उपराष्ट्रपति धनखड़ का रचनात्मक राजनीति का आह्वान: क्या बदल पाएगी भारतीय सियासत?
चर्चा में क्यों? (Why in News?):
हाल ही में, मानसून सत्र शुरू होने से ठीक पहले, भारत के उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति, श्री जगदीप धनखड़ ने सभी राजनीतिक दलों से “रचनात्मक राजनीति” में भाग लेने का आह्वान किया। उन्होंने लोकतंत्र में बहस, चर्चा और सहमति के महत्व पर जोर दिया, साथ ही यह भी रेखांकित किया कि विघ्नकारी राजनीति राष्ट्रीय हित के लिए हानिकारक है। उपराष्ट्रपति का यह आह्वान ऐसे समय में आया है जब भारतीय संसद में हंगामे, स्थगन और वैचारिक मतभेदों के कारण महत्वपूर्ण विधेयकों और मुद्दों पर चर्चा में बाधाएँ अक्सर देखी जाती हैं। यह टिप्पणी न केवल संसदीय कार्यवाही की सुचारुता सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक भविष्य के लिए भी इसके गहरे निहितार्थ हैं।
रचनात्मक राजनीति क्या है? (What is Constructive Politics?)
सरल शब्दों में, रचनात्मक राजनीति का अर्थ है ‘राष्ट्र हित’ को सर्वोपरि रखते हुए राजनीतिक संवाद और कार्यवाही में संलग्न होना। यह केवल विरोध या आलोचना से कहीं बढ़कर है; यह समाधान-उन्मुख दृष्टिकोण है जहाँ राजनीतिक दल मतभेदों के बावजूद साझा लक्ष्यों की दिशा में काम करते हैं। इसके कुछ प्रमुख तत्व इस प्रकार हैं:
- संवाद और बहस: मुद्दों पर खुली और सार्थक चर्चा, तर्क-वितर्क पर ध्यान केंद्रित करना, न कि व्यक्तिगत आक्षेप या शोर-शराबे पर।
- सर्वसम्मति का निर्माण: कठिन मुद्दों पर भी आम सहमति तक पहुँचने का प्रयास करना, न कि केवल अपने रुख पर अड़े रहना।
- राष्ट्रहित सर्वोपरि: पार्टी लाइन या चुनावी लाभ से ऊपर उठकर देश के व्यापक हितों को प्राथमिकता देना।
- जवाबदेही और पारदर्शिता: नीतियों और निर्णयों में पारदर्शिता बनाए रखना और अपनी जिम्मेदारियों के प्रति जवाबदेह होना।
- संस्थाओं का सम्मान: संसद, न्यायपालिका और अन्य संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा और स्वतंत्रता बनाए रखना।
- रचनात्मक आलोचना: सरकार की नीतियों की केवल आलोचना के लिए आलोचना न करना, बल्कि व्यवहार्य विकल्प और समाधान सुझाना।
इसके विपरीत, विघटनकारी राजनीति वह है जहाँ वाद-विवाद के बजाय व्यवधान, सार्थक चर्चा के बजाय शोरगुल और राष्ट्रीय प्रगति के बजाय राजनीतिक स्कोरिंग को प्राथमिकता दी जाती है। उपराष्ट्रपति का आह्वान इसी विघटनकारी प्रवृत्ति को समाप्त कर रचनात्मकता की ओर बढ़ने का आग्रह है।
अभी रचनात्मक राजनीति की आवश्यकता क्यों? (Why the Need for Constructive Politics Now?)
