डॉ ०  भीमराव अम्बेडकर

डॉ ०  भीमराव अम्बेडकर

अधीनस्थ परिप्रेक्ष्य

भारत में हुए समाजशास्त्रीय अध्ययनों में अनेक परिप्रेक्ष्यों को अपनाया गया है । इन परिप्रेक्ष्यों में अधीनस्थ परिप्रेक्ष्य , जिसे दलितोद्वार परिप्रेक्ष्य भी कहा जाता है , प्रमुख परिप्रेक्ष्य है । इस परिप्रेक्ष्य को अपनाने का श्रेय डॉ ० अम्बेडकर को दिया जाता है जिन्हें भारत के अछूत वर्ग के एक सामाजिक पैगम्बर का स्थान प्राप्त है । वे एक विद्वान् , न्यायशील तथा स्पष्टवादी व्यक्ति थे । उन्होंने अपना जीवन सामाजिक सुधार के लिए समर्पित कर दिया था । वे एक ऐसे समाजसुधारक थे जो लगे रहे । वे सम – समाज के प्रेरक थे । वे इस शताब्दी के एक श्रेष्ठ चिन्तक , प्रभावशाली वक्ता , अपने कार्यों से सामाजिक रूढ़िवादिता , जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता को दूर करने में जीवन भर ओजस्वी लेखक तथा भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माता थे ।

अम्बेडकर दलितों के मसीहा थे तथा उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन उनके उत्थान तथा विकास के लिए समर्पित कर दिया । अम्बेडकर के साथ – साथ डेविड हार्डीमैन ने भी इसी परिप्रेक्ष्य द्वारा अपने अध्ययन किए हैं । उनके अध्ययन की विषय – वस्तु पिछड़ी हुई जनजातियाँ रही हैं । उन जनजातियों के उत्थान हेतु हार्डीमैन ने काफी सुझाव

अधीनस्थ परिप्रेक्ष्य का अर्थ

अधीनस्थ अथवा दलितोद्धार परिप्रेक्ष्य समाज के दलित वर्गों का अध्ययन कर उनका उद्धार एवं सामाजिक – आर्थिक उत्थान करने पर बल देता है । इस परिप्रेक्ष्य को अपनाने वाले विद्वान् भारतीय इतिहास को समझने में जनसाधारण की राजनीति में भूमिका को महत्त्व प्रदान करते हैं तथा जनसाधारण एवं विशिष्टजन की राजनीतिक भूमिका में समन्वय स्थापित करने का प्रयास करते हैं । इन विद्वानों ने ‘ जनसाधारण ‘ एवं ‘ विशिष्टजन ‘ को दो परस्पर विरोधी संरचनात्मक द्वैतता ( Structrural dichotomy ) के रूप में प्रतिपादित करने का खण्डन किया है ।

इन विद्वानों ने यह भी स्वीकार किया है कि नव – उपनिवेशवादी एवं नव – राष्ट्रवादी इतिहासवेत्ताओं ने विशिष्टजनों की भूमिका को बढ़ा – चढ़ाकर प्रस्तुत किया है तथा जनसाधारण की भूमिका को नगण्य माना है । इस प्रकार की सोच भारतीय समाज की वास्तविकता को समझने में सहायक नहीं है । न ही इस परिप्रेक्ष्य द्वारा दलित , कृषक एवं आदिवासी आन्दोलनों को समझा जा सकता है । भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान सदैव ऐसे ‘ दलित ‘ ( Subaltern ) वर्ग रहे हैं जिन्होंने भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है । कस्बों एवं नगरों से आने वाले श्रमिकों एवं माध्यमिक स्तरों के दलितों को मिलाकर ही ऐसे ‘ दलित ‘ वर्ग का निर्माण हुआ जिसकी भूमिका विशिष्टजनों की भूमिका से किसी भी प्रकार कम नहीं है । ये ‘ जनसाधारण ‘ या ‘ दलित वर्ग ‘ ( Subalternity ) न तो विशिष्टजन राजनीति का परिणाम हैं और न ही अपने उद्धार हेतु विशिष्टजनों पर आश्रित हैं । भारतीय समाज का कोई भी अध्ययन ‘ जनसाधारण ‘ या ‘ दलित वर्ग के अध्ययन के बिना अधूरा है । यदि इन वर्गों का अध्ययन नहीं किया जाता है तो भारतीय राजनीति एवं भारतीय समाज के विकास में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को नहीं समझा जा सकता है । अत : इस परिप्रेक्ष्य को मानने वाले विद्वान् इन दलित वर्गों के अध्ययन के आधार पर इनकी निम्न सामाजिक – आर्थिक स्थिति एवं समस्याओं को उजागर करना चाहते हैं तथा विशिष्टजनों को उनकी समस्याओं के समाधान में भागीदार बनाने पर बल देते हैं ।

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अम्बेडकर का अधीनस्थ या दलितोद्धार परिप्रेक्ष्य

डॉ ० अम्बेडकर का जीवन भारत के सामाजिक सुधारों के लिए समर्पित था । उन्होंने जातिवाद और अस्पृश्यता के निवारण के लिए जीवनभर कार्य किया । वे राष्ट्रवादी तथा देशभक्त थे और वे भारतीय स्वाधीनता के प्रबल समर्थक थे । परन्तु स्वाधीनता के राजनीतिक पक्ष को सुदृढ़ करने पर जोर देते थे । उनके अनुसार राजनीतिक स्वाधीनता से पूर्व सामाजिक सुधार आवश्यक है । वे सामाजिक व्यवस्था में पूर्ण परिवर्तन चाहते थे । उन्हें जीवन में अनेक बार अपमान सहना पड़ा था । वस्तुतः जीवन के प्रारम्भ में उन्हें घोर अपमान और अमानवीय व्यवहार भुगतना पड़ा था । इससे उनके मन में सवर्णों के प्रति कटुता उत्पन्न हो गई थी । उन्हें हिन्दुओं के व्यवहार और ब्रिटिश शासन की नीति से यह पूर्ण ज्ञान हो गया था कि सभी अछूतों के प्रति उदासीन हैं और अछूत सभी प्रकार कमजोर है और वे सामाजिक , राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में सवर्णों का मुकाबला करने में असमर्थ हैं । इसलिए अछूतों के उद्धार तथा उत्थान के लिए उन्होंने अपना जीवन इसलिए उन्हें दलितों का मसीहा कहा जाता है । अम्बेडकर ने हिन्दू सामाजिक व्यवस्था का विश्लेषण मर्पित कर दिया । किया तथा यह कहकर आलोचना की कि यह व्यवस्था असमानता पर आधारित हैं । जाति , वर्ग , कुल तथा वंश के आधार पर इस पिरामिड रूपी व्यवस्था के

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” डॉ . के . वी . राय ने कहा , ” डा . अम्बेडकर संविधान के जनक नहीं उसकी जननी हैं । ” डा . अम्बेडकर एक प्रसिद्ध विद्वान , चिन्तक , शिक्षाविद् , राजनीतिज्ञ , प्रभावशाली वक्ता , जुझारू व साहसी व्यक्तित्व के रूप में जहां हमारे सम्मुख आते हैं वहीं जड़वादी अन्धविश्वासी मान्यताओं पर आधारित समाज के एक कटु आलोचक के रूप में भी । वर्ण – व्यवस्था और जाति – प्रथा जैसी घिनौनी प्रथा की उन्होंने मुक्तरूप से आलोचना की । इन सबका मुख्य कारण यह था कि बचपन से ही उन्होंने सवर्णों के अन्याय और अत्याचार सहे थे ।

‘ भीमराव अम्बेडकर के जीवन की यातनाओं ने उन्हें दु : ख और कष्ट तो बहुत दिया पर वे जातीय और वर्ण व्यवस्था रूपी आग के दरिया से तप कर निकले । दु : खों ने उन्हें महान व्यक्ति बनाया । जो संकीर्ण धर्म और वर्ण – व्यवस्था हजारों वर्षों तक हरिजनों का शोषण करती रही उसके विरुद्ध उन्होंने जीवन – पर्यन्त संघर्ष किया और जब तक उन्होंने हरिजनों को संविधान में उचित स्थान नहीं दिला लिया जब तक वे शान्ति से नहीं बैठे ।

डॉ . अम्बेडकर हरिजन उद्धार और उन्हें संवैधानिक रूप में अधिकार और सुविधायें दिलाने के लिए सदैव याद किए जाते रहेंगे । डॉ ० भीमराव अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल , 1891 ई ० को महाराष्ट्र के ‘ महो ‘ नामक स्थान में हुआ था । वे महार जाति के एक अत्यन्त गरीब परिवार में जन्मे थे । महार जाति महाराष्ट्र में अछूत समझी जाती थी ।उनके पिता रामजी स्वभाव से क्रांतिकारी थे ।

