैद्धान्तिक तर्क देना चाहते हैं । उनकी यह मंशा उनकी पुस्तक ‘ थियोरिटिकल लॉजिक इन सोशियोलोजी ‘ में देखने को मिलती है । इसके लिए उन्होंने क्रिया और व्यवस्था की अवधारणा को प्रस्तुत किया है । ये दोनों अवधारणाएँ समाजशास्त्र के किसी भी तर्क में प्रयोग में लायी जा सकती है ।

 प्रकार्यवाद की नवीन व्याख्या –

प्रकार्यवाद शब्द को अनेक समाजशास्त्रियों ने परिभाषित किया है । सर्वाधिक स्पष्ट रूप से इसे रॉबर्ट मर्टन ने परिभाषित किया है । उन्होंने इसके तीन अर्थ भी बताए हैं-

 ( i ) सामान्य रूप से फंक्शन अर्थात् प्रकार्य का तात्पर्य किसी समारोह से होता है ।

 ( ii ) गणितीय रूप से इसका तात्पर्य कार्य कारण से होता है । तथा

( iii ) समाजशास्त्र में प्रकार्य का तात्पर्य क्रिया एवं व्यवस्था से होता है ।

अलेक्जेण्डर , मर्टन के प्रकार्य सम्बन्धी अर्थों से संतुष्ट नहीं हैं । उन्होंने अपनी पुस्तक ‘ नव प्रकार्यवाद ‘ ( Neo – functionalism , 1985 ) में प्रकार्यवाद के नामकरण पर असहमति व्यक्त की है । उन्होंने प्रकार्यवाद को निम्न प्रकार प्रस्तुत किया है

 हमें सम्पूर्ण समाज को खुले तथा बहुलवादी दृष्टिकोण से देखना चाहिए अर्थात् प्रत्येक दृष्टिकोण से समाज के प्रत्येक क्षेत्र का अध्ययन किया जाना चाहिए ।

 हमें केवल सकारात्मक सामाजिक प्रक्रियाओं पर ध्यान नहीं देना चाहिए बल्कि नकारात्मक अथवा विघटनकारी सामाजिक प्रक्रियाओं पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहिए । नकारात्मक सामाजिक प्रक्रियाएँ समाज की वास्तविकता होती हैं । दोनों प्रकार की प्रक्रियाओं को केन्द्र बनाने से एकीकरण की सम्भावना रहती है ।

हमें सामाजिक विभेदीकरण का विरोध नहीं करना चाहिए । सामाजिक विभेदीकरण सामाजिक परिवर्तन के लिए अनिवार्य है । साथ ही समाजशास्त्र में प्रयुक्त होने वाली अवधारणाओं को मुक्त तरीके से स्पष्ट किया जाना आवश्यक है ।

 क्रिया और संरचना की व्याख्या में हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ये दोनों एक दूसरे को प्रभावित करती है । इसी रूप में इनका अध्ययन करना चाहिए । दोनों को अलग – अलग समझकर नहीं ।

 समाज , संस्कृति एवं व्यक्तित्व अलग – अलग अवधारणाएँ हैं । इन्हें पृथक – पृथक रूप में देखा जाना चाहिए ।

ब्राउन का संरचनात्मक – प्रकार्यवाद का सिद्धान्त

( Browa’s Structural – Functional Theory )

