उद्विकास और प्रगति

उद्विकास और प्रगति

उद्वविकास का अर्थ एवं परिभाषाएँ :

 

 ‘ उद्वविकास ‘ शब्द का अंग्रेजी रूपान्तर EVOLUTION है । ‘ इवोल्यूशन ‘ शब्द लैटिन भाषा के शब्द Evolvere से लिया गया है । Evolvere शब्द के अक्षर E का अर्थ है ‘ बाहर की ओर ‘ तथा volver शब्द का अर्थ है ‘ फैलना ‘ । इस प्रकार Evolvere शब्द का अर्थ ‘ बाहर की ओर फैलना ‘ हुआ । इसी से ‘ उद्विकास ‘ का अर्थ हुआ आन्तरिक शक्तियों का बाहर की ओर फैलना । ‘ उविकास ‘ शब्द की व्याख्ता करते हए समाजशास्त्रियों ने कहा है कि जब आन्तरिक गुण वाहर की ओर प्रकट होने लगते हैं तो किसी वस्तु का उविकास होता है । इस प्रकार , उद्विकास होने पर वस्तु के स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है । 

   उद्वविकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें किसी वस्तु के भीतर छिपे हुए या अस्पष्ट पहलू या विशेषताएँ अपने आप को प्रकट करती हैं । यह एक ऐसा परिवर्तन है जिसमें परिवर्तित हुई वस्तु के आन्तरिक पहलू स्पष्टतः दृष्टिगोचर होने लगते हैं और उनको एक विशिष्ट दिशा में प्रस्फुटित होते हुए देखा जा सकता है । सामाजिक दृष्टि से उद्विकास समाज के सदस्यों ( व्यक्तियों ) के आन्तरिक गुणों का वाह्य रूप में प्रकट होना है । यह सरलता से जटिलता की ओर ले जाने वाली एक प्रमुख प्रक्रिया है । प्रमुख विद्वानों ने उद्विकास की परिभाषाएँ निम्न प्रकार से दी हैंं- 

1.हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार – ‘ उद्विकास तत्व का समन्वय तथा उससे सम्बन्धित वह गति है जिसके दौरान तत्व एक अनिश्चित असम्बद्ध समानता से निश्चित सम्बद्ध विजातीयता में बदलता है । 

2.मेकाइबर तथा पेज के अनुसार – ‘ उदविकास परिवर्तन की एक दिशा है जिसमें कि बदलते हुए पदार्थ की बहुत सी दशाएँ प्रकट होती हैं और जिससे कि उस पदार्थ की वास्तविकता का पता चलता है । 

3.जिन्सबर्ग के अनुसार लोगों का कहना है कि उदविकास एक ऐसा आन्दोलन है जो सरलता से जटिलता की ओर चलता है बहुत ही विवादपूर्ण है ।

4.हॉवहाउस के अनुसार – ‘ उदविकास से तात्पर्य किसी भी प्रकार की वृद्धि से है । उपर्यक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि उद्विकास निरन्तर होने वाला परिवर्तन है जो प्रत्येक अवस्था एवं युग में होता रहा है और आज भी हो रहा है । यह किसी वस्तु के आन्तरिक पहलुओं के प्रस्फुटन की एक प्रक्रिया है ।

उदविकास की प्रमुख विशेषताएं : 

 

उदविकास एक जटिल एवं निरन्तर होने वाली प्रक्रिया है । इसकी प्रमुख विशेषता निम्नलिखित हैं –

1.असभ्यता से सभ्यता की ओर : उदविकास की प्रक्रिया सदैव ही असभ्यता से सभ्यता का ओर जाती है । उद्विकास का अर्थ यही है कि कोई वस्त सरलता से जटिलता में परिवर्तित हा जाती है अर्थात् असभ्यता से सभ्यता की ओर चलती है ।

2.सार्वभौमिक प्रक्रिया : सामाजिक उदविकास की प्रक्रिया सभी स्थानों पर समान रूप स पाई जाती है । कोई ऐसा समय या स्थान नहीं है जहाँ पर उदविकास की प्रक्रिया न पाई जाती हो । इसीलिए यह कहा जाता है कि उद्विकास की प्रक्रिया एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है ।

3.एक निश्चित क्रम : विद्वानों का मत है जिस प्रकार मानव जीवन में बचपन से यवावस्था और उससे वृद्धावस्था आती है ठीक उसी प्रकार उदविकास की प्रक्रिया में भी एक निश्चित क्रम पाया जाता है । समाज में उदविकास निश्चित चरणों में होता रहता है ।

