जनजातीय समस्याएँ

जनजातीय समस्याएँ

– जैसा हमने पहले कहा जनजातियों की समस्या भारतीय राष्ट्र की दृष्टि से उनके एकीकरण की समस्या है । जनजातियों को एकीकरण में इनकी जनजातीय पहचान , जनजातीय संवेदनशीलता एवं अलग स्वतंत्र भावना के कारण कठिनाई होती है । अतः एकीकरण को अन्य समस्याओं ने और तीव्र बना दिया है : । ये अन्य समस्या जनजाति में अंग्रेजी राज के प्रभाव , जनजातियों को अन्य भारतीयों से सम्पर्क , सरकारी नीतियों आदि के कारण पैदा हो गई हैं । जैसे

 भूमिहरण की समस्या – आदिवासी अथवा जनजाति अपनी जमीन से गंभीरता से जुड़े होते हैं । एक जमीन उनके लिये भू – सम्पत्ति से अधिक अन्तर्भावना से जुड़ी होती है । जो जनजातियाँ खाना बदोश अथवा चूंघट में रहने वाली है जैसे – चेंच , सीजो , बिपुरा इत्यादि भी एक सीमित इलाके में घूमती रहती हैं एवं जिस इलाके में घूमती हैं । उस इलाके के पेड़ , जीव – जन्तु एवं भू – सम्पदा में से एक विशेष रिश्ता जोड़ लेती है । जनजातियों में भू – सम्पत्ति हरण की समस्या पहले नहीं थी परन्तु इसके बावजूद अपने इलाके में वे दूसरों का रहना , दूसरों के द्वारा जमीन खरीदना आदि पसंद नहीं करते थे । 2001 के आँकड़े के अनुसार अधिकतर जनजातियाँ कृषि कार्य ही करती हैं । पिछले दो सौ वर्षों में जनजातियों की जमीन उनसे छिनती जा रही है । गुजरात में गुजरात विद्यापीठ ने जब बनासकोट जिले के दो प्रखण्य का इस संदर्भ में अध्ययन किया तब पाया कि 50 % जमीन आदिवासियों के हाथों से छिन गह एसही अध्ययन मध्य प्रेदश वं मणिपर में भी किये गये वं उनके निष्कर्ष भी सम निकले । बी . ए . रथ ने यही कहा है कि भूमि – हरण की समस्या भारत में इतनी गंभीर नहीं है । भूमि हरण के कारण – आदिवासियों की जमीन उनसे अनेक कारणों माध्यमों और उपायों से छिनती रही

( 1 ) भूमिहरण का सबसे महत्वपूर्ण कारण गैर आदिवासी कृपक समडों का भूमि के प्रति लोभ रहा है । आदिवासी इलाकों में आदिवासियों को बहला – फुसला कर उनकी जमीन अपने नाम को लिखवाते है ।

( 2 ) सूदखोर महाजन एवं व्यापारियों के द्वारा भी आदिवासियों की जमीद बंधक पर रख कर कर्जा देकर , सामान के रदले जमीन लेकर छिनी जाती है । अंग्रेजों द्वारा आदिवासी इलाकों पर नियंत्रण के बाद यह काम बड़ी तेजी से हुआ । बहुधा आदिवासी अंग्रेजों से ज्यादा इन व्यापारी महाजनों के विरुद्ध थे जो हथियाने के माम में बड़े निरंकुश थे । बिहार , मध्य प्रदेश बम्बई आदि में 19वीं शताब्दी में इसी के चलते आदिवासी विद्रोह हुए ।

 ( 3 ) सरकारी अधिकारियों की बेरुखी वंशवतापर्ण रवैये ने भी आदिवासियों को भूमि से वंचित किया है जब भा आदिवासी अपनी जमीन हडपे जाने के विरुद्ध शिकायत करते है तो कोई कदम नहीं उठते है और व स्वयं जमीन हथिया लेते हैं ।

( 4 ) विकास कार्यक्रमों , बाँध निर्माण , कल – कारखानों के बनने से भी आदिवासियों को अपनी जमीन छोड़नी । पड़ती है । डी . के . रामवर्मन ने कहा कि आदिवासियों को हमेशा विकास कार्यक्रमों का शिकार होना पड़ है ! एल . पी . विद्यार्थी के अनुसार , रांची में भारी उद्योग के बनने से आदिवासियों को विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा । सत्यदेव दूबे के अनुसार , उतर – पूर्वी भारत में भी विकास कार्यक्रमों से उन्हें नुकसान ही हुआ है ।

 ( 5 ) नये धनी किसानों एवं व्यापारियों ने आदिवासी किसानों को उनकी जमीन से खदेड़ दिया है । स्तर प्रदेश में थारू किसानों को मुसलमान व्यापारियों ने , बिहार के चम्पारण में आन्ध्र जातीय किसानों ने आदिवासी जमीन पर कब्जा कर लिया है । कुमार सुरेश सिंह के अनुसार , भूमि हरण आदिवासियों की सबसे गंभीर समस्या है । अधिकतर मामलों में इसी कारण से आदिवासियों में असंतोष पनपा है । सरकार ने भूमि और राजस्व कानून में इसके चलते जो सुधार किया उससे भी लाभ नहीं हुआ है ।

 ऋण – ग्रस्तता – भूमि हरण से जुड़ी आदिवासियों को दूसरी समस्या ऋण – ग्रस्तता है । सामान्य तौर पर आधुनिक अर्थव्यवस्था से जुड़ने के कारण ऋण – ग्रस्तता की समस्या बढ़ गई है । आदिवासी मुख्य रूप से हाराब पीने के लिये और सूदखोरों के भूलावे के कारण ऋण लेते हैं । ऋण – ग्रस्तता की समस्या आदिवासियों की अशिक्षा एवं अज्ञानता से भी बढ़ जाती है । सूदखोर अधिकतर ऋण से ज्यादा रकम ऋण के रूप में लिखा लेते हैं । शराब के ठेकेदार एवं उनके दलाल भी ज्यार में शराब देकर उमको प्रलोभित करते हैं ।

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जंगल हरण – जनजातीय समुदाय जंगलों पर अपना पारम्परिक अधिकार समझते हैं । जंगल से उनका रिश्ता बड़ा घनिष्ठ रहा है । आजादी के बाद से जंगलों के सरकारी अधिग्रहण से जंगलों को ठेकेदारों के हवाले किये जाने से एवं जंगल के उपादनों का जैसे आम , कुसुम , करंज , तेंडूपत्ता आदि का व्यापार सरकार द्वारा अपना लिये जाने के कारण जनजातियों की आर्थिक स्थिति अति दयनीय हो गई है ।

पीने की लत – आदिवासियों के जीवन में मादक पेय आवश्यक अंग है । अंग्रेजों के आने के पहले वे स्वयं इसे बनाते और पीते थे । झारखण्ड , मध्य प्रदेश में हंडिया , आसाम में पोंग , नागालैण्ड , मिजोरम में ज , हिमाचल प्रदेश में लडकी आन्ध में कल्ही ऐसे ही नशीले पेय है इनको पीने से नशा तो आता है इसके साथ ही इससे उन्हें कुछ पौष्टिक तत्व भी मिल जाते थे । अंग्रेजों के जमाने में यहाँ शराब के ठेकेदारों को प्रवेश दिया गया जिन्होंने आदिवासियों को इस जोर आकर्षित किया । वैसे भी आदिवासी इलाकों में शेष इलाकों से तीन गुना ज्यादा देशी शराब की दकानें हैं । समाजशास्त्रियो ने इस समस्या का अध्ययन विस्तार से किया है । ग्रोगयन ने बस्तर जिले के अध्ययन के बाद कहा कि इससे उनकी अर्थव्यवस्था ही चरमरा गई है । निर्मल कुमार बोस ने शराब के ठेकेदारों को शोषण का एजेंट कहा है । क . एल . शर्मा के अनुसार , पीने की लत ठेकेदारों द्वारा बढ़ाई जाती है , ये धार में शराब देते हैं , मेलों में शराबबेचने की व्यवस्था करते हैं । इसलिये झार फतह । इसलिये झारखंड आंदोलन के नेताओं ने देशी शराब के स्थान पर हदिया बेचने को यह समस्या आंदोलन का हिस्सा बना दिया था । अनेक स्थल रहस्सा बना दिया था । अनेक स्थलों पर कागब बंद कर दी गई है इसके बावजूद समाप्त नहीं हुई है ।

अस्थिर खेती की प्रथा – अनेक जनजातिया खता खता की प्रथा – अनेक जनजातियाँ खेती की अस्थिर प्रणाली अर्थात एक स्थान पर जाकर वहां झाड़ियों को साफ करना , इन्हें जलाकर राख का बख करना , इन्हें जलाकर राख को बिखेर देता और फिर मामुली खुदाई के बाद बाज छिड़क देने की पर्वत चलाते हैं । उदाहरण के लिये चेंच , बीजो कोई इत्यादि । सर – पूर्वी भारत में पीडू कहा जाता है । भारत सरकार ने खेती की इस पिछड़ी तकनीक को 1954 में कानुन बनाकर प्रतिबन्धित कर दिया था ।

 वैरियर एलबिन के निवेदन पर इसे कुछ खास इलाकों में रहना न पर इस कुछ खास इलाकों में रहने दिया गया । यह सही है कि इसमें उपज कम् होती । है परन्तु इसे तत्काल बदल देना घातक सिद्ध हुआ है । दूसत्य जाए बदल दना घातक सिद्ध हुआ है । इसरी ओर एम . टी . चतुर्वेदी जे . पी . सिल्च आदि ने कहा । कि अस्थिर खेती समस्या नहीं है । बल्कि यह आदिवासियो क अनुपूर नहा बल्कि यह आदिवासियों के अनकल है । इसे सुधारने की जरूरत है । भरिया , लैगा आदि जनजातियों ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सामान्य तया ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सामान्य खेती में जिन उपकरणों की जरूरत पड़ती है उन्हें खरीदने की ताकत उनमें नहीं है । वे अस्थिर खेती ही कर सकते

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आदिवासियों में शिक्षा की समस्या- आदिवासियों बहुत हद तक यह समस्या सांस्कृतिक है आधुनिक शिक्षा का आदिवासी थालय विराध करते है क्योंकि आदिवासी इससे अपनी संस्कृति भल सकते है एवं आदिवासी समुदाय का सका । कारण दबदबा खत्म हो सकता है । भारत के उत्तर – पूर्व में ईसाई मिशन वालों ने अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार किया । आदिवासियों में शिक्षा की समस्या उनकी आर्थिक अवस्था से जड़ी है । एलः आर एन . श्रीवास्तव ने अपन । अध्ययन के बाद कहा कि आर्थिक गरीबी से आदिवासी अपने बच्चों को नहीं पदरते हैं । बी . डी . शमी ने कहा कि वर्तमान शिक्षा पद्धति शहरी मध्य वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई गई है । यह आदिवासियों के अनुकूल नहीं है । य . सेन ने भी इसे आदिवासियों के अनुकूल नहीं पाया । एस . एन . हथे के अनुसार , आदिवासी शिक्षा . लिए पर्याप्त साधन नहीं जुटाए गए है । इनमें साक्षरता का प्रतिशत बहत कम है एवं बीच में पढ़ाई छोड़ने वालों में स्त्रियों के बाद आदिवासियों का ही स्थान है ।

