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जोशीमठ का दोहराव? बागेश्वर की खदानों पर संकट, भूस्खलन का बड़ा खतरा!

जोशीमठ का दोहराव? बागेश्वर की खदानों पर संकट, भूस्खलन का बड़ा खतरा!

चर्चा में क्यों? (Why in News?):** हाल ही में एक चौंकाने वाली सरकारी रिपोर्ट ने उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में खनन गतिविधियों से जुड़े गंभीर खतरों की ओर इशारा किया है। रिपोर्ट के अनुसार, क्षेत्र की खदानें ढहने (collapse) के कगार पर हैं और भूस्खलन (sinking) का जोखिम जोशीमठ जैसी आपदाओं से मिलता-जुलता है। यह चेतावनी भू-वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों और नीति निर्माताओं के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बन गई है, जो पहाड़ी क्षेत्रों में अनियंत्रित विकास और खनन के टिकाऊपन पर सवाल उठा रही है।

यह मामला केवल बागेश्वर तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हिमालयी क्षेत्र में पहले से ही नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र पर मानवीय हस्तक्षेप के व्यापक प्रभाव को रेखांकित करता है। जोशीमठ की दुखद घटना अभी भी लोगों की स्मृतियों में ताज़ा है, जहाँ घरों में दरारें पड़ गईं और सैकड़ों लोगों को विस्थापित होना पड़ा। ऐसे में, बागेश्वर की खदानों पर मंडरा रहा यह संकट हमें भविष्य की तबाही को रोकने के लिए तत्काल कार्रवाई करने की आवश्यकता की याद दिलाता है।

पृष्ठभूमि: हिमालय का नाजुक संतुलन और खनन का बढ़ता दबाव

हिमालय, अपनी युवावस्था और भू-वैज्ञानिक अस्थिरता के लिए जाना जाता है, एक ऐसा क्षेत्र है जो मानवीय गतिविधियों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील है। टेक्टोनिक प्लेटों की निरंतर गति, तीव्र वर्षा, और खड़ी ढलानें इसे भूस्खलन, भूकंप और अन्य भू-आपादाओं के लिए अतिसंवेदनशील बनाती हैं। ऐसे नाजुक वातावरण में, गहन खनन गतिविधियाँ, विशेष रूप से अनियोजित और अनियमित तरीके से की गई, इस संतुलन को बिगाड़ सकती हैं, जिसके विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं।

बागेश्वर जिले में, कई क्षेत्रों में लंबे समय से खनन गतिविधियाँ चल रही हैं, जो संभवतः क्षेत्र की भू-संरचना पर महत्वपूर्ण दबाव डाल रही हैं। सरकारी रिपोर्ट का संकेत है कि इन गतिविधियों ने खदानों के आसपास की मिट्टी और चट्टानों को अस्थिर कर दिया है, जिससे भूस्खलन और संरचनात्मक ढहने का खतरा बढ़ गया है। यह स्थिति जोशीमठ की समस्या से काफी मिलती-जुलती है, जहाँ अनियंत्रित निर्माण और ढलानों पर भारी भार डालने के कारण जमीन धंसने लगी थी।

सरकारी रिपोर्ट का खुलासा: क्या हैं मुख्य चिंताएं?

हालिया सरकारी रिपोर्ट, जो भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षणों और स्थानीय निरीक्षणों पर आधारित है, कई गंभीर चिंताओं को उजागर करती है:

  • अस्थिर भू-संरचना: रिपोर्ट में कहा गया है कि खनन के कारण खदानों के आसपास की चट्टानें और मिट्टी अपनी संरचनात्मक अखंडता खो चुकी हैं। अत्यधिक खुदाई ने प्राकृतिक ढलानों को कमजोर कर दिया है, जिससे वे ढहने या खिसकने की स्थिति में आ गई हैं।
  • जल रिसाव और क्षरण: खनन कार्य अक्सर जलभृतों (aquifers) को बाधित करते हैं और मिट्टी के कटाव (erosion) को बढ़ाते हैं। रिपोर्ट में क्षेत्र में असामान्य जल रिसाव और बढ़ी हुई मिट्टी के कटाव के पैटर्न का उल्लेख किया गया है, जो भूस्खलन के अग्रदूत (precursors) हो सकते हैं।
  • तकनीकी मानदंडों का उल्लंघन: आशंका है कि कुछ खनन कार्यों में सुरक्षा और पर्यावरण संबंधी निर्धारित तकनीकी और नियामक मानदंडों का पालन नहीं किया गया है, जिससे जोखिम और बढ़ गया है।
  • भविष्यवाणी मॉडल: रिपोर्ट में भविष्य कहनेवाला मॉडल (predictive models) का उपयोग करके संभावना जताई गई है कि यदि वर्तमान दर से खनन जारी रहा या नियंत्रण उपायों में ढिलाई बरती गई, तो निकट भविष्य में बड़े पैमाने पर भूस्खलन या खदानों का ढहना संभव है।
  • जोशीमठ से समानता: रिपोर्ट ने विशेष रूप से जोशीमठ में देखी गई भू-धंसाव की घटनाओं से बागेश्वर की स्थिति की तुलना की है, यह बताते हुए कि अंतर्निहित भू-वैज्ञानिक और मानवजनित कारण समान हो सकते हैं।

“पहाड़ी क्षेत्रों में खनन, विशेष रूप से संवेदनशील पारिस्थितिक तंत्र में, अत्यधिक सावधानी और कड़े वैज्ञानिक पर्यवेक्षण की मांग करता है। हम जोशीमठ से सीख चुके हैं, और अब बागेश्वर जैसी संभावित आपदाओं को रोकने के लिए हमें निर्णायक कदम उठाने होंगे।” – (एक भू-वैज्ञानिक के हवाले से)

जोशीमठ संकट: एक चेतावनी जिसने हमें सबक सिखाया

जनवरी 2023 में, उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित जोशीमठ शहर, जो एक महत्वपूर्ण तीर्थ और पर्यटन केंद्र है, बड़े पैमाने पर भू-धंसाव की घटनाओं से प्रभावित हुआ। घरों, सड़कों और इमारतों में गहरी दरारें आ गईं, जिससे स्थानीय लोगों में दहशत फैल गई। इस घटना के पीछे कई कारण बताए गए, जिनमें शामिल हैं:

  • अनियंत्रित निर्माण: शहर में बढ़ती आबादी और पर्यटन के दबाव के कारण अनियोजित और बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य किए गए, जिससे ढलानों पर अतिरिक्त भार पड़ा।
  • जल निकासी की समस्या: शहर की खराब जल निकासी व्यवस्था और सड़कों पर पानी का जमाव, मिट्टी को कमजोर करने का कारण बना।
  • हाइड्रोपावर परियोजनाएं: क्षेत्र में चल रही सुरंग निर्माण और अन्य विकास परियोजनाओं ने भी भू-स्थिरता को प्रभावित किया हो सकता है।
  • जलवायु परिवर्तन: चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि ने भी अप्रत्यक्ष रूप से इन भू-भू-वैज्ञानिक समस्याओं को बढ़ाया है।

जोशीमठ की घटना ने पहाड़ी क्षेत्रों में विकास की गति और उसके पर्यावरणीय तथा सामाजिक-आर्थिक प्रभावों के बीच नाजुक संतुलन पर गंभीर सवाल उठाए। इसने यह भी उजागर किया कि किस प्रकार स्थानीय समुदायों की आजीविका और सुरक्षा अनियंत्रित विकास से सीधे तौर पर प्रभावित हो सकती है। बागेश्वर की रिपोर्ट इस “जोशीमठ मॉडल” के दोहराए जाने की आशंका जता रही है, जो बेहद चिंताजनक है।

बागेश्वर के खनन क्षेत्र: भू-वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य

बागेश्वर, उत्तराखंड का एक पहाड़ी जिला, अपनी प्राकृतिक सुंदरता और खनिज संसाधनों के लिए जाना जाता है। हालाँकि, इन संसाधनों का दोहन, विशेष रूप से यदि वैज्ञानिक सिद्धांतों और पर्यावरणीय नियमों का पालन किए बिना किया जाए, तो यह उस नाजुक भू-वैज्ञानिक संरचना को खतरे में डाल सकता है जिस पर यह क्षेत्र टिका है।

पहाड़ी ढलानों पर खनन, चाहे वह चूना पत्थर, डोलोमाइट या अन्य खनिजों के लिए हो, निम्नलिखित भू-वैज्ञानिक प्रक्रियाओं को ट्रिगर कर सकता है:

