जी . एस . घूर्ये
स्वतन्त्र भारत में समाजशास्त्रियों की प्रथम पंक्ति को विकसित ( खड़े ) करने का श्रेय घुरिये को ही दिया जाता है । एम ० एन ० श्रीनिवास ने उनको भीमकाय व्यक्ति ( Giant ) कहा है ।घुर्ये का समाजशास्त्र गोविन्द सदाशिव घुर्ये भारतीय समाजशास्त्र के पुरोधा थे । कुछ विचारको का मत है कि वे इस देश में समाजशास्त्र के जनक थे । पेट्रिक गैइस बम्बई विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के पहले अध्यापक थे उनके बाद घुर्ये ने समाजशास्त्र के अध्यापन की बागडोर को सँभाला । इस विधा में उन्होंने बहुत लिखा है । उनकी लिखावट कई पृष्ठों में भरी पड़ी है । भारतीय समाजशास्त्रीय चिंतकों में गोविंद सदाशिव घूर्ये ( जी . एस . धूर्ये : G.S.Ghurye ) का नाम प्रथम स्तर पर है । इन्हें भारत में समाजशास्त्र को एक संस्थागत रूप में स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है । इन्होंने बम्बई विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम स्नातकोत्तर स्तर पर समाजशास्त्र विभाग की अध्यक्षता की तथा 35 वर्षों तक इस विभाग में कार्य किये।
इतना होते हुए भी घुर्ये कोई निर्विवाद समाजशास्त्रीय विचारक हों , ऐसा नहीं है । उनके बारे में जो कुछ लिखा गया है , वह एकदम साफ – सुथरा नहीं है । कई जगह उनकी बहुत प्रशंसा हुई है वही उन्हें सनकी भी कहा गया है । समाजशास्त्र को एक वैज्ञानिक ज्ञान शास्त्र स्थापित करने की अपेक्षा उसे हिन्दू समाजशास्त्र बनाने का उनका प्रयास रहा है । वे ‘ भारत विद्या के प्रणेता थे
जी . एस- घूर्ये का जन्म 12 दिसम्बर , 1893 में भारत के पश्चिमी कोकण तटीय प्रदेश के छोटे से कस्बे ‘ मालवान ‘ में हुआ था । उनका परिवार प्रारंभ में एक सम्पन्न व्यापारी था , लेकिन बाद में उसका पतन हो गया । अपने पारिवारिक परम्परा के अनुसार प्रारंभिक शिक्षा के साथ उन्होंने संस्कृत का ज्ञान प्राप्त करना प्रारंभ कर दिया । दसवीं कक्षा की पढ़ाई के के लिये गुजरात जूनागढ़ गये । 1913 में मुम्बई के एलफिस्टन कॉलेज में प्रवेश लिया । संस्कृत ऑनर्स में स्नातक की उपाधि प्राप्त की । इसी कॉलेज से 1918 में संस्कृत तथा अगेजी में स्नातकोत्तर की उपाधि ली । 1919 में समाजशास्त्र विषय में विदेश में प्रशिक्षण हेतु छात्रवृत्ति के लिये चयनित हुए । प्रारंभ में अपने समय के प्रमुख समाजशास्त्री एल . टी- हॉबहाऊस के द्वारा लंदन स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स में पढ़ाए गए । बाद में डब्ल्यू एवं रिवर्स खिरी द्वारा कैम्ब्रिज में पढ़ाए गये । रिवर्स के प्रसारवादी दृष्टिकोण से प्रभावित हुए । 1923 में एस- सी- हैडन के निर्देशन में पी – एच . डी . की उपाधि प्राप्त की । मई , 1923 में मुंबई वापस जाये । ‘ कास्ट एण्ड रेस इन इंडिया ‘ ( Caste and Race in India ) पी – एच . डी . पर आधारित पांडुलिपि पर कैम्ब्रिज में पुस्तकों की एक श्रृंखला प्रकाशित करने क लिये स्वीकृत हुई । 1924 में थोडे समय तक कलकत्ता में काम करने के बाद बम्बई विश्वविद्यालय में रीडर तथा विभागाध्यक्ष के रूप में नियुक्त हुए । वहाँ 35 वर्षों तक शिक्षण व शोध कार्यों से जुड़े रहे । 1934 में वे समाजशास्त्र के प्रोफेसर बनाये गये । 1936 में उनकी अध्यक्षता में बम्बई विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग में पी- एच . डी . की उपाधि प्रारंभ की गई । भारतीय विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र में घूर्य के निर्देशन में प्रथम पी – एच . डी . उपाधि जी . आर . प्रधान को प्रदान की गई । 1945 में पूर्णकालीन कोर्स में समजाशास्त्र का पाठ्यक्रम प्रारंभ उनके निर्देशन में प्रारंभ किया गया ।