अंग्रेजों ने महार जाति के व्यक्तियों को सेना में भर्ती करने से इन्कार कर दिया । रामजी ने इस अन्याय का कड़ा विरोध किया । उन्होंने महादेव गोविन्द रानाडे से सम्पर्क कर गवर्नर से मुलाकात की , जिसके परिणामस्वरूप 6 फरवरी , 1917 को महारों को सेना में भर्ती न करने का आदेश समाप्त करा दिया गया । आपके पिता उन सभी चीजों का विरोध करते थे जो जाति व धर्म के नाम पर समाज में कुरीतियों को जन्म देती थीं । इसलिए वह कबीर के अनुयायी बन गए । कबीर सन्त कवि के रूप में ऐसे समाज सुधारक थे जिन्होंने जाति – प्रथा की कटु – आलोचना की । इसलिए एक बड़ी संख्या में हरिजन कबीर के विचारों व भावनाओं से प्रभावित हुए । रामजी के 14 पुत्र थे और सबसे छोटे पुत्र भीमराव आम्बेडकर थे ।

सन् 1900 में भीमराव सतारा के सरकारी हाईस्कूल में प्रथम – कक्षा में भर्ती हुए । स्कूल में उनका नाम भीमा रामजी अम्बेडकर लिखा गया । इनके परिवार का कुल नाम सकपाल था । किन्तु इनके पूर्वजों ने यह उचित समझा कि कुलनाम अपने पुश्तैनी गांव पर रखा जाय जिसका नाम अम्बावड़े था । यह गांव महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के खड़े ताल्लुका में है ।

स्कूल में अम्बेडकर नाम के एक अध्यापक थे जो इन्हें बहुत प्यार करते थे । वे दयावान भी थे । अक्सर अपने घर पर खाना खिलाते थे । उन्हीं के नाम पर भीमराव ने अपना नाम अम्बेडकर रख लिया । भीमराव इस अध्यापक से इतना अधिक प्रभावित थे कि जीवन – पर्यन्त उनका सम्मान करते रहे । भीमराव का जन्म एक ऐसे समाज में हुआ था जहां अस्पृश्यता का रोग गहरी जड़ें जमाये हुए था और जिसके भुक्तभोगी स्वयं वे और पूरा हरिजन समाज था । हरिजन का जितना अपमान भारतीय समाज में किया जाता रहा है , उतना शायद ही किसी समाज में हुआ हो । इन्हें न कोई पास बैठाता था , न पीने को पानी देता था और न समाज में रहने को स्थान । नाई इनके बाल तक नहीं काटता था । भीम की बहन उनके बाल काटती थी । स्कूल में भी सवर्ण इनके साथ अमानवीय व अपमानजनक व्यवहार करने से चूकते नहीं थे । हरिजनों को संस्कृत पढ़ने का अधिकार नहीं था । इसीलिए भीमराव को संस्कृत के स्थान पर फारसी पढ़नी पड़ी । यही वे समस्त कारण थे जिन्होंने भीमराव अम्बेडकर को हिन्दू धर्म व संस्कृति से विद्रोह करना सिखाया ।

स्कूल में अम्बेडकर के पिता सेना में सूबेदार मेजर थे और 14 वर्ष तक सैनिक मुख्य अध्यापक रहे । 1891 में रामजी ने अवकाश प्राप्त किया और पुनः लोक – निर्माण विभाग में स्टोर – कीपर के रूप में नौकरी कर ली । बाद में इनका तबादला सतारा हो गया । 1904 में सतारा से भी आपकी नौकरी समाप्त हो गयी और आप बम्बई वापस आ गए । यहां इन्होंने एलफिंस्टन हाईस्कूल में प्रवेश किया । परन्तु यहां भी हरिजन होने का दुख व अपमान सहा था । अध्यापकों ने भी इन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा नहीं दी फिर भी उन्होंने 1907 में हाई – स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली । इस समय तक हरिजन जाति के किसी लड़के ने हाई – स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की हो , यह अपने में एक अद्भुत घटना थी ।

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स्कूल और कालेज जीवन में उन्होंने अत्यधिक अपमान सहा था , फिर भी असुविधाओं से कभी वे टूटे नहीं , आगे ही बढ़ते गए । प्रोफेसर मूलर उन्हें अपनी किताबें और कपड़े भी देते थे पर कालेज के हॉस्टल का मालिक ब्राह्मण था जो न उन्हें चाय देता था और न पानी । इस व्यवस्था के विष को उन्होंने कहीं गहरे पिया था । यह अपमान कहीं गहरे रूप में उन्हें झकझोर गया था । इसने हिन्दू – दर्शन के विरुद्ध उन्हें सोचने के लिए बाध्य कर दिया था । इन भयावह , दर्दनाक व दुखदायी परिस्थितियों में भी 1912 में उन्होंने अंग्रेजी और फारसी विषय से बी . ए . की परीक्षा उत्तीर्ण की । बी . ए . उत्तीर्ण करने के पश्चात् उन्होंने बड़ौदा रियासत में नौकरी कर ली । पर हरिजन होने के कारण , अपमान ने इनका यहां भी पीछा नहीं छोड़ा । छूत का भय इतना अधिक व्याप्त था कि चपरासी भी इनकी मेज पर फाइल नहीं रखता था , दूर से फेंक देता था । कोई किराए पर मकान भी नहीं देता था । इसलिए वे एक आर्यसमाजी पण्डित आत्माराम के यहां रहते थे । परिस्थितियों ने उन्हें नौकरी नहीं करने दी । अन्ततः उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी ।

रामजी ने अपने पुत्र अम्बेडकर को पढ़ाने में कोई कसर नहीं रखी थी । इस कारण वे कर्ज में बुरी तरह से डूब गए थे फिर भी उन्हें सन्तोष था कि उनके पुत्र ने ऐसी कष्टप्रद स्थितियों में बी . ए . की परीक्षा उत्तीर्ण की है । 2 फरवरी , 1913 को अम्बेडकर के पिता नहीं रहे । इसका उन पर काफी गहरा आघात पड़ा ।

यह अम्बेडकर के भाग्य व संयोग की बात है कि महाराजा बड़ौदा ने कोलम्बिया विश्वविद्यालय में उच्च अध्ययन के लिए कुछ छात्रों को अमरीका भेजने के विषय में विचार किया । इन्हें यह सौभाग्य प्राप्त हुआ । यह पहला महान छात्र था जो किसी विदेशी विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने गया था । एक हरिजन के लिए तो यह एक विचित्र व अद्भुत घटना थी । वहां भारतीय समाज जैसा दमघोटू वातावरण नहीं था । यहां भारतीय छात्र भी थे किन्तु वे सभी मुक्त व स्वतंत्र विचारों के थे ।

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हरिजनों के साथ सवर्णों ने पशु से भी गया – बीता व्यवहार किया है । शताब्दियों तक उन्हें गुलाम बनाकर उनका शोषण किया । वर्ण – व्यवस्था ने शूद्रों को आर्थिक व सामाजिक सुविधायें , समान अवसर नामक अधिकार दिये ही नहीं । इसीलिए अम्बेडकर का यह विचार था कि जो जाति आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़ी है , उसे न समाज में कोई स्थान प्राप्त होता है और न उसे राजनीति में ही किसी प्रकार की सत्ता , शक्ति व अधिकार प्राप्त हो पाते हैं । वे जीवन भर असमानता और अन्याय के विरुद्ध अपना आक्रोश व्यक्त करते रहे । दलित व शोषित वर्ग के व्यक्तियों को संगठित करते रहे । उन्हें उनके अधिकारों के प्रति उन्होंने सजग बनाया । आर्थिक , सामाजिक व राजनीतिक चेतना को जन्म दिया ।

देश के संविधान में हरिजनों को कुछ विशेष सुविधायें दिलाने का सफल प्रयास किया । इसीलिए गांधीजी उन्हें निडर कहा करते थे । वे यह कहने में भी नहीं हिचके कि राष्ट्रीय स्वाधीनता – संग्राम से भी महत्वपूर्ण अछूतों की सामाजिक स्वाधीनता है । गांधीजी ने कहा भी था कि उस समय तक स्वराज्य व्यर्थ है जब तक अस्पृश्यता का कलंक हमारे माथे से नहीं हटता । ” डा . अम्बेडकर ने सदैव अमीरी और गरीबी की एक सामाजिक अन्याय के रूप में व्याख्या की है । उन्होंने कहा , ” सवर्णों की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती । ” इस लोकोक्ति की सदैव उन्होंने कटु , ओलाचना की है । उनका विचार था कि प्रकृति के नियम भले ही समान न हों पर मनुष्य का नियम समानता पर आधारित होना चाहिए ।

समाज और राज्य का एक शक्तिशाली नियम समता होना चाहिए जहां सामाजिक और आर्थिक विषयों पर न किसी प्रकार का भेदभाव हो , न असमानता हो , न अन्याय की सम्भावना हो और न उनके मध्य कोई उतार – चढ़ाव का कोई जोखिम ही हो । वे साम्यवाद व समाजवाद से भी पूर्णतया सहमत नहीं थे । वे मार्क्स की अर्थ – व्यवस्था व नियमों से प्रभावित अवश्य थे किन्तु सामाजिक व राजनीतिक सिद्धान्तों से उनका मेल नहीं खाता था । इसीलिए वे कहते थे कि मैं केवल जनतन्त्र को ही मनुष्य के जीने के लायक जीवन – पद्धति मानता हूं क्योंकि यह जनमत पर आधारित होता है जबकि साम्यवादी व्यवस्था हुक्मनामे पर आधारित रहती है । सवर्णों पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा- ” सवर्णों ने अंग्रेजों से दीर्घकालिक संघर्ष चलाया केवल सत्ता के लिए अन्यथा बरतानिया सरकार भी तो जनतंत्रीय संसद का शासन चला रही थी । “

