क्षेत्रीयता
– आधुनिक भारत में जिन अवधारणाओं ने सामाजिक – राजनीतिक जीवन में अपना प्रभाव विस्तृत किया है उनमें क्षेत्रीयता ( Regionalism ) भी एक है । इस क्षेत्रीयता या क्षेत्रवाद का जन्म कब और कैसे हुआ यह बताना तो कठिन है , पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि आज इसका जो उग्र रूप प्रगट हुआ है वह राष्ट्रीय एकता की समस्या को और भी गम्भीर बना देता है । स्वतन्त्रता – प्राप्ति के समय देश – विभाजन के फलस्वरूप भारत की अखण्डता पर जो कुठाराघात हुआ था वह क्षेत्रवाद के कारण और भी भयंकर हो गया है । इस क्षेत्रीयता की भावना के जन – जीवन में जड़ पकड़ने के कारण आज हमारा देश केवल हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में ही नहीं अपितु एकाधिक क्षेत्रों मे बँट गया है और प्रत्येक क्षेत्र के लोग दूसरों पर अपनी श्रेष्ठता को प्रमाणित करने का बीड़ा उठा चुके हैं । पर इस सम्बन्ध में और कुछ लिखने से पूर्व क्षेत्रीयता के वास्तविक अर्थ को समझ लेना आवश्यक है ।
लुण्डबर्ग ( Lundberg ) ने लिखा है कि “ क्षेत्रीयता उस अध्ययन से सम्बन्धित है जिसमें कि एक भौगोलिक क्षेत्र तथा मानव – व्यवहार के बीच पाए जाने वाले सम्बन्ध पर बल दिया जाता है । इस रूप में क्षेत्रीयता एक प्रकार का विश्वपरिस्थिति – विज्ञान हैं क्योंकि इसकी रुचि विभिन्न क्षेत्रों के बीच तथा एक ही क्षेत्र के विभिन्न अंगों के बीच पाए जाने वाले प्रकार्यात्मक सावयवी सम्बन्धों ( functional Forganic relationships ) में हैं । ” 1 उपरोक्त परिभाषा में श्री लुण्डबर्ग ने क्षेत्रीयता को विज्ञान की एक शाखा के रूप में देखा है जिसका कि अध्ययन – विषय दूसरे क्षेत्रों के संदर्भ में एक क्षेत्र – विशेष के लोगों का सामाजिक व्यवहार है । इस दृष्टिकोण से क्षेत्रीयता भी मानव – व्यवहार की एक विशेष अभिव्यक्ति है और इस अभिव्यक्ति की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि यह अपने क्षेत्र की परिस्थितियों द्वारा प्रभावित और निर्देशित होती रहती है । अर्थात् इसमें एक क्षेत्र विशेष की परिस्थितिगत अवस्थाओं की झलक सुस्पष्ट रूप में देखने को मिलती है । क्षेत्रीयता इस बात की द्योतक है कि लोगों का एक क्षेत्रीय चरित्र ‘ ( regional character ) होता है और उसी के संदर्भ में उनके व्यवहारों को वास्तविक अर्थ में समझा जा सकता है ।
. बोगार्डस ( Bogardus ) ने लिखा है कि यदि किसी भौगोलिक क्षेत्र का आर्थिक साधन इस भाँति विकसित हो जाए कि उनके लिए अपनी विलक्षणता को बनाए रखना सम्भव हो तो वहाँ के लोगों में सामूहिक हितों का विकास और इस प्रकार क्षेत्रीय आदर्शों का विकास हो सकता है । यहीं से क्षेत्रीयता की नींव पड़ती हैं । प्रो . बोगार्डस ने यह भी लिखा है कि क्षेत्रीयता में एक सांस्कृतिक समग्रता निहित होती है ( Regionalism ) involves a cultural wholeness . ) । 3 एक क्षेत्र के सांस्कृतिक लक्षणों मे कुछ – न – कुछ समानता होती है । एक क्षेत्र का अपना एक सांस्कृतिक इतिहास होता है । इसी के आधार पर उस क्षेत्र के लोगों के विचारों भावनाओं , क्रियाओं तथा व्यवहारों में समानता या विलक्षणता पनप जाती है और उसे बनाए रखने का भी प्रयत्न किया जाता है । फिर भी इन क्षेत्रीय आदर्शों तथा स्वार्थों को इतना अधिक बढ़ने या उग्र रूप धारण करने नहीं दिया जाता कि वह राष्ट्रीय हित का हनन कर सकें ।
