तीन स्तरों का नियम
( The Law of Three Stages )
कॉम्ट द्वारा प्रतिपादित यह नियम सामाजिक उदाधिकास ( Social Evolu tion ) की प्रकृति को स्पष्ट करने से सम्बन्धित है । मह नियम कॉम्ट की उस मान्यता का स्पष्ट करता है जिसमें उनका कहना है कि समाज का विकास कुछ निश्चित नियमों के आधार पर ही होता है । कॉम्ट की बौद्धिक प्रतिभा इसी तथ्य से प्रमाणित हा जाती है कि उन्होंने इस नियम का प्रतिपादन अल्पायु में ही कर दिया था ।
तीन स्तरों के नियम की चर्चा करते हए कॉम्ट ने बतलाया कि व्यक्ति के चिन्तन करने के तीन स्तर होते हैं अर्थात विभिन्न समाजों अथवा विभिन्न कालों में व्यक्ति विभिन्न नासक अवस्थाओं से गजरते हए चिन्तन तथा विकास के मार्ग पर आगे बढ़त हा न बतलाया कि प्रत्येक समाज में अधिकांश व्यक्तियों का मस्तिष्क लगभग न रूप से चिन्तन करता है , इसीलिए एक निश्चित काल में समाज की चिन्तन । किसी एक अवस्था के अन्तर्गत रखा जा सकता है । सान स्तरों के नियम की चर्चा करते ना कॉस्ट ने लिखा है कि हमार की प्रत्येक शाखा तीन विभिन्न सैद्धान्तिक अवस्थाओं से होकर गुजरती है जिन्हें हम आध्यात्मिक अवस्था , अब – तात्विक अवस्था एवं प्रत्यक्षवादी अवस्था कह सकते हैं । कॉस्ट यह स्वीकार करते है कि व्यक्ति अपने सम्पूर्ण जीवन में कल्पना पर आधारित विश्व के महान सिद्धान्तों और वैज्ञानिक ( प्रत्यक्षवादी ) तरीकों से चिन्तन करता है । व्यक्तियों द्वारा किये जाने वाले चिन्तन के यह विभिन्न स्तर जब पूरे समूह के चिन्तन में बदल जाते हैं तब सम्पूर्ण समाज के चिन्तन की एक विशेष अवस्था का निर्धारण होता है । कास्ट द्वारा व्यक्त विचारों को सरल करते हुए अब्राहम एवं मॉर्गन से लिखा है कि , ” एक व्यक्ति अपने बचपन में अधिप्राकृतिक ( Supernatural ) शक्ति के प्रति अन्धविश्वास रखता है और साधारणतया उससे भयभीत भी रहता है । किशोरावस्था में वही व्यक्ति अन्धविश्वासों से मुक्त होकर विश्व के सिद्धान्तों के आधार पर चिन्तन करने लगता है या सामाजिक मूल्यों और नैतिक मानदण्डों को स्वीकार करता है । वृद्धावस्था तक पहुँचते पहुंचते वही व्यक्ति व्यावहारिक हो जाता है और प्रत्यक्षवादो अथवा वैज्ञानिक धरातल पर विचार करने लगता है । ” 18 / अब्राहम एवं मॉर्गन द्वारा व्यक्त इन विचारों को यदि हम एक व्यक्ति के जीवन के उदाहरण से समझने का प्रयत्न करें तो देखेंगे कि बचपन में व्यक्ति उन बातों में रुचि रखते हैं जिनमें भूत – प्रेत , पगियों या काल्पनिक ईश्वरीय विश्वासों की प्रधानता होती है । युवावस्था में व्यक्ति की रुचियों के केन्द्र में परिवर्तन होने लगा है । और वे प्रेम , संघर्ष , आथिक अथवा राजनीतिक सिद्धान्तों के सन्दर्भ में चिन्तन करने लगते हैं यद्यपि इन व्यावहारिक सन्दर्भो में चिन्तन करने के बाद भी युवा पीढ़ी भावनात्मक आधार पर ही चिन्तन करती है इसीलिए कॉम्ट इस मध्य अवस्था को तात्विक अथवा अर्द्ध – तात्विक चिन्तन