ब्राउन के अनुसार , “ सामाजिक सम्बन्धों के एक जटिल ताने – बाने को हम सामाजिक संरचना के नाम से पुकारते हैं । ” ब्राउन ने अपनी सामाजिक संरचना की अवधारणा को ‘ सामाजिक प्रकार्य ‘ की अवधारणा से अलग हटकर समझने का प्रयत्न किया है । इस प्रकार इन्होंने सामाजिक संरचना को सम्पूर्ण समाज के सन्दर्भ में न समझकर एक ऐसी सामाजिक संरचना की कल्पना की है , जो उस संरचना अथवा सामाजिक सम्बन्धों के विशेष सामाजिक संरचना के प्रकार्य के विषय में जाना जा सके , यदि वह सम्पूर्ण व्यवस्था की संरचनात्मक निरन्तरता को बनाए रखने में अपना योगदान देता है । वास्तव में ब्राउन ने सामाजिक संरचना को प्राकृतिक विज्ञान की एक शाखा माना है । ब्राउन का ऐमा मानना इस बात पर प्राधारित है कि सामाजिक प्रघटना का अध्ययन उन विधियों द्वारा किया जाता है जो प्राकृतिक तथा जैवकीय विज्ञानों में प्रयोग की जाती है । लेकिन चूंकि समाज सामाजिक सम्बन्धों का एक जाल है , इसलिए समाजशास्त्र में सामाजिक संरचना का अध्ययन वास्तव में सामाजिक सम्बन्धों की जटिलतानों का ही अध्ययन है ।

ब्राउन ने सामाजिक संरचना को संस्थात्मक रूप में ही परिभाषित करने का प्रयास किया है । व्यक्ति समाज का महत्त्वपूर्ण अंग है , जो संस्थानों से घिरा होता है । व्यक्ति समाज के दूसरे व्यक्तियों से संस्थानों द्वारा जुड़ा होता है । इन संस्थानों का महत्त्व इस बात में देखा जा सकता है कि समाज में व्यक्तियों के सामाजिक सम्बन्धों के कुछ प्रतिमान विकसित हो जाते हैं । इस प्रकार व्यक्तियों का संस्थानों के माध्यम से एक निश्चित और व्यवस्थित रूप में सज जाना , किन्हीं निश्चित प्रतिमानों का विकसित कर लेना तथा इस सबका मिल – जुलकर बना एक समन्वित ” स्वरूप ‘ सामाजिक सरचना ‘ कहता है । ब्राउन ने आगे चलकर सामाजिक संरचना की अपनी इस अवधारणा में कुछ परिवर्तन किया । 1952 में उन्होंने ‘ स्ट्रकचर तथा फक्शन इन ए प्रिमिटिव सोसाइटी ‘ नामक पुस्तक प्रकाशित की । इसमें ‘ सामाजिक संरचना के विषय में अपनी संशोधित अवधारणा को ब्राउन ने निम्न शब्दों में व्यक्ति किया है । ” प्रकार्य की अवधारणा में संरंचना की अवधारणा अन्तहित है , जिसमें हम विभिन्न इकाइयों के बीच पाए जाने वाले सम्बन्धों की व्यवस्था को लेते हैं तथा जिनकी निरन्तरता इन इकाइयों की कार्यविधियों पर निर्भर करती है । ” इस प्रकार ब्राउन के अनुसार सामाजिक संरचना एक गतिशील निरन्तरता है । दूसरे शब्दों में , सामाजिक सरचना एक मकान की संरचना के समान नहीं है , बल्कि एक जीवित मनुष्य के शरीर के ढांचे के समान गतिशील निरन्तरता है । यहाँ तात्पर्य यह है कि संरचना स्वयं तो स्थायी है , लेकिन इसके अनेक तत्त्वों में परिवर्तन पा सकता है , पाता है और प्राता भी रहेगा , लेकिन सरचना का स्थायित्व बना रहता है ।