जातिवाद का वह घिनौना रूप , जो भारत में उन्होंने भुगता था , विदेशों में नहीं था । हीनता की भावना , जो भारतीय समाज में उनके कहीं गहरे घर कर गयी थी , वहां समाप्त हो गयी । विदेश में रहकर उनके सोचने – विचारने और चीजों को देखने व समझने के ढंग में अद्भुत परिवर्तन आया । यहां इनके व्यक्तित्व का विकास हुआ । जून 1915 में उन्हें प्राचीन भारतीय व्यापार विषय पर थीसिस पर एम . ए . की डिग्री प्राप्त हुई । 1916 में अम्बेडकर ने पी – एच . डी . के लिए थीसिस प्रस्तुत की जिसका शीर्षक था ‘ नेशनल डिविडेण्ड फार इण्डिया : ए हिस्टोरिक फाइनेन्स इन ब्रिटिश इण्डिया ‘ । इसकी प्रस्तावना में प्रो . एम . ए , सैलिगमन ने लिखा था , ” मेरे विचार से अधोगत सिद्धान्तों का इतना विस्तृत विवेचन कहीं और नहीं मिलेगा । ” यहीं पर लाला लाजपतराय से भी इनका परिचय हुआ । इन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बारे में परस्पर विचार – विमर्श किया ।

1916 में अम्बेडकर कोलम्बिया विश्वविद्यालय से ‘ लंदन स्कूल आप इकनॉमिक्स एण्ड पॉलिटिकल साइंस ‘ में अध्ययन के लिए गए । अक्तूबर , 1916 में उन्होंने कानून के अध्ययन के लिए ‘ ग्रेज इन ‘ में दाखिला लिया । क्योंकि अर्थशास्त्र में एम . एस्सी . नहीं थे , इसलिए अर्थशास्त्र में एम . एस्सी . करने के पश्चात् वे भारत लौट आये । भारत लौटने का कारण यह भी था कि बड़ौदा के महाराज ने उन्हें छात्रवृत्ति देना बन्द कर दिया था । जुलाई , 1917 में अम्बेडकर को महाराजा बड़ौदा का सैनिक सविच बनाया गया , किन्तु यहां सवर्णों के अपमानजनक व्यवहार और दमघोटू वातावरण ने उन्हें बड़ौदा छोड़ने के लिए विवश कर दिया । उन्हें न रहने का स्थान मिलता था , न चपरासी पानी देता था । फाइलें दूर से उनकी मेज पर फेंकी जाती थीं । इन समस्त कारणों से 1917 में वे बम्बई आ गए । शहर में आकर उन्होंने नये ढंग से अपने जीवन को चलाने का प्रयास किया । 1918 में उनकी नियुक्ति बम्बई के सीडेनहम कालेज में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्राध्यापक के पद पर हुई । पर सवर्णो के कटु व्यवहार ने इन्हें यहां भी काफी दुख पहुंचाया । 11 नवम्बर , 1918 से ।। मार्च , 1929 तक कालेज में काम किया और पुन : कानून और अर्थशास्त्र का अध्ययन करने के लिए लंदन चले गए । इस बार कोल्हापुर के महाराज साहू छत्रपति ने उनकी सहायता की । बम्बई में जब तक अम्बेडकर रहे उन्होंने दलित जातियों के लिए कार्य किया । उन्हें संगठित करने का प्रयास किया । समाचार – पत्र व पत्रिकाओं में लेख लिखते रहे । दलित – वर्ग को अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष करते रहे । ” स्वराज्य उसी प्रकार एक महार का भी जन्मसिद्ध अधिकार है जैसा एक ब्राह्मण का । ” उन्होंने हिन्दुओं और विशेष रूप से सवर्णो के व्यवहार में ठोस परिवर्तन की आवश्यकता पर बल दिया है । उन्होंने कहा , ” जब तक गैर – ब्राह्मण तथा दलित – जातियां ज्ञान और शक्ति – सम्पन्न नहीं होंगी तब तक वे प्रगति नहीं कर सकतीं । ” उन्होंने यह कहने में भी संकोच नहीं किया कि स्वराज्य के संविधान में दलितों के मूल – अधिकार शामिल किए जायें । डी . एस्सी . ( अर्थशास्त्र ) के लिए उन्होंने 1923 में ‘ द प्रॉबलम आफ द रूपी , इट्स ओरिजिन एण्ड सॉल्यूशन ‘ विषय पर थीसिस प्रस्तुत की ।

 रचनाएँ

( 1 ) Annihilation of The Caste ( 1936 ) ;

( 2 ) The Untouchables – Who are They ? ( 1948 ) ;

( 3 ) The Buddha and his Dhamma ( 1957 ) ; तथा

( 4 ) The Buddha and the Future of his Religion ( 1980 )

प्रोफेसर कैनन ने इसकी जोरदार शब्दों में प्रशंसा की । इस तरह अनेक कठिनाइयों के होते हुए भी वे शिक्षा – जगत् में और एक विचारक के रूप में प्रसिद्ध हो गए । उनके विदेश में रहने का उद्देश्य ज्ञानार्जन था । वे विभिन्न पुस्तकालयों में इतना अध्ययन करते कि भोजन भी करना भूल जाते और सामान्यतः जाते भी नहीं थे । सिनेमा और अन्य मनोरंजन के स्थान पर भी नहीं जाते थे । यह सत्य है कि आर्थिक कठिनाई उनके सामने थीं पर गंभीर अध्ययन का एकमात्र उद्देश्य उनके सम्मुख था । आपका विवाह 14 वर्ष की आयु में रामाबाई से हुआ था । आत्मसम्मानी इतने थे कि जब अम्बेडकर विदेश में थे तो इनके कुछ मित्र इनकी पत्नी की आर्थिक सहायता करना चाहते थे , पर अम्बेडकर ने उन्हें लिखा था कि आवश्यकता पड़ने पर अपने जेवर बेच देना । वास्तव में उनमें वे समस्त लक्षण थे जो एक विशाल व्यक्तित्व में देखे जा सकते हैं । एक हरिजन महार परिवार में जन्म लेकर , अनेक यातनाओं , कष्टों , अपमानों व दुर्व्यवहारों को उन्होंने किसी तरह से झेला था । उनका जीवन यह बताता है कि स्वतन्त्रता के पूर्व सवर्णों का हरिजन व दलित – वर्ग के साथ कैसा पाशविक वर्ताव था ।

हरिजन यहां पशु की तरह समझा जाता था । ऐसी परिस्थिति में भीमराव अम्बेडकर जन्मे थे और शिक्षा की उच्च – डिग्रियों से विभूषित हुए थे । उनके जीवन में तीन प्रेरणायें कहीं गहरे काम कर रही थीं – कबीर से उन्होंने भक्ति – भावना ली , ज्योति बा फूले के विचारों से उन्हें ब्राह्मण – विरोध व सामूहिक पश्चाताप और शिक्षा व आर्थिक उत्थान की प्रेरणा मिली जबकि भगवान् बुद्ध से अछूत – उद्धार का ज्ञान प्राप्त हुआ जिसका माध्यम था सामूहिक धर्म – परिवर्तन । वे जीवन – पर्यन्त दलितों के लिए कार्य करते रहे । उन्हें हरिजन व दलित वर्ग की पीड़ा का ज्ञान था । उन्हें यह आशंका थी कि यदि अंग्रेजों का संरक्षण समाप्त कर दिया जाता है तो सवर्ण हिन्दू उन्हें कुचल डालेंगे । इसलिए वे हरिजनों के उत्थान के लिए केवल जागरूक ही नहीं थे बल्कि उनको संगठित करके उन्हें उनके अधिकारों से अवगत भी कराते थे । भारतीय संविधान और अम्बेडकर डा . अम्बेडकर जिन परिस्थितियों में से गुजरे थे वे विष के ऐसे कड़वे चूंट थे जिन्होंने उन्हें झकझोर दिया था , अपमानित किया था ।

सम्पूर्ण हरिजन समाज के साथ शताब्दियों से भारतीय समाज जो अन्याय करता आया था उससे वे बहुत दु : खी और चिन्तित थे । उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन हरिजन व दलित – वर्ग के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया । गोलमेज सम्मेलन की असफलता के पश्चात् भारतीय यह समझ गये थे कि भारत का संविधान स्वयं देश के नेताओं द्वारा ही तैयार किया जाना चाहिए । 1934 में स्वराज्य पार्टी ने घोषणा की , “ संविधान बनाने के लिए सभी वर्गों के प्रतिनिधियों को मिलाकर एक संविधान सभा बनाई जाय जो आत्मनिर्णय के सिद्धांतों पर आधारित मान्य संविधान का निर्माण करे । ” इसी तरह 1936 व 1940 में भी संविधान बनाने पर अत्यधिक बल दिया गया । लेकिन 5 अप्रैल , 1940 में क्रिप्स – मिशन के साथ जब भेंटवार्ता हुई तब अम्बेडकर जी को यह कहने में कोई संकोच नहीं हुआ कि उस संविधान – सभा में हिन्दुओं का बहुमत होगा । यदि अछूत इसमें सम्मिलित भी किए जाते हैं तो अल्पसंख्यक के रूप में होंगे जिन्हें कभी भी परास्त किया जा सकता है ।