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, और इसकी संसद लोकतंत्र का मंदिर है। हालाँकि, पिछले कुछ दशकों में, हमने संसदीय कामकाज में कुछ चिंताजनक प्रवृत्तियाँ देखी हैं:
- बढ़ता ध्रुवीकरण: वैचारिक मतभेद अक्सर व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता और कटुता में बदल जाते हैं, जिससे संवाद की संभावना कम हो जाती है।
- संसदीय व्यवधान: हंगामे, नारेबाजी और सत्रों के स्थगन के कारण संसद का बहुमूल्य समय बर्बाद होता है। इससे महत्वपूर्ण विधेयकों पर चर्चा नहीं हो पाती और जनता के पैसे का भी नुकसान होता है।
- विधायी गतिरोध: विपक्ष और सरकार के बीच असहमति के कारण महत्वपूर्ण कानून अधर में लटक जाते हैं, जिससे देश के विकास पर असर पड़ता है। उदाहरण के लिए, भूमि अधिग्रहण विधेयक, जीएसटी, कृषि कानून जैसे कई मुद्दों पर लंबा गतिरोध देखा गया।
- संसदीय समितियों का कमज़ोर होना: विधेयकों की विस्तृत समीक्षा के लिए संसदीय समितियाँ महत्वपूर्ण हैं, लेकिन हाल के वर्षों में कई विधेयकों को बिना पर्याप्त जांच के पारित किया गया है।
- जनता का विश्वास कम होना: जब नागरिक देखते हैं कि उनके प्रतिनिधि बहस करने के बजाय झगड़ रहे हैं, तो लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं में उनका विश्वास कम होता है।
- महत्वपूर्ण राष्ट्रीय चुनौतियों: भारत गरीबी, असमानता, जलवायु परिवर्तन, भू-राजनीतिक अस्थिरता जैसी कई जटिल चुनौतियों का सामना कर रहा है। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए राजनीतिक दलों के बीच सहयोग और आम सहमति आवश्यक है।
उपराष्ट्रपति धनखड़ का आह्वान इस बिगड़ती स्थिति का सीधा परिणाम है, जिसमें उन्होंने उम्मीद जताई है कि सभी दल राष्ट्र निर्माण के साझा उद्देश्य के लिए एकजुट होंगे।
भारतीय राजनीति में रचनात्मकता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (Historical Context of Constructive Politics in India)
भारतीय राजनीति का इतिहास रचनात्मक और विघटनकारी दोनों ही तरह की प्रवृत्तियों का गवाह रहा है।
- प्रारंभिक दशक (1950-1970 के दशक): स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती वर्षों में, भारतीय संसद में उच्च स्तर की बहस और विचार-विमर्श देखा गया। पंडित नेहरू जैसे नेताओं ने विपक्ष का सम्मान किया और उन्हें महत्वपूर्ण भूमिकाएँ दीं। भले ही सत्ता में एक दल का प्रभुत्व था, लेकिन बहसें अक्सर समृद्ध और गहन होती थीं। उस समय, संसद में नए-नए कानून बनते थे और उनकी गंभीरता से जांच की जाती थी।
- गठबंधन का युग (1990 के दशक – 2014): गठबंधन की राजनीति के उदय ने राजनीतिक दलों को अधिक समझौते करने और आम सहमति बनाने के लिए मजबूर किया। भले ही यह अक्सर राजनीतिक अस्थिरता का दौर था, लेकिन इसने विभिन्न विचारधाराओं को एक साथ काम करने के लिए प्रेरित किया। आर्थिक सुधारों से लेकर महत्वपूर्ण सामाजिक कानूनों तक, कई पहलें इस युग में विभिन्न दलों के सहयोग से संभव हुईं। उदाहरण के लिए, जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) को पारित करने में दशकों लगे, जिसमें विभिन्न सरकारों और विपक्षी दलों के बीच व्यापक विचार-विमर्श और सहमति निर्माण शामिल था। यह रचनात्मकता का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, भले ही इसमें लंबा समय लगा।
- हाल के रुझान: पिछले दशक में, हम विपक्ष के लिए जगह में कमी और सरकार द्वारा विधायी प्रक्रियाओं को तेज़ी से आगे बढ़ाने की प्रवृत्ति देख रहे हैं। यह सत्ता पक्ष के बहुमत और विपक्ष के अपेक्षाकृत कमज़ोर होने के कारण हुआ है। इसका परिणाम अक्सर कम बहस और अधिक व्यवधानों के रूप में सामने आया है।
यह कहना उचित होगा कि भारत में रचनात्मक राजनीति की विरासत है, लेकिन उसे लगातार पोषित करने और पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है, खासकर मौजूदा राजनीतिक माहौल में।
रचनात्मक राजनीति के आधार स्तंभ (Pillars of Constructive Politics)
रचनात्मक राजनीति केवल एक अमूर्त विचार नहीं है, बल्कि यह कुछ ठोस सिद्धांतों और व्यवहारों पर आधारित है। आइए इन आधार स्तंभों को विस्तार से समझें:
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संवाद और विचार-विमर्श (Dialogue and Deliberation):