4.निरन्तर होने वाली प्रक्रिया : उविकास एक निरन्तर होने वाली प्रक्रिया है । किन्तु इसकी एक प्रमुख विशेषता यह है कि इस प्रक्रिया के द्वारा किसी वस्त का मार्ग सदैव ही उन्नति की ओर रहता है । उद्विकास उसी समय माना जाता है जबकि कोई वस्तु अपनी पूर्व स्थिति से निकलकर किसी अच्छी स्थिति में पहुँच जाए ।

5.भिन्नता में एकता की भावना : समाज में अनेक समितियाँ तथा संस्थाएँ होती हैं । इन सबके अलग-अलग उद्देश्य होते हैं । इसलिए समाज में विभिन्नता होती है । किन्तु इन सब समितियों व संस्थाओं का उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना है । इस व्यवस्था का निर्माण उद्विकास की प्रक्रिया द्वारा किया जाता है । इसलिए यह कहा जाता है कि उद्विकास भिन्नता में एकता उत्पन्न करने वाली एक प्रक्रिया है ।

6.आवश्यकतानुसार परिवर्तन : विद्वानों का कहना है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है । ज्यों – ज्यों व्यक्ति की आवश्यकताएँ बढ़ती हैं त्यों – त्यों नई – नई योजनाओं का जन्म होता रहता है । इन्हीं योजनाओं के विकास को उद्विकास कहा जाता है ।

7.तटस्थ परिवर्तन : उद्विकास एक तटस्थ परिवर्तन है क्योंकि सामाजिक मूल्यों से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है । साथ ही , यह किसी की इच्छा अथवा अनिच्छा पर निर्भर नहीं करता है । यह तो निरन्तर स्वतः ही तटस्थ परिवर्तन के रूप में होता रहता है । 

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सामाजिक उदविकास के सिद्धान्त की आलोचना : 

 

 

              सामाजिक उद्विकास के सम्बन्ध में विद्वानों ने जो मत प्रतिपादित किए हैं उनकी निम्न प्रकार से आलोचना की गई है ।

1.सार्वभौमिकता का अभाव : उद्विकास की प्रक्रिया सभी स्थानों पर समान नहीं होती है । उविकास की प्रक्रिया पर भौगोलिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है । सभी स्थानों की जलवायु समान नहीं होती है । अतएव उद्विकास की प्रक्रिया कभी भी सभी स्थानों पर समान नहीं होती है । इस दृष्टि से हम सामाजिक उद्विकास को समानरूपता के अभाव में सार्वभौमिक प्रक्रिया नहीं मान सकते हैं ।

2.सांस्कृतिक विकास की उपेक्षा : सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया के समर्थक विद्वान इस बात में भी भल करते हैं कि सभी स्थानों पर सांस्कृतिक उद्विकास की प्रक्रिया समान रूप से चाल रहती है । सामाजिक उद्विकास की यह विचारधारा प्रत्येक रूप में सांस्कृतिक उदविकास का विरोध करती है । सांस्कृतिक तत्व सभी स्थानों पर समान नहीं रहते हैं । संस्कृति पर भौगोलिक तत्वों का प्रभाव पड़ता है । एक स्थान के रीति – रिवाज दूसरे स्थानों के रीति – रिवाजों से भिन्न होते  है।  अतएव यह कहना भल है कि सामाजिक उद्विकास संस्कृति के क्षेत्र में सार्वभौमिक प्रक्रिया है।

3.वैज्ञानिक आविष्कारों की अनदेखी: सामाजिक उदविकास की प्रक्रिया किसी प्राकृतिक नियम से स्वचालित ही नहीं चलती है बल्कि सामाजिक उद्विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो वैज्ञानिक सूचक से अवश्य ही प्रभावित होती है।  अतएव सामाजिक उविकास पर प्रौद्योगिकी का प्रभाव अनिवार्य रूप से करेंगे जिसकी उपेक्षा सामाजिक उविकास के विद्वान् करते हैं।