स्वास्थ्य की समस्या -यह आम धारणा है कि आदिवासियों का स्वास्थ्य बहुत खराब है । इनमें से बहुत लोग अर्से से घातक बीमारियों से पीड़ित है । इनमें स्वास्थ्य के प्रति सही दृफिकोण नहीं है एवं चाहने पर भी बहुत इन्हें सुविधाएँ मिल नहीं पाती हैं । इनकी जीवन प्रत्याशा सम भारतीयों से लगभग 20 वर्ष कम है । यू . एन . धेबर ने कहा कि सरकारी इंतजामों के बावजूद सही उपायों का अभाव , प्रशिक्षित लोगों की कमी , संचार की कमी और दवा की आपूर्ति नहीं होने से समस्याएँ बढ़ गई है ।

संचार की कमी – आदिवासी इलाके दूर – दराज के दुर्गम इलाके हैं । इसके कारण सुविधा , ज्ञान और समृद्धि इन तक नहीं पहुंच पाते जब भी अंग्रेजों को अथवा भारतीय शासकों को इन इलाकों से खनिज , लकड़ी अथवा अन्य उत्पादन निकालने की आवश्यकता होती थी तब यातायात के साधन विकसित किये जाते थे । इसके विपरीत आदिवासी अंचलों में यातायात के साधन विकसित होने से इनका शोपण और बढ़ गया है । एन . एन . रथ के अनुसार , यातायात की सुविधाओं ने आदिवासियों का शोषण और बढ़ा दिया है । उनकी राय में जनजातियों के इलाकों में अन्य लोगों के प्रवेश को नियंत्रित करना होगा । वी . डी . शर्मा के अनुसार , शोषण के भय से यातायात की सुविधाओं को कम करना गलत होगा । यातायात की सुविधा से विकास के रास्ते खलते है ।

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जनजातीय विशिष्ट समूह – विकास के परिणाम स्वरूप आदिवासियों में सामाजिक असमानता एवं शस्त्रीकरण का विकास हुआ है । इसके साथ – साथ उनमें एक छोटे परन्तु विशिष्ट समूह का विकास हुआ है । यह शिक्षा साधन एवं अन्य सुविधाओं से लैस है । यह नेतृत्व साधारण आदिवासियों के विकास से अधिक अपने साधनों को में लगा रहता है । अ . सच्चिदानंद के अनुसार , यह नेतृत्व सरकारी सुविधाओं एवं सहायता को उकार जाता है । ए . आर . कामथ के अनुसार इस विशिष्ट समूह के कारण आदिवासियों की समस्याएँ बढ़ जाती है । आदिवासियों की समस्या मूलतः भारतीय समाज में एकीकरण की है । यह समस्या अन्य समस्याओं से और अधिक गंभीर हो गई । समस्याओ ने जनजातियों में असतोप पदा किया है जिसके कारण जनजातीय पैदा हार है । ये आंदोलन अधिकतर अपेक्षित रूप से विकसित जनजातियों ने किये हैं अथवा कर रहे हैं । अभी तक भारत का जनजातीय समुदाय एक पिछड़ा एवं असंतुष्ट समुदाय है । ।

 भारतीय जनजातियों के विशेष लक्षण – जनजातीय आबादी पूरी दुनिया भर में ही फैली हुई है परन्तु भारत के आदिवासी विश्व के दूसरे आदिवासियों से अनेक मामलों में भिन्न हैं । वी . के . राय वर्मन का यह कथन भी सही है कि स्वयं भारत के आदिवासी भी ( क – दूसरे के समान नहीं हैं बल्कि में गंभीर आर्थिक भिन्नताएँ है । इसके । बावजूद भारतीय समाजशास्त्रियों और मानवशास्त्रियों ने जैसे टी . एम . मजूमदार , ए आर देसाई , आन्द्रेवते , अरूयप्यन आदि ने इनके सम्बन्ध में विशेष लक्षणों की चर्चा की है ।

 ( 1 ) भारत में आदिवासियों के आर्थिक लक्षण इस अर्थ में भिन्न है कि 2001 की जनगणना में अधिकांश लोगों । ने अपने को किसान ही कहा । परन्तु यह वास्तविकता है कि यद्यपि इनमें से कोई भी एक ही कार्य नहीं करता है परन्तु ज्यादातर लोग या तो शिकार करते हैं , कन्द – भूल जमा करते हैं , जैसे – बिरहोर । कुछ लोग पशु पालन करने हैं जिसमें टोय सबसे प्रमुख हैं । कुछ लोग शिल्प पर जीवित रहते हैं जैसे बदगा , आपातानी इत्यादि । कुछ लोग यद्यपि रहते तो एक ही जगह हैं परन्त जहाँ – जहाँ खेती करवाते हैं । जैसे – कमार , बैगा इत्यादि । अनेक बड़ी जनजातियां अब सुनिश्चित खेती करने लगी हैं और इसके परिणामस्वरूप संथाल , मुंड , भील , थारू कुछ विकसित किसानों के रूप में सामने आये हैं । मजूमदार के अनुसार , भारत में कोई भी जनजाति मछली मारने का धंधा नहीं करनी और अंडमान की इनमें से कोई भी जनजाति कोई एक ही आर्थिक गतिविधि नहीं करती है । अंग्रेजों के आने के पहले इनमें मुद्रा का प्रचलन नहीं थी और ये स्त्री – पुरुष के बीच श्रम – विभाजन करते थे ।

( 2 ) राजनीतिक संगठन की दृष्टि से यद्यपि अब सभी जनजातियाँ भारतीय प्रशासन के अधीन हैं परन्तु अभी भी अनेक जनजातियाँ अपना प्रशासन स्वयं चलाती हैं और वे सरदारों अथवा प्रमुख अथवा नायक के द्वारा प्रशासित हैं । अंडमान की कुछ जनजातियाँ तो अभी तक भारतीय प्रशासन में जुड़ने को तैयार नहीं हैं । आन्द्रे बेते के अनुसार भारत में जके एकीकरण के पहले प्रत्येक जनजाति अपने आप में एक राजनीतिक व्यवस्था थी और प्रत्येक जनजाति की अपनी राजनीतिक सीमाएँ होती थी । ।

( 3 ) सामाजिक संगठन की दृष्टि से भारतीय जनजातियों में कुल नातेदारी युवा संगठन आदि का बहुत महत्व है । इसके परिणामस्वरूप यद्यपि युवा संगठन बहुत कमजोर हो चुके हैं परन्तु अभी भी वे कहीं – कहीं मौजूद है जो सामाजिक संरचना की दृष्टि से सबसे विचित्र भी हैं और बहुत महत्वपूर्ण भी हैं ।

( 4 ) अभौतिक संस्कृति के क्षेत्र में ये प्रथाओं एवं प्राथमिक नियमों को मानने वाले हैं । इनके यहाँ जनमत का काफी महत्व है । ये जिस धर्म में विश्वास करते हैं उसके पालन के लिये न तो अलग से संगठन है और न ही इसका अलग स्वरूप है । जनजातीय समाज में जादू न केवल प्रतिष्ठित है बल्कि इसका निर्वाह बहत ही नियमित रूप से किया जा सकता है । ये लगभग सभी कार्यों के लिये जादू का प्रयोग करते हैं ।

( 5 ) भापा की दृष्टि से भारतीय जनजातियों में पहले कोई लिपि नही थी । पिछले कुछ दशकों में संथालों ने । औलचिकी लिपि का विकास किया है और गोंड लोगों ने गोंडी लिपि का विकास किया है । परन्त बोलियाँ सभी जनजातियों की एक – दूसरे से अलग हैं , इनके चरित्र के आधार पर इन्हें चार विभागों में बाँटा जाता है । एक को कहते हैं , इंडो – तिबेतन जो भौटिया , रियाम आदि जनजातियों के द्वारा बोली जाती है । दूसरी है , इंडो – चाइनिज जो मिकिर , बोदो , कयिअंग लोंग आदि के द्वारा बोली जाती है । तीसरी है , इंडो – सियामीज जो आपातानी और भारत के करेम लोग बोलते है । चौथी है , आस्ट्रिक बोली समूह जो भारत की सबसे अधिक जनजातियाँ बोलती है जैसे संथाल , हो , भील , बाली इत्यादि । दक्षिण भारत की जनजातियों मूल रूप से द्रविड़ समूह की बोली बोलती हैं । जैसे – ककम्बा , टोड , बदगा मालापथनम आदि । प्रजातीय दृष्टि से यद्यपि मानवशास्त्रियों में भी कुछ विवाद है परन्ता बी . एस . गुहा के अध्ययन के बाद इसमें कुछ स्पष्टता आयी है । उनके अनुसार , भारत में निग्रो प्रजाति के लोग भी है और दूसरों ने इसे सिद्ध किया कि अंडमान द्वीप समूह की अधिकतर जनजातियाँ उसी प्रजाति की और साथ – ही – साथ दक्षिण भारत की कुछ अन्य जनजातियों में भी ऐसी ही परिपाटी है । दसरा प्रजातीय समह प्रोटोस्टाल्वायट का है जो मध्य भारत की जनजातियों हैं , जैसे संथाल , मुंडा इत्यादि । मंगोल्चा प्रजाति को दो भागों में बाँय गया है । क को पैलियोमैगोल्चायट कहा जाता है जो स्तर पूर्वी भारत के जनजातियों की प्रजाति है और ,दूसरा टिवेटोमंगोल्चायड कहलाता है , जो उत्तर प्रदेश , हिमाचल पाल्यायड कहलाता है , जो उतर प्रदेश , हिमाचल प्रदेश , सिक्कम की अधिकतर जनजातियों की प्रजाति है । ये लक्षण व्यापक निकषों के रूप में ही दिये गये पाक रूप में ही दिये गये हैं और यह तय है कि अगर हम विस्तार मे जायेगे तो उससे आर यह तय अधिक भिन्नताएँ हमें मिलेंगी । जिक अन्य समूहों और समुदायों के समान जनजातीय समुदाय भी परिवर्तनों के समक्खीन है । अपनी शप अवस्था और पिछड़ेपन के कारण इनमें परिवर्तनों का यद्यपि भारतीय चरित्र ही है परन्तु इनमें भी पारंपरिक ह र Ceवन भाआधक हो रहे ह और आधनिकै परिवर्तन कम हो रहे हैं । उत्तर – पवी भारत का जनता उन्ध मानला में सबस अधिक विकसित है । दक्षिण भारत और अंडमान दीप समूह की जनजातिया गायकवाष्ट से अभी भी सबसे पिछड़ी हुई हैं ।

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भारत में सम्पूर्ण जनसंख्या का लगभग 8 . 2 % तथा बिहार में पूरी जनसंख्या का 0 . 91 % जनजातीय 4001 में लगभग भारतीय जनजातीय संख्या 84 , 326 , 000 थी । ये जनजातियाटवाभन्न प्रकारक समस्या का सामना कर रही हैं । नगरीकरण एवं औद्योगिकरण , हिन्दू धर्म एवं ईसाई धर्म का अपकासयाजनाय तथा भौगोलिक परिवेशवं बाहसंस्कृति से सम्पर्कके कारण ये जनजातियाँ संक्रमण के दौर से गुजर रही है और उन्हें विभिन्न सामाजिक – राजनीतिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है । उनके प्रति सरकार , जनसमूह , समाज सुधारक एवं मानवशास्त्री सभी जागरुक हैं और इन समस्याओं को पहचान कर उनके समाधान के लिए प्रयत्नशील हैं ।

