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जस्टिस वर्मा की याचिका: कैश कांड में महाभियोग की सिफारिश पर आज की सुनवाई का संपूर्ण विश्लेषण

जस्टिस वर्मा की याचिका: कैश कांड में महाभियोग की सिफारिश पर आज की सुनवाई का संपूर्ण विश्लेषण

चर्चा में क्यों? (Why in News?):**

हाल के दिनों में भारतीय न्यायपालिका एक अभूतपूर्व स्थिति का सामना कर रही है। एक हाई-प्रोफाइल ‘कैश कांड’ मामले में, जिसमें एक वरिष्ठ न्यायाधीश पर गंभीर आरोप लगे थे, अब मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। विशेष रूप से, जस्टिस वर्मा (काल्पनिक नाम, वर्तमान मामले में संदर्भित व्यक्ति के लिए) द्वारा दायर एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में आज (कल की सुनवाई के संदर्भ में) सुनवाई होनी है। इस याचिका में, जस्टिस वर्मा ने उस समिति की सिफारिशों को रद्द करने की मांग की है जिसने उनके खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही की सिफारिश की थी। साथ ही, इस मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए, मुख्य न्यायाधीश (CJI) गवई ने खुद को इस मामले की सुनवाई से अलग कर लिया है, जिससे यह मामला और भी जटिल हो गया है। यह घटनाक्रम न्यायपालिका की स्वतंत्रता, जवाबदेही, पारदर्शिता और सार्वजनिक विश्वास जैसे महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दों को जन्म देता है, जो UPSC सिविल सेवा परीक्षा के उम्मीदवारों के लिए अत्यंत प्रासंगिक हैं।

मामले की जड़: ‘कैश कांड’ और आरोप

किसी भी गहन विश्लेषण से पहले, हमें ‘कैश कांड’ के मूल को समझना होगा। हालांकि यह रिपोर्ट किसी विशिष्ट व्यक्ति या संस्था को लक्षित नहीं करती है, लेकिन सार्वजनिक डोमेन में मौजूद समान ऐतिहासिक घटनाओं से हम इसके संभावित संदर्भ को समझ सकते हैं। ऐसे मामलों में, अक्सर आरोप एक ऐसे न्यायाधीश पर लगते हैं जिन पर यह संदेह होता है कि उन्होंने अपने पद का दुरुपयोग किया या अनुचित लाभ उठाया। इसमें कथित तौर पर वित्तीय लेन-देन शामिल हो सकते हैं, जो न्याय की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं।

मुख्य आरोप (संभावित):

  • भ्रष्टाचार: पद का दुरुपयोग करके वित्तीय लाभ प्राप्त करना।
  • न्यायिक कदाचार: किसी मामले में अनुचित प्रभाव डालना या व्यक्तिगत लाभ के लिए निर्णय को प्रभावित करना।
  • कानूनों का उल्लंघन: किसी विशेष व्यक्ति या समूह को फायदा पहुंचाने के लिए शक्तियों का दुरुपयोग करना।

ऐसे आरोप सार्वजनिक जीवन में, विशेषकर न्यायपालिका जैसे महत्वपूर्ण स्तंभ के लिए, अत्यंत गंभीर होते हैं। ये न केवल संबंधित न्यायाधीश की प्रतिष्ठा पर, बल्कि पूरी न्यायपालिका प्रणाली की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिह्न लगाते हैं।

जस्टिस वर्मा की याचिका: महाभियोग की सिफारिशों को चुनौती

जब किसी न्यायाधीश पर कदाचार के गंभीर आरोप लगते हैं, तो भारतीय संविधान एक विशिष्ट प्रक्रिया निर्धारित करता है। उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को कदाचार या अक्षमता के आधार पर केवल संसद द्वारा महाभियोग (Impeachment) के माध्यम से ही पद से हटाया जा सकता है।

महाभियोग की प्रक्रिया (संक्षेप में):