4.व्यक्ति के महत्त्व की अनदेखी: सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया में सामाजिक जीवन को ही उद्विकास का महान कारक माना गया है।  किंतु इस सिद्धान्त के समर्थक विद्वान् इस बात को भूल जाते हैं कि व्यक्ति समाज का एक प्रमुख अंग है और समाज को व्यक्ति अपनी बुद्धि और क्षमता के बल पर किसी भी दिशा में ले जा सकता है।  यदि परिस्थितियों पर नियन्त्रण रखते हुए अपने सामाजिक परिवेश को अपने अनुकूल समझा जा सकता है।  सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया में मनुष्यों के इस महत्त्व की उपेक्षा की गई है।

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उद्विकास और प्रगति में अंतर:

 

               उदविकास स्वचालित होने वाली प्रक्रिया है जिसके द्वारा सरल वस्तृति की ओर जाती है और धीर – धीरे उसका वाह्य रूप ही संशोधित हो जाता है।  उदविकास के विपरीत, प्रगति निश्चित और निर्धारित दिशा में होने वाला परिवर्तन है।  लूमले के शब्दों में ‘प्रगति परिवर्तन है लेकिन यह परिवर्तन किसी भी वांछित दिशा में होने वाला परिवर्तन है।  किसी भी दिशा में होने वाला परिवर्तन नहीं।  ‘उद्विकास और प्रगति को सामाजिक परिवर्तन के दो प्रमुख स्वरूप माना जाता है जिसमें निम्नतरहित प्रमुख अंतर पाए जाते हैं-

1.उद्भव विकास एक जैविक अवधारणा है प्रगति एक नैतिक अवधारणा है जिसका अर्थ संबंधित प्राकृतिक नियमों से है।  सीधा सम्बन्ध सामाजिक मान्यताओं से है।

2.उविकास में नैतिकता का कोई भी मूल्य प्रगति को नैतिकता द्वारा ही निश्चित नहीं है।  हो जाता है

3.उद्विकास की प्रक्रिया सभी स्थानों पर समान प्रगति एक पूर्णतया तुलनात्मक होती है।  अतएव यह एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है।  क्योंकि इस पर भौगोलिक प्रक्रिया है।परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है।समान है।  

4.उद्विकास की प्रक्रिया में सभी देशों में प्रगति एक देश से दूसरे देश में भिन्न हो सकती है। 

उद्विकास किसी भी दिशा में होने वाला प्रगति में परिवर्तन निश्चित दिशा में होता है नहीं।  कोई भी परिवर्तन है जिसमें कोई निश्चितता है और उसका लक्ष्य सदैव जनकल्याण है।  | 

5.उद्विकास का क्षेत्र निश्चित नहीं है।  निश्चित दिशा के कारण प्रगति का क्षेत्र अतएव यह विस्तृत है।  संकुचित होता है। 

6.उद्विकास एक निरन्तर होने वाली प्रगति एक निश्चित प्रक्रिया है जो स्वचालित प्रक्रिया है जिस पर मनुष्यों के व्यक्तियों के प्रयासों का परिणाम है।  यदि इच्छा या अनिच्छा का कोई प्रभाव नहीं व्यक्तियों द्वारा प्रयास न किया जाए तो   प्रगति नहीं होगी

 7.उदविकास प्रगति प्राणियों से है । उविकास की प्रक्रिया का सम्बन्ध जीवित प्रगति का संबंध खनिज – पदाथ , उत के साधन , कच्चे माल आदि से भी है । अवकास का प्राक्रया इतनी जटिल तथा प्रगति की प्रक्रिया सरल और तीव्र होती है । दाच हाता है कि कोई भी व्यक्ति उसको इसका संबंध भौतिक पदार्थों से है और जान नहीं सकता ।

8.अतएव उदविकास का नैतिकता से भी इसका घनिष्ठ संबंध है । कोई भी निश्चित मापदंड नहीं है । अतएव प्रगति का मापदंड भा सम्भवह

9.. उद्विकास का सम्बन्ध केवल एक व्यक्ति प्रगति सदैव सामूहिक होती है अर्थात् यह या प्राणी से ही होता है । | सामूहिक प्रयास का परिणाम है ।

10.. उद्विकास का सम्बन्ध आन्तरिक तत्वों के प्रगति का संबंध बाहरी तत्वों से है । बाह्य विकास से है । तत्वों से प्रगति की दशा प्रभावित होती है ।

11.. उविकास की प्रक्रिया में सरलता से प्रगति की प्रक्रिया में सरलता से जटिलता जटिलता की ओर बढ़ना होता है । की ओर जाना अनिवार्य व आवश्यक नहीं है । 

