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उत्तराखंड में ग्लेशियरों का टूटता जाल: बाढ़ का बढ़ता खतरा और भू-वैज्ञानिकों की चेतावनी

उत्तराखंड में ग्लेशियरों का टूटता जाल: बाढ़ का बढ़ता खतरा और भू-वैज्ञानिकों की चेतावनी

चर्चा में क्यों? (Why in News?):

हाल के दिनों में, हिमालय क्षेत्र, विशेष रूप से उत्तराखंड में, ग्लेशियरों के टूटने और पिघलने की घटनाओं में वृद्धि देखी गई है। भू-वैज्ञानिकों द्वारा जारी की गई चेतावनियों के अनुसार, यह प्रवृत्ति न केवल स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र के लिए बल्कि निचले क्षेत्रों में रहने वाली लाखों आबादी के लिए भी गंभीर बाढ़ और विनाशकारी भूस्खलन के खतरे को बढ़ा रही है। यह मुद्दा न केवल एक क्षेत्रीय चिंता का विषय है, बल्कि जलवायु परिवर्तन के व्यापक प्रभावों और भारत जैसे देश के लिए इसके दूरगामी परिणामों को भी रेखांकित करता है।

यह लेख उत्तराखंड में ग्लेशियरों के टूटने के कारणों, इसके संभावित प्रभावों, भू-वैज्ञानिकों की चेतावनियों के महत्व और इस गंभीर चुनौती का सामना करने के लिए आवश्यक उपायों पर विस्तार से प्रकाश डालेगा। यह UPSC उम्मीदवारों को इस विषय की गहन समझ प्रदान करेगा, जो परीक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

ग्लेशियरों का टूटना: एक विकट वास्तविकता (Glacier Detachment: A Stark Reality)

ग्लेशियर, जिन्हें अक्सर ‘पर्वतों के महासागर’ कहा जाता है, अरबों वर्षों से पृथ्वी के जल चक्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। ये जमा हुई बर्फ की विशाल चादरें धीरे-धीरे खिसकती हैं और पिघलकर नदियों को जीवनदान देती हैं। हालांकि, वर्तमान समय में, मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के कारण इन शांत दिग्गजों पर अत्यधिक दबाव पड़ रहा है। उत्तराखंड जैसे हिमालयी राज्यों में, जहाँ ग्लेशियरों का घनत्व अधिक है, यह दबाव और भी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है।

ग्लेशियरों के टूटने का तात्पर्य ग्लेशियर के मुख्य भाग से बर्फ या चट्टानों के बड़े टुकड़ों का अलग होना है। यह घटना विभिन्न कारणों से हो सकती है, जिनमें शामिल हैं:

  • जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि: वैश्विक तापमान में वृद्धि ग्लेशियरों को तेजी से पिघला रही है। जब ग्लेशियर का ऊपरी हिस्सा अस्थिर हो जाता है या उसका आधार कमजोर पड़ जाता है, तो उसके टूटने की संभावना बढ़ जाती है।
  • भूगर्भीय अस्थिरता: हिमालयी क्षेत्र भूकंपीय रूप से सक्रिय है। भूकम्पीय झटके या भूमि की प्राकृतिक अस्थिरता भी ग्लेशियरों के टूटने का कारण बन सकती है।
  • अत्यधिक वर्षा और हिमस्खलन: भारी मात्रा में बर्फबारी या अचानक हुई मूसलाधार बारिश ग्लेशियर पर अतिरिक्त दबाव डाल सकती है, जिससे उसके टूटने का खतरा बढ़ जाता है।
  • ग्लेशियरों में दरारें (Crevasses) और गुफाएँ (Caves): पिघलने के कारण ग्लेशियरों में गहरी दरारें और गुफाएँ बन जाती हैं। ये संरचनाएं ग्लेशियर को कमजोर कर सकती हैं और उसके टूटने में सहायक हो सकती हैं।
  • मानवीय गतिविधियाँ: यद्यपि यह कम प्रत्यक्ष कारण है, अनियोजित निर्माण, अत्यधिक पर्यटन और वनों की कटाई जैसे मानवीय हस्तक्षेप स्थानीय भू-आकृति को बदल सकते हैं, जो अप्रत्यक्ष रूप से ग्लेशियरों को प्रभावित कर सकता है।