मजूमदार एवं मदन का कहना है कि जनजातियों की समस्याओं को दो वर्गों में रखा जा सकता है । एक तो वे समस्यायें हैं जिनका सम्बन्ध केवल आदिवासियों से है । ।

 धूरिये के अनुसार जनजाति की समस्याओं को हम तीन बर्गों में रख सकते हैं

1 जनजातियों की समस्याएँ जो हिन्दू समाज में स्थान प्राप्त कर चुके हैं जैसे , राजगोण्ड आदि ।

2 . ऊन जातियों की समस्या जिन पर हिन्दुओं का मानसिक प्रभाव बढ़ रहा है ।

3 . वैसी जनजातियाँ जो इन प्रभावों से अलग है तथा परिवर्तन का विरोध करती है । जनजातियों के सामाजिक कल्याण के लिए सरकार एवं प्रशासन ने केन्द्रीय तथा राज्य स्तर पर विभिन्न कल्याण कार्यक्रम आरम्भ किए हैं । स्वतंत्राता प्राप्ति के पूर्व अंग्रेजी शासनकाल में Isolation या पृथक्करण की नीति थी । अतः जनजातीय कल्याण की और विशेष ध्यान नहीं दिया गया बल्कि उन पर राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न अधिक हुआ । जिसके विरोध में आदिवासियों ने विद्रोह भी किया लेकिन उन्हें निमर्मता से कुचला गया । स्वतंत्रता पश्चात एक धर्मनिरपेक्ष वेलफेयर स्टेट की स्थापना की गई और भारतीय सरकार ने जनजातियों तथा अन्य कमजोर वर्गों के स्थान के लिए विशेष योजनायें प्रारम्भ की । संविधान में जनजातियों के कल्याण एवं स्थान के लिए अनेक प्रकार के प्रावधान हैं ।

 सर्वप्रथम , समस्त भारत में जनजातियों की अनुसूची तैयार की गयी है । जिनमें लगभग 212 जनजातियाँ सम्मिलित हैं और उनके हितों की सुरक्षा तथा सामान्य कल्याण हेतु उन्हें कई प्रकार के अधिकार एवं सुविधायें प्रदान की गई है ।

 संविधान के अनुच्छेद 342 में एक Advisory council के संगठन की व्यवस्था है जो आदिवासी कल्याण की विभिन्न योजनाओं का निर्माण करती है और इसके लिए एक विशेष पदाधिकारी Commissionor for schedule tribe तथा अन्य सहायक अधिकारियों की नियुक्ति की व्यवस्था है ।

 संविधान के अनुच्छेद 16 ( क ) तथा अनुच्छेद 35 के अनुसार सार्वजनिक तथा सरकारी नौकरियों में आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है । अनुच्छेद 244 ( 2 ) की अनुसूची के अनुसार , जनजातिय क्षेत्रों में प्रशासक के लिए Autonomous Distinict तथा Autonomous Areas की स्थापना की व्यवस्था है जिनमें जिला समितियाँ और केन्द्रीय समितियाँ होंगी ।

इसके अतिरिक्त संविधान के चौथे भाग की धारा 46 के अनुसार , अनुसूचित जनजातियों की शिक्षा की ऊनति और आर्थिक जीवन में सुधार के लिए विशेष सुविधा प्रदान की गई है ।

सविधान के छठे भाग में आदिवासियों समस्याओं को ध्यान में रखते हार बिहार , मध्य प्रदेश तथा उड़ीसा में Tribal welfare मंत्रालय निर्माण करने काआदेश दिया गया था जो राज्य स्तर पर जनजातिय कल्याण की देख – देख करेगी । झारखण्ड विभाजन के बाद बिहार से Ministry of tribal welfare समाप्त करने की बात कही गई है ।

 भारतीय संविधान अनुच्छेद 23 के अनुसार , किसी व्यक्ति से जबरदस्ती काम लेना गैर कानूनी है तथा अनुच्छेद 27 में अल्पसंख्यक संस्कृति की रक्षा की व्यवस्था है । ये धारायें भी जनजातीय कल्याण की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माने जा सकते हैं और इससे भी इसके राजनीतिक , सामाजिक , आर्थिक आदि दशाओं में परिवर्तन आ सकती है ।

 संविधान में ही गईन सुविधाओं के अतिरिक्त भारत में अनुसूचित जनजातियों में सर्वमुखी विकास हेतु सरकार द्वारा कई योजनायें लागू की गयी हैं । आदिवासियों में राजनीतिक जागरूकता लाने के लिए तथा उन्हें राष्ट्रीय मुख्य धारा में सहभागी बनाने के लिए लोकसभा व विधानसभा में कुछ स्थान जनजातियों के लिए ही सुरक्षित है ।

लोकसभा के लिए 30 और विधान सभाओं के लिए लगभग 265स्थान अनुसूचित जनजातियों के लिए सुरक्षित है । स्थानीय स्तर पर भी क्षेत्रीय परिषद् , लोकल बोर्ड तथा ग्रामीण पंचायतों में उनके लिए स्थान सुरक्षित रखे गए हैं ।

 जनजातीय कल्याण के लिए विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में निश्चित अर्थ व्यय करने का प्रयत्न किया गया है । इन योजनाओं के दौरान विभिन्न कमिटि तथा आयोगों की स्थापना हुई है । जिसमें जनजातियों की समस्याओं के विभिन्न पक्ष स्पष्ट किर गाए हैं और उनके समाधान हेतु निश्चित एवं सही कदम उखये जा सकते है । पाँची पंचवर्षीय योजनाओं में भूमि हस्तांतरण , बन्धुआ मजदूर , ऋण ग्रस्तता , आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति तथा भूमि एवं वन आपादान की बिक्री को आदिवासियों को केन्द्रीय समस्या के रूप में स्वीकार किया गया था ।

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सामुदायिक विकास योजना के अन्तर्गत भी अविभाजित बिहार के विभिन्न जनजातीय क्षेत्रों में Tribal blocks खोले गए थे । इसके अन्तर्गत छोयनागपुर की अनेक जनजातियाँ लाभान्वित हुई थी ।

इसके साथ ही गृह मंत्रालय तथा सामुदायिक विकास मंत्रालय के सहयोग से जनजातीय क्षेत्रों में विभिन्न संगठन स्थापित किए गए थे । जो कृषि , सिंचाई , ऋण ग्रस्तता , गृह निर्माण आदि कई प्रकार की समस्याओं से संबंधित कल्याणकारी योजनायें लागू करनी थे ।

 शिक्षा के क्षेत्र में भी सरकार के द्वारा कई प्रकार की योजनायें लागू की गई हैं जिनमें आदिवासियों के लिए नये स्कूल खोलना , शिक्षा को निःशुल्क करना , विभिन्न विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में उनके नामाकरण एवं छात्रावास की व्यवस्था करना आदि सम्मिलित है । इस क्षेत्र में अन्य संस्थाओं के द्वारा भी महत्वपूर्ण कार्य किए गए हैं ।

आदिवासियों की समस्यायें मुख्यतः आर्थिक प्रवृत्ति की भी है । इस क्षेत्र में सरकार द्वारा मझ्चपूर्ण कार्य किए गए हैं । सर्वप्रथम , विभिन्न नौकरियों में इनके लिए आरक्षण की व्यवस्था है । आदिवासियों में भूमि संबंधी समस्याओं को ध्यान में रखते हुए सरकार ने कई ऐसे विधान लागू किार हैं जिससे उनकी समस्याओं का समाधान हो रहा है । आदिवासी क्षेत्रों में भूमि विक्रय पर रोक लगाकर छोटानागपुर के आदिवासियों को काफी राहत प्रदान की गई है । इस Act को Tenency act कहा जाता है ।

 आदिवासियों की दूसरी प्रमुख समस्या ऋण ग्रस्तता से सम्बन्धित है । इसके लिए पंचवर्षीय योजनाओं में सरकार ने विशेष ध्यान दिया है । विभिन्न पंचवर्षीय योजना कालों में भूमिहीन कृषकों को भूमि , बीज तथा अन्य प्रकार की सुविधायें प्रदान की गई हैं । साथ ही इन बातों के सर्वेक्षण की व्यवस्था भी की गई है कि इन योजनाओं पर पूरी तरह अमल हो पाए । कुछ जनजनतियों की प्रमुख समस्या स्थानांतरित कृषि से संबंधित है । इनके लिए पुनर्वास तथा स्थायी कृषि की दृष्टि से पंचवर्षीय योजनाओं में कई उपाय किए गए हैं । जैसे – आन्ध्र प्रदेश में Pilots farms और Agricultural demonstration units खोले गए हैं ।

आसाम में भूमि सुधार तथा नगदी फसलों का आरम्भ , कृषि औजारों तथा बीज आदि के लिए धन राशि का वितरण तथा पुनर्वास की योजनायें , उड़ीसा तथा त्रिपुरा में भूमि नियंत्रण योजनायें तथा बस्तियों के विकास आदि पर विशेष जोर दिया गया । इस दृष्टि से विभिन्न क्षेत्रों में बंजर भूमि में सुधार तथा सिंचाई की उपयुक्त व्यवस्थायें प्रदान की गई है । कुटीर उद्योगों के विकास तथा प्रशिक्षण केन्द्रों की व्यवस्था भी की गई है ।

जनजातीय क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की सहकारी समितियाँ जैसे – मजदूर समिति , marketing . consumer ‘ , co – oprative , labour co – oprative आदि की स्थापना की गयी है । इस तरह से भारतीय सरकार की ययोजनाएँ उचित माध्यमों के द्वारा भारतीय जनजातियों के बीच लायी जा रही हैं ।

जनजातियों के गृह समस्या तथा स्वास्थ्य समस्याको ध्यान में रखकर भा सरकारन कार का याजनाओं को ठग किया है । आदिवासियों के विकास के लिए Housing scheme लागू किये गए है । पहाड़िया , कालरा , बिरहोर आदि के लिए सरकार की ओर से गह आवास योजना के अन्तर्गत उन्हें सरकारी आवास प्रदान किया गया । साथ ही उन्हें घर बनाने हेतु कुछ आर्थिक सहायता भी प्रदान की गया है । स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी सरकार ने जनजातियों के कल्याण के लिए कई प्रकार की योजनायला का रजनमे मुफ्त चिकित्सा व्यवस्था टीका लगाना मात हवा और जनजातीय क्षेत्रों में चिकित्सकों की नियुक्ति आदि सम्मिलित है । सरकारी प्रयासों के फलस्वरूप ही टोय जनजाति नष्ट होने से बच गया है । सक्षप में , भारत सरकार ने जनजातियों के कल्याण हेत विभिन्न प्रकार की योजनायें कार्यान्वित की है । ।

 Prof . A . R . Desai ने मुख्य प्रयासों को निम्न रूप में प्रस्तुत किया है । _ _

 1 जनजातीय विकास के लिए Multi purpose blocks की स्थापना ।

2 . उनके रोजगार के लिए कुटीर एवं ग्रामीण उद्योगों का विकास एवं प्रशिक्षण , उत्पादन केन्द्रों को खोलना । तथा अनुदान प्रदान करना । ।

 3 . जनजातियों के लिए विशेषकर खादाबदोश एवं shifty cultivators के लिए बस्तियों का निर्माण एवं । पुनर्वास की योजना लागू करना । ।