समाज में नए सदस्य आ जाते हैं , नवीन संस्थायें विकसित हो जाती हैं , नयी – नयी समितियों का निर्माण हो जाता है , नवीन आवश्यकताओं का जन्म होता है और उनके अनुसार नवीन परिवर्तन घटित होते हैं , लेकिन सभी परिवर्तनों का सामाजिक ढांचे पर समान प्रभाव नहीं पड़ता । ब्राउन ने सामाजिक संरचना के स्थानीय पहलू पर भी विचार किया है । उनकी कथन है कि प्रत्येक सामाजिक संरचना का एक स्थानीय पहलू भी होता है । उनके अपने शब्दों में ” यदि हम दो समाजों की सामाजिक संरचना का तुलनात्मक अध्ययन करें तो यह आवश्यक है कि हम दोनों संरचनाओं के स्थानीय पहलू पर विचार करें । इस प्रकार यह सम्भव नहीं है कि हम किसी संरचना का अध्ययन उस भौगोलिक क्षेत्र से पूर्णतया हटकर करें , जहां उसके सदस्य बसे हुए हों – क्योंकि वह भौगोलिक क्षेत्र भी उन सदस्यों के व्यवहार एवं व्यक्तित्व को प्रभावित करता है । इसी प्रकार सामाजिक संरचना का अध्ययन भी हम बिना स्थानीय अाधार के नहीं कर सकते । ” ब्राउन के अनुसार सामाजिक संरचना के अध्ययन में हम विशेष रूप से तीन बातों पर विचार करते हैं-

 ( 1 ) सामाजिक अकारिको ,

( 2 ) सामाजिक शारीरिकी ,

( 3 ) सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियायें ।

( 1 ) सामाजिक प्राकारिको ( Social Morphology ) – ब्राउन के मामानिक सरचना के अन्तर्गत हम इस पर विचार करते हैं कि किसी समाज की प्रनुमार बाह्य रचना प्रान्तरिक परिवर्तनो को अपने में समेट कर किस प्रकार अपना स्थायित्व बनाये रखती है । इन्होंने बतलाया कि नैतिकता , विधि , प्राचार – व्यवहार , धर्म , संस्कार , शिक्षा प्रादि संरचना के महत्त्वपूर्ण अंग हैं , जिनके द्वारा सामाजिक संरचना विद्यमान है और विद्यमान रहती है । सामाजिक संरचना में ब्राउन ने भाषा के महत्व को भी समझाने का प्रयास किया है । भाषा के द्वारा समाज के विभिन्न व्यक्तियों और समाज की विभिन्न इकाइयों में निरन्तरता बनी रहती है । इसी प्रकार ब्राउन ने सामाजिक संरचना में श्रम – विभाजन को भी महत्त्वपूर्ण माना है । किसी भी समाज में हम विभिन्न व्यक्तियों को विभिन्न समय में विभिन्न क्रियायें करते हुए देखते हैं , लेकिन इनकी विभिन्नता में इनकी एकता को भंग नहीं करती , क्योंकि यह मभी निश्चित सामाजिक ढांचे के अंग होते हैं । ब्राउन ने सामाजिक सरचना को और अधिक स्पष्ट करने के लिए ‘ सन्दर्भ समूह ‘ का उदाहरण भी दिया है , क्योंकि व्यक्तियों के व्यवहारों को तथा उनके सामाजिक सम्बन्धों को उस समूह के व्यक्तियों तथा उनके सम्बन्धों के सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है , जिनके वह सदस्य होते हैं । ब्राउन ने सामाजिक संरचना के बाह्य प्रारूप को समझने के लिए सामाजिक रुचियों , सामाजिक मूल्यों तथा सामाजिक संस्थानों को भी महत्त्वपूर्ण बतलाया है , क्योंकि यह मभी सामाजिक संरचना की निरन्तरता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण सिद्ध होते हैं ।

( 2 ) सामाजिक शारीरिकी ( Social Physiology ) – सामाजिक संरचना के अध्ययन करने में हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि सामाजिक ढाँचा लगभग शारीरिक ढांचे की भांति ही है , जैसे हमारे शरीर में भिन्न – भिन्न अंग होते हैं । उसी प्रकार समाज में मामाजिक सम्बन्ध होते हैं । समाज के विभिन्न अगों में उसी प्रकार सम्बन्ध पाया जाता है , जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंगों में पाया जाता है , जिस प्रकार शारीरिक संरचना में परिवर्तन होते रहने के बाद भी निरन्तरता बनी रहती है , उसी प्रकार सामाजिक संरचना में भी निरन्तरता बनी रहती है । यहाँ प्रह उल्लेखनीय है कि मामाजिक संरचना में हम ‘ व्यक्तियों ‘ ( Individuals ) का अध्ययन नहीं करते , बल्कि ‘ सामाजिक पुरुषों ‘ ( Social Persons ) का अध्ययन करते हैं ।