अम्बेडकर समय की नब्ज को पढ़ना जानते थे । वे जान गए थे कि अंग्रेजों का शासन अब ज्यादा दिन भारत में नहीं रहेगा और भारत में संविधान – सभा ही सर्वोच्च सत्ता होगी । अस्तु यह आवश्यक है कि भारत की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही संविधान का निर्माण किया जाय । संविधान इस प्रकार का बनाया जाय जिससे अछूतों का किसी प्रकार का अहित न हो बल्कि उनके उत्थान में हर तरह से सहयोगी हो । अम्बेडकर का व्यक्तित्व भारतीय यातनाओं और सवर्णों के अपमान ने ऐसा गढ़ा कि उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का खुलकर विरोध किया । नेहरूजी के प्रस्तावों की उन्होंने आलोचना की । पर जब देश का विभाजन उनके सम्मुख था तो उन्हें अपनी गलती का अनुभव हुआ और उन्होंने यह महसूस किया कि जिनके हाथ में सत्ता आ रही है उनका विरोध करके न कुछ मुझे लाभ होगा और न मेरे जाति व वर्ग के व्यक्तियों को ही ।

कांग्रेस एक उदार दल होने के नाते उन्हें संविधान की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बना दिया गया । यह वह समय था जब अम्बेडकर ने यह सोचना आरम्भ कर दिया कि देश की परिस्थितियां व राजनीतिक गतिविधियां नया स्वरूप ले रही हैं । ऐसी बदली हुई स्थिति में उन्होंने कांग्रेस का विरोध करना बन्द कर दिया और उसके सहयोगी बन गए । उन्होंने संघीय शासन का समर्थन किया । उनका यह विचार था कि सामान्य परिस्थितियों में भारत संघीय लोकतन्त्र है किन्तु आपातस्थिति में इसका स्वरूप एकात्मक सरकार में परिणित हो सकता है । इस तरह वे एक सुदृढ़ व शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के पक्षधर थे । इसकी वकालत भी उन्होंने खूब की । देश के निवासियों के अनेक महत्त्वपूर्ण अधिकारों में से एक यह भी अधिकार है कि सभी भारतीयों को बगैर किसी भेद – भाव के धर्म और जाति के छोटे – बड़े अन्तर को उपेक्षित कर सभी को समान अवसर प्रदान किए गए हैं । नीति – निर्देशक सिद्धान्त राजनीतिक प्रजातन्त्र के साथ सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र के स्तम्भ हैं , जिन्हें लिखित संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के द्वारा उपलब्ध किया गया है ।

अम्बेडकर का मत था कि संविधान द्वारा इस देश की विभिन्न सरकारों को ये एक प्रकार से सौंपे गए दायित्व ही हैं । उन्होंने अमेरिका के राष्ट्रपति शासन की अपेक्षा इंग्लैण्ड की शासन – प्रणाली को अधिक उचित ठहराया । इस संविधान की सबसे बड़ी विशेषता धर्म – निरपेक्षता है व कल्याणकारी सरकार के तत्त्व इसमें समाहित हैं । शासनतत्र की इसमें जहां पूर्ण – व्यवस्था है वहां सामाजिक , आर्थिक परिवर्तनों को लाने के लिए भी पूर्ण अवसर व सुविधायें हैं ।

वे एक सैनिक पिता के पुत्र थे , इसलिए ललकारकर कहते थे , “ मैं एक बहादुर सैनिक का पुत्र हूं , कायर नहीं । मेरा चाहे जो हो , मैं मौत के भय से हट नहीं सकता । दूसरों को खतरे में डालकर अपनी जान बचाने वाला नहीं हूं । ” उन्होंने कहा “ जाति या वर्ग की श्रेणियों का होना एक लज्जाजनक बात है । यदि इन सामाजिक उपजों की दृष्टि से हिन्दू सभ्यता को नापा जाय तो उसे शायद ही कोई सभ्यता कह सके । मनुष्य को दबाने तथा उसे गुलामी में रखने के लिए यह एक पैशाचिक पद्धति है । ” अम्बेडकर जी ने भोगे हुए यथार्थ की व्याख्या की और अछूतों को उनका अधिकार दिलाने के लिए निरंतर संघर्ष और प्रयास करते रहे ।

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उनका विचार था कि राजनीतिक स्वतन्त्रता के चार स्तम्भ हैं

  1. व्यक्ति अपने में सम्पूर्ण है ।
  2. व्यक्ति के कुछ अहरणीय अधिकार हैं जिन्हें संवैधानिक गारंटी मिलनी चाहिए ।
  3. किसी व्यक्ति को विशेष सुख – सुविधाएं उपलब्ध करने के लालच में अपने संवैधानिक अधिकारों को नहीं त्यागना चाहिए ।
  4. सरकार को वैयक्तिक आधार पर किसी व्यक्ति को , अन्य व्यक्ति को नियंत्रित रखने का अधिकार नहीं सौंपना चाहिए । अम्बेडकर का विचार था कि श्रमिकों को छूट और समानता देना आवश्यक है और इनका सन्तुलन बना रहे इसके लिए संविधान में उल्लेख होना अत्यन्त आवश्यक है । उनका कहना था कि श्रमिकों को जोर देकर यह कहना चाहिए कि भारतीय संविधान एक राजनीतिक साधन होने के साथ – साथ आर्थिक विकास का भी एक सुदृढ़ जरिया होना चाहिए ।

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अम्बेडकर के अनुसार हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म – तीन दृष्टियों से एक – दूसरे से भिन्न थे ।

( 1 ) हिन्दू – धर्म आत्मा , परमात्मा और वर्ण – व्यवस्था में आस्था रखता है जबकि बौद्ध धर्म में न आत्मा का अस्तित्व है न परमात्मा का और न ही वर्णाश्रम का ।

( 2 ) बौद्ध धर्म में ऐसी तीन महान विशेषताएं हैं जिनकी बराबरी नहीं की जा सकती । ये हैं – प्रज्ञा , करुणा और समता ।

( 3 ) बौद्ध धर्म , ईसाई धर्म की तरह सताये गये और पददलितों के लिए आशा का एक दीप है । बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के पश्चात उन्होंने कहा , ” मैं आज एक नया जन्म ले रहा हूं और नर्क से मुक्ति प्राप्त कर रहा हूं । ” उनका गला उस समय रुंध गया था जब उन्होंने यह कहा ” मैं हिन्दू – धर्म को त्यागता हूं । ” आप सभी इस पंक्ति से कल्पना कर सकते हैं कि हिन्दू – धर्म और छुआछूत की भावना ने उन्हें कितना कष्ट व आघात पहुंचाया था कि वे हिन्दू – धर्म त्यागने के लिए विवश हो गये और उन्होंने सहर्ष बौद्ध धर्म को ग्रहण कर लिया । उन्हें यह कहने में संकोच नहीं हुआ , ” मैं हिंदू पैदा तो हुआ परन्तु हिन्दू रहकर मरूंगा नहीं । ” इसे उन्होंने पूरा किया । इस तरह उन्होंने हिन्दू – धर्म व वर्ण – व्यवस्था के विरुद्ध एक खुला आन्दोलन प्रारम्भ किया और अछूतों को समाज में उचित स्थान दिलाने के लिए संघर्षरत हो गये । इसके पश्चात् सामूहिक धर्म – परिवर्तन का आन्दोलन – सा चल गया । 6 दिसम्बर , 1956 को आप नहीं रहे । सम्पूर्ण – देश आपकी अचानक मृत्यु के समाचार से स्तब्ध रह गया । लाखों व्यक्ति अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पड़े । कहते हैं कि श्मशान घाट पर ही एक लाख से अधिक व्यक्तियों ने धर्म – परिवर्तन किया । ऐसा अद्भुत था डॉ . अम्बेडकर का व्यक्तित्व ।

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अम्बेडकर ने धर्म के चार लक्षण बताये हैं

  1. धर्म नैतिकता की दृष्टि से प्रत्येक समाज का मान्य सिद्धान्त है ।
  2. धर्म बौद्धिकता पर टिका होना चाहिए जिसे दूसरे शब्दों में विज्ञान कहा जा सकता है ।
  3. इसके नैतिक नियमों में , स्वतन्त्रता , समानता और भ्रातृत्वभाव का समावेश हो ।
  4. धर्म को दरिद्रता को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए । उनका मत था कि हिन्दू जिसे धर्म कहते हैं वह धार्मिक आदर्शों और निषेधों का पुलिंदा है ।

उन्होंने हिंदू धर्म के कुछ अवगुणों की ओर भी भारतीयों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है

  1. इसमें नैतिक जीवनयापन की स्वतन्त्रता के दरवाजे बन्द रखे गये हैं ।
  2. इसमें उपदेशों का बाहुल्य है ।
  3. नियम – विधान पृथक् वर्गों के लिए अलग – अलग हैं जिन्हें अन्तिम माना गया है ।

उन्हें यह कहने में किसी भी प्रकार का भय या संकोच नहीं हुआ कि इस प्रकार के धर्म को समाप्त कर देना चाहिए । यह कार्य कहीं से भी अधार्मिक नहीं है । उन्होंने कहा कि ‘ नियमबद्ध धर्म ‘ के स्थान पर ‘ सिद्धान्तों का धर्म ‘ होना कहीं अच्छा है ।