     वास्तव में , उद्विकास तथा प्रगति दोनों जटिल प्रक्रियाएँ हैं और दोनों का उद्देश्य ही किसी – न – किसी प्रकार का परिवर्तन करना है । परन्तु उद्देश्य एक होते हुए भी दोनों की प्रकृति एवं परिणामों में पर्याप्त अन्तर है । इसी सन्दर्भ में मेकाइवर तथा पेज ने उचित ही कहा है कि , ‘ उद्विकास एक वैज्ञानिक सम्बोधन है और प्रगति एक नैतिक सम्बोधन है । ‘ सामाजिक प्रगति का अर्थ एवं परिभाषाएँ : संस्कृत में प्रगति शब्द का प्रयोग उपयुक्त उद्देश्य अथवा लक्ष्य की प्राप्ति की ओर बढ़ने के लिए किया जाता है । इसका अर्थ हुआ कि जितने प्रकार के लक्ष्य होंगे उतने ही प्रकार की प्रगति होगी । प्रगति अंग्रेजी शब्द Progress का हिन्दी रूपान्तर है जोकि लैटिन भाषा के शब्द ‘ प्रो – ग्रेडियर ‘ ( Pro – gredior ) से बना है । प्रो – ग्रेडियर शब्द का अर्थ भी आगे की ओर बढ़ना है । सामाजिक प्रगति उसी समय होती है जबकि समाज अपने निर्धारित लक्ष्यों तथा आदर्शों की या लोक कल्याण की दृष्टि से होनी चाहिए । सामाजिक प्रगति की इस धारणा को लेकर विद्वानों ने सामाजिक प्रगति पर अपने विचार निम्न प्रकार से व्यक्त किए हैं l

1.मेकाइवर तथा पेज के अनुसार : ‘ प्रगति में सामाजिक परिवर्तन की ही दिशा का बोध नहीं होता वरन् किसी अंतिम उद्देश्य की ओर ले जाने का भी बोध होता है ।

2.ऑगवर्न तथा निमकॉक के अनुसार : ‘ प्रगति का अर्थ श्रेष्ठतर परिवर्तन से है और इसलिए इसमें मूल्य निर्णय का समावेश होता है ।

3.हॉबहाउस के अनुसार : ‘ सामाजिक प्रगति से तात्पर्य सामाजिक जीवन में उन गुणों की वृद्धि से है जिन्हें मनुष्य मूल्यों अथवा विचारयुक्त मूल्य से जोड़ सके ।

  1. लूमले के अनुसार : ‘ प्रगति परिवर्तन है लेकिन यह परिवर्तन किसी एक इच्छित दिशा में होने वाला परिवर्तन है , किसी भी दिशा में होने वाला परिवर्तन नहीं । ‘ उपर्यक्त परिभाषाओं के सार रूप में यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि प्रगति का अर्थ समाज द्वारा मान्यता प्राप्त एवं निधारित लक्ष्यों की ओर होने वाले ऐसे परिवर्तनों से है जो मानव कल्याण में वृद्धि कर सकें ।

सामाजिक प्रगति की प्रमुख विशेषताएँ : 

सामाजिक प्रगति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1.आगे बढ़ने की दिशा : सामाजिक परिवर्तन में सदैव आगे बढ़ने की भावना का होना आनवार्य है । सामाजिक प्रगति उन्नत की और एक निश्चित दिशा में बढ़ने की प्रक्रिया है । इसके अंतर्गत निश्चित तथा निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति करने के लिए निश्चित दिशा में आगे की ओर उन्नति के पथ पर अग्रसर होना होता है ।

2.अर्थ में अस्थिरता तथा असमानता : प्रगति एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें परिवर्तनशीलता पाई जाती है । आज हम एक विचारधारा को प्रगतिशील मानते हैं किन्तु थोड़े दिनों बाद उसको समाज विरोधी भावना के रूप में मानने लगते हैं ।

3.सार्वभौमिकता का अभाव : सामाजिक प्रगति की प्रक्रिया यद्यपि एक निरन्तर होने वाली प्रक्रिया है किन्तु फिर भी प्रगति एक ही समय में प्रत्येक स्थान या समाज में समान रूप से नहीं होती है अर्थात् इसमें सार्वभौमिकता का अभाव पाया जाता है l