इसलिए डा . राधाकमल मुकर्जी ( R . k . Mukherjee ) ने लिखा है कि क्षेत्रीयता , राष्ट्रीयता के अधीन है ( Regionalism is subordinate to nationalism ) 14 उपरोक्त विवेचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि क्षेत्रीयता एक क्षेत्र – विशेष में निवास करने वाले लोगों के अपने क्षेत्र के प्रति वह विशेष लगाव व अपनेपन की भावना है जिसे कि कुछ सामान्य ( common ) आदर्श , व्यवहार , विचार तथा विश्वास के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है ।
क्षेत्रीयता का संकीर्ण अर्थ ( Narrow Meaning of Regionalism ) विस्तृत अर्थ मे क्षेत्रीयता राष्ट्रीयता के अधीन है , अर्थात् इसके अन्तर्गत इस प्रकार की किसी भी क्रिया , भावना या विचार को सम्मिलित नहीं किया जाता है जो कि राष्ट्रीय स्वार्थों के लिए या राष्ट्रीय एकता के लिए घातक सिद्ध हो । पर क्षेत्रीयता का यह विस्तृत रूप बहुधा विकृत हो जाता है और उसमें इस प्रकार के संकीर्ण मनोभाव पनप जाते हैं कि एक क्षेत्र के लोग केवल अपने ही क्षेत्र के स्वार्थों को सर्वोपरि । मानते हुए उनकी रक्षा करने का प्रयत्न करते हैं । इस संकीर्ण रूप में क्षेत्रीयता का अर्थ उन आदर्श , व्यवहार , विचार तथा कार्यक्रमों से होता है जो कि एक क्षेत्र – विशेष के लोगों के मन में मिथ्या गौरव व श्रेष्ठता की भावना को पनपाते हैं और उसी आधार पर वे अपने लिए समस्त राजनीतिक तथा आर्थिक सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए इस भाँति तत्पर हो जाते हैं कि विस्तत राष्ट्र के स्वार्थों तथा राष्ट्रीय एकता की । आवश्यकताओं को भी वे भूला देते है । क्षेत्रीयता का यह रूप उस क्षेत्र के लोगों में यह भावना भर देता है कि उनकी भाषा , उनकी संस्कृति , उनका इतिहास तथा सामाजिक परम्पराएँ ही श्रेष्ठ हैं और इसीलिए उस क्षेत्र के सर्वांगीण विकास के लिए हर सम्भावित सुविधाओं का होना आवश्यक है तथा वे सुविधाएँ उन्हें उनके अधिकार के रूप में ही उपलब्ध होनी चाहिए । माँग यह होती है कि उस क्षेत्र को प्रशासनीय अधिकार – अधिकाधिक प्राप्त हों , उनकी समस्याओं पर पहले ध्यान दिया जाए , उनकी भाषा को राष्ट्रीय आधार पर मान्यता प्राप्त हो तथा समस्त राष्ट्रीय विषयों के सम्बन्ध में उनके महत्त्व को अवश्य ही स्वीकार किया जाए । इन सबके लिए यदि उन्हें सम्पूर्ण राष्ट्र से अपना नाता ढीला भी करना पड़े तो उसके लिए भी वे तैयार रहते । हैं । इस अर्थ में क्षेत्रीयता पृथक्ता की नीति की समर्थक भी बन सकती है ।
क्षेत्रीयता की प्रकृति ( Nature of Regionalism ) विस्तृत अर्थ मे क्षेत्रीयता या क्षेत्रवाद एक क्षेत्र में पाए जाने वाली कुछ सामाजिक , सांस्कृतिक , आथिक समानताओं पर आधारित होता है । यह क्षेत्र एक ही राष्ट्र या समाज का एक अंग हो सकता है अथवा इसक अन्तर्गत एकाधिक छोटे – मोटे ऐसे राष्ट्रों का भी समावेश हो सकता है जो कि अपनी भौगिलिक स्थिति , भाषा , धर्म तथा अर्थ स्वार्थों के सम्बन्ध में समान हो । परन्तु क्षेत्रीयता का उग्र व संकुचित सस होता है जिसके अन्तर्गत क्षेत्रीय स्वार्थों को राष्ट्रीय स्वाथों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण मानलिया जाता है । कुछ भी हो , क्षेत्रीयता की वास्तविकता को समझने के लिए हमें निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए
क्षेत्रीयता स्थानीय देशभक्ति तथा क्षेत्रीय श्रेष्ठता की भावना को बल देती है ( Regionalism strengthens local patriotism and regional ethnocentrism ) : एक क्षेत्र – समूह की अपनी एक सामान्य संस्कृति होती है और उसी समानता के आधार वर वहाँ के निवासियों में कुछ सामान्य आदर्श , भावनाएँ , धारणाएँ तथा विचार पनप जाते है और साथ ही यह विश्वास भी लोगों के दिल में घर कर जाता है कि ये आदर्श , भावनाएँ व धारणाएँ आदि अन्य क्षेत्रों के आदर्श , भावनाओं व धारणाओं से कहीं अधिक अच्छी या श्रेष्ठ हैं । साथ ही , उस क्षेत्र में पाई जाने वाली समान भाषा , सामान्य सांस्कृतिक परम्परा , समान ऐतिहासिक घटनाएँ तथा समान सामाजिक आर्थिक व राजनीतिक समस्याएँ वहाँ के लोगों मे स्थानीय देशभक्ति अर्थात् अपने उस क्षेत्र के प्रति विशेष लगाव को पनपाने में सहायक होती हैं । यह विशेष लगाव और श्रेष्ठता की भावना अन्य क्षेत्रों के साथ तनाव की स्थिति को उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध होती
क्षेत्रीयता एक सीखा हुआ व्यवहार है ( Regionalism is a learned behaviour ) : एक क्षेत्र – समूह के सदस्यों में अपने क्षेत्र के प्रति जो विशेष लगाव होता है और उनमें अपने क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत को अन्य क्षेत्र की तुलना में श्रेष्ठ समझने की जो भावना देखने को मिलती है वह सब सीखा हुआ व्यवहार ही होता है । प्रजातीय या शारीरिक विशेषताओं की भाँति क्षेत्रीयता की भावना प्रजनन या वंशानुसंक्रमण की प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्ति को प्राप्त नहीं होती , अपितु वह तो भाषा व अन्य प्रतीकों के माध्यम से विचारों के आदान – प्रदान के द्वारा तथा सामाजिक अन्तः क्रियाओं के दौरान एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को हस्तान्तरित होती रहती है और इसी भाँति क्षेत्रीयता की भावना की निरन्तरता बनी रहती है । अपनेपन को न केवल विकसित करती है अपितु उसकी सांस्कृतिक , सामाजिक व आर्थिक विरासत ( heritage ) में अपने को एक सक्रिय हिस्सेदार समझने तथा उसी संदर्भ में व्यवहार करने को भी प्रेरित करती है ।
क्षेत्रीयता की मात्राएँ अनेक हो सकती हैं ( Regionalism is of many degress ) : क्षेत्रीयता की इस प्रकृति को दो पृथक दृष्टिकोण से समझाया जा सकता है – प्रथम तो यह क्षेत्रीयता की मात्रा उदार से उग्र तक हो सकती है अर्थात् क्षेत्रीयता का स्वरूप इतना उदार हो सकता है कि वह कई समान राष्ट्रों को अपनी बाँहो में समेट ले और सदा राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए क्रियाशील हो । इसके विपरीत क्षेत्रीयता का रूप इतना उग्र हो सकता है कि वह अपने क्षेत्र को ही सर्वोपरि मानकर अपने – हितों के सम्मुख राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ाने में तनिक भी संकोच न करे । इन दोनों विपरीत छोरों के बीच क्षेत्रीयता का रूप या स्वरूप कम – ज्यादा उदार या उग्र भी हो सकता हैं । दूसरे अर्थ में , क्षेत्रीयता की भावना विभिन्न क्षेत्रों के लोगों में अथवा एक ही क्षेत्र के सभी लोगों मे समान न होकर अलग – अलग होती है । उदाहरणार्थ , भारत के उत्तरी क्षेत्र के लोग अपनी क्षेत्रीय विरासत ( regional heritage ) के सम्बन्ध में जितना अधिक जागरूक हैं , उतनी जागरूकता मध्य भारत के क्षेत्र के लोगों में न भी हो सकती है अथवा उनकी वह जागरूकता दक्षिणी क्षेत्र के लोगों की उग्र जागरूकता के सामने फीकी लगती हो । उसी प्रकार यह नहीं कहा जा सकता कि दक्षिण क्षेत्र के सभी लोगों में अपनी क्षेत्रीयता विरासत के प्रति समान सचेतता है । विभिन्न लोगों में यह सचेतता कम या अधिक , उदार या उग्र हो सकती है और व्यावहारिक तौर पर होती भी है ।
