ए . आर . देसाई : राज्य
देसाई ने भारतीय समाज के रूपान्तरण की व्याख्या हेतु द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त को अपनाया । उन्होंने बतलाया कि किस भांति भारत में गुणात्मक बदलाव से राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ ।
भारतीय समाजशास्त्र में अक्षय रमनलाल देसाई ( ए . आर . देसाई ) एक विशेष प्रभावी व्यक्तित्व रहे । ए.आर.देसाई ( 1915-1994 ) ए.आर.देसाई ऐसे समाजशास्त्री हैं जिन्होंने भारतीय समाज के अध्ययन में मार्क्स के सिद्धान्त और उनकी ऐतिहासिक विधियों को लागू किया है । वे वस्तुतः मार्क्सवादी समाजशास्त्री थे । । देसाई ने मार्क्स , एंजेल्स तथा लिओन ट्रोट्स्की की रचनाओं का गहन अध्ययन किया । वे इन विचारों से बहुत प्रभावित रहे । देसाई आजीवन मार्क्सवादी रहे । मार्क्सवादी राजनीति में उनकी सक्रियता बड़ौदा में स्नातक की पढ़ाई करते हुए हुई । अध्ययन और अध्यापन के साथ ही राजनीति में उनकी रुचि लगातार बनी रही । अपने जीवन में उन्होंने अनेक ऐसी पुस्तकें लिखीं जिन्हें समाजशास्त्र में आज भी बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है । वे कई पदवियों से सम्मानित हुए । वे ‘ इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसाइटी ‘ के अध्यक्ष भी रहे । देसाई की प्रथम प्रमुख कृति ‘ भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि ( हिन्दी अनुवाद ) न केवल अपने मार्क्सवादी शैक्षिक परिप्रेक्ष्य के कारण एक नवीन प्रवृत्ति स्थापित करने वाला गौरव ग्रन्थ ( क्लासिक ) रहा है , अपितु इसे भारत में समाजशास्त्र का इतिहास के साथ समागम करने वाली एक उत्कृष्ट प्रथम कृति कहा जा सकता है । देसाई ने इस ग्रन्थ के बाद कई भिन्न विषयों ; जैसे – भारतीय राज्य , कृषक समाज व्यवस्था , प्रजातन्त्रात्मक अधिकार , नगरीकरण , कृषक आन्दोलन आदि पर लिखा है । उनकी ‘ भारत में ग्रामीण समाजशास्त्र ‘ नामक सम्पादित पुस्तक अपने विषय की एक प्रामाणिक पाठ्य पुस्तक मानी जाती रही है जिसके अब तक कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं । उन्होंने इसमें भारतीय कृषक व्यवस्था के सामन्ती चरित्र को उजागर किया है ।
ए . आर . देसाई का जन्म 1915 में बड़ौदा के एक सम्भ्रांत परिवार में हुआ था । इनकी प्रारम्भिक शिक्षा बड़ौदा में ही सम्पन्न हुई । फिर बाद में सूरत व बम्बई में उच्च शिक्षा प्राप्त की । 1934-39 के बीच भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे । 1946 में जी . एस . घूर्ये के निर्देशन में बम्बई विश्वविद्यालय से पी – एच . डी . की उपाधि प्राप्त की । 1948 में पी – एच . डी . शोध पुस्तक सोशल बैकग्राउंड ऑफ इंडियन नेश्नलिज्म- के रूप में प्रकाशित हुई । 1951 में वे बम्बई विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में नियुक्त हुए । अपनी प्रतिभा के बल पर वे जल्द ही रीडर बनाये गये । 1967 में प्रोफेसर तथा विभागाध्यक्ष के रूप में नियुक्त किये गये । 1976 में समाजशास्त्र विभाग से सेवानिवृत्त हुए । 