एल० एच० मार्गन: सामाजिक परिवर्तन
मार्गन ने भी सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या अपनी पुस्तक Ancient Society में उद्विकासीय आधार पर किया है । इनके अनुसार समाज में परिवर्तन तकनीकी कारक
(Technological Factor) पर निर्भर है । जैसे – जैसे समाज में तकनीकी का विकास होता है , वैसे वैसे समा अवस्था से दूसरे अवस्था में प्रवेश करती है ।
मॉर्गन एक ऐसे विद्वान थे जिन्होंने उद्विकास की चर्चा न केवल पूरे समाज पर ही समाज के भिन्न – भिन्न अंगों पर भी की है । इनके अनुसार तकनीकी में विकास के चलते म एक स्तर से दूसरे स्तर में प्रवेश करती है । यह अवस्था निम्नलिखित हैं
1 . Societas
2 . Civitas
इसी प्रकार मार्गन के अनुसार संस्कृति तथा परिवार में उद्विकास विभिन्न चरणों में होता है !
एल० एच० मार्गन ने संस्कृति में होने वाले परिवर्तन को निम्नलिखित रूप में बताया है .
1 . जंगली अवस्था ( Savagery Stage )
2 . असभ्य अवस्था ( Barbarian Stage ) एवं
3 . सभ्य अवस्था ( Civilised Stage )
1 . जंगली अवस्था ( Savage Stage ) –
मानव – समाज की यह सबसे आरम्भिक अवस्था थी जबकि मनुष्य प्रत्येक अर्थ में बिल्कुल जंगली था । इस स्तर का इतिहास सबसे लम्बा रहा है । श्री मॉर्गन ने इस स्तर के जिन तीन उपस्तरों का उल्लेख किया है वे इस प्रकार हैं –
( a ) जंगली अवस्था का प्राचीनतम स्तर – इस उपस्तर का इतिहास बहुत ही अस्पष्ट है फिर भी इतना निश्चित है कि यह जंगली अवस्था का चरम स्तर था । इस उपस्तर में मानव जंगल में मारा – मारा फिरता था और शायद ही किसी प्रकार के सामाजिक संगठन या संस्कृति का अधिकारी था । कच्चा मांस खाना , फल , मूल , कंद खाकर जीविका निर्वाह करना , बिना किसी रोकथाम के और बिना किसी रिश्तेदारी के प्रतिबंध को मान्यता दिए यौन – संबंध स्थापित करना , गुफाओं में रहना , वृक्षों पर अथवा गुफाओं में अस्थायी रूप से रहना और प्रत्येक दशा में पशु जैसी प्रवृत्तियों को दर्शाना इस उपस्तर की प्रमुख विशेषताएँ हैं ।
( b ) जंगली अवस्था का मध्यस्तर – इस स्तर का आरम्भ उस समय हुआ जब मनुष्य में मछली पकड़ने तथा आग जलाने की कला आ गई । अतः कच्चा मांस खाने के बजाय शिकार को आग में भूनकर खाया जाने लगा । उद्विकासवादी विद्वानों का यह विचार है कि सामूहिक जीवन का श्रीगणेश इसी उपस्तर से हुआ और लोग छोटे – छोटे झुण्डों में रहने लगे । श्री मॉर्गन ने कुछ आस्ट्रेलियन और पालेनीशियन जनजातियों को इस अवस्था का प्रतिनिधि माना है ।
( c ) जंगली अवस्था का उच्च स्तर – जंगली अवस्था के इस अंतिम स्तर का श्रीगणेश मनुष्य द्वारा धनुष – बाण का आविष्कार किए जाने के साथ हुआ । कहा जाता है कि इस उपस्तर में पारिवारिक जीवन का भी आरंभ हो गया था , पर यौन संबंध स्थापित करने के संबंध में कोई निश्चित नियम देखने को नहीं मिलता था । सामूहिक जीवन में पहले की अपेक्षा कुछ स्थिरता इस अर्थ में देखने को मिलती है कि व्यक्ति केवल व्यक्ति न रहकर अपने को समूह का सदस्य से बदला लेता था । भी मानने लगा । इसलिए व्यक्तिगत आधार पर नहीं बल्कि सामूहिक आधार पर एक समूह दूसरे
2 . असम्य अवस्था ( Barbarian Stage ) –
जंगली अवस्था को पार करके मनुष्य ने जब अपेक्षाकृत उन्नत स्तर पर कदम रखा तो सामाजिक जीवन के उद्विकास का यह दूसरा स्तर आरम्भ हुआ । इस स्तर के भी तीन उपस्तर है जिन्हें कि इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-