ब्राउन का कथन है कि संरचना के नए स्वरूपों का विकास क्रम – विकास की प्रक्रिया द्वारा हुआ है । क्रम – विकास की इस प्रक्रिया के दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं-

( 1 ) इतिहास में निरन्तर एक ऐसी प्रक्रिया विद्यमान रही है , जिसके द्वारा सामाजिक संरचना के थोड़े से स्वरूपों में अनेक स्वरूप उत्पन्न होते चले गए . तथा

( 2 ) इस प्रक्रिया के द्वारा ही समाज के साधारण स्वरूप जटिल स्वरूपों में विकसित हो गए ।

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नैडल का संरचनावाद

( Structuralism of Nadel )

 एस . एफ . नंडल के अनुसार , ‘ संरचना ‘ शब्द से विभिन्न अंगों के व्यवस्थित तथा क्रमबद्ध योग का बोध होता है । इससे इसके अंगों के गुग्ग , प्रकृति अथवा महत्त्व या इसमें अन्तहित अन्तर्वस्तु का बोध नहीं होता । जब हम ‘ संरचना ‘ शब्द का प्रयोग करते हैं तो सब बातों को इसमें से निकाल लेते हैं , जिनका सम्बन्ध क्रमबद्धता अथवा व्यवस्था से नहीं होता । उदाहरण के लिए यदि हम किसी बॉक्स की संरचना का उल्लेख करें तो हम बिना इस बात पर विचार किए हुए कि बॉक्स लकड़ी का है , टिन का है , या लोहे का है , बॉक्स में कागजात हैं या वस्त्रादि , अथवा यह खाली है , अथवा भरा गया है , बॉक्स की संरचना का वर्णन कर सकते हैं । इसका अर्थ यह निकला कि संरचना को अभिव्यक्त करने वाली मूर्त सामग्री पर ध्यान दिए बिना ही हम संरचना को अभिव्यक्त तथा उसमें परिवर्तन कर सकते हैं । दूसरे शब्दों में , हम यह भी कह सकते हैं कि हम संरचना में परिवर्तन न करके उसके मूर्त अंगों की मूत प्रकृति में परिवर्तन ला सकते है । नंडल के अपने शब्दों में ‘ संरचना शब्द प्रगों की एक व्यवस्थित क्रमबद्धता को व्यक्त करता है , जिसको स्थानान्तरणीय माना जा सकता है और जिसमें अपेक्षाकृत अपरिवर्तनशीलता पाई जाती है , यद्यपि स्वयं उसके अंग परिवर्तनशील होते हैं । ” जब ” मंरचना शब्द का प्रयोग हम समाज के सन्दर्भ में करते हैं तब हम ‘ सामाजिक संरचना ‘ मुहावरे का प्रयोग करते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि सामाजिक मंरचना को समझने के लिए हमें यह स्पष्ट करना होगा कि हम समाज से क्या ममझें । नडल के अनुसार समाज को हम मनुष्यों का एक ऐसा समूह समझ सकले हैं , जिसमें उसके व्यक्ति किन्ही ऐसे संस्थागत ( Institutionalized ) यवा सामान्य नियमों के प्राधार पर एक – दूसरे से सम्बन्धित होते हैं , जो उनको क्रियानों को निर्देशित , नियमित व नियन्त्रित करते हैं , अर्थात् समाज की आजारगा में चार परस्पर सम्बन्धित तत्व देखे जा सकते हैं । “

( 1 ) व्यक्ति ( People )

( 2 ) एक – दूसरे के प्रति व्यवहार के निश्चित तरीके ( Determinate ways of acting toward or in regard to one another )