  1. आरोप पत्र: किसी भी सदन (लोकसभा या राज्यसभा) में न्यायाधीश के खिलाफ कदाचार के आरोप का प्रस्ताव रखा जा सकता है।
  2. जांच समिति का गठन: यदि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है, तो लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति द्वारा एक तीन-सदस्यीय जांच समिति का गठन किया जाता है। इस समिति में आमतौर पर भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) या सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश, किसी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और एक प्रतिष्ठित jurist (कानूनविद) शामिल होते हैं।
  3. जांच और रिपोर्ट: समिति आरोपों की जांच करती है और अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करती है।
  4. संसद में मतदान: यदि समिति रिपोर्ट में कदाचार पाया जाता है, तो महाभियोग प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत (सदस्य संख्या के आधे से अधिक उपस्थित और मतदान करने वालों के दो-तिहाई) से पारित होना चाहिए।
  5. राष्ट्रपति का आदेश: दोनों सदनों से पारित होने के बाद, महाभियोग का प्रस्ताव राष्ट्रपति को भेजा जाता है, जो न्यायाधीश को पद से हटाने का आदेश जारी करते हैं।

इस विशेष मामले में, जस्टिस वर्मा के खिलाफ जांच समिति ने उनके खिलाफ महाभियोग की सिफारिश की थी। जस्टिस वर्मा की याचिका इसी सिफारिश को चुनौती देती है। उनकी मुख्य दलीलें निम्नलिखित हो सकती हैं:

  • प्रक्रियात्मक खामियां: हो सकता है कि जस्टिस वर्मा का तर्क हो कि जांच प्रक्रिया निष्पक्ष नहीं थी, उनके बचाव के अधिकार का उल्लंघन हुआ, या सबूतों का सही मूल्यांकन नहीं किया गया।
  • सबूतों का अभाव: वह यह तर्क दे सकते हैं कि उनके खिलाफ लगाए गए आरोप निराधार हैं या उन्हें साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं हैं।
  • गलत व्याख्या: हो सकता है कि उन्होंने अपने कार्यों या कहे गए शब्दों की गलत व्याख्या को चुनौती दी हो।
  • न्यायिक स्वतंत्रता का प्रश्न: वे यह भी तर्क दे सकते हैं कि महाभियोग की यह प्रक्रिया उनके न्यायिक विवेक या स्वतंत्रता को बाधित करने का एक प्रयास है।

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“न्यायपालिका की स्वतंत्रता सिर्फ न्यायाधीशों के लिए नहीं, बल्कि आम नागरिकों के लिए न्याय सुनिश्चित करने हेतु एक आवश्यक शर्त है। जब न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल उठता है, तो यह सीधे तौर पर लोकतंत्र के मूल आधार को हिला देता है।”

CJI गवई का मामले से हटना: क्यों और क्या मायने?

इस मामले की एक महत्वपूर्ण और असामान्य घटना भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) जस्टिस गवई का इस मामले की सुनवाई से खुद को अलग करना है। यह कदम भारतीय न्यायपालिका में ‘जस्टिस फॉर सेल्फ’ (Self-recusal) के सिद्धांत को दर्शाता है, जहां यदि किसी न्यायाधीश को लगता है कि किसी मामले में उनका कोई व्यक्तिगत हित या पूर्वाग्रह हो सकता है, तो वे उस मामले की सुनवाई से हट जाते हैं।

CJI के हटने के संभावित कारण:

  • संभावित हित का टकराव: यह संभव है कि CJI गवई का किसी भी तरह से मामले से कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हित जुड़ा हो, या उन्हें ऐसा आभास हो। यह व्यक्तिगत परिचय, किसी पूर्व जुड़ाव, या मामले की प्रकृति से उत्पन्न हो सकता है।
  • निष्पक्षता और विश्वसनीयता बनाए रखना: सबसे महत्वपूर्ण कारण न्यायपालिका की निष्पक्षता और उस पर जनता के विश्वास को बनाए रखना है। यदि CJI जैसे सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति को सुनवाई से हटना पड़े, तो यह दर्शाता है कि न्यायपालिका अपनी गरिमा और निष्पक्षता को लेकर कितनी गंभीर है।
  • पारदर्शिता का प्रदर्शन: यह कदम दर्शाता है कि न्यायपालिका न केवल निष्पक्षता से कार्य करती है, बल्कि निष्पक्षता का प्रदर्शन भी करती है, खासकर ऐसे संवेदनशील मामलों में।

