द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद

द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद

( Dialectical Materialism )

 द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद मार्क्स के चिन्तन का न केवल एक महत्त्वपूर्ण आधार है बल्कि इसे मार्क्स की सबसे प्रमुख उपलब्धि भी माना जा सकता है । द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद केवल एक सिद्धान्त ही नहीं है बल्कि स्वयं में एक पद्धति भी है जिसका मार्क्स ने अपने चिन्तन में व्यापक उपयोग किया है । साधारणतया द्वन्द्वात्मक भौतिक वाद एक कठिन शब्द प्रतीत होता है लेकिन इसके शाब्दिक अर्थ को समझ लेने से इससे सम्बन्धित मार्क्स की विचारधारा को समझना सरल हो जाता है । इस अव धारणा में दो शब्दों का समावेश है – – ‘ द्वन्द्व ‘ तथा ‘ भौतिकता ‘ ।

सामान्य रूप से द्वन्द्व दो पंक्तियों के बीच विरोध की स्थिति को स्पष्ट करता है । इसमें आक्रामकता तथा संघर्ष के भाव भी निहित हैं । इस दृष्टिकोण से द्वन्द्व एक एसी दशा को स्पष्ट करता है जिनमें दो स्थितियाँ एक – दूसरे के विरोध में आकर परस्पर संघर्ष करती हैं । भौतिकवाद एक ऐसी प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है जिसमें व्यक्ति अपने सम्पूर्ण कार्यों को करने की प्रेरणा भौतिक जगत से प्राप्त करता है । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति जब ईश्वरीय अथवा आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास न करते हुए जगत में उपलब्ध सांसारिक तथ्यों में ही विश्वास करता है तथा इन मौलिक सांसारिक दशाओं को ही प्रत्येक घटना का कारण मानता है तब ऐसे चिन्तन को हम भौतिकवादी चिन्तन कहते हैं । स्पष्ट है कि शाब्दिक रूप में द्वन्द्वात्मक तिकवाद वह दशा है जिसके अन्तर्गत भौतिक परिस्थितियों के बीच होने वाले विरोध और संघर्ष को ही विभिन्न घटनाओं के घटित होने का कारण माना जाता है ।

शाब्दिक रूप से ‘ द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद ‘ का अर्थ जितना सरल है , मार्क्स के चिन्तन के सन्दर्भ में यह अवधारणा उतनी सरल नहीं है । मार्क्स ने अनेक विद्वानों के विचारों का गहन अध्ययन करके द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को सामाजिक घटनाओं के अध्ययन की एक विशेष पद्धति के रूप में प्रस्तुत किया । मार्क्स के चिन्तन पर संसार के महान विचारकों का प्रभाव पड़ा था लेकिन मार्क्स ने उनके विचारों और सिद्धान्त में अनेक संशोधन करके द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का प्रतिपादन किया । इसके महत्त्व का उल्लेख करते हुए क्रपेविन ( Krapivin ) ने लिखा है , ” द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद दर्शन – प्रणाली का सार है । यह प्रकृति , समाज तथा ज्ञान से सम्बन्धित सार्वभौमिक नियमों तथा विशेषताओं का उच्चतम दार्शनिक सामान्यीकरण है । ” 1 कार्ल मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक सिद्धान्त को मुख्यतः हीगलवादी दर्शन से प्राप्त किया था लेकिन मार्क्स का द्वन्द्ववाद हीगल के द्वन्द्ववाद से पूर्णतया भिन्न है । इस दृष्टिकोण से मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की विवेचना करने से पहले यह आवश्यक है कि हीगल द्वारा प्रस्तुत द्वन्द्ववाद को समझ लिया जाय । हीगल की तुलना में ही मार्क्स के विचारों की सार्थकता का मूल्यांकन किया जा सकता है । होगल के विचार ( Views of Hegal ) हीगल एक दार्शनिक विचारक थे । जर्मनी में मार्क्स जब उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे थे , उस समय जर्मनी के बुद्धिजीवियों पर हीगल के दर्शन का विशेष प्रभाव था । उस समय हीगल को एक क्रान्तिकारक विचारक के रूप में देखा जाता था । 