स्तर के रूप में स्वीकार करते हैं । वृद्धावस्था तक पहुँचते – पहुंचते व्यक्ति कल्पनावाद और भावनात्मकता को छोड़कर पूर्णतया । सामाजिक वास्तविकताओं के आधार पर व्यावहारिक चिन्तन करने लगता है । वह प्रत्येक घटना अथवा क्रिया के परिणामों पर सोच – विचार कर ही निर्णय लेता है । इसे इम चिन्तन का प्रत्यक्षवादी स्तर कह सकते हैं । यदि चिन्तन के विकास को सम्पूर्ण समाज के सन्दर्भ में देखा जाये तो भी यह क्रम लगभग इन्हीं अवस्थाओं के रूप में देखने को मिलता है । इस दृष्टिकोण से आवश्यक है कि कॉम्ट द्वारा प्रतिपादित चिन्तन के तीनों स्तरों की प्रकृति को समझने का प्रयास किया जाये ।
( A) ईश्वरीय अथवा धार्मिक स्तर ( Theological Stage )
( B ) तात्त्विक अथवा अमूर्त स्तर ( Metaphysical Stage )
( C ) प्रत्यक्षवादी स्तर ( Positive Stage )
( A) ईश्वरीय अथवा धार्मिक स्तर ( Theological Stage )
इस प्राथमिक अवस्था में व्यक्ति प्राकृतिक या सामाजिक घटनाओं के कार्य – कारण स कारण सम्बन्धों ( Causal Relationship ) की खोज ईश्वरीय आधार पर करता है । ” कॉम्ट द्वारा प्रतिपादित इस विचार की व्याख्या इन शब्दों में कर सकते हैं कि जब व्यक्ति अथवा समाज चिन्तन की . इस प्रथम अवस्था में रहता है तब समाज में घटित होने वाली प्रत्येक घटना के कारणों की खोज बद ईश्वरीय अथवा धार्मिक विश्वासों के आधार पर करता है । उदाहरण के लिए , हम कह सकते हैं कि यदि कोई व्यक्ति किसी दुर्घटना का शिकार हो जाय और वह इस दुर्घटना के वास्तविक कारण को समझने की जगह ईश्वरीय , प्रकोप , भाग्य अथवा किसी अपशकुन को इसका कारण मानने लगे तब उसके चिन्तन के इस स्तर को ईश्वरवादी अथवा धार्मिक स्तर का चिन्तन कहा जायेगा । स्पष्ट है कि चिन्तन का यह स्तर कल्पनावादी होता है । आधुनिक समाजों में भी अनेक व्यक्ति चिन्तन के इसी स्तर पर हो सकते हैं । उदाहरण के लिए , यदि परीक्षा के दिनों में विद्यार्थी कुछ प्रश्न ही पढ़कर परीक्षा देने जाते हैं तथा जब परीक्षा परिणाम निकलता है और वे फेल हो जाते हैं तब उनमें से कुछ या सभी यह सोच सकते हैं कि ईश्वर की इच्छा से ही वे परीक्षा में सफल नहीं हो सके । इस प्रकार जब व्यक्ति घटनाओं के कार्य – कारण का सम्बन्ध ईश्वर या अलौकिक शक्ति से जोड़ने लगता है तब वह ईश्वरीय या धार्मिक अवस्था के स्तर पर रहता है । आगस्त कॉम्ट ने चिन्तन के इस स्तर को तीन विभिन्न उप – स्तरों में वर्गीकृत किया है , जो इस प्रकार हैं :
1जीवित सत्तावाद ( Fetishism ) – कॉम्ट का विचार है कि चिन्तन की इस प्राथमिक अवस्था में व्यक्ति प्रत्येक जड़ अथवा चेतन वस्तु में जीवन को स्वीकार करता है । उसका यह विश्वास होता है कि कुछ विशेष अधिप्राकृतिक शक्तियां तथा वस्तुओं में विद्यमान आत्मा ही उसके व्यवहारों और परिणामों को प्रभावित करती हैं । उदाहरण के लिए , यदि कोई व्यक्ति बाढ़ में बह जाता है और किसी पेड़ की शाखा को पकड़कर बच निकलता