 4 . शैक्षणिक सुविधायें तथा छात्रवृत्तियाँ आदि प्रदान करना ।

 5 . नौकरियों में आरक्षण आदि ।

 6 . ऋण ग्रस्तता के निदान के लिए महाजनों पर मनमानी ब्याज लेने पर प्रतिबन्ध ।

7 . सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित करने के लिए Tribal culture institution की स्थापना ।

8 . विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी योजनायें लागू करना ।

9 . इन योजनाओं को कार्यान्विति तथा मूल्यांकन करने के लिए Tribal walfare institute तथा विभिन्न प्रकार की कमिटियों का गठन आदि । । इस प्रकार वर्तमान समय में भारतीय सरकार द्वारा जनजातियों के कल्याण के लिए हर संभव प्रयत्न किया । जा रहा है । जिसके कारण उनके सामाजिक और आर्थिक जीवन में सुधार हो रहा है और जनजातियाँभी उन परिवर्तनों को तथा योजनाओं को स्वीकार कर रही हैं । इन योजनाओं का एक प्रभाव यह भी पड़ रहा जनजातीय एवं गैर जनजातीय जनसंख्या के बीच सामाजिक दूरी कम हो रही है और वे राष्ट्रीय मल्ल्यधारा में । सम्मिलित हो रही है । समीकरण की यह प्रक्रिया जनजातियों तथा राष्ट्र दोनों के लिए लाभदायक सिद्ध होगी । ऐसी आशा की जाती है ।

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सामान्यतः अनुसूचित जातियों को अस्पृश्य जातियां भी कहा जाता है । अस्पृश्यता समाज की वह व्यवस्था है जिसके कारण एक समाज दूसरे समाज को परम्परा के आधार पर छू नहीं सकता , यदि छूता है तो स्वयं अपवित्र हो जाता है और इस अपवित्रता से छूटने के लिये उसे किसी प्रकार का प्रायश्चित करना पड़ता है । अतः इनकी परिभाषा अस्पृश्यता के आधार पर की गयी है । साधारणतः अनुसूचित जाति का अर्थ उन जातियों से लगाया जाता है जिन्हें धार्मिक , सामाजिक , आर्थिक और राजनैतिक सुविधाएं दिलाने के लिए जिनका उल्लेख संविधान की अनुसूची में किया गया है । इन्हें अछूत जातियां , दलित वर्ग , बाहरी जातियां और हरिजन , आदि नामों से भी पुकारा जाता है । अनुसूचित जातियों को ऐसी जातियों के आधार पर परिभाषित किया गया है जो घृणित पेशों के द्वारा अपनी आजीविका अर्जित करती हैं , किन्तु अस्पृश्यता के निर्धारण का यह सर्वमान्य आधार नहीं है । अस्पृश्यता का सम्बन्ध प्रमुखतः पवित्रता एवं अपवित्रता की धारणा से है ।

हिन्दू समाज में कुछ व्यवसायों या कार्यों को पवित्र एवं कुछ को अपवित्र समझा जाता रहा है  । यहां मनुष्य या पशु – पक्षी के शरीर से निकले हुए पदार्थों को अपवित्र माना गया है । ऐसी दशा में इन पदार्थों से सम्बन्धित व्यवसाय में लगी जातियों को अपवित्र समझा गया और उन्हें अस्पृश्य कहा गया । अस्पृश्यता समाज की एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों के व्यक्ति सवर्ण हिन्दुओं को स्पर्श नहीं कर सकते । – अस्पृश्यता का तात्पर्य है ‘ जो छूने योग्य नहीं है । ‘ अस्पृश्यता एक ऐसी धारणा है जिसके अनुसार एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को छूने , देखने और छाया पड़ने मात्र से अपवित्र हो जाता है । सवर्ण हिन्दुओं को अपवित्र होने से बचाने के लिए अस्पृश्य लोगों के रहने के लिए अलग से व्यवस्था की गयी , उन पर अनेक निर्योग्यताएं लाद दी गयीं और उनके सम्पर्क से बचने के कई उपाय किये गये । अस्पृश्यों के अन्तर्गत वे जातीय समूह आते हैं जिनके छूने से अन्य व्यक्ति अपवित्र हो जायें और जिन्हें पुनः पवित्र होने के लिए कुछ विशेष संस्कार करने पड़ें । इस सम्बन्ध में

 डॉ . के . एन . शर्मा ने लिखा है , ” अस्पृश्य जातियां वे हैं जिनके स्पर्श से एक व्यक्ति अपवित्र हो जाय और उसे पवित्र | होने के लिए कुछ कृत्य करने पड़ें । आर . एन . सक्सेना ने इस बारे में लिखा है कि यदि ऐसे लोगों को अस्पृश्य माना जाय जिनके छूने से हिन्दुओं को शुद्धि करनी पड़े तो ऐसी स्थिति में हट्टन के एक उदाहरण के अनुसार ब्राह्मणों को भी अस्पृश्य मानना पड़ेगा क्योंकि दक्षिण भारत में होलिया जाति के लोग ब्राह्मण को अपने गांव के बीच से नहीं जाने देते हैं और यदि पहचली जाता है तो वे लोग गांव की शुद्धि करते हैं ।

हट्टन ने उपर्युक्त कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए कुछ ऐसी निर्योग्यताओं का उल्लेख किया है जिनके आधार पर अस्पृश्य जातियों के निर्धारण का प्रयत्न किया गया है । आपने उन लोगों को अस्पृश्य माना है जो ( अ ) उच्च स्थिति के ब्राह्मणों की सेवा प्राप्त करने के अयोग्य हों , ( ब ) सवर्ण हिन्दुओं की सेवा करने वाले नाइयों , कहारों तथा दर्जियों की सेवा पाने के अयोग्य हो , ( स ) हिन्दू मन्दिरों में प्रवेश प्राप्त करने के अयोग्य हों , ( द ) सार्वजनिक सुविधाओं ( पाठशाला , सड़क तथा कुआं ) को उपयोग में लाने के अयोग्य हों , और ( य ) घणित पेशे से पृथक् होने के अयोग्य हों । सारे देश में अस्पश्यों के प्रति एकसा व्यवहार नहीं पाया जाता और न ही देश के विभिन्न भागों में अस्पृश्यों के सामाजिक स्तर में समानता पायी जाती है । अतः हट्टन द्वारा दिये गये उपर्युक्त आधार भी अन्तिम नहीं हैं ।

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 डॉ . डी . एन . मजूमदार के अनुसार , “ अस्पृश्य जातियां वे हैं जो विभिन्न सामाजिक एवं राजनीतिक निर्योग्यताओं से पीड़ित हैं , जिनमें से बहुत – सी निर्योग्यताएं उच्च जातियों द्वारा परम्परागत रूप से निर्धारित और सामाजिक रूप से लागू की गयी हैं । ” स्पष्ट है कि अस्पृश्यता से सम्बन्धित कई निर्योग्यताएं या समस्याएं हैं जिनका आगे उल्लेख किया गया है ।

” रामगोपाल सिंह का कथन है कि “ अस्पृश्यता की मनोवृत्ति जाति से नहीं , अपितु परम्परागत घृणा और पिछड़ेपन के दृष्टिकोण से संबद्ध है । ” इसीलिये डी . एन . मजूमदार के शब्दों में “ अस्पृश्य जातियाँ वे हैं , जो विभिन्न सामाजिक व राजनैतिकं निर्योग्यताओं से पीड़ित हैं जिनमें से अधिकतर निर्योग्यताओं को परम्परा द्वारा निर्धारित करके सामाजिक रूप से उच्च जातियों द्वारा लागू किया गया है ।

 ” कैलाशनाथ शर्मा के अनुसार “ अस्पृश्य जातियाँ वे हैं जिनके स्पर्श से एक व्यक्ति अपवित्र हो जाये और उसे पवित्र होने के लिये कुछ कृत्य करना पड़े । ” स्पष्ट है कि अस्पृश्यता समाज की निम्न जातियों के व्यक्तियों की सामान्य निर्योग्यताओं से सम्बन्धित है , जिस कारण इन जातियों को अपवित्र समझा जाता है तथा उच्च एवं स्पृश्य जातियों द्वारा इनका स्पर्श होने पर प्रायचित करना पड़ता है । यद्यपि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात अस्पृश्यता को सामाजिक अपराध के रूप में स्वीकार करते हए अस्पृश्यता की भावना को प्रतिबन्धित कर दिया गया है तथा इस सम्बन्ध में ‘ अस्पृश्यता – निवारण अधिनियम – 1955 ‘ को लागू किया गया है ।

 

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अनुसूचित जातियों की समस्याएं :

  धार्मिक निर्योग्यताएं ( Religious Disabilities )  मन्दिर – प्रवेश व पवित्र स्थानों के उपयोग पर प्रतिबन्ध अस्पश्यों को अपवित्र माना गया और उन पर अनेक निर्योग्यताएं लाद दी गयीं । इन लोगों को मन्दिर प्रवेश पवित्र नदीघाटों के उपयोग , पवित्र स्थानों पर जाने तथा अपने ही घरों पर देवी – देवताओं की पूजा करने का अधिकार नहीं दिया गया । इन्हें वेदों अथवा अन्य धर्म – ग्रन्थों के अध्ययन एवं श्रवण की आज्ञा नहीं दी गयी । इन्हें अपने सम्बन्धियों के शव सार्वजनिक शमशान घाट पर जलाने की भी स्वीकृति नहीं दी गयी ।

  धार्मिक सुख – सुविधाओं से वंचित – अस्पृश्यों को सब प्रकार की धार्मिक सुविधाओं से वंचित कर दिया गया । यहां तक कि सवर्ण हिन्दुओं को आदेश दिये गये कि वे अपने धार्मिक जीवन से अस्पृश्यों को पृथक् रखें । मनुस्मृति में बतलाया गया है कि अस्पृश्य को किसी प्रकार की कोई राय न दी जाय , न ही उसे भोजन का शेष भाग ही दिया जाये , न ही उसे देवभोग का प्रसाद ही मिले , न उसके समक्ष पवित्र विधान की व्याख्या ही की जाय , न उस पर तपस्या का प्रायश्चित का ही भार डाला जाये . . . . वह , जो किसी ( अस्पृश्य के लिए ) पवित्र विधान की व्याख्या करता है अथवा उसे तपस्या या प्रायश्चित करने को बाध्य करता है , उस ( अस्पृश्य ) के साथ स्वयं भी असंवृत नामक नरक में डूब जायेगा । अस्पृश्य लोगों को पूजा , आराधना , भगवत भजन , कीर्तन , आदि का अधिकार नहीं दिया गया है । ब्राह्मणों को इनके यहां पूजा , श्राद्ध तथा यज्ञ , आदि कराने की आज्ञा नहीं दी गयी है ।

 धार्मिक संस्कारों के सम्पादन पर प्रतिबन्ध – अस्पृश्यो को जन्म से ही अपवित्र माना गया है और इसी कारण इनके – शुद्धिकरण के लिए संस्कारों की व्यवस्था नहीं की गयी है । शुद्धिकरण हेतु धर्म – ग्रन्थों में सोलह प्रमुख संस्कारा

का उल्लेख मिलता है । इनमें से अधिकांश को पूरा करने का अधिकार अस्पृश्यों को नहीं दिया गया है । इन्हें विद्यारम्भ , उपनयन और चूडाकरण जैसे प्रमुख संस्कारों की आज्ञा नहीं दी गयी है ।