एक उपमा: सोचिए एक आइसक्रीम कोन को। अगर वह बहुत देर तक धूप में रखा रहे, तो उसकी बाहरी परत पिघलने लगती है और वह कमजोर हो जाती है। यदि इस पर कोई भारी चीज रखी जाए, तो वह आसानी से टूट सकता है। ग्लेशियर के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। तापमान वृद्धि उसके ‘आधार’ को कमजोर कर रही है, और अन्य कारक उसे ‘टूटने’ के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

बाढ़ का बढ़ता खतरा: निचले क्षेत्रों पर संकट (Rising Flood Threat: Crisis for Downstream Areas)

ग्लेशियरों के टूटने से सीधे तौर पर निचले क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। यह खतरा कई रूपों में सामने आ सकता है:

  1. ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF – Glacial Lake Outburst Flood): जब ग्लेशियर के पिघलने से बनी झील (ग्लेशियर लेक) का प्राकृतिक बांध (जैसे हिमोढ़ – moraine) टूट जाता है, तो झील का सारा पानी अचानक और बहुत तेज़ी से बाहर निकलता है। यह विनाशकारी बाढ़ का रूप ले लेता है, जो अपने रास्ते में आने वाली हर चीज़ को बहा ले जाती है। 2013 की केदारनाथ बाढ़ इसी का एक उदाहरण थी, जहाँ एक ग्लेशियर लेक के टूटने से भारी तबाही हुई थी।
  2. हिमस्खलन और मलबा प्रवाह (Avalanches and Debris Flows): टूटे हुए ग्लेशियर के बड़े-बड़े बर्फ के टुकड़े और उनसे जुड़े चट्टानी मलबे जब पहाड़ी से नीचे लुढ़कते हैं, तो वे भूस्खलन और हिमस्खलन का रूप ले लेते हैं। यदि यह मलबा किसी नदी में गिरता है, तो यह नदी के प्रवाह को अवरुद्ध कर सकता है, जिससे पानी का स्तर बढ़ जाता है और बाढ़ आ जाती है।
  3. नदी के प्रवाह में अचानक वृद्धि: ग्लेशियरों का टूटना कभी-कभी नदियों में अचानक पानी की भारी मात्रा छोड़ सकता है, जिससे निचले इलाकों में अप्रत्याशित बाढ़ आ सकती है।

उदाहरण: वर्ष 2021 में चमोली, उत्तराखंड में आई बाढ़, जो रिशगंगा नदी पर एक ग्लेशियर के टूटने से उत्पन्न हुई थी, ने दिखाया कि कैसे एक अकेली घटना भी भारी तबाही मचा सकती है। इस घटना में बांधों को नुकसान पहुंचा, सड़कों और पुलों को तोड़ा, और कई लोगों की जान चली गई।

क्यों महत्वपूर्ण है यह? यह सीधे तौर पर मानव जीवन, संपत्ति, बुनियादी ढांचे और कृषि पर प्रभाव डालता है। पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए, यह एक ‘अप्रत्याशित दुश्मन’ की तरह है जो पलक झपकते ही सब कुछ तबाह कर सकता है।

भू-वैज्ञानिकों की चेतावनी: भविष्य का संकेत (Geologists’ Warning: A Sign of the Future)

भू-वैज्ञानिक वे विशेषज्ञ होते हैं जो पृथ्वी की संरचना, उसके इतिहास और उसमें होने वाली प्रक्रियाओं का अध्ययन करते हैं। उत्तराखंड जैसे संवेदनशील पर्वतीय क्षेत्रों में, भू-वैज्ञानिकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। वे:

  • निगरानी और अध्ययन: ग्लेशियरों की स्थिति, उनकी मोटाई, दरारें, पिघलने की दर और उनसे बनी झीलों की निगरानी करते हैं। वे आधुनिक तकनीकों जैसे सैटेलाइट इमेजरी, जीपीएस और ड्रोन का उपयोग करते हैं।
  • खतरे का आकलन: वे इन अवलोकनों के आधार पर संभावित खतरों, जैसे GLOFs, भूस्खलन और बाढ़ के जोखिम का आकलन करते हैं।
  • चेतावनी जारी करना: जब उन्हें किसी क्षेत्र में गंभीर खतरा दिखाई देता है, तो वे सरकारी एजेंसियों और स्थानीय समुदायों को समय पर चेतावनी जारी करते हैं।

भू-वैज्ञानिकों की चेतावनी का महत्व:

  • पूर्व-चेतावनी प्रणाली (Early Warning Systems): भू-वैज्ञानिकों की चेतावनियाँ प्रभावी पूर्व-चेतावनी प्रणालियों की नींव रखती हैं। ये प्रणालियाँ समय पर लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाने और नुकसान को कम करने में मदद करती हैं।
  • नियोजित विकास (Planned Development): उनकी चेतावनियाँ विकास परियोजनाओं, जैसे बांधों, सड़कों और बस्तियों के निर्माण के लिए महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती हैं। इससे संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण से बचा जा सकता है या ऐसे निर्माण किए जा सकते हैं जो इन खतरों का सामना कर सकें।
  • जनजागरूकता: उनकी चेतावनियाँ आम जनता और नीति निर्माताओं को इन खतरों की गंभीरता से अवगत कराती हैं, जिससे अधिक प्रभावी नीतियों और शमन उपायों को अपनाने की प्रेरणा मिलती है।

एक केस स्टडी: वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद, भारत सरकार ने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) के तहत हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों और GLOFs पर अध्ययन करने के लिए कई समितियों का गठन किया। इन समितियों में भू-वैज्ञानिकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा, जिन्होंने भविष्य में ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए दिशानिर्देश और मॉडल विकसित किए।

जलवायु परिवर्तन और हिमालय: एक जटिल संबंध (Climate Change and the Himalayas: A Complex Relationship)

हिमालयी क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील है। यहाँ तापमान वृद्धि वैश्विक औसत से अधिक दर से हो रही है। इसके कई कारण हैं:

  • एल्बेडो प्रभाव (Albedo Effect): बर्फ और बर्फ की सतहें सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करती हैं (उच्च एल्बेडो)। जैसे-जैसे ग्लेशियर पिघलते हैं, नीचे की गहरी रंग की चट्टानें या मिट्टी उजागर होती है, जो अधिक सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करती है। इससे तापमान और भी बढ़ जाता है, जिससे पिघलने की प्रक्रिया और तेज हो जाती है।
  • ऊंचाई और अक्षांश: ध्रुवीय क्षेत्रों के समान, उच्च ऊंचाई और अक्षांश पर स्थित क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।
  • ग्रीनहाउस गैसें: वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन सीधे तौर पर वैश्विक तापमान को बढ़ाता है, जिसका सीधा असर हिमालय पर पड़ता है।

परिणाम:

  • ग्लेशियरों का सिकुड़ना: हिमालयी ग्लेशियर तेजी से सिकुड़ रहे हैं। यह न केवल बाढ़ का खतरा बढ़ाता है, बल्कि भविष्य में नदियों के जल स्तर को भी प्रभावित करेगा, जिससे कृषि और पेयजल आपूर्ति पर संकट आ सकता है।
  • परिवर्तित मौसम पैटर्न: अनिश्चित और अत्यधिक मौसमी घटनाएं, जैसे भारी वर्षा और सूखा, बढ़ रही हैं।
  • जैव विविधता पर प्रभाव: ग्लेशियरों पर निर्भर पारिस्थितिकी तंत्र और प्रजातियाँ खतरे में हैं।