CJI के हटने के मायने:

  • नए पीठ का गठन: CJI के हटने के बाद, यह उम्मीद की जाती है कि मामले की सुनवाई के लिए एक नई पीठ (अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों के साथ) का गठन किया जाएगा।
  • मामले की गंभीरता: यह निर्णय मामले की असाधारण गंभीरता और संवेदनशीलता को रेखांकित करता है।
  • नैतिक मानक: यह न्यायपालिका के भीतर उच्च नैतिक मानकों को बनाए रखने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

आज की सुनवाई: क्या उम्मीद करें?

जस्टिस वर्मा की याचिका पर आज (या जिस दिन यह सुनवाई होनी है) होने वाली सुनवाई अत्यंत महत्वपूर्ण है। अदालत निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार कर सकती है:

  1. याचिका की स्वीकार्यता: क्या अदालत जस्टिस वर्मा की याचिका को स्वीकार करेगी और महाभियोग की सिफारिशों पर आगे सुनवाई करेगी?
  2. अंतरिम रोक: क्या अदालत महाभियोग की आगे की प्रक्रिया पर अंतरिम रोक लगाने का आदेश दे सकती है, जब तक कि याचिका पर अंतिम निर्णय न आ जाए?
  3. जांच प्रक्रिया का मूल्यांकन: अदालत जांच समिति द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया की वैधता और निष्पक्षता की भी जांच कर सकती है।
  4. सबूतों की समीक्षा: यदि आवश्यक हो, तो अदालत आरोपों से संबंधित सबूतों की भी समीक्षा कर सकती है।

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“न्यायिक जवाबदेही की प्रक्रिया को पारदर्शी और निष्पक्ष होना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि न्याय केवल होता हुआ दिखे ही नहीं, बल्कि वास्तव में हो भी।”

UPSC परीक्षा के लिए प्रासंगिकता (Relevance for UPSC Exam)

यह मामला भारतीय संविधान, विशेष रूप से संघ की कार्यपालिका और न्यायपालिका से संबंधित अनुच्छेदों के गहन अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण है।

भारतीय संविधान के प्रासंगिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 124(4): सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को कदाचार या अक्षमता के आधार पर पद से हटाने की प्रक्रिया।
  • अनुच्छेद 217(1)(b): उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को उसी आधार पर हटाने की प्रक्रिया।
  • अनुच्छेद 14: विधि के समक्ष समानता और विधियों का समान संरक्षण (जांच प्रक्रिया में समानता)।
  • अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार (इसमें निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार भी शामिल है)।
  • अनुच्छेद 50: कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण।

विषय-वस्तु (Syllabus) के मुख्य बिंदु:

  • भारतीय राजव्यवस्था: संसद और राज्य विधानमंडल – उनकी संरचना, कार्य, कार्य-प्रणाली, विशेषाधिकार और मुद्दे। न्यायपालिका – संरचना, संगठन और कार्य; भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता; न्यायिक सक्रियता और न्यायिक समीक्षा।
  • शासन: पारदर्शिता और जवाबदेही। भ्रष्टाचार विरोधी संस्थाएं।
  • नैतिकता और सत्यनिष्ठा: सार्वजनिक जीवन में नैतिकता।

पक्ष और विपक्ष (Arguments For and Against)

जस्टिस वर्मा के पक्ष में संभावित तर्क (या याचिका के समर्थन में):

  • निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार: प्रत्येक व्यक्ति को, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार है। यदि जांच प्रक्रिया में कोई कमी थी, तो उसे चुनौती देना उचित है।
  • सबूतों का महत्व: महाभियोग एक गंभीर आरोप है और इसे पुख्ता सबूतों के आधार पर ही आगे बढ़ना चाहिए। यदि सबूत कमजोर हैं, तो प्रक्रिया रुकनी चाहिए।
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा: कभी-कभी, महाभियोग की प्रक्रिया का इस्तेमाल न्यायाधीशों को परेशान करने या उन्हें असुविधाजनक निर्णयों से रोकने के लिए किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में, ऐसे दुरुपयोग से बचाव आवश्यक है।
  • समान अवसर: जिस तरह एक सामान्य नागरिक को कानूनी प्रक्रिया में अपनी बात रखने का मौका मिलता है, उसी तरह न्यायाधीशों को भी मिलना चाहिए।

महाभियोग की सिफारिश के समर्थन में तर्क (या याचिका के विरोध में):

  • न्यायपालिका की जवाबदेही: न्यायाधीशों को भी जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। यदि उन्होंने कदाचार किया है, तो उन्हें बचाया नहीं जाना चाहिए।
  • सार्वजनिक विश्वास: न्यायपालिका में जनता का विश्वास तभी बना रहेगा जब वह स्वच्छ और कुशल साबित होगी। ऐसे आरोपों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
  • संविधान की अखंडता: संविधान में महाभियोग की प्रक्रिया इसलिए ही रखी गई है ताकि न्यायपालिका की गरिमा बनी रहे और गलत काम करने वाले को दंड मिले।
  • संवैधानिक प्रक्रिया का पालन: यदि जांच समिति ने संविधान के अनुसार प्रक्रिया का पालन किया है, तो उसकी सिफारिशों का सम्मान किया जाना चाहिए।

चुनौतियां और भविष्य की राह

यह मामला न्यायपालिका के समक्ष कई चुनौतियां प्रस्तुत करता है:

  1. विश्वास का संकट: ऐसे मामले न्यायपालिका में सार्वजनिक विश्वास को कमजोर कर सकते हैं।
  2. संवैधानिक संतुलन: न्यायपालिका की स्वतंत्रता और उसकी जवाबदेही के बीच संतुलन बनाना एक नाजुक कार्य है।
  3. पारदर्शिता और प्रक्रिया: महाभियोग जैसी प्रक्रियाओं को अधिक पारदर्शी और सुसंगत बनाने की आवश्यकता महसूस की जा सकती है।

भविष्य की राह:

  • न्यायिक सुधार: न्यायाधीशों के आचरण और कदाचार से निपटने के लिए एक मजबूत, निष्पक्ष और पारदर्शी संस्थागत तंत्र विकसित करने पर विचार किया जा सकता है।
  • स्पष्ट दिशानिर्देश: हितों के टकराव और सुनवाई से हटने (recusal) के संबंध में स्पष्ट दिशानिर्देशों का पालन और विकास।
  • जन जागरूकता: जनता को न्यायपालिका की भूमिका, शक्तियों और सीमाओं के बारे में शिक्षित करना।

निष्कर्ष

यह मामला भारतीय न्यायपालिका के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ का प्रतिनिधित्व करता है। यह न केवल एक न्यायाधीश के व्यक्तिगत भविष्य पर, बल्कि न्यायपालिका की अखंडता, जवाबदेही और जनता के विश्वास पर भी गहरा प्रभाव डालेगा। अदालत का निर्णय यह सुनिश्चित करेगा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और उसकी जवाबदेही के बीच सही संतुलन कैसे बना रहे, और यह कि किसी भी आरोप की जांच निष्पक्षता और पारदर्शिता के साथ हो। UPSC उम्मीदवारों के लिए, यह भारतीय संवैधानिक प्रणाली की जटिलताओं, न्यायिक नैतिकता और शासन के महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का एक उत्कृष्ट अवसर है।

UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)

प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs

1. भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद के तहत सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को कदाचार या अक्षमता के आधार पर पद से हटाया जा सकता है?
(a) अनुच्छेद 124(2)
(b) अनुच्छेद 124(4)
(c) अनुच्छेद 217(1)
(d) अनुच्छेद 144
उत्तर: (b) अनुच्छेद 124(4)
व्याख्या: अनुच्छेद 124(4) सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के महाभियोग की प्रक्रिया का प्रावधान करता है।

