ग्रामीण एवं नगरीय समुदाय
( Rural and Urban Community )
भारत गाँवों का देश है । आज भी यहाँ की अधिकतर जनसंख्या गाँवों में निवास करती है । गाँव किसी ऐसे स्थान को कहते हैं जहाँ लोग लम्बी अवधि से रहते है , अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । यहाँ लोगों के बीच प्राथमिक सम्बन्ध होते हैं । इनकी संस्कृति महानगरों से कम प्रभावित होती है । वे तकनीकी दृष्टि से भी कम विकसित होते हैं । दूसरी ओर नगर से तात्पर्य ऐसे स्थान से है जहाँ लोगों के बीच द्वितीयक सम्बन्ध होता है । ये तकनीकी संचार तथा यातायात के दृष्टिकोणों से काफी विकसित होते हैं । यहाँ की संस्कृति विभिन्न स्थानों की संस्कृति से प्रभावित होती रहती है । समाजशास्त्रियों ने नगर एवं ग्रामीण दोनों प्रकार के समुदायों का अध्ययन किया और महसूस किया कि ग्रामीण समुदाय के अध्ययन के बिना भारतीय समाज का अध्ययन सम्भव नहीं है ।
भारतीय गाँवों का अध्ययन 18वीं शताब्दी में आरम्भ हुआ था तब जबकि ब्रिटिश शासकों ने ग्रामीणों की भूस्वामित्व की स्थिति का सर्वेक्षण करना प्रारम्भ किया । मार्क्स तथा बैडेन पोवेल ने भारतीय गाँवों को एक ‘ बन्द ‘ व अलग – अलग व्यवस्था के रूप में जानने का प्रयास किया था । चार्ल्स मेटकेल ने भी भारतीय गाँवों की एकांकी तथा अपरिवर्तनशील बताते हुए लिखा है कि ” ग्रामीण समुदाय छोटे – छोटे गणतन्त्र है जो आत्म – निर्भर है तथा किसी भी बाहरी प्रभाव से मुक्त है । चाहे कितने भी युद्ध हों , कितने भी शासन बदलें फिर भी ग्रामीण समुदाय अपरिवर्तनशील , आत्म – निर्भर व शान्त रहते हैं । ” वस्तुत : यह बात सत्य नहीं है । सही अर्थ में गाँव न तो अलग – अलग रहे हैं न आत्म – निर्भर और न किसी परिवर्तन के प्रति उनकी संवेदनशीलता संदिग्ध है । भारतीय ग्रामीण जीवन बाहरी दुनिया से सम्बद्ध रही है या यों कहें कि ये बाह्य जगत से प्रभावित रही है । मेण्डलबाम ने अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए कहा कि गाँव अब ‘ बन्द समाज ‘ नहीं रहा है बल्कि एक ऐसी सामाजिक इकाई है जिसका दायरा व्यापक है । ग्रामीण समुदाय का जिक्र नगरीय समुदाय के सन्दर्भ में किया जायेगा । सबसे पहले यह जानना होगा कि ग्रामीण समुदाय क्या है ? ग्रामीण समुदाय दो शब्दों के योग से बना है – ग्रामीण और समुदाय । समुदाय क्या है ? इसकी चर्चा अध्याय पाँच में विस्तारपूर्वक किया जा चुका है । अतः गाँव क्या है , इसकी प्रकृति क्या है इस पर विचार किया जायेगा ।
गाँव का अर्थ ( Meaning of Village )
गाँव का अर्थ स्थान विशेष से नहीं बल्कि एक जीवन विधि से है । भारतीय गाँव अपने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समद्ध संस्कत के प्रतीक रहे है । गाँवों की सत्ता संरचना को देखने से स्पष्ट होता है कि प्रजातन्त्र हमारे देश की प्राचीन परम्परा रही है । मनु ने गाँव के अधिकारी को ग्रामिक कहा जो राजा की ओर से लगान वसूल करता था । ग्रामिक अपना कार्य वृद्ध लोगों व अन्य वरिष्ठ जनों की सहायता से करता था । ग्रामिक केवल लगान वसल ही नहीं करता था बल्कि गाँव वालों की रक्षा भी करता था । बौद्ध एवं जैन साहित्य में भी गाँवों मे ऐतिहासिक पक्ष का चित्रण मिलता है । एक गाँव में एक हजार जातकों के परिवार रहते थे । भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व था । गाँव में एक चौकीदार होता था जो देखभाल करता था । सिंचाई का प्रबन्ध सामूहिक था तथा जलावन एवं पशु चारागाह के स्थान पर सबका अधिकार था । चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में जनसंख्या के आधार पर गाँवों का विभाजन था — ज्येष्ठ मध्यम व कनिष्क । कुछ विद्वानों ने कुल जनसंख्या तथा जनसंख्या के घनत्व के आधार पर गाँव को परिभाषित करने का प्रयास किया है । साधारणत : जिस स्थान पर 3000 अथवा इससे कम व्यक्ति निवास करते है उसे गाँव कहा जाता है । किन्तु भारत में कछ गाँव ऐसे है जिनकी जनसंख्या 5000 से भी अधिक है । कुछ गाँव ऐसे हैं जो खेती पर ही निर्भर नहीं करते बल्कि अन्य उद्योगों और दूसरे व्यवसायों के द्वारा भी आजीविका उपार्जित करते हैं
एन० श्रीवास्तव ने अपना विचार प्रकट करते हुए लिखा है ” एक ग्रामीण क्षेत्र वह है जहाँ पर लोग कृषि उद्योग में लगे हो अर्थात् वस्तुओं का प्राथमिक उत्पादन प्रकृति के सहयोग से करते हो । ” लैण्डिस ( Landis ) ने ‘ ग्रामीण ‘ शब्द के लिए तीन बातों का होना आवश्यक बताया – ( i ) प्रकृति पर प्रत्यक्ष निर्भरता , ( ii ) सीमित आकार और ( iii ) घनिष्ठ एवं प्राथमिक सम्बन्ध । बरट्राण्ड ( Bertrand ) ने ‘ ग्रामीण ‘ के लिए दो आधारों की चर्चा की है – ( i ) कृषि द्वारा आय अथवा जीवन – यापन और ( ii ) कम घनत्व वाला जनसंख्या क्षेत्र । ।