1951 में धूर्य द्वारा ‘ इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसाइटी की स्थापना की गई । वे इसके संस्थापक अध्यक्ष बने । इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसाइटी ‘ ने 1952 में अपने जर्नन ‘ सोशियोलॉजिकल बुलेटिन ‘ का प्रारंभ किया , जो अबतक 1959 में घूर्ये विश्वविद्यालय सेवा से निवृत्त हुए . लेकिन शैक्षणिक जीवन में क्रियाशील रहे । मुख्य रूप से 30 पुस्तकों के प्रकाशन में 17 पुस्तके उन्होंने सेवानिवृत्त होने के बाद लिखी 1983 में 90 वर्ष की आयु में घूर्य की मत्यु हो गई । घुर्ये बहुआयामी प्रतिभा के स्वामी रहे । उनके निर्देशन में अनेक एम . एन- श्रीनिवास , आई . पी . देसाई , के एम- कपाडिया , ए . आर . देसाई व बाई . बी . दामने आदि – का भारत के समाजशास्त्री के रूप में पहचान बनी । Anthropological Society of Bombay के 1945-50 तक अध्यक्ष भी रहे । घुरिये ने ‘ इण्डियन सोशियोलॉजिकल सोसायटी ‘ ( Indian Sociological Society ) की स्थापना की और इसके तत्त्वावधान में 1952 ई ० में ‘ सोशियोलॉजिकल बुलेटिन ‘ नामक पत्रिका का प्रकाशन भी प्रारम्भ किया जो आज भारत में ही नहीं वरन् विश्व की प्रमुख समाजशास्त्रीय पत्रिकाओं में से एक है । वे 1966 ई ० तक इसके प्रथम अध्यक्ष के रूप में कार्य करते रहे । घुरिये की कृतियों की एक लम्बी सूची है
रचनाएँ
Caste and Race in India ( 1932 ) :
Sex Habits of Middle Class People ( 1938 ) ;
The Aborigines – ‘ So – called ‘ and Their Future ( 1943 ) ;
Culture and Society ( 1945 ) ;
After a Century and a Quarter ( 1960 ) ;
Caste , Class and Occupation ( 1961 ) ;
The Indian Sadhus ( 1964 ) ;
Social Tensions in India ( 1968 ) ;
Family and Kin in Indo – European Culture ( 1962 ) ;
Cities and Civilization ( 1962 ) ;
Anatomy of a Rururban Community ( 1963 ) ;
The Scheduled Tribes ( 1963 ) ;
The Mahadev Kolis ( 1963 ) ;
Whither India ( 1974 ) ;
India Recreates Democracy ( 1978 ) ;
Vedic India ( 1979 ) ; तथा
The Burning Caldron of the North – East ( 1980 ) ।
भारतीय सभ्यता पर 20 वीं शताब्दी में एक नई विचारधारा आई । इसमें कहा गया कि यह सभ्यता सम्पूर्ण संसार में श्रेष्ठ थी । आर्य इस सभ्यता के मूल थे | यह कहा गया कि पश्चिमी सभ्यता में जो कुछ है वह सब भारत से उधार लिया गया है । सन् 1830 के दशक में रोमिल थापर ने कहा कि वेदों को सम्पूर्ण ज्ञान का भंडार कहा जाने लगा | विख्यात समाज सुधारक जैसे कि राम मोहन राय ने अपने ग्रथों में बराबर यह कहा कि भारतीय संस्कृत ग्रंथ हमारी संस्कृति की धरोहर है । इनसे हमें बहुत कुछ सीखना है । ये ऐसे सुधारक थे जिन्होंने गीता और रामायण को लोकप्रिय बनाया । 1930 के दशक में भारत में जो विचारधारा बनी , वह सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की थी । यह राष्ट्रीयता वेदों पर आधारित थी । इस युग में कहा गया कि भारत की संस्कृति वैदिकसंस्कृति है , भारतीय दर्शन वेदान्त है , और भारतीय धर्म हिन्दू धर्म है ।
19 वीं और 20 वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक देश में निम्न विचारधारा बड़ी प्रभावोत्पादक रही
1 भारत में आर्यों के आने के बाद इतिहास ने बड़ी महत्वपूर्ण करवट ली । आर्य और दासों के बीच में संघर्ष प्रारम्भ हो गया ।
2 हिन्दू और मुसलमानों में भाषा , धर्म और प्रजाति को लेकर मतभेद उभर आए ।
3 आर्य प्रजाति और हिन्दू जाति को पर्यायवाची समझा जाने लगा । हिन्दू जातियों में ब्राहमणों और उच्च जातियों को एक ही श्रेणी में रखा जाने लगा । रुचिकर बात यह है कि घुर्य ने जो कुछ लिखा है उसका मूल आधार संस्कृत ग्रंथ रहे हैं । वे वेदों के हिमायती थे । उन्होंने जाति व्यवस्था में ब्राह्मणों को सबसे ऊंचा स्थान दिया है । यह सब लिखने के बाद उन्होंने प्रचलित इतिहास के वरण का कभी विरोध नहीं किया । वे परम्परावादी विचारक ही रहे हैं ।
घुरिये के लेखन को प्रमुख रूप से निम्नलिखित छह विस्तृत केन्द्र – बिन्दुओं पर आधारित माना जाता है
( 1 ) जाति ,
( 2 ) जनजाति ,
( 3 ) नातेदारी , परिवार एवं विवाह ,
( 4 ) संस्कृति , सभ्यता एवं नगरों की ऐतिहासिक भूमिका ,
( 5 ) धर्म तथा
( 6 ) संघर्ष एवं एकीकरण का समाजशास्त्र ।
