ग्रामीण समाजशास्त्र का महत्त्व

ग्रामीण समाजशास्त्र का महत्त्व

( Importance of Rural Sociology )

ग्रामीण समाजशास्त्र ग्रामीण समाज का अध्ययन करता है । संसार की अधिकांश जनसंख्या आज भी ग्रामों में बसी है । इसलिए ग्रामीण समाज का अध्ययन हमारे लिए इस युग में भी अत्यन्त आवश्यक है । मानव समाज ही हजारों वर्षों से ग्रामीण रहा है । नगरीय जीवन तो अभी कुछ शताब्दियों से ही विकसित हया है । वास्तव में , देखा जाए तो नगरीय जीवन एक आधुनिक जीवन का प्रारम्भ है । इससे स्पष्ट है कि अब तक का समस्त समाजशास्त्र एक प्रकार से ग्रामीण जीवन का समाजशास्त्र ही है । लॉरी नेल्सन ने लिखा है , ” अभी थोड़े समय से पूर्व तक के मनुष्य की कहानी अधिकतर ग्रामीण मनुष्य की कहानी है । ” इतना ही नहीं वर्तमान युग से पूर्व अधिकतर मनुष्य संसार के समस्त भागों में छोटे – छोटे ग्रामों में रहते आये हैं । थोड़े – बहुत जो बड़े नगर बने हैं , उनमें भी ग्राम्य

जीवन की ही झांकी दिखाई पड़ती थी । नागरिक जीवन के लक्षण उन में विकसित न हए थे । समाज का समस्त जीवन ही ग्रामीण जीवन था । नगरीय जीवन का प्रारम्भ तो प्रौद्योगिक क्रान्ति के उपरान्त ही हुआ है । मनगरीयकरण में अत्यधिक तीव्रता के बावजूद भी अधिकांश समाज ग्रामीण है । अमेरिका तथा यूरोप के कुछ देशों को छोड़कर संसार के अन्य देश , 90 प्रतिशत तक ग्रामीण हैं । भारत में 80 . 0 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण है । इसी प्रकार पूर्व के अधिकांश देशों में भी ग्रामीण जनसंख्या ही अधिकतर पाई जाती है । अमेरिका तथा यूरोप के देशों में भी ग्रामीण जनसंख्या की बाहुल्यता है । कई बार हम इस भ्रम में रहते हैं कि जहाँ पर अधिक जनसंख्या रहने लगती है वहां नगरीय जीवन का विकास हो जाता है । परन्तु यह सत्य नहीं है । अधिक जनसंख्या के एक स्थान पर रहने के कारण , वास्तव में , नगरीय जीवन का विकास नहीं होता है और उनका अधिकांश जीवन ग्रामीण ही रहता है । उदाहरण के लिए , अफ्रीका में यूरूबा के नगरों को लीजिए । इसी प्रकार एलेक्जेंड्रिया तथा मध्य – पूर्व के अन्य नगरों को लीजिए । एण्डर्सन ने भी इस विषय में लिखा है कि ” बगदाद या तेहरान कोई भी नगरीय जीवन को प्रदर्शित नहीं करते हैं । “

 भारत में ग्रामीण समाजशास्त्र का महत्व ( Importance of Rural Sociology in India )

 भारत में ग्रामीण समाजशास्त्र का महत्त्व निम्नांकित बिन्दुनों में प्रस्तुत किया जा सकता है

( 1 ) भारत की अधिकतर जनसंख्या ग्रामीरण है – भारत की अधिकतर जनसंख्या ग्रामीण है । भारत में इस समय भी 80 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण है । इसीलिए यह देश कृषि प्रधान कहलाता है ।

( 2 ) भारतीय समाजशास्त्र ग्रामीण समाजशास्त्र है – भारत एक कृषि – प्रधान देश है । हमने जो कुछ भी समाजशास्त्रीय अध्ययन भारत में किए हैं वे एक प्रकार से ग्रामीण समाजशास्त्र से सम्बन्धित अध्ययन हैं । क्योंकि भारत प्रमुख रूप से एक ग्रामीण देश है । इससे स्पष्ट है कि भारतीय समाजशास्त्र , ग्रामीण समाजशास्त्र है ।

