डी . पी . मुकर्जी : परम्परा एवं परिवर्तन

डी . पी . मुकर्जी : परम्परा एवं परिवर्तन

भारतीय समाजशास्त्रीयों में ध्रुजटि प्रसाद मुकर्जी ( डी . पी . मुखर्जी ) का नाम विशेष सम्मान के साथ लिया जाता है । 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में समाजशास के स्वतंत्र स्वरूप का निर्धारण करने में इनका योगदान महत्वपूर्ण रहा । न केवल समाजशास्त्र में बल्कि शिक्षण , शैक्षणिक घटनाओं पर उनके व्याख्यान व जनजीवन में उनके द्वारा किये गये कार्य से विशेष ख्याति मिली । मार्क्सवाद से वे बेहद प्रभावित थे ।

भारतीय समाजशास्त्र को अमूल्य योगदान प्रदान करने वाले एक प्रमुख समाजशास्त्री धुर्जटि प्रसाद मुखर्जी हैं , जिन्हें प्यार से लोग “ डी ० पी ० ‘ के नाम से पुकारते थे ।अपने शिष्यों तथा साथियों के बीच आम तौर पर इन्हें डी.पी. के नाम से ही जाना जाता था । थे राधाकमल मुकर्जी के समकालीन थे । दोनों लखनऊ विश्वविद्यालय में लम्बे समय तक साथ – साथ रहे । डी.पी. मुकर्जी मार्क्सवादी समाजशास्त्री थे , वे अपने आपको मार्क्सवादी कहलाना अधिक पसंद करते थे । इन्होंने भारतीय इतिहास का द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया द्वारा विश्लेषण किया । इनके अनुसार परम्परा तथा आधुनिकता , उपीनवेशवाद तथा राष्ट्रवाद और समूहवाद के बीच द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध हैं । परम्परा और आधुनिकता निरन्तर एक – दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं ।

उन्होंने अंग्रेजी तथा बंगाली में बहुत सारी पुस्तकें लिखीं । समाजशास्त्र से पूर्व इतिहास व अर्थशास्त्र में अध्ययन किया था । इनकी अभिरुचि के विषयों में साहित्य , संगीत , फिल्म , पाश्चात्य व भारतीय दर्शन , मावर्सवाद , राजनीतिक अर्थव्यवस्था तथा विकास की योजना थी ।

डी . पी- मुकर्जी का जन्म 5 अक्टूबर , 1894 को एक मध्यवर्गीय बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ । उनके परिवार में उच्च शिक्षा की लम्बी परम्परा थी । प्रारंभिक शिक्षा बंगाल में ही हुई । उन्होंने विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की । फिर इतिहास तथा अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्राप्त की । 1924 में लखनऊ विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र तथा समाजशास्त्र विभाग में लेक्चरर के पद पर नियुक्ति हुई । उस समय लखनऊ विभाग राधाकमल मुकर्जी ( संस्थापक ) , डी . पी . मुकर्जी तथा डी . एन . मजुमदार द्वारा चलाया जा रहा था । वैसे तीनों अपने कार्यों के लिये जाने – माने वाले थे , परन्तु डी . पी . मुकर्जी इनमें सर्वाधिक लोकप्रिय थे । 1938-41 के बीच ब्रिटिश भारत के यूनाइटेड प्रोविंस की काँग्रेस गठित सरकार में सूचना मंत्रालय में निर्देशक के पद पर नियुक्ति हुई । 1947 में उत्तर प्रदेश लेबर एंक्वायरी कमेटी के सदस्य के रूप में कार्य किया । 1949 में लखनऊ , विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति हुई । 1953 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति हुई । 1955 में इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसाइटी में अध्यक्षीय भाषण दिया । 1956 में स्विट्जरलैंड में गले के कैंसर की सर्जरी हुई । 5 दिसम्बर , 1961 को उनकी मृत्यु हुई ।