  • ढलान का अस्थिर होना (Slope Instability): खदानों में बड़ी मात्रा में सामग्री निकालने से ढलान के प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ दिया जाता है। इससे ढलान के नीचे की ओर खिसकने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है।
  • भूपृष्ठीय जल का प्रवाह बदलना: खनन गतिविधियों से भूमिगत जल के प्रवाह की दिशा और गति बदल सकती है। यह बदलाव उन परतों को संतृप्त कर सकता है जो पहले सूखी थीं, जिससे उनकी स्थिरता कम हो जाती है।
  • चट्टानों में दरारें पड़ना: विस्फोटों या भारी मशीनरी के उपयोग से चट्टानों में सूक्ष्म दरारें पड़ सकती हैं, जो बाद में पानी के प्रवेश और क्षरण के कारण बड़ी हो सकती हैं।
  • भूस्खलन के प्रकार: बागेश्वर जैसे क्षेत्रों में, भूस्खलन कई प्रकार के हो सकते हैं, जिनमें रॉकफॉल (चट्टानों का गिरना), डीब्रिस फ्लो (मलबा प्रवाह), और स्लोप फेलियर (ढलान का पूरी तरह से गिर जाना) शामिल हैं।

केस स्टडी: भारत में अन्य खनन-संबंधित भू-आपादाएं

भारत में, विशेष रूप से हिमालयी और पूर्वोत्तर क्षेत्रों में, खनन से जुड़ी भू-आपादाओं के कई उदाहरण हैं। मेघालय में कोयला खदानों में फँसे श्रमिकों की घटनाएँ, या हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में सड़कों के किनारे अवैध खनन के कारण भूस्खलन, इस बात के प्रमाण हैं कि यदि खनिजों का अंधाधुंध दोहन किया जाए तो क्या हो सकता है। इन घटनाओं से सबक लेते हुए, बागेश्वर के मामले में अधिक सतर्क दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।

सरकार और नियामक ढांचे की भूमिका

इस तरह की चिंताओं के प्रकाश में, सरकार और नियामक निकायों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। यह सुनिश्चित करना उनकी जिम्मेदारी है कि:

  • कड़े पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA): किसी भी खनन परियोजना को शुरू करने से पहले उसका गहन और निष्पक्ष पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) किया जाए।
  • सतत निगरानी: खनन क्षेत्रों की नियमित और सख्त निगरानी की जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि सुरक्षा और पर्यावरणीय मानदंडों का पालन किया जा रहा है।
  • तकनीकी विशेषज्ञता: भू-वैज्ञानिकों और पर्यावरण विशेषज्ञों की सलाह को गंभीरता से लिया जाए और खनन योजनाओं में इसे शामिल किया जाए।
  • खनन क्षेत्रों का पुनरुद्धार: खदानें बंद होने के बाद, उन क्षेत्रों के पारिस्थितिक पुनरुद्धार (ecological restoration) के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएं।
  • जन जागरूकता: स्थानीय समुदायों को खनन के खतरों और सुरक्षित प्रथाओं के बारे में जागरूक किया जाए।

सरकारी रिपोर्ट का अस्तित्व यह दर्शाता है कि संभावित जोखिमों को पहचाना गया है। अब, इन चेतावनियों को कार्रवाई में बदलना आवश्यक है। इसमें खनन लाइसेंस की समीक्षा, सुरक्षा उपायों को मजबूत करना और यदि आवश्यक हो, तो उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में खनन गतिविधियों को प्रतिबंधित करना शामिल हो सकता है।

चुनौतियाँ और आगे की राह

बागेश्वर की खदानों पर मंडरा रहे इस खतरे से निपटना कई चुनौतियों से भरा है:

  • आर्थिक दबाव: खनन क्षेत्र अक्सर स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं के लिए महत्वपूर्ण आय का स्रोत होते हैं। खनन को प्रतिबंधित करने से आर्थिक व्यवधान आ सकता है, जिसका स्थानीय समुदायों पर सीधा प्रभाव पड़ेगा।
  • पर्यावरण बनाम विकास का द्वंद्व: विकास की आवश्यकता और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाना हमेशा एक कठिन कार्य रहा है।
  • अनियमित और अवैध खनन: कई क्षेत्रों में, अनधिकृत और अवैध खनन गतिविधियाँ एक बड़ी चुनौती पेश करती हैं, जिन पर नियंत्रण करना मुश्किल होता है।
  • संसाधनों की कमी: भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण, निगरानी और प्रवर्तन के लिए पर्याप्त तकनीकी और वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता होती है, जिनकी अक्सर कमी महसूस की जाती है।
  • नीति कार्यान्वयन में अंतराल: भले ही अच्छे नियम और कानून मौजूद हों, उनके प्रभावी कार्यान्वयन में अक्सर बाधाएँ आती हैं।

आगे की राह (Way Forward):

  1. वैज्ञानिक और भू-वैज्ञानिक अध्ययन: बागेश्वर और अन्य संभावित संवेदनशील क्षेत्रों में गहन भू-वैज्ञानिक अध्ययन किए जाने चाहिए ताकि जोखिमों का सटीक आकलन किया जा सके।
  2. वैकल्पिक आजीविका: स्थानीय समुदायों के लिए खनन पर निर्भरता कम करने हेतु वैकल्पिक आजीविका के अवसर पैदा किए जाने चाहिए, जैसे टिकाऊ पर्यटन, हस्तशिल्प या कृषि-आधारित उद्योग।
  3. प्रौद्योगिकी का उपयोग: भू-धंसाव और भूस्खलन की निगरानी के लिए रिमोट सेंसिंग, जीपीएस और ड्रोन जैसी आधुनिक तकनीकों का उपयोग किया जाना चाहिए।
  4. कड़े कानूनी और नियामक ढांचे: खनन नियमों को और मजबूत किया जाना चाहिए और उनका कड़ाई से प्रवर्तन सुनिश्चित किया जाना चाहिए। दोषी पाए जाने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए।
  5. अंतर-विभागीय समन्वय: खनन, पर्यावरण, भूविज्ञान और आपदा प्रबंधन जैसे विभिन्न सरकारी विभागों के बीच प्रभावी समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए।
  6. स्थानीय समुदायों की भागीदारी: निर्णय लेने की प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों को शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि वे क्षेत्र की संवेदनशीलता से सबसे अधिक अवगत होते हैं।

निष्कर्ष

बागेश्वर की खदानों पर मंडरा रहा यह संकट एक गंभीर चेतावनी है। जोशीमठ की त्रासदी से मिले सबक को भुलाया नहीं जा सकता। हिमालयी क्षेत्र, अपनी प्राकृतिक सुंदरता और महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र के साथ, अत्यंत सावधानी और सम्मान की मांग करता है। यदि हम विकास की दौड़ में अपनी धरती की नाजुकता को नजरअंदाज करते हैं, तो परिणाम विनाशकारी हो सकते हैं। सरकारी रिपोर्ट एक संकेत है कि हमें अब और इंतजार नहीं करना चाहिए। प्राथमिकता सुरक्षा, स्थिरता और भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक सुरक्षित वातावरण सुनिश्चित करना होनी चाहिए, न कि केवल अल्पकालिक आर्थिक लाभ।

UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)

प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs

1. प्रश्न: हालिया सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड के किस जिले में खदानों के ढहने और भूस्खलन का खतरा ‘जोशीमठ जैसी’ स्थिति से मिलता-जुलता बताया गया है?
(a) चमोली
(b) उत्तरकाशी
(c) बागेश्वर
(d) पिथौरागढ़
उत्तर: (c) बागेश्वर
व्याख्या: सरकारी रिपोर्ट ने उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में खनन गतिविधियों से जुड़े गंभीर खतरों की ओर इशारा किया है, जिसमें खदानों के ढहने और भूस्खलन का जोखिम जोशीमठ जैसी घटनाओं से मिलता-जुलता बताया गया है।

2. प्रश्न: हिमालयी क्षेत्र भू-वैज्ञानिक रूप से किस कारण अस्थिर माना जाता है?
(a) टेक्टोनिक प्लेटों की गति, तीव्र वर्षा और खड़ी ढलानें
(b) युवा आयु और अपरदन की कम दर
(c) स्थिर भू-वैज्ञानिक संरचना और कम भूकंपीय गतिविधि
(d) अत्यधिक वनस्पति आवरण जो भू-स्खलन को रोकता है
उत्तर: (a) टेक्टोनिक प्लेटों की गति, तीव्र वर्षा और खड़ी ढलानें
व्याख्या: हिमालयी क्षेत्र टेक्टोनिक प्लेटों की निरंतर गति, तीव्र वर्षा और खड़ी ढलानों के कारण भू-वैज्ञानिक रूप से अस्थिर है, जो इसे भूस्खलन और भूकंपों के प्रति संवेदनशील बनाता है।