2. न्यायाधीशों के महाभियोग की प्रक्रिया के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
1. आरोप का प्रस्ताव किसी भी सदन में रखा जा सकता है।
2. जांच समिति में केवल उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश ही शामिल हो सकते हैं।
3. महाभियोग प्रस्ताव को संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत से पारित होना आवश्यक है।
उपरोक्त कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) 1 और 3
(c) 2 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (b) 1 और 3
व्याख्या: कथन 1 सही है क्योंकि प्रस्ताव लोकसभा या राज्यसभा दोनों में शुरू किया जा सकता है। कथन 2 गलत है क्योंकि समिति में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश या प्रतिष्ठित jurist भी शामिल हो सकते हैं। कथन 3 सही है क्योंकि विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है।

3. CJI (मुख्य न्यायाधीश) द्वारा किसी मामले की सुनवाई से खुद को अलग करने (recusal) के पीछे का मुख्य सिद्धांत क्या है?
(a) न्यायिक विलंब को कम करना
(b) न्यायाधीश का व्यक्तिगत हित या पूर्वाग्रह का परिहार
(c) मामले को सर्वोच्च न्यायालय से बाहर स्थानांतरित करना
(d) मामले को राष्ट्रीय सुरक्षा के तहत वर्गीकृत करना
उत्तर: (b) न्यायाधीश का व्यक्तिगत हित या पूर्वाग्रह का परिहार
व्याख्या: Recusal तब होता है जब न्यायाधीश को लगता है कि उनका मामले से कोई हित जुड़ा है, जिससे निष्पक्षता प्रभावित हो सकती है।

4. ‘न्यायिक सक्रियता’ (Judicial Activism) के संदर्भ में, निम्नलिखित में से कौन सा कथन सबसे उपयुक्त है?
(a) न्यायपालिका का कार्यपालिका और विधायिका के निर्णयों में हस्तक्षेप करना।
(b) न्यायपालिका द्वारा अपने पारंपरिक दायरे से बाहर जाकर सार्वजनिक कल्याण और अधिकारों की रक्षा के लिए सक्रिय भूमिका निभाना।
(c) केवल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संसद के कानूनों की समीक्षा करना।
(d) न्यायाधीशों द्वारा अपने व्यक्तिगत विचार रखना।
उत्तर: (b) न्यायपालिका द्वारा अपने पारंपरिक दायरे से बाहर जाकर सार्वजनिक कल्याण और अधिकारों की रक्षा के लिए सक्रिय भूमिका निभाना।
व्याख्या: न्यायिक सक्रियता का अर्थ है न्यायपालिका का सकारात्मक और सक्रिय दृष्टिकोण, अक्सर सार्वजनिक हित के मुद्दों पर।

5. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 किससे संबंधित है?
(a) धर्म की स्वतंत्रता
(b) विधि के समक्ष समानता
(c) शिक्षा का अधिकार
(d) व्यक्तिगत स्वतंत्रता
उत्तर: (b) विधि के समक्ष समानता
व्याख्या: अनुच्छेद 14 सभी व्यक्तियों के लिए विधि के समक्ष समानता और विधियों के समान संरक्षण का अधिकार देता है।

6. किसी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही के दौरान, ‘जांच समिति’ का गठन कौन करता है?
(a) भारत के राष्ट्रपति
(b) लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति
(c) भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI)
(d) विधि मंत्रालय
उत्तर: (b) लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति
व्याख्या: प्रस्ताव मिलने पर, आरोप पत्र के अनुसार, लोकसभा अध्यक्ष (यदि लोकसभा में प्रस्ताव है) या राज्यसभा के सभापति (यदि राज्यसभा में प्रस्ताव है) जांच समिति का गठन करते हैं।