4.इच्छित दिशा में विकास : समाजशास्त्रियों ने उविकास तथा प्रगति दोनों को ही एक प्रकार से सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप माना है । दोनों में अंतर केवल इतना ही है कि उद्विकास में जो सामाजिक परिवर्तन होता है वह केवल किसी भी दिशा में हो सकता है किन्तु प्रगति से होने वाले परिवर्तन सदैव ही एक निश्चित दिशा , सामान्यतः समाज द्वारा निर्धारित दिशा में होते है ।

5.समाज कल्याण पर आधारित : प्रगति निश्चित व निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति का नाम है । किन्तु साथ – ही – साथ यह भी आवश्यक है कि वे निश्चित व निर्धारित लक्ष्य सदैव समाज कल्याण की भावना से प्रेरित हों और उनके आधार पर की जाने वाली प्रगति में सामाजिक हित निहित हों अथवा उसमें अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम हित हो ।

6.समाज द्वारा स्वीकृत : प्रगति की क्रिया वास्तविक रूप से उसी समय सफल मानी जाती है जबकि प्रगति द्वारा होने वाले सामाजिक परिवर्तन समाज द्वारा भी स्वीकृत हों । दूसरे शब्दों में , प्रगति व सामाजिक परिवर्तन वह परिवर्तन है जिसकी समाज द्वारा स्वीकृति होती है ।

7.समूह द्वारा निश्चित उद्देश्य : प्रगति निश्चित उद्देश्यों तथा आदर्शों को प्राप्त करने की ओर निश्चित दिशा में आगे बढ़ने का नाम है । किन्तु साथ – साथ प्रगति की एक मुख्य विशेषता यह भी है कि प्रगति में जिन उद्देश्यों की प्राप्ति करना लक्ष्य होता है , उन उद्देश्यों को समूह द्वारा ही निश्चित किया जाता है । 

8.चेतना प्रयास का परिणाम : प्रगति उविकास की भाँति स्वचालित प्रक्रिया नहीं है । इस प्रक्रिया को क्रियाशील बनाने के लिए मनुष्यों को परिश्रम करना पड़ता है । विभिन्न प्रकार के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु विभिन्न प्रकार की योजनाएँ बनानी पड़ती हैं । उन योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए उपकरणों तथा यन्त्रों का आविष्कार किया जाता है । अतः प्रगति व्यक्तियों के । सतत व चेतन परिश्रम का प्रतिफल होती है ।

9.सदस्यों की कार्यक्षमता : प्रगति की एक प्रमुख विशेषता यह है कि प्रगति करने वाले समूह या समुदाय में रहने वाले सदस्यों में कार्यक्षमता होती है । इन लोगों की कार्यशीलता के कारण ही प्रगति सम्भव होती है । यदि व्यक्तियों में कार्यशीलता न हो तो प्रगति की सम्भावना शून्य ही रहेगी ।

10.मापदंडों की व्यवस्था : प्रगति का अर्थ समूह द्वारा निर्धारित एवं निश्चित उद्देश्यों का । प्राप्ति है । इन उद्देश्यों की प्राप्ति किस सीमा तक हुई है , इसका मापदंड भी किया जा सकता । है । जब समाज के सदस्यों का अधिकतम कल्याण होता है तो प्रगति की दिशा उन्नति की और  होती है । उपयोगिता के आधार पर प्रगति का मापदं निर्धारित किया जाता है । अतः प्रगति को मापा जा सकता है ।

11.सामाजिक मूल्यों पर आधारित : प्रगति किस प्रकार तथा किस दिशा में होगी , इसका निर्णय सामाजिक मूल्यों द्वारा किया जाता है । सामाजिक मूल्य समाज में प्रचलित रातितरवाजा पर आधारित होते हैं । यदि प्रगति रीति – रिवाजों तथा सामाजिक मूल्यों के अनुसार हा , ता समूह के व्यक्ति उसका स्वागत करते हैं और यदि प्रगति की दिशा सामाजिक रीति – रिवाजों से तथा मूल्यों के विपरीत हो तो प्रगति को समूह द्वारा स्वीकृति नहीं मिलती है ।