चुनौतियाँ और अवसर (Challenges and Opportunities)

उत्तराखंड और हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों के टूटने और बाढ़ के खतरे से निपटना एक बहुआयामी चुनौती है:

चुनौतियाँ:

  • भौगोलिक दुर्गमता: कई ग्लेशियर और ग्लेशियर झीलें दुर्गम पहाड़ी इलाकों में स्थित हैं, जहाँ निगरानी और बचाव कार्य अत्यंत कठिन होता है।
  • डेटा की कमी: कुछ क्षेत्रों में विस्तृत और अद्यतन डेटा की कमी सटीक भविष्यवाणी और योजना बनाने में बाधा उत्पन्न करती है।
  • संसाधनों की कमी: पूर्व-चेतावनी प्रणालियों की स्थापना, बुनियादी ढांचे के उन्नयन और शमन उपायों के लिए भारी निवेश की आवश्यकता होती है।
  • सामुदायिक सहभागिता: स्थानीय समुदायों को शिक्षित करना और उन्हें सक्रिय रूप से शमन प्रयासों में शामिल करना एक सतत चुनौती है।
  • अंतर-एजेंसी समन्वय: विभिन्न सरकारी विभागों, अनुसंधान संस्थानों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के बीच प्रभावी समन्वय की आवश्यकता है।
  • राजनीतिक इच्छाशक्ति: दीर्घकालिक समाधानों के लिए निरंतर राजनीतिक इच्छाशक्ति और नीतियों के कार्यान्वयन की आवश्यकता होती है।

अवसर:

  • प्रौद्योगिकी का उपयोग: सैटेलाइट इमेजरी, AI, मशीन लर्निंग और IoT जैसी उन्नत तकनीकों का उपयोग ग्लेशियरों की निगरानी और GLOF भविष्यवाणी में क्रांति ला सकता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और ज्ञान साझाकरण महत्वपूर्ण है।
  • स्थानीय ज्ञान का एकीकरण: स्थानीय समुदायों का पारंपरिक ज्ञान भी इन खतरों से निपटने में सहायक हो सकता है।
  • हरित अवसंरचना (Green Infrastructure): प्राकृतिक समाधानों, जैसे कि वनीकरण, आर्द्रभूमि का संरक्षण, और जल-अवशोषक भूमि का उपयोग, बाढ़ के प्रभाव को कम करने में मदद कर सकता है।
  • पर्यटन का टिकाऊ प्रबंधन: जिम्मेदार पर्यटन को बढ़ावा देना और संवेदनशील क्षेत्रों में अनियंत्रित विकास को रोकना।

भविष्य की राह: शमन और अनुकूलन (The Way Forward: Mitigation and Adaptation)

ग्लेशियरों के टूटने और बाढ़ के खतरे से निपटने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें शमन (समस्या के मूल कारणों को संबोधित करना) और अनुकूलन (बदलती परिस्थितियों के अनुकूल होना) दोनों शामिल हों:

1. शमन (Mitigation):

  • ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी: यह वैश्विक स्तर पर सबसे महत्वपूर्ण शमन उपाय है। पेरिस समझौते जैसे अंतर्राष्ट्रीय समझौतों का पालन और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को अपनाना आवश्यक है।
  • वन संरक्षण और वनीकरण: वनों की कटाई रोकना और बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण करना भूस्खलन और बाढ़ के प्रभाव को कम कर सकता है।
  • ऊर्जा दक्षता: ऊर्जा की खपत कम करके ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम किया जा सकता है।

2. अनुकूलन (Adaptation):