उन्होंने धर्म के कुछ आवश्यक तत्व भी बताए हैं जो निम्न हैं

  1. हिन्दुओं का एक सर्वमान्य धर्मग्रन्थ हो ।
  2. जन्मजात पुरोहितवाद को समाप्त किया जाय ।
  3. सभी के लिए स्वतन्त्र व मुक्त परीक्षाओं के आधार पर पुरोहित का चुनाव किया जाय ।
  4. पुरोहित के लिए सरकारी प्रमाण – पत्र की अनिवार्यता हो ।
  5. कानून द्वारा पुरोहितों की संख्या निश्चित की जाय ।
  6. पुरोहितों की नैतिकता , विश्वासों व पूजाविधि पर सरकार की कड़ी दृष्टि व निगरानी रहनी चाहिए ।

बड़ौदा और बम्बई के न्यायालयों के कटु अनुभव ने उन्हें यह सोचने के लिए विवश कर दिया कि हिन्दू – धर्म और हिन्दू – समाज में अछूतों को न्याय मिलना संभव नहीं है । वे जानते थे कि हिन्दू – धर्म में दया , समानता व स्वतन्त्रता को कोई स्थान नहीं है । इसीलिए वे बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुए क्योंकि वहां मानवता थी । नैतिक आधार था और न्याय में भेदभाव नहीं था ।

उन्होंने 14 अक्तूबर , 1956 को बौद्ध धर्म ग्रहण करने की घोषणा कर दी । वे कहते थे कि छुआछूत की समस्या , वर्ग – द्वेष की समस्या है । वह दो समाजों के मध्य कलह का कारण है : सवर्ण और अछूत । वे जानते थे कि हिन्दू – धर्म में रहकर जाति – प्रथा समाप्त करने का प्रयास मीठे जहर को चाटने की तरह है । इसीलिए उन्होंने हिन्दू – धर्म को त्यागकर बाहर से शक्ति प्राप्त करने के लिए कहा है । विश्व में चार धर्मगुरु हैं – श्रीकृष्ण , बुद्ध , ईसा और मोहम्मद । इनमें से उन्हें सबसे अधिक अगर कोई प्रभावित कर सका तो वह गौतम बुद्ध थे , जिन्होंने कहा कि उनके अनुयायी उनका अन्धानुकरण न करें वरन् अपने विवेक से कार्य करें । बौद्धधर्म ईश्वर में आस्था नहीं रखता पर उसमें नैतिकता को ही ईश्वर का स्थान प्राप्त है ।

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उनके विचारों और कार्यों का संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है

 

साम्प्रदायिक समस्या को सुलझाने के लिए

वर्ण – व्यवस्था की आलोचना

जाति व्यवस्था का विरोध

अछूतों के सुधार पर बल

दलितों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व

अछूतों के उद्धार के लिए कानूनी उपाय

डॉ . अम्बेडकर और धर्म – परिवर्तन

श्रमिकों के हितों का समर्थन

भारत का संविधान

 

 

 

       

साम्प्रदायिक समस्या को सुलझाने के लिए वे कहते हैं , ” इस विषय में मेरा विचार दो बातों पर निर्भर करता है : पहली बात तो यह है कि साम्प्रदायिक समस्या को सुलझाने के लिए हमें ऐसे सिद्धान्तों को तय करना अत्यन्त आवश्यक है जिनके आधार पर अन्तिम हल निकाला जा सके , दूसरी बात यह है कि जो सिद्धान्त हम तय करें , वे बिना भय और बिना पक्षपात के सभी पर लागू किये जायें । साम्प्रदायिक समस्या तीन उपलब्धियों पर निर्भर करती है – विधानसभाओं में सदस्यों की संख्या , मंत्रिमंडल में अधिकार और सरकारी नौकरियों की प्राप्ति । मैं उन सिद्धान्तों को सुलझाना चाहता हूं जो इन तीनों पर लागू हो सके । जहां तक सरकारी नौकरियों की बात है , केवल इतना ही करने की जरूरत है कि जो प्रशासन इस समय चालू है , उसी के अनुपात को कानूनी रूप दे दिया जाय ।

मंत्रिमंडल में हिन्दुओं , मुसलमानों  और अछूतों का वही अनुपात होना चाहिए जो विधान – सभाओं में हो । जहां तक दूसरे अल्पमतो समुदायों का सम्बन्ध है , उनके लिए भी एक या दो सीटें सुरक्षित रहनी चाहिए । यह एक मान्य पद्धति और रूढ़ि बन जानी चाहिए कि पार्लियामेन्टरी सेक्रेटरियों की मृत्यु होने पर उन अल्पमत के लोगों को भी अपने प्रतिनिधित्व के लिए उचित सुयोग रहे । ” आगे वे यह भी कहते हैं , ” पहली बात तो यह है कि भारत का बहुमत साम्प्रदायिक बहुमत है , राजनीतिक बहुमत नहीं । ऐसी स्थिति रहने पर जो बात इंग्लैण्ड की परिस्थिति में उचित हो सकती है वही बात भारत की परिस्थिति में उचित नहीं ठहराई जा सकती ।

दूसरी बात यह है कि मंत्रिमंडल को , विधानसभा में जिस पक्ष का बहुमत है , उसी पक्ष की कमेटी बनाने की प्रथा को बन्द करना चाहिए । कमेटी इस तरह बनानी होगी कि उसे केवल विधानसभा के बहुमत का ही नहीं बल्कि विधानसभा के अल्पमत का भी समर्थन प्राप्त हो । तीसरी बात यह है कि एक अर्थ में तो मंत्रिमंडल को गैर – पार्लियामेन्टरी होना चाहिए जिसका अर्थ यह है कि विधानसभा का काल समाप्त होने तक उसे स्थिर रहना चाहिए ताकि शासन – विभाग के सदस्य भी विधानसभा के सदस्यों से चुने जायें , जिससे उन्हें लोकसभा में बैठने , बोलने , मत देने और प्रश्नों का उत्तर देने का अधिकार प्राप्त रहे । “

अम्बेडकर जी का यह कहना था कि यदि भारत का संविधान संसार के संविधान से सर्वश्रेष्ठ नहीं है तो यह घटिया भी नहीं है । उन्होंने यह कहने में किंचितमात्र भी संकोच नहीं किया कि संविधान को कुशलतापूर्वक चलाने व लागू करने का पूर्ण दायित्व उसके चालकों पर है । यदि चालक ही खराब हैं तो संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो वह व्यर्थ ही प्रमाणित होगा । राज्यसभा में उन्होंने कहा था , ” हमने संविधान के रूप में एक आश्र्चयजनक देव – मन्दिर बनाया किन्तु देवताओं की प्रतिष्ठा से पूर्व ही इसे दानवों ने हथिया लिया । ” संविधान और वर्ण – व्यवस्था अम्बेडकर को हरिजन होने के नाते जितनी भयंकर आर्थिक व सामाजिक यातनाओं को सहना और झेलना पड़ा , शायद ही किसी अन्य भारतीय बुद्धिजीवी , चिन्तक व नेता को सहना पड़ा हो । भारतीय समाज ने हरिजनों का कितना शोषण किया है , यह कहने की आवश्यकता नहीं । शताब्दियों से उनसे पशु की तरह व्यवहार किया जाता रहा है । पशु की तरह ही उनका जीवन यहां बीता है । 80 वर्ष पूर्व अम्बेडकर ने भी हरिजन होने के नाते वह सब भोगा था जिसे हजारों वर्षों से हरिजन भोगता आया है । स्वतन्त्रता के पश्चात उनका यह अथक प्रयत्न रहा कि स्वतन्त्र भारत में हरिजन को जहां उन्नति के समान अवसर प्राप्त हों वहीं उनकी आर्थिक – सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए कुछ विशेष सुविधायें भी दी जायें ।

संविधान – निर्माण के सिलसिले में अछूतों को भारतीय संविधान में संरक्षण देने के संबंध में उन्होंने महत्वपूर्ण भाषण दिया था । अक्सर यह प्रश्न किया जाता है , ‘ अछूतों की विशिष्ट मांगों को भारतीय संविधान में क्यों स्थान दिया जाय ? संसार में ऐसा कोई देश  नहीं है जहां शासन का विधान बनाने वाले ऐसे मामलों का निपटारा संविधान में करने के लिए बाध्य हों । ‘ उन्होंने इसका उत्तर देते हुए कहा था , ” भारतीय समाज की अनेक विशेषतायें हैं । इसीलिए इस प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं और उनका अपना विशेष महत्व भी है । इसका उत्तरदायित्व हिन्दुओं की वर्ण – व्यवस्था और जाति – प्रथा पर है जिसका महत्त्व भी है और उसमें अनेक बुराइयां भी हैं ।

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” उन्हें यह कहने में किंचित्मात्र भी संकोच नहीं हुआ कि वर्ण – व्यवस्था की रक्षा के लिए जो धार्मिक और सामाजिक प्रथाएं प्रचलित हुई उनका प्रभाव समाज की आर्थिक – व्यवस्था पर भी बहुत गहरा पड़ा जिससे समाज में न केवल सामाजिक व आर्थिक विषमताओं में निरन्तर वृद्धि हुई बल्कि यह चरमसीमा पर पहुंच गयी ।