वास्तव में ऐसी कोई निश्चित सीमा रेखा नहीं है जो ग्राम को नगर से पृथक् करे । इसके सम्बन्ध में मेकाइवर ने अपने विचारों को स्पष्ट करते हए लिखा है कि ” नगर और गाँव के बीच विभाजन की ऐसी कोई स्पष्ट सीमा रेखा नहीं है जिसके आधार पर यह बताया जा सके कि कहाँ पर ग्राम समाप्त होता है और कहाँ से नगर का प्रारम्भ होता है । ग्रामीण एवं नगरीय शब्द मात्र भौगोलिक स्थिति को ही नहीं बल्कि सामुदायिक जीवन के प्रकारों को भी स्पष्ट करते हैं । ” कहने का तात्पर्य यह है कि ग्राम से ऐसे स्थान का बोध होता है जिसमें लोगों के बीच प्राथमिक एवं परम्परागत सम्बन्ध होते हैं आर्थिक दृष्टि से श्रम – विभाजन कम होता है तथा अधिकतर लोग कृषि एवं साधारण उद्योगों से जुड़े होते हैं ।
ग्रामीण समुदाय ( Rural Community )
ग्रामीण समुदायों के सम्बन्ध में समाजशास्त्रियों ने अपने – अपने विचार व्यक्त किये हैं ।
मैरिल और एलरिज ( Merill and Elridge ) के अनुसार ” ग्रामीण समुदाय के अन्तर्गत संस्थाओं और ऐसे व्यक्तियों का समावेश होता है जो एक छोटे से केन्द्र के चारों ओर संगठित होते हैं तथा सामान्य – प्राकृतिक हितों में भाग लेते है । ‘ ‘
सेण्डरसन ( Sanderson ) के अनुसार ” एक ग्रामीण समुदाय के स्थानीय क्षेत्र के लोगों की सामाजिक अन्तःक्रिया और उनकी संस्थाएँ सम्मिलित है जिसमें वह खेतों के चारों ओर बिखरी झोपड़ियों तथा पुखा या ग्रामों में रहती है और जो उनकी सामान्य क्रियाओं का केन्द्र है ।
सिम्स ( Sims ) के अनुसार “ समाजशास्त्रियों में ग्रामीण समुदाय ‘ को ऐसे बड़े क्षेत्रों में रखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है जिसमें समस्त अथवा अधिकतर प्रमुख मानवीय हितों की पर्ति होती है ।
उपर्युक्त विद्वानों के विचारों से स्पष्ट होता है कि ग्रामीण समुदाय परिवेश की दृष्टि से प्रकृति के अधिक निकट होता है । इसमें बनावटीपन कम होता है । आर्थिक दृष्टि से ये प्रमुख रूप से कृषि पर तथा साधारण उद्योग पर निर्भर करते हैं । इनके यहाँ श्रम – विभाजन कम पाया जाता है । ग्रामीण समुदाय का आकार छोटा होता है तथा इनमें जनसंख्या का घनत्व कम होता है । इनके बीच घनिष्ठता , निकटता , प्राथमिक सम्बन्ध , अनौपचारिकता और समानता , पायी जाती है । सांस्कृतिक दृष्टि से ग्रामीण समुदाय धर्म प्रधान , परम्परा प्रधान और रूढ़िवादी भी होता
ग्रामीण समुदाय की विशेषताएँ ( Characteristics of Rural Community )
ग्रामीण समुदाय की अपनी कुछ प्रमुख विशेषताएँ है जिनकी चर्चा करना आवश्यक है । ग्रामीण समुदाय में गाँव की सभी विशेषताएँ पायी जाती है । इनका संक्षेप में विवेचन प्रस्तुत है
1 छोटा आकार ( Small size ) – ग्रामीण समुदाय का आकार छोटा होता है । अर्थात् इनमें जनसंख्या की अधिकता नहीं होती । भारत में अधिकतर ऐसे गाँव है जिनकी जनसंख्या एक हजार से भी कम है । प्रकृति पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर होने के कारण समुदाय का आधार छोटा होता है । इसकी इस विशेषता के कारण स्मिथ ने ग्रामीण समुदाय और लघु समुदाय को एक – दूसरे का पर्यायवाची बताया । इसी प्रकार रॉबर्ट रेडफील्ड ने ग्रामीण समुदाय को ‘ लघु समुदाय ‘ ( Little community ) के रूप में स्पष्ट किया । जब कभी गाँव की जनसंख्या में वृद्धि होती है तब वह दो भागों में विभाजित हो जाता है । अर्थात् वह दो छोटे – छोटे गाँवों में बँट जाता है ।
2 . जनसंख्या का कम घनत्व ( Low Population density ) – ग्रामीण समुदाय का आकार छोटा नहीं होता बल्कि उनके यहाँ जनसंख्या का घनत्व भी कम होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि गाँव में प्रति वर्ग मील जनसंख्या का अनुपात शहरों की अपेक्षा कम होता है । जनसंख्यात्मक घनत्व कम होने के कारण ग्रामीण समुदायों में घनी बस्ती अथवा गन्दी बस्तियों की समस्याएँ उत्पन्न नहीं होती । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि बाल – अपराध , अपराध , जुआ , शराब , तरह – तरह की बीमारियों तथा अन्य मानसिक कुंठाओं से ग्रामीण समुदाय अलग – अलग रहता है ।
