एक थप्पड़, एक सवाल: मुंबई की भाषाई झड़प क्यों बनी राष्ट्रीय चिंता?
चर्चा में क्यों? (Why in News?):
हाल ही में मुंबई में एक चौंकाने वाली घटना सामने आई, जिसने देश के भाषाई ताने-बाने पर एक बार फिर गंभीर सवाल खड़े कर दिए। एक ऑटो ड्राइवर को “एंटी-मराठी” टिप्पणी करने के आरोप में कथित तौर पर उद्धव सेना के कार्यकर्ताओं द्वारा थप्पड़ मारा गया। यह घटना सिर्फ एक मामूली विवाद नहीं थी, बल्कि यह भारत के भाषाई राष्ट्रवाद, क्षेत्रीय अस्मिता और राष्ट्रीय एकता के बीच के जटिल संतुलन को उजागर करती है। एक थप्पड़ की यह घटना तुरंत सुर्खियों में आई और इसने देशव्यापी बहस छेड़ दी कि क्या भाषा हमारी पहचान का गौरव है या एक विभाजनकारी शक्ति का औजार?
UPSC उम्मीदवारों के लिए, यह घटना केवल एक शीर्षक से कहीं अधिक है। यह भारतीय समाज, राजनीति, इतिहास और संवैधानिक प्रावधानों से जुड़ा एक बहुआयामी मुद्दा है। आइए इस घटना की गहराई में उतरें और उन सभी पहलुओं को समझें जो इसे संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) की परीक्षा के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण बनाते हैं।
घटना का विस्तृत विश्लेषण: एक चिंगारी, बड़ी आग
मुंबई में हुई यह घटना एक छोटे से विवाद से शुरू हुई जिसने भाषाई गौरव के नाम पर हिंसा का रूप ले लिया।
- क्या हुआ? एक ऑटो ड्राइवर पर आरोप लगाया गया कि उसने मराठी भाषा के प्रति “अपमानजनक” टिप्पणी की। इसके तुरंत बाद, उद्धव सेना के कुछ कार्यकर्ताओं ने उसे सरेआम थप्पड़ मारा और कथित तौर पर उसे माफी मांगने के लिए मजबूर किया।
- पृष्ठभूमि: महाराष्ट्र में, विशेष रूप से मुंबई जैसे महानगरीय क्षेत्रों में, भाषाई पहचान का मुद्दा दशकों से संवेदनशील रहा है। मराठी अस्मिता और मराठी भाषा का सम्मान शिवसेना और उसके विभिन्न गुटों के राजनीतिक एजेंडे का एक केंद्रीय स्तंभ रहा है।
- तत्काल प्रतिक्रिया: इस घटना का वीडियो वायरल होने के बाद सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रियाएँ हुईं। एक ओर जहां मराठी भाषा के समर्थक इसे अपनी भाषा के सम्मान की लड़ाई बता रहे थे, वहीं दूसरी ओर बड़ी संख्या में लोग इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कानून के शासन का उल्लंघन मान रहे थे।
- कानूनी कार्रवाई: घटना के बाद पुलिस ने संज्ञान लिया और शामिल व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई करने का आश्वासन दिया।
यह घटना सिर्फ एक ऑटो ड्राइवर और कुछ कार्यकर्ताओं के बीच का झगड़ा नहीं थी, बल्कि यह भारत के संघीय ढांचे के भीतर भाषाई विविधता के प्रबंधन की जटिलताओं का एक सूक्ष्म जगत थी। यह हमें सोचने पर मजबूर करती है कि भाषा, जो हमें जोड़ सकती है, वही हमें कैसे बांट भी सकती है?