  • मजबूत पूर्व-चेतावनी प्रणाली: ग्लेशियरों और झीलों की निरंतर निगरानी के लिए उन्नत तकनीकों का उपयोग करके प्रभावी पूर्व-चेतावनी प्रणालियों का विकास और उन्हें जमीनी स्तर तक पहुंचाना।
  • जोखिम-आधारित क्षेत्रीकरण (Risk-Based Zoning): बाढ़ और भूस्खलन के उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों की पहचान करना और वहां निर्माण गतिविधियों को प्रतिबंधित या नियंत्रित करना।
  • आपदा-लचीला बुनियादी ढांचा (Disaster-Resilient Infrastructure): सड़कों, पुलों, घरों और अन्य महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे का निर्माण इस तरह से करना कि वे प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर सकें।
  • आपदा प्रबंधन क्षमता का निर्माण: स्थानीय समुदायों, स्वयंसेवकों और सरकारी एजेंसियों को आपदा प्रतिक्रिया, बचाव और पुनर्वास में प्रशिक्षित करना।
  • बीमा और वित्तीय सुरक्षा: प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित लोगों के लिए बीमा योजनाओं को सुलभ बनाना।
  • जल संसाधनों का एकीकृत प्रबंधन: पिघलते ग्लेशियरों से प्राप्त होने वाले पानी का प्रभावी ढंग से प्रबंधन करना, ताकि भविष्य में पानी की कमी का सामना न करना पड़े।
  • नीति निर्माण और कार्यान्वयन: जलवायु परिवर्तन और आपदा प्रबंधन को राष्ट्रीय और राज्य की नीतियों में प्राथमिकता देना और उनका प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करना।

एक उदाहरण: स्विट्जरलैंड जैसे देश, जहाँ ग्लेशियरों का खतरा अधिक है, ने प्रभावी GLOF जोखिम प्रबंधन रणनीतियाँ विकसित की हैं, जिसमें झील की निगरानी, जल निकास प्रणाली का निर्माण और पूर्व-चेतावनी प्रणालियों की स्थापना शामिल है।

निष्कर्ष (Conclusion)

उत्तराखंड में ग्लेशियरों के टूटने और बाढ़ का बढ़ता खतरा एक गंभीर चेतावनी है, जिसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। यह न केवल जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों का एक प्रमाण है, बल्कि उन कमजोरियों को भी उजागर करता है जिनके प्रति हमारा समाज अभी भी असंवेदनशील है। भू-वैज्ञानिकों की चेतावनियाँ हमारे लिए भविष्य की एक झलक हैं, जो हमें तुरंत कार्रवाई करने के लिए प्रेरित करती हैं।

यह एक साझा जिम्मेदारी है। सरकारों को नीतियों को मजबूत करने, संसाधनों का आवंटन करने और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। वैज्ञानिकों को अपने शोध को जारी रखना है और स्पष्ट, कार्रवाई योग्य सलाह प्रदान करनी है। समुदायों को जागरूक और तैयार रहने की आवश्यकता है। और हम सभी को, अपने व्यक्तिगत स्तर पर, जलवायु परिवर्तन को कम करने और अनुकूलन रणनीतियों को अपनाने के लिए मिलकर काम करना होगा। केवल एक एकीकृत और सक्रिय दृष्टिकोण ही हमें इस बढ़ते खतरे से बचा सकता है और हमारे पर्वतीय क्षेत्रों के भविष्य को सुरक्षित कर सकता है।

UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)

प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs

  1. प्रश्न: ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF) के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
    1. GLOF तब होता है जब ग्लेशियर द्वारा बनाई गई झील का प्राकृतिक बांध टूट जाता है।
    2. GLOF से उत्पन्न बाढ़ हमेशा एक धीमी गति वाली प्रक्रिया होती है।
    3. हिमालयी क्षेत्र GLOF के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील है।
    उपरोक्त में से कौन से कथन सही हैं?
    (a) केवल 1 और 2
    (b) केवल 1 और 3
    (c) केवल 2 और 3
    (d) 1, 2 और 3
    उत्तर: (b) केवल 1 और 3
    व्याख्या: GLOF एक अचानक और विनाशकारी घटना है, न कि धीमी गति वाली। पहला और तीसरा कथन सही हैं।