 ( 3 ) ग्राम भारतीय संस्कृति का मूल स्रोत – ग्राम भारतीय संस्कृति का मूल स्रोत है । भारत में ग्राम एक इकाई है । हमें भारतीय समाज एवं संस्कृति को समझने के लिए यहाँ के ग्राम को समझना होगा ।

( 4 ) कुछ विशेष अध्ययन सम्भव – भारतीय ग्रामों के अध्ययन के लिए हमें कुछ विशेष प्रकार के अध्ययन करने पड़ेंगे । उदाहरण के लिए , ग्रामीण परिवारों का अध्ययन , जाति – प्रथा का अध्ययन , इत्यादि । जाति – प्रथा का अध्ययन विशेष प्रकार से करना पड़ेगा क्योंकि जाति – प्रथा संसार के अन्य देशों में नहीं पाई जाती । इस प्रथा का प्रभाव भारतीय ग्रामों पर विशेष रूप से पड़ा है ।

 ( 5 जीनावस्था एवं दरिद्रता का दृश्य – भारत का ग्रामीण समाज दीनावस्था एवं दरिद्रता का दृश्य प्रस्तुत करता है । भारतीय ग्रामों में अन्न को पैदा करने वाला अन्न खाने को तरसता मिलेगा । भारतीय कृषक गेहूँ तथा हरी सब्जियाँ पैदा करता है परन्तु उन्हें खा नहीं सकता । उनके छोटे – छोटे बच्चे दूध और घी के लिए तरसते हैं । भारतीय ग्रामों की अत्यधिक दुर्दशा है । डॉ . देसाई के शब्दों में . ” भारतीय ग्रामीण जीवन वास्तविक विपत्ति , सामाजिक पतन , सांस्कृतिक पिछड़ेपन और इन सबसे अधिक सब के ऊपर छाये हुए वेष्ट संकट – काल का एक दृश्य प्रदान करता है । ” श्रीमती मल्ले गावदा ग्रामीण जीवन को चित्रित करती हुई लिखती हैं कि ” भारत का नाम एक ऐसे व्यक्ति के स्वप्न – दर्शन की पोर ले जाता है जो गरीब , कमजोर , प्रध – भूखा और अध – नगा , 5 , 58 , 000 की वृहत संख्या वाले ग्रामों में अपनी जीवन – यात्रा घिसटते हुए पूरी कर रहा है ।

 ” उपरोक्त विद्वानों के विचारों से स्पष्ट है कि ग्रामीण भारत अत्यधिक दरिद्रता की अवस्था में है । हम सम्पूर्ण भारत की यही स्थिति समझ सकते हैं , क्योंकि भारत का 820 प्रतिशत भाग ग्रामों में ही बसा है । इस स्थिति को सम्भालने के लिए , हमें ग्रामीण समाजशास्त्र की अत्यधिक आवश्यकता है ।

 ( 6 ) ग्रामीण समाज नगरीय समाज का भाग नहीं – हम पहले बता चुके हैं कि ग्रामीण समाज नगरीय समाज का भाग नहीं है । ग्रामीण जीवन स्वय हा अपना महापा अपनी अलग समस्याएं हैं । नगरीय जीवन उससे एक भिन्न जीवन है । इस कारण यह प्रविश्यक है कि ग्रामीण जीवन का अध्ययन अलग से ग्रामीण समस्यायों को महत्व देते हुए करना प के शब्दों में , ” इसको अभी अपने स्वयं के विस्तार एवं महत्त्व का अध्ययन करना है