भाषाई विवाद की जड़ें: इतिहास और पहचान का मेल
भारत में भाषाई विवादों की जड़ें गहरी हैं। यह केवल वर्तमान की समस्या नहीं है, बल्कि इसका एक लंबा ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ है।
ऐतिहासिक संदर्भ: भाषाई राज्यों का पुनर्गठन
आजादी के बाद, भारत को भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग का सामना करना पड़ा। यह एक बड़ी चुनौती थी क्योंकि ब्रिटिश भारत में राज्य प्रशासनिक सुविधा के लिए बनाए गए थे, न कि भाषाई या सांस्कृतिक एकरूपता के आधार पर।
- धर आयोग (1948): इसने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का विरोध किया और प्रशासनिक सुविधा को प्राथमिकता दी।
- जेवीपी समिति (1949): इसमें जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल और पट्टाभि सीतारामैया शामिल थे। इसने भी भाषाई आधार को अस्वीकार किया।
- पोट्टी श्रीरामुलु का अनशन और मृत्यु (1952): आंध्र प्रदेश की मांग पर पोट्टी श्रीरामुलु की मृत्यु के बाद भाषाई आधार पर पहला राज्य, आंध्र प्रदेश, बनाया गया।
- राज्य पुनर्गठन आयोग (SRC), 1953: फजल अली आयोग के रूप में भी जाना जाता है, इसने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के सिद्धांत को स्वीकार किया, लेकिन “एक भाषा, एक राज्य” के सिद्धांत को खारिज कर दिया।
- राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956: इस अधिनियम के परिणामस्वरूप 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए, जो काफी हद तक भाषाई सीमाओं का पालन करते थे। महाराष्ट्र और गुजरात जैसे कई राज्यों का गठन भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा था।
यह प्रक्रिया, हालांकि कई मायनों में सफल रही, इसने भाषाई पहचान को और मजबूत किया और कई बार क्षेत्रीय और भाषाई गौरव को राष्ट्रवाद के समानांतर खड़ा कर दिया।
भाषा: पहचान, संस्कृति और गर्व का प्रतीक
भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं है; यह किसी समुदाय की आत्मा होती है। यह उनकी संस्कृति, इतिहास, परंपराओं, और यहाँ तक कि उनकी सोच को भी परिभाषित करती है।
“भाषा एक समुदाय की साझा याददाश्त और साझा भविष्य की कुंजी है।”
यही कारण है कि जब किसी भाषा पर हमला होता है या उसे अपमानित किया जाता है, तो यह अक्सर उस भाषा बोलने वाले पूरे समुदाय पर हमला माना जाता है। इससे भावनात्मक प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न होती हैं, जो कभी-कभी हिंसा का रूप ले सकती हैं, जैसा कि मुंबई की घटना में देखा गया।
आर्थिक कारक और प्रवास का प्रभाव
भाषाई तनाव अक्सर आर्थिक चिंताओं से भी जुड़ा होता है। जब लोग रोजगार या बेहतर जीवन की तलाश में एक भाषाई क्षेत्र से दूसरे में प्रवास करते हैं, तो वे कभी-कभी स्थानीय आबादी के साथ संसाधनों और अवसरों के लिए प्रतिस्पर्धा करते हुए देखे जाते हैं। यह स्थिति “भूमि पुत्र” (Sons of the Soil) जैसी अवधारणाओं को जन्म देती है, जहां स्थानीय लोग अपने क्षेत्र में ‘बाहरी’ लोगों के प्रभाव से अपनी पहचान और आजीविका को बचाने की कोशिश करते हैं।
मुंबई, भारत की वित्तीय राजधानी होने के नाते, देश के हर कोने से लोगों को आकर्षित करती है। यह भाषाई और सांस्कृतिक विविधता का एक पिघलने वाला बर्तन है, लेकिन साथ ही यह विभिन्न समुदायों के बीच आर्थिक और सामाजिक तनावों का केंद्र भी बन सकता है, जहां भाषा एक सुविधाजनक विभाजन रेखा के रूप में उभर सकती है।