घुरिये की यह मान्यता थी कि यद्यपि समूह समाज में एकीकृत भूमिका निभाते हैं , तथापि अनुसूचित जातियाँ , अनुसूचित जनजातियाँ , पिछड़े वर्ग , अल्पसंख्यक समूह के रूप में मुस्लिम तथा भाषायी अल्पसंख्यक अपने समूह के प्रति अत्यधिक लगाव के कारण राष्ट्रीय एकीकरण के लिए खतरा भी पैदा कर देते हैं ।
प्रजाति एवं जाति पर घूर्य के विचार
( Views of Ghruye on Race and Caste )
जी . एस . धूर्ये की ख्याति उनके द्वारा कैम्ब्रिज में किये गये पी . एच . डी . के शोध निबन्ध के आधार पर बनी . जो आगे चलकर 1932 में ‘ कास्ट एड रेस इन इंडिया ‘ के नाम से प्रकाशित हुआ । इस पुस्तक में इन्होंने जाति तथा प्रजाति के सम्बन्धों पर प्रचलित सिद्धांतों की विस्तारपूर्वक आलोचना की । उस काल के प्रचलित विचारक हरबर्ट रिजले थे । इनके अनुसार मनुष्य का विभाजन उसकी शारीरिक विशेषताओ – खोपड़ी की चौड़ाई , नाक की लम्बाई व कपाल का भार आदि के आधार पर भिन्न – भिन्न प्रजातियों में बाँटा गया है । रिजले का मानना था कि जाति का उद्धव प्रजाति से हुआ होगा , क्योंकि विभिन्न जाति समूह किसी विशिष्ट प्रजाति से सम्बन्धित लगते हैं । सामान्यतया उच्च जातियाँ आर्य प्रजाति से मिलती – जुलती है , जबकि निम्न जातियों में अनार्य जनजातियों , मंगोल व अन्य प्रजातियों के गुण देखने को मिलते हैं । रिजले तथा अन्य लोगों का मानना था कि निम्न जातियां ही भारत की वास्तविक आदि निवासी है । उन्हें आर्यों द्वारा दबाया गया , जो कहीं बाहर से आकर भारत में बस गये थे । घूर्ये रिजले के तर्कों से अंशत : सहमत थे । घूर्ये का कहना था कि रिजले के शोध में उच्च जातियों को आर्य और निम्न जातियों को अनार्य बताया गया है । यह केवल उत्तरी भारत के लिये ही सही है । भारत के अन्य भागों के लिये नहीं । अधिकांश भारत में सिधु – गंगा के मैदान को छोड़कर विभिन्न प्रजातीय वर्गों का आपस में काफी लम्बे समय से मेल – मिलाप था । अतः प्रजातीय शुद्धता केवल उत्तर भारत में ही बची हुई थी , क्योंकि वहाँ अन्तर्विवाह निषिद्ध था । शेष भारत में अन्तःविवाह ( जाति विशेष में ही विवाह करना ) का प्रचलन उन वर्गों में हुआ जो प्रजातीय स्तर पर वैसे ही भिन्न थे । जिस समय घूर्ये इस विषय पर लिख रहे थे , उस समय इनके लेखों ने लोगों को अपनी ओर आकृष्ट किया । जी- एस- घूर्ये जाति की एक विस्तृत परिभाषा दिये जाने के कारण भी जाने जाते हैं । इन्होंने जाति की विशेषताओं की चर्चा की है , जिसके आधार पर जाति को समझना अधिक उपयोगी बतलाया गया है । ये विषेषताएँ निम्नलिखित हैं
( 1 ) समाज का खण्डनात्मक विभाजन ( Segmental Division of Society ) :
जाति – व्यवस्था समाज को कुछ निश्चित खण्डों में विभाजित करती है । प्रत्येक खण्ड के सदस्यों की स्थिति , पद और कार्य जन्म से निर्धारित होता है तथा उनमें सामुदायिक भावना होती है । जातीय नियम का पालन नैतिक कर्तव्य होता है ।
( 2 ) संस्तरण ( Hierarchy ) :
जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक जाति की स्थिति एक – दूसरे की तुलना में ऊंची या नीची होती है । इस संस्तरण में सबसे ऊपर ब्राह्मण है और सबसे नीचे अस्पृश्य जातियां हैं । इन दो छोरों के बीच अनेक जातियां हैं । इतना ही नहीं , एक जाति के अन्दर अनेक उपजातियाँ तथा उनमें भी ऊंच – नीच का संस्तरण है ।
( 3 ) भोजन तथा सामाजिक सहवास पर प्रतिबन्ध ( Restrictions on Fooding and Social Intercourse ) :
जाति – व्यवस्था में खान – पान , मेल – जोल एवं सामाजिक सम्पर्क सम्बन्धी प्रतिबन्ध है । प्रायः एक जाति के व्यक्ति निम्न जातियों के हाथ का भोजन नहीं स्वीकार करते । साथ ही कच्चा व पक्का भोजन सम्बन्धी अनेक प्रतिबन्ध देखे जाते हैं । इसी तरह सामाजिक सम्पर्क एवं मेल – जोल के संदर्भ में छुआछूत की भावना पाई जाती है ।
( 4 ) सामाजिक और धार्मिक निर्योग्यताएं ( Social and Religious Disabilities ) :