प्रो . डी . पी . मुकर्जी ने लखनऊ विश्वविद्यालय में 30 वर्षों तक ( 1922-1952 ) अर्थशास्त्र व समाजशास्त्र का अध्यापन कार्य किया । सन् 1951 में ये यहीं पर आचार्य पद पर सुशोभित हुए । लखनऊ से सेवानिवृत्ति के एक वर्ष बाद सन् 1953 में वे अलीगढ़ विश्वविद्यालय के तत्कालीन उपकुलपति डॉ . जाकिर हुसैन के आमंत्रण पर यहाँ अर्थशास्त्र विभाग में विभागाध्यक्ष का पद ग्रहण किया । यहाँ ये पाँच वर्षों तक रहे । इसी दौरान हेग के अन्तर्राष्ट्रीय सामाजिक अध्ययन संस्थान में समाजशास्त्र के अतिथि आचार्य के रूप में गये । इसी बीच उन्हें यूनेस्को द्वारा पेरिस में एक भाषण देने के लिए आमंत्रण मिला । प्रो . डी.पी. मुकर्जी भारतीय समाजशास्त्रीय परिषद् के संस्थापक सदस्य थे । आपने अन्तर्राष्ट्रीय समाजशास्त्रीय परिषद् में भारत की ओर से प्रतिनिधित्व किया और उसके उपाध्यक्ष भी रहे । भारतीय समाजशास्त्रीय परिषद् का प्रथम अधिवेशन इनकी अध्यक्षता में हुआ । इन्होंने समाज विज्ञानों में मूल्य मुक्ति पर जोर देते हुए कहा कि समाजशास्त्रियों को घटनाओं के वर्णन एवं विश्लेषण के दायरे से बाहर निकल कर निर्देशात्मक समाधान प्रस्तुत करने चाहिए | प्राध्यापक , महान् सामाजिक विचारक , उपन्यासकार , साहित्य और कला के विवेचक , संगीत पारखी , मानवतावादी दृष्टिकोण से ओत – प्रोत मानव और कुशल प्रशासक थे । वे समस्त ज्ञान की एकता और अनुभव के एकीकरण में विश्वास करते थे । वे हठवादी मनोवृत्ति , ‘ अन्य परम्परा यद्यपि वे अपने छात्रों से कहा करते थे कि मेरे पास पुस्तकें लिखने को समय कहाँ है , तथापि सा उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं

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रचनाएँ –

विविधताएँ 1958 ( Diversities )

व्यक्तित्व एवं सामाजिक विज्ञान ( Personality and the Social Sciences ) , 1924

समाजशास्त्र मौलिक अवधारणाएँ ( Basic Concepts and Sociology ) , 1932

आधुनिक भारतीय संस्कृति ( Modern Indian Culture ) , 1942

भारतीय युवकों की समस्याएँ ( Problems of Indian Youths ) , 1946.

समाजशास्त्र की मूल अवधारणाएँ 1932 ( Basic Concepts in Sociology )

व्यक्तित्व और सामाजिक विज्ञान 1924 ( ( Personality and the Social Sciences )

आधुनिक भारतीय संस्कृति 1942 ( Modern Indian Culture )

टैगोर : एक अध्ययन 1943 ( Tagore : A Study )

भारतीय इतिहास पर 1945 ( On Indian History )

भारतीय संगीत पर परिचय 1945 ( Introduction to Indian Music )

भारतीय युवाओं की समस्याएँ ( Problems of Indian Youth )

विचार और प्रति विचार 1946 ( Views and Counter Views )

भारतीय संस्कृति का समाजशास्त्र 1942 ( Sociology of Indian Culture )

भारतीय परम्परा और सामाजिक परिवर्तन 1955 ( अध्यक्षीय उद्बोधन ) ( Indian Tradition and Social Change ) ( Presidential Address )

मुकर्जी का मानना है कि इतिहास , समाजशास्त्र व अर्थशास्त्र परस्पर घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं । अत : इन विज्ञानों की अध्ययन सामग्री का आदान – प्रदान होना चाहिए । आपका यह भी मानना है कि सम्पूर्णवादी दृष्टिकोण ही समाज की घटनाओं की व्याख्या करने का आधार होना चाहिए । आपने मनो – समाजशास्त्रीय पद्धति को भी प्रस्तुत किया , जिसके आधार पर व्यक्तित्व को समझना चाहिए । व्यक्तित्व पूर्ण एकता है तथा ज्ञान इस एकीकृत पूर्ण एकता का आधार है । इसलिए सामाजिक विज्ञानों की विषय – वस्तु को अलग – अलग संदर्भो से न समझ कर सम्पूर्णवादी दृष्टिकोण से समझना चाहिए । डी.पी. मुकर्जी ने भारतीय समाजशास्त्र को जो प्रमुख योगदान दिये हैं , वे निम्नलिखित हैं