भाषाई राष्ट्रवाद और क्षेत्रीय अस्मिता: संतुलन की चुनौती
भाषाई राष्ट्रवाद एक ऐसी अवधारणा है जहाँ एक विशिष्ट भाषा बोलने वाले समूह अपनी भाषा को अपनी राष्ट्रीय पहचान का आधार मानते हैं। भारत के संदर्भ में, यह अक्सर क्षेत्रीय अस्मिता (regional identity) के रूप में प्रकट होता है।
“भूमि पुत्र” सिद्धांत (Sons of the Soil Doctrine)
यह सिद्धांत इस विचार पर आधारित है कि किसी विशेष क्षेत्र के ‘पुत्र’ या स्थानीय निवासी ही उस क्षेत्र के संसाधनों और अवसरों पर प्राथमिक दावा रखते हैं। यह अक्सर रोजगार, शिक्षा और स्थानीय संस्कृति के संरक्षण के मुद्दों पर सामने आता है।
- उदाहरण: महाराष्ट्र में ‘मराठी मानुष’ (Marathi Manoos) का आंदोलन, कर्नाटक में कन्नड़ भाषा और पहचान का मुद्दा, तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन।
यह सिद्धांत, जबकि स्थानीय संस्कृति और पहचान को संरक्षित करने का दावा करता है, अक्सर प्रवासियों के प्रति भेदभाव और शत्रुता को बढ़ावा देता है, जिससे अंतर-राज्यीय प्रवास में बाधा आती है और राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा पैदा होता है।
राष्ट्रीय एकीकरण बनाम क्षेत्रीय अस्मिता
भारत की शक्ति उसकी विविधता में निहित है। हमारा संविधान “विविधता में एकता” के सिद्धांत पर आधारित है। हालांकि, भाषाई राष्ट्रवाद कभी-कभी इस एकता के लिए चुनौती बन जाता है।
- टकराव के बिंदु:
- रोजगार: सरकारी नौकरियों और निजी क्षेत्र में स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण की मांग।
- भाषा का प्रभुत्व: किसी एक भाषा को दूसरी भाषाओं पर थोपने का प्रयास।
- राजनीतिक ध्रुवीकरण: राजनीतिक दल भाषाई भावनाओं का उपयोग वोट बैंक की राजनीति के लिए करते हैं।
- हिंसा: भाषाई तनाव कभी-कभी हिंसक झड़पों का रूप ले लेता है।
संतुलन बनाना महत्वपूर्ण है: क्षेत्रीय पहचान का सम्मान करना और उसे बढ़ावा देना, लेकिन यह सुनिश्चित करना कि यह राष्ट्रीय एकता को कमजोर न करे और अन्य समुदायों के प्रति असहिष्णुता को जन्म न दे।
कानूनी और संवैधानिक प्रावधान: भाषा का कवच
भारत का संविधान भाषाई विविधता को मान्यता देता है और उसे संरक्षित करने के लिए विस्तृत प्रावधान प्रदान करता है। ये प्रावधान भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करते हैं और भाषाओं के विकास के लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं।
संविधान के भाग XVII (अनुच्छेद 343 से 351)
यह भाग संघ की राजभाषा, क्षेत्रीय भाषाओं, न्यायपालिका की भाषा और विशेष निर्देशों से संबंधित है।
- अनुच्छेद 343: संघ की राजभाषा
- संघ की राजभाषा हिंदी (देवनागरी लिपि में) होगी।
- अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा।
- संवधान के प्रारंभ से 15 वर्ष की अवधि के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग जारी रहेगा। संसद इस अवधि के बाद भी अंग्रेजी के प्रयोग को अधिकृत कर सकती है।
- अनुच्छेद 344: राजभाषा पर संसदीय समिति और आयोग
- राष्ट्रपति प्रत्येक 5 वर्ष में एक राजभाषा आयोग का गठन करते हैं।
- एक संसदीय समिति भी होती है जो आयोग की सिफारिशों की जांच करती है।
- अनुच्छेद 345: राज्यों की राजभाषा या राजभाषाएँ
- कोई राज्य विधानमंडल कानून द्वारा राज्य के भीतर उपयोग की जाने वाली किसी भी एक या अधिक भाषाओं को या हिंदी को उस राज्य के सभी या किसी भी प्रयोजन के लिए राजभाषा के रूप में अपना सकता है।
- जब तक कोई राज्य ऐसा नहीं करता, तब तक अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा।