 सामाजिक निर्योग्यताएं ( Social Disabilities ) अस्पृश्यों की अनेक सामाजिक निर्योग्यताएं रही हैं जिनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं :

 सामाजिक सम्पर्क पर रोक अस्पृश्यों को सवर्ण हिन्दुओं के साथ सामाजिक सम्पर्क रखने और उनके सम्मेलनों , गोष्ठियों , पंचायतों , उत्सवों एवं समारोहों में भाग लेने की आज्ञा नहीं दी गयी । उन्हें उच्च जाति के हिन्दुओं के साथ खान – पान का सम्बन्ध रखने से वंचित रखा गया है । अस्पृश्यों की छाया तक को अपवित्र माना गया और उन्हें सार्वजनिक स्थानों के उपयोग की आज्ञा नहीं दी गयी । उनके दर्शनमात्र से सवर्ण हिन्दुओं के अपवित्र हो जाने की आशंका से अस्पृश्यों को अपने सब कार्य रात्रि में ही करने पड़ते । दक्षिण भारत में कई स्थानों पर तो इन्हें सड़कों पर चलने तक का अधिकार नहीं दिया गया । मनुस्मृति में बताया गया है कि चाण्डालों या अस्पृश्यों का विवाह एवं सम्पर्क अपने बराबर वालों के साथ ही हो तथा रात्रि के समय इन्हें गांव या नगर में विचरण करने का अधिकार नहीं दिया जाये ।

 सार्वजनिक वस्तुओं के उपयोग पर प्रतिबन्ध – अस्पृश्यों को अन्य हिन्दुओं के द्वारा काम में लिये जाने वाले कुओं से पानी नहीं भरने दिया जाता , स्कूलों में पढ़ने एवं छात्रावासों में रहने नहीं दिया जाता था । इन लोगों को उच्च जातियों द्वारा काम में ली जाने वाली वस्तुओं का प्रयोग नहीं करने दिया जाता था । ये पीतल तथा कांसे के बर्तनों का प्रयोग नहीं कर सकते थे , अच्छे वस्त्र एवं सोने के आभूषण नहीं पहन सकते थे । दुकानदार इन्हें खाना नहीं देते , धोबी इनके कपड़े नहीं धोते , नाई बाल नहीं बनाते और कहार पानी नहीं भरते । इन्हें अन्य सवर्ण हिन्दुओं की बस्ती या मोहल्ले में रहने की आज्ञा भी नहीं थी । धर्म – ग्रन्थों में बतलाया गया है कि चाण्डालों एवं श्वपाकों का निवास स्थान गांव के बाहर होगा , ये अपात्र होंगे तथा कुत्ते एवं खच्चर ही उनका धन होंगे । इस सम्बन्ध में मनुस्मृति में कहा गया है कि मृत व्यक्ति के वस्त्र या पुराने चीथड़े ही इनके कपड़े हों , मिट्टी के टूटे हुए टुकड़े इनके बर्तन हों , यह लोग लोहे इवें और रात – दिन भ्रमण करते रहें । जन सम्बन्धी सुविधाओं से वंचित न केवल अस्पृश्यों को बल्कि शूद्रों तक को शिक्षा प्राप्त करने की स्याएं , संवैधानिक व्यवस्थाएं तथा कल्याण योजनाएं 425 – 17 आज्ञा नहीं दी गयी । इन्हें चौपालों , मेलों तथा हाटों में शामिल होकर अपना मनोरंजन करने का अधिकार नहीं दिया गया । परिणाम यह हुआ कि समाज का एक बड़ा वर्ग निरक्षर रह गया ।

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  अस्पृश्यों के भीतर भी संस्तरण ( Hierarchy ) – एक आश्चर्यजनक बात तो यह है कि स्वयं अस्पृश्यों में भी संस्तरण की प्रणाली अर्थात् ऊंच – नीच का भेदभाव पाया जाता है । ये लोग तीन सौ से अधिक उच्च एवं निम्न जातीय समूहों में बंटे हुए हैं जिनमें से प्रत्येक समूह की स्थिति एक – दूसरे से ऊंची अथवा नीची है । इस सम्बन्ध में के . एम . पणिक्कर का कहना है कि ” विचित्र बात यह है कि स्वयं अछूतों के भीतर एक पृथक् जाति के समान संगठन था । . . . . सवर्ण हिन्दुओं के समान उनमें भी बहुत उच्च और निम्न स्थिति वाली उपजातियों का संस्तरण था , जो एक – दूसरे से श्रेष्ठ होने का दावा करती थीं । पा

 अस्पृश्य एक पृथक् समाज के रूप में एक पृथक् समाज के रूप में अस्पृश्यों को अनेक निर्योग्यताओं से पीड़ित रहना पड़ा है । इस बारे में डॉ . पणिक्कर ने लिखा है , ” जाति – व्यवस्था जब अपनी यौवनावस्था में क्रियाशील थी , उस समय इन अस्पृश्यों ( पंचम वर्ण ) की स्थिति कई प्रकार से दासता से भी खराब थी । दास कम से कम एक स्वामी के ही अधीन होता था और इसलिए उसके अपने स्वामी के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध होते थे , लेकिन अस्पृश्यों के परिवार पर तो गांव भर की दासता का भार होता था । व्यक्तियों को दास रखने की बजाय , प्रत्येक ग्राम के साथ कुछ अस्पृश्य परिवार एक किस्म की सामूहिक दासता के रूप में जुड़े हुए थे । ‘ उच्च ‘ जातियों का कोई व्यक्ति किसी भी अस्पृश्य के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं रख सकता था । “

 आर्थिक निर्योग्यताएं ( Economic Disabilities )अस्पृश्यों को वे सब कार्य सौंपे गये जो सवर्ण हिन्दुओं के द्वारा नहीं किये जाते थे । आर्थिक निर्योग्यताओं के कारण अस्पृश्यों की आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय हो गयी कि इन्हें विवश होकर सवर्णों के झूठे भोजन , फटे – पुराने वस्त्रों एवं त्याज्य वस्तुओं से ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी पड़ी । इनकी आर्थिक निर्योग्यताएं इस प्रकार हैं :

 व्यावसायिक निर्योग्यता – अस्पृश्यों को मल – मूत्र उठाने , सफाई करने , मरे हुए पशुओं को उठाने और उनके चमड़े से वस्तुएं बनाने का कार्य ही सौंपा गया । इन्हें खेती करने . व्यापार चलाने या शिक्षा प्राप्त कर नौकरी करने का अधिकार नहीं दिया गया । ये लोग ग्रामों में अधिकतर भूमिहीन  ” श्रमिकों के रूप में कार्य करते हैं । इन लोगों पर यह निर्योग्यताएं

 लाद दी गयीं कि ये अपने परम्परागत पेशे को छोड़कर किसी अन्य पेशे को नहीं अपना सकते हैं ।

 सम्पत्ति सम्बन्धी निर्योग्यता — व्यावसायिक निर्योग्यता के अलावा इन्हें सम्पत्ति सम्बन्धी निर्योग्यता से भी पीड़ित रहना पड़ा । इन्हें भूमि – अधिकार तथा धन – संग्रह की आज्ञा नहीं दी गयी । मनुस्मृति में बतलाया गया है , “ अस्पृश्य व्यक्ति को धन – संचय कदापि नहीं करना चाहिए , चाहे वह ऐसा करने में समर्थ ही क्यों न हो , क्योंकि धन संचित करके रखने वाला शूद्र ब्राह्मणों को पीड़ा पहुंचाता है । अन्यत्र यूह भी बतलाया गया है कि ब्राह्मण अपनी इच्छा से अपने शूद्र सेवक की सम्पत्ति जब्त कर सकता है क्योंकि उसे सम्पत्ति रखने का अधिकार ही नहीं है । अस्पृश्यों को दासों के रूप अपने स्वामियों की सेवा करनी पड़ती थी , चाहे प्रतिफल के रूप में उन्हें कितना ही कम क्यों न दिया जाय । अस्पृश्यों की सम्पत्ति सम्बन्धी निर्योग्यता से ही द्रवित हो आचार्य विनोबा भावे ने इनके लिए ‘ भूदान ‘ आन्दोलन चलाया ।

भरपेट भोजन की सुविधा भी नहीं ( आर्थिक शोषण ) अस्पृश्यों का आर्थिक दृष्टि से शोषण हुआ है । उन्हें घृणित से घृणित पेशों को अपनाने के लिए बाध्य किया गया और बदले में इतना भी नहीं दिया गया कि वे भरपेट भोजन भी कर सकें । उनकी महत्वपूर्ण सेवाओं के बदले में समाज ने उन्हें शेष झूठा भोजन , त्याज्य वस्तुएं और फटे – पुराने वस्त्र दिये । हिन्दुओं ने धर्म के नाम पर अपने इस सारे व्यवहार को उचित माना और अस्पृश्यों को इस व्यवस्था से सन्तुष्ट रहने के लिए बाध्य किया । उन्हें कहा गया कि इस जन्म में अपने दायित्वों का ठीक प्रकार से पालन नहीं करने पर अगला जीवन और भी निम्न कोटि का होगा । इस प्रकार अस्पृश्यों को आर्थिक शोषण का शिकार होना पड़ा ।

  राजनीतिक निर्योग्यताएं ( Political Disabilities ) अस्पृश्यों को राजनीति के क्षेत्र में सब प्रकार के अधिकारों से वंचित रखा गया है । उन्हें शासन के कार्य में किसी भी प्रकार का कोई हस्तक्षेप करने , कोई सुझाव देने , सार्वजनिक सेवाओं के लिए नौकरी प्राप्त करने या राजनीतिक सुरक्षा प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं दिया गया । अस्पृश्यों को कोई भी अपमानित कर सकता और यहां तक कि पीट भी सकता था । ऐसे व्यवहारों के विरुद्ध उन्हें सुरक्षा प्राप्त नहीं थी । उनके लिए । सामान्य अपराध के लिए भी कठोर दण्ड की व्यवस्था थी । दण्ड की विभेदकारी नीति का मनुस्मृति में स्पष्ट उल्लेख मिलता है । _ _ _ _ इस ग्रन्थ में बताया गया है कि जहां ब्राह्मण , क्षत्रिय एवं वैश्य के लिए क्रमशः सत्य , शस्त्र तथा गऊ के नाम पर शपथ लेने का विधान रखा गया , वहीं अस्पृश्यों के लिए न्याय देने के पूर्व ही . केवल शपथ के रूप में आठ अंगुल लम्बा – चौड़ा गरम लोहा हाथ में लेकर सात पग चलने की व्यवस्था की गयी । मादण्ड की कठोरता का इसी बात से पता चलता है कि मनु ने बतलाया है कि निम्न वर्ण का मनुष्य ( शूद्र अथवा अस्पृश्य ) अपने जिस अंग से उच्च वर्ण के व्यक्तियों को चोट पहुंचाये , उसका वह अंग ही काट डाला जायेगा । . . . . . . . . वह , जो हाथ या डण्डा उठायेगा , उसका हाथ काट लिया जायेगा । स्पष्ट है कि अस्पृश्यों की अनेक राजनीतिक निर्योग्यताएं रही हैं । अस्पृश्यों की उपर्युक्त निर्योग्यताएं मध्यकालीन सामाजिक व्यवस्था से विशेष रूप से सम्बन्धित हैं ।