  1. परम्पराओं का द्वन्द्व
  2. कला एवं साहित्य का विकास
  3. ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक उपागम

मुकर्जी ने परम्परा और आधुनिकता के द्वन्द्व का भी उल्लेख किया है । इन्होंने इन्हें क्रमश : वाद और प्रतिवाद के रूप में दर्शाया है । दोनों के संघर्ष से ही आधुनिकीकरण पनपता है जो दोनों का समन्वय भी है । उनका मत है  कि आधुनिकीकरण को समझने के लिए परम्परा को समझना आवश्यक है क्योकि वर्तमान का में अध्ययन भूतकाल के सन्दर्भ में ही किया जा सकता है । मुकर्जी के अनुसार हमारी परम्पराओं में परिवर्तन के तीन तत्त्वों – श्रुति , स्मृति तथा अनुभव  को मान्यता प्रदान की गई है । अनुभव को विशेषत : अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्त्व माना गया है ।उपनिषद् तो व्यक्तिगत अनुभवों पर ही आधारित हैं । व्यक्तिगत अनुभव शीघ्र ही सामूहिक अनुभव के रूप मे पुष्पित हुआ । सामूहिक अनुभव को ही परिवर्तन का प्रमुख सिद्धान्त माना गया है । यदि हम विभिन्न सम्प्रदायों या पन्थों की उत्पत्ति पर विचार करें तो पाएंगे कि उनके सन्त – संस्थापकों ने उन् अपने व्यक्तिगत अनुभव से प्रारम्भ किया , उनका अनुष्ठानों , मन्दिरों तथा पुजारियों से कोई सम्बन्ध नहीं था । मुकर्जी ने जो कुछ कहा , स्थानीय बोली या भाषा में कहा , न कि संस्कृत में । उन्होंने अधिकतर जातियों एवं वर्गों को ही अपने पन्थ से सम्बन्धित प्रमुख बातें बताई । उन्होंने स्त्रियों को समान स्थिति प्रदान की तथा प्रेम , स्नेह एवं सहजता या स्वाभाविकता का उपदेश दिया । इन सन्तों का लोगों पर व्यापक प्रभाव पड़ा और उन्होंने परम्पराओं पर भी काफी प्रभाव छोड़ा । उच्च परम्पराएं प्रमुखत : बौद्धिक थी तथा स्मृति तथा श्रुति में केन्द्रित थीं जहाँ परिवर्तन का सिद्धान्त द्वन्द्वात्मक अर्थनिरूपण या व्याख्या द्वारा उपलब्ध था । यही प्रक्रिया हमें मुसलमानों में भी देखने को मिलती है । उनमें सूफियो के प्रेम और अनुभव पर विशेष जोर दिया । परम्पराओं के विकास में जहाँ द्वन्द्वात्मक योग्यता का काफी प्रभाव रहा है , वहाँ अनुभव का भी प्रभाव रहा है । यहाँ यह मानना या कहना अनुचित होगा कि बुद्धि – विचार ऐतिहासिक दृष्टि से अनुभव , प्रेम , स्नेह आदि की तुलना में परम्पराओं में परिवर्तन के अभिकरण के रूप में अधिक महत्त्वपूर्ण हैं ।