- अनुच्छेद 346: एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच या किसी राज्य और संघ के बीच पत्राचार की राजभाषा
- संघ द्वारा राजभाषा के रूप में अधिकृत भाषा का प्रयोग किया जाएगा।
- यदि दो या अधिक राज्य सहमत होते हैं कि उनके बीच पत्राचार के लिए हिंदी का उपयोग किया जाना चाहिए, तो हिंदी का उपयोग किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 347: राज्य की जनसंख्या के किसी भाग द्वारा बोली जाने वाली भाषा के संबंध में विशेष प्रावधान
- यदि राष्ट्रपति को लगता है कि राज्य की पर्याप्त जनसंख्या एक विशेष भाषा के उपयोग की मांग कर रही है, तो वह उस भाषा को राज्य में आधिकारिक रूप से मान्यता देने का निर्देश दे सकते हैं।
- अनुच्छेद 348: सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में प्रयोग की जाने वाली भाषा
- सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में कार्यवाही अंग्रेजी में होगी, जब तक संसद कानून द्वारा अन्यथा प्रावधान न करे।
- राज्यपाल की पूर्व अनुमति से, उच्च न्यायालयों में हिंदी या राज्य की किसी राजभाषा का उपयोग किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 350: शिकायतों के निवारण के लिए अभ्यावेदन में प्रयुक्त भाषा
- प्रत्येक व्यक्ति को संघ या राज्य के किसी भी अधिकारी या प्राधिकारी को किसी भी भाषा में अभ्यावेदन प्रस्तुत करने का अधिकार है।
- अनुच्छेद 350A: प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएँ
- प्रत्येक राज्य को भाषाई अल्पसंख्यक समूहों के बच्चों को प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने के लिए पर्याप्त सुविधाएं प्रदान करने का प्रयास करना होगा।
- अनुच्छेद 350B: भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अधिकारी
- राष्ट्रपति द्वारा भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति की जाएगी, जो संविधान के तहत भाषाई अल्पसंख्यकों को प्रदान किए गए सुरक्षा उपायों से संबंधित मामलों की जांच करेगा और राष्ट्रपति को रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा।
- अनुच्छेद 351: हिंदी भाषा के विकास के लिए निर्देश
- संघ का कर्तव्य है कि वह हिंदी भाषा के प्रसार को बढ़ावा दे, ताकि वह भारत की मिश्रित संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके।
आठवीं अनुसूची
यह अनुसूची उन भाषाओं को सूचीबद्ध करती है जिन्हें भारत सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर मान्यता दी गई है। वर्तमान में इसमें 22 भाषाएँ शामिल हैं: असमिया, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू।
यह अनुसूची भारत की भाषाई विविधता को दर्शाती है और इन भाषाओं के विकास और संरक्षण को बढ़ावा देती है।
शास्त्रीय भाषाएँ (Classical Languages)
भारत सरकार ने छह भाषाओं को ‘शास्त्रीय भाषा’ का दर्जा दिया है: तमिल (2004), संस्कृत (2005), कन्नड़ (2008), तेलुगु (2008), मलयालम (2013), और उड़िया (2014)। इस दर्जे से इन भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिए विशेष प्रावधान और वित्तीय सहायता मिलती है।
ये संवैधानिक और कानूनी प्रावधान भाषा को एक विभाजनकारी कारक बनने से रोकने और इसे राष्ट्रीय एकता के एक महत्वपूर्ण स्तंभ के रूप में बनाए रखने के लिए एक मजबूत ढाँचा प्रदान करते हैं। मुंबई की घटना जैसी घटनाओं से निपटने के लिए इन प्रावधानों की भावना को समझना और उनका सम्मान करना आवश्यक है।