नकारात्मक ( संकीर्ण ) क्षेत्रीयता के फलस्वरूपक्षेत्रीय स्वशासन , यहाँ तक कि नातिक पृथक्करण की मांग प्रस्तुत की जा सकती है ( Negative regionalisan mey read to demand for regional autonomvorevenpolitical separtism ) : अपनी क्षन्दन विलक्षणता व श्रेष्ठता को बनाए रखने की धन में वहाँ के लोग क्षेत्रीय स्वशासन की मांग कर सकते है । एन माम विभिन्न क्षत्रों के लोगों में आर्थिक तथा राजनीतिक अधिकारों को हथियाने कर आपसम एक उग्र प्रतिस्पर्धा चलती रहती है जिसके फलस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों के बीच कटुभाव उहतर बढ़ता
क्षेत्रीयता 191 रहता है । यह स्थिति न तो राष्ट्रीय एकता के लिए और न ही राष्ट्रीय प्रगति के लिए हितकर सिद्ध होती
क्षेत्रीयता से मनोभाव की संकीर्णता ही अभिव्यक्त होती है ( Regionalism reflects the narrowness of outlook ) : अपने उग्र रूप में क्षेत्रीयता कभी भी लोगों में मनोभाव को पनपाने में सहायक सिद्ध नहीं हो सकती क्योंकि यह तो उस मनोभाव का प्रतिनिधित्व करत है जिसके अनुसार अपने ही क्षेत्र की सांस्कृतिक परम्पराओं , धर्म , भाषा , आदर्श , सिद्धान्त तथा आचारों को अन्य क्षेत्रों की तुलना में कहीं अधिक श्रेष्ठ माना जाता है और उसी रूप मे उन्हें प्रस्थापित करने के लिए हर उचित – अनुचित पग उठाया जाता है । इसीलिए अपने क्षेत्र मे बसे अन्य क्षेत्रों के लोगों के साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया जाता है और कभी – कभी तो उन्हें सामाजिक , आर्थिक अन्याय का शिकार तक बना लिया जाता है और साथ ही क्षेत्रीय भक्ति ( regional patriotism ) तथा क्षेत्रीय बफादारी ( regional loyalty ) के नाम पर इन सब पक्षपातपूर्ण अन्यायों को कोई न कोई औचित्य भी ढूंढ़ लिया जा
क्षेत्रीयता के विकास के कारक
( Factors in the emergence of Regionalism )
भौगोलिक कारक ( Geographical factors ) : बहुधा भौगोलिक कारक क्षेत्रीयता के विकास का एक अत्यन्त प्रभावपूर्ण कारक बन जाता है । भारत इसका एक उत्तम उदाहरण है । भारत चार स्पष्ट भौगिलिक क्षेत्रों में स्वाभाविक रूप से विभक्त है और वे क्षेत्र हैं उत्तर का पर्वतीय प्रदेश , गंगा – सिन्धु का विशाल मैदान , दक्षिणी पठार तथा मध्य भारत का रेगिस्तानी क्षेत्र । इन चारों क्षेत्रों की भौगिलिक दशाएँ अलग – अलग ही नहीं , कुछ विषयों में एक – दूसरे के बिल्कुल विपरीत भी है । फलतः विभिन्न क्षेत्रों या प्रदेशों में जो विभाजन हुआ उसका प्रभाव जीवन के प्रत्येक पक्ष पर पड़ा और एक क्षेत्र के सामाजिक धार्मिक रीति – रीवाज , भाषा , सांस्कृतिक परम्पराएँ , पोशाक , आभूषण , प्रकृति खान – पान , रहन – सहन आदि दूसरे क्षेत्रों से भिन्न रहे । इस भिन्नता ने क्षेत्रीयता के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया ।