  2. प्रश्न: उत्तराखंड में ग्लेशियरों के टूटने के प्राथमिक कारणों में से एक के रूप में निम्नलिखित में से किसे माना जाता है?
    (a) वनों की कटाई
    (b) भूस्खलन
    (c) वैश्विक तापमान में वृद्धि
    (d) ज्वालामुखी गतिविधि
    उत्तर: (c) वैश्विक तापमान में वृद्धि
    व्याख्या: जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती तापमान ग्लेशियरों के पिघलने और टूटने का एक प्रमुख कारण है।

  3. प्रश्न: ‘एल्बेडो प्रभाव’ (Albedo Effect) निम्नलिखित में से किस घटना की व्याख्या करता है?
    (a) तापमान बढ़ने से बर्फ का पिघलना और अधिक गर्मी अवशोषित करना।
    (b) वनों की कटाई से मृदा अपरदन बढ़ना।
    (c) मानव गतिविधियों से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन।
    (d) भूकंपीय तरंगों का पृथ्वी की सतह पर फैलना।
    उत्तर: (a) तापमान बढ़ने से बर्फ का पिघलना और अधिक गर्मी अवशोषित करना।
    व्याख्या: एल्बेडो प्रभाव वह क्षमता है जिससे सतह सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करती है। बर्फ का पिघलना सतह को गहरा बनाता है, जिससे अधिक गर्मी अवशोषित होती है।

  4. प्रश्न: निम्नलिखित में से कौन सी तकनीक ग्लेशियरों की निगरानी के लिए आमतौर पर उपयोग की जाती है?
    (a) बैरोमीटर
    (b) सिस्मोग्राफ
    (c) सैटेलाइट इमेजरी
    (d) एनिमोमीटर
    उत्तर: (c) सैटेलाइट इमेजरी
    व्याख्या: सैटेलाइट इमेजरी ग्लेशियरों की निगरानी, उनके आकार, दरारों और पिघलने की दर को ट्रैक करने के लिए एक प्रमुख तकनीक है।

  5. प्रश्न: भू-वैज्ञानिकों द्वारा जारी की गई चेतावनियों का प्राथमिक उद्देश्य क्या है?
    (a) पर्यटन को बढ़ावा देना
    (b) स्थानीय अर्थव्यवस्था को स्थिर करना
    (c) संभावित खतरों के बारे में पूर्व-चेतावनी देना
    (d) ऐतिहासिक स्थलों का संरक्षण करना
    उत्तर: (c) संभावित खतरों के बारे में पूर्व-चेतावनी देना
    व्याख्या: भू-वैज्ञानिकों की चेतावनियाँ आपदाओं के जोखिम को कम करने के लिए पूर्व-चेतावनी प्रदान करती हैं।

  6. प्रश्न: हिमालयी क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील क्यों है?
    1. उच्च ऊंचाई और अक्षांश।
    2. वैश्विक औसत से अधिक तापमान वृद्धि दर।
    3. एल्बेडो प्रभाव।
    नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए:
    (a) केवल 1 और 2
    (b) केवल 2 और 3
    (c) केवल 1 और 3
    (d) 1, 2 और 3
    उत्तर: (d) 1, 2 और 3
    व्याख्या: ये सभी कारक हिमालय को जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बनाते हैं।

  7. प्रश्न: ‘आपदा-लचीला बुनियादी ढांचा’ (Disaster-Resilient Infrastructure) का क्या अर्थ है?
    (a) ऐसा बुनियादी ढांचा जो प्राकृतिक आपदाओं से आसानी से क्षतिग्रस्त हो जाता है।
    (b) ऐसा बुनियादी ढांचा जिसे प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने के लिए डिज़ाइन किया गया हो।
    (c) ऐसा बुनियादी ढांचा जो केवल आपातकालीन स्थितियों में उपयोग किया जाता है।
    (d) ऐसा बुनियादी ढांचा जो पर्यावरण के लिए हानिकारक हो।
    उत्तर: (b) ऐसा बुनियादी ढांचा जिसे प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने के लिए डिज़ाइन किया गया हो।
    व्याख्या: यह बुनियादी ढांचे की वह क्षमता है जो उसे भूकंप, बाढ़, भूस्खलन आदि से बचाती है।