भाषाई संघर्ष के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव
भाषाई विवादों के केवल राजनीतिक या भावनात्मक प्रभाव नहीं होते, बल्कि इनके दूरगामी सामाजिक और आर्थिक परिणाम भी होते हैं जो किसी क्षेत्र और राष्ट्र की प्रगति को बाधित कर सकते हैं।
सामाजिक प्रभाव:
- सामाजिक ध्रुवीकरण: भाषाई आधार पर समुदायों का विभाजन, ‘हम’ बनाम ‘वे’ की भावना को बढ़ावा।
- असहिष्णुता में वृद्धि: विभिन्न भाषाई समूहों के प्रति पूर्वाग्रह और शत्रुता का विकास।
- सुरक्षा चुनौतियाँ: विरोध प्रदर्शन, हिंसा, संपत्ति को नुकसान और कानून-व्यवस्था की समस्याएँ।
- शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर प्रभाव: स्कूलों और अस्पतालों में भाषाई बाधाएँ, खासकर प्रवासियों के लिए।
- सांस्कृतिक अलगाव: विभिन्न भाषाई समुदायों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान में कमी।
आर्थिक प्रभाव:
- निवेश और व्यापार पर नकारात्मक प्रभाव: अस्थिरता और कानून-व्यवस्था की चिंताएँ निवेश के माहौल को खराब करती हैं। संभावित निवेशक ऐसे क्षेत्रों से कतराते हैं।
- पर्यटन को नुकसान: हिंसा और तनाव पर्यटकों को दूर कर सकते हैं, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को नुकसान होता है।
- श्रम गतिशीलता पर प्रतिबंध: ‘भूमि पुत्र’ नीतियों और भाषाई बाधाओं के कारण श्रमिकों की अंतर-राज्यीय गतिशीलता बाधित होती है, जिससे कुशल श्रम की कमी या अधिशेष हो सकता है।
- उत्पादकता में कमी: तनाव और हड़तालों के कारण व्यावसायिक गतिविधियों में बाधा आती है, जिससे उत्पादकता और आर्थिक विकास प्रभावित होता है।
- सम्पत्ति के मूल्यों में गिरावट: अशांत क्षेत्रों में संपत्ति के मूल्यों में गिरावट आ सकती है, जिससे निवासियों और निवेशकों को नुकसान होता है।
- सार्वजनिक संसाधनों पर दबाव: विवादों के प्रबंधन और कानून-व्यवस्था बनाए रखने में सरकार के संसाधनों का बड़ा हिस्सा खर्च होता है, जिसे विकास कार्यों में लगाया जा सकता था।
संक्षेप में, भाषाई संघर्ष समाज में दरारें पैदा करते हैं और आर्थिक विकास की गति को धीमा करते हैं। ये ‘अंदरूनी’ और ‘बाहरी’ की धारणा को मजबूत करते हैं, जबकि भारत की पहचान एक विविध लेकिन एकजुट राष्ट्र की है।
चुनौतियाँ और समाधान: आगे की राह
मुंबई की घटना जैसी स्थिति से निपटने और भविष्य में ऐसे संघर्षों को रोकने के लिए कई चुनौतियाँ हैं जिनका सामना करना होगा, और उनके लिए प्रभावी समाधान खोजना होगा।
प्रमुख चुनौतियाँ:
- पहचान की राजनीति: भाषाई अस्मिता का उपयोग राजनीतिक लाभ के लिए करना, जिससे ध्रुवीकरण बढ़ता है।
- प्रवासी आबादी का एकीकरण: तीव्र शहरीकरण और अंतर-राज्यीय प्रवास से उत्पन्न भाषाई और सांस्कृतिक अंतर को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करना।
- भाषाई अल्पसंख्यकों का संरक्षण: यह सुनिश्चित करना कि बड़ी भाषाई आबादी के बीच छोटे भाषाई समूह हाशिए पर न धकेले जाएँ।
- सूचना का दुष्प्रचार: सोशल मीडिया पर अफवाहों और भड़काऊ सामग्री का तेजी से प्रसार, जो तनाव को बढ़ाता है।
- रोजगार और संसाधन प्रतिस्पर्धा: जब आर्थिक अवसर सीमित होते हैं, तो भाषाई पहचान अक्सर नौकरी और संसाधनों पर दावे का आधार बन जाती है।
- संवैधानिक प्रावधानों का कमजोर प्रवर्तन: भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए बने कानूनों और प्रावधानों का प्रभावी ढंग से पालन न होना।
आगे की राह (समाधान):