( a ) असम्य अवस्था का प्राचीनतम स्तर- मानव ने जब बर्तनों का आविष्कार किया आर उस अवागमलाना आरम्भ किया तो उसने असभ्य अवस्था के इस प्रथम उपस्तर म कदम रखा । मनुष्य का जीवन उतना ज्यादा घुमन्तू न रहा जितना का जगला अब भाखानाबदोशी की तरह एक स्थान से दसरे स्थान पर जाकर बसने का प्रवृत्ति व आवश्यकता पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुई । इसी स्तर में सम्पत्ति की धारणा का उदय हुआ , फिर भाव्या का अपक्षा समूह का महत्त्व अधिक बना रहा । समूहों के आधार पर ही एक समूह दूसर समूह पर आक्रमण करता था और ऐसे आक्रमण का उद्देश्य हथियार . स्त्रियों तथा बर्तनों को प्राप्त करना होता था । इस स्तर में परिवार का स्वरूप भी पहले से कुछ स्पष्ट हो गया था । पर पारवार के सभी लोगों में यौन – संबंध स्थापित करने की स्वतन्त्रता होने के कारण बच्चों के पितृत्व का निर्धारण बहुत ही कठिन था ।
( b ) असभ्य अवस्था का मध्य स्तर- इस अवस्था में मानव ने उस समय प्रवेश किया जबकि उसे पशुओं को पालने तथा पौधों को उगाने की कला आ गई । जो लोग पशु – पालन के द्वारा अपनी जीविका निर्वाह करते थे उनके लिए चरागाह की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान में जाना आवश्यक था । अतः घमन्त जीवन का पूर्णतया अन्त नहीं हुआ । फिर भी जो लोग पौधों को उगाते थे . अर्थात कृषि का काम करते थे उनके घुमन्तु जीवन में बहुत कमी हो गयी । निजी सम्पत्ति की धारणा और भी स्पष्ट रूप से सामने आई और समाज में व्यक्ति की स्थिति सम्पत्ति के आधार पर भी निश्चित होने लगी । वस्तु विनिमय की प्रथा प्रचलित हुई और इसके अन्तर्गत अदला बदली के द्वारा लोग आपस में चीजों का विनिमय करने लगे । परिवार का रूप भी और स्पष्ट हो गया और परिवार के सदस्यों में यौन संबंध स्थापित करने के संबंध में कुछ निश्चित नियमों का विकास हुआ ।
( c ) असभ्य अवस्था का उच्च स्तर- जब मनुष्य लोहे को पिघलाकर उससे लोहे के बर्तन तथा औजार बनाना आ गया तो उसका इस स्तर में प्रवेश हुआ । रोज के काम आने वाले कई किस्मों के बर्तन और नोकदार व तीखे हथियारों का निर्माण होना लगा । इस उपस्तर में समाज में श्रम प्रणाली को स्त्री पुरुष के भेद के आधार पर लागू किया गया । स्त्रियाँ घर गृहस्थी व बच्चों के पालन पोषण से संबंधित कार्यों को करती थी जबकि पुरुष घर से बाहर रहकर अपने कर्तव्यों का पालन करता था । इस स्तर की प्रमुख विशेषता सम्पत्ति के अन्तर्गत स्त्रियों को सम्मिलित कर लेना और छोटे – छोटे गणराज्यों की स्थापना थी । चूँकि धातु को गलाने और उसको प्रयोग में लाने का ज्ञान इस स्तर की सबसे बड़ी उपलब्धि थी । इस कारण इसे घातु युग के नाम से भी पुकारा जाता है ।
3 . सभ्य अवस्था ( Civilised Stage ) –
समाज या संस्कृति के उद्विकास के क्रम में यह अन्तिम स्तर है और परम प्राप्ति भी । श्री मॉर्गन ने इस स्तर के तीन उपस्तरों का उल्लेख किया है जो इस प्रकार है –
(a) सभ्य अवस्था का प्रचीनतम स्तर- मानव का इस अवस्था में प्रवेश तब हुआ जब अक्षरों को लिखने और पढ़ने की कला का श्रीगणेश हुआ । वास्तव में अक्षरों को लिखने और पढ़ने की क्षमता का विकास होने से सांस्कृतिक परम्परा को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को हस्तांतरित करना अब बहुत सरल हो गया । इस अवस्था में परिवार का रूप बहुत ही स्पष्ट होता है और यौन संबंधों का नियमन व नियंत्रण इस युग की एक बहुत बड़ी विशेषता मानी जाती है । कृषि कार्य और उद्योग – धन्धों में परिवार का महत्त्व इस अवस्था में भी बना रहता है । फिर भी नगरों का विकास व्यापार और वाणिज्य का विस्तार एवं कला और शिल्प – कला में उन्नति इस युग को सभ्य युग कहलाने की योग्यता प्रदान करती है ।