3. प्रश्न: जोशीमठ भू-धंसाव संकट के संभावित कारणों में निम्नलिखित में से कौन शामिल था?
1. अनियंत्रित निर्माण
2. खराब जल निकासी व्यवस्था
3. बड़े पैमाने पर खनन
4. सुरंग निर्माण वाली हाइड्रोपावर परियोजनाएं
नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए:
(a) केवल 1, 2 और 4
(b) केवल 1, 3 और 4
(c) केवल 2, 3 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4
उत्तर: (a) केवल 1, 2 और 4
व्याख्या: जोशीमठ संकट के कारणों में अनियंत्रित निर्माण, खराब जल निकासी, सुरंग निर्माण वाली हाइड्रोपावर परियोजनाएं शामिल थीं। बड़े पैमाने पर खनन को प्रत्यक्ष कारण के रूप में प्राथमिक रूप से नहीं जोड़ा गया है, हालांकि भू-वैज्ञानिकों ने इसके संभावित प्रभाव का संकेत दिया है।

4. प्रश्न: खनन गतिविधियों से संबंधित निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
1. यह ढलान की स्थिरता को बढ़ा सकता है।
2. यह भूमिगत जल प्रवाह को बदल सकता है।
3. यह चट्टानों में दरारें पैदा कर सकता है।
उपरोक्त कथनों में से कौन से कथन सत्य हैं?
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (b) केवल 2 और 3
व्याख्या: खनन गतिविधियों से ढलान की स्थिरता कम होती है (1 गलत), भूमिगत जल प्रवाह बदल सकता है (2 सही), और चट्टानों में दरारें पड़ सकती हैं (3 सही)।

5. प्रश्न: ‘पर्यावरण प्रभाव आकलन’ (Environmental Impact Assessment – EIA) का उद्देश्य क्या है?
(a) किसी विकास परियोजना के वित्तीय लाभ का मूल्यांकन करना।
(b) किसी विकास परियोजना के पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों का अनुमान लगाना।
(c) केवल परियोजना के तकनीकी व्यवहार्यता का आकलन करना।
(d) नियामक अनुमोदन प्राप्त करने के लिए औपचारिक प्रक्रिया पूरी करना।
उत्तर: (b) किसी विकास परियोजना के पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों का अनुमान लगाना।
व्याख्या: EIA का मुख्य उद्देश्य किसी भी प्रस्तावित परियोजना के संभावित नकारात्मक पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों का पहले से आकलन करना और उन्हें कम करने के उपाय सुझाना है।

6. प्रश्न: भूस्खलन के लिए अग्रदूत (precursors) के रूप में निम्नलिखित में से किसे देखा जा सकता है?
1. असामान्य जल रिसाव
2. मिट्टी के कटाव में वृद्धि
3. ढलान पर दरारों का दिखना
4. अचानक भूकंपीय गतिविधि
नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए:
(a) केवल 1, 2 और 3
(b) केवल 2, 3 और 4
(c) केवल 1, 3 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4
उत्तर: (a) केवल 1, 2 और 3
व्याख्या: असामान्य जल रिसाव, मिट्टी के कटाव में वृद्धि, और ढलान पर दरारों का दिखना भूस्खलन के सामान्य अग्रदूत हैं। अचानक भूकंपीय गतिविधि भूस्खलन का कारण बन सकती है, लेकिन अग्रदूत के रूप में इसका उल्लेख कम होता है।

7. प्रश्न: राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) के अनुसार, भारत में सबसे अधिक भू-स्खलन प्रवण क्षेत्र कौन सा है?
(a) पश्चिमी घाट
(b) पूर्वी घाट
(c) हिमालयी क्षेत्र
(d) दक्कन का पठार
उत्तर: (c) हिमालयी क्षेत्र
व्याख्या: NDMA के अनुसार, हिमालयी क्षेत्र अपनी भू-वैज्ञानिक अस्थिरता और उच्च वर्षा के कारण भारत में सबसे अधिक भू-स्खलन प्रवण क्षेत्र है।