कृषि मुख्य व्यवसाय तथा प्रकृति पर निर्भर ( Agriculture main occupation and nature based living ) – ग्रामीण समुदाय के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि होता है । आज की भारतीय ग्रामीण समुदाय की अधिकतर जनसंख्या प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर ही निर्भर है । इसका अर्थ यह नहीं है कि यहाँ के लोग अन्य व्यवसाय बिल्कुल नहीं करते । गाँवों में अनेक जातियाँ हैं जो कुटीर उद्योग अथवा दस्तकारी के द्वारा आजीविका उपार्जित करती है । उदाहरणस्वरूप चटाई , रस्सी , कपड़ा , मिट्टी के बर्तन तथा गुड़ बनना इत्यादि । फिर भी ये लोग अपने लिए कृषि व्यवसाय को ही महत्त्वपूर्ण समझते हैं । ग्रामीण समुदाय आहार – व्यवहार की दृष्टि से प्रकृति के अधिक निकट होता है । कृषि सम्बन्धी कार्यों के लिए आज भी वह प्रकृति पर ही आश्रित है । ग्रामीण समुदाय ऋतुओं एवं प्राकृतिक दृश्यो का आनन्द उठाते हैं । पेड़ – पौधों एवं पशु – पक्षियों से उनका प्रत्यक्ष सम्पर्क होता है । कुल मिलाकर वे प्रकृति की गोद में जन्म लेते हैं , पलते हैं तथा मरते हैं ।
4 . श्रम – विभाजन रवं विशेषीकरण का अभाव ( Lack of division of labour and specialization ) – ग्रामीण समुदाय में श्रम – विभाजन कम होता है । वे अपने जीवन सम्बन्धित लगभग सभी कार्यों का ज्ञान रखते हैं । उदाहरणस्वरूप एक किसान यह जानता है कि किस मौसम में कौन – सा फसल होगा , उसके लिए किस तरह का बीज , किस तरह का खाद तथा अन्य किन – किन चीजों की आवश्यकता है । यदि उनका पशु बीमार है तो वह उनकी देखभाल भी कर लेता है । अनाजों की सुरक्षा भी वे करीब – करीब जानते हैं । अपने जीवन से सम्बन्धित लगभग सभी कार्यों का सामान्य ज्ञान होने के कारण वे किसी भी चीज में विशिष्ट ज्ञान हासिल नहीं कर पाते । कहने का अभिप्राय यह है कि ग्रामीण समुदाय में व्यक्ति किसी भी कार्य में विशेष रूप से प्रशिक्षित नहीं होते है परिणामस्वरूप उनमें विशेषीकरण का आज भी अभाव पाया जाता है ।
5 . प्राथमिक सम्बन्ध ( Primary relation ) – ग्रामीण समुदाय में लोगों के बीच प्राथमिक सम्बन्ध होते हैं । जनसंख्या काम होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति एक – दूसरे को व्यक्तिगत रूप से जानता है । उसके बीच घनिष्ठ , प्रत्यक्ष व आमने – सामने का सम्बन्ध होता है । इनके बीच बनावटीपन एवं औपचारिकता का अभाव पाया जाता है । वे सभी एक दूसरे के दुःख – सुख में सहयोग करते हैं ।
6 . धर्म की प्रधानता ( Importance of religion ) – ग्रामीण समुदाय में धर्म का महत्त्व अधिक होता है । लोगों का व्यवहार धार्मिक नियमो से निर्देशित होता है । लोग धर्म – संगत बातों एवं आचरण को पसन्द करते है । जो व्यक्ति जितना इन नियमों का पालन करता है वह उतना ही प्रतिष्ठित समझ जाता है । ग्रामीण समुदाय में धर्म , सामाजिक नियन्त्रण का महत्त्वपूर्ण साधन होता है । कोई भी सदस्य जल्द धार्मिक नियमों व आचरण की अवहेलना करने का साहस नहीं कर पाता है । स्वर्ग – नरक , पाप – पुण्य , धर्म – अधर्म , अच्छाई – बुराई की भावना व्यक्ति • के व्यवहारों को नियमित तथा निर्देशित करती है , जन्म तथा पुनर्जन्म की भावना व्यक्ति को धर्म भीरू बना देती है । धार्मिक अन्धविश्वास भी लोगों के विचार तथा विवेक को प्रभावित करता है ।
7 . परम्परा एवं रूदि की प्रधानता ( Importance of tradition and custom )
परम्परा एवं रूहि की प्रधानता होती है । यहाँ के लोग परम्परागत विश्वासो , प्रथाओं व रूढ़िया छ आजमा लाग गावा में इनकी सरलता से अवहेलना नहीं कर पाते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि उनका सम्पूर्ण जीवन प्रथाओं और रूढियों से बँधा होता है । बाल – विवाह , मृत्यु – भोज , विधवा पुनविवाह का अभाव , छुआ – छुत , दहेज प्रथा के दुष्परिणामों को सहने के बावजूद भी ये ग्रामीण समाज में प्रचलित है । उनका पढ़या एव परम्पराओं से नियमित एवं निर्देशित होता है अर्थात सामाजिक नियन्त्रण का कार्य इन्हीं के द्वारा होता है ।
8 . सादा जीवन ( Simple living ) – ग्रामीण समदाय के लोगों का जीवन सादा हाताह उनका वश – भूषा सादा होता है । वे बाहरी चमक – दमक तथा बनावटीपन से दूर रहते हैं । कृषि उनका प्रमुख व्यवसाय हात आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं होती । कषि प्रकति पर निर्भर रहने के कारण निश्चित रूप स उनक उपज कापपषम अनुमान करना कठिन होता है । वे खान – पान तथा पहनावा के मामले में भी साधारण जीवन व्यतीत करते है । इनके विषय में कहा जा सकता है कि अभाव के कारण वे सरल एवं सादा जीवन – बीताने के लिए बाध्य हात हा