12 नवम्बर , 1994 को उनकी मृत्यु हुई । अपने जीवन काल में ए . आर . देसाई ने अनेक ऐसी पुस्तकें लिखीं , जिन्हें समाजशास्त्र में विशेष महत्त्वपूर्ण माना गया । उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद के सामाजिक पहलुओं पर अपने पी – एच- डी . का शोधग्रंथ लिखा जिसपर 1946 में उन्हें डिग्री मिली । 1948 में यह ‘ सोशल बैकग्राउंड ऑफ इंडियन नेश्नलिज्म ‘ ( Social Background of Indian Nationalism ) के नाम से प्रकाशित हुई । यह उनके द्वारा किये गये कार्यों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । इस पुस्तक में देसाई ने भारतीय राष्ट्रवाद का मार्क्सवादी विश्लेषण किया । यह पुस्तक काफी प्रसिद्ध हुई । अन्य विषय जिन पर देसाई ने काम किया , वे हैं – किसान आंदोलन तथा ग्रामीण समाजशास्त्र , आधुनिकीकरण , नगरीय मुद्दे , राजनीतिक समाजशास्त्र , राज्य के स्वरूप और मानवाधिकार । इन सब कार्यों के सन्दर्भ में ए . आर . देसाई को विशेष ख्याति मिली ।
ए.आर.देसाई , जो प्रो . धुरै के विद्यार्थी थे , इस संदर्भ में अग्रणी हैं जिन्होंने अनवरत रूप से और पूर्णकर्मनिष्ठा के साथ भारतीय सामाजिक यथार्थता के विविध पहलूओं को प्रस्तुत किया । उनकी
कृतियाँ –
दी सोशल बेक ग्राउण्ड , ( 1948 )
वर्तमान में सक्रिय कारक ( 1975 )
भारतीय राष्ट्रीयता के प्रमुख आयाम ( 1975 )
कच्ची बस्तियाँ और भारतीय शहरीकरण ( 1970,72 )
ग्रामीण समाजशास्त्र का उद्भव एवं समस्याएँ ( 1969 )
वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारतीय शहरीकरण के निहितार्थ ( 1971 )
भारत में राज्य एवं समाज ( 1975 )
भारत में कृषक संघर्ष ( 1979 )
ग्रामीण भारत में सक्रमण काल ( 1979 )
भारतीय विकास की डगर ( 1984 )
डी.पी. मुखर्जी की तरह , ए.आर. देसाई ने 1976 में मार्क्सवादी दृष्टिकोण से भारतीय समाज का अध्ययन किया तथा इतिहास का सार्थक उपयोग किया ।
भारतीय समाज का रूपान्तरण
ब्रिटिश साम्राज्य के पूर्व को जिम्मेदारी अर्थव्यवस्था का पूंजीवाद अर्थव्यवस्था में रूपान्तरण भारत में ब्रिटिश विजय का परिणाम था । ब्रिटिश सरकार ने अपनी राजनीतिक और आर्थिक नीतियों को पूंजीवादी ढांचे में विकसित किया – आपार , उद्योग और वित्त प्रबन्धन इस दायरे में आ गये । ब्रिटिश सरकार की नवीन आर्थिक नीति ने पुरातन अर्थव्यवस्था को अस्त अस्त कर दिया । इसके फलस्वरूप नवीन उद्योग के विकास के कारण पुराने भौमिक और शिल्पकारों के सम्बन्धों में बदलाव आया । ग्राम्य सामुदायिक कृषि तंत्र के स्थान पर नवीन कृषि स्वामित्व और निजी भूमि राष्ट्र चेतना का अभिर्भाव हुआ । इससे समाज आन्दोलित हुआ और सामूहिकता की प्रवृति के चलते अनेक संगठन , यूनियनें आदि पनपने लगे । यही से राष्ट्रीय भावना के वशीभूत होकर स्वतंत्रता आन्दोलन का बीजारोपण हुआ ।
भारतीय राष्ट्रियता की सामाजिकपृष्ठभूमि