7. ‘कैश कांड’ जैसे मामले भारतीय न्यायपालिका के किस पहलू को सबसे अधिक उजागर करते हैं?
(a) न्यायिक प्रणाली की कार्यकुशलता
(b) न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सार्वजनिक विश्वास
(c) न्यायाधीशों की नियुक्तियों की प्रक्रिया
(d) अदालतों का डिजिटलीकरण
उत्तर: (b) न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सार्वजनिक विश्वास
व्याख्या: ऐसे मामले सीधे तौर पर न्यायपालिका की अखंडता और उस पर जनता के विश्वास को प्रभावित करते हैं।

8. निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
1. न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान का एक मूल ढांचा (basic structure) है।
2. न्यायाधीशों को पद से हटाना एक राजनीतिक प्रक्रिया है।
उपरोक्त कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2
उत्तर: (c) 1 और 2 दोनों
व्याख्या: न्यायपालिका की स्वतंत्रता को केशवानंद भारती मामले में संविधान का मूल ढांचा माना गया है। महाभियोग की प्रक्रिया, जिसमें संसद की भूमिका होती है, एक राजनीतिक प्रक्रिया भी है।

9. यदि कोई न्यायाधीश ‘हित के टकराव’ (Conflict of Interest) के कारण किसी मामले से हट जाता है, तो यह किस सिद्धांत को दर्शाता है?
(a) अव्यक्त अधिकार (Doctrine of Necessity)
(b) प्राकृतिक न्याय (Principles of Natural Justice)
(c) न्यायिक अतिरेक (Judicial Overreach)
(d) शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers)
उत्तर: (b) प्राकृतिक न्याय (Principles of Natural Justice)
व्याख्या: प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों में यह शामिल है कि किसी भी निर्णय में पक्षपात नहीं होना चाहिए। ‘हित का टकराव’ से हटना इसका एक महत्वपूर्ण पहलू है।

10. “न्यायपालिका को न केवल न्याय करना चाहिए, बल्कि न्याय होता हुआ दिखना भी चाहिए” – यह कथन किस पर जोर देता है?
(a) न्यायिक दक्षता
(b) न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता और निष्पक्षता
(c) न्यायाधीशों की व्यक्तिगत निष्ठा
(d) अदालती कार्यवाही का सार्वजनिक प्रसारण
उत्तर: (b) न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता और निष्पक्षता
व्याख्या: यह प्रसिद्ध कहावत यह सुनिश्चित करने के महत्व को रेखांकित करती है कि न्यायिक निर्णय न केवल निष्पक्ष हों, बल्कि बाहरी तौर पर भी निष्पक्ष दिखें।

मुख्य परीक्षा (Mains)

1. भारतीय संविधान में निहित “न्यायपालिका की स्वतंत्रता” के सिद्धांत की विवेचना कीजिए। हालिया घटनाओं के संदर्भ में, न्यायाधीशों की जवाबदेही सुनिश्चित करने और उनकी स्वतंत्रता को बनाए रखने के बीच संतुलन बनाने की चुनौतियों पर प्रकाश डालिए।
2. भारतीय न्यायाधीशों की महाभियोग प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन करें। इस प्रक्रिया में निहित संभावित खामियों और उन पर काबू पाने के उपायों पर चर्चा करें, विशेष रूप से न्यायिक कदाचार के आरोपों के संदर्भ में।
3. “न्यायपालिका का कार्यपालिका और विधायिका से पृथक्करण” (Separation of Powers) भारतीय संविधान की एक मूलभूत विशेषता है। इस सिद्धांत के महत्व की व्याख्या करें और उदाहरण सहित बताएं कि यह सिद्धांत किन परिस्थितियों में चुनौतीपूर्ण हो सकता है, जैसे कि जब न्यायाधीशों पर गंभीर आरोप लगते हैं।
4. “जस्टिस फॉर सेल्फ” (Self-recusal) या स्वयं को मामले से अलग करने का सिद्धांत भारतीय न्यायपालिका में निष्पक्षता और विश्वास बनाए रखने में क्या भूमिका निभाता है? CJI गवई के मामले से हटने के संदर्भ में इसके महत्व का विश्लेषण करें।

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