 ( 7 ) तीव गति से परिवर्तनशील ग्रामीण समाज – भारतीय ग्रामीण समाज में तीव्र गति रक्तनहा रहे हैं । इन परिवर्तनों के फलस्वरूप ग्रामीण समाज इतना अधिक परिवतित होता जा हाक उसका प्राचीन स्वरूप प्रायः समाप्त हो गया है । यह परिवर्तन प्रथम तो अंग्रेजी सभ्यता के प्रभाव के कारण हुआ तथा द्वितीय स्वतन्त्रता – संग्राम का भी भारतीय ग्रामों पर प्रभाव पड़ा है । समाजशास्त्र के लिए ऐसे समाजों का , जो तीव्र गति से परिवतित हो रहे हैं , अत्यधिक महत्त्व है । इसी कारण भारतीय ग्रामीण समाज का भी अत्यधिक महत्व है । इसके परिणामस्वरूप ग्रामीण समाजशास्त्र को भारत में अत्यधिक आवश्यकता है । वास्तव में , केवल ग्रामीण समाजशास्त्र ही ग्रामीण पूननिमाण को प्रोत्साहित कर सकता है ।

( 8 ) प्रामीण पुननिर्माण – ग्रामीण पुननिर्माण की दृष्टि से भारतीय संघ ने अपने संविधान में ही उल्लेख किया है । राज्य की नीति के निर्देशक तत्त्व का निम्नांकित अनुच्छेद महत्त्वपूर्ण है : RTE भारत एक कृषि – प्रधान देश है । यहाँ के ग्राम ही भारतीय संस्कृति के मूल स्रोत एवं प्राधार शिलाएँ हैं । यहाँ 80 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामों में निवास करती है । उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में बिलोचिस्तान तक गांवों का एकछत्र राज्य है । ऐसी अवस्था में यदि हम यह कहें कि भारत ग्रामों का देश है तो अतिशयोक्ति न होगी । ऐसी अवस्था में ग्रामीण समाज के अध्ययन की आवश्यकता स्वयं ही स्पष्ट हो जाती है कि इतनी वृहत जनसंख्या बाले देश का अध्ययन करना एवं समस्याओं का समाधान करना कितना आवश्यक कार्य है और यह भी कल्पना की जा सकती है कि इस कार्य को करने वाला विज्ञान कितना महत्त्वपूर्ण होगा । ग्रामीण समाजशास्त्री प्रो . देसाई ने लिखा है कि ” भारत में ग्रामीण समाजशास्त्र का उदय व महत्त्व आदि कालीन है । “

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हमारा भारत प्राचीनकाल से ही प्रात्म – निर्भर , ग्रामीण इकाइयों में विभाजित था , जहाँ भाषा , वेशभूषा , सभ्यता एवं संस्कृति में भिन्नता पाई जाती थी । भारतीय ग्रामों की इस विशिष्टता के बारे में करेनसन ने भी लिखा है – ” पुरातन ग्राम केवल आर्थिक व प्रशासनिक इकाई ही नहीं थे बल्कि सहयोगिक एवं सांस्कृतिक जीवन के केन्द्र भी थे । उनके पास अपने त्यौहार , पर्व , लोकगीत , नत्य , खेल व मेले थे , जिन्होंने जन को जीवन दिया और उनके उत्साह को बनाए रखा है । ” यह विशेषता भारत में प्राकृतिक रूप से विद्यमान थी । विदेशी शासन ने इस सुन्दर व्यवस्था को खण्डित कर दिया । प्रात्म निर्मता का सर्वश्रेष्ठ गुण विदेशी शासन के प्रभाव , विदेशी सभ्यता एवं संस्कृति के परिणाम – स्वरूप नागरीकरण की प्रक्रिया से गाँव उजड़ने लगे । प्रौद्योगीकरण ने ग्रामीण उद्योग पभों को समाप्त कर दिया । अंग्रेजों की शोषण एवं जमींदारी प्रथा ने ग्रामीगा पाती – मा Ind जमींदारी प्रथा ने ग्रामीण शरीर का रक्त चसकर मेष रहने दिया । गाँवों की प्राथिक दशा गिरने से सामाजिक , सांस्कृतिक , धार्मिक , आध्यात्मिक दशाएँ भी लुप्त होकर निम्न स्तर पर गाने या भी लुप्त होकर निम्न स्तर पर ग्राने लगी । ग्रामीण भारत अशिक्षा , भुख , बेकारी , ऋण , मद्य पान , मुकदमेबाजी प्रादि राक्षसों से घिर गया । कदमेबाजी ग्रादि राक्षसों से घिर गया । ग्रामीण पंचायतों की समाप्ति से न्यायालय व्यवस्था ने ग्रामीण समाज को और भी अधिक सीमा समाज को और भी अधिक पीडित किया । इस सम्बन्ध में प्रो . देसाई ने अंग्रेजी शासकों ने इस भाँति पुरातन अाधार प्रविधियों एवं उत्पादन के प्राचीन में शिथिल कर दिया लेकिन उनके स्थान पर स्वस्थ एवं स्थायी नवीनता सीमित अंश में भी विकसित नहीं की । ” वास्तव में यदि अंग्रेजी शासक इस दिशा में तनिक भी कार्य करते तो भारत की यह दशा नहीं होती . जो हो गई है । ऐसी परिस्थितियों में ग्रामीण समाजशास्त्र ही एक ऐसा विज्ञान था जिसके कोरा कामीण जनता तक प्रकाश की किरणें पहुंचाई जा सकती थीं । किन्तु देश में इस शास्त्र के शान एवं प्रसार के अभाव में इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाने से वंचित रखा । परिणामस्वरूप विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने प्रार्थिक प्राधार पर भारतीय स्थिति को सुधारने का प्रयास किया । इसमें संदेह नहीं कि इन अर्थशास्त्रियों के प्रयत्न कूछ सीमा तक सफल भी हुए हैं किन्तु फिर भी ग्रामीण समाज के लिए ग्रामीण समाजशास्त्रीय अध्ययन की प्रत्यन्त प्रावश्यकता है । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात तो यह भावश्यकता और भी बढ़ गई है ।