( 3 ) इनके फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले ‘ सामाजिक सम्बन्धों ‘ के विभिन्न स्वरूप तथा इनकी अभिव्यक्तिर्ग ।

( 4 ) इन सम्बन्धों में कुछ सीमा तक नियमितता ( Consistency ) तथा स्थायित्व ( Estability ) का पाया जाना ।

 नंडल की ‘ समाज ‘ ( Society ) को अवधारणा के सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि मनुष्यों के बीच न तो अत्यधिक अनियमितता पाई जाती है और न ही क्रिया करने वाले व्यक्तियों में प्राकस्मिक अपरिवर्तनशीलता । इसका प्रमुख कारण यह है कि क्रिया करने के लिए कुछ संस्थागत नियम होते हैं , जो स्वतः ही व्यक्तियों में नियमितता उत्पन्न करते हैं । इस प्रकार समाज की व्याख्या करने के पश्चात् नैडल ने सामाजिक संरचना को परिभाषित किया । ” मूर्त जनसंख्या और उसके व्यवहार से निकल कर दूसरे व्यक्तियों से सम्बन्धित रहते हा क्रिया करने की परिस्थिति में क्रिया करने वाले के बीच पाए जाने वाले सम्बन्धों के प्रतिमान , व्यवस्था तथा क्रमबद्धता और नियमितता को हम किमी समाज की संरचना कहेंगे । “

प्रकार्यवाद के क्षेत्र में जहाँ एक पोर ब्राउन और मैलिनोवास्की के विचारों को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है , वहाँ आधुनिक काल में एस . एफ . नैडल के विचारों को काफी महत्त्वपूर्ण माना जाता है । इसका कारण यह है कि ब्राउन , मैलिनोवास्की तथा दुर्थीम सरीखे विद्वानों ने प्रकार्यवाद की व्याख्या प्रकार्य शब्द को लेकर की है और इन लोगों ने अपना ध्यान संस्कृति में पाये जाने वाले विभिन्न तत्त्वों के बीच की पाए जाने वाली अन्तःनिर्भरता तथा संस्कृति के किन्हीं तत्त्वों द्वारा मनुष्य को किन्हीं आवश्यकताओं का पूरा किए जाने पर बल दिया है । इसके विपरीत नंडल ने प्रकार्यवाद की व्याख्या संरचना के रूप में की है । नडल समाज को संस्कृति के रूप में अथवा व्यवस्था के रूप में नहीं देखता , बल्कि एक व्यवस्था क्रमबद्धता के रूप में देखता है ।

 नंडल के अनुसार किसी समाज को समझने के लिए यह मावश्यक है कि हम उसकी संरचना को समझे । समाज के विभिन्न अंगों में परिवर्तन मा सकता है , लेकिन समाज की संरचना में निरन्तरता , नियमितता तथा परिवर्तन शीलता बनी रहती है । इसलिए जब हम सामाजिक संरचना के अन्तर्गत प्रकार्य को बात करें तो हमें न केवल समाज अथवा संस्कृति के विभिन्न अगों की अन्तःनिर्भरता की बात करनी चाहिए , बल्कि हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि समाज की संरचना की नियमितता तथा निरन्तरता भी बनी रहती है अथवा नहीं । इस प्रकार नडल के विचार में प्रकार्यवाद से अभिप्राय समाज में उस व्यवस्था अथवा निरन्तरता से है जो समाज के विभिन्न अंगों में परिवर्तन पाने के बाद भी बनी रहती है ।