है तब ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति यदि यह स्वीकार करने लगे कि उस पेड़ की जीवित मात्मा ने ही उसकी रक्षा की , तब ऐसी स्थिति में हम कह सकते हैं कि वह व्यक्ति ईश्वरीय स्तर की आत्मावादी अवस्था में चिन्तन कर रहा है । कॉम्ट का कथन है कि चिन्तन का यह स्तर विकास के आदिम स्तर का प्रतिनिधित्व करता है । सम्बन्धी विचारों से हटकर कुछ एस जिनका सम्बन्ध अनेक देवान्द न केवल तरह – तरह की जादु मानने लगता है कि विभिन्न
2 . बहुदेवत्ववाद ( Polytheism ) कॉम्ट का कथन है कि ईश्वरीय स्तर स दूसरी अवस्था में व्यक्ति का धार्मिक चिंतन वस्तुओं के जीवन तथा आत्मा चारों से हटकर कुछ ऐसे अलौकिक विश्वासों में केन्द्रित होने लगता है व अनेक देवी – देवतामों से होता है । चिन्तन की इस अवस्था में व्यक्ति तरह की जादुई शक्तियों में विश्वास करने लगता है बल्कि वह यह भी पता है कि विभिन्न क्षेत्रों में उसकी सभी क्रियाएं किसी – न – किमी देवी – देवता की प्रसन्नता अथवा अप्रसन्नता का ही परिणाम हैं । उदाहरण के लिए , निर्धनता कारण लक्ष्मी का प्रकोप , अतिवृष्टि या अनावृष्टि का कारण इन्द्र का पर तूफान का कारण पवन का प्रकोप आदि मान्यताएँ चिन्तन के इसी स्तर करती हैं ।
3 .एकेश्वरवाद ( Monotheism ) ज्यामिक अथवा ईश्वरीय चिन्तन की इस अन्तिम अवस्था में कॉम्ट यह स्वीकार करते हैं कि अलग – अलग प्रकार की पट नाओं के पीछे विभिन्न देवी – देवताओं को कार्य – कारण के रूप में स्वीकार करने के कच्छ समय पश्चात् व्यक्ति में यह विश्वास होने लगता है कि उसके समस्त व्यवहारों का संचालन विभिन्न देवी – देवताओं से न होकर किसी एक केन्द्रित शक्ति अथवा सर्वशक्ति मान ईश्वर की इच्छा से ही होता है । इस प्रकार जब व्यक्ति समस्त प्रकार की प्राकृतिक और सामाजिक घटनाओं के कार्य – कारण के रूप में एक ईश्वर की शक्ति को ही स्वीकार करता है तब वह एकेश्वरवाद के चितन की अवस्था के अन्तर्गत होता है । कॉम्ट के मतानुसार , धार्मिक स्तर ( Theological Stage ) में ये तीनों अवस्थाएँ ( प्रेतवाद , बहुदेवत्ववाद और एकेश्वरवाद ) एक के बाद एक के क्रम से आती हैं । “
( B ) तात्त्विक अथवा अमूर्त स्तर ( Metaphysical Stage )
यह दूसरी अवस्था एक संक्रमणकालीन अवस्था है । कॉम्ट के मतानुसार चिन्तन की इस अवस्था का प्रारम्भ यूरोप में सन् 1300 ई० के पश्चात् हुआ और यह अवस्था बहुत अधिक समय तक नहीं रही । तात्त्विक अवस्था में व्यक्ति के चिन्तन में सैद्धान्तिकता के साथ अमूर्त शक्तियों के विश्वास का भी समावेश रहता है । इसका तात्पर्य है कि चिन्तन की इस अर्द्ध – तात्त्विक अवस्था में व्यक्ति भौतिक या वास्तविक धरातल पर घटना के कार्यकारण की खोज करता है किन्तु उसके द्वारा विचार किए गये निर्णयों में अलौकिक शक्तियों के विश्वास का भी कुछ प्रभाव बना रहता है । उदाहरण के लिए , यदि कोई व्यक्ति स्कूटर को तेज गति से चलाने के