( b ) सभ्य अवस्था का मध्य स्तर- इस अवस्था में आर्थिक आर सामाजिक संगठन बन व्यवस्थित रूप में सामने आता है । इसे सांस्कतिक प्रगति का युग भी कहा जा सकता है । सस्कृति के प्रत्येक पक्ष में इस स्तर पर उन्नति देखने को मिलती है । आर्थिक क्रियाओं का उल्लेखनीय आधार बन जाता है । राजनैतिक संगठन का और विकास होता है और कार्यक्षेत्र का विकास साथ साथ होता जाता है । सरकारी कानून और भी व्यवस्थित रूप में और लागू किए जाते हैं जिससे कि केवल जान और माल का ही नहीं , अधिकारों की भी सा होती है ।
( c ) सभ्य अवस्था का उच्च स्तर- इस उपस्तर का आरम्भ 19 वी शताब्दी के उत्तरार्टी माना जाता है जबकि आधनिक सभ्य और जटिल समाज का उदय होता हा इस स्तर की सबसे बड़ी विशेषता औयोगीकरण और नगरीकरण की तीव्र गति है । इस स्तर में न केवल बड़े – बड़े ना का विकास होता है बल्कि बड़े – बड़े मिल कारखानों आदि में बहुत बड़े पैमाने पर उत्पादन कार्य किया जाता है और साथ ही श्रम विभाजन और विशेषीकरण की प्रणाली को भी बहुत विस्तार में लागू किया जाता है । उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत अधिकार इस स्तर के अनेक समाजों की एक मुख्य विशेषता बनी हुई है जिसके फलस्वरूप पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का चरम रूप सामने आया है । साथ ही कछ समाजों में इन उत्पादन के साधनों पर समाज या राज्य का पर्ण या आंशिक अधिकार भी देखने को मिलता है । राजनैतिक संगठन भी बहुत ही उन्नत स्तर पर पहुँच गया है और प्रजातंत्रात्मक सिद्धांतों को स्वीकार करते हुए प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के द्वारा जनता के प्रतिनिधियों द्वारा सरकार के गठन पर बल दिया जाता है । राज्य को एक कल्याणकारी संस्था माना जाता है जिसका कि प्रमुख कार्य सभी नागरिकों के लिए अधिकतम सुख – सुविधाओं की व्यवस्था करना है । ज्ञान , विज्ञान , कला , दर्शन सभी दिशाओं में उल्लेखनीय प्रगति होती है । पर सभी का उद्देश्य बहुत कुछ भौतिकवादी है । आज विश्व के अधिकतर देश सभ्य अवस्था के चरण में ही है।
केवल समाज और संस्कृति का ही नहीं बल्कि आर्थिक जीवन , परिवार आदि के भी उद्विकास के विभिन्न स्तरों का उल्लेख विद्वानों ने किया है । अब हम उन्हीं के विषय में संक्षेप में विवेचना करेंगे ।
परिवार के उविकास के स्तर :
श्री मॉर्गन ने ऐसी पाँच अवस्थाओं का वर्णन किया है जिनको कि पार करके परिवार अपनी वर्तमान स्थिति पर पहुंचा है । ये पाँच अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं-
1 . समान रुधिर वाले परिवार ( Consanguine Family ) – इस प्रकार के परिवार मानव जीवन के प्रारम्भिक स्तर पर पाये जाते हैं । इनमें केवल रक्त – संबंधी ही रहते थे और रक्त का कोई भी संकोच किए बिना भाई और बहनों तक में परस्पर विवाह होते थे ।
2 . समह परिवार (Punalunant Family ) – उविकास की दूसरी अवस्था में इस प्रका के परिवार पाए जाते थे । इसमें एक परिवार के भाइयों का विवाह दूसरे परिवार की सब बहन के साथ हआ करता था परन्तु उनमें आपस में यौन संबंध अनिश्चित था अर्थात् प्रत्येक पुरु ” सभी स्त्रियों का पति होता था और प्रत्येक स्त्री सभी पुरुषों की पत्नी होती थी ।