देसाई ने ब्रिटिशकाल में उत्पन्न भारतीय राष्ट्रीयता का मार्क्सवादी दृष्टिकोण से विवेचन किया । उन्होंने ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के नजरिये से अनेक ग्रामीण और शहरी आन्दोलनों , जातियों , वर्ग – संरचनाओं , सामाजिक गतिविधियों का शिक्षा आदि आयामों का गहन अध्ययन किया । यद्यपि देसाई की पुस्तक 1948 में प्रकाशित हो चुकी थी , परन्तु बीसर्वी शताब्दी के सातवें और आठवें दशकों में इसने लोकप्रियता हासिल कर ली क्योंकि तब तक भारत में समाज वैज्ञानिकों में सामाजिक चेतना बहुत विकसित हो चुकी थी । देसाई का प्रथम ग्रंथ ” भारतीय राष्ट्रीयता की सामाजिक पृष्ठभूमि ” ने मार्क्सवादी दृष्टिकोण को प्रतिपादित करते हुए उन्होंने समाजशास्त्र और इतिहास के गठजोड़ से एक शैक्षिक आमुखीकरण किया । उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण कृति में अन्य मार्क्सवादी विचारधारा के लेखकों की तरह उत्पादन के सम्बन्धों के जरिये राष्ट्रीयता परम्परागत सामाजिक परिप्रेक्ष्य की समीक्षा प्रस्तुत की । द्वन्द्वात्मक वातायन से दृष्टिपात करने वाली यह पुस्तक देसाई के भारतीय राष्ट्रीयता परक अध्ययन एवं विश्लेषण का श्रेष्ठ प्रयास हैं । उनके अनुसार भारतीय राष्ट्रीयता उन भौतिक परिस्थितियों की उपज हैं जिनको ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने जन्म दिया । आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण को चालू करके ब्रिटिश शासकों ने नवीन आर्थिक सम्बन्धो की स्थापना की । यह आर्थिक सम्बन्ध ही वह मूल कारक हैं जिनके अन्तर्गत , परम्परागत संस्थाओं में परिवर्तन के साथ – साथ स्थिरता और स्थायित्व भी उभरा हैं । ज्यों – ज्यों आर्थिक सम्बन्धो में बदलाव होगा तो उसी आनुपातिक स्तर में समाज की संस्थाओं में भी रूपान्तरण होता जायेगा । देसाई की यह मान्यता है कि परम्परायें चूंकि आर्थिक सम्बन्धो पर आधारित होती है , तो आर्थिक सम्बन्धो में बदलाव परम्पराओं में निश्चित रूप से बदलाव लाता है । इस संदर्भ में उनका सोच यह है कि नवीन भौतिक और सामाजिक परिस्थिति की उत्पति से जाति स्वत : समाप्त हो जायेगी । उदयोग , आर्थिक स्वातंत्रय , शिक्षा इत्यादि की इसमें भूमिका रहेगी ।
राज्य पर ए . आर . देसाई के विचार ( Views of A.R.Desai of State )
ए . आर . देसाई की विशेष रुचि ‘ आधुनिक पूँजीवादी राज्य रूपी विषय पर रही । इस विषय को समझने में भी उन्होंने मार्क्सवादी दृष्टिकोण अपनाया । ‘ द मिथ ऑफ द वेलफेयर स्टेट ‘ नामक निबंध में देसाई नै विस्तारपूर्वक इसकी विवेचनात्मक समीक्षा की है तथा इसकी कमियों की ओर ध्यान आकर्षित किया है । देसाई ने कल्याणकारी राज्य की कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया है । ये विशेषताएं निम्न है
( 1 ) सकरात्मक राज्य ( Positive State ) :
कल्याणकारी राज्य एक सकारात्मक राज्य होता है । यह केवल न्यूनतम कार्य ही नहीं करता , जो कानून तथा व्यवस्था को बनाए रखने के लिये आवश्यक होते हैं । कल्याणकारी राज्य हस्तक्षेपीय राज्य होता है । समाज की प्रगति व अच्छाई के लिए सामाजिक नीतियों को तैयार तथा लागू करने के लिये अपनी शक्तियों
( 2 ) लोकतांत्रिक राज्य ( Democratic State ) :