नैडल ने एक दूसरा उदाहरण हारमोनियम बाजे से दिया है । नडल का कहना है कि हम हारमोनियम से बिना स्वर निकले ही उसकी सरचना को समझ सकते हैं । इसका कारण यह है कि संरचना की विवेचना में अन्त वस्तु अथवा प्रकार्य को सम्मिलिन नहीं किया जाता । स्पष्ट है कि संरचना को अभिव्यक्त करने वाली मूर्त सामग्री के बिना ही संरचना को बनाने वाले अगों की मूर्त प्रकृति में अत्यधिक परिवर्तन हो सकता है । दूसरे शब्दों में , ” सरचना अगों की एक व्यवस्थित क्रमबद्धता को प्रकट करती है , जिसको स्थानान्तरीय माना जा सकता है और जो अपेक्षाकृत अपरिवर्तनीय होती है , जबकि स्वय उसके अंग परिवर्तनशील होते हैं । “

 नैडल के अनुसार सामाजिक संरचना और इसके अन्दर निहित प्रकार्य को हम सम्बन्धों की निरन्तरता एवं नियमितता के रूप में समझ सकते हैं । यह तो हो सकता है कि समाज के विभिन्न सदस्यों के बीच पाए जाने वाले सम्बन्धों में परिवर्तन या जाए । यह भी हो सकता है कि इन सम्बन्धों की अभिव्यक्तियों में परिवर्तन प्रा जाए , लेकिन सम्बन्धों की नियमितता तथा क्रमबद्धता में आसानी से परिवर्तन नहीं प्राता , क्योंकि व्यक्ति किन्ही निश्चित सामाजिक एवं संस्थागत नियमों के आधार पर क्रिया करते हैं । अतएव सम्बन्धों की यही नियमितता एवं निरन्तरता सामाजिक संरचना की नियमितता और निरन्तरता को बनाए रखने का प्रकार्य करती है । अतएव नडल के अनुसार केवल विद्यमान अथवा प्रचलित सामाजिक सम्बन्धों के संयोग अथवा योगमात्र से ही सामाजिक संरचना का निर्माण नहीं होता । यह उस समय तक सम्भव नहीं है जब तक कि उनमें एक प्रकार की व्यवस्थित क्रमबद्धता एवं निरन्तरता न पाई जाए ।

लेवी स्ट्रास का संरचनावाद

 ( Structuralism of Levy Strauss )

 लेवी स्ट्राम के सामाजिक संरचना सम्बन्धी विचारों का विस्तृत विवरण इनकी महत्त्वपूर्ण कृति स्ट्रक्चरल एन्थ्रोपोलॉजी के पन्द्रहवें तथा सोलहवें अध्यायों में देखने को मिलता है । पन्द्रहवां अध्याय पहले 1948 में ‘ एन्थ्रोपोलॉजी टुडे ‘ में प्रकाशित हो गया था । इसकी पालोचनाओं का , जो उत्तर स्ट्रास ने दिया उसे सोलहवें अध्याय में प्रस्तुत किया गया है । नासा कि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है लेवी स्ट्रास के अनुसार ‘ सामाजिक संरचना ‘ अवधारणा का सम्बन्ध किसी प्रयोगसिद्ध वास्तविकता से नहीं है , बल्कि उन प्रारूपों से है , जो इसको आधार मानकर विकसित किए जाते हैं , लेकिन यह प्रारूप किस प्रकार के होते हैं ? लेवी स्ट्रास के अनुसार एक संरचना का जो प्रारूप होता है । वह अनेक प्रावश्यक बातों की पूर्ति करता है

( 1 ) संरचना किसी व्यवस्था की विशेषताओं को प्रदर्शित करती है । यह अनेक तत्त्वो को मिलाकर बनी होती है । किसी भी एक विशेषता में बिना अन्य तत्त्वों में परिवर्तन लाए . परिवर्तन नहीं पा सकता ।

 ( 2 ) किसी भी विशेष प्रारूप ( Model ) के लिए यह सम्भव होना चाहिए कि यह परिवर्तनो के क्रम में व्यवस्था उत्पन्न कर सके , जिसके परिणामस्वरूप उसी प्रकार के दूसरे प्रारूपों का एक समूह निर्मित हो सके ।