ऐतिहासिक कारक ( Historical factors ) : भौगोलिक कारकों की भाँति ऐतिहासिक कारक भी क्षेत्रीयता के विकास में सहायक सिद्ध हो सकते हैं । इस देश की विशालता और विभिन्न क्षेत्रों के होने से भारत प्राचीन और मध्य काल में विस्तृत प्रादेशिक राज्यों का देश रहा । यद्यपि कुछ ‘ शक्तिशाली महत्त्वाकांक्षी राजाओं ने ऐसे साम्राज्य स्थापित किए जिनमें सारा भारत था फिर भी देश की विशालता और यातायात के साधनों के अभाव में एक अखण्ड केन्द्रीय राज्य अधिक दिनों तक भारत में बना न रह सका । जब कभी भी केन्द्रीय सम्राट शक्तिहीन और अस्थिर हुआ तभी अधीनस्थ प्रदेशों और सामन्तों ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी और स्थानीय स्वशासन को चालू कर दिया । भारत के ऐतिहासिक विकास के दौरान एक बार नहीं , असख्य बार ऐसा ही हुआ जिसके फलस्वरूप क्षेत्रीय स्वशासन को स्थापित करने की इच्छा इस देश की एक राजनीतिक परम्परा बन गई । उसी परम्परा के हस्तान्तरण के कारण ही शायद आज नागालैण्ड , तमिल प्रदेश , पंजाबी सूबा , आन्ध्र विभाजन आदि की माँग रखी गई है ।
राजनीतिक कारक ( Political factors ) : अनेक राजनीतिक कारक भी क्षेत्रीयता के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं । भारत में कुछ राजनीतिक संगठन या पार्टियाँ ऐसी है जो कि क्षेत्रीयता की भावना को भड़काकर लोकप्रिय होने का प्रयत्न करती हैं और साथ ही अपने संकीर्ण स्वार्थों की सिद्धि करने में सफल होती हैं । ये पार्टियाँ कभी – कभी तो धार्मिक और भाषा – सम्बन्धी जामा पहने हुए होती है जिससे कि लोगों की लोकप्रिय भावनाओं को उकसाना उनके लिए सरल जाए । धर्म और भाषा की आड़ लेकर ये दल एक क्षेत्र के लोगों को यह लालच दिलवाते रहते हैं कि उनके अपने प्रदेशों की टीम ही एक स्वतन्त्र सत्ता प्राप्त होने वाली हैं जिसके बाद वे अपने क्षेत्र के समस्त खोए हुए गौरव व परम्पओ को पुनर्जीवित करने में सफल होंगे । इस प्रकार क्षेत्रीय दल ( regional parties ) क्षेत्रीयता के विकास के महत्त्वपूर्ण कारक बन जाते हैं । इतना ही नहीं , क्षेत्रीय नेताओं का भी इस दिशा में पर्याप्त सहयोग रहता है । ये क्षेत्रीय नेता खूब प्रभावशाली व्यक्ति होते हैं और केन्द्रीय सरकार पर न केवल अपना प्रभाव विस्त किये हुए होते हैं अपितु अपने क्षेत्रीयता स्वार्थो की सिद्धि के मामले में केन्द्रीय सरकार की सरकार की अपेक्षा
192 करने तक को नहीं हिचकिचाते हैं । ये नेता केवल अपने ही क्षेत्र के विषय में सोचते हैं और अन्य क्षेत्रों के स्वार्थों के कुचल देने में भी संकोच नहीं होता । .
सांस्कृतिक कारक ( Cultural factors ) : क्षेत्रीयता के विकास में सांस्कृतिक कारक भी हम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं । भारत की भौगिलिक परिस्थितियों ने भारत को न केवल कुछ भौगोलिक क्षेत्रों मे अपितु उतने ही सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी बाँट दिया है । इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक भौगोलिक क्षेत्र का अपना एक विशिष्ट सांस्कृतिक जीवन – प्रतिमान ( life pattern ) हैं और उस प्रतिमान से एक अजीब लगाव उस क्षेत्र के लोग पनपा चुके हैं । यह लगाव कभी – कभी इतना स्पष्ट व एकतरफा हो जाता है कि एक क्षेत्र के लोग अपने सांस्कृतिक प्रतिमान को अन्य क्षेत्रों की तुलना में कहीं अधिक श्रेष्ठ समझने लगते हैं । उदाहरणार्थ , उत्तरी क्षेत्र के लोगों को यह कहते हुए गर्व होता है कि उन्हीं के क्षेत्र में वैदिक सम्भता और संस्कृति का उदय हुआ । उनका दावा है कि सिन्ध घाटी की सभ्यता और आर्य सभ्यता सम्पूर्ण भारत को नया प्रकाश देने वाली थीं और उन्हीं के क्षेत्र में भारतीय संस्कृति , ललित कला , साहित्य , दर्शन , यहाँ तक कि राजनीति का सर्वप्रमुख केन्द्र रहा और अब भी हैं । हिन्दी भाषा इसी क्षेत्र का मूल भाषा है और स्वतन्त्र भारत के भी प्रधानमंत्री इसी क्षेत्र के हैं । दूसरी