जाति – व्यवस्था में अधिकारों और सुविधाओं में विशेष अंतर देखा जाता है । एक ओर उच्च जातियों को सामाजिक , आर्थिक , धार्मिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में विशेष सुविधाएं व अधिकार प्राप्त है , तो दूसरी ओर निम्न व अस्पृश्य जातियों को सार्वजनिक सुविधाओं व अधिकार तक से वंचित रखा गया । इन्हें अनेक रूपों में निर्योग्य घोषित किया गया ।
( 5 ) व्यवसाय की आनुवंशिक प्रकृति ( Hereditary Nature of occupation ) :
व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धारण जाति – व्यवस्था के आधार पर होता है । एक व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसे उसी जाति का व्यवसाय अपनाना होता है । जाति – व्यवस्था प्रत्येक जाति के सदस्यों को परम्परागत व्यवसाय को छोड़कर अन्य व्यवसाय करने की अनुमति प्रदान नहीं करती ।
( 6 ) अन्तर्विवाही ( Endogamous ) :
जाति – व्यवस्था के अनुसार जाति के सदस्य अपनी ही जाति या उपजाति में विवाह – सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं । इस नियम का उल्लंघन करने का साहस प्रायः कोई नहीं करता । वेस्टरमार्क ने इस विशेषता को ‘ जाति – व्यवस्था का सार तत्व ‘ माना है । अन्तर्विवाही नियम आज भी जातियों में पाई जाती है । इस प्रकार उपरोक्त वर्णन के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रमुख एवं स्पष्ट आधार जाति – व्यवस्था रहा । इसलिये जाति को व्यवस्था माना गया । इधर करीब 40 वर्षों से परिवर्तन की गति तीव्र हुई है , फलस्वरूप जाति – व्यवस्था के उक्त विशेषताओं में परिवर्तन हो रहे हैं ।
घुर्ये – एक राष्ट्रवादी
आजकल की राजनीति में एक मुहावरा बहुत काम में लिया जाता है । वे लोग जो देश को एक राष्ट्र – राज्य के रूप में विकसित करना चाहते हैं , प्राय : सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की चर्चा करते हैं कि इस देश की संस्कृतियाँ अनेक नहीं , एक होनी चाहिये । और यह एक संस्कृति हिन्दू संस्कृति या हिन्दू धर्म है । घुर्ये अपनी पुस्तक कास्ट एण्ड रेस इन इंडिया में कहते हैं कि भारत में प्रजाति , भाषा और संस्कृति का ऐसा मेलजोल है जो यहाँ की सभ्यता को बताता है । घुर्ये के ये विचार सोश्यल टेन्शन्स इन इंडिया वैदिक इंडिया और बनिंग केस्ट्रन ऑफ नॉर्थ – ईस्ट इंडिया में बहुत स्पष्ट हैं । यह सही है कि घुर्ये भारत को एक एकीकृत देश बनाना चाहते थे ।
घुर्ये का मत इस सम्बन्ध में कई तरह के दंगे हो रहे हैं , पृथक राज्य की मांग बराबर उठती जा रही है और इस तरह था –
1 सरकार की या नेहरू द्वारा स्वीकृत धर्म निरपेक्ष नीति में घुर्य का विश्वास नहीं था ।
2 इस देश में एकाधिक समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता ।
3 राष्ट्रीय एकीकरण तभी संभव है जब देश के नागरिक समान मूल्यों को स्वीकार करें ।
4 घुर्ये ने कहा कि राष्ट्रीय एकीकरण तभी संभव है जब देश में सामाजिक और राजनीतिक एकीकरण हो जाये । एक राष्ट्रवादी की तरह घुर्ये स्पष्ट रूप में कहते हैं कि इस देश में विभाजन का बहुत बड़ा कारण मुसलमान हैं । यह इसलिये कि मुसलमान उनके भारत में आने की बड़ी लम्बी अवधि के बाद भी हिन्दू संस्कृति में अपना आत्मसात् नहीं कर पाये । आज भी इन दोनों समुदायों के सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण नहीं है । पिल्लई कहते हैं कि सौहार्द का अभाव इस कारण है कि उनके धार्मिक व्यवहार में असंगति है ।
घुर्ये राष्ट्रीय एकीकरण के समर्थक थे । उनकी दृष्टि में भारत में यह एकीकरण निम्न विधि द्वारा लाया जा सकता है
– 1 घुर्ये मानते हैं कि भारतीय राष्ट्रीय एकीकरण का पहला चरण यह होना चाहिये कि हमें विभिन्न धार्मिक समूहों और पिछडे समूहों को हिन्दू समाज की मुख्यधारा में ले लेना चाहिये । इस विचारधारा को उन्होंने अपने एक लेख में रखा “
and their Assimilation in Hindu Society ) ” था । उनका यह भी सुझाव था कि यदि अछूतों को हिन्दू समाज में सम्मिलित कर लिया जाये तो अस्पृश्यता की समस्या का निदान हो जायेगा ।