इस सम्बन्ध में प्रो . देसाई ने भी लिखा है , ” ग्रामीण सामाजिक संगठन व इसके ढाँचे , कार्य एवं मूल्यांकन का व्यवस्थित अध्ययन स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त केवल पावश्यक ही नहीं अपितु मति पावश्यक हो गया है । ” इस प्रकार से ग्रामीण समाजशास्त्र ग्रामीण जीवन में व्याप्त प्रामीण समस्यायों के निवारण हेतु अति महत्त्वपूर्ण विज्ञान है । सामाजिक क्षेत्र में कोई भी समस्या समाजशास्त्रीय अध्ययन बिना सुलझाई नहीं जा सकती है । प्रत्येक समस्या को सुलझाने के लिए वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता है । समस्या विशेष का कार्य व कारण के बिना उपयुक्त समाधान करना अत्यन्त ही दुाकर कार्य है । प्रतः हम कह सकते हैं कि भारतीय ग्रामीण समाजशास्त्र का महत्त्व प्रति प्रावश्यक रूप से बढ़ गया है और वर्तमान युग में यहाँ इसकी विशेषतः अनिवार्यता है । –

 इस प्रकार हमारे ग्रामीण ढांचे के विघटित रूप को पुनः संगठित व आत्मनिर्भर बनाने के लिए समस्याओं का वैज्ञानिक अध्ययन अत्यन्त ही आवश्यक है ।

 वास्तव में देखा जाए तो ग्रामीण समाजशास्त्र ही इस गम्भीर स्थिति को सुधारने में साधक हो सकता है । श्री नेल्सन और टेलर ने लिखा है कि ” भारत में ग्रामीण समाजशास्त्र का मुख्य उद्देश्य देशवासियों की सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्थानों का अध्ययन कर सुधार प्रस्तुत करना है । ग्रामीण समाजशास्त्र का कार्य अधिकांशतः व्यावहारिक खोजों में निहित है । यह शास्त्र ग्रामीण जनसंख्या और खेतों के सांख्यिकीय विश्लेषण द्वारा उचित सामाजिक तथ्यों का उद्घाटन करता है । “