लोकतंत्र का सार संवाद में निहित है। संसद बहस और चर्चा का मंच है, न कि शोर-शराबे का। रचनात्मक राजनीति में, नेता और दल एक-दूसरे की बात सुनने, तर्क-वितर्क करने और अंततः एक समाधान पर पहुँचने के लिए खुले रहते हैं। इसमें व्यक्तिगत हमलों से बचना और मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना शामिल है।
“बहस, असहमति और फिर आम सहमति, यह लोकतंत्र की आत्मा है। व्यवधान इसके लिए घातक है।” – (उपराष्ट्रपति धनखड़ के विचार से प्रेरित)
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सर्वसम्मति निर्माण (Consensus Building):
बहुमत-आधारित प्रणाली में भी सर्वसम्मति का अत्यधिक महत्व है। इसका अर्थ है कि सरकार को केवल संख्या बल पर निर्भर न रहकर, विपक्ष को भी विश्वास में लेकर कानून बनाने का प्रयास करना चाहिए। यह कानून को अधिक वैधता और स्थायित्व प्रदान करता है। प्रमुख राष्ट्रीय मुद्दों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा और विदेश नीति पर आम सहमति विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
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जवाबदेही और पारदर्शिता (Accountability and Transparency):
यह रचनात्मक राजनीति का एक आंतरिक घटक है। सरकार अपनी नीतियों और निर्णयों के लिए संसद और जनता के प्रति जवाबदेह होनी चाहिए। पारदर्शिता यह सुनिश्चित करती है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया खुली और न्यायपूर्ण हो। विपक्ष का कार्य भी सरकार को जवाबदेह ठहराना है, लेकिन यह कार्य रचनात्मक तरीके से होना चाहिए, न कि केवल आरोप-प्रत्यारोप से।
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राष्ट्रीय हित पर ध्यान (Focus on National Interest):
सभी राजनीतिक दलों का अंतिम लक्ष्य राष्ट्र का कल्याण होना चाहिए। इसका अर्थ है कि वे अपनी पार्टी के संकीर्ण हितों या चुनावी लाभों से ऊपर उठकर देश की व्यापक भलाई के लिए कार्य करें। यह तब होता है जब दल रक्षा, आपदा राहत या महामारी जैसी राष्ट्रीय संकटों के दौरान एकजुट होते हैं।
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संस्थानों के प्रति सम्मान (Respect for Institutions):
लोकतंत्र संवैधानिक संस्थाओं, जैसे संसद, न्यायपालिका, चुनाव आयोग आदि के सम्मान पर आधारित है। रचनात्मक राजनीति में इन संस्थाओं की गरिमा को बनाए रखना और उनके नियमों तथा प्रक्रियाओं का पालन करना शामिल है। संसद के भीतर मर्यादित आचरण और नियमों का पालन करना इसका एक प्रमुख उदाहरण है।
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रचनात्मक आलोचना (Constructive Criticism):
स्वस्थ लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। रचनात्मक आलोचना का अर्थ है सरकार की नीतियों की कमियों को इंगित करना, लेकिन साथ ही व्यवहार्य विकल्प और बेहतर समाधान भी सुझाना। यह केवल ‘विरोध के लिए विरोध’ से भिन्न है, जिसमें मुख्य उद्देश्य सरकार को बदनाम करना या उसके कामकाज को रोकना होता है।
रचनात्मक राजनीति के लाभ (Benefits of Constructive Politics)
रचनात्मक राजनीति न केवल संसदीय कामकाज को बेहतर बनाती है, बल्कि इसके व्यापक राष्ट्रीय लाभ भी हैं:
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कुशल शासन (Efficient Governance):
जब राजनीतिक दल सहयोग करते हैं, तो विधायी प्रक्रियाएँ सुचारु होती हैं। महत्वपूर्ण विधेयक समय पर पारित होते हैं, नीतियाँ अधिक प्रभावी ढंग से लागू होती हैं, और देश का विकास तेज़ी से होता है। गतिरोध कम होने से सरकार अपनी ऊर्जा राष्ट्र निर्माण पर अधिक केंद्रित कर पाती है।
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सार्वजनिक विश्वास में वृद्धि (Enhanced Public Trust):
जब नागरिक देखते हैं कि उनके प्रतिनिधि परिपक्वता से कार्य कर रहे हैं और राष्ट्रीय मुद्दों पर मिलकर काम कर रहे हैं, तो लोकतंत्र में उनका विश्वास बढ़ता है। इससे राजनीतिक प्रक्रिया में अधिक भागीदारी और विश्वास उत्पन्न होता है, जो लोकतंत्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