8. प्रश्न: बागेश्वर जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में खनन के कारण ‘ढलान का अस्थिर होना’ (Slope Instability) क्यों होता है?
(a) खनन से ढलान का भार बढ़ता है।
(b) खनन सामग्री निकालने से ढलान के प्राकृतिक संतुलन में बदलाव आता है।
(c) खनन से ढलान पर वनस्पति बढ़ती है।
(d) खनन भूमिगत जल को बढ़ाता है।
उत्तर: (b) खनन सामग्री निकालने से ढलान के प्राकृतिक संतुलन में बदलाव आता है।
व्याख्या: खदानों से सामग्री निकालने से ढलान का मूल आधार कमजोर हो जाता है और उसका प्राकृतिक संतुलन बिगड़ जाता है, जिससे अस्थिरता आती है।

9. प्रश्न: सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, बागेश्वर की खदानों पर मंडरा रहा खतरा किन मानवीय गतिविधियों से जुड़ा है?
(a) अनियोजित पर्यटन विकास
(b) वृक्षारोपण अभियान
(c) गहन खनन गतिविधियाँ
(d) जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण
उत्तर: (c) गहन खनन गतिविधियाँ
व्याख्या: रिपोर्ट स्पष्ट रूप से खनन गतिविधियों को खदानों के ढहने और भूस्खलन के जोखिम से जोड़ती है।

10. प्रश्न: हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा के लिए निम्नलिखित में से कौन सी विधि सबसे प्रभावी होगी?
(a) सभी प्रकार के खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना।
(b) वैज्ञानिक पर्यवेक्षण और कठोर पर्यावरणीय नियमों के साथ टिकाऊ खनन प्रथाओं को अपनाना।
(c) पर्वतीय क्षेत्रों में अनियंत्रित निर्माण को बढ़ावा देना।
(d) केवल बाहरी विशेषज्ञों पर निर्भर रहना।
उत्तर: (b) वैज्ञानिक पर्यवेक्षण और कठोर पर्यावरणीय नियमों के साथ टिकाऊ खनन प्रथाओं को अपनाना।
व्याख्या: पूर्ण प्रतिबंध अव्यावहारिक हो सकता है, और अनियंत्रित निर्माण तथा विशेषज्ञों पर अत्यधिक निर्भरता समस्याओं को बढ़ा सकती है। टिकाऊ और विनियमित प्रथाएं संतुलन बनाने का सबसे अच्छा तरीका हैं।

मुख्य परीक्षा (Mains)

1. प्रश्न: बागेश्वर की खदानों पर मंडरा रहे ‘जोशीमठ जैसी’ भू-धंसाव के खतरे का विश्लेषण करें। सरकारी रिपोर्ट के निष्कर्षों, भू-वैज्ञानिक कारणों और विकास की आवश्यकता तथा पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाने की चुनौतियों पर प्रकाश डालिए। (250 शब्द)
2. प्रश्न: हिमालयी क्षेत्र में खनन गतिविधियों के कारण उत्पन्न होने वाले भू-वैज्ञानिक जोखिमों की चर्चा करें। जोशीमठ और बागेश्वर जैसे मामलों के आलोक में, पहाड़ी क्षेत्रों में टिकाऊ विकास सुनिश्चित करने के लिए क्या नियामक और प्रवर्तन उपाय किए जाने चाहिए? (250 शब्द)
3. प्रश्न: “किसी भी विकास परियोजना का लाभ उसके पर्यावरणीय और सामाजिक लागतों से अधिक नहीं होना चाहिए।” इस कथन के परिप्रेक्ष्य में, उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में खनन परियोजनाओं के संबंध में पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) की भूमिका और उसके प्रभावी कार्यान्वयन में आने वाली बाधाओं का विश्लेषण कीजिए। (150 शब्द)
4. प्रश्न: राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) के दृष्टिकोण से, भारत में भू-स्खलन को एक गंभीर प्राकृतिक खतरा माना जाता है। हिमालयी क्षेत्र में भू-स्खलन के कारणों, इसके प्रभावों और जोखिम को कम करने के लिए भारत सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदमों की विवेचना कीजिए। (250 शब्द)

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