किसी भी देश का संविधान निर्मित करते समय यह आवश्यक है कि अमुक देश के सामाजिक ढांचे का ध्यान रखा जाय क्योंकि सामाजिक शक्तियां केवल सामाजिक क्षेत्र ही में अपना कार्य नहीं करतीं बल्कि वे आगे चलकर राजनीतिक क्षेत्र में भी अपना अधिकार जमाने लगती हैं । यही स्थिति और यही दृष्टिकोण अछूतों का है , मेरा यह दृढ़ – विश्वास है कि यह एक विवादहीन प्रश्न है । कुछ अंग्रेजी – शिक्षित सवर्ण हिन्दू इस प्रकार का तर्क प्रस्तुत करते हैं कि हिन्दुओं की वर्ण – व्यवस्था व यूरोपियन वर्ण – व्यवस्था में कोई अन्तर नहीं है । किन्तु यह धारणा पूर्णतया गलत है । वर्गीय प्रथा से बनी टुकड़ियां गैर – सामाजिक होती हैं और वर्ण – व्यवस्था से बनी जातियां अपने पारस्परिक सम्बन्धों में निश्चित रूप से समाज – विरोधी होती हैं । यदि यह विश्लेषण सही है तो इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि चूंकि हिन्दू – समाज का सामाजिक ढांचा भिन्न है , अतः इसका राजनीतिक ढांचा भी सर्वथा भिन्न होना चाहिए । अम्बेडकरजी के उपरोक्त विचार अछूतों की सामाजिक – आर्थिक परिस्थितियों व दशाओं की स्पष्ट व्याख्या करते हैं कि भारतीय जाति – प्रथा और वर्ण – व्यवस्था ने इस प्रकार की अर्थिक – सामाजिक व्यवस्था का निर्माण किया कि अछूत उसमें निरीह प्राणी बनकर रह गया । उसे तो समाज का सड़ा – गला अंग समझा गया । उसके पास किसी भी प्रकार की शक्ति नहीं थी । राजनीतिक शक्ति व सुविधायें उसके लिए स्वप्नमात्र थीं । सामन्तवादी प्रथाओं ने अछूतों का शताब्दियों तक शोषण किया है । उन्हें गुलाम की तरह रखा और समझा है । इसलिए स्वतंत्र भारत में उनकी आर्थिक – सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए संविधान में उन्हें कुछ विशेष सुविधायें मिलनी चाहिएं ।

इस तरह अम्बेडकर जी ने अपने अथक प्रयासों से हरिजनों को कुछ विशिष्ट सुविधायें – शिक्षा , नौकरी एवं राजनीतिक क्षेत्रों में दिलाने में सफलता प्राप्त की जिसकी व्याख्या संविधान में की गई है ।

श्रम और संविधान केन्द्र सरकार के पास असीमित अधिकार हैं । उसके पास अथाह शक्ति है । एक तरफ वह कानून का निर्माण कर सकती है तो दूसरी तरफ उन्हें लागू भी कर सकती है । संविधान सरकार की राजनीतिक , सामाजिक व आर्थिक दिशा के निर्देशन का स्रोत है । देश में किस प्रकार की आर्थिक व्यवस्था होनी चाहिए , संविधान इस बात का भी निर्णय करता है । संविधान में जहां राजनीतिक ढांचे को निश्चित किया गया है वहीं आर्थिक ढांचा भी निश्चित कर दिया गया है ।

 

संविधान निर्माण व साम्प्रदायिक समस्या अम्बेडकर जी की महानता और उनके व्यक्तित्व को , उनके कार्यों से देखा व परखा जा सकता है । संविधान निर्माण के समय उनका ध्यान भारतीय समाज की विभिन्न जातियों व साम्प्रदायिक समस्याओं की ओर भी था । इन सभी समस्याओं का वह बिना किसी पक्षपात व पूर्वाग्रह के समाधान करने के लिए तत्पर रहते थे । इसके लिए अपने बहुमूल्य सुझाव प्रस्तुत करते थे । भारत की अनेक गंभीर व विषम समस्याओं में एक साम्प्रदायिकता भी है जिसका निराकरण वह संवैधानिक ढंग से करना चाहते थे । ” बहुमत को अल्पमत – सम्प्रदाय से कुछ अधिक प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है , लेकिन वह भी किसी दशा में निरपेक्ष – बहुमत की मांग नहीं कर सकता ।

जिन प्रान्तों में हिन्दुओं का बहुमत है , वहां भी इसी सिद्धान्त को मान्यता मिलनी चाहिए और जिन प्रान्तों में मुसलमानों का बहुमत है वहां भी इसी सिद्धान्त को मान्यता मिलनी चाहिए । मेरे इस कथन का तात्पर्य यही है कि किसी भी और कहीं भी बहुमत – सम्प्रदाय को 40 प्रतिशत से अधिक प्रतिनिधित्व नहीं मिलना चाहिए । ” वे यह भी कहते थे कि अभी तक इस समस्या का समाधान ‘ जिसकी लाठी उसकी भैंस ‘ के सिद्धान्त के आधार पर किया गया है ।

हिन्दुओं की परम्परागत व्यवस्था ‘ मनुस्मृति ‘ के आधार पर चलती है । डॉ . अम्बेडकर ‘ मनुस्मृति ‘ को अन्याय , असमानता तथा शोषण का प्रतीक मानते हैं । उनमें हिन्दुओं की परम्परागत व्यवस्था के विरुद्ध गहरा आक्रोश था । उनके नेतृत्व में अनेक बार ‘ मनुस्मृति ‘ को जलाने का कार्य किया गया । उनका विचार था कि मनुस्मृति ने अछूतों का सामाजिक , आर्थिक , धार्मिक तथा राजनीतिक शोषण करके उन्हें दासता प्रदान की है ।

हरिजनों के साथ सवर्णों ने पशु से भी गया – बीता व्यवहार किया है । शताब्दियों तक उन्हें गुलाम बनाकर उनका शोषण किया । वर्ण – व्यवस्था ने शूद्रों को आर्थिक व सामाजिक सुविधायें , समान अवसर नामक अधिकार दिये ही नहीं । इसीलिए अम्बेडकर का यह विचार था कि जो जाति आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़ी है , उसे न समाज में कोई स्थान प्राप्त होता है और न उसे राजनीति में ही किसी प्रकार की सत्ता , शक्ति व अधिकार प्राप्त हो पाते हैं । वे जीवन भर असमानता और अन्याय के विरुद्ध अपना आक्रोश व्यक्त करते रहे । दलित व शोषित वर्ग के व्यक्तियों को संगठित करते रहे । उन्हें उनके अधिकारों के प्रति उन्होंने सजग बनाया । आर्थिक , सामाजिक व राजनीतिक चेतना को जन्म दिया ।

देश के संविधान में हरिजनों को कुछ विशेष सुविधायें दिलाने का सफल प्रयास किया । इसीलिए गांधीजी उन्हें निडर कहा करते थे । वे यह कहने में भी नहीं हिचके कि राष्ट्रीय स्वाधीनता – संग्राम से भी महत्वपूर्ण अछूतों की सामाजिक स्वाधीनता है । गांधीजी ने कहा भी था कि उस समय तक स्वराज्य व्यर्थ है जब तक अस्पृश्यता का कलंक हमारे माथे से नहीं हटता । ” डा . अम्बेडकर ने सदैव अमीरी और गरीबी की एक सामाजिक अन्याय के रूप में व्याख्या की है । उन्होंने कहा , ” सवर्णों की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती । ” इस लोकोक्ति की सदैव उन्होंने कटु , ओलाचना की है । उनका विचार था कि प्रकृति के नियम भले ही समान न हों पर मनुष्य का नियम समानता पर आधारित होना चाहिए ।

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समाज और राज्य का एक शक्तिशाली नियम समता होना चाहिए जहां सामाजिक और आर्थिक विषयों पर न किसी प्रकार का भेदभाव हो , न असमानता हो , न अन्याय की सम्भावना हो और न उनके मध्य कोई उतार – चढ़ाव का कोई जोखिम ही हो । वे साम्यवाद व समाजवाद से भी पूर्णतया सहमत नहीं थे । वे मार्क्स की अर्थ – व्यवस्था व नियमों से प्रभावित अवश्य थे किन्तु सामाजिक व राजनीतिक सिद्धान्तों से उनका मेल नहीं खाता था । इसीलिए वे कहते थे कि मैं केवल जनतन्त्र को ही मनुष्य के जीने के लायक जीवन – पद्धति मानता हूं क्योंकि यह जनमत पर आधारित होता है जबकि साम्यवादी व्यवस्था हुक्मनामे पर आधारित रहती है । सवर्णों पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा- ” सवर्णों ने अंग्रेजों से दीर्घकालिक संघर्ष चलाया केवल सत्ता के लिए अन्यथा बरतानिया सरकार भी तो जनतंत्रीय संसद का शासन चला रही थी । “

