द्वितीयक समूह
(SECONDRY GROUP)
प्राथमिक समूह के विपरीत विशेषता वाले समूह को द्वितीयक समूह कहते हैं। कूले ने प्राथमिक समूह की अवधारणा का उल्लेख किया और इसी अवधारणा के कारण द्वितीयक समूह की अवधारणा का विकास हआ। प्राथमिक समूह की तुलना में यह विशाल समूह होता है। इसके सदस्य विशेष स्वार्थों की पूर्ति के लिए आपस मे सम्बन्ध बनाते हैं। उनके सम्बन्धो में घनिष्ठता और निकटता का अभाव पाया जाता है। द्वितीयक समूह के सदस्यों के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध होना भी अनिवार्य नहीं होता है। उनकी बीच निष्पक्षता की भावना पायी जाती है। इसमें व्यक्तिगत भावना और संवेग का कोई स्थान नहीं होता है। उनके सम्बन्ध केवल काम व नीतियों की पूर्ति के लिए बनते हैं। हैं। आदया उनके सदस्यों के बीच का सम्बन्ध संचार के विभिन्न सदनों के द्वारा स्थापित होते हैं, जैसे पोस्टल। तार, टेलिफोन, टेलिविजन इत्यादि इन्हा साधना के द्वारा समाज में नए – नए द्वितीयक समूह का विकास होता रहा है। इसका संगठन जान – बूझकर किया जाता है
कूले (कौले) के अनुसार, “द्वितीयक समूह समान समूह हैं, जिसमें घनिष्ठता का पूर्णतया अभाव पाया जाता है और औया उन विशेषताओं का भी अभाव होता है जो अधिकांथ, प्राथमिक और आभासी प्राथमिक समास में होता है। पायी जाती है। “अर्थात् द्वितीयक सम्बन्धों में व्याख्याता और दिखावटीपन पाया जाता है।
बीयरस्टीड (बीरस्टेड) के शब्दों में,” वे सब समह द्वितीयक हैं। जो प्राथमिक नहीं हैं। में उन्होंने आगे बताया कि प्राथमिक समूह व्यक्तिगत समूह है, द्वितीयक समह अव्यक्तिगत। द्वितीयक समूह के सदस्यों के बीच सम्बन्ध कभी वर्ग, कभी सामाजिक हैसता और कभी कार्यकशलता के आधार पर बनते हैं।
ऑगबर्न और निमकॉफ़ (ओगबर्न और निमकॉफ़) ने इसकी परिभाषा देते हुए बताया कि “वे समूह, जो घनिष्ठता की कमी अनुभव करते हैं, द्वितीयक समूह कहलाते हैं।” ऑगबर्न और निमकॉफ़ ने भी घनिष्ठता के आधार पर IIk समूह को परिभाषित किया है। उनके अनुसार इस प्रकार के समूहों में सदस्यों के बीच स्पष्ट सम्बन्ध पाया जाता हैं।
किंग्सले डेविस (किंग्सले डेविस) के अनार “द्वितीयक समह को मोटे तौर पर प्राथमिक समहों के विरोधी समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। ”
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि द्वितीयक समह में प्राथमिक की विशेषताओं का। अभाव पाया जाता है। द्वितीयक समूह में लोगों के बीच स्पष्ट सम्बन्ध होते हैं। वे अपने विशेष मूल्यों की पूर्ति के लिए संगठित होते हैं। प्राथमिक समूहों की तुल। ना में इनका आकार बड़ा होता है। अत: उनके सदस्यों के बीच व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं बन पाते हैं। आधुनिक व परिवर्तनशील युग में नित नए – नए द्वितीयक समूहों का विकास होता रहा है। पूरी दुनिया से हमारा सम्बन्ध जुड़ता जा रहा है। से द्वितीयक समूह की कुछ प्रमुख इस प्रकार स्पष्ट हो रही हैं।
द्वितीयक समूह के लक्षण
(CHARACTERISTICS OF SECONDRY GROUP)
सीमित दायित्व (सीमित जिम्मेदारी) – समूहों के सदस्यों की विश्वसनीयता दायित्व होता है। ईमानदार सम्बन्ध होने के कारण लोग नियमों और विधियों के बारे में अपना कार्य पूरा करने जाते हैं। उससे अधिक की जिम्मेदारी लेना वे पसन्द नहीं करते और उन्हें अधिक कार्य करने व जवाबदेही लेने के लिए बाध्य भी नहीं किया जाता। द्वितीयक समूह के सदस्य अन्य सदस्यों से समान ही सबन्ध रखना पसन्द करते हैं क्योंकि उनकी शर्तें पूरी होने के लिए आवश्यक होती हैं। सभी सदस्यों के बीच जीएम विश्वसनीयता की भावना का अभाव होता है।