2 घुर्ये समकालीन भारत में जातियों का जो नया अवतार दिखाई देता है , उसके विरुद्ध थे । इस संदर्भ में वे रिजले की आलोचना करते हुए कहते हैं कि उन्होंने जातियों का नामांकन जनगणना में करवा कर बड़ा गलत काम किया । राष्ट्रीय एकीकरण में जातियाँ विभाजक है एकीकरण के लिये जातियों पर पाबन्दी लगाना आवश्यक है ।
3 घुर्ये की यह मजबूत धारणा थी कि राष्ट्रीय एकीकरण के लिये सांस्कृतिक सजातीयता ( Cultural Homogeneity ) का होना अनिवार्य है । इसी कारण जाति सभा , आरक्षण और जाति आधारित आन्दोलनों के वे खिलाफ थे । ये सब एकीकरण की प्रक्रिया में अवधान हैं ।
घुर्ये का भारत विद्या
समाजशास्त्र का प्रारम्भ एशिया में सबसे पहले भारत में हुआ और इसके बाद जापान में । बम्बई विश्वविद्यालय में पेट्रिक गैड्स के घुर्ये विभागाध्यक्ष रहे । उनके विद्यार्थियों में कई ख्याति प्राप्त समाजशास्त्री सम्मिलित हैं । इनमें कुछ के नाम उल्लेखनीय हैं – एम.एन. श्रीनिवास , के.एम. कापडिया , ए.आर. देसाई , आई.पी.देसाई , वाई . वी . दायले , श्रीमती जालू और के.सी. पंचनदिकर , एन.एस.ए. राव विलास , सांगवे धीरेन्द्र नारायण गोपाल सिंह नेपाली , एम.जी. कुलकर्णी और ए . बोपेगामे | यद्यपि घुर्ये के विद्यार्थी अपनी विचारधारा के लिये स्वतंत्र थे , किसी पर वे कुछ थोपते नहीं थे । फिर भी यह समझने की बात है कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन विद्यार्थियो पर घुर्ये की विचारधारा का प्रभाव था । ए.आर. देसाई जिन्हें मार्क्सवादी विचारक माना जाता है , शायद घुर्ये विचारधारा के अपवाद थे ।
घुर्ये राष्ट्रवादी थे
। वे इस देश को राष्ट्र – राज्य बनाना चाहते थे । लेकिन उनका राष्ट्रवाद कुछ अलग तरह का था । वे चाहते थे कि हिन्दू जैन , बौद्ध और सिख सभी संस्कृतियां एकजुट हो जायें , और इस तरह की सांस्कृतिक एकता देश को राष्ट्र – राज्य का दर्जा दे देगी । घुर्य ने जिस राष्ट्रवादी संस्कृति का विवरण दिया है , उसे भारत के कुछ राजनीतिक दल भी प्रसारित कर रहे हैं । इन दलों के लिये राजनीतिक एकता की अपेक्षा सांस्कृतिक एकता अधिक महत्वपूर्ण है और स्पष्ट है , यह सांस्कृतिक एकल वस्तुतः हिन्दू जातियों की एकता होगी । मुसलमान हाशिये पर धुर्य की विचारधारा ब्राहमण या आर्य की संस्कृति पर केन्द्रित है । वे मुसलमानों को हिन्दुओं से एकदम पृथक मानते हैं । उनका धर्म अलग है , तिथि – त्यौहार जुदा हैं और सोच समझ भी भिन्न है । राष्ट्रीय एकता में वे मुसलमानों के लिये एक ही विकल्प छोड़ते है और वह यह है कि ये हिन्दुओं में अपना विलय कर लेवें ।
संस्कृत घुर्ये की दृष्टि में
संस्कृत भाषा अनन्त ज्ञान की भंडार थी । दुनिया का सम्पूर्ण ज्ञान संस्कृत में निहित था । रिजले तथा हटन ने दृढतापूर्वक कहा था कि उपनिवेशवादियो का भारतीय समाज के बारे में जो भी ज्ञान था , वह सब ब्राहमणों द्वारा दिया गया था | यह भी सत्य है कि ब्रिटिश मानवशास्त्रियों ने भारत के बारे में जो कुछ लिखा है , सब ब्राहमों द्वारा दिया गया है ।
धुर्य के अध्ययन का नतीजा यह है कि भारतीय समाज का मार्गदर्शक सिद्धान्त धर्म है । और यह धर्म ब्राह्मण धर्म है । इस धर्म के आधार पर ही भारतीय समाज संगठित है । अपनी पुस्तक वैदिक इंडिया में धुयें भारतीय सम के सामाजिक सांस्कृतिक लक्षणों का विवरण इंडो – आर्यन लोगों के संदर्भ में करते है । इस तरह उनकी दृष्टि में आर्य – संस्कृति – चाहे वह भारत की हो या बाहर की , कई समानताएं है । संस्कृति और भाषा की समानताएं आर्यों को एक मानवजातीय समूह बना देती है । घुर्ये ने भारतीय संस्कृति के इतिहास को अपनी कई पुस्तकों में रखा हैं उनका निष्कर्ष है कि भारतीय समाज आज कुछ भी है , उसकी जड़ वैदिक साहित्य और संस्कृत ग्रंथों में निहित । वे यह भी बताते है इस समाज में धर्म , भाषा , परिवार जाति , रीति – रिवाज सभी का उद्गम संस्कृत ग्रंथों , ब्राह्मणों और हिन्दू नियमों से जुड़ा हुआ है । ” यह निश्चित है कि घुर्ये द्वारा रचित पुस्तक अंडार बहुत विशाल है । इसमें भारतीय समाज के लिये बहुत कुछ है । लेकिन इन पुस्तकों में कोई कमी नहीं हो , ऐसा नहीं है । कुछ कमियाँ तो खटकने वाली हैं । उन्होंने संस्कृत साहित्य से प्रभावित पुस्तकों में यह कहीं नहीं बताया कि उस युग के लोगों की आर्थिक अवस्था कैसी थी । लोगों का खान – पान क्या था । आम आदमी और गरीब गुरबे किस तरह जीवन बिताते थे । और आगे राजा के प्रजा के साथ संबंध कैसे थे । ऐसा लगता है कि संस्कृत भाषा प्रधान भारतीय समाज में ब्राहमण और उनका धर्म ही सम्पूर्ण जीवन का मुहावरा था । कोई भी धर्म निरपेक्ष राष्ट्र – राज्य घुर्य को किस भांति एक विचारक के रूप में स्वीकार करेगा । और ऐसा समाजशास्त्र जिसे घुर्ये ने पैदा किया है , लोगों के गले कैसे उतरेगा ।
भारतीय सभ्यता का समाजशास्त्र
घुर्य ने जो कुछ लिखा है , उसका केन्द्र भारतीय सभ्यता का है । इस सभ्यता ने ही भारतीय समाज का गठन किया है । इस सभ्यता को उन्होंने संस्कृत ग्रंथों के माध्यम से समझा है । उनका कहना है कि भारतीय सभ्यता की जो संस्कृति है वह बाहरी प्रक्रियाओं से भी प्रभावित होती रही है । मृत्यु से जुड़े हुए कर्मकाण्डों का विवरण देते हुए वे कहते हैं कि कर्मकाण्ड शायद मिस की सभ्यता से आये हैं । श्रीनिवास ने एक स्थान पर कहा है कि 1040 के दशक तक घुर्ये विसरणवाद के प्रभाव में थे । इस विसरणवाद को स्पष्ट रूप से उनकी पुस्तक फैमिली एण्ड किन इन इंडो – यूरोपियन कल्चर ( Family and kin in Indo European culture , 1955 ) में देखा जा सकता है । यहां वे परिवार को बधुत्व की शब्दावली में देखने का प्रयास करते हैं । में सदस्यों के व्यवहार के तौँ को वे इंडो – आर्यन , यूनान और लेटिन संस्कृतियों से लते हैं । घुर्ये की रूचि सभ्यता के इतिहास में कई जगह देखने को मिलती है । अपनी पहली पुस्तक ‘ कल्चर एण्ड सोसायटी ‘ ( Culture and Society , 1947 ) में वे ब्रिटेन का संदर्भ देते हुए कहते हैं कि 1800-1930 की अवधि में इस देश ने राष्ट्र – राज्य के निर्माण के लिए कई प्रयास किये । यहां वे संस्कृति और सभ्यता के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ये दोनों एक ही प्रघटना के अंग हैं । उन्हें पृथक नहीं समझा जाना चाहिये | उनके शब्दों में , संस्कृति सभ्यता है और व्यक्ति इसे अपने मस्तिष्क और व्यवहार में ढाल लेता है । परम्परा से मानवशास्त्री संस्कृति को निरपेक्ष मानते हैं – संस्कृति न बडी होती है न छोटी । यह नहीं कहा जा सकता कि भारतीय संस्कृति अमेरिका की संस्कृति से बड़ी है । संस्कृति तो संस्कृति है । प्रत्येक समूह अपनी संस्कृति को बड़ा समझता है । घुर्ये मानवशास्त्र की परम्परा से हटकर संस्कृति को छोटे और बडे अर्थ में लेते हैं ।
” कास्ट एण्ड रेस ” ( Caste and Race )
पुस्तक के प्रथम संस्करण में प्रजाति की विवेचना विस्तारपूर्वक की है । इस समय रिजले की पुस्तक जो प्रजाति पर थी , आ गई थी | रिजले ने जाति के साथ प्रजाति मसले उठाया था । वास्तव में उनका विमर्श से जाति का प्रजाति था । देखा जाये तो 20 वीं शताब्दी में भारत में जो मानवजाति अध्ययनों की बाद आई , उसका केन्द्र मानवशास्त्र में प्रजातीय विचार थे । अब मानवशास्त्री जातियों का वर्गीकरण शारीरिक लक्षणों और भाषा के आधार पर करने लगे । शारीरिक लक्षणों में रक्त समूह , खोपड़ी का घनत्व , नाक की लम्बाई – चौड़ाई , आँखों की बनावट , त्वचा का रंग , कद आदि सम्मिलित किये जाने लगे । मानव विज्ञान के विद्वानों ने सम्पूर्ण जातियों को प्रजातियों में बांट दिया । रिजले भारतीय मानवजाति दिमाग के निदेशक थे और उन्होंने पहली बार जातियों को प्रजातीय संदर्भ में देखा । घुर्ये ने रिजले को अस्वीकार किया । उन्होंने मानवजाति के अध्ययन के आँकड़ो को फिर से देखा और कहा कि जातियों का स्तरीकरण में जो दर्जा है , वह प्रजाति के दर्ज से सही नहीं बैठता । ब्राहमण के शारीरिक लक्षण कई अन्य जातियों के समान हैं । घुर्ये ने प्रजातीय वर्गीकरण के लिये नाक की बनावट का जो आधार रिजले ने बनाया था , उसे नकार दिया । यह सब होकर भी घुर्ये