9 . अशिक्षा एवं भाग्यवादिता literacy and fatalism ) – ग्रामीण समुदाय में आज भी अशिक्षा एवं भाग्यवादिता का प्रकोप स्पष्ट नजर आता है । आजादी के बाद शिक्षा के लिए अनेक रास्ते अपनाये गये किन्तु आज भी गाँवों में अशिक्षित लोगों की संख्या अधिक है । अशिक्षित होने के कारण वे अपनी हर कमजोरी एवं मजबूरी को अपने भाग्य का लिखा मानकर सन्तोष कर लेते हैं । उन्हें समझने तथा दर करने का प्रयास भी नहीं करते । अधिक बच्चों को जन्म होना , उनकी मृत्यु , कम उपज तथा विभिन्न प्रकार की बीमारियों को भी अपने भाग्य का ही प्रतिफल मानते है और उससे बचने तथा उबरने का प्रयास भी नहीं करते । विशेष रूप से भारतीय ग्रामीण समुदाय में लोगों का दृढ विश्वास है कि व्यक्ति चाहे कितना भी प्रयत्न करे किन्तु उसे उतना ही फल प्राप्त होगा जितना उसके भाग्य में लिखा है । अत : वे अपने सभी कष्टों , अत्याचारों एवं शोषण को बर्दाश्त करते रहते हैं ।
गतिशीलता की कमी ( Lack of mobility ) – ग्रामीण समुदाय में गतिशीलता का अभाव पाया जाता है । उसके कई कारण है । गाँवों में मुख्य व्यवसाय कृषि होने के कारण लोग खेत में बँध जाते हैं । वे अन्य स्थानों पर नहीं जा पाते । दूसरी बात है कि वे परिवर्तन के प्रति उदासीन होते है । अत : वे अपने जीवन में किसी तरह का बदलाव नहीं पसन्द करते । ग्रामीण लोगों में घर के प्रति मोह ( Home weakness ) भी गतिशीलता में बाधक का कार्य करता है । भारतीय ग्रामीण समुदाय में जाति – प्रथा का विशेष प्रभाव है । आज भी वहाँ लोगों की सामाजिक स्थिति , व्यवसाय , शादी – विवाह तथा रहन – सहन जातीय नियमों से ही प्रभावित होता है । एक बार व्यक्ति जिस जाति विशेष में जन्म ले लेता है , आजन्म उस जाति का सदस्य बना रहती है । व्यक्ति को एक बार जो स्थिति प्राप्त हो जाती है उसमें कोई परिवर्तन के लिए प्रयास भी नहीं करता । परिणामस्वरूप ग्रामीण समुदाय में स्थानीय तथा सामाजिक गतिशीलता की कमी पायी जाती है ।
11 / समरूपता ( Homogeneity ) – ग्रामीण समुदाय में लोगों में समरूपता होती है । कहने का तात्पर्य है कि सभी की जीवन शैली एक – सी होती है । उनके सामाजिक , आर्थिक , राजनैतिक , सांस्कृतिक जीवन में एकरूपता देखने को मिलती है । वे समान भाषा , व्यवसाय , रीति – रिवाज , आदर्श , आचार – विचार तथा उत्सव मनाते हैं । यही समरूपता व समानता उनमें दृढ सामुदायिक भावना को विकसित करती है जो ग्रामीण समुदाय की प्रभुत्व विशेषता के रूप में स्पष्ट होती है ।
12 . जनमत की प्रधानता ( Importance of public opinion ) – ग्रामीण समुदाय में जनमत का अधिक महत्व होता है । समुदाय का आकार छोटा होने के कारण जनमत के निर्माण के लिए माध्यम की आवश्यकता नहीं होती । लोग आपस में प्रत्यक्ष सम्पर्क के द्वारा जनमत बनाते हैं तब इसकी अवहेलना करना कठिन होता है । जो व्यक्ति इसकी अवहेलना करता है । उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा नष्ट हो जाती है । जनमत के पीछे ‘ पंच परमेश्वर धारणा निहित होती है । ग्रामीण समुदाय में जनमत सामाजिक नियन्त्रण का प्रभावशाली साधन होता है । एक व्यक्ति को जनमत के आगे झुकना पड़ता है । कहने का तात्पर्य यह है कि ग्रामीण समुदाय में सामहिक विचारों का महत्त्व अधिक होता है ।
13 . संयक्त परिवार प्रणाली ( Joint family system ) – संयुक्त परिवार प्रणाली विशेष रूप से भारतीय जाता है । इस तरह के परिवार में कई पीढ़ी के लोग एक साथ रहते हैं । उनका भोजन , निवास , समुदाय की विशेषता है । इस तरह के परिवार में कई पीढी के लो सास होता है । ‘ कर्ता ‘ घर का प्रधान होता है जो साधारणतः परिवार का सबसे वयोवृद्व सम्पत्ति तथा पूजा – पाठ सामान्य होता है । ‘ कर्ता ‘ घर का प्रधान होता – परिवार के सभी कार्य उसकी आज्ञा से होते हैं । संयुक्त परिवार में सभी सदस्यों का जीवन
सरक्षित तथा संरक्षित रहता है । आज भी गाँव में खेती प्रमुख व्यवसाय होने के कारण संयुक्त परिवार प्रणाली की उपयोगिता बनी हुई है ।