शारीरिक निकटता का अभाव (शारीरिक निकटता में कमी) – द्वितीयक समूह में शारीरिक निकटता का अभाव पाया जाता है। वे एक – दूसरे से दूर रहकर भी इन समूहों के सदस्य बने रहते हैं। द्वितीयक समूह की सदस्य – संख्या अधिक होने के कारण शारीरिक संपर्क या शारीरिक निकटता की सम्भावना कम रहती है। एक व्यक्ति, कई अन्य समूहों का सदस्य रहता है और एक स्थान पर वे सब एकत्र भी नहीं पाते हैं, लेकिन वे सब आपस में संबंधित होते हैं।
परिवर्तनशील प्रकृति (बदलती प्रकृति) – द्वितीयक समूह की प्रकृति परिवर्तनशील होती है। इन समूहों का संगठन व्यक्तियों की आवश्यकता के अनुसार होता है। इन आवश्यकताओं में परिवर्तन होने से द्वितीयक समूहों के रूप में भी परिवर्तन हो जाता है।
अस्थायी सम्बन्ध ( Temporary relations ) – द्वितीयक समूहों के सदस्यों के बीच के सम्बन्ध अस्थायी प्रकृति के होते । उनमें स्थायी सम्बन्ध स्थापित होने का सवाल ही नहीं आता है । एक व्यक्ति अपने खास – खास उद्देश्यों व लक्ष्यों के लिए खास – खास समही की सदस्यता ग्रहण करता है । जैसे ही उसे अपने लक्ष्यों की प्राप्ति हो जाती है वह उन समूहों की सदस्यता त्याग देता है । इस प्रकार | द्वितीयक समूहों में स्थायी सम्बन्ध पनपने का अवसर ही नहीं मिलता ।
विचारपूर्वक स्थापना ( Deliberate establishment ) – द्वितीयक समूह स्वत : विकसित नहीं होता । इसकी स्थापना सोच – समझकर व विचारपूर्वक होती है । कुछ व्यक्ति अपने विशिष्ट | हितों व स्वार्थों से प्रेरित होकर मिल – जुलकर समूह का संगठन करते है । अर्थात् कुछ लोग अपने विशेष उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए जान – बूझकर द्वितीयक समूहों का निर्माण करते है । ये समूह निश्चित नियमों एवं शर्तों के आधार पर बनते है । इस प्रकार के समूह बनते एवं टूटते रहते है ।
विशेष स्वार्थों की पूर्ति ( Fulfilment of special | Interest ) – द्वितीयक समूह की महत्त्वपूर्ण विशे पता यह है कि इसका निर्माण जान – बूझकर विशेष स्वार्थों की पूर्ति के लिए होता है । स्वार्थ की पूर्ति के बाद वे एक दूसरे से सम्बन्धित नहीं रहते । अपने हितो की अधिक – से – अधिक पूर्ति के लिए आपस में प्रतिस्पर्दा भी करते है । विभिन्न समूहों का अपना – अपना विशेष उद्देश्य होता है और वे | इनकी पूर्ति करते है ।
प्रतियोगिता की भावना ( Competition I feeling ) – प्राथमिक समूहों के सदस्यों में प्रतियोगिता की भावना नहीं पायी जाती है । लेकिन द्वितीयक समूहों के सदस्यों के बीच प्रतियोगिता की भावना प्रबल होती है । प्रत्येक व्यक्ति एक – दूसरे से आगे निकलना चाहता है । व्यक्ति अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए दूसरे को पीछे | कर देना चाहता है । प्रतियोगिता की भावना के कारण वे आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं स्थापित कर पाते ।
औपचारिक सम्बन्ध ( Formal relationship ) द्वितीयक समूह के सदस्यों में औपचारिक सम्बन्ध पाया जाता है । इनके | बीच भावनात्मक सम्बन्ध नहीं होते । इनके सदस्यों के बीच जो सम्बन्ध होते है , वे नियमों एवं शर्तों पर आधारित होते है ।
बड़े आकार (बड़े आकार) – द्वितीयक समूह तुलना तम्मक रूप से बड़े आकार का होता है। इसके सदस्यों की संख्या सीमित नहीं होती। आधुनिक युग में यह समूह सम्पूर्ण विश्व में फैला हुआ है। व्यक्ति अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए विभिन्न समूह का सदस्य बनता है। इसका कोई निश्चित क्षेत्र भी निर्धारित नहीं किया जा रहा है। विभिन्न राजनीतिक दलों की तरह, आर्थिक महासंघ, श्रमिक संघ इत्यादि के सदस्य देश के अलावा फैले होते हैं।