कारण दुर्घटनाग्रस्त हो जाने पर यह विचार करे कि दुर्घटना का कारण स्कूटर को अधिक तेज गति से चलाना अथवा ब्रक कमजोर होना था ता इसका तात्पर्य है कि वह तात्त्विक या भौतिक धरातल पर विचार करने का करता है किन्तु अन्त में यदि वह यह भी सोचने लगे कि वह तो रोज ही स्कूटर चलाता था किन्तु आज ईश्वर को यही मंजर था तो ऐसी स्थिति में उस व्या चिन्तन स्तर अर्द्ध – तात्त्विक अवस्था में ही माना जायेगा । कॉम्ट द्वारा व्यक्त तात्त्विक अवस्था से सम्बन्धित विचारों के आधार पर हम कह सकते है । व्यक्ति या समाज के अधिकांश सदस्य सांसारिक सिद्धान्तों के साथ – साथ अधिना धरातल पर भी विचार करते हैं तो वे व्यक्तिमा द्वारा व्यक्त अर्द्ध किते हैं कि जब साथ अधि – प्राकृतिक अवस्था में रखता है । कॉम्ट का मत है कि इस अवस्था में व्यक्ति की ताकिक क्षमता का विकास होने लगता है और व्यक्ति ईश्वरवादी चिन्तन को छोड़कर कुछ अमूर्त शक्तियों Abstract Forces ) अथवा सिद्धान्तों को घटनाओं के कार्य – कारण के रूप में देखने लगता है । इसीलिए कॉम्ट ने लिखा है कि तात्त्विक अवस्था , धामिर्क अवस्था के बाद और प्रत्यक्षवादी अवस्था के पूर्व की स्थिति है ।
( C ) प्रत्यक्षवादी स्तर ( Positive Stage )
कॉम्ट द्वारा प्रस्तुत चिन्तन का यह तीसरा स्तर प्रत्यक्षवादी अथवा वैज्ञानिक स्तर के नाम से जाना जाता है । कॉम्ट के मतानुसार ” उन्नीसवीं सदी का उदय ही प्रत्यक्षवादी स्तर का प्रारम्भ है जिसमें वैज्ञानिक अवलोकन ने कल्पनात्मक चिन्तन । पर विजय प्राप्त की है । ” 20 कॉम्ट का कथन है कि चिन्तन की प्रत्यक्षवादी अवस्था में व्यक्ति किसी घटना के कार्य – कारण सम्बन्धों की खोज न तो दैविक आधार पर करता है और न ही वह भावनात्मक धरातल पर निर्णय लेता है , बल्कि इस अवस्था में व्यक्ति घटनाओं का विश्लेषण अवलोकन और परीक्षण के आधार पर करता है । स्वयं कॉम्ट ने प्रत्यक्षवादी अवस्था की विवेचना करते हुए लिखा है कि , ” चिन्तन की इस अन्तिम अवस्था में व्यक्ति का मस्तिष्क निरपेक्ष अवधारणाओं और विश्व की उत्पत्ति सम्बन्धी घटनाओं आदि के कार्य – कारण सम्बन्धों को जानने का प्रयास छोड़ कर प्रकृति और समाज के नियमों की क्रमिकता तथा समरूपता के सम्बन्धों की खोज में लग जाता है । इस अवस्था में अवलोकन ( observation ) और परीक्षण को ही महत्त्व दिया जाता है । प्रत्यक्षवादी चिन्तन के स्तर पर व्यक्ति इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि मनुष्य अवलोकन के द्वारा तथ्यों को प्राप्त करके तथा उनके वर्गीकरण और परीक्षण द्वारा तार्किक आधार से चिन्तन करके ही विभिन्न घटनाओं के कार्य कारण सम्बन्धों को समझ सकता है । ना Vइस प्रकार कॉम्ट ने मानव – मस्तिष्क के चिन्तन के तीन स्तरों के आधार पर समाज की प्रगति के तीन विभिन्न चरणों को स्पष्ट किया है । कॉम्ट इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि विश्व का प्रत्येक