14 . जजमानी प्रथा ( Jajmanisystem ) – जजमानी प्रथा भारतीय ग्रामीण समुदाय की अद्भुत विशेषता है । इस प्रथा के द्वारा विभिन्न जातियों के बीच अनोखा सम्बन्ध पाया जाता है । एक जाति अपनी सेवा के द्वारा दुसरी जाति को सुविधा प्रदान करते हैं ( धोबी , नाई , कुम्हार , तेली , माली , ब्राह्मण इत्यादि ) वे ‘ कमीन ‘ कहलाते हैं तथा जो जाति सेवा लेते हैं वे ‘ जजमान ‘ कहलाते हैं । जजमान कमीन को सेवा के बदले मुदा नहीं देता । उसकी सेवा की कीमत जजमान अपनी हस्ती के मुताबिक देता है । उन्हें सेवा के बदले में अनाज , वस्त्र , द्रव्य आदि मिलता है । यहाँ कमीन के सेवा की कीमत जजमान के हस्ती के अनुसार घटती – बढ़ती रहती है । जजमान एवं कमीन का सम्बन्ध पुस्त – दर – पुस्त चलता रहता है । कई पीढ़ी तक एक ही जजमान को एक कमीन परिवार पीढ़ी – दर – पीढ़ी सेवा प्रदान करता रहता है । इस प्रकार विभिन्न जातियों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध बना रहता है ।
15 . ग्राम पंचायत ( Village Punchayat ) – ग्राम पंचायत भारतीय ग्रामीण समुदाय की अति प्राचीन विशेषता रही है । स्वशासन की इकाई के रूप में ग्राम पंचायत का यहाँ विशेष महत्त्व रहा है । ग्रामीण क्षेत्रों में शासन प्रबन्ध , शक्ति और सुरक्षा की एक मात्र संस्था के रूप में ग्राम पंचायत काम करती है । अंग्रेजी शासन काल में ग्राम पंचायतों का विघटन हुआ किन्तु आजादी के बाद भारत में स्वायत्त शासन को कार्य रूप में परिणत करने के लिए प्रयास किये गये । परिणामस्वरूप विभिन्न प्रान्तों में ग्राम – पंचायतों का पुनर्गठन किया गया । ग्राम पंचायत का मुख्य कार्य गाँव की उन्नति के लिए योजना बनाना तथा उसे क्रियान्वित करना है ।
16 . स्त्रियों की निम्न स्थिति ( Low status of women ) – भारतीय ग्रामीण समुदाय में स्त्रियों की स्थिति निम्न होती है । स्त्रियों में शिक्षा की कमी पायी जाती है । गाँव में कन्या बध , बाल – विवाह , पर्दा प्रथा तथा विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबन्ध की प्रथा आज भी प्रचलित है । स्त्रियों को दासी समझा जाता है । छोटे उम्र से ही बच्चों को जन्म देना तथा परिवार की जिम्मेदारियों को उठाने के कारण इनका व्यक्तित्व कुंठित हो जाता है । शिक्षा के अभाव में न तो ये अपने अधिकारों के प्रति सजग हो पाती है और न किसी कार्य विशेष के लिए प्रशिक्षित ही । संयुक्त परिवार प्रणाली भी स्त्रियों की स्थिति को गिराने में प्रमुख भूमिका अदा करता है । पर्दा प्रथा के कारण वे सारी उम्र घर की चहारदिवारी की भीतर ही गुजार देती है । ये सारी स्थिति उनकी निम्न स्थिति के लिए उत्तरदायी
नगरीय समुदाय
( Urban Community )
नगरीय समुदाय तथा उनकी विशेषता जानने से पहले नगर क्या है यह जानना आवश्यक है ।
नगर का अर्थ एवं परिभाषा ( Meaning and definition of city )
साधारण रूप से नगर उसे कहा जाता है जिसकी जसंख्या एक लाख से अधिक हो । ऐसे समुदाय का आकार प्रायः बड़ा होता है । इसके अन्तर्गत लोग परिवर्तनशील जीवन व्यतीत करते है । इसके सम्बन्ध में बर्थ ने बताया कि शहर वे स्थान हैं जो सापेक्षिक रूप से बड़े हैं , घने हैं तथा वहाँ सामाजिक रूप से विषम रूप ( भिन्न – भिन्न परिस्थिति वाले लोग ) व्यक्ति निवास करते है । बर्थे के विचारों से शहर की तीन विशेषताएँ स्पष्ट होती है । अधिक जनसंख्या . 2 . जनसंख्या का अधिक घनत्व , 3 . विषमरूपता – – अर्थात् विभिन्न वर्गों जाति , शिक्षा आर्थिक स्थिति व राजनीतिक विचारधारा के लोगों का होना ।
किंग्सले डेविस ( Kingsley Davis ) के अनुसार नगर में अधिक सामाजिक भिन्नताओं के लोगों का निवास होता है , वहाँ व्यवसायों की भी अधिकता होती है । उन्होंने यह भी बताया कि नगरी में द्वितीयक सम्बन्धी की प्रधानता होती है । सभी व्यक्ति एक – दूसरे को प्रत्यक्ष सम्बन्धों के द्वारा नहीं जानते । डेविस ने अने विचारो को स्पष्ट करते हुए कहा कि नगर के निर्धारण मे जनसंख्या के घनत्व को एकमात्र महत्वपूर्ण तत्त्व नहीं माना जा सकता । नगर के लिए कुछ विशेष प्रकार की सामाजिक तत्त्वों की आवश्यकता है । किसी भी स्थान पर जनसंख्या का घनत्व चाहे एक हजार से अधिक हो कम , यदि वहाँ नगरीय मनोवृत्ति विद्यमान हो तो उसे नगर कहा जायेगा ।
कहने का अभिप्राय यह है कि नगर का आधार सिर्फ जनसंख्या नहीं बल्कि नगर जीवन विधि है । डेविस ने बताया कि भारत में अनेक ऐसे गाँव है जिनमें जनसंख्या का घनत्व कई नगरों से अधिक है किन्तु उसे नगर नहीं कहा जा सकता है ।