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अपने विचारों की लोकप्रियता के काल में ही हीगल ने द्वन्द्वात्मक विचार प्रस्तुत किये । हीगल ने द्वन्द्ववाद ( Dialetic ) शब्द को यूनानी भाषा के शब्द ‘ डायलिगो ‘ ( Dialego ) से ग्रहण किया । ईसा से पूर्व यूनानी राज्यों के राजदरबार में किसी भी घटना से सम्बन्धित वास्तविकता को जानने के लिए वाद – विवाद अथवा तर्क – वितर्क का सहारा लिया जाता था । तर्क – वितर्क की इसी प्रणाली को डायलिगो कहा जाता था । सम्भवतः इसी अर्थ में प्लेटो तथा अनेक दूसरे दार्शनिकों में द्वन्द्ववाद शब्द का उपयोग ‘ तर्क – वितर्क करने की कला ‘ के अर्थ में ही किया । द्वन्द्व अथवा डायलेक्ट ( Dialect ) के अर्थ को स्पष्ट करते हुए हीगल ने यह बतलाया कि विश्व में जड़ और चेतन सभी पदार्थों में कुछ अन्तविरोध पाया जाता है । प्रत्येक वस्तु की आन्तरिक संरचना का निर्माण करने वाले विभिन्न अंगों के बीच जो अन्तविरोध अथवा द्वन्द्व होता है , उसी के परिणामस्वरूप उस वस्तु के बाहरी स्परूप में परिवर्तन उत्पन्न होते हैं । हीगल से पहले के विचारकों का मत यह था कि केवल कुछ बाह्य दशाएं ही जड़ पदार्थों को प्रभावित करती है । इसके विपरीत . दीगल ने जड़ पदार्थों में होने वाले परिवर्तन को भी उनके अन्दर विद्यमान द्वन्द्ववादी सानों का परिणाम बताया । हीगल का मत था कि प्रकृति के प्रत्येक भाग में द्वन्द्व की प्रक्रिया विद्यमान रहती है । हीगल ने जिस समय उपर्युक्त विचार प्रस्तुत किये , उस समय वह अपनी युवावस्था में थे । बाद में हीगल का सम्पूर्ण चिन्तन अराजकतावादी दिशा में आगे बढ़ने लगा । इसके फलस्वरूप हीगल ने पदार्थ की अपेक्षा विचारों को महत्त्व देना आरम्भ कर दिया । हीगल ने कहा कि जगत में ‘ विचार ‘ महत्त्वपूर्ण है , पदार्थ नहीं ।

अपने द्वन्द्ववाद को स्पष्ट करते हुए हीगल ने बतलाया कि जब हमारे मस्तिष्क में कोई विचार पैदा होता है , तब उसी समय उसका एक प्रतिवाद अथवा विरोधी विचार हमारे मस्तिष्क में उत्पन्न होने लगता है । इन दोनों तरह के विचारों के बीच द्वन्द्व की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है । इसका समाधान एक ऐसे विचार के रूप में होता है जिसे हम संश्लेषण अथवा समन्वय की दशा ( Synthesis ) कह सकते हैं । हीगल के इस विचार को सामान्य शब्दों में स्पष्ट करते हुए कहा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी विशेष लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है तो वैचारिक आधार पर व्यक्ति का मस्तिष्क उसे समाज द्वारा स्वीकृत मानदण्डों का प्रयोग करने का सुझाव देता है । उसी समय उसके मस्तिष्क में सामाजिक मानदण्डों का उल्लंघन करने के विचार भी उत्पन्न होते हैं । उदाहरण के लिए , जब एक व्यक्ति धन अजित करने के लिए कठिन परिश्रम करता है तब उसके मस्तिष्क में गलत तरीकों से धन कमाने की इच्छा पैदा होती है । इन दोनों तरह के विचारों के बीच द्वन्द्व अथवा संघर्ष होता है । इस द्वन्द्व के फलस्वरूप व्यक्ति अपनी तार्किकता और चेतना के आधार पर जिस निष्कर्ष पर पहुँचता है , उसी को हम ‘ संश्लेषण ‘ अथवा समन्वय कहते हैं । इस आधार पर हीगल ने यह बताया कि समाज में जो भी परिवर्तन उत्पन्न होते हैं . वे व्यक्तियों के मस्तिष्क में बाद ( thesis ) और प्रतिवाद ( anti – thesis ) के रूप में होने वाले द्वन्द्व तथा उसके फलस्वरूप जन्म लेने वाले समन्वय के आधार पर होते हैं । हीगल ने यह स्पष्ट किया कि यद्यपि समन्वय अथवा संश्लेषण में वाद और प्रतिवाद दोनों ही तत्त्वों का समावेश होता है लेकिन समन्वय के रूप में बनने वाली स्थिति भी पूरी तरह स्थायी नहीं होती । कुछ समय बाद समन्वय की दशा का पुनः प्रतिवाद होने लगता है ।

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इस स्थिति में कुछ समय पहले तक हम जिसे ‘ समत्वय की दशा ‘ कहते थे , वही वर्तमान में वाद ( thesis ) का रूप ले लेता है । एक स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में इसका पुनः प्रतिवाद सामने आने लगता है और बाद तथा प्रतिवाद के बीच संघर्ष होने से समन्वय की एक नयी दशा उत्पन्न होती है जो साधारणतया पहले से अधिक अच्छी होती है । इस प्रकार हीगल ने द्वन्द्ववाद की विवेचना में विचारों अथवा मानवीय चेतना को अधिक महत्त्व दिया । इस सन्दर्भ में इतिहास की विवेचना करते हुए हीगल ने लिखा , ” इतिहास तर्क से लेकर स्वयं अपनी चेतना की ओर होने वाला विकास है तथा वैधानिक राज्य इतिहास का चरम बिन्दु है । ” इसका तात्पर्य है कि द्वन्द्ववाद ही वह प्रक्रिया है जिसके आधार पर विचारों में होने वाले परिवर्तन तथा सामाजिक विकास को समझा जा सकता है । कार्ल मार्क्स ने हीगल के द्वन्द्ववादी विचार को स्वीकार किया लेकिन हीगल की इस धारणा को स्वीकार नहीं किया कि द्वन्द्ववाद का प्रमुख आधार विचार हैं । मार्क्स ने कहा है कि हीगल ने द्वन्द्ववादी पद्धति का प्रयोग आदर्शवादी अर्थ में किया है जिसमें उन्होंने मस्तिष्क को आवश्यकता से अधिक प्रधानता दे दी । मार्क्स ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि उन्होंने हीगल से द्वन्द्ववाद के सिद्धान्त को अवश्य लिया है लेकिन उनका द्वन्द्ववाद भौतिक शक्तियों से सम्बन्धित होने के कारण हीगल के द्वन्द्ववाद से भिन्न है । हीगल ने जहाँ ‘ मस्तिष्क ‘ को प्रधानता दी , वहीं मार्क्स ने ‘ पदार्य ‘ अथवा भौतिक शक्तियों के बीच होने वाले द्वन्द्व को सामाजिक घटनाओं के कारण के रूप में प्रस्तुत किया । इस प्रकार मार्क्स ने सामाजिक तथ्यों का विश्लेषण करने के लिए हीगल द्वारा प्रयुक्त उपागम के तरीके ( Manner of approach ) का ही प्रयोग किया यद्यपि उनके द्वन्द्ववाद की विषयवस्तु हीगल से बिलकल भिन्न रही ।

द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के बारे में मार्क्स का चिन्तन फ्यूअरबॉक ( Feurback ) से भी प्रभावित था । फ्यूअरबॉक मार्क्स के समकालीन एक भौतिकवादी विचारक थे । उनका एक कथन बहत प्रचलित है कि ‘ आलू द्वारा उत्पन्न रक्त से क्रान्ति नहीं हो सकती । ‘ फ्यूअरबॉक ने इस कथन स कथन को स्पष्ट करते हुए उन्होंने बतलाया कि आलू का प्रभाव ठण्डा हाता  आलू खाने से बनने वाला रक्त क्रान्तिकारियों के रक्त की तरह गहरा नहीं हो सकता । आज के वैज्ञानिक युग में फ्यूअरबॉक का यह कथन बहत साधारण अथवा हास्यास्पद प्रतीत हो सकता है किन्तु यह केवल पदार्थ अथवा भौतिक शक्ति के महत्त्व को स्पष्ट करने वाला एक सार्थक कथन है । कार्ल मार्क्स फ्यूअरबॉक के भौतिकवादी विचारों से बहुत प्रभावित थे । यही कारण है कि मार्क्स ने जहाँ एक ओर हीगल से द्वन्द्ववादी प्रणाली ग्रहण की , वहीं दूसरी ओर उन्होंने फ्यूअरवॉक ने भौतिकता का दर्शन लेकर द्वन्हामक भौतिकवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया ।

 मार्क्स के विचार ( Views of Marx )

कार्ल मार्क्स ने हीगल के द्वन्द्ववाद तथा फ्यूअरबॉक के भौतिकवाद को संशोधित रूप में प्रस्तुत करते हुए उनकी अतिवादिता को समाप्त किया तथा द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद रूप में एक नये सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । मार्क्स ने कहा कि हीगल के लिए मस्तिष्क की कार्य प्रणाली ही चिन्तन की प्रक्रिया है जो विचारों के रूप में कार्य करती है । दूसरे शब्दों में हीगल ने यह मान लिया था कि मनुष्य का बाह्य संसार द्वन्द्वात्मक प्रणाली से विकसित होने वाले विचारों का ही परिणाम होता है । इसके विपरीत , मार्क्स के लिए यह आदर्श भौतिक जगत के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । मार्क्स का कथन है कि यह भौतिक जगत ही मनुष्य के मस्तिष्क में पैदा होता है और विचारों के रूप में हमारे सामने आता है । इसका तात्पर्य है कि विचार कभी निर्पेक्ष ( non – relative ) नहीं होते बल्कि वे स्वयं भौतिक दशाओं से प्रभावित होते हैं । इस प्रकार मार्क्स के अनुसार विचारों से भौतिक जगत का निर्माण नहीं होता बल्कि भौतिक जगत ही मनुष्य के विचारों को प्रभावित करता है ।

इस प्रकार मार्क्स द्वारा द्वन्द्वात्मक प्रणाली को भौतिक आधार पर स्पष्ट करने के कारण ही इसे ‘ द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद ‘ का नाम दिया गया । द्वन्द्वात्मक प्रणाणी को भौतिक आधार स्पष्ट करने के लिए मार्क्स ने यह तर्क दिया कि संसार में पदार्थ ( matter ) ही एक ऐसी वास्तविकता है जिसका एक वस्तुनिष्ठ रूप होता है । पदार्थ ही हमारी चेतना और विचारों का स्रोत है । इस प्रकार परस्पर विरोधी शक्तियों के प्रभाव को पदार्थ के आधार पर समझा जाना चाहिए , विचारों के आधार पर नहीं । मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की प्रमुख मान्यता यह है कि विश्व का आधार अनेक भौतिक पदार्थ ही हैं जो अपने आन्तरिक स्वभाव के कारण बदलते रहते हैं । यह परिवर्तन भौतिक पदार्थों में ही PREDINNOतारक विरोधों के कारण होता है । इस परिवर्तन में वाद , प्रति वाद तथा समन्वय जैसी तीनों अवस्थाओं का समावेश रहता है । इसके बाद भी वाद ,  प्रतिवाद तथा समन्वय या संश्लेषण के रूप में चलने वाली विकास की यह प्रक्रिया सरल नहीं होती बल्कि एक बिन्दु पर पहुँचकर इसमें तेजी से परिवर्तन होने लगता है । इसी को हम ‘ कान्ति ‘ की दशा कहते हैं । मार्क्स ने स्पष्ट किया कि सम्पूर्ण भौतिक जगत में कुछ प्रतिवादी दशाएँ सदैव उत्पन्न होती रहती हैं जिनके फल स्वरूप एक नयी दशा का जन्म होता है । अधिक स्पष्ट रूप में , प्रत्येक समाज में वाद और प्रतिवाद के रूप में दो विरोधी शक्तियां हमेशा क्रियाशील रहती हैं । यह विरोधी शक्तियाँ दो वर्गों के रूप में देखने को मिलती हैं जिनके बीच सदैव संघर्ष चलता रहता है ।

इसका तात्पर्य है कि जैसे ही एक विशेष भौतिक दशा अथवा उत्पादन के तरीके में परिवर्तन होता है , वैसे ही संश्लेषण के रूप में एक नया वर्ग पैदा हो जाता है और इस प्रकार पुनः नये और पुराने वर्ग के बीच संघर्ष की दशा उत्पन्न हो जाती है । संघर्ष की निरन्तर चलती रहने वाली यह प्रक्रिया ही सामाजिक विकास का वास्तविक आधार है ।

लारसन ( Larson ) ने अपनी पुस्तक ‘ मेजर थीम्स इन सोशियोलाजिकल थॉट ‘ में मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को बहुत सरल ढंग से समझाने का प्रयत्न किया है । लारसन के अनुसार मार्क्स की द्वन्द्ववादी पद्धति को चार प्रमुख तत्त्वों के आधार पर समझा जा सकता है जो इस प्रकार हैं : ( 1 ) प्रकृति के सभी तत्त्व सुसम्बद्ध समग्रता के अंग हैं । ( All the pheno mena of nature are part of an integrated whole . ) कर ( 2 ) प्रकृति में सदैव गतिशीलता तथा परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रहती है । ( Nature is in a continuous state of movement and change . ) ( 3 ) विकास की प्रक्रिया संख्यात्मक वृद्धि की व्युत्पत्ति है जिसका चरम बिन्दु गुणात्मक परिवर्तन में स्पष्ट होता है : ( The developmental process is al product of quantitative advances which culminate in a abrupt qualitative change . ) ( 4 ) प्रकृति तथा मुख्यत : मानव समाज के प्रत्येक भाग में अन्तर्विरोध निहित होते हैं । ( Contradictions are inherent in all realms of nature but – particularly in human society . ) लॉरसन ने इन विशेषताओं के आधार पर मार्क्स की द्वन्द्वात्मक प्रणाली से सम्बन्धित प्रमुख मान्यताओं पर प्रकाश डाला है । इसके बाद भी यह विशेषताएँ उस भौतिकवादी आधार को स्पष्ट नहीं करतीं जिसे मावर्स ने द्वन्द्वात्मक प्रणाली के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया । इस दृष्टिकोण से कार्ल मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के  आवश्यक है कि हम मार्क्स द्वारा प्रस्तुत भौतिकवाद के ऐतिहासिक स्वस की समझने का प्रयत्न करें ।

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