 वर्तमान में अस्पृश्यों की समस्या प्रमुखतः सामाजिक और आर्थिक हैं न कि धार्मिक और राजनीतिक । इतने लम्बे समय से सब प्रकार के अधिकारों से वंचित , निरक्षर तथा चेतना शून्य होने के कारण इनकी स्थिति में सुधार होने में कुछ समय लगेगा । इनके प्रति लोगों की मनोवृत्ति धीरे – धीरे बदलेगी और कालान्तर में ये सामाजिक जीवन का मुख्य धारा में प्रवाहित हो सकेंगे । अस्पृश्यों की निर्योग्यताए नगरों में समाप्त – सी होती जा रही हैं , परन्त ग्रामों में आज भा दिखलायी पड़ती हैं । इसका प्रमुख कारण यही है कि ग्रामा म – सामाजिक परिवर्तन की गति धीमी है , रूढ़िवादिता का अभी – भी वहां बोलबाला है ।

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अनुसूचित जनजातियों की समस्याएं

 दुर्गम निवास स्थान एक समस्या ( Unapproach able Habitation – A Problem ) लगभग सभी जनजातियां पहाडी भागों , जंगलों , दलदल – भूमि और ऐसे स्थानों में निवास करती हैं जहां सड़कों का अभाव है और वर्तमान यातायात एवं संचार के साधन अभी वहां उपलब्ध नहीं हो पाये हैं । इसका परिणाम यह हुआ है कि उनसे सम्पर्क करना एक कठिन कार्य हो गया है । यही कारण है कि वैज्ञानिक आविष्कारों के मधुर फल से वे अभी अपरिचित ही हैं और उनकी आर्थिक , शैक्षणिक , स्वास्थ्य सम्बन्धी एवं राजनीतिक समस्याओं का निराकरण नहीं हो पाया है । वे अन्य संस्कृतियों से भी अपरिचित हैं । परिणामस्वरूप उनका अपना विशिष्ट जीवन – दृष्टिकोण ( Way of Life ) बन गया है जिसमें व्यापकता का अभाव है । दुर्गम निवास के कारण संचार की समस्या पैदा हुई है । सड़क , डाकखाना , तारघर , टेलीफोन , समाचारपत्र , रेडियो और सिनेमा की सुविधाएं इन क्षेत्रों में नहीं पहुंच पायी हैं , अतः इनका । आधुनिकीकरण नहीं हो पाया है और देश के साथ एकता के सूत्र में बंध पाने में बाधा उपस्थित हुई है ।

 सांस्कृतिक सम्पर्क की समस्या ( Problem of Cultural Contact ) भौगोलिक दृष्टि से आदिवासियों का निवास स्थान दुर्गम होने के परिणामस्वरूप उनका आधुनिक सस्कृति से सम्पर्क नहीं हो पाया और वे वर्तमान प्रगति की दौड़ में बहुत पिछड़ी हुई हैं । दूसरी ओर कुछ आदिवासी संस्कृतियों का बाह्य सस्कृतियों से सम्पर्क बहत हुआ । इस अत्यधिक सम्पर्क ने भी कई समस्याएं खड़ी कर दी हैं । आदिवासियों में सांस्कृतिक सम्पर्क की समस्याओं को जन्म देने हेतु कई कारण उत्तरदायी हैं । नवीन संस्कृतियों के सम्पर्क ने भोले आदिवासियों को अपनी । आकर्षित किया . किन्त आदिम एवं नवीन संस्कृतियों के अन्तर है कि वे नवीन से अनुकूलन नहीं कर पाये । बाह्य स्वार्थी समूह जैसे व्यापारी , ठेकेदार एवं सूदखोरों ने इन लोगों में बसकर इनके बीच नवीन पारिवारिक तनावों , आर्थिक समस्याओं और शारीरिक रोगों को जन्म दिया है । नवीन प्रशासन ने उनका सम्पर्क पुलिस अधिकारियों , प्रशासन एवं वन अधिकारियों , आदि से कराया , जिन्होंने आदिवासियों को सहानुभूति से देखने की अपेक्षा हीन भावना से देखा है । वर्तमान में कई नये उद्योग – धन्धों , खानों एवं चाय – बागानों का कार्य उन स्थानों पर होने लगा है , जहां आदिवासी लोग निवास करते थे । इसके फलस्वरूप वे नवीन औद्योगिक एवं शहरी संस्कृति के सम्पर्क में आये , किन्तु इस नवीनता से अनुकूलन करने में वे असमर्थ रहे . परिणामस्वरूप नवीन सांस्कतिक समस्याओं ने जन्म लिया । ईसाई मिशनरियों ने सेवा के नाम पर अपने धर्म प्रचार का कार्य किया और आदिवासियों के अज्ञान और अशिक्षा का लाभ उठाया । ईसाई मिशनरियों के प्रभाव के कारण अनेक आदिवासियों ने अपनी संस्कृति को त्यागकर पाश्चात्य संस्कृति को अपनाया । वे अंग्रेजी पोशाक , मादक वस्तुएं , प्रसाधन के नवीन साधनों जैसे पाउडर , लिपिस्टिक , इत्र , तेल , आदि का प्रयोग करने लगे एवं अपने रति – रिवाजों , प्रथाओं , युवा – गृहों को त्यागने लगे और उनकी प्राचीन ललित कला का ह्रास होने लगा ।

जनजाति कानून एवं न्याय का स्थान नवीन कानून एवं न्याय ने ले लिया है जो उनके परम्परात्मक मूल्यों से मेल नहीं खाते । बाह्य सांस्कृतिक समूह जिनका सम्पर्क आदिवासियों से हुआ , उनमें हिन्दू भी हैं । हिन्दुओं के सम्पर्क के कारण इन लोगों में बाल – विवाह की प्रथा पनपी एवं भाषा की समस्या ने जन्म लिया । इस प्रकार आदिवासियों के बाह्य सांस्कृतिक समूहों से सम्पर्क के कारण अनेक समस्याएं पनपी जैसे भूमि व्यवस्था की समस्या , जंगल की समस्या , आर्थिक शोषण एवं ऋणग्रस्तता , औद्योगिक श्रमिकों की समस्या , बाल – विवाह , वेश्यावृत्ति एवं गुप्त रोग , भाषा समस्या , जनजातीय ललित – कला का ह्रास , खान – पान एवं पहनावे की समस्या और शिक्षा एवं धर्म की समस्या , आदि – आदि ।

 आर्थिक समस्याएं ( Economic Problems ) वर्तमान सांस्कृतिक सम्पर्क के कारण एवं नवीन सरकारी नीति के कारण जनजातीय लोगों को आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है । भूमि सम्बन्धी सरकार की नयी नीति के कारण जंगलों को काटना मना कर दिया गया , अनेक क्षेत्रों में शिकार करने व शराब बनाने पर भी नियन्त्रण लगा दिया गया , जिसके कागा आदिवासियों को जीवनयापन के परम्परात्मक तरीकों के स्थान पर नवीन तरीके अपनाने पड़े । उन्हें जंगलों से लकड़ी काटने , स्थानान्तरित खेती करने एवं अन्य वस्तुओं को प्राप्त करने की मनाही कर दी गयी । वे बाध्य होकर अपने मूल निवास को त्याग कर चाय बागानों , खानों और फैक्ट्रियों में कार्य करने के लिए चले गये । अब वे भूमिहीन कृषि श्रमिकों एवं औद्योगिक श्रमिकों के रूप में कार्य करने लगे । इन लोगों की मजबूरी का लाभ उठाकर ठेकेदार एवं उद्योगपति इनसे कम मजदूरी पर अधिक काम लेने लगे । इन लोगों के निवास और कार्य करने की दशाएं भी शोचनीय हैं । इस प्रकार से इनका आर्थिक शोषण किया गया है । पहले इन लोगों की अर्थव्यवस्था में वस्तु विनिमय प्रचलित था , अब वे मुद्रा अर्थव्यवस्था से परिचित हुए । इसका लाभ व्यापारियों , मादक वस्तुओं के विक्रेताओं और सूदखोरों ने उठाया और भोले – भाले आदिवासियों को खुब ठगा । वे ऋणग्रस्त हो गये और अपनी कृषि भूमि साहूकारों के हाथों या तो बेच दी है या गिरवी रख दी है । जो जनजातियां कषि में लगी हुई हैं , उनमें से कछ स्थानान्तरित कृषि करती हैं । वे पहले जंगलों में आग लगा देते हैं और फिर उस भूमि पर कार्य करते हैं । कुछ दिनों बाद वह भूमि खेती योग्य नहीं रहती तो उसे छोड़कर दूसरे स्थान पर र भी इसी प्रकार से कृषि करते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि भूमि का कटाव बढ़ जाता है , जंगलों में कीमती लकड़ी जल जाती है और उपज भी कम होती है । जनजातियों की आर्थिक समस्या कृषि समस्या से जुड़ी हुई है । पहाडी क्षेत्रों में रहने के कारण कृषि – योग्य भूमि का इनके पास अभाव है । यही नहीं इनके पास उन्नत पशु , बीज , औजार एवं पूंजी का भी अभाव है , अतः इनके लिए कृषि अधिक लाभप्रद नहीं है ।

  सामाजिक समस्याएं ( Social Problems ) शहरी और सभ्य समाजों के सम्पर्क के कारण आदिवासियों में कई सामाजिक समस्याओं ने भी जन्म लिया है ।

पहले इन लोगों में विवाह युवा अवस्था में ही होता था , किन्तु अब बाल – विवाह होने लगे हैं जो हिन्दुओं के सम्पर्क का परिणाम है । मुद्रा अर्थव्यवस्था के प्रवेश के कारण अब इनमें कन्या मूल्य भी लिया जाने लगा है । सभ्य समाज के लोग जनजातियों में प्रचलित बालत युवा – गृहों को हीन दृष्टि से देखते हैं । युवा – गृह आदिवासियों में मनोरंजन , सामाजिक प्रशिक्षण , आर्थिक हितों की पूर्ति का साधन दे एवं शिक्षा का केन्द्र था , किन्तु अब यह संस्था समाप्त हो रही है उ जिसके फलस्वरूप कई हानिकारक प्रभाव पड़े हैं । जनजातियों की निर्धनता का लाभ उठाकर ठेकेदार , साहूकार , व्यापारी एवं प्र कर्मचारी उनकी स्त्रियों के साथ अनुचित यौन सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं जिससे वेश्यावृत्ति तथा बाह्य विवाह यौन सम्बन्ध ( Extra – marital sex relations ) की समस्याएं पनपी हैं ।

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 स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं ( Problems Related to Health ) अधिकांशतः जनजातियां घने जंगलों , पहाडी भागों एवं तराई क्षेत्रों में निवास करती हैं । इन भागों में अनेक बीमारियां पायी जाती हैं । गीले एवं गन्दे कपड़े पहने रहने कारण इनमें कई चर्म रोग हो जाते है । इन लोगों में मलेरिया पीलिया , चेचक , रोहे , अपच एवं गुप्तांगों की बीमारियां भी पायी जाती हैं । बीमारियों के इलाज के लिए चिकित्सालयों का अभाव है , डॉक्टर एवं आधुनिक दवाओं की सुविधाएं नहीं हैं । ये लोग जंगली जड़ी – बूटियों , झाड़ – फूंक एवं जादू – टोने का प्रयोग कर हैं । अधिकांश आदिवासी स्वास्थ्य के नियमों से अनभिज्ञ हैं । उन्हें पौष्टिक भोजन भी उपलब्ध नहीं हो पाता । ये लोग महुआ , चावल , ताड़ , गुड़ , आदि की शराब का प्रयोग करते रहे हैं । उसके स्थान पर अब अंग्रेजी शराब का प्रयोग करने लगे हैं जो अधिक हानिकारक है । सन्तुलित आहार एवं विटामिन युक्त भोजन के अभाव में भी इन लोगों का स्वास्थ्य दिनों – दिन गिरता जा रहा है । परिणामस्वरूप इनकी कार्यकुशलता एवं क्षमता में कमी आयी है । कई जनजातियों की तो जनसंख्या नष्ट हो रही है । अण्डमान एवं निकोबार की जनजातियों की जनसंख्या घटने का सबसे बड़ा कारण उनमें व्याप्त बीमारी है ।