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लोकतांत्रिक संस्थाओं का सुदृढ़ीकरण (Strengthened Democratic Institutions):
संसद जैसी संस्थाएँ तभी मज़बूत होती हैं जब उनके भीतर स्वस्थ बहस और नियमों का सम्मान हो। रचनात्मक राजनीति इन संस्थाओं को उनके इच्छित उद्देश्य – जनता के प्रतिनिधियों के माध्यम से राष्ट्र की प्रगति – को पूरा करने में सक्षम बनाती है।
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तेज आर्थिक और सामाजिक विकास (Faster Economic and Social Development):
नीतिगत स्थिरता और त्वरित निर्णय लेने से निवेश का माहौल बेहतर होता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी ढाँचा जैसे क्षेत्रों में सुधारों को तेजी से लागू किया जा सकता है, जिससे देश का समग्र आर्थिक और सामाजिक विकास होता है। उदाहरण के लिए, जब जीएसटी लागू हुआ, तो यह विभिन्न दलों के बीच वर्षों के विचार-विमर्श और सहमति का परिणाम था, जिसने अंततः अर्थव्यवस्था को लाभ पहुँचाया।
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वैश्विक मंच पर बेहतर छवि (Improved Image on Global Stage):
एक परिपक्व और कार्यात्मक लोकतंत्र के रूप में भारत की छवि वैश्विक मंच पर और मज़बूत होती है। यह विदेशी निवेश आकर्षित करता है और भू-राजनीतिक संबंधों में भारत की स्थिति को सुदृढ़ करता है।
रचनात्मक राजनीति अपनाने में चुनौतियाँ (Challenges in Adopting Constructive Politics)
रचनात्मक राजनीति के महत्व के बावजूद, इसे अपनाना इतना आसान नहीं है। कई अंतर्निहित चुनौतियाँ हैं:
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चुनावी मजबूरियाँ (Electoral Compulsions):
राजनीतिक दल अक्सर चुनावों में अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए एक-दूसरे पर हमला करते हैं और कठोर रुख अपनाते हैं। विपक्ष को अक्सर “मज़बूत” दिखने के लिए सरकार का पुरज़ोर विरोध करना पड़ता है, भले ही उनके पास बेहतर विकल्प न हों। सत्तारूढ़ दल भी अक्सर विपक्ष की आवाज़ को दबाने की कोशिश करते हैं ताकि वे “निर्णायक” दिख सकें।
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ध्रुवीकरण और वैचारिक विभाजन (Polarization and Ideological Divides):
भारतीय राजनीति में वैचारिक ध्रुवीकरण बढ़ रहा है, जिससे विभिन्न दलों के बीच सेतु बनाना मुश्किल हो गया है। विभिन्न मुद्दों पर राजनीतिक दलों के बीच कट्टर मतभेद अक्सर सहयोग को रोकते हैं।
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मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका (Role of Media and Social Media):
आधुनिक मीडिया, विशेषकर सोशल मीडिया, अक्सर सनसनीखेज ख़बरों और टकराव को बढ़ावा देता है। यह राजनीतिक नेताओं को अतिवादी बयान देने और “ड्रामा” करने के लिए प्रेरित करता है, क्योंकि यह अधिक ध्यान आकर्षित करता है। स्वस्थ बहस की तुलना में हंगामे और आरोप-प्रत्यारोप को अधिक कवरेज मिलती है।
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विश्वास की कमी (Lack of Trust):
राजनीतिक दलों के बीच विश्वास का अभाव एक बड़ी चुनौती है। जब एक दल दूसरे की नीयत पर संदेह करता है, तो सहयोग की संभावना कम हो जाती है। दशकों पुरानी प्रतिद्वंद्विता और आरोप-प्रत्यारोप ने इस अविश्वास को और गहरा किया है।
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दल-बदल विरोधी कानून का प्रभाव (Impact of Anti-Defection Law):
हालांकि दल-बदल विरोधी कानून का उद्देश्य राजनीतिक स्थिरता लाना है, लेकिन कुछ हद तक यह सांसदों को अपनी पार्टी लाइन से हटकर स्वतंत्र रूप से सोचने और मतदान करने से भी रोकता है। इससे रचनात्मक बहस में कमी आ सकती है जहाँ सांसद अपने विवेक के अनुसार मतदान करना चाहें।
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असहमति के लिए घटता स्थान (Shrinking Space for Dissent):
कभी-कभी, असहमति को ‘राष्ट्र-विरोधी’ या ‘अवरोधक’ के रूप में देखा जाता है। यह विपक्ष को अपनी आवाज़ उठाने से हतोत्साहित करता है और रचनात्मक आलोचना के दायरे को सीमित करता है।
आगे की राह / रचनात्मक राजनीति को कैसे बढ़ावा दें? (Way Forward / How to Foster Constructive Politics?)