लुमिस ‘ ( CP Loomis ) के अनसार नगर एक ऐसी इकाई है जिसे उसके निकटवर्ती क्षेत्रों से जनसंख्या के आकार और घनत्व व्यवसाय की प्रकृति तथा सामाजिक सम्बन्धों की प्रकति जैसी विशेषताओं के आधार पर अलग किया जा सकता है । कहने का अर्थ है कि नगर में बड़ा आकार , व्यवसायों की बहलता , द्वितीयक सम्बन्धा का बोलबाला , श्रम – विभाजन व विशेषीकरण , सामाजिक गतिशीलता आदि ऐसी विशेषताएँ हैं जो नागरिक समुदाय में पायी जाती है ।
विलकॉम्स ( Willcox ) के अनुसार ” नगर का तात्पर्य उस क्षेत्र से है जहाँ प्रति वर्ग मील में जनसख्या का घनत्व 1000 व्यक्तियों से अधिक हो तथा जहाँ कृषि न की जाती हो ।
” क्वीन ‘ ( Quinn ) ने कानूनी दृष्टिकोण से नगर को परिभाषित करते हुए बताया कि नगर का अर्थ कानून द्वारा निर्धारित उस क्षेत्रों से है जिसके अन्तर्गत एक निश्चित आकार वाली जनसंख्या निवास करती है तथा जिसकी सीमाओं के अन्दर व्यवस्था स्थापित करने का कार्य राज्य द्वारा अधिकृत एक स्थानीय सत्ता द्वारा किया जाता हो । यह विचार समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं है ।
लुई मम्फर्ड ( Louix Mumord ) ने समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से नगर में औपचारिकता , दिखावटीपन और स्वार्थ की प्रधानता महत्त्वपूर्ण लक्षण बताया । इसके अलावे द्वितीयक सम्बन्धों की बहुलता और प्रधानता , व्यवसाय और अन्य गतिविधियों के अधार पर समाज का विभाजन , सामाजिक गतिशीलता , व्यक्तिवाद , विवेकपूर्णता एवं अधिक सामाजिक गतिशीलता आदि भी महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं । (
बी० एफ० हॉसेलिज ( B . F . Hoselitz ) ने शहरी समुदाय को एक ऐसी इकाई माना है जहाँ सस्ते और कुशल मजदूर पाए जाते हैं , जहाँ पूँजी उपलब्ध होती है , जहाँ बाजार होता है , जहाँ परिवर्तन अधिक होते हैं और जहाँ यातायात की सबसे अधिक सुविधा होती है । आधुनिक युग में उद्योग एवं औद्योगिक व्यापार को शहरों का सबसे महत्त्वपूर्ण आधार माना जाता है । आधुनिक आर्थिक विकास शहरी जीवन के बिना सम्भव नहीं है ।
वास्तव में नगर ऐसी विशेषताओं वाला समूह है जिसमें एक विशिष्ट प्रकार का जीवन उत्पन्न होता है । . इसे किसी प्रकार परिभाषा द्वारा स्पष्ट करना कठिन है । अत : नगरीय समुदाय की कुछ प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख किया जायेगा । जिससे उसकी अवधारणा और अधिक स्पष्ट हो सके ।
नगरीय समुदाय की विशेषताएँ
( Characterisics of Urban Community )
. अधिक जनसंख्या ( Large population ) – नगरीय समुदाय में जनसंख्या की अधिकता पायी जाती है । नगरीय घने बसे होते हैं । जनसंख्यात्मक दृष्टिकोण से नगरों में जनसंख्या का आकार बड़ा तथा इसका घनत्व भी अधिक होता है । प्रत्येक देश में नगरीय समुदाय के लिए जनसंख्या का एक निश्चित आधार रखा जाता है । यह संख्या सभी देशों में समान नहीं होता । उदाहरण के लिए भारत में पाँच हजार है तो अमेरिका में ढाई हजार , अर्जेन्टिना में एक हजार तो इटली और स्पेन में दस हजार है । किन्तु सभी देशों में जनसंख्या के साथ – साथ नागरिक सुविधाओं को भी आवश्यक माना जाने लगा है । आज भारत में ऐसे अधिक नगर है जिनकी जनसंख्या एक लाख से भी अधिक है । दिल्ली , मुम्बई , कोलकाता , मद्रास , चंडीगढ़ , कानपुर आदि जैसे नगरों में जनसंख्या का घनत्व दो हजार प्रति वर्ग किलोमीटर से अधिक है ।
. विभिन्नता ( Heterogeneity ) – नगरों में विभिन्न प्रकार की जनसंख्या पायी जाती है । यहाँ सभी धर्मा , भाषाओ , जातियो , प्रजातियों एवं संस्कृतियों के लोग निवास करते हैं । उनकी वेश – भूषा , खान – पान , जीवनस्तर तथा विचारों में भी अन्तर पाया जाता है ।
विभिन्न व्यवसाय ( Different occupation ) – नगरीय समुदाय में व्यवसायों की भी अधिकता पायी जाती है । यहाँ लोग विभिन्न प्रकार की व्यवसायों में लगे होते हैं । नगर में लोगों का भरण – पोषण , व्यवसाय एवं व्यापार पर ही निर्भर करता है । व्यवसायिक विभिन्नता का क्रम सेवा के क्षेत्र में साधारण मजदूर से आरम्भ होकर बडे – से – बड़े अधिकारी के रूप में देखा जा सकता है और निजी व्यवाय के क्षेत्र में छोटे – से – छोटे दुकानदार से प्रारम्भ होकर बड़े – से – बड़े मालिक तथा उद्योगपति के रूप में देखा जा सकता है । व्यवसायिक विभिन्नता नगरीय समुदाय की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है ।