- बहुभाषावाद को बढ़ावा: शिक्षा प्रणाली और सार्वजनिक जीवन में बहुभाषावाद को प्रोत्साहित करना। लोगों को अपनी मातृभाषा के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाएँ सीखने के लिए प्रेरित करना।
- संवैधानिक प्रावधानों का सशक्त प्रवर्तन: भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों, विशेष रूप से प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा के उपयोग (अनुच्छेद 350A) और भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अधिकारी (अनुच्छेद 350B) के प्रावधानों को सख्ती से लागू करना।
- अंतर-सांस्कृतिक संवाद: विभिन्न भाषाई और सांस्कृतिक समूहों के बीच संवाद और आदान-प्रदान को बढ़ावा देना। सांस्कृतिक मेलों, भाषा सीखने के कार्यक्रमों और संयुक्त सामुदायिक गतिविधियों का आयोजन करना।
- आर्थिक समावेश: संतुलित क्षेत्रीय विकास सुनिश्चित करना ताकि प्रवासन के दबाव को कम किया जा सके और स्थानीय रोजगार के अवसर बढ़ाए जा सकें। यह आर्थिक असमानताओं को कम करेगा जो अक्सर भाषाई तनावों को जन्म देती हैं।
- संवेदनशील पुलिसिंग और न्यायपालिका: पुलिस और न्यायपालिका को भाषाई संवेदनशीलता के मुद्दों पर प्रशिक्षित करना ताकि वे निष्पक्ष और प्रभावी ढंग से कार्य कर सकें। ऐसे मामलों में त्वरित और कठोर कार्रवाई करना।
- मीडिया की जिम्मेदार भूमिका: मुख्यधारा मीडिया और सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को भड़काऊ या सनसनीखेज रिपोर्टिंग से बचने के लिए प्रोत्साहित करना। तथ्यात्मक और संतुलित रिपोर्टिंग को बढ़ावा देना।
- नागरिक समाज की भागीदारी: नागरिक समाज संगठनों को भाषाई सद्भाव को बढ़ावा देने और मध्यस्थता प्रयासों में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करना।
- शिक्षा प्रणाली में सुधार: पाठ्यपुस्तकों में सभी भाषाओं और संस्कृतियों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देना। भारत की विविधता को एक शक्ति के रूप में प्रस्तुत करना।
- सहनशीलता का प्रसार: ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ की अवधारणा को मजबूत करना, जहां भाषाई और सांस्कृतिक विविधता को सम्मान और गौरव के स्रोत के रूप में देखा जाए।
भाषा को दीवार नहीं, पुल बनाना ही भारत के भविष्य के लिए आवश्यक है। मुंबई की घटना एक चेतावनी है, लेकिन यह एक अवसर भी है, हमें अपनी भाषाई विविधता को बनाए रखने और उसे राष्ट्रीय एकता के लिए एक शक्ति के रूप में उपयोग करने के तरीके पर फिर से विचार करने का।
निष्कर्ष
मुंबई में ऑटो ड्राइवर को थप्पड़ मारने की घटना, एक छोटी सी झड़प से कहीं बढ़कर है। यह भारत की भाषाई विविधता के प्रबंधन में निहित जटिलताओं, क्षेत्रीय अस्मिता की भावना, और कभी-कभी राजनीतिकरण के खतरनाक परिणामों का एक प्रतीक है। यह हमें याद दिलाता है कि भाषा, जो हमारी पहचान का एक सुंदर पहलू है, यदि सावधानी से न संभाली जाए तो एक विभाजनकारी शक्ति भी बन सकती है।
भारत का संविधान भाषाई विविधता के प्रति एक प्रगतिशील और समावेशी दृष्टिकोण अपनाता है, जो सभी भाषाओं और भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करता है। चुनौती इन संवैधानिक प्रावधानों की भावना को बनाए रखने और समाज में सहिष्णुता और समझ को बढ़ावा देने में निहित है। ‘भूमि पुत्र’ जैसी अवधारणाएँ, जबकि क्षेत्रीय गौरव को दर्शाती हैं, अक्सर राष्ट्रीय एकीकरण और अंतर-राज्यीय सद्भाव के सिद्धांतों के साथ संघर्ष करती हैं।