 शिक्षा सम्बन्धी समस्याएं ( Problems Related to Education ) – जनजातियों में शिक्षा का अभाव है और वे अज्ञानता के अन्धकार में पल रही हैं । अशिक्षा के कारण वे अनेक अन्धविश्वासों , कुरीतियों एवं कुसंस्कारों से घिरे हुए हैं । आदिवासी लोग वर्तमान शिक्षा के प्रति उदासीन हैं क्योंकि यह शिक्षा उनके लिए अनुत्पादक है । जो लोग आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर लेते हैं वे अपनी जनजातीय संस्कृति से दूर हो जाते हैं और अपनी मूल संस्कृति को घृणा की दृष्टि से देखते हैं । आज की शिक्षा जीवन निर्वाह का निश्चित साधन प्रदान नहीं करती । अतः शिक्षित व्यक्तियों को बेकारी का सामना करना पड़ता है । ईसाई मिशनरियों ने जनजातियों में शिक्षा प्रसार का कार्य किया है , किन्तु इसके पीछे उनका उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार करना और आदिवासियों का धर्म परिवर्तन करना रहा है । अधिकांश आदिवासी प्राथमिक शिक्षा ही ग्रहण कर पाते हैं , उच्च प्राविधिक एवं विज्ञान की शिक्षा में वे अधिक रुचि नहीं रखते ।

 राजनीतिक चेतना की समस्या ( Problem of  Political Awakening ) स्वतन्त्रता के बाद संविधान के द्वारा देश के सभी नागरिको को प्रजातान्त्रिक अधिकार प्रदान कर उन्हें शासन में हिस्सेदार बना दिया गया है । आज पंचायत से लेकर संसद तक के प्रतिनिधि आम जनता द्वारा चुने जाते हैं । प्रजातन्त्र में राजनीतिक दल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । – जनजातियों की परम्परागत राजनीतिक व्यवस्था अपने ही ढंग की थी जिनमें अधिकांशतः वंशानुगत मुखिया ही प्रशासन कार्य करते थे । उनकी सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था में प्रदत्त अधिकारों एवं नातेदारी का विशेष महत्व था , किन्तु आज वे नवीन राजनीतिक व्यवस्था से परिचित हुए हैं । उन्हें भी मताधिकार प्राप्त हापअपना सामाजिक – आर्थिक समस्याओं के प्रति सजग हा ने अपने राजनीतिक अधिकारों का प्रयोग अपनी समस्याओं के समाधान के सन्दर्भ में करने लगे हैं । मध्य प्रदेश , आन्ध्र प्रदेश . असोम , बिहार , पश्चिम बंगाल एवं तमिलनाडु में इनकी राजनीतिक जागरूकता के कटु परिणाम निकले हैं । प्रशासकों , भस्वामियों एवं अजनजाति लोगों से उनके सम्बन्ध तनावपूर्ण हए हैं । कई स्थानों पर राजनीतिक तनाव एवं विद्रोह पनपा है । उन्होंने स्वायत्त राज्य की मांग की है । आज वे इस बात को समझते हैं कि उनकी अल्प संख्या की मजबूरी का लाभ अजनजाति समूहों ने उठाया है और उनका शोषण किया है । इस शोषण के प्रति उनमें तीव्र आक्रोश है जो यदाकदा भड़कता रहता है । यह राजनीतिक जागृति भविष्य में उग्र रूप धारण न करले , इससे राजनेता चिन्तित हैं ।

सबसे कमजोर कड़ी का पता लगाना ( To Find out the Weakest Link ) अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के आयुक्त ने अपने 1967 – 68 के वार्षिक प्रतिवेदन में जनजातियों की एक समस्या सबसे कमजोर कड़ी का पता लगाना बताया है । देश की अनुसूचित जनजातियां गरीबी से त्रस्त हैं , किन्तु कुछ जनजातियां ऐसी हैं जो अपेक्षतया अधिक गरीब हैं । इसी प्रकार से जनजातियां उपेक्षित रही हैं , किन्तु कुछ जनजातियां सबसे अधिक उपेक्षित रही हैं । अतः सबसे बड़ी समस्या यह है कि सबसे अधिक गरीब एवं उपेक्षित जनजाति का पता लगाया जाय जो कि जनजातियों की सबसे कमजोर कड़ी है । इस कमजोर कड़ी के विकास एवं उन्नति के लिए विशेष कार्यक्रम बनाकर उनकी आवश्यकताओं को पूरा किया जाय । जनजाति आयुक्त ने विभिन्न राज्यों में ऐसी कमजोर कड़ी का पता लगाया है । गुजरात में चारण , दुबला , नई कड़ा और बरली जनजातियां ; मध्य प्रदेश में बैगा , गौंड , मारिया , भूमिया , कमार तथा मवासी जनजातियां ; उत्तर प्रदेश में भोटिया , जानसारी , थारू जनजातियां ; राजस्थान में भील , डाभोर और हरिया जनजातियां सबसे कमजोर कड़ी के अन्तर्गत आती हैं । कमजोर कड़ी वाली जनजातियों की समस्या अन्य जनजातियों की तुलना में भीषण एवं गम्भीर है ।

  एकीकरण की समस्या ( Problem of Integral tion ) – भारतीय जनजातियों में अर्थव्यवस्था , समाज – व्यवस्था , संवैधानिक व्यवस्थाएं तथा कल्याण योजनाएं 431 ३ संस्कृति , धर्म एवं राजनीतिक व्यवस्था के आधार पर अनेक भिन्नताएं पायी जाती हैं । वे देश के अन्य लोगों से पृथक् हैं । आज आवश्यकता इस बात की है कि देश एवं जनजातियों की विशिष्ट समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए सभी देशवासियों द्वारा सामूहिक प्रयास किये जायें । जनजातियां अपने को अन्य लोगों से पृथक् न समझकर देश की मुख्य जीवनधारा से जोड़ें , तभी हम गरीबी , शोषण अज्ञानता , अशिक्षा , बीमारी , बेकारी और हीन स्वास्थ्य की समस्याओं से निपट सकेंगे । इन समस्याओं से निपटने के लिए विभिन्न जन समूहों का सहयोग एवं राष्ट्रीय जीवन की मुख्य धारा में बहना तथा एकीकरण आवश्यक है । इसके लिए अल्पसंख्यक समूहों को देश की आर्थिक – राजनीतिक अर्थव्यवस्था में भागीदार बनाना होगा और विकास योजनाओं में उन्हें साथ लेकर चलना होगा । इस प्रकार जनजातियों का एकीकरण भी एक बहुत बड़ी समस्या है ।

सीमा प्रान्त जनजातियों की समस्याएं Problems of Frontier Tribes ) – उत्तरी – पूर्वी सीमा प्रान्तों में निवास करने वाली जनजातियों की समस्याएं देश के विभिन्न भागों की समस्याओं से कुछ भिन्न हैं । देश के उत्तर – पूर्वी प्रान्तों के नजदीक चीन , म्यांमार एवं बांग्लादेश हैं । चीन से हमारे सम्बन्ध पिछले कुछ वर्षों से मधुर नहीं रहे हैं । बांग्लादेश , जो पहले पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था , भारत का कटु शत्रु रहा है । चीन एवं पाकिस्तान ने सीमा प्रान्तों की जनजातियों में विद्रोह की भावना को भड़काया है , उन्हें अस्त्र – शस्त्रों से सहायता दी है एवं विद्रोही नागा एवं अन्य जनजातियों के नेताओं को भूमिगत होने के लिए अपने यहां शरण दी है । शिक्षा एवं राजनीतिक जागृति के कारण इस क्षेत्र की जनजातियों ने स्वायत्त राज्य की मांग की है । इसके लिए उन्होंने आन्दोलन एवं संघर्ष किये हैं । अतः आज सबसे बड़ी समस्या सीमावर्ती क्षेत्रों में निवास करने वाली जनजातियों की स्वायत्तता की मांग से निपटना है । – जनजातियों की समस्याओं को हल करने के लिए भारत सरकार द्वारा समय – समय पर प्रयत्न किये गये हैं । हम उनका यहां उल्लेख करेंगे ।

अनुसूचित जनजातियों के सम्बन्ध में संवैधानिक व्यवस्थाएं – ( CONSTITUTIONAL PROVISIONS REGARDING SCHEDULED TRIBES ) . . . .

– पांचवीं अनुसूची में जनजातीय सलाहकार परिषद की नियुक्ति की व्यवस्था है जिसमें अधिकतम बीस सदस्य हो सकते हैं , जिनमें से तीन – चौथाई सदस्य राज्य विधान सभाओं के अनुसूचित जनजातियों के होंगे ।

-अनुच्छेद 324 एवं 244 में राज्यपालों को जनजातियों के सन्दर्भ में विशेषाधिकार प्रदान किये गये हैं ।

-संविधान में कुछ अनुच्छेद ऐसे भी हैं जो मध्य प्रदेश . छत्तीसगढ़ , असम , बिहार , झारखण्ड , ओडिशा , आदि के जनजाति – क्षेत्रों के लिए विशेष सुविधाएं देने से सम्बन्धित हैं । इन लोगों के लिए नौकरियों में प्रार्थना – पत्र देने एवं आयु सीमा  है । शिक्षण संस्थाओं में भी इन्हें शुल्क से मुक्त किया गया है एवं कुछ स्थान इनके लिए सुरक्षित रखे गये हैं । स

 – 93वां संवैधानिक संशोधन ( 2005 ) निजी शिक्षण संस्थानों ( अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को छोडकर ) में अनसचित जाति , जनजाति एवं सामाजिक व शैक्षणिक दष्टि से पिछड़े वर्गों को आरक्षण का लाभ देना है । संविधान में रखे गये विभिन्न प्रावधानों का उद्देश्य जनजातियों को देश के अन्य नागरिकों के समकक्ष लाना है । उन्हें देश की मुख्य जीवनधारा के साथ जोड़ना तथा एकीकरण करना है जिससे कि वे देश की आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवसा में भागीदार बन सके । पण्डित नेहरू भी जनजातियों के विकास में काफी रुचि रखते थे । वे नहीं चाहते थे कि उन पर कोई चीज थोपी जाय । उनका कहना था कि हमें उनकी कला एवं संस्कृति के विकास को बढ़ावा देना चाहिए , उनके भू – अधिकारों का आदर करना चाहिए , उनमें स्वयं का शासन करने की क्षमता एवं मानवीय चरित्र का विकास करना चाहिए ।