अम विभाजन एवं विशेषीकरण ( Divisoin of Labour and Specialization ) – नगरीय समुदाय में श्रम – विभाजन और विशेषीकरण पाया जाता है । नगर में विभिन्न प्रकार के व्यवसायों एवं सेवाओं के लिए विशेष योग्यता की आवश्यकता होती है । इन योग्यताओं के अभाव में कार्य करना सम्भव नहीं है । अत : विभिन्न प्रकार के व्यवसाय में विभिन्न योग्यता तथा गुण वाले लोग रूचि लेते हैं । धीरे – धीरे उनके बीच श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण होने लगता है । अलग – अलग व्यवसायों में लगे रहने पर व्यक्ति उसमें निपुणता हासिल कर लेता है । इस प्रकार अलग – अलग क्षेत्र में लगा हुआ व्यक्ति विशेषीकरण प्राप्त करता है और यही श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण विभिन्न व्यक्तियों एवं वर्गों के बीच में सम्बन्ध बनाये रखता है ।
. व्यक्तिवादिता एवं प्रतिस्पर्धा ( Individualism and Competition ) – नगरीय समुदाय में लोगों के बीच व्यक्तिवाद एवं प्रतिस्पर्धा देखने को मिलता है । हर व्यक्ति अपनी प्रगति में ही देश , समाज व परिवार की प्रगति समझता है । इसके लिए वह हर वक्त दूसरे को पीछे कर अपने आपको आगे निकलने का प्रयास करता है । प्रत्येक व्यक्ति अपने हितों की अधिकतम पूर्ति में लगा रहता है , उसे दूसरे की चिन्ता नहीं रहती । इस सन्दर्भ से डेविस ने बताया कि नगरीय समुदायों में व्यक्तिवादिता इस सीमा तक पायी जाती है कि व्यक्तिवाद प्रत्येक क्षेत्र में साधन सम्पत्रता और धन के संग्रह को ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य मानता है । यह व्यक्ति में प्रतिस्पर्धी की भावना को बढ़ाता है । व्यक्तिवादिता एवं प्रतिस्पर्धा उसके आर्थिक एवं राजनैतिक जीवन तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि उसके सामाजिक , सांस्कृतिक एवं पारिवारिक जीवन को भी प्रभावित करता है । *
. द्वितीयक सम्बन्ध ( Secondary relationship ) – नगरीय समुदाय में द्वितीयक सम्बन्धों की प्रधानता पायी जाती है । नगर का आकार बड़ा होने के कारण लोग एक – दूसरे को चेहरे से नहीं जानते उनके बीच प्राथमिक सम्बन्ध नहीं बन पाते । लुई मम्फर्ड ने बताया कि नगरीय समुदाय में औपचारिकता , दिखावटीपन , हित पर आधारित सम्बञ्च एवं औपचारिक नियमो की प्रधानता होती है नगरीय समुदाय में लोग दिन – प्रतिदिन के जीवन में अपने मुहल्ले में ही सम्पर्क स्थापित करते हैं किन्तु दूसरे मुहल्लों में अपरिचितों के रूप में घुमते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि मुहल्ले का आदमी दूसरे मुहल्लों में पहचाने नहीं जाते । यह अपरिचित बोध ( Anonymity ) नगरीय जीवन का एक लक्षण माना जाता है ।
गतिशीलता ( Mobility ) – नगरीय स्थानीय एवं सामाजिक गतिशीलता के पोषक हैं । नगरों में व्यवसायों की अधिकता , आर्थिक गतिविधियों की भिन्त्रता , प्रतियोगिता की अधिकता एवं अनेक ऐसे अवसर उपलब्ध होते है जो सामाजिक स्तरीकरण के विभिन्न सोपानों पर लोगों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं । शहरी जीवन के अवसर एवं साधन ही स्थानीय एवं सामाजिक गतिशीलता को बढ़ाते है । कभी भी कोई व्यक्ति अपनी कुशलता . क्षमता एवं प्रयत्नों से अपनी स्थिति को ऊँचा उठा सकता है । इसी प्रकार कुशलता , क्षमता एवं प्रत्यनों में कमी आने पर अपनी वर्तमान सामाजिक स्थिति से नीचे गिर भी सकता है । इस प्रकार का उतार – चढ़ाव लोगों के जीवन में लगा रहता है जो उनके सामाजिक जीवन को असुरक्षित बना देता है ।
. धर्म के महत्व में कमी ( Decrease in the importance of religion ) – नगरों में दिनों – दिन धर्म का महत्व घटता जा रहा है । लोग धार्मिक पर्व – त्योहारों में रुचि लेने लगे है । धार्मिक स्थानों पर होने वाले पूजा – पाठ तथा भजन कीर्तन में लोग न जाकर अन्य मित्र – मण्डलियों एवं सभाओं में जाना पसन्द करते हैं । धर्म के प्रति उनकी आस्था धीरे – धीरे कम होती जा रही है । नगरीय समुदाय में लोगों का व्यवहार एवं आचरण सिर्फ धार्मिक नियमों से प्रभावित नहीं होता । बल्कि उन पर शिक्षा एवं विज्ञान का भी प्रभाव होता है ।
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तार्किक दृष्टिकोण ( Logical approach ) – नगरीय समुदायों में किसी भी चीज को . तार्किक दृष्टिकोण से देखते है तथा उसे समझने की कोशिश करते है । शिक्षा तथा विज्ञान के प्रभाव ने लोगों के अन्धविश्वासों को दूर किया है । वे उन बातों पर विश्वास नहीं करते जो तर्क की कसौटी पर खड़े नहीं उतरते । नगरीय समुदाय में रूड़ियों एवं परम्पराओं के प्रति उदासीनता पाई जाती है । शिक्षित होने के कारण हर चीज को तर्क के आधार पर जानने का प्रयास करते है । उनका व्यवहार भी परम्परागत नियमों से नहीं बल्कि नये विचारधाराओ से निर्देशित होता है ।