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मुकर्जी ने बताया कि जब कभी उच्च और निम्न बौद्धिक परम्पराओं में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होगी , तब उसका अनुमान लगा लिया जाता है और प्रयत्नपूर्वक उन्हें वैचारिक दृष्टि से एक – दूसरे के निकट ला दिया जाता है । भारतीय समाज जाति प्रधान समाज रहा है । यह एक ऐसा समाज है जिसने वर्गों के निर्माण को रोका है तथा सब प्रकार की वर्ग – चेतना को दबाया है । यहाँ तो चुनावों में भी वर्ग – चेतना , जातीय चेतना या भावना के अन्तर्गत समाहित होती है । भारतीय समाज भी पश्चिमी समाज के समान बदल रहा है , परन्तु यहाँ पश्चिमी समाज के समान उतना विघटन नहीं हुआ है । भारतीय सामाजिक व्यवस्था के अध्ययन के लिए भारतीय समाजशास्त्री को समाजशास्त्र में एक भिन्न परिप्रेक्ष्य को अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि इसकी विशेष परम्पराएँ हैं , इसके विशेष प्रतीक और संस्कृति तथा सामाजिक क्रियाओं के विशेष प्रतिमान हैं । तत्पश्चात् भारतीय परम्पराओं , संस्कृति तथा प्रतीकों पर आर्थिक और प्रौद्योगिकीय परिवर्तनों का प्रभाव पड़ता है । इन सबका अध्ययन भारतीय समाजशास्त्रियों को करना है । मुकर्जी के अनुसार भारतीय संस्कृति का इतिहास सांस्कृतिक समन्वय का इतिहास है । भारत की मौलिक संस्कृति उपनिषदों में वर्णित सिद्धान्तों पर आधारित है तथा इसीलिए इसमें सभी क्रियाएँ मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रेरित करती हैं । रहस्यवादी परिप्रेक्ष्य को मुकर्जी ने भारतीय संस्कृति का मौलिक परिप्रेक्ष्य माना है । उनके विचारानुसार बौद्ध संस्कृति ने भारतीय संस्कृति को लचीला बना दिया । मुस्लिम शासनकाल में भारत की कोई विशेष प्रगति नहीं हुई । परन्तु अंग्रेजी शासनकाल में भारतीय समाज की अर्थव्यवस्था में अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए । नवीन अर्थव्यवस्था , पश्चिमी शिक्षा तथा नवीन व्यवसायों ने भारतीय समाज में गतिशीलता की वृद्धि की तथा परम्परागत मध्यम वर्ग की समाप्ति कर एक ऐसे नवीन व चालाक मध्यम वर्ग का निर्माण किया जिसने सामाजिक – आर्थिक विकास में कोई विशेष भूमिका अदा नहीं की । इस मध्यम वर्ग ( मुख्यतः जमींदार ) ने भारत में अंग्रेजी शासनकाल की जड़ें मजबूत करने में सहायता प्रदान की तथा इसी ने देश का विभाजन करने में भी सहायता दी । यह वर्ग भारत में अंग्रेजों की तरह शोषण करता रहा और भारत के पुनर्गठन व पुनर्निर्माण की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया । उन्होंने इस बात पर बल दिया कि अंग्रेजों ने भारतीय समाज का एकीकरण उन पर से जबरदस्ती लादी गई बनावटी एकरूपता से किया इसलिए इसके दूरगामी दृष्टि से अच्छे परिणाम नहीं हुए । उनका विचार था कि क्षेत्रीय संस्कृतियों की विशेषता की एकता से ही भारत का नवनिर्माण हो सकता है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि डी ० पी ० मुकर्जी ने पश्चिमी चिन्तन के स्थान पर मौलिक भारतीय चिन्तन के विकास पर बल दिया तथा भारतीय संस्कृति के समन्वयात्मक परिप्रेक्ष्य अध्ययन करने पर बल दिया । उन्होंने इतिहास को भी सांस्कृतिक व्याख्या दी तथा भारत के अतीत को महत्त्वपूर्ण माना । उनकी मान्यता थी कि भारतीय समाज का आधुनिकीकरण वर्तमान सन्दर्भ में अतीत की परम्पराओं की पुनर्व्याख्या करके ही सम्भव हो सकता है । इस प्रकार , मुकर्जी ने भारतीय चिन्तन को एक नवीन दिशा प्रदान की । अनेक विद्वानों का विचार है कि मुकर्जी के विचारों में अस्पष्टता तथा असंगति देखी जा सकती है । उदाहरणार्थ , वह गांधी जी के विचारों के अनुरूप भारतीय समाज की रचना को पश्चिम की बुराइयों से बचने का एक सर्वोत्तम तरीका बताते हैं । एक और वह भारतीय संस्कृति के परम्परागत मूल्यों के प्रति निष्ठा व्यक्त करते हैं तो दूसरी ओर मार्क्सवादी पद्धति को समस्याओं के समाधान में उचित मानते हैं । कुछ भी हो , भारतीय चिन्तन के इतिहास में मुकर्जी का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है ।