– भारत के एक ग्राम – प्रधान देश होने की दृष्टि से यहां के प्रत्येक नागरिक को इस शास्त्र का ज्ञान होना अनिवार्य है । भारतीय विश्वविद्यालयों में यह विज्ञान अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाना चाहिए ताकि ग्राज के युवक गांवों के जीवन से अपरिचित न रहें । अधिकांशतः यह देखा जाता है कि विश्वविद्यालयों की शिक्षा से उत्तीर्ण होकर कार्यकर्ता गांवों में जाते हैं तो वे सफल नहीं होते हैं । विश्वविद्यालय से निकले युवक ग्रामीण जिन्दगी से घृणा करते हैं । अतः ग्रामीण समाज शास्त्र का व्यावहारिक दृष्टिकोण भारत के लिए महत्त्वपूर्ण है । हमारी वर्तमान सरकार ग्राम विकास की ओर लगी हुई है । ऐसी स्थिति में इस प्रकार के ज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है । इसके लिए निम्न | विभागीय कर्मचारियों को ग्रामीण समाजशास्त्र का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है

  भारतीय योजना विभाग – – भारतीय योजना के कार्य में लगे हुए प्रत्येक अधिकारी . को विशेषत : योजना आयोग के प्रत्येक सदस्य को ग्रामीण समाजशास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है । ग्रामीण भारत के उत्थान हेतु जितनी पंचवर्षीय योजनाएं बनाई जा रही हैं उनका अधिकांश भाग ग्रामों में ही कार्यान्वित होता है । यदि योजना विभाग के कार्यकर्ताओं को ग्रामीण जीवन व समस्यायों का पूर्व व्यावहारिक परिचय नहीं तो उनकी योजनाएँ कदापि सफल नहीं हो सकती । 

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 सामुदायिक विकास कार्यक्रम – भारतीय सामुदायिक विकास के कार्यक्रमों का सीधा सम्बन्ध ग्रामों से है । ग्राम विकास की यह अत्यन्त प्रभावशाली क्रान्ति है । इस विभाग व मन्त्रालय के प्रत्येक सदस्य का ग्रामीण जीवन से निकट परिचय होना आवश्यक है । यद्यपि सामुदायिक विकास के मोरिएन्टेशन ट्रेनिंग के अन्तर्गत ग्रामीण समाजशास्त्र का विषय निर्धारित कर दिया गया है , परन्तु इस दिशा में जितना प्रभावशाली प्रयत्न होना चाहिए वह नहीं हो रहा है । ग्रामीण जीवन की प्रमुख समस्याओं के वैज्ञानिक ज्ञान के बिना कोई भी प्रशिक्षा पूर्ण नहीं हो सकती है । अतः पूर्ण सफलता के लिए इस दिशा में महत्त्वपूर्ण एवं ठोस कदम सरकार को उठाना चाहिए ।

 . भारत के पंचायत विभाग – भारत में प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीकरण के अन्तर्गत पंचायतों व पंचायत समितियों तथा जिला परिषदों का संगठन किया जा रहा है । इस कार्यक्रम का उद्देश्य भी ग्रामीण जीवन को पुनः संगठित करना है । पंचायतों का कार्य ग्रामीण समस्यायों का निवारण करना निर्धारित किया गया है । इस दष्टि से इस विभाग के कार्यकर्तामों के लिए भी ग्रामीण समाजशास्त्र का ज्ञान बड़ा उपयोगी है । ग्रामीण क्षेत्रीय समाज व वहां की सामाजिक समस्याओं की विशिष्टता इसी शास्त्र के द्वारा जानी जा सकती है । इस दृष्टि से इस विभाग के लिए ग्रामीण समाजशास्त्र का अनिवार्य रूप से अध्ययन वांछनीय है ।

 ग्राम कल्याण विभाग – समाज – कल्याण के अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में परिवार नियोजन , महिला केन्द्र व शिशुशालाओं का कार्यक्रम रखा जाता है । इस प्रकार ग्राम कल्याणकारी योजनाओं की सफलता भी प्रशिक्षित कार्यकर्तामों पर निर्भर है । ग्रामीण समाज की जाति , बर्ग रिवाज , प्रथाओं , भाषा , संस्कृति का परिचय होना इस क्षेत्र में भी बड़ा आवश्यक है । इस दृष्टि से ग्रामीण समाजशास्त्र समाज कल्याण व ग्राम कल्याण की योजनाओं में लगे हुए कार्यकर्ताओं के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण है ।