उपराष्ट्रपति का आह्वान केवल एक बयान नहीं, बल्कि एक मार्गदर्शक सिद्धांत है। रचनात्मक राजनीति को बढ़ावा देने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है:
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राजनीतिक दलों की भूमिका (Role of Political Parties):
- आंतरिक लोकतंत्र: दलों को अपने भीतर अधिक लोकतांत्रिक होना चाहिए ताकि नेताओं को स्वतंत्र रूप से सोचने और अपनी राय व्यक्त करने की स्वतंत्रता मिले।
- नैतिक प्रशिक्षण: राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं को संसदीय मानदंडों और नैतिकता का प्रशिक्षण देना चाहिए।
- फोकस समूह: राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर आम सहमति बनाने के लिए विभिन्न दलों के नेताओं के बीच अनौपचारिक संवाद और कार्यशालाएँ आयोजित की जानी चाहिए।
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पीठासीन अधिकारियों की भूमिका (Role of Presiding Officers):
लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति को निष्पक्ष और दृढ़ता से कार्य करना चाहिए। उन्हें बहस को प्रोत्साहित करना चाहिए और व्यवधानों को दृढ़ता से रोकना चाहिए, साथ ही सभी पक्षों को बोलने का पर्याप्त अवसर देना चाहिए।
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नागरिकों की भूमिका (Role of Citizens):
नागरिकों को अपने प्रतिनिधियों से रचनात्मक राजनीति की मांग करनी चाहिए। वे सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से ऐसे व्यवहारों को हतोत्साहित कर सकते हैं जो विघटनकारी हों और ऐसे नेताओं की सराहना कर सकते हैं जो परिपक्वता से कार्य करते हैं। मतदाता व्यवहार भी दलों को रचनात्मकता अपनाने के लिए मजबूर कर सकता है।
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संसदीय सुधार (Parliamentary Reforms):
- विधेयकों की जांच: विधेयकों को संसद में पेश करने से पहले विस्तृत जांच और परामर्श के लिए संसदीय स्थायी समितियों को अनिवार्य रूप से संदर्भित किया जाना चाहिए।
- नियमों का प्रभावी प्रवर्तन: संसद के नियमों का उल्लंघन करने वाले सदस्यों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई को प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए।
- प्रश्नकाल का महत्व: प्रश्नकाल और शून्यकाल जैसे तंत्रों का सार्थक उपयोग सुनिश्चित किया जाना चाहिए, जहाँ सरकार से जवाबदेही मांगी जा सके।
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नैतिकता और मूल्य (Ethics and Values):
शिक्षा प्रणाली और सार्वजनिक प्रवचन के माध्यम से राजनीतिक नैतिकता, सार्वजनिक सेवा और राष्ट्रीय हित के मूल्यों को बढ़ावा देना। नेताओं को सार्वजनिक जीवन में उदाहरण स्थापित करने की आवश्यकता है।
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मीडिया की जिम्मेदारी (Media’s Responsibility):
मीडिया को सनसनीखेज रिपोर्टिंग से बचना चाहिए और संसद में होने वाली सार्थक बहसों और विचार-विमर्श पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए। उन्हें राजनीतिक दलों को रचनात्मक संवाद के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
निष्कर्ष (Conclusion)
उपराष्ट्रपति धनखड़ का ‘रचनात्मक राजनीति’ में भाग लेने का आह्वान भारतीय लोकतंत्र के लिए एक समयोचित और महत्वपूर्ण संदेश है। यह सिर्फ एक आदर्शवादी विचार नहीं, बल्कि एक व्यावहारिक आवश्यकता है यदि भारत को अपनी पूरी क्षमता का एहसास करना है और एक समृद्ध, समावेशी और प्रगतिशील राष्ट्र के रूप में उभरना है। यह केवल सरकार या विपक्ष की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि प्रत्येक राजनीतिक दल, प्रत्येक नागरिक और मीडिया सहित सभी हितधारकों की सामूहिक जिम्मेदारी है। यदि सभी मिलकर राष्ट्र हित को सर्वोपरि रखते हुए संवाद, सहमति और सहभागिता का मार्ग अपनाएँ, तो भारतीय राजनीति एक नए और अधिक फलदायी अध्याय की ओर बढ़ सकती है, जो अंततः देश की प्रगति और लोकतांत्रिक मूल्यों को मज़बूत करेगा।