समाज चिन्तन की इन तीन अवस्थाओं से होकर गुजरता है । इसके साथ ही वे यह भी मानते हैं कि किसी एक काल में एक समाज में तीनों प्रकार के चिन्तन के स्तर व्यक्तियों के मध्य पाये जा सकते है । इसका तात्पर्य यह है कि कॉस्ट ने यह भी स्वीकार किया कि किसी भी समाज चिन्तन की प्रत्येक अवस्था अपने पर्ण या समग्न रूप में नहीं पाई जा सकती ह भारत कॉम्ट द्वारा प्रतिपादित इन विचारों के विश्लेषण के आधार पर रेमण्ड ऐ oad Aron ) ने अपनी पस्तक ‘ मेन करेन्टस इन सोशियोलोजाकल था ( Main Currents in Sociological Thought ) में चिन्तन के तीन स्तरों में विकास – कम में समाजों के विभिन्न स्वरूपों को भी दर्शाने का प्रयास किया है । उनले द्वारा प्रस्तुत विश्लेषण इस प्रकार है : चिन्तन – स्तरबौद्धिकता क्रियात्मकता भावनात्मकता ( Stages of Thinking ) ( Intellegence ) ( Activity ) ( Affectivity ) ईश्वरीय चिन्तन स्तर जीवित सत्तावाद सैनिक सत्ता अहमवादी प्रवृत्ति बहुदेवत्ववाद एकेश्वरवाद तात्त्विक चिन्तन स्तर अमूर्तता प्रत्यक्षवादी चिन्तन स्तर प्रत्यक्षवाद औद्योगिक समाज परार्थवादी प्रवृत्ति –
रेमण्ड ऐरों द्वारा व्यक्त इन विचारों से स्पष्ट होता है कि कॉम्ट ने चिन्तन के तीन स्तरों के आधार पर सामाजिक परिवर्तन की एक ऐतिहासिक रूपरेखा प्रस्तत की थी । उक्त चार्ट के आधार पर हम कह सकते हैं कि कॉम्ट ने चिन्तन के जिन विभिन्न स्तरों को स्पष्ट किया वे व्यक्ति को बौद्धिकता , क्रियात्मकता और भावनात्मक धरातल पर प्रभावित करते हैं । कॉम्ट के मतानुसार जब समाज में चिन्तन का स्तर ईश्वरवादी होता है तब व्यक्ति बौद्धिक धरातल पर अधि – प्राकृतिक विश्वासों से प्रभावित होता है । इस अवस्था में समाज में सैनिक सत्ता पाई जाती है और व्यक्तियों के मध्य अहमवादिता की बढ़ी हुई प्रवृत्ति देखने को मिलती है । अन्तिम अवस्था तक पहुंचते – पहुंचते समाज में वैज्ञानिक चिन्तन उत्पन्न हो जाता है और समाजों का स्वरूप सैनिक सत्ता या राजशाही से अलग होकर औद्योगिक समाजों के रूप में परिवर्तित होने लगता है । प्रत्यक्षवादी अवस्था में व्यक्ति की भावना परार्थवादी ( Altruistic ) हो जाती है । इस प्रकार कॉम्ट ने चिन्तन के स्तरों का उल्लेख केवल बौद्धिक धरातल पर ही नहीं किया है बल्कि इस सिद्धान्त के द्वारा उन्होंने समाज के स्वरूप और व्यक्तियों के मध्य पाये जाने वाले सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों की विवेचना भी की है ।
चिन्तन के तीन स्तर एवं सामाजिक संगठन
( Three Stages of Thinking and Social Organization )