  वन्य – जाति कल्याण विभाग – यद्यपि वन्य – जातियों का पूर्ण अध्ययन मानवशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है । लेकिन भारतीय वन्य – जातियों के ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने के फलस्वरूप इनका सामाजिक अध्ययन ग्रामीण समाजशास्त्र के अन्तर्गत भी आता है । मानवशास्त्र केवल इस प्रकार की जातियों का मानवशास्त्रीय अध्ययन करने में ही समर्थ होता है । ग्रामीण समाजशास्त्र में इन वन्य – जातियों का ग्रामीण पर्यावरण में विस्तृत सामाजिक अध्ययन करने में समर्थ होने के फलस्वरूप इस विभाग के कार्यकर्ताओं के लिए भी इसका ज्ञान उपयोगी है । ग्रामीण क्षेत्र पुरातन संस्कृति व सभ्यता के स्रोत हैं , यहाँ हमें सामान्य रूप से वन्य – जातीय संस्कृति के दर्शन होते हैं । इस आधार पर ग्रामीण समाजशास्त्र अन्य ग्रामीण समस्याओं के उत्थान के कार्यक्रम प्रस्तुत करने के साथ – साथ वन्य जातीय कल्याण कार्यक्रम भी प्रस्तुत करने में समर्थ होता है । अतः इस विभाग में भी इस शास्त्र का अध्ययन उपादेय है ।

 मदान , ग्रामदान तथा ग्रामराज्य – भूदान व ग्रामदान आन्दोलनों का ध्येय ग्रामीण ढांचे का निर्माण करना है । ग्रामीण जीवन की सभी सामान्य समस्याओं का दर्शन इस आन्दोलन पन्तर्गत करना पड़ता है । अान्दोलन में लगे हुए कार्यकर्ताओं को गाँव – गाँव घमकर भमिदान , अर्थदान , सम्पत्तिदान , बुद्धिदान , वस्त्रदान आदि की चचा करनी होती है । यह ग्रामीण क्षेत्रों की एक समाजवादी क्रान्ति है । ब्रिटिश शासन से विघटित ग्रामीण ढाँचे का पनःनिर्मागा – कान्ति में निहित है । ग्रामीण समाजशास्त्र किसी भी सीमा तक अपने आपको इस कार्यक्रम से सम्बन्धित नहीं पाता है । प्रत्येक भूदानी कार्यकर्ता को ग्रामीण समाज का है । जनता से निकट सम्पर्क स्थापित कर उनकी समस्याओं को हल करने वाले कार्यकर्ता ग्रामीण समाजशास्त्र में उत्तम व रचनात्मक प्रादर्श प्राप्त कर सकते हैं । प्रामीण पुननिर्माण की अन्य शाखाएं – सहकारिता , शिक्षा , ग्राम स्वास्थ्य प्रादि सभी विभागों का उद्देश्य ग्रामीण पुननिर्माण से प्रोतप्रोत है । उन्हें ग्रामीण जीवन को उन्नत बनाने का आदर्श अपने सम्मुख रखना पड़ता है । अतः ग्रामीण समाजशास्त्र का अध्ययन करना उनके लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण है । इस सम्बन्ध में प्रो . देसाई ने भी कहा है , ” अत्यधिक भौतिक एवं सांस्कृतिक निर्धनता की दशाओं के मध्य ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वाली भारतीय जनता की समस्याओं एवं घटनाओं के प्रति विभिन्न राजकीय संस्थाओं , सांख्यिकीयशास्त्रियों , अर्थशास्त्रियों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपना ध्यान विस्तृत रूप से केन्द्रित कर रहा है । ” दी ।

इस प्रकार हम इस विस्तृत विवेचन के उपरान्त इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ग्रामीण समाजशास्त्र कृषि – प्रधान देशों के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । भारत जैसा देश जो लम्बी दासता के कारण ग्रामीण समस्याओं का केन्द्र बन गया है उसके लिए तो इस विज्ञान की और भी महत्त्वपूर्ण प्रावश्यकता है । सरकार इस ओर विशेष प्रयत्नशील है । ग्रामीण क्षेत्रों की उन्नति के लिए इस विज्ञान का विस्तृत प्रसार वांछनीय है ।

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