एक परिपक्व लोकतंत्र के रूप में, हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि संवाद और कानून का शासन हमेशा हिंसा और असहिष्णुता पर हावी रहे। भाषाई सद्भाव केवल संवैधानिक प्रावधानों को लागू करने से नहीं आएगा, बल्कि यह शिक्षा, जागरूकता और विभिन्न भाषाई समुदायों के बीच निरंतर बातचीत के माध्यम से निर्मित होगा। हमें यह स्वीकार करना होगा कि भारत की शक्ति उसकी विविधता में है, और हर भाषा, हर बोली हमारे साझा सांस्कृतिक ताने-बाने का एक महत्वपूर्ण धागा है। मुंबई की घटना एक वेक-अप कॉल है, जो हमें याद दिलाती है कि हमें अपनी विविधता का जश्न मनाना चाहिए, न कि उसे टकराव का कारण बनने देना चाहिए।
UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)
प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs
निम्नलिखित कथनों पर विचार करें और सही उत्तर चुनें:
-
प्रश्न 1: राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
- इस अधिनियम ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के सिद्धांत को पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया था।
- इस अधिनियम के परिणामस्वरूप 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए थे।
- फजल अली आयोग ने “एक भाषा, एक राज्य” के सिद्धांत का समर्थन किया था।
उपरोक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
- केवल 1 और 2
- केवल 2
- केवल 1 और 3
- 1, 2 और 3
उत्तर: b
व्याख्या: राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के सिद्धांत को स्वीकार किया था, लेकिन “एक भाषा, एक राज्य” के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया था। फजल अली आयोग ने भी इस सिद्धांत का समर्थन नहीं किया था। अतः कथन 1 और 3 गलत हैं। इस अधिनियम के परिणामस्वरूप 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए थे, इसलिए कथन 2 सही है।
-
प्रश्न 2: भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार, संघ की राजभाषा है:
- अंग्रेजी (रोमन लिपि में)
- हिंदी (देवनागरी लिपि में)
- बंगाली (बंगाली लिपि में)
- संघ की कोई राजभाषा नहीं है, केवल राज्यों की राजभाषाएँ हैं।
उत्तर: b
व्याख्या: अनुच्छेद 343(1) स्पष्ट रूप से कहता है कि संघ की राजभाषा हिंदी होगी, देवनागरी लिपि में।
-
प्रश्न 3: भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में वर्तमान में कितनी भाषाएँ शामिल हैं?
- 18
- 20
- 22
- 24
उत्तर: c
व्याख्या: वर्तमान में, भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएँ शामिल हैं।
-
प्रश्न 4: निम्नलिखित में से कौन-सा अनुच्छेद भाषाई अल्पसंख्यकों के बच्चों को प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएँ प्रदान करने से संबंधित है?
- अनुच्छेद 347
- अनुच्छेद 349
- अनुच्छेद 350A
- अनुच्छेद 351
उत्तर: c
व्याख्या: अनुच्छेद 350A राज्यों को भाषाई अल्पसंख्यक समूहों के बच्चों को प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने के लिए पर्याप्त सुविधाएं प्रदान करने का निर्देश देता है।
-
प्रश्न 5: भारत में शास्त्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त करने वाली पहली भाषा कौन सी थी?
- संस्कृत
- तेलुगु
- तमिल
- कन्नड़
उत्तर: c
व्याख्या: तमिल को 2004 में भारत में शास्त्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त करने वाली पहली भाषा घोषित किया गया था।
-
प्रश्न 6: निम्नलिखित कथनों में से कौन सा सही है?