3 . सिडैस्मियन परिवार ( Syndasmian Family ) – इस प्रकार में यद्यपि एक पुरुष एक ही स्त्री के साथ विवाह होता था , फिर भी उसी परिवार में व्हायी हई अन्य स्त्रियों साथ यौन – संबंध स्थापित करने की प्रत्येक को स्वतंत्रता रहती थी ।
4 . पितृसत्तात्मक परिवार ( Patriarchal Family ) – यह परिवार के उदविकास में चौथीं । पुरुष का एकाधिपत्य होता था । वह एक से अधिक स्त्रियों के साथ विवाह करता था और उन सबके साथ यौन संबंध रखता था । परिवार ( Monogamous Family ) – इसमें एक समय में एक पुरुष की एक पली होती है । यही विवाह और परिवार का वर्तमान रूप है । कार श्री आगस्त कॉम्टे का कथन है कि धर्म के विकास में तीन स्पष्ट स्तर होते हैं और वे हैं
1 . जीवितसत्तावाद
2 . बहुदेवत्ववाद एवं
3 . अद्वैतवाद ।
इसी प्रकार अन्य विद्वानों ने भी मानव – समाज तथा संस्कृति से संबंधित विभिन्न पक्षों की उदावकासीय अवस्थाओं का वर्णन प्रस्तुत किया है । उदाहरण के लिए , श्री हड्डन ने कला के क्षेत्र में होने वाली उदविकासीय प्रक्रिया का वर्णन किया है . श्री मॉरगन ने परिवार के उविकास । का तथा श्री टायलर ने धर्म के क्षेत्र में उविकासीय अवस्थाओं का वर्णन प्रस्तुत किया है ।
आर्थिक जीवन के उद्विकास के स्तर :
उद्विकासीय सिद्धांत के समर्थकों का कहना है कि मानव के आर्थिक जीवन का उद्विकास निम्नलिखित चार प्रमुख स्तरों में से होकर गुजरा है-
1.शिकार करने और भोजन इकट्ठा करने का स्तर ( Hunting and food gathering Stage ) – यह मानव जीवन के आर्थिक पहलू का प्राथमिक व प्रारम्भिक स्तर है । इस स्तर में आर्थिक संगठन न केवल अव्यवस्थित है , बल्कि अस्पष्ट और अनिश्चित भी । इसका सर्वप्रमुख कारण यह है कि इस स्तर में मानव भोजन का उत्पादन नहीं , संकलन करता है । इस स्तर में मानव – जीवन सम्पूर्णतया प्रकृति की गोद में पलने वाला होता है । मानव जंगलों में अपना जीवन बिताता है और उदर – पूर्ति करके किसी प्रकार जीवित रहना ही उसके लिए पर्याप्त होता है । उदर – पूर्ति के लिए आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन करने का कोई भी ज्ञान मानव को नहीं होता , इसलिए उदर – पूर्ति शिकार करके और फल , मूल , कन्द और शहद इकट्ठा करके की जाती है । परन्तु जीवित रहने के ये साधन अत्यधिक कठिनता से प्राप्त होते हैं । पशुओं का शिकार करने , मछली पकड़ने या कन्द , मूल , फल , शाक – पात आदि के संकलन के लिए लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान को भटकना पड़ता है क्योंकि शिकार और फल – फूल का एक स्थान से सदैव प्राप्त होना असंभव है । फलतः सामाजिक और आर्थिक जीवन अत्यधिक अनिश्चित , अस्थिर व घमन्त होता है । पूर्णतया भौगोलिक तथा प्राकृतिक साधनों पर निर्भर रहते हुए इन लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान को घूम – घूमकर जीवित रहने के लिए भोजन को इकट्ठा करना पड़ता है । अगर भौगोलिक परिस्थितियाँ अनुकूल हैं , तो उन्हें भोजन सरलता से मिल जाता है , पर यदि प्रतिकल है तो आदिम मानव के सामने कोई दूसरा रास्ता भी नहीं होता है , उसके सिवा कि प्रकृति जितना भी देती है या जिस रूप में देती उतना और उसी रूप में जीवन – यापन के साधनों को प्राप्त करें । चूँकि ऐसे समाजों में जीवित रहने के ये साधन ( शिकार , फल – मूल , शाक – पात आदि ) अत्यधिक सीमित मात्रा में उपलब्ध तथा कठिनता से प्राप्त होते हैं , इस कारण यहाँ जीवित रहने के लिए संघर्ष भी उग्र और भयंकर होता है ।