  8. प्रश्न: उत्तराखंड में 2021 में हुई बाढ़ किस नदी पर आई थी और यह किस घटना से जुड़ी थी?
    (a) गंगा नदी, ग्लेशियर के टूटने से
    (b) यमुना नदी, अत्यधिक वर्षा से
    (c) भागीरथी नदी, बांध के टूटने से
    (d) रिशगंगा नदी, ग्लेशियर के टूटने से
    उत्तर: (d) रिशगंगा नदी, ग्लेशियर के टूटने से
    व्याख्या: वर्ष 2021 की चमोली बाढ़ रिशगंगा नदी पर एक ग्लेशियर के टूटने से उत्पन्न हुई थी।

  9. प्रश्न: जलवायु परिवर्तन के शमन (Mitigation) उपायों में निम्नलिखित में से कौन सा शामिल है?
    (a) बाढ़-लचीला बुनियादी ढांचे का निर्माण
    (b) पूर्व-चेतावनी प्रणालियों में सुधार
    (c) ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी
    (d) आपदा प्रबंधन क्षमता का निर्माण
    उत्तर: (c) ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी
    व्याख्या: शमन का अर्थ है समस्या के मूल कारणों को दूर करना, जैसे ग्रीनहाउस गैसों को कम करना। अन्य विकल्प अनुकूलन (Adaptation) के अंतर्गत आते हैं।

  10. प्रश्न: ‘हिमोढ़’ (Moraine) क्या है?
    (a) ग्लेशियर द्वारा खोदी गई एक गहरी घाटी।
    (b) पिघलते ग्लेशियर से बनी एक झील।
    (c) ग्लेशियर द्वारा जमा किया गया चट्टानी और मिट्टी का मलबा।
    (d) हिमस्खलन का एक प्रकार।
    उत्तर: (c) ग्लेशियर द्वारा जमा किया गया चट्टानी और मिट्टी का मलबा।
    व्याख्या: हिमोढ़ वह सामग्री है जिसे ग्लेशियर अपने साथ घसीट कर लाता है और जमा करता है।

    मुख्य परीक्षा (Mains)

    1. प्रश्न: उत्तराखंड में ग्लेशियरों के टूटने से निचले क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है। इस घटना के कारणों, इसके प्रभावों और भू-वैज्ञानिकों की चेतावनियों के महत्व का विस्तृत विश्लेषण करें। भविष्य की आपदाओं को रोकने के लिए शमन (Mitigation) और अनुकूलन (Adaptation) के उपायों पर भी प्रकाश डालें। (250 शब्द)
    2. प्रश्न: जलवायु परिवर्तन हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को किस प्रकार प्रभावित कर रहा है, विशेष रूप से ग्लेशियरों के पिघलने और GLOF (Glacial Lake Outburst Flood) के संदर्भ में? भारत के लिए इसके दीर्घकालिक निहितार्थों और इन चुनौतियों से निपटने के लिए आवश्यक रणनीतियों का मूल्यांकन करें। (250 शब्द)
    3. प्रश्न: पूर्व-चेतावनी प्रणालियाँ (Early Warning Systems) आपदा प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्यों में ग्लेशियरों के टूटने और बाढ़ के खतरे से निपटने के लिए इन प्रणालियों के विकास और कार्यान्वयन में आने वाली चुनौतियों और अवसरों की विवेचना करें। (150 शब्द)

    सफलता सिर्फ कड़ी मेहनत से नहीं, सही मार्गदर्शन से मिलती है। हमारे सभी विषयों के कम्पलीट नोट्स, G.K. बेसिक कोर्स, और करियर गाइडेंस बुक के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
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