उच्च व निम्न जन्म – दर को प्रभावित करने वाले आर्थिक कारक
प्रजनन को निर्धारित करने वाले आर्थिक कारक आधुनिक युग में धन के महत्व में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है । प्रजनन का आर्थिक कारणों से घनिष्ठ सम्बन्ध है । अतः प्रजनन दर को प्रभावित करने में आर्थिक कारकों के महत्व को भुलाया नहीं जा सकता है । निम्नलिखित आर्थिक कारक प्रजनन दर को प्रभावित करने में सहायक हैं
आमदनी ( Income )
– निम्न आय वर्ग के लोगों में जन्म – दर अधिक पाई जाती है , जबकि धनिक वर्ग में जन्म दर कम पाई जाती है । बढ़ती हुई आय के फलस्वरूप व्यक्ति अपनी आय जीवन स्तर को अधिक ऊँचा उठाने के लिए बढ़ाने का प्रयास करता है । जिससे बच्चों की संख्या में धीरे – धीरे कमी आने लगती है । यू ० एस ० ए ० में भी जनगणना के अनुसार निम्न आय वाले परिवारों में अधिक बच्चों की संख्या अंकित की गई है ।
प्रजननशीलता की प्रवृत्ति
व्यवसाय – व्यवसाय व्यक्ति की समाज में स्थिति , जीवन स्तर , पारिवारिक स्थिति , बच्चों की संख्या आय को प्रभावित करता है । जैसे कृषि कार्य में अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती है अतः कृषक परिवारों में बच्चों को सम्पत्ति माना जाता है । इसके साथ ही उद्योग – धन्धे व्यक्ति के विचारों , आदतों , विश्वासों को प्रभावित करते हैं । अधिक श्रम करने वाले श्रमिकों में प्रजनन क्षमता अधिक होने के साथ – साथ अन्य मनोरंजन के साधनों का अभाव होने से भी प्रजनन दर ऊँची पायी जाती है ।
औद्योगीकरण एवं नगरीकरण-
औद्योगीकरण ने हमारे जीवन के सभी पहलुओं को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप स प्रभावित किया है । औद्योगीकरण के कारण जनसंख्या का एक स्थान पर केन्द्रीयकरण होता है । गाँव में अनेक भूमिहीन जातियों जैसे कुम्हार , तेली , नाई , धोबी , जुलाहा आदि के व्यवसायों पर औद्योगीकरण का प्रभाव इस सीमा तक पड़ रहा है कि अपने परम्परागत व्यवसायों को छोड़कर औद्योगिक नगरों ओर जा रहे हैं । जिसे धर्म प्रथाएँ कमजोर होने लगती हैं , जिनका प्रभाव जन्म – दर को कम स्पष्टतया इन तथ्यों की पुष्टि करने से पड़ता है । जापान , इंग्लैण्ड आदि देशों के उदाहर करते हैं । नगरीकरण ने भी हमारे जीवन को प्रभावित किया है । गाँव की आत्मनिर्भरता समाप्त होने के कारण और नगरों में रोजगारों के नये अवसरों की वृद्धि के कारण ग्रामीण लोग नगरों की ओर भाग रहे हैं । धीरे – धीरे संयुक्त परिवार एकाकी परिवार में बदल रहा है । एकाकी परिवार का आकार छोटा होता है । इस प्रकार औद्योगीकरण एवं नगरीकरण जन्म – दर को प्रभावित करते हैं ।
बच्चों पर होने वाला व्यय – आमदनी के साथ – साथ बच्चों पर होने वाला खर्च भी प्रजनन दर को प्रभावित करता है , क्योंकि प्रत्येक अतिरिक्त बच्चे पर अतिरिक्त खर्च करना पड़ता है । इसके साथ ही बच्चा बड़ा होने पर कृषि कार्य में हाथ बँटाने लगता है और पारिवारिक आय में वृद्धि भी करता है । इसके विपरीत शहरी क्षेत्रों में बच्चा आय का स्रोत होने के बजाय खर्च की बहुत बड़ी मद बन जाता है । खर्च में केवल मुद्रा का व्यय नहीं होता , बल्कि समय व शक्ति का व्यय भी करना पड़ता है । अतः अतिरिक्त सन्तान पैदा करने का निर्णय करने की क्षमता पर निर्भर करता है । इस प्रकार आय के समान व्यय भी प्रजनन दर को प्रभावित करता है ।
परिवार में जीवन स्तर व जीवन पर व्यय-
पारिवारिक जीवन स्तर व परिवार में किया जाने वाला खर्च बच्चों के स्वास्थ्य , उनके अस्तित्व व उनके जन्म को प्रभावित करता है । एक अध्ययन से यह पता चलता है कि जिन परिवारों में वास्तविक जीवन स्तर व आकांक्षित जीवन स्तर में जितना अधिक अन्तर होगा या जितनी अधिक आर्थिक सुरक्षा होगी , उतना ही जन्म निरोध किया जाता है । इसी प्रकार उच्च सामाजिक स्थिति वाला वर्ग भी कम सन्तान चाहता है ।
स्त्रियों की आर्थिक स्वतन्त्रता व कार्यरत स्त्रियाँ –
स्त्रियों का कार्यक्षेत्र अब घर की चारदीवारी नहीं रह गया है । अब स्त्रियाँ घर से बाहर काम पर जाने लगी हैं ।
विशेषकर पश्चिमी देशों में अधिकांश स्त्रियाँ परिवार के बाहर कार्य करती है क्योंकि ऐसे अनेक व्यवसाय विकसित हो रहे है । जिनमें केवल स्त्रियाँ ही अधिक संख्या में नियुक्त की जा रही हैं । स्त्रियों के कार्यरत रहने से प्रजनन पर प्रभाव पड़ता है । स्त्रियाँ परिवार की अपेक्षा अपने कार्य पर अधिक ध्यान देती हैं और सामाजिक स्थिति ऊँचा उठाने का प्रयास करती हैं । यद्यपि अल्पविकसित देशों में स्त