“एक लोकतंत्र में, विपक्ष उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि सरकार। लेकिन विपक्ष का उद्देश्य विनाश नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण में रचनात्मक भूमिका निभाना होना चाहिए।”
UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)
प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs
(निम्नलिखित कथनों पर विचार करें और सही विकल्प चुनें)
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प्रश्न 1: भारत के उपराष्ट्रपति के संबंध में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:
- वह राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं।
- वह संसद के किसी भी सदन के सदस्य नहीं होते हैं।
- वह भारत के राष्ट्रपति के समान महाभियोग प्रक्रिया द्वारा हटाए जा सकते हैं।
उपर्युक्त कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं?
(A) केवल a
(B) केवल a और b
(C) केवल b और c
(D) a, b और c
उत्तर: (B)
व्याख्या: कथन (a) सही है, उपराष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं। कथन (b) सही है, संविधान के अनुसार उपराष्ट्रपति संसद के किसी भी सदन के सदस्य नहीं होते हैं। कथन (c) गलत है, उपराष्ट्रपति को हटाने की प्रक्रिया राष्ट्रपति के महाभियोग से अलग है; उन्हें राज्यसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित प्रस्ताव द्वारा हटाया जा सकता है, जिसे लोकसभा द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए। -
प्रश्न 2: ‘रचनात्मक राजनीति’ की अवधारणा में निम्नलिखित में से कौन से तत्व शामिल हो सकते हैं?
- विरोध के लिए विरोध के बजाय समाधान-उन्मुख दृष्टिकोण।
- राष्ट्रीय हित को पार्टी हित से ऊपर रखना।
- संसदीय कार्यवाही में निरंतर व्यवधानों को प्रोत्साहित करना।
- पारदर्शी और जवाबदेह शासन को बढ़ावा देना।
उपर्युक्त कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं?
(A) केवल a और b
(B) केवल a, b और d
(C) केवल c और d
(D) a, b, c और d
उत्तर: (B)
व्याख्या: रचनात्मक राजनीति समाधान-उन्मुख होती है, राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता देती है और पारदर्शी शासन को बढ़ावा देती है। संसदीय कार्यवाही में व्यवधान रचनात्मक राजनीति का हिस्सा नहीं है, बल्कि विघटनकारी राजनीति का लक्षण है। -
प्रश्न 3: भारतीय संसद में गतिरोध और व्यवधान के संभावित कारणों में शामिल हो सकते हैं:
- बढ़ता राजनीतिक ध्रुवीकरण।
- संसदीय समितियों को कम विधेयकों का भेजा जाना।
- मीडिया द्वारा केवल सकारात्मक खबरों पर अत्यधिक ध्यान देना।
- विपक्ष द्वारा आम सहमति बनाने में सहयोग की कमी।
उपर्युक्त कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं?
(A) केवल a और b
(B) केवल b और c
(C) केवल a, b और d
(D) a, b, c और d
उत्तर: (C)
व्याख्या: कथन (a), (b) और (d) सही हैं। राजनीतिक ध्रुवीकरण, समितियों को कम बिल भेजे जाने से जांच में कमी, और विपक्ष-सरकार के बीच सहयोग की कमी गतिरोध के कारण हैं। कथन (c) गलत है, मीडिया अक्सर सनसनीखेज या टकराव वाली खबरों पर अधिक ध्यान देता है, जो व्यवधान को बढ़ा सकता है, न कि केवल सकारात्मक खबरों पर। -
प्रश्न 4: भारतीय संसद के संदर्भ में, निम्नलिखित में से कौन सा उपकरण सरकार की नीतियों पर ‘रचनात्मक आलोचना’ के लिए सबसे उपयुक्त है?