कल्याणकारी राज्य लोकतांत्रिक राज्य होता है । कल्याणकारी राज्य के विशेषता समझी जाती है । यही कारण है कि उदारवादी चिंतकों ने समाजवादी तथा कम्युनिस्ट राज्यों को इस पश्य की
( 3 ) मिश्रित अर्थव्यवस्था ( Mixed Economy ) :
कल्याणकारी राज्य की अर्थव्यवस्था मिश्रित होती है । मिश्रित अर्थव्यवस्था का अभिप्राय ऐसी अर्थव्यवस्था से है जहाँ निजी पूँजीवादी कम्पनियाँ तथा राज्य या सामूहिक कम्पनिया साथ – साथ काम करती है । एक कल्याणकारी राज्य न तो पूँजीवादी बाजार को ही खत्म करना चाहता है और न ही यह उद्योगों तथा दूसरे क्षेत्रों में जनता को निवेश करने से रोकता है । ऐसा राज्य जरूरत की वस्तुओं और सामाजिक अधिसरचना पर ध्यान देता है । उपभोक्ता वस्तुओं पर निजी उद्योगों का वर्चस्व होता है ।
ए . आर . देसाई ने कुछ ऐसे तरीकों का उल्लेख किया है जिसके आधार पर कल्याणकारी राज्य द्वारा किये गये कार्यो का परीक्षण किया जा सकता है । ये निम्नलिखित हैं –
1 . क्या कल्याणकरी राज्य गरीबी , सामाजिक भेदभाव से मुक्ति तथा अपने सभी नागरिकों की सुरक्षा का ध्यान रखता है ?
- क्या कल्याणकारी राज्य आय सम्बन्धित असमानताओं को दूर करने के लिये कुछ महत्त्वपूर्ण कदम उठाता है . जैसे – धन के संग्रह को रोककर व अमीरों की आय के कुछ भाग को गरीबों में बांटना आदि ?
3.क्या कल्याणकारी राज्य अर्थव्यवस्था को इस प्रकार से परिवर्तित करता है , जहाँ पूजीवादियों की अधिक से अधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति पर , समाज की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए रोक लगाई जा सकती है ?
- क्या कल्याणकारी राज्य स्थायी विकास के लिये आर्थिक मंदी तथा तेजी से मुक्त व्यवस्था का ध्यान रखता है ?
- क्या यह सबों के लिये रोजगार उपलब्ध कराता है ? ए . आर . देसाई ने उपरोक्त आधारों को ध्यान में रखते हुए उन देशों के कार्यों का परीक्षण करते हैं , जिन्हें कल्याणकारी राज्य कहा जाता है । जैसे – बिटेन , अमेरिका , यूरोप के अधिकांश भागों के बारे में उनका कहना है कि उनके द्वारा काफी बढ़ा – चढ़ा कर दावे किये गये । देसाई का मानना है कि अधिकांश आधुनिक पूँजीवादी राज्य , यहाँ तक कि विकसित देश भी , अपने नागरिकों को निम्पतम आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा देने में असफल रहे हैं । वे आर्थिक असमानताओं को कम करने में सफल नहीं हो पाये हैं ।
कल्याणकारी राज्य बाजार के उतार – चढ़ाव से मुक्त स्थायी विकास करने में भी असफल रहे हैं । अतिरिक्त धन की मौजूदगी तथा अत्यधिक बेरोजगारी इसकी कुछ अन्य असफलताएं हैं । इन तर्कों के आधार पर देसाई का कहना है कि कल्याणकारी राज्य की सोच एक भ्रम है । ए . आर . देसाई ने राज्य के मार्क्सवादी सिद्धांत पर भी अपने विचार व्यक्त किये है । उनके विचारों व लेखों से पता चलता है कि देसाई एकांगी दृष्टिकोण को लेकर नहीं चल , बल्कि कम्युनिस्ट राज्यों की कमियों की आलोचना भी करते हैं । उन्होंने इस तथ्य को भी उजागर किया कि कम्युनिज्म के तहत भी लोकतंत्र का महत्त्व होता है । राजनीतिक उदारता व कानून का राज प्रत्येक वास्तविक समाजवादी राज्य में बने रहना चाहिए ।