स्थानीय पृथकता ( Spatial Segragation )- नगरीय समुदाय में opatial Segragation ) – नगरीय समुदाय में श्रम – विभाजन एवं विशेषीकरण के कारण प्रत्येक कार्य के लिए स्थान निर्धारित रहते हैं । नगर के मध्य में सावजा लिए स्थान निधारित रहते हैं । नगर के मध्य में सार्वजनिक जीवन से सम्बन्धित कार्यालय होते हैं । इनके चारों ओर प्रमुख व्यापारिक संस्थान , होटल , कैन्टीन , सिनेमा , क्लब इत्यादि प्यापारक संस्थान , होटल , कैन्टीन , सिनेमा , क्लब इत्यादि होते हैं । नगर के भीतरी भागों में घनी आबादी वाले क्षेत्र भी होते है । इन स्थानों में कम आय वाले लोग छाट शहर क बाहरा क्षत्रा में अधिक आय वाले और प्रतिष्ठित लोगों के बंगले होते हैं जहाँ उनका निवास हाता हा इससे स्पष्ट होता है कि नगरों में स्थानीय पृथकता बहुत अधिक पाया जाता है । हैरिस ( C . पुस्तक ‘ The Nature of Cities ‘ में नगरों में पायी जाने वाली स्थानीय पृथकता की विशषता समझाया है ।
औपचारिक सामाजिक नियन्त्रण ( Formal Social Control ) – नगरीय समुदाय – नयन्त्रण क लिए औपचारिक साधनों की आवश्यकता होती है । ऐसे समदायों में अनौपचारिक साधना जैसे धर्म , प्रथा , परिवार , परम्परा इत्यादि का महत्व नहीं होता । परिणामस्वरूप सामाजिक नियन्त्रण के लिए औपचारिक साधना , जैसे कानून , अदालत , पुलिस , जेल , जुर्माना तथा सेना की आवश्यकता पड़ती है । ये लोगों पर दबाव डाल कर नियम के अनुरूप व्यवहार करने के लिए बाध्य करते हैं । फिर भी ये उतना प्रभावशाली नहीं होते जितना की अनौपचारिक साधन होते हैं ।
. महिलाओं की अच्छी स्थिति ( Higher Status of Women ) – नगरीय समुदाय में स्त्रियों की स्थिति अच्छी होती है । शहरों में स्त्रियों की शिक्षा के लिए सुविधाएँ होती हैं । उनके लिए कार्य के भी अनेक अवसर होते हैं । पर्दा प्रथा , बाल – विवाह , विधवा विवाह पर प्रतिबन्ध जैसे नियम का बन्धन नहीं होता । स्वतन्त्र रूप से उनके व्यक्तित्व का विकास सम्भव हो पाता है । पहने उनका सारा जीवन पारिवारिक कार्यों को पूरा करने में व्यतीत हो जाता था । नगर में उद्योग धन्धों में विकास के परिणामस्वरूप पारिवारिक कार्यों में काफी परिवर्तन आया है । अब उनके पास घर के काम – काज को निबटाने के बाद समय बचता है जिसे वे अपनी इच्छानुसार उपयोग करती है । परिवार के नियन्त्रण में कमी हुई है । स्त्रियों के आर्थिक रूप से स्वावलम्बी होने के कारण परिवार के परम्परागत कार्यों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए है । परिवार के बहुत से कार्य अब अन्य संस्थाओं के द्वारा होने लगे है । कुल मिलाकर नगरीय समुदाय ने महिलाओं को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए उचित अवसर तथा सुविधाएँ प्रदान की है ।
. सामाजिक समस्याएँ ( Social Problems ) – नगरीय समुदाय में तरह – तरह की सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न होती रहती हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि शहर सामाजिक समस्याओं का केन्द्र होता है । इन समस्याओं मे अपराध , बाल – अपराध , मद्यपान , वेश्यावृत्ति , बेकारी तथा विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ हैं जो सामान्य जीवन को प्रभावित करती है । लोग विभिन्न प्रकार के तनावों से गुजरते हैं । इन सब समस्याओं का कारण नगरीय पर्यावरण
. गन्दी बस्ती ( Slums ) – नगरीय समुदाय की एक प्रमुख विशेषता गन्दी बस्ती है । नगरों में प्रायः गन्दी बस्तियाँ विकसित हो जाती है । इन गन्दी बस्तियों में रहने वाले लोग विभिन्न प्रकार के तनावों से गुजरते हैं । गन्दी बस्ती अपने निवासियों के स्वास्थ्य तथा मानसिक स्थिति पर भी कुप्रभाव डालती है । मकानों की दयनीय समस्या लोगों को बुरे हाल में रहने के लिए मजबूर करती है । अन्ततोगत्वा उसमें सम्बन्धित अन्य समस्याओं को भी उन्हें झेलना पड़ता है । उपरोक्त विशेषताओं के अतिरिक्त भी कुछ ऐसी विशेषताएँ है जो नगरीय समुदाय में विशेषरूप से पायी जाती है । उदाहरणस्वरूप खीला जीवन , आर्थिक संकट तथा मानसिक संघर्ष इत्यादि । शहरों में आवश्यक खर्च भी उठाने पड़ते हैं । समय – समय पर आर्थिक संकटों का भी सामना करना पड़ता है । विभिन्न कारणों से मानसिक तनाव व संघर्ष भी व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करते है ।