(A) ध्यानाकर्षण प्रस्ताव
(B) अविश्वास प्रस्ताव
(C) प्रश्नकाल और शून्यकाल
(D) स्थगन प्रस्ताव
उत्तर: (C)
व्याख्या: प्रश्नकाल और शून्यकाल सदस्यों को सरकार से प्रश्न पूछने और महत्वपूर्ण मुद्दों पर चिंता व्यक्त करने का अवसर प्रदान करते हैं, जिससे रचनात्मक आलोचना और जवाबदेही संभव होती है। ध्यानाकर्षण प्रस्ताव किसी अत्यावश्यक सार्वजनिक महत्व के मामले पर मंत्री का ध्यान आकर्षित करने के लिए होता है। अविश्वास प्रस्ताव सरकार के प्रति अविश्वास व्यक्त करता है। स्थगन प्रस्ताव एक विशिष्ट, अत्यावश्यक सार्वजनिक महत्व के मामले पर सदन की कार्यवाही को निलंबित करने के लिए होता है, जिसका उपयोग अक्सर व्यवधान के लिए भी किया जाता है। -
प्रश्न 5: भारत के उपराष्ट्रपति के चुनाव के संबंध में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:
- उनका चुनाव संसद के दोनों सदनों के सदस्यों से मिलकर बने निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाता है।
- इसमें राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य भी शामिल होते हैं।
- चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होता है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं?
(A) केवल a और b
(B) केवल a और c
(C) केवल b और c
(D) a, b और c
उत्तर: (B)
व्याख्या: कथन (a) और (c) सही हैं। उपराष्ट्रपति का चुनाव संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) के सभी सदस्यों (निर्वाचित और मनोनीत) के निर्वाचक मंडल द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होता है। कथन (b) गलत है, राज्यों की विधानसभाओं के सदस्य उपराष्ट्रपति के चुनाव में भाग नहीं लेते हैं। -
प्रश्न 6: स्वस्थ लोकतंत्र में ‘विपक्ष की भूमिका’ के संबंध में निम्नलिखित में से कौन सा कथन सबसे सटीक है?
(A) सरकार की हर नीति का अंधा विरोध करना।
(B) सरकार को उसकी नीतियों और कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराना और वैकल्पिक समाधान सुझाना।
(C) संसदीय कार्यवाही को बाधित कर सरकार पर दबाव बनाना।
(D) केवल चुनाव के दौरान ही सक्रिय रहना।
उत्तर: (B)
व्याख्या: विपक्ष की महत्वपूर्ण भूमिका सरकार को जवाबदेह ठहराना, उसकी नीतियों की रचनात्मक आलोचना करना और व्यवहार्य विकल्प प्रस्तुत करना है। अंधा विरोध या निरंतर व्यवधान स्वस्थ लोकतंत्र में विपक्ष की आदर्श भूमिका नहीं है। -
प्रश्न 7: संसदीय समितियों के संबंध में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:
- वे कानून बनाने की प्रक्रिया में विधेयकों की विस्तृत जांच करती हैं।
- वे सदन के सत्र में न होने पर भी कार्य कर सकती हैं।
- सभी संसदीय समितियां लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा नियुक्त की जाती हैं।
उपर्युक्त कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं?
(A) केवल a
(B) केवल a और b
(C) केवल b और c
(D) a, b और c
उत्तर: (B)
व्याख्या: कथन (a) और (b) सही हैं। संसदीय समितियाँ विधेयकों की विस्तृत जांच करती हैं और सदन के सत्र में न होने पर भी काम कर सकती हैं। कथन (c) गलत है, कुछ समितियाँ राज्यसभा के सभापति द्वारा भी नियुक्त की जाती हैं (जैसे राज्यसभा की स्थायी समितियाँ)। -
प्रश्न 8: ‘आम सहमति’ (Consensus) निर्माण के महत्व के संदर्भ में, निम्नलिखित में से कौन सा कथन सही नहीं है?