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अध्ययन पद्धति

उनके द्वारा अपनायी गयी पद्धतियों का उल्लेख करेंगे :

( 1 ) द्वन्द्वात्मक पद्धति :

इस पद्धति को कार्ल मार्क्स से ग्रहण किया है । आपने दवन्द्वात्मक दृष्टिकोण के आधार पर भारतीय परम्पराओं के संघर्ष का अध्ययन किया है । भारतीय समाज परम्पराओं से पूर्णतया प्रभावित है । इस कारण कई बार वृहद् परम्पराओं का लघु परम्पराओं से संघर्ष या द्वन्द्व चलता रहता है । वृहद् परम्पराएँ संस्कृत भाषा में मिलती है जबकि लघु परम्पराएँ स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में मिलती है । कई बार इस्लाम , ईसाई व अन्य बाहय परम्पराओं से भी टकराव की स्थिति देखने को मिलती है । अत : आपने भारतीय समाज के सामाजिक परम्पराओं का अध्ययन द्वन्द्वात्मक पद्धति के माध्यम से किया है ।

( 2 ) मनो – समाजशास्त्रीय पद्धति : – डी.पी. मुकर्जी का कहना है कि हमें समाज की यथार्थता जानने के लिए वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग करना चाहिए । आपने समाजशास्त्रीय अवधारणा का मुख्य तत्व व्यक्तित्व बताया है , व्यक्तित्व पूर्ण एकता है तथा ज्ञान इस पूर्णता का आधार है । व्यक्तित्व का विकास बिना ज्ञान के नहीं हो सकता है । इसी कारण इसे मनो – समाजशास्त्रीय पद्धति कहते हैं ।

( 3 ) दार्शनिक पद्धति : – डी.पी. मुकर्जी के अनुसार दार्शनिक प्रवृत्ति का मूल आधार तर्क और विवेक है । दार्शनिक पद्धति का मूल बिन्दु बुद्धिवाद और व्यावहारिक तर्क है । इनके अनुसार घटनाओं का अध्ययन तर्क एवं विवेक द्वारा करना चाहिए । यही तर्क एवं विवेक व्यक्तित्व के विकास का साधन भी हैं । इस प्रकार डी.पी. मुकर्जी सम्पूर्णतावादी दृष्टिकोण के समर्थक थे । वे अर्थशास्त्र , समाजशास्त्र व इतिहास के पारस्परिक संबंधों व ज्ञान के आदान – प्रदान को आवश्यक मानते हैं । अत : डी.पी. मुकर्जी ने द्वन्द्वात्मक पद्धति , मनोसमाजशास्त्रीय एवं दार्शनिक पद्धति के आधार पर समाज को समझने पर जोर दिया है ।

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परम्परा एवं परिवर्तन पर डी ० पी ० मुकर्जी के विचार

( Views of D.P.Mukerji on Tradition and Change )

डी . पी . मुकर्जी सामाजिकता के संदर्भ में परम्परा की व्याख्या दी । उनका मानना था कि भारतीय संदर्भ में निर्णायक पक्ष उसका सामाजिक पक्ष है । उन्हीं के शब्दों में ” मेरा यह कहना है कि भारत में सामाजिकता का बाहुल्य है , इसके अलावा और सब कुछ बहुत कम है । वास्तव में सामाजिकता की अधिकता भारत की विशेषता ही है । भारत का इतिहास , इसका अर्थशास्त्र , यहाँ तक कि इसका दर्शन सामाजिक समूहों के इर्द – गिर्द घूमता है , ज्यादा – से – ज्यादा यह भी कर सकते है कि यह समाजीकृत व्यक्तियों के इर्द – गिर्द है , ऐसा में महसूस करता हूँ । “