जातिवाद का वह घिनौना रूप , जो भारत में उन्होंने भुगता था , विदेशों में नहीं था । हीनता की भावना , जो भारतीय समाज में उनके कहीं गहरे घर कर गयी थी , वहां समाप्त हो गयी । विदेश में रहकर उनके सोचने – विचारने और चीजों को देखने व समझने के ढंग में अद्भुत परिवर्तन आया । यहां इनके व्यक्तित्व का विकास हुआ । जून 1915 में उन्हें प्राचीन भारतीय व्यापार विषय पर थीसिस पर एम . ए . की डिग्री प्राप्त हुई । 1916 में अम्बेडकर ने पी – एच . डी . के लिए थीसिस प्रस्तुत की जिसका शीर्षक था ‘ नेशनल डिविडेण्ड फार इण्डिया : ए हिस्टोरिक फाइनेन्स इन ब्रिटिश इण्डिया ‘ । इसकी प्रस्तावना में प्रो . एम . ए , सैलिगमन ने लिखा था , ” मेरे विचार से अधोगत सिद्धान्तों का इतना विस्तृत विवेचन कहीं और नहीं मिलेगा । ” यहीं पर लाला लाजपतराय से भी इनका परिचय हुआ । इन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बारे में परस्पर विचार – विमर्श किया ।

उनके अनुसार जाति व्यवस्था हिन्दू समाज का सबसे बड़ा दोष था । वे जाति व्यवस्था को समूल नष्ट करना चाहते थे । डॉ . अम्बेडकर का मत था कि चार वर्णों पर आधारित सामाजिक ढाँचे की हिन्दू योजना ने ही जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता को जन्म दिया है । इस जाति व्यवस्था के कारण असमानता और शोषण व्याप्त है । उनका विचार था कि अस्पृश्यों की समस्याओं का समाधान छोटे – छोटे सुधारों से सम्भव नहीं है वरन् इसके लिए तो क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता है । उनका विचार था कि प्रारम्भ में जाति व्यवस्था नहीं थी । कालान्तर में समाज के कुछ स्वार्थी लोगों ने जो उच्च स्तर के थे , इस प्रथा को प्रारम्भ किया । उन्होंने कुछ कमजोर लोगों से बलपूर्वक काम कराकर उन्हें अपनी दासता में रखा और उन्हें शिक्षा प्राप्त करने व व्यापार से वंचित कर दिया । इस प्रकार जातिवाद को अपनाकर शूद्रों को निर्बल कर दिया गया ।

उन्होंने सामाजिक समानता स्थापित करने के उद्देश्य से स्वतंत्र भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 द्वारा विभिन्न प्रकार से आम भारतीय नागरिक के समानता के मौलिक अधिकारों को स्थान दिलाया । अम्बेडकर की दृष्टि में ‘ वर्ग – संघर्ष ‘ से भी महत्वपूर्ण ‘ वर्ण संघर्ष ‘ है । इस देश में जब तक छुआछूत की भावना , वर्ण – व्यवस्था व जातीय – व्यवस्था विद्यमान रहेगी तब तक इस देश का सन्तुलित विकास सम्भव नहीं है । इसलिए आज आवश्यकता है कि देश के सभी वर्गों और सभी जातियों के व्यक्तियों को उन्नति के समान अवसर , बगैर किसी भेदभाव के प्रदान किये जायें । धनी , सम्पन्न व खुशहाल देश वही होता है जिसमें अधिकांश व्यक्तियों की कम – से – कम आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हो । सवर्णों के अथवा कुछ पूंजीपतियों के मात्र सम्पन्न होने से देश न तो खुशहाल हो सकता है और न धनी ही । इसलिए देश से जातीय भावना , ऊंच – नीच पर आधारित सामाजिक व्यवस्था , आर्थिक – सामाजिक अन्याय को जब तक समाप्त नहीं किया जाता तब तक यह देश आर्थिक – सामाजिक रूप से अपनी रूढ़ियों व प्रथाओं का गुलाम ही बना रहेगा ।

उन्होंने इस बात पर बल दिया कि अछूतों में स्वतन्त्रता , समानता और स्वाभिमान से जीवन व्यतीत करने की इच्छा होनी चाहिए । उन्होंने सुझाव दिया कि अछूतों को संगठित होना चाहिए तथा शिक्षा प्राप्त करके अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए । उन्होंने अछूतों को सरकारी नौकरी में जाने तथा खेती करने का भी सुझाव दिया । वस्तुत : उन्होंने अछूतों तथा दलितों के उत्थान के लिए शिक्षा तथा स्त्री सुधार पर अधिक बल दिया । डॉ . अम्बेडकर का विचार था कि अछूतों का स्वयं का दृष्टिकोण भी अछूतों की वर्तमान स्थिति के लिए उत्तरदायी था । अत : उन्होंने इस बात पर बल दिया कि अछूतों को अपनी बुरी आदतों को छोड़ देना चाहिए और हीनता की भावना का त्याग करके आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न करनी चाहिए तथा आत्म – सम्मान का जीवन व्यतीत करना चाहिए ।

उनका विचार था कि अछूतों की स्थिति में सुधार के लिए अछूत स्त्रियाँ बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं । उन्होंने स्त्रियों को साफ रहने तथा स्वच्छ कपड़े पहनने का परामर्श दिया और इस पर बात बल दिया कि स्त्रियों को स्वयं भी शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए और बच्चों को भी शिक्षा देनी चाहिए

डॉ . अम्बेडकर दलितों तथा अछूतों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व के समर्थक थे । उनका विचार था कि मुसलमानों की भांति अछूतों को भी पृथक् प्रतिनिधित्व दिया जाए । उन्होंने इसके लिए अथक प्रयत्न किए । उन्होंने प्रथम तथा द्वितीय गोलमेज सम्मेलनों में अहतों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व पर ही सबसे अधिक बल दिया ।, डॉ . अम्बेडकर अस्तों को पृथक् प्रतिनिधित्व देना चाहते थे और इस प्रकार अछूत वर्ग को एक बड़ी राजनीतिक अछूतों को सभी सार्वजनिक स्थानों के प्रयोग का अधिकार – डॉ . अम्बेडकर का मत था कि सभी सार्वजनिक स्थान – मन्दिर , कुएँ और तालाब आदि सभी मनुष्यों के लिए सुलभ होने चाहिए । वस्तुत : वे चाहते थे कि मन्दिरों , कुओं तथा तालाबों का सभी को उपयोग करने का अधिकार होना चाहिए और अछूतों को इनके प्रयोग से वंचित करना न्यायोचित नहीं है । उन्हीं के प्रयासों से गंगा सागर तालाब का पानी पिया गया , यह वही तालाब था जहाँ अछूतों को पानी पीने की आजा नहीं थी । 1930 में उन्होंने गुजरात में काला – राम मन्दिर में प्रवेश के लिए एक प्रदर्शन का नेतृत्व किया । उन्होंने ‘ महार वतन ‘ का विरोध किया , जो महाराष्ट्र के महारों के लिए ‘ बँधुआ मजदूरी और दासता ‘ की व्यवस्था करता था । उन्होंने ‘ समता सैनिक दल ‘ की भी स्थापना की ।

भारतीय संविधान द्वारा राजनीतिक समानता के साथ – साथ सामाजिक समानता की व्यवस्था की गई । संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक समानता की व्यवस्था भी की गई है और अनुच्छेद 17 के द्वारा अस्पृश्यता को कानून की दृष्टि में अपराध घोषित करने की व्यवस्था की गई है । भारतीय संविधान द्वारा अनुसूचित जातियों तथा जन – जातियों को आरक्षण दिया गया है ।

इस धर्म – परिवर्तन का उद्देश्य अछूत वर्ग को अपनी अलग पहचान बनाकर सम्मानपूर्ण स्थिति प्रदान करना था । डॉ ० वी ० पी ० वर्मा के अनुसार , ” उन्होंने बौद्ध धर्म में मार्क्सवाद का नैतिक तथा सहिष्णु विकल्प खोजा और उनके अनुयायियों ने उन्हें गर्व के साथ ‘ बीसवीं सदी का बोधिसत्व ‘ कहा । “

डॉ . अम्बेडकर चाहते थे कि अछूत सम्मानपूर्ण ढंग से जीवन बिताएँ । हिन्दू धर्म में असमानता तथा ऊँच – नीच की भावना थी अत : सम्मानपूर्ण और समानता के लिए उन्होंने अछूतों के लिए धर्म – परिवर्तन का निश्चय किया । बौद्ध धर्म में उन्होंने समानता का सन्देश पाया । अत : उन्होंने अपने वर्ग के लिए बौद्ध धर्म स्वीकार करने का संकल्प किया और 1956 में 5 लाख व्यक्तियों के साथ उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया ।