12.सामाजिक गुणों में वृद्धि का साधन : प्रगति एक ऐसी दशा का नाम है जिसमें व्यक्ति के गुणों की वृद्धि होती है । यदि व्यक्ति के गुणों में वृद्धि की सम्भावना न हो तो सामाजिक प्रगति की कल्पना नहीं की जा सकती है । व्यक्ति में दानवीय तथा दैविक दो प्रकार के गुण प्रधान रूप से पाए जाते हैं । स्वार्थ , ईर्ष्या , द्वेष आदि दानवीय गुण हैं । परोपकार , त्याग , सहनशीलता , सहिष्णुता आदि दैविक गुण हैं । प्रगति की क्रिया में दैविक गुणों में वृद्धि होती है तथा दानवीय गुणों का निरसन किया जाता है । उपर्युक्त वर्णन से विदित है कि प्रगति समाज या समूह द्वारा निश्चित व निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए निश्चित दिशा में आगे बढ़ने का नाम है । इसमें सदैव ही समाज कल्याण की भावना निहित होती है । 

सामाजिक प्रगति का महत्त्व : 

 

सामाजिक प्रगति के महत्त्व को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है :

1.प्रगति से समाज में बौद्धिक तथा नैतिक गुणों का विकास होता है ।

2.समाज की प्रगति के कारण समाज में प्रौद्योगिक विकास होता है ।

3.प्रगतिशील समाज में ही अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की स्थापना की जाती है ।

4.प्रगति मानव समाज का प्राण है । 

          मेकाइवर तथा पेज का कहना उचित ही है कि , ‘ जीने का अर्थ कार्य करना है । कार्य करना वरण है और वरण का अर्थ मूल्यांकन करना है । अतएव मानव प्राणी होने के कारण हम प्रगति की धारणा से अलग नहीं हो सकते हैं , यद्यपि हमें अधिकार है कि हम प्रगति की धारणा को स्वीकार न करें ।

सामाजिक प्रगति के मापदंड : 

 

        सामाजिक प्रगति के मापदंड का आशय इस बात का निर्धारण करने से है कि समाज ने विभिन्न क्षेत्रों में किस सीमा तक उन्नति या प्रगति की है ? प्रगति का मूल्यांकन इसके कुछ मापदंडों अथवा कसौटियों द्वारा ही किया जाता है । परन्तु इसके मापदंड कौन – से हैं , इनके बारे में निश्चित रूप से कुछ बता पाना कठिन है । ई० एस० बोगार्डस के अनुसार एक समाज तब प्रगतिशील माना जा सकता है जबकि उसमें निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हों : 

1.यदि समाज के सदस्यों के रहन – सहन का स्तर ऊँचा हो । 2.यदि समाज के व्यक्तियों में एक – दूसरे को सहयोग देने की भावना हो ।

3.यदि समाज के व्यक्ति शारीरिक तथा मानसिक दृष्टि से स्वस्थ हों ।

4.यदि समाज में एक ऐसी शिक्षा का प्रसार हो जो व्यक्तियों का कल्याण करने में सहायक हो ।

5.समाज प्रगतिशील होगा यदि सरकार और जनता के सहयोग से समाज में व्यक्तियों की उन्नति के अनुकूल उचित वातावरण हो ।  

6.पारिवारिक संगठन तथा मनोरंजन के लिए उचित साधनों की वृद्धि भी सामाजिक प्रगति के द्योतक हैं ।

7.यदि व्यक्तियों के विकास के लिए समान अवसर राज्य द्वारा प्रदान किए जाएँ और प्राकृतिक साधनों का सार्वजनिक कल्याण के लिए प्रयोग हो तो समाज प्रगतिशील होगा ।

8.यदि समाज में ललित कलाओं का प्रसार , मनुष्य में दैविक गुणों का विकास तथा समाज के सदस्यों के आध्यात्मिक जीवन का विकास हो ।

9.यदि व्यक्ति के आवास स्तर में वृद्धि हो ।

10.यदि मानव के धार्मिक और आध्यात्मिक पक्षों का विशेष विकास हो ।

11.यदि व्यावसायिक , सामान्य तथा कल्याणकारी शिक्षा का विकास हो ।

12.यदि सहकारी जीवन में वृद्धि हो । 

सामाजिक प्रगति की सहायक परिस्थितियाँ : 

             सामाज में प्रगति के लिए आवश्यक दशाओं का होना अनिवार्य है अगर इन सहायक परिस्थितियों की कमी होगी तो समाज में प्रगति या तो अत्यंत धीमी होगी या रुक जाएगा । अनेक समाजशास्त्रियों , जैसे : ऑगवर्न , हॉवहाउस , गन्नार मिर्डल तथा नर्मदेश्वर प्रसाद आदि ने ऐसी अनेक सहायक परिस्थितियों का उल्लेख किया है जो सामाजिक विकास तथा प्रगति के लिए आवश्यक है । अर्थात् इन दशाओं को जाने बगैर प्रगति को पूर्णता में नहीं समझा जा सकता है । प्रगति को इन्हीं दशाओं को निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है : 