(A) यह कानून को अधिक वैधता और स्थायित्व प्रदान करता है।
(B) यह केवल संख्या बल पर आधारित निर्णय लेने की आवश्यकता को समाप्त करता है।
(C) यह सभी हितधारकों को प्रक्रिया में शामिल होने का अवसर देता है।
(D) यह विधायी प्रक्रिया में लगने वाले समय को हमेशा कम करता है।
उत्तर: (D)
व्याख्या: आम सहमति निर्माण कानून को वैधता और स्थायित्व देता है, और हितधारकों को शामिल करता है। हालांकि, आम सहमति बनाने में अक्सर अधिक समय लग सकता है, क्योंकि इसमें विभिन्न विचारों को समायोजित करना होता है। इसलिए, यह हमेशा विधायी प्रक्रिया में लगने वाले समय को कम नहीं करता। -
प्रश्न 9: भारत के संविधान में निम्नलिखित में से कौन सा प्रावधान ‘संसदीय विशेषाधिकार’ से संबंधित है?
(A) अनुच्छेद 105
(B) अनुच्छेद 110
(C) अनुच्छेद 112
(D) अनुच्छेद 123
उत्तर: (A)
व्याख्या: अनुच्छेद 105 संसद के सदनों के सदस्यों की शक्तियों, विशेषाधिकारों और उन्मुक्तियों से संबंधित है। अनुच्छेद 110 धन विधेयक की परिभाषा से संबंधित है। अनुच्छेद 112 वार्षिक वित्तीय विवरण (बजट) से संबंधित है। अनुच्छेद 123 राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति से संबंधित है। -
प्रश्न 10: निम्नलिखित में से कौन सा संसदीय उपकरण ‘सरकार से नीतियों पर चर्चा करने और स्पष्टीकरण मांगने’ के लिए उपयोग किया जाता है, लेकिन इसमें सरकार के खिलाफ निंदा का प्रस्ताव शामिल नहीं होता है?
(A) निंदा प्रस्ताव (Censure Motion)
(B) कटौती प्रस्ताव (Cut Motion)
(C) अल्पकालिक चर्चा (Short Duration Discussion)
(D) अविश्वास प्रस्ताव (No-Confidence Motion)
उत्तर: (C)
व्याख्या: अल्पकालिक चर्चा एक तात्कालिक सार्वजनिक महत्व के मामले पर चर्चा के लिए होती है, जिसमें किसी भी प्रकार के निंदा या वोटिंग का प्रस्ताव नहीं होता। निंदा प्रस्ताव सरकार या किसी मंत्री की किसी नीति या कार्य की निंदा करने के लिए होता है। कटौती प्रस्ताव अनुदान की मांगों को कम करने के लिए होता है। अविश्वास प्रस्ताव सरकार को हटाने के लिए होता है।
मुख्य परीक्षा (Mains)
- “उपराष्ट्रपति धनखड़ का ‘रचनात्मक राजनीति’ का आह्वान भारतीय लोकतंत्र की वर्तमान चुनौतियों के आलोक में एक महत्वपूर्ण संदेश है।” इस कथन के आलोक में, ‘रचनात्मक राजनीति’ की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और भारतीय राजनीति में इसकी वर्तमान प्रासंगिकता का विश्लेषण कीजिए।
- भारतीय संसद में बढ़ते गतिरोध और व्यवधान के क्या कारण हैं? ‘रचनात्मक राजनीति’ को बढ़ावा देने के लिए संसद के नियमों और प्रक्रियाओं में क्या सुधार किए जा सकते हैं? चर्चा कीजिए।
- ‘रचनात्मक आलोचना’ एक स्वस्थ लोकतंत्र की नींव है। भारतीय राजनीति में विपक्ष की भूमिका का विश्लेषण इस संदर्भ में कीजिए कि वे सरकार की जवाबदेही कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं और साथ ही राष्ट्रीय हित में रचनात्मक योगदान कैसे दे सकते हैं।
- राजनीतिक ध्रुवीकरण और चुनावी मजबूरियाँ अक्सर ‘रचनात्मक राजनीति’ के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती हैं। इन चुनौतियों का सामना करने और भारत में अधिक सहयोगी राजनीतिक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न हितधारकों (जैसे राजनीतिक दल, नागरिक समाज, मीडिया और पीठासीन अधिकारी) की क्या भूमिका हो सकती है?