भारत में अनेक परम्पराओं का विकास स्मृतियों के आधार पर हुआ । श्रुति और स्मृति के आधार पर जिन परम्पराओं का निर्माण होता है , उनमें तर्क का स्थान महत्त्वपूर्ण नहीं होता । इसी कारण ऐसी परम्पराओं में होनेवाला परिवर्तन बहुत धीमी गति से होता है । डी . पी- मुकर्जी का कहना है कि इन तीनों में आखिरी अनुभव क्रान्तिकारी सिद्धांत है । यदि हम प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के सांस्कृतिक इतिहास को देखें तो स्पष्ट होता है कि बुद्ध , महावीर व अन्यो के वैयक्तिक अनुभवों के कारण ही यहाँ नई परम्परा का प्रादुर्भाव हुआ । इस प्रकार परम्पराओं के माध्यम से समाज मे होनेवाले परिवर्तनों का समुचित विश्लेषण कर सकते है । अतः डी . पी . मुकर्जी के लिए भारतीय संदर्भ में बुद्धि व विचार , परिवर्तन के लिये प्रभावशाली शक्ति नहीं है , बल्कि ऐतिहासिक रूप से अनुभव परिवर्तन के उत्कृष्ट कारक है । डी . पी . मुकर्जी का कहना है कि भारतीय संदर्भ में संघर्ष तथा विद्रोह सामूहिक अनुभवों के आधार पर कार्य करते है । परन्तु परम्परा का लचीलापन इसका ध्यान रखता है कि संघर्ष का दबाव परम्पाओं को बिना तोड़े उनमें परिवर्तन लाये । किस प्रकार प्रभावी रूढ़िवाद को लोकप्रिय विद्राहों द्वारा चुनौती दी जाती है जो आगे चलकर , रूढ़िवाद को परिवर्तित करने में सफल तो होती है , परन्तु यह परिवर्तन आखिरकार परम्परा में अवशोषित कर लिये जाते हैं । यह चक्र लगातार अपने आप को दोहराता रहता है ।

परम्पराओं के द्वन्द्वात्मक प्रारूप प्रो . डी.पी. मुकर्जी ने भारतीय समाजशास्त्रियों से यह आग्रह किया है कि उन्हें भारतीय समाज की परम्पराओं का अध्ययन करना चाहिए । भारतीय समाज के विभिन्न युगों में परम्पराओं के जो स्वरूप व संघर्ष हुआ है उसे समझना चाहिए । आपने भारतीय परम्पराओं के दद्वन्द्व के कुछ प्रारूपों को प्रस्तुत किया है , जिन्हें हम यहाँ प्रस्तुत करेंगे

  1. लघु एवं वृहद् परम्पराओं में द्वन्द्व
  2. पुनर्जागरण की कड़ियाँ
  3. उच्च एवं निम्न परम्पराओं में द्वन्द्व
  4. आन्तरिक एवं बाहय परम्पराओं में द्वन्द्व , और
  5. परम्परा एवं आधुनिकता में द्वन्द्व । परम्पराओं के द्वन्द्वात्मक प्रारूपों को अध्ययन की दशष्टि से प्रो . मुकर्जी ने प्रस्तुत किया है ।

लघु एवं वृहद् परम्पराओं में द्वन्द्व

प्रो . डी.पी. मुकर्जी ‘ ने कहा कि भारतीय समाज के आन्तरिक दबाओं के कारण लघु एवं वृहद् परम्पराओं के बीच द्वन्द्व होता है । लघु परम्पराएँ वे होती है जो अलिखित होती है , जिनकी उत्पत्ति स्थानीय स्त्रोतों में विद्यमान है , वे परिष्कृत नहीं होती तथा इनके फैलाव का क्षेत्र काफी सीमित होता है । दूसरे शब्दों में , हम कह सकते हैं कि लघु परम्पराओं का उद्गम गाँवों से होता है , इसका विकास ग्रामीण समुदायों में रहने वाले सामान्य व्यक्तियों के बीच स्वत : होता है । दूसरी ओर ऐसी परम्पराएँ जो वृहद् होती है , इनका स्वरूप लिखित होता है , जिनका उल्लेख हमें प्राचीन साहित्य और ग्रन्थों में मिलता है । इनका उद्गम रामायण , महाभारत , वेद व उपनिषद से होता है । ये परिष्कृत होती है जिनका फैलाव सम्पूर्ण भारत में होता है । प्रो . मुकर्जी कहते हैं कि इन दोनों परम्पराओं में आपस में द्वन्द्व पाया जाता है ।