1.औद्योगीकरण : प्रगति की एक आवश्यक दशा औद्योगिक विकास होना है । सच तो यह है कि औद्योगीकरण के विना विकास तथा प्रगति की प्रक्रिया प्रभावपूर्ण बन ही नहीं सकती । औद्योगीकरण से समाज में भौतिक साधनों की वृद्धि होती है , सामाजिक गतिशीलता बढ़ती है तट गा सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन सम्भव हो पाते हैं । आज सभी विकासशील देश योजनबद्ध रूप से औद्योगीकरण को बढ़ाने का प्रयत्ल कर रहे हैं , जिससे वे ‘ प्रगति ‘ की दर को बढ़ा सकें ।

2.नवीन आविष्कार : विश्व में नए – नए आविष्कार होते रहना भी सामाजिक प्रगति के लिए आवश्यक शर्त है । प्रत्येक आविष्कार हमें प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाता है और भविष्य की अनेक सम्भावनाएँ इसलिए बढ़ जाती हैं कि नवीन आविष्कार के फलस्वरूप हमारी अज्ञानता दिन – प्रतिदिन घटती जाती है तथा मनुष्य अपने जीवन को आरामदेह तथा क्षमतावान वना सकता है ।

3.नियोजन : प्रगति के लिए नियोजन का होना अत्यन्त आवश्यक है । नियोजन चाहे आधि कि क्षेत्र से सम्बन्धित हो अथवा सामाजिक क्षेत्र से , इसके द्वारा उपलब्ध साधनों का अधिकतम उपयोग सम्भव हो पाता है । बाद में यही दशा व्यक्तियों को भौतिक क्षेत्र में आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करती है ।

4.शिक्षा : शिक्षा का उच्च स्तर सामाजिक प्रगति के लिए बहुत आवश्यक दशा है । शिक्षा के द्वारा व्यक्ति और समाज को ऐसी बाह्य तथा आन्तरिक शक्ति मिलती है जो उसकी प्रगति को गति प्रदान करती है । समाज की प्रगति उन व्यक्तियों के विकास पर आधारित है जिनसे समाज का निर्माण होता है । शिक्षा वह साधन है जिससे केवल सामाजिक परिस्थितियों तथा वातावरण पर विजय प्राप्त हो जाती है बल्कि अपना भविष्य तथा कैरियर सुरक्षित किया जा सकता है । यह नवीन वातावरण सामाजिक प्रगति के द्वार खोल सकता है । शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को केवल वर्तमान विद्या का ही ज्ञान नहीं होता बल्कि उसमें ऐसी प्रवृत्तियाँ भी उत्पन्न होती हैं जो उसे नवीन अन्वेषणों द्वारा उन्नत कर सामाजिक जीवन को समृद्ध करने की प्रेरणा देती है ।

5.गतिशील नेतृत्व : वर्तमान समाजों में एक योग्य तथा गतिशील नेतृत्व का होना प्रगति के लिए अत्यधिक आवश्यक है । योग्य नेतत्व व्यक्तियों को कार्य करने के नये ढंगों को स्वीकार करने की प्ररेणा देता है तथा उन्हें इस तरह प्रशिक्षित करता है जिससे वे अपने लक्ष्यों को प्राप्त करन म सफल हो सके । यही कारण है कि सत्तावादी नेतत्व की तलना में जनतान्त्रिक नेतृत्व वाले देशों में प्रगति की सम्भावना कहीं अधिक हो जाती है ।

6.प्रायोगिकीय उन्नति : समाज में प्रौद्योगिकीय प्रगति भी सामाजिक प्रगति के लिए सहायक है । कार्ल मार्क्स के अनुसार Technology is the wheel of society | माक्स का मानना कि जैसे – जैसे समाज में तकनीकी का विकास होता है वैसे – वैसे समाज में प्रगति आती है । मशीनो व कम्प्यूटर का प्रयोग होने से कम आदमियों के द्वारा अधिक उत्पादन करना सम्भव हा जाता है । इसके अतिरिक्त संचार तथा परिवहन के साधनों से व्यापार और वाणिज्य पनपता है । इतना ही नहीं टेलीफोन , समाचार – पत्र , टी . वी . आदि की सहायता से हमारा ज्ञान भंडार दिन प्रतिदिन बढ़ता है । इससे सामाजिक प्रगति में अत्यधिक वृद्धि होती है ।