और भारत के दक्षिणी क्षेत्र के लोगों का यह दावा है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति के अनेक मौलिक तत्त्व उनके ही क्षेत्र में विद्यमान हैं । उनका क्षेत्र द्राविड़ सभ्यता , सांस्कृति और भाषाओं का आदि स्थान हैं । इस अर्थ में आदि – भारत का सच्चा रूप तो उनका ही क्षेत्र है इस रूप का दर्शन भारत के अन्य किसी भी क्षेत्र में नहीं हो सकता । साथ ही वहां के लोग सदा से बलिष्ठ , परिश्रमी , साहसी और स्वतन्त्रता प्रिय हैं और उस स्वतंत्रता की रक्षा के लिए वे अपना सब – कुछ बलिदान करने में भी कभी न हिचकिचाए । यही उनका परम्परागत हौ गौरव है । स्पष्ट है कि उत्तरी या दक्षिणी क्षेत्र के लोगों के ये सभी दावे ( Claims ) झूठे न होते हुए भी क्षेत्रीयता के विकास में सहायक ही सिद्ध होते हैं ।
भाषावाद ( Linguism ) : सांस्कृतिक कारकों में क्षेत्रीयता के विकास का एक महत्त्वपूर्ण कारक भाषावाद ही हैं । भारत में स्थिति यह यह हैं कि उप – सांस्कृतिक क्षेत्र ( sub – cultural region ) के मुख्य समूह के सदस्य एक विशेष भाषा को बोलते तथा लिखते हैं । इन्हें क्षेत्रीय या प्रादेशिक भाषा ( regional language ) कहा जाता हैं । प्रत्येक प्रादेशिक भाषा के बोलने वालों का अपनी भाषा के प्रति अत्यधिक संवेगात्मक ( emotional ) लगाव होता हैं जिसके फलस्वरूप वे यह मान बैठते हैं कि उनकी ही भाषा की शैली , शब्दावली , साहित्यिक समृद्धि तथा गहनता अन्य सभी भाषाओं से कहीं अधिक आकर्षक व श्रेष्ठ प्रकृति की है । केवल अपनी ही भाषा को इस प्रकार श्रेष्ठ समझना और अन्य सभी प्रादेशिक भाषाओं को हेय मान लेना प्रादेशिक दूरी को बढ़ाता है और क्षेत्रीयता का विकास करता हैं ।
क्षेत्रीयता के दुष्परिणाम
( Evil Consequences of Regionalism )
विभिन्न क्षेत्रों के बीच संघर्ष तथा तनाव ( Conflct and tension between different regions ) : संकीर्ण क्षेत्रवाद का जो सर्वप्रथम दुष्परिणाम हमें भारत में देखने को मिलता है वह यह है कि इसके कारण विभिन्न क्षेत्रों के बीच आर्थिक , राजनीतिक , यहाँ तक कि मनोवैज्ञानिक संघर्ष और तनाव दिन – प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है । इसका कारण यह है कि प्रत्येक क्षेत्र अपने स्वार्थो या हितों को सर्वोच्च स्थान दे बैठता हैं और उसे यह चिता नहीं होती कि उससे दूसरे क्षेत्रों को कितना नुकसान होगा । आज विभिन्न प्रदेशों के बीच सीमा सम्बन्धी झगड़ा उत्पन्न होता हैं , एक विश्वविद्यालय अमुक क्षेत्र में न खोलकर हमारे क्षेत्र में खोला जाए इस बात को लेकर उस क्षेत्र के लोग आन्दोलन करते हैं , इस्पात प्रोजेक्ट ( Steel Plant Project ) की स्थापना का विषय भी घोर आन्दोलन का विषय बन जाता है , यहां तक कि लोक सभा की बैठके उत्तरी क्षेत्र में ही क्यों ही , क्यों न दक्षिणी क्षेत्र में भी लोकसभा की बैठकें हों – यही वाद – विवाद का अच्छा विषय बन जाता है और विभिन्न क्षेत्रों के बीच कट भावना को पनपाता है ।
राज्य तथा केन्द्रीय सरकार के बीच सम्बन्धों को विकृत होना ( Deformation arCentrotaNortasons ) : भारत में क्षेत्रीयता के कारण केन्द्रीय सरकार तथा सरकार के बीच का धि कभा – अत्रूप धारण कर लेता है । प्रत्येक क्षेत्र में स्वार्थ – समूह , क्षेत्रीय नेतागण ,बडे – बडे उद्योगपति तथा राजनीतिक अपने – अपने क्षेत्र के स्वार्थो को सर्व रूप में प्राथमिकता देते है और सदीय सरकार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करते हैं । केन्द्रीय सरकार जिसकी तरफ भी घोडा – सा झक गई वही विवाद का विषय बन जाता है और केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों का पारस्परिक सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण नहीं रह पाता है ।