सदस्यों के बीच संस्तरण (सदस्यों के बीच उत्तराधिकार) – द्वितीयक समूह के सदस्यों के बीच हैसिटी, अधिकार, अधिकार और पद का भेद पाया जाता है। द्वितीयक समूह का संगठन विचारपूर्वक नियमों के अनार होता है। अत: इसके अनुसार पहले से ही उनके सदस्यों के पद और भूमिका निर्धारित होते हैं। सभी सदस्य अपने – अपने पद और भूमिका के अनुसार अपना कार्य करते हैं।
अप्रत्यक्ष संबध (अप्रत्यक्ष संबंध) – द्वितीयक समूह के सदस्यों के बीच अप्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। इसके सदस्यों की संख्या बहुत अधिक होती है और ये विभिन्न क्षेत्रों में फैले होते हैं जिसके कारण उनके बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित करना मुश्किल हो जाता है। समूहों में सदस्यों के बीच पत्र – पत्रिकाओं। रेडियो सिनेमा और टेलीविजन इत्यादि के द्वारा सम्बन्ध बना रहता है। इसके सदस्यों के बीच अप्रत्यक्ष सहयोग भी पाया जाता है। सभी सदस्य अपने – अपने कार्यों को करते हैं, जिससे समूह के लक्ष्यों की प्राप्ति होती है। इस प्रकार अप्रत्यक्ष संबध और अप्रत्यक्ष सहयोग IIk समूह की प्रमुख विशेषताओं में से है।
अवैयक्तिक सम्बन्ध (प्रतिरूपण संबंध) – द्वितीयक समूह के सदस्यों के बीच व्यक्तिगत सम्बन्ध का अभाव पाया जाता है।) इसके सदस्यों की संख्या इतनी अधिक होती है कि वे एक – दूसरे को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते हैं। उनके सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से सम्बन्ध स्थापित करना आवश्यक नहीं होता है। उनके पास न तो समय होता है और न कोई व्यक्तिगत दिलचस्पी ही होती है कि वे अधिक – से – अधिक लोगों के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित करें।
द्वितीयक समूहों का महत्त्व
(IMPORTANCE OF SECONDRY GROUP)
वर्तमान युग में द्वितीयक समूहों का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। आधुनिक युग में लोगों की संस्थाओं में इतनी बढ़ गई हैं कि उनकी पूर्ति के लिए उसे अन्य समूहों को संगठित करना पड़ता है और उसकी भर्ती ग्रहण करनी चाहिए।) हर व्यक्ति अपने मूल्यों की पूर्ति में लगा रहता है और एक – दूसरे से आगे निकल जाने की कोशिश में लगा रहता है। ऐसी स्थिति में दिनोदिन द्वितीयक समूहों की संख्या बढ़ती जा रही है और लोगों को उसकी आवश्यकता भी महसूस होने लगी है। इसके महत्त्व को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है:
सामाजिक परिवर्तन और प्रगति में सहायक (सामाजिक परिवर्तन और प्रगति में सहायक) समूह सामाजिक परिवर्तन और प्रगति में काफी सहायक होता है। द्वितीयक समूहों की क्रिया ग्रहण करने पर व्यक्ति सीमित दायरे से मुक्त होता है और उसे कुछ अधिक जानने का मौका मिलता है। अधिक जानकारी हासिल करने पर व्यक्ति का दृष्टिकोण तर्क हो जाता है
सामाजिक नियन्त्रण में सहायक (सामाजिक नियंत्रण में सहायक) – सामाजिक नियंत्रण के क्षेत्र में भी द्वितीयक समूह के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। द्वितीयक समूहों के पास कानून और दण्ड का शाक्त होता है। अत: उनके नियम और आदेशों का पालन करना अनिवार्य हो जाता है। जो व्यक्ति इनका पालन नहीं करता है वह दण्ड का अवसर बनता है। आज के समाज में परम्परा, प्रथा, रूढ़ि और धर्म आदि का समान महत्त्व नहीं रह गया है जैसा पहले था। फलस्वरूप समाज अपनी व्यवस्था बनाये रखने के लिए विभिन्न सदनों का इस्तमाल करता है। पुलिस, अदालत, कानुन और प्रशासनिक संगठनों के माध्यम से व्यक्तियों के व्यवहारा पर नियंत्रण रखा जाता है। इससे समाज का सम्पूर्ण जीवन में नियन्त्रण बना रहता है।