( 3 ) ऊपर की दोनों विशेषताओं के आधार पर यह भविष्यवाणी करना सम्भव होगा कि कोई भी प्रारूप , इसके एक या अनेक तत्त्वों में किहीं परिवर्तन लाने पर , किस प्रकार प्रतिक्रिया करेगा ।

( 4 ) प्रारूप ऐसा होना चाहिए , जो समस्त अवलोकित तथ्यों को अविलम्ब समझने में सहायक हो सके । उपरोक्त विशेषतायें सामाजिक संरचना की विशेषतायें नहीं हैं , लेकिन यह संरचनात्मक अध्ययनों की प्रमुख विशेषतामों तथा इनसे सम्बन्धित समस्याओं की ओर महत्त्वपूर्ण संकेत करती हैं ।

संरचनात्मक अध्ययनों में सर्वप्रथम हमें यह निश्चय करना होता है कि हम किन तथ्यों का अध्ययन करेंगे तथा उन्हें अवलोकन अथवा प्रयोग किस विधि द्वारा प्राप्त करेंगे क्योंकि , यद्यपि किसी भी प्रघटना का विवरण देने तथा उसकी व्याख्या करने के लिए अनेक प्रारूपों का प्रयोग किया जा सकता है , फिर भी यह स्पष्ट है कि सबसे उत्तम प्रारूप यह होगा , जो वास्तविक है , अर्थात् जी सम्भावित रूप में साधारणतम प्रारूप है , जो अध्ययन किए जाने वाले तथ्यों से निर्मित किए जाने पर भी समस्त तथ्यों की व्याख्या करने में समर्थ होते हैं । दूसरे , हमें प्रारूपों की चेतनशील तथा प्रचेतनशील प्रकृति में भेद करना आवश्यक होता है , क्योंकि कोई भी संरचनात्मक प्रारूप दोनों प्रकार का हो सकता है । तीसरे , यह भी स्मरणीय है कि संरचना तथा माप में भी आवश्यक सम्बन्ध है ।

सामाजिक विद्वानों में संरचनात्मक अध्ययन गणित के क्षेत्र में प्राधुनिक विकास के परोक्ष परिणाम कहे जा सकते हैं । चौथे , हमें अपने संरचनात्मक प्रारूप के पैमाने तथा प्रघटना के पैमाने के बीच पाए जाने वाले अन्तर को भी स्पष्ट रूप में समझना होगा । इस प्रकार दो प्रकार के प्रारूप होंगे – यान्त्रिक तथा सांख्यिकीय । दोनों प्रकार के संरचनात्मक प्रारूपों में भेद करना प्रावश्यक है । यहाँ यह स्मरणीय है कि सामाजिक संरचनात्मक अध्ययनों को , जो तथ्य महत्त्व प्रदान करता है वह यह है कि संरचनाएँ ऐसे प्रारूप होते हैं , जिनकी स्वरूपीय विशेषताओं को उनके तत्त्वों से स्वतन्त्र रूप में तुलना की जा सकती है ।

इस प्रकार लेवी स्ट्रास ने संरचनात्मक अध्ययनों के दोहरे महत्त्व पर प्रकाश डाला है । एक ओर इस प्रकार के अध्ययन किन्हीं महत्त्वपूर्ण स्तरों को पृथक् करने में सहायक होते हैं , तथा दूसरी ओर इनकी सहायता से ऐसे प्रारूपों का निर्माण करना सम्भव है , जिनकी स्वरूपीय विशेषनामों की ऐसे दूसरे प्रारूपों की विशेषताओं से तुलना की जा सकती है , जो दूसरे स्तरों पर महत्त्वपूर्ण हों ।

इसके अन्तर्गत निम्न विषयों पर विचार होता है-

( 1 ) सामाजिक प्राकारिकी अथवा समुह संरचना ,

 ( 2 ) सामाजिक स्थितिमास्य अथवा संचार सरचनायें ,

( 3 ) सामाजिक गतिशास्त्र अर्थात् प्राधीन संरचनाये ।।

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