स्वार्थी नेतृत्व व संगठन का विकास ( Emergence of self centred leadership and organization ) : क्षेत्रीयता का एक और दुष्परिणाम यह होता है कि इसके फलस्वरूप अलग – अलग क्षेत्र में कुछ इस प्रकार के नेतृत्व व संगठनों का विकास हो जाता हैं जो कि जनता की भावनाओं को उभारकर अपने संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति करना चाहते हैं । इस प्रकार के नेताओं व संगठनों को न तो क्षेत्रीय हितों और न ही राष्ट्रीय हितों का तनिक की ख्याल रहता है , उनका समस्त ख्याल तो अपनी लोकप्रियता को बढ़ाकर अपने ही स्वार्थों को सिद्ध करने पर केन्द्रित हो जाता हैं । ये नेतागण कभी तो भाषा के प्रश्न को लेकर हंगामा मचाते हैं और कभी केन्द्रीय सरकार के पक्षपातपूर्ण व्यवहार के विरुद्ध नारा लगाने के लिए सामने आ खड़े होते हैं । चाहे इनमें से कोई भी समस्या वास्तविक हो या केवल काल्पनिक । ऐसे नेताओं और
संगठनों से किसी का कुछ भी भला नहीं होता , फिर भी क्षेत्रीयता कीड़ में इन्हें पनपने का – अच्छा मौका मिल जाता हैं । (
भाषा की समस्या का अधिक जटिल होना ( Language problem be comes more complex ) : क्षेत्रीयता का एक और बुरा प्रभाव यह होता है कि क्षेत्रीय वफादारी । ( regional lovlty ) भाषा की समस्या को सुलझाने में सहायक होने के स्थान पर उसे और भी जटिल बनाने – – में मदद करती हैं । क्षेत्रीय वफादारी का सीधा सम्बन्ध या प्रादेशिक भाषा के प्रति विशेष लगाव से होता है जिसते कारण प्रादेशिक भाषा को आवश्यकता से अधिक महत्त्व प्रदान करने की गलती उस क्षेत्र के लोग कर बैठते हैं । परिणाम यह होता है कि अन्य किसी भाषा के प्रति . सहिष्णुता की भावना बिलकुल ही नहीं रह जाती और विभिन्न भाषाभाषी क्षेत्रों के बीच भाषा के प्रश्न को लेकर ही कटुता बढ़ती चली जाती हैं । क्षेत्रीयता का यह परिणाम जनकल्याण और राष्ट्रीय प्रगति के दुष्टिकोण से अत्यन्त घातक सिद्ध होता है ।
राष्ट्रीय एकता को चुनौती ( Challenge to National Integration ) : संकीर्ण क्षेत्रीयता राष्ट्रीयता एकता के लिए चुनौती बन जाती है । भारत आज एक संक्रमण काल ( transitional period ) से गुजर रहा है जबकि शताब्दियों पुरानी परम्पराओं को त्यागकर आधुनिकीकरण की ओर बढ़ रहा है । इस नाजुक दौर पर सामाजिक , सांस्कृतिक , राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में परिवर्तन की गति एक समान नहीं हैं । अतः देश की सामाजिक व्यवस्था में असन्तुलन की स्थिति विद्यमान होनी स्वाभाविक ही हैं । ऐसी अवस्था में क्षेत्रीयता के फलस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों के बीच जो तनाव और सघंर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है वह राष्ट्रीय एकता की समस्त धारणाओं और भावनाओं पर तुषारापात करती है । क्योंकि क्षेत्रीयता के फलस्वरूप विभित्र क्षेत्रों के लोगों में कभी क्षेत्रीय स्वार्थों को लेकर , कभी राजनीतिक स्वशासन या पृथक राज्य को प्रश्न को लेकर स्वार्थों को लेकर , कभी राजनीतिक स्वशासन या पृथक राज्य को प्रश्न को लेकर तो कभी प्रादेशिक भाषा के प्रश्न को लेकर जो झगड़े तथा मन – मुटाव खड़े हो जाते है वे राष्ट्रीय एकता के लिए घातक ही सिद्ध होते हैं । –