उनका उद्देश्य अछूतों , दलितों तथा श्रमिकों का उत्थान करना था तथा वे सामाजिक भेदभाव मिटाकर समानता स्थापित करना चाहते थे । संविधान में धर्मनिरपेक्ष राज्य तथा अस्पृश्यता अपराध अधिनियम उन्हीं की देन हैं । वे प्रबल देशभक्त तथा राष्ट्र की एकता के प्रबल समर्थक थे । वे प्रारम्भ से ही राजनीतिक स्वतन्त्रता के भी समर्थक रहे परन्तु उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य अछूतों के लिए सम्मानपूर्ण जीवन की परिस्थितियाँ उत्पन्न करना था तथा समाज को समानता के आधार पर व्यवस्थित करना था , जिससे समाज में व्याप्त ऊँच – नीच की भावना समाप्त हो और जाति के आधार पर भेदभाव तथा शोषण न हो ।उन्होंने श्रमिकों के हितों को भी महत्त्वपूर्ण समझा और उन्हें मिल – मालिकों के शोषण से बचाया । उन्होंने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए श्रमिकों का एक स्वतन्त्र दल बनाया । क डॉ . अम्बेडकर के उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट होता है कि वे अछूत तथा दलितों के लिए समर्पित सामाजिक और राजनीतिक विचारक थे । वस्तुत : वे राजनीतिक स्वतन्त्रता की अपेक्षा पहले सामाजिक सुधार चाहते थे । इसीलिए कहा जाता है कि ” डॉ ० अम्बेडकर एक समाज सुधारक थे , न कि एक राजनीतिज्ञा डॉ ० वी ० पी ० वर्मा के अनुसार , ” इसमें सन्देह नहीं कि वे देशभक्त थे और राष्ट्रीय एकीकरण के विरोधी नहीं थे ।

डॉ . अम्बेडकर राज्य को एक आवश्यक राजनीतिक संगठन मानते हैं परन्तु वे इसे समाज से सर्वोच्च नहीं मानते हैं । उनके अनुसार राज्य व्यक्तियों के अधिकारों और स्वतन्त्रता की रक्षा करता है तथा वह सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक विषमताओं को दूर करता है , वह आन्तरिक व्यवस्था करता है तथा बाह्य आक्रमणों से रक्षा करता है । राज्य ही विचार अभिव्यक्ति की सुविधा प्रदान करता है तथा धार्मिक स्वतन्त्रता की रक्षा करता है । उनके अनुसार राज्य सामाजिक – आर्थिक परिवर्तन करके नई व्यवस्था की स्थापना करता है । परन्तु इतने अधिक कार्यों का सम्पादन करने के बावजूद भी राज्य सर्वशक्तिमान और निरंकुश नहीं है । उनके अनुसार राज्य तो समाज – सेवा का एक साधन है । डॉ . अम्बेडकर लोकतन्त्र तथा संसदीय शासन – प्रणाली में विश्वास करते है ।

उन्होंने लोकतन्त्र के सम्बन्ध में एक नई परिभाषा प्रस्तुत की है । उनके अनुसार , “ लोकतन्त्र शासन का एक ऐसा रूप तथा पद्धति है जिसमें बिना रक्त बहाए क्रान्तिकारी सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त होता है । “

डॉ ० अम्बेडकर संसदीय शासन प्रणाली के बहुत बड़े प्रशंसक थे । उनके अनुसार संसदीय शासन – प्रणाली में तीन

( 1 ) इसमें वंशानुगत शासन नहीं होता है ,

( 2 ) इसमें कोई व्यक्ति सत्ता का प्रतीक नहीं होता है , तथा

( 3 ) निर्वाचित प्रतिनिधियों में जनता का विश्वास होता है । डॉ . अम्बेडकर के अनुसार राजनीतिक लोकतन्त्र की सफलता के लिए सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र का होना बहुत आवश्यक है । उन्हीं के शब्दों में , ” बिना सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र के राजनीतिक लोकतन्त्र सफल नहीं हो सकता । ” उनका यह भी विचार था कि लोकतन्त्र के नाम पर अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यकों की निरंकुशता नहीं होनी चाहिए । उनका भारतीय लोकतन्त्र के सम्बन्ध में विचार था कि नेतृत्व के प्रति व्यक्ति पूजा , जाति – प्रथा तथा सामाजिक विषमता इसे कमजोर बनाती है ।

डॉ . अम्बेडकर इस मत के समर्थक थे कि कुछ अधिकारों को संविधान में स्थान दिया जाना चाहिए । उन्हीं के प्रयासों से समानता के अधिकार के अन्तर्गत अनुच्छेद 15 तथा 16 के द्वारा सामाजिक समानता की व्यवस्था की गई है तथा अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता को कानून की दृष्टि में अपराध घोषित करने की व्यवस्था की गई है । परन्तु उनका विचार था कि अधिकारों का तब तक का संवैधानिक उपचारों की व्यवस्था की गई है । संवैधानिक उपचारों के अधिकार की व्यवस्था के कोई महत्त्व नहीं होता जब तक उनके पीछे संवैधानिक उपचारों का प्रावधान न हो । अनुच्छेद 32 के महत्त्व को दृष्टि में रखते हुए डॉ ० अम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि , “ यदि कोई मुझसे यह पूछे कि संविधान का कौन – सा अनुच्छेद है जिसके बिना संविधान शून्य प्रायः हो जाएगा , तो इस अनुच्छेद ( अनुच्छेद 32 ) को छोड़कर मैं और किसी अनुच्छेद की ओर संकेत नहीं कर सकता । यह संविधान का हृदय और आत्मा है । ” डॉ . अम्बेडकर के अनुसार प्रत्येक नागरिक को अन्त : करण की स्वतन्त्रता होनी चाहिए तथा किसी भी धर्म को स्वीकार करने व उसका प्रचार करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए । राज्य का अपना कोई विशेष धर्म नहीं होना चाहिए तथा राज्य को न तो किसी धर्म – विशेष को प्रोत्साहन देना चाहिए और न किसी को निरुत्साह करना चाहिए । प्रत्येक धार्मिक समुदाय को यह अधिकार होना चाहिए कि वह कानून के अनुसार धार्मिक व लोकोपकारी संस्थाओं का संचालन करे ।

डॉ ० अम्बेडकर धर्म – निरपेक्ष राज्य के समर्थक थे जिसमें सभी नागरिकों को अन्तःकरण की स्वतन्त्रता प्राप्त हो तथा उसमें धार्मिक सहिष्णुता भी हो । संविधान सभा में उन्होंने कहा था कि , ” धर्म – निरपेक्ष राज्य का यह अर्थ नहीं है कि हम लोग धार्मिक भावनाओं की ओर ध्यान नहीं देंगे । इसका अर्थ केवल इतना है कि संसद देश के लोगों पर कोई विशेष धर्म लादने का अधिकार नहीं रखती । यही एक परिसीमा संविधान स्वीकार करता है । ” डॉ . अम्बेडकर ने पुरुषों एवं स्त्रियों की समानता के लिए अथक् प्रयास किया । इसके लिए उन्होंने जिन कानूनों का मसौदा तैयार किया , हिन्दू कोड बिल उनमें से एक था । वे हिन्दू कोड बिल के प्रबल समर्थक थे । हिन्दू कोड बिल द्वारा यह प्रतिपादित किया गया था कि विवाह के लिए जाति निर्धारित मापदण्ड नहीं है तथा महिलाओं के सम्पत्ति के अधिकार एवं उत्तराधिकार सम्बन्धी अधिकारों को मान्यता दी गई थी । वस्तुत : यह बिल महिलाओं की सामाजिक प्रगति का द्योतक था । किन्तु इस बिल का संसद और उसके बाहर प्रबल विरोध हुआ , जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने 25 सितम्बर , 1951 को केन्द्रीय मन्त्रिण्डल से त्यागपत्र दे दिया ।

डॉ . अम्बेडकर और उनके समान विचारधारा वाले सदस्यों के प्रयत्नों के फलस्वरूप अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए विशेष प्रावधान किए गए । संविधान द्वारा इन जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई , जिससे ये जातियाँ भी विकास कर सकें और अन्य वर्गों के समान स्तर पर आ सकें । डॉ . अम्बेडकर का लक्ष्य भारत के दलित वर्गों के लिए समानता की स्थिति प्राप्त करना था । मार्क्स विश्व – स्तर पर समानता लाने के पक्षधर थे ।

डॉ . अम्बेडकर ने मार्क्सवाद का अध्ययन किया था और वे उससे प्रभावित भी हुए थे परन्तु अम्बेडकर की विचारधारा मास की विचारधारा से भिन्न है । डॉ . अम्बेडकर उदारवादी विचारधारा में आस्था रखते थे । वे लोकतन्त्र तथा संसदीय प्रणाली के प्रबल समर्थक थे । वे राज्य को समाज – सेवा का एक साधन मानते थे तथा शक्ति – पृथक्करण में उनका विश्वास था । वे समाज की कुरीतियों को समाप्त करके सामाजिक समानता स्थापित करना चाहते थे । उनके जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य अछूतोद्धार था ।

वे धर्मनिरपेक्ष राज्य के समर्थक थे और भारतीय केन्द्रीय सरकार को सुदृढ़ता प्रदान करना चाहते थे । उन्होंने दलितों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व का समर्थन किया था । भारतीय संविधान के निर्माण में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है । वे बहुत बड़े विद्वान् थे , तथा एक ओजस्वी लेखक थे । उन्होंने अपने जीवन में 17 पुस्तको की रचना की । उन्होंने भारत के अछूत वर्ग की राजनीतिक , आर्थिक और सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूकता उत्पन्न की है । उनका यह कार्य हिन्दू समाज और देश के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है

एस . सहाय ने कहा , ” स्वाधीनता का श्रेय महात्मा जी को दिया जाएगा और इसको संहिताबद्ध करने का सेहरा बंधेगा उनके कटुतम आलोचक अर्थात् हमारे महान् संविधान के महान् शिल्पी डॉ . अम्बेडकर के सिर पर ।

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