का निष्कर्ष स्पष्ट नहीं कहा जा सकता वे प्रजाति , भाषा और संस्कृति के अनार को स्पष्ट नहीं कर पाये । घुर्ये की विचारधारा पर कई तरह की सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं का प्रभाव देखने को मिलता है । वे विसरणवादी थे और इस अवस्था में रिवर्स उनके मार्गदर्शक थे । जिस तरह की बौद्धिक अवस्था 20 वीं शताब्दी की थी , उसी अनुसार घुर्ये सभ्यताओं को समझाना चाहते थे । भारतीय सभ्यता को उन्होंने जाति और प्रजाति के संदर्भ में देखने का प्रयास किया । कुल मिलाकर दे दुनिया को तो देखते थे , ( मिस्र और चीन को ) पर उनकी आँखें भारत यानी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता पर गड़ी थी ।
उन्होंने अपनी इस विचारधारा को कई पुस्तकों में रखा है । इन पुस्तकों में मुख्य हैं – ‘ फेमिली एण्ड किन इन इंडो – यूरोपियन कल्चर ‘ ( Family and kin in Indo – European Culture , 1955 ) ” टू ब्राह्रानीकल इन्स्टीट्यूशन्स ( two Brahmanical Institution Gotra and Charana , 1972 ) वैदिक इंडिया ( Vedic India . 1979 ) । इन पुस्तकों के अतिरिक्त घुर्ये की कई और पुस्तके भी हैं । इस सब में उन्होंने भारतीय संस्कृति के निम्न पहलुओं पर विचार किया है –
1 परम्परागत हिन्दू या ब्राहमण जातियों का ज्ञान
2 धार्मिक प्रथाएं
3 सामाजिक संगठन और गौत्र और चारन
4 कानून
उपरोक्त सांस्कृतिक पहलुओं का विवेचन धुर्वे ने संस्कृत ग्रंथों के आधार पर किया है इसी सिलसिले में वे जाति , वेशभूषा , धर्म और कामुकता का विवेचन करते है । कहीं – कहीं वे इस तथ्य को भी बताते हैं कि वैदिककाल की यह संस्कृति किस प्रकार अपनी निरन्तरता आज भी बनाये हुए है । गोत्र वस्तुत : वहिर्विवाह है । घुर्ये गोत्र के उत्तम , इतिहास और विस्तार को संस्कृत ग्रंथों के आधार पर खोजते हैं और स्थापित करते हैं कि आज इस प्रथा का जो चलन है वह आर्यों के कारण है । यह प्रथा वैदिक काल से चली आ रही है । गोत्र की तरह घुर्ये अन्य कई प्रथाओं और रीति – रिवाजों का वर्णन वैदिकसंस्कृति से खोजते हैं । उनका परिहार के बारे में कहना है कि भारत में जो संयुक्त परिवार प्रथा है , उसका उद्गम इंडो – आर्यन संस्कृति से ही है । गोत्र व्यवस्था में पूर्वज पूजा का जो रिवाज है , उन्होंने उसे स्मृतियों में पाया है । अपने सम्पूर्ण विवरण में घुर्ये कहते हैं कि इन प्रथाओं को धार्मिक संस्कृत ग्रंथों के संदर्भ में समझना चाहिये । इससे हमें ये प्रथाएं अपने मूल में देखने को मिल जाएंगी ।
उन्होंने अपने कई अध्ययनों में अत्याधुनिक सर्वेक्षण – विधि और सांख्यिकीय तकनीक ( सेक्स की आदतों का अध्ययन , 1938 ) तथा ‘ महादेव कोली लोग ‘ ( 1963 ) के अध्ययन में क्षेत्र – कार्य विधि का प्रयोग कर भारतीय समाजशास्त्र और सामाजिक मानवशास्त्र में अनुभववादी परम्परा की जड़ों को मजबूत किया है । घुरिये के अधिकांश समाजशास्त्रीय अध्ययनों का आधार न केवल अखिल भारतीय है वरन् भारतीय सभ्यता सम्बन्ध सन्दर्भ भी है । उन्होंने जातियों और जनजातियों में अन्तर भारतीय सांस्कृतिक एवं भाषायी आधार पर किया है । सामाजिक संरचना तथा परिवर्तन के अध्ययन हेतु उन्होंने विभिन्न संज्ञाओं एवं अवधारणाओं का प्रयोग किया है जो प्राचीन भारतीय इतिहास तथा महाकाव्य से ली गई हैं । उदाहरण के लिए ग्रामीण एवं नगरीय अध्ययन के सम्बन्ध में भी उन्होंने इस विधि का प्रयोग किया है । घुरिये के आदि से अन्त तक की समाजशास्त्रीय रचनाओं में भारतीय – विद्या का सन्तुलित ढंग से प्रयोग एवं विश्लेषण किया गया है ।
Sex Habits of Middle Class People in Bombay ( 1938 )