उदाहरण के लिए ब्राहमण परम्पराओं का विरोध बहुत से संतों ने किया जैसे नानक , नामदेव , तुकाराम , कबीर , चैतन्य एवं दादू दयाल , इत्यादि । इन्होंने सुधारात्मक सम्प्रदायों को चलाया , और सुधारवादी आन्दोलन चलाया तथा वश्हद् परम्पराओं का पुरजोर विरोध किया । भारत में 19 वीं शताब्दी में धर्म सुधार आन्दोलन को देख सकते हैं जो स्थापित वृहद् परम्पराओं के विरोध में थे जैसे आर्य समाज , ब्रह्म समाज , प्रार्थना समाज , रामकृष्ण मिशन , थियोसोफिकल सोसायटी इत्यादि ।

इस प्रकार भारत में लगातार लघु एवं वृहद परम्पराओं के बीच द्वन्द्व रहा हैं । हमें इनका अध्ययन अवस्थित रूप से करना चाहिए ।

 उच्च व नवीन परम्पराओं में द्धन्द्र

टर्नर ने परम्पराओं को दो भागों में विभाजित किया है वे हैं

( 1 ) उच्च परम्पराएँ , और

( 2 ) निम्न परम्पराएँ ।

इन्हीं परम्पराओं का अनुकरण प्रो . डी.पी. मुकर्जी ने किया है । आपने कहा कि उच्च व निम्न परम्पराओं में भी निरन्तर द्वन्द्व की स्थिति विद्यमान होती है । इन दोनों परम्पराओं को भी भारतीय समाजशास्त्रियों को अध्ययन में सम्मिलित करना चाहिए । मुख्य रूप से वे इस बात पर जोर देते हैं कि समाजशास्त्रियों को सामाजिक व्यवस्था में हो रहे परिवर्तनों का अनिवार्यत : विश्लेषण करना चाहिए , इसके अन्तर्गत संबंधित क्रियाएँ ऊपर की ओर जाती है और कुछ क्रियाएँ नीचे से यानी धरातल से ऊपर की ओर जाती है । परम्पराओं में होने वाली इस क्रिया को नीचे गहराई में जाना और ऊपर की ओर जाना , माना जा सकता है । इन परम्पराओं में आरोही एवं अवरोही प्रक्रियाएँ चलती रहती है , यही कारण है कि इनमें परस्पर संघर्ष , अनुकूलन , सामंजस्य एवं समन्वय होता है । अत : इन समस्त परम्पराओं का अध्ययन भारतीय समाजशास्त्रियों को करना चाहिए तभी हम भारतीय समाज को समझ पाएंगे ।

बाहा व आन्तरिक परम्पराओं में संघर्ष

भारत पर प्राचीन काल से ही अनेक भाक्रमण हुए अनेक प्रजातियों के लोग यहाँ पर आक्रमणकारी के रूप में आये और यहाँ बस गये , जैसे शक , हूण कुषाण , मंगोल , मुसलमान और अंग्रेज . आते रहे , इन सभी की परम्पराएँ भारतीय परम्पराओं से भिन्न थी । इस कारण इन भारतीय परम्पराओं का संघर्ष भारतीय परम्पराओं से हुआ । इसी कारण भारतीय समाज में परिवर्तन दिखायी देता है , परम्पराओं में बदलाव हुआ और कुछ बाहय परम्पराओं के साथ अनुकूलन व सामंजस्य भी स्थापित करना पड़ा । अगर हम भारतीय परम्पराओं पर पड़ने वाले प्रभावों को देखें तो कह सकते है कि इस्लाम व पाश्चात्य संस्कृति व परम्पराओं का प्रभाव भारतीय समाज पर पड़ा ।

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