क्षेत्रीयता को रोकने के उपाय
राष्ट्रीय जीवन के लिए क्षेत्रीयता कोई अच्छी चीज नहीं हैं । इस पर रोक लगाना ही उचित हैं । इस सम्बन्ध में निम्नलिखित उपायों को सुझाया जा सकता है :
( 1 ) केन्द्रीय सरकार की नीति कुछ इस प्रकार की होनी चाहिए कि सभी उप – सांस्कृतिक क्षेत्रों Grcultural regions ) का सन्तुलित आर्थिक विकास सम्भव हो जिससे कि विभिन्न क्षेत्रों के कम – स – कम हा ।
क्षेत्र के लोगों की समान आर्थिक सुविधाएँ प्रदान की जाएँ जिससे कि अनावश्यक – बीच आर्थिक तनाव कम – से – कम हो । – प्रास्पद्धा व इया की भावना पनप न सके ।
जहाँ तक सम्भव व व्यावहारिक क्षेत्रों की उचित आकांक्षाओं की पूर्ति की जाए यदि उनका कोई बुरा प्रभाव राष्ट्रीय जीवन व संगठन पर न पड़ता हो ।
( 4 ) भाषा सम्बन्धी झगड़ों का हल शीघ्र ही ढूँढ़ लिया जाए । इस सम्बन्ध में सबसे उचित हल यह हैं कि सभी क्षेत्रीय भाषाओं को समान को समान मान्यता प्रदान की जाए ।
( 5 ) हिन्दी भाषा को किसी भी क्षेत्रीय समूह पर जबरदस्ती लादा न जाए अपितु इस भाषा का प्रचार व विस्तार इस ढंग से किया कि विभिन्न क्षेत्रीय समूह स्वतः ही इसे सम्पर्क – भाषा ( link language ) के रूप मे स्वीकार कर लें ।
( 6 ) पर सभी उत्साह तथा साधन केवल हिन्दी भाषा के विकास में ही न लगाए जाएँ अपित् – सुनिश्चित योजनाएँ बनाकर सभी प्रादेशिक भाषाओं को , उनकी अपनी विशिष्टताओं के अनुसार , विकसित होने का समान अवसर प्रदान किया जाए ।
( 7 ) प्रचार के विभिन्न साधनों के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों के सांस्कृतिक लक्षणों के विषय में लोगों के सामान्य ज्ञान को बढ़ाया जाए जिससे कि एक क्षेत्र के लोग दूसरे क्षेत्र के प्रति अधिक सहनशीलता की भावना को न पनपा सकें ।
( 8 ) केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में सभी क्षेत्रों के नेताओं का संतुलित प्रतिनिधित्व हो जिससे कि क्षेत्रीय पक्षपातपूर्ण नीतियों का खण्डन हो सके और केन्द्रीय सरकार के इरादों पर किसी को भी सन्देह न रह ।
( 9 ) केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों के बीच पारस्परिक सम्बन्धों को अधिकाधिक सौहार्दपूर्ण बनाने के लिए दोनों ही पक्षों को इस प्रकार की नीति तथा आचार संहिता को अपनाना चाहिए कि पारस्परिक विश्वास टूट न जाए और ऐसे अवसर कभी न आएँ कि उन्हें एक – दूसरे पर कीचड़ उछालने को आवश्यकता हो । संकीर्ण मनोभाव वाले स्वार्थी नेतागण इसी प्रकार के अवसरों की राह ताकते रहते है और मौका मिलते ही क्षेत्रीयता की भावना को भड़काने का प्रचत्न करते हैं । राज्य सरकारों और विशेषकर केन्दीय सरकार को इस प्रकार का मौका क्षेत्रीय नेताओं को कभी न देना चाहिए । स्मरण रहे कि उपरोक्त सभी उपाय एक – दूसरे के पूरक हैं उसी रूप में उन्हें अपनाया जाना चाहिए । पर क्षेत्रीयता का वास्तविक हल तब तक सम्भव नहीं जब तक प्रत्येक भारतवासी के मन मे यह भावना जड़ न पकड़ ले कि हमारा अपना क्षेत्र तो अपना हैं ही , पर उससे भी कहीं विशाल एक क्षेत्र – भारत – उससे कहीं अधिक अपना हैं । हमारा अपना क्षेत्र तो एक नदी मात्र हैं , पर भारत तो एक महासमद्ध है – नदी की सार्थकता तो उस समुद्ध की विशालता में विलीन हो जाने में ही है । यही उसकी परम गति , परम मुक्ति है । उस मुक्ति का सन्देश भारत के हर घर तक पहुंचाना है !