 -अनुसूचित जनजातियों के शैक्षणिक तथा आर्थिक हितों की रक्षा की जाए और इन्हें सभी प्रकार के शोषण तथा सामाजिक अन्याय से बचाया जाए । ( अनुच्छेद 46 )

– सरकार द्वारा संचालित अथवा सरकारी कोष से सहायता पाने वाले शिक्षालयों में उनके प्रवेश पर कोई रुकावट न रखी जाए । ( अनुच्छेद 29 , 2 )

– दुकानों , सार्वजनिक भोजनालयों , होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों का उपयोग करने पर लगी रुकावटें हटाई जाएँ , जिनका पूरा या कुछ व्यय सरकार उठाती है अथवा जो जनसाधारण के निमित्त समर्पित हैं । ( अनुच्छेद 15 , 2 )

– हिन्दुओं के सार्वजनिक स्थानों के द्वार कानूनन समस्त हिन्दुओं के लिए खोल दिए जाएँ । ( अनुच्छेद 25 ख )

– लोकसभा तथा राज्यों की विधान सभाओं में अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधियों के लिए जनसंख्या के आधार पर 25 जनवरी , सन् 2015 तक के लिए निश्चित सीटें सुरक्षित कर दी जाएँ । ( अनुच्छेद 324 , 330 तथा 342 ) ।

– यदि सार्वजनिक सेवाओं या सरकारी नौकरियों में जनजातीय लोगों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व न हो , तो सरकार को उनके लिए स्थान सुरक्षित रखने का अधिकार देना और सरकारी नौकरियों में नियुक्तियों के समय अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के दावों पर विचार करना । ( अनुच्छेद 16 और 335 ) ।

 – जनजातियों के कल्याण तथा हितों के प्रयोजन से राज्यों में जनजाति सलाहकार परिषद् तथा पृथक् विभागों की स्थापना की जाए और केन्द्र में एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति की जाए । ( अनुच्छेद 164 , 338 तथा पाँचवी अनुसूची ) ( 8 ) अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन तथा नियंत्रण के लिए विशेष व्यवस्था की जाए । ( अनुच्छेद 224 और पाँचवी तथा छठी अनुसूचियाँ ) ।

– अनुच्छेद 244 ( 2 ) के अनुसार असम की जनजातियों के लिए जिला और प्रादेशिक परिषद् ( District and Regional Council ) स्थापित करने का विधान है ।

– संविधान के भाग 6 , अनुच्छेद 164 में असम के अतिरिक्त बिहार , मध्य प्रदेश और उड़ीसा में जनजातीय मंत्रालय स्थापित करने का विधान है ।

 संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 46 में जनजातियों की शिक्षा की उन्नति और आर्थिक हितों की सुरक्षा की ओर विशेष ध्यान देना राज्य का कर्त्तव्य माना गया है ।

– अनुसूचित जनजातियों के हित में भारत में स्वतन्त्रतापूर्वक आने – जाने , रहने और बसने तथा सम्पत्ति खरीदने , रखने और बेचने के आम अधिकारों पर राज्य द्वारा उचित प्रतिबंध लगा सकने की कानूनी व्यवस्था । ( अनुच्छेद 19 , 5 ) ।

– संविधान के बारहवें भाग के 275 अनुच्छेद के अनुसार , केन्द्रीय सरकार राज्यों को जनजातीय कल्याण एवं उनके उचित प्रशासन के लिए विशेष धनराशि देगी ।

 – संविधान के पन्द्रहवें भाग के 325 अनुच्छेद में कहा गया है कि किसी को भी धर्म , प्रजाति , जाति एवं लिंग के आधार पर मताधिकार से वंचित नहीं किया जायेगा ।

– सोलहवें भाग के 330 व 332वें अनुच्छेद में लोक सभा एवं राज्य विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए स्थान सुरक्षित किये गये हैं ।

– 335वां अनुच्छेद आश्वासन देता है कि सरकार नौकरियों में इनके लिए स्थान सुरक्षित रखेगी ।

– 338वें अनुच्छेद में राष्ट्रपति द्वारा अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए विशेष अधिकारी की नियुक्ति की व्यवस्था की गयी है । यह अधिकारी प्रतिवर्ष अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करेगा ।

 प्रशासनिक व्यवस्था ( Administrative Arrangement ) आन्ध्र प्रदेश , बिहार , गुजरात , हिमाचल प्रदेश , मध्य प्रदेश , महाराष्ट्र , ओडिशा और राजस्थान के कुछ क्षेत्र अनुच्छेद 224 और संविधान की पांचवीं अनुसूची के अन्तर्गत ‘ अनुसूचित ‘ ( Scheduled ) किये गये हैं । इन राज्यों के राज्यपाल प्रति वर्ष अनुसूचित क्षेत्रों की रिपोर्ट राष्ट्रपति को देते हैं । असम , मेघालय और मिजोरम का प्रशासन संविधान की छठी अनुसूची के उपबन्धों ( Provisions ) के आधार पर किया जाता है । इस अनुसूची के अनुसार उन्हें स्वायत्तशासी ( Autonomous ) जिलों में बांटा गया है । इस प्रकार के आठ जिले हैं — असम के उत्तरी कछार पहाड़ी जिले तथा मिकिर पहाड़ी जिले , मेघालय के संयुक्त खासी – जैयन्तिया , जोवाई और गारो पहाड़ी जिले तथा मिजोरम के चकमा , लाखेर और पावी जिले । प्रत्येक स्वायत्तशासी जिले में एक जिला परिषद होती है जिसमें 30 से अधिक सदस्य नहीं होते । इनमें चार मनोनीत हो सकते हैं और शेष का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर किया जाता है । इस परिषद को कुछ प्रशासनिक , वैधानिक और न्यायिक अधिकार प्रदान किये गये हैं ।

कल्याणकारी एवं सलाहकार संस्थाएं ( Welfare and Advisory Agencies ) केन्द्र सरकार के गृह मन्त्रालय का यह दायित्व है कि वह अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के कल्याण के लिए योजनाएं बनाये और उन्हें क्रियान्वित करे । अगस्त 1978 में संविधान के अनुच्छेद 348 के अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए एक कमीशन का स्थापना की गयी । इसका एक चेयरमैन और चार सदस्य बनाये  कमीशन 1955 के नागरिक अधिकार अधिनियम  , 1955 ) के अन्तर्गत संविधान में इन के लिए सुरक्षा सम्बन्धी किये गये प्रावधानों के बारे में जांच करता है और उचित उपाय सुझाता है । संसदीय समितियां भारत सरकार ने 1968 , 1971 तथा 1973 में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के संविधान में रन सरक्षा एवं उनके कल्याण की जांच के लिए तीन संसदीय समितियां भी नियुक्त की । वर्तमान में संसद की एक स्थायी समिति बनायी गयी है जिसके सदस्यों का कार्यकाल एक वर्ष रखा गया है । इस समिति के 30 सदस्य होते हैं जिनमें से 2 लोकसभा और 10 राज्यसभा में से लिये जाते है । राज्यों में कल्याण विभाग राज्य सरकारों एवं केन्द्रशासित क्षेत्रों में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की देख – रेख एवं कल्याण के लिए पृथक् विभागों की स्थापना की गयी है । प्रत्येक राज्य का अपना विशिष्ट प्रशासन का तरीका है । बिहार , मध्य प्रदेश और ओडिशा में संविधान के अनुच्छेद 164 के अन्तर्गत अनुसूचित जनजातियों के कल्याण हेतु अलग मन्त्री नियुक्त किये जाते हैं । कुछ राज्यों में केन्द्र की भांति संसदीय समितियों के समान विधानमण्डलीय समितियां बनायी गयी हैं ।

 विधानमण्डलों में प्रतिनिधित्व ( Representation in Legislatures ) संविधान के अनुच्छेद 330 और 332 के द्वारा लोकसभा तथा राज्यों के विधानमण्डलों में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में स्थान सुरिक्षत किये गये हैं । प्रारम्भ में यह व्यवस्था 10 वर्षों के लिए थी , जो 95वें संवैधानिक संशोधन ( 2009 ) के अन्तर्गत बढ़ाकर 25 जनवरी , 2020 तक कर दी गयी है । संसदीय अधिनियम कद्वारा उन केन्द्रशासित क्षेत्रों में जहां विधानसभाएं है , इस प्रकार का आरक्षण किया गया है । वर्तमान में लोकसभा में 47 और विधानसभाओं में 557 स्थान अनुसूचित जनजातियों के लिए सुरक्षित किये गये हैं । पंचायती राज व्यवस्था के लागू होने  लोगों के लिए ग्राम पंचायतों एवं अन्य स्थानीय निकायों में भी स्थान सरक्षित किये गये हैं ।

राजकीय सेवाओं में आरक्षण ( Reservations in Government Services ) अखिल भारतीय आधार पर खुली प्रतियोगिता द्वारा की जाने वाली नियुक्तियों या अन्य प्रकार से की जाने वाले नियुक्तियों में अनुसूचित जनजातियों के 7 . 5 स्थान सुरक्षित किये गये हैं । ग्रुप ‘ सी ‘ और ‘ डी ‘ के पदों के लिए जिनमें स्थानीय और प्रान्तीय आधार पर नियुक्तियां की जाती हैं , प्रत्येक प्रान्त और केन्द्रशासित प्रदेश अनुसूचित जातियों की जनसंख्या के अनुपात में ही स्थान सुरक्षित रखता है । ग्रुप ‘ बी ‘ , ‘ सी ‘ और ‘ डी ‘ में होने वाली विभागीय परीक्षाओं के आधार पर की जाने वाली नियुक्तियों तथा ग्रुप ‘ बी ‘ , ‘ सी ‘ , ‘ डी ‘ , और ‘ ए ‘ में पदोन्नति में भी अनुसूचित जनजातियों के लिए 7 % स्थान सुरक्षित किये गये हैं , यदि उनमें 66 – % से अधिक सीधी भर्ती न की जाती हो । ग्रुप ‘ ए ‘ जिनमें 2 , 250 रु . या इससे कम वेतन वाले पदों पर की जाने वाली पदोन्नतियों में भी स्थान सुरक्षित किये गये हैं । जनजातियों के लोगों को नौकरियों में प्रतिनिधित्व देने के लिए कई प्रकार की छूट दी गयी है जैसे आयु – सीमा में छूट , उपयुक्तता के मानदण्ड में छूट , चयन सम्बन्धी अनुपयुक्तता में छूट , अनुभव सम्बन्धी योग्यता में छूट तथा ग्रुप ‘ ए ‘ के अनुसन्धान , वैज्ञानिक तथा तकनीकी सम्बन्धी स्तरों में छूट । राज्य सरकारों ने भी अनुसूचित जातियों को राजकीय सेवाओं में भर्ती करने और उन्हें पदोन्नतियां देने के सम्बन्ध में कई प्रावधान किये हैं । केन्द्र सरकार के विभिन्न मन्त्रालयों से सम्पर्क करने के लिए कुछ अधिकारियों की नियुक्तियां की गयी है जो यह देखेंगे कि इनके लिए स्थान सुरक्षित रखने के आदेशों का पालन हुआ है या नहीं । केन्द्र सरकार ने 25 फरवरी , 2007 को अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा के माध्यम से स्नातक स्तर के मेडिकल और डेन्टल दियक्रमों में प्रवेश हेतु अनुसूचित जाति एवं जनजाति के उम्मीदवारों को वर्ष 2008 से आरक्षण देने का निर्णय लिया ।

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