2.पशुपालन या चरागाह का स्तर ( Pastrol Stage ) – उपरोक्त स्थिति में पशुपालन के स्तर में आदिम समाजों ने तब कदम रखा जब मानव ने यह अनुभव किया कि पशुओं को मारने के बजाय अगर उन्हें पाला जाए तो उनसे जीवित रहने के अधिक साधन प्राप्त क्योंकि उन पशुओं से उनके बच्चे भी प्राप्त होंगे और साथ ही दूध भी । इससे आर्थिक जीवन प्रथम स्तर की तुलना में अधिक निश्चित और स्थिर हुआ क्योंकि लेकर रोज स्थान परिवर्तित करना मुश्किल होता है इसलिए एक स्थान पर जब तक पशओं के खाने – पीने की चीजें अर्थात् चरागाह मिल जाते हैं , तब तक स्थान परिवर्तन विशेष आवश्यकता नहीं होती । परन्तु घास आदि समाप्त होने पर दूसरी चरागाह की वे दूसरी जगह चले जाते हैं ।
संसार में शायद ही कोई ऐसा समाज है जहाँ कि पशुपालन का काम नहीं होता है । समाज किसी न किसी रूप में पशुओं को पालता है । प्रारम्भिक स्तर में इन पशुओं को उनके मांस को खाने के काम में , खाल को पहनने के काम में और हड्डियों को विभिल के आभूषण और अस्त्र बनाने के काम में लाया जाता है । टुण्ड्रा प्रदेश बारह महीने बर्षा रहता है , फिर भी प्रकृति ने यहाँ के लोगों को समूह वाले जानवर जैसे सफेद भाल लोमड़ी , खरगोश , मस्कबैल , रेनडियर आदि प्रदान किए हैं । वहाँ के लोग इन पशओं की के वस्त्र पहनते हैं । वे समूर के दास्ताने और लम्चे जूते जिनमें भीतर समूर लगी होती है । हैं । उसी प्रकार संसार में ऐसे अनेक आदिम समाज हैं जिनमें कि पशुओं को पालने । प्रमुख उद्देश्य उनके दूध को या दूध से बनी अन्य चीजों को भोजन के एक उत्तम साधन में प्राप्त करना होता है । साथ ही , ऐसे भी जनजातीय समाज हैं जिनमें लोग कृषि के पशुओं को व्यवहार में लाने के लिए उन्हें पालते हैं ।
3 . कृषि – स्तर ( Agricultural Stage ) – इस स्तर का प्रारम्भ तब होता है जब मानना वीज और पौधे उगाने की कला आ गई । फलों का बाग लगाने या खेती करने की इस आर्थिक जीवन को पहले से अधिक स्थिर बनाया । यद्यपि जनजातियों के लिए बगीचा फल उत्पन्न करना अथवा खेती द्वारा अनाज प्राप्त करना भा प्राकृतिक दशाओं पर अत्याशि और इस स्तर में शिकार करने व फल मूल इकट्ठा करने तथा पशुपालन की स्थिति से भोजन अधिक नियमित रूप से प्राप्त होने लगा । साथ ही , फलों के बाग लगाना या खेती कर ऐसी आर्थिक क्रिया है जो कि स्वभावतः ही मनुस्य को जमीन से बाँध देती है । इसका यह है कि इस स्तर में मनुष्यों को एक स्थान पर घर बसाकर स्थायी रूप से आर्थिक कि को करने का अवसर प्राप्त हुआ । भोजन की पूर्ति बढ़ी और उसके साथ – साथ जनसंख्या इससे आर्थिक अन्तःक्रियाओं का क्षेत्र भी विस्तृत हुआ और विभिन्न समाजों के बीच आर्शिता संबंध पनपा ।
4 .प्रौद्योगिक स्तर ( TechnoilogicalStage ) – यह स्तर विशेष रूप से मशीनों के आविष्कार क बाद प्रारम्भ हआ । मशीनों के आविष्कार से उत्पादन कार्य मशीनों के द्वारा होने लगा । इसके फलस्वरूप बड़ी – बड़ी मिलों और कारखानों में बड़े पैमाने पर उत्पादन – कार्य होने लगा और आधि कि जीवन का क्षेत्र प्रान्त और देश की सीमाओं को पार करके अन्तर्राष्ट्रीय हो गया । यहाँ तक कि खेती के कार्यों में भी मशीनों का प्रयोग हुआ । आर्थिक जीवन का यही वर्तमान स्तर है ।