7.गतिशीलता : गतिशीलता तथा प्रगति में प्रत्यक्ष संबंध है । किसी समाज में जैसे : स्थ गानीय तथा सामाजिक गतिशीलता बढ़ती है , प्रगति की दर में भी वृद्धि होती जाती है । स्थानीय गतिशीलता ( Spatial Mobility ) बढ़ने से विभिन्न समूहों को एक दूसरे के सम्पर्क में आने का अवसर मिलता है , जबकि सामाजिक गतिशीलता ( Social Mobility ) बढ़ने से व्यक्तिया के दृष्टिकोण और मनोवृत्तियों में समय के अनुसार उपयोगी परिवर्तन होने लगते हैं । प्रगति में गतिशीलता के योगदान को इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि जो समाज पूर्णतया बंद है अथवा जिनमें व्यक्ति की प्रस्थिति में किसी तरह के परिवर्तन की अनुमति नहीं दी जाती वहाँ विकास की सम्भावना भी बहुत कम रह जाती है ।

8.अनुकूल भौगोलिक पर्यावरण : भौगोलिक पर्यावरण का सुविधाजनक होना तथा कच्चा माल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना सामाजिक प्रगति के लिए अत्यधिक सहायक सिद्ध होता है । जिस देश में अत्यधिक गर्मी या अत्यधिक सर्दी पड़ती है वह देश अधिक प्रगति नहीं कर पाता । उसी प्रकार पठारी , पहाड़ी और जंगली प्रदेशों में बसे हुए समाज भी अधिक प्रगति नहीं कर सकते क्योंकि वहाँ की भौगोलिक परिस्थितियाँ अधिक सहायक नहीं होती । उसी प्रकार कच्चा माल एवं खनिज पदार्थ प्राप्त होने से भी समाज को प्रगति करने में सहायता मिलती है ।

9.अन्य संस्कृतियों से सम्पर्क : कोई भी समाज प्रगति की दिशा में तब तक आगे नहीं बढ़ सकता जब तक उसका अन्य सांस्कृतिक समूहों से संबंध न बढ़े । आत्मकेन्द्रित समाज कठिनता से ही अपनी प्रगति कर सकते हैं । दूसरे सांस्कृतिक समूहों से सम्पर्क बढ़ने पर व्यक्ति न केवल उनके आविष्कारों से लाभ उठाता है बल्कि अपनी आवश्यकताओं के अनुसार उनमें परिवर्तन और संशोधन करना भी सीखता है । इस दशा में व्यक्ति बहुत कम प्रयत्नों के द्वारा नये – नये साधनों को ग्रहण करने में सफल हो जाता है । वर्तमान समाजों में प्रगति की दर इसलिए अधिक हो सकी है कि सभी देश एक – दूसरे के सम्पर्क में आकर उनके ज्ञान और आविष्कारों का लाभ उठा रहे हैं ।

10.स्वतंत्रता एवं समानता : समाज के सदस्यों में प्रगति के लिए कठोर परिश्रम करने की इच्छा या सदभावना तभी विकसित हो सकती है जबकि देश स्वतंत्र हो तथा लोगों को आत्मविकास की समान सुविधा प्राप्त हों । साथ ही जनता में आशा एवं विश्वास की भावना हो । इसका नवीनतम उदाहरण जापान और चीन है , जिन्होंने काफी प्रगति की है ।

11.आदर्श जनसंख्या एवं स्वास्थ्य : आदर्श जनसंख्या एवं स्वास्थ्य भी सामाजिक प्रगति की महत्त्वपूर्ण सहायक दशाएँ हैं। अति जनसंख्या होने से देश में निर्धनता, भुखमरी,बीमारी,

अकाल , महामारी आदि विपदाएं आती रहती हैं और इन परिस्थितियों में देश प्रगति नहीं का सकता उसी प्रकार , यदि जन – स्वास्थ्य गिरा हुआ है तो लोग सामाजिक प्रगति के लिए आवश्यक पारश्रम नहीं कर सकेंगे । अतः सामाजिक प्रगति के लिए आदर्श तथा अनुकूलतम जनसंख्या और उन्नत स्वास्थ्य परमावश्यक है ।

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