अपनी पुस्तक Sex Habits of Middle Class People in Bombay ( 1938 ) हेतु उन्होंने क्षेत्रीय सर्वेक्षण का प्रयोग किया । इसी भाँति , उनके द्वारा लिखित मोनोग्रॉफ Mahadev Kolis ( 1963 ) भी पुस्तकीय परिप्रेक्ष्य पर आधारित न होकर क्षेत्रीय सर्वेक्षण पर आधारित था । अत : यह कहा जा सकता है कि घुरिये ने अपने अध्ययनों में भारतविद्याशास्त्रीय एवं पुस्तकीय परिप्रेक्ष्य तक ही अपने को सीमित न रखकर आगमन – आनुभाविक ( Inductive – empirical ) तथा ऐतिहासिक – तुलनात्मक ( Historical comparative ) पद्धतियों को अपनाकर यह प्रमाणित कर दिया कि वह ‘ सैद्धान्तिक बहुलवादी ‘ थे तथा भारतीय समाज की यथार्थता को समझने हेतु एक ही परिप्रेक्ष्य को उपयुक्त नहीं मानते थे । उनके विश्लेषण में संरचनात्मक – प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य की झलक भी देखी जा सकती है । श्रीनिवास एवं पाणिनि ( Srinivas and Panini ) ने उचित ही लिखा है कि यद्यपि घुरिये क्षेत्र – कार्य के पक्षधर थे , तथापि वह स्वयं आराम कुर्सी पर बैठकर काम करने वाले विद्वान् थे । अत : भारतविद्याशास्त्र में प्रशिक्षित होने के बावजूद वह क्षेत्रीय कार्य के विरोधी नहीं थे ।
Sociat Tensions in India
उन्होंने अपनी पुस्तक ‘ Sociat Tensions in India ‘ में तनाव का ऐतिहासिक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है । उन्होंने अपनी कृति ‘ Cities and Civilization ‘ में नगरों के प्राकृतिक इतिहास , अमेरिका एवं इंग्लैण्ड के नगरों का इतिहास , भारत के नगरों की स्थिति एवं उनकी वृद्धि , नगर राजधानियों के रूप में तथा विशाल नगरों के रूप का उल्लेख किया है ।
Caste , Class and Occupation
घुरिये ने अपनी पुस्तक ‘ Caste , Class and Occupation ‘ में जाति प्रथा के लक्षणों , स्वरूपों , विभिन्न युगों में जाति , प्रजाति एवं जाति , भारत के बाहर जातियों के तत्त्वों , जाति की उत्पत्ति , अनुसूचित जातियों , व्यवसाय एवं जाति , वर्ग के कार्यों एवं जाति के भविष्य आदि विषयों पर चर्चा की है ।
The Scheduled Tribes
अपनी पुस्तक ‘ The Scheduled Tribes में घुरिये ने भारत की जनजातियों की समस्याओं और उनके समाधान के बारे में विस्तार से चर्चा की है । साथ ही उन्होंने कुछ भारतीय जनजातियों के सामाजिक संगठन , परिवार , विवाह , नातेदारी एवं धर्म आदि के बारे में भी पूर्ण ब्योरा प्रस्तुत किया है ।
घुरिये के भारतविद्याशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य का उपयोग उनके अनेक शिष्यों ने किया है ; जैसे – के ० एम ० कपाडिया ने भारत में विवाह और परिवार के सन्दर्भ में तथा ए ० आर ० देसाई ने भारतीय राष्ट्रवाद के विश्लेषण में इस विधि का प्रयोग किया । इस प्रकार हम देखते हैं कि घुरिये ने ऐतिहासिक तुलनात्मक पद्धति के अन्तर्गत भारतविद्याशास्त्र का प्रयोग कर सामाजिक संस्थाओं के उद्भव , विकास तथा रूपान्तरण जैसी समस्याओं पर अपना मत प्रकट किया है ।
घुर्ये की आलोचना
घुर्ये अव्वल दर्ज के राष्ट्रवादी रहे हैं और इस बात की वकालत करते हैं ।वे एक राष्ट्र बनाने के लिये हमे वैदिक संस्कृति को पुनः स्थापित करना चाहिये । इस विचारधारा के अनुसार देश के गैर – हिन्दु समूह बेमतलब है । उनका अस्तित्व हाशिये पर है । अगर हम थोड़ी उदारता से देखें तो कहना पड़ेगा कि उपनिवेशकाल में जिस तरह की विचारधारा या जैसे ज्ञान का निर्माण हो रहा था , इसमें भारतीय सभ्यता की महानता को बताना ही हमारे हित में था । हम अंग्रेजों को यही बताना चाहते थे कि हमारा संस्कृत साहित्य महान है , हमारा धर्म उच्च है , और हमारी धरोहर हमारा धर्म है । उस समय जब घुर्ये था , वास्तव में वही हमारी पुरातनवादी विचारधारा थी । उपनिवेशकाल में पुरातनवादी ही हमारा राष्ट्रीय उपागम था और घुर्ये ने इसी पुरातनवाद को पुनर्जीवन दिया है । इस दृष्टि से वे समाजशास्त्र के जनक थे , विचारक थे । लेकिन हाल में जो समाजशास्त्रीय साहित्य और विचारधारा उभर कर आ रही है , वह घुर्ये की कड़ी आलोचना करती है | यदि हम आधुनिक और उत्तर – आधुनिक समाजशास्त्र की धारा को देखें तो स्पष्ट हो जायेगा कि यह साहित्य गरीब – गरबों , पिछडों और वंचिों के लिये है । अब इस साहित्य में लघुवृतान्तों का प्राबल्य है । विद्यार्थी पर तीन भाषा सूत्र के अनुसार संस्कृत भाषा को थोप दिया गया । अब यह भाषा आम आदमी के बोल चाल की भाषा नहीं ।