- अनुच्छेद 345 संघ की राजभाषा से संबंधित है।
- अनुच्छेद 350B भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए एक विशेष अधिकारी के प्रावधान से संबंधित है।
- अनुच्छेद 351 सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में प्रयोग की जाने वाली भाषा से संबंधित है।
- अनुच्छेद 348 हिंदी भाषा के विकास के लिए निर्देश से संबंधित है।
उत्तर: b
व्याख्या:
- अनुच्छेद 345 राज्यों की राजभाषा या राजभाषाओं से संबंधित है। (a गलत)
- अनुच्छेद 350B भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए एक विशेष अधिकारी के प्रावधान से संबंधित है। (b सही)
- अनुच्छेद 351 हिंदी भाषा के विकास के लिए निर्देश से संबंधित है। (c गलत)
- अनुच्छेद 348 सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में प्रयोग की जाने वाली भाषा से संबंधित है। (d गलत)
-
प्रश्न 7: “भूमि पुत्र” (Sons of the Soil) सिद्धांत का प्राथमिक उद्देश्य क्या है?
- भारतीय समाज में भाषाई विविधता को बढ़ावा देना।
- एक क्षेत्र के स्थानीय निवासियों के लिए रोजगार और अन्य अवसरों को आरक्षित करना।
- एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच पत्राचार की भाषा को विनियमित करना।
- सांस्कृतिक आदान-प्रदान और राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देना।
उत्तर: b
व्याख्या: “भूमि पुत्र” सिद्धांत इस विचार पर आधारित है कि किसी विशेष क्षेत्र के स्थानीय निवासी उस क्षेत्र के संसाधनों और अवसरों पर प्राथमिक दावा रखते हैं, विशेष रूप से रोजगार के संबंध में।
-
प्रश्न 8: राजभाषा आयोग का गठन प्रत्येक ____ वर्ष में राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है।
- 2
- 5
- 10
- 15
उत्तर: b
व्याख्या: अनुच्छेद 344 के अनुसार, राष्ट्रपति प्रत्येक 5 वर्ष में एक राजभाषा आयोग का गठन करते हैं।
-
प्रश्न 9: निम्नलिखित में से कौन सी भाषा भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में सूचीबद्ध नहीं है?
- भोजपुरी
- बोडो
- डोगरी
- मैथिली
उत्तर: a
व्याख्या: भोजपुरी वर्तमान में आठवीं अनुसूची में सूचीबद्ध नहीं है, हालांकि इसे शामिल करने की मांग की जा रही है। बोडो, डोगरी और मैथिली को 2003 के 92वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया था।
-
प्रश्न 10: आजादी के बाद भाषाई आधार पर गठित होने वाला पहला भारतीय राज्य कौन सा था?
- महाराष्ट्र
- गुजरात
- आंध्र प्रदेश
- केरल
उत्तर: c
व्याख्या: पोट्टी श्रीरामुलु की मृत्यु के बाद, आंध्र प्रदेश 1953 में भाषाई आधार पर गठित होने वाला पहला भारतीय राज्य था।
मुख्य परीक्षा (Mains)
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 250 शब्दों में दें:
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हालिया मुंबई घटना के आलोक में, भारत में भाषाई राष्ट्रवाद के उदय और क्षेत्रीय अस्मिता के दावों का समालोचनात्मक परीक्षण करें। राष्ट्रीय एकीकरण के लिए इसके निहितार्थों पर चर्चा करें।
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भारत में भाषाई विवादों के सामाजिक-आर्थिक प्रभावों का विश्लेषण करें। ऐसे संघर्षों को कम करने और भाषाई विविधता को राष्ट्रीय शक्ति के रूप में बढ़ावा देने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं?
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भारतीय संविधान भाषाई विविधता को कैसे संबोधित करता है? क्या इसके प्रावधान समकालीन भाषाई चुनौतियों, जैसे ‘भूमि पुत्र’ आंदोलन और भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए पर्याप्त हैं? विस्तार से चर्चा करें।
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“भाषा केवल संचार का माध्यम नहीं है, बल्कि यह किसी समुदाय की पहचान और गौरव का प्रतीक भी है।” इस कथन के आलोक में, भारत में भाषाई सद्भाव बनाए रखने में शिक्षा, मीडिया और नागरिक समाज की भूमिका का मूल्यांकन करें।