कॉम्ट द्वारा प्रस्तुत चिन्तन के तीन स्तरों का नियम केवल बौद्धिक स्तर को ही प्रभावित नहीं करता बल्कि कॉम्ट ने सामाजिक इतिहास के अध्ययन के आधार पर यह दर्शाने का भी प्रयास किया कि , जैसे – जैसे समाज के चिन्तन की अवस्थाओं में परिवर्तन आता गया वैसे – वैसे समाज के संगठन का स्वरूप भी परिवर्तित होता गया । चिन्तन की अवस्थाओं के नियम पर आधारित सामाजिक संगठन के स्वरूप में होन । वाले जिस परिवर्तन की चर्चा कॉम्ट ने की है , उसे वे प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में । स्वीकार करते हैं । सामाजिक संगठनों के स्वरूप में होने वाले विकासशील परिवर्तन,कॉस्ट ने राज्यों के स्वरूपों के आधार पर किया है जिसे चिन्तन के विभिन्न स्तरों के सन्दर्भ में निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है
- पावरवादी स्तर एवं दैवीय नियम ( Theological Stage and Divine Law )
आगस्त कॉम्ट ने बतलाया कि जब समाज में व्यक्ति ईश्वरीय अथवा धार्मिक आधार पर चिन्तन करता है तब सामाजिक संरचना में राजनीतिक सत्ता का स्वरूप निरंकुश राजतन्त्र के रूप में विद्यमान रहता है । इस अवस्था में व्यक्ति ( समाज का सदस्य ) यह सोचता है कि प्रत्येक प्राणी को ईश्वर ने ही पैदा किया है और उसे जिस प्रस्थिति अथवा वर्ग में जन्म दिया गया है , उसी में जीवन व्यतीत करना उसका भाग्य है । व्यक्ति यह सोचता है कि राजा को ईश्वर की विशेष कृपा प्राप्त है तथा वह ईश्वर का ही प्रतिनिधि है । इसीलिए जनता स्वयं को ईश्वर के पुत्र की भांति मानती है और यह भी मानती है कि राजा की आज्ञा ही ईश्वर की आज्ञा ( Divine Law ) है । कॉम्ट का कथन है कि जब जनता राजाज्ञा को ईश्वरीय आदेश के रूप में शिरोधार्य करती है तब समाज में निरंकुश राजशाही का जन्म होता है । ऐसे समाजों में जनता राजनीति से दूर रहकर केवल राजा के आदेशों का पालन करना ही अपना नैतिक दायित्त्व मानती है । समाजशास्त्र के आधुनिक विचारक टी० पारसन्स और ए० शिल्स ( Talcott Parsons and Edward Shills ) ने इस प्रेरणा को काग्निटिव ( Cognitive ) या जिज्ञासात्मक प्रेरणा ‘ कहा है जिसमें व्यक्ति केवल विश्वास के आधार पर ही कार्य करता है । एमण्ड और पॉवेल ने विश्वास के आधार पर संचालित ऐसी राजनीति को संकीर्ण राजनीतिक संस्कृति ( Parachial Political Culture ) कहा है ।
( B) तात्त्विक स्तर एवं पुरोहितवाद ( Metaphysical Stage and Priesthood )
जब व्यक्ति घटनाओं के कार्य – कारण को जानने के लिए भौतिक और ईश्वरीय ( दोनों आधारों पर ) आधारों पर साथ – साथ चिन्तन करता है तब ऐसी स्थिति को कॉम्ट ने तात्त्विक स्तर के रूप में स्वीकार किया है । चिन्तन के इस स्तर एवं राजनीतिक संगठन में सम्बन्ध स्थापित करते हुए कॉम्ट ने बतलाया कि जब समाज तात्त्विक चिन्तन के स्तर में रहता है तब समाज में सत्ता के स्तर पर पुरोहितवाद की स्थापना होती है । पुरोहितवाद की अवस्था में व्यक्ति ( समाज का सदस्य ) अमूत या अथवा सैद्धान्तिक विचारों में आस्था रखता है । व्यक्ति यह सोचने लगता है । म राजा ईश्वर का प्रतिनिधि नहीं है अपित पुरोहित ( Priest ) अथवा ( Rope ) ही ईश्वर का प्रतिनिधि ( Prophet of God ) है । जब सिद्धान्त रूप रिक्त पुरोहित को ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार करने लगता है तब ह विचार भी जन्म लेने लगते हैं कि राज्य के कार्यों का संचालन स्वयं ईश्वर हत के माध्यम से करता है तथा राजा की शक्ति भी पुरोहित के अधीन है ।कॉम्ट ने पुरोहितवाद की इस अवस्था का विवरण राजनीतिक इतिहास में चर्च राज्य ( Church State ) की अवस्था के रूप में दिया क्योंकि पश्चिमी यूरोप में नगर राज्य की स्थापना के पश्चात् ही चर्च राज्य की स्थापना हुई । भारतीय समाज के ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि यहाँ आदिकालीन राज्यों के बाद ईसा पूर्व में कुछ ऐसे राज्यों की स्थापना हुई थी जिनमें पुरोहितों का वर्चस्व था । उदाहरण के लिए , चाणक्य और चन्द्रगुप्त के काल को पुरोहितवाद के अन्तर्गत रखा जा सकता है । पुरोहितवाद ( Priesthood ) अथवा पोपवाद की अवस्था में जनता निरंकुश राजसत्ता को अमान्य करते हुए यह मानने लगती है कि सामाजिक तथा राजनैतिक संगठन का संचालन पुरोहित की सलाह के आधार पर ही होना चाहिए । एडवर्ड शिल्स और टॉल्काट पारसन्स ने इस दृष्टिकोण को विश्वासात्मक प्रेरणा ( Affective Orientation ) का नाम दिया है । एमण्ड और पॉवेल ने विश्वासात्मक प्रेरणा के आधार पर निर्मित राजनीतिक संस्कृति को ‘ भावनात्मक राजनीतिक संस्कृति ‘ ( Subjective Political Culture ) कहा है ।
( C ) प्रत्यक्षवादी स्तर एवं प्रजातन्त्र ( Positive Stage and Democracy )
आगस्त कॉम्ट ने चिन्तन के तीन स्तरों के नियम के आधार पर यह बतलाया कि जब समाज में व्यक्ति प्रत्यक्षवादी धरातल पर राज्य के कार्यों का अवलोकन एवं परीक्षण करता है तब समाज की राजनीतिक व्यवस्था का स्वरूप ( Form ) प्रजा तान्त्रिक हो जाता है । कॉम्ट प्रजातन्त्र को एक बेहतर अथवा उत्तम राजनीतिक संगठन के रूप में स्वीकार करते हैं । एडवर्ड शिल्स एवं टॉल्काट पारसन्स ने इस स्तर की प्रेरणा को ‘ मूल्यांकित प्रेरणा ‘ ( Evaluative Orientation ) के नाम से सम्बोधित करते हुए बतलाया कि इस स्तर में समाज का संगठन विभिन्न व्यवस्थाओं के गुणों और अवगुणों के आधार पर निर्मित होता है । एमण्ड और पॉवेल ने राजनीतिक व्यवस्था पर इस मूल्यांकित प्रेरणा के प्रभाव का उल्लेख किया है । उनके मतानुसार जब किसी समाज में व्यक्ति मूल्यांकित प्रेरणा से प्रभावित होकर राजनीतिक व्यवस्था से सम्बन्धित निर्णय लेते हैं तब समाज में सहभागी राजनीतिक संस्कृति ( Participant Political Culture ) का उदय होता है । आगस्त कॉम्ट ने बतलाया कि प्रत्यक्षवादी चिन्तन की अवस्था में समाज का तीव्र गति से औद्योगीकरण होने लगता है जिसके साथ – साथ समाज में प्रजातान्त्रिक मूल्यों की स्थापना होती है । कॉम्ट द्वारा प्रस्तुत उक्त विचार समाज और राज्य के परस्पर सम्बन्धों को स्पष्ट करते हैं । इन विचारों के आधार पर हम कह सकते हैं कि कॉम्ट ने तीन स्तरों के नियम द्वारा राजनीति और समाजशास्त्र के अन्तर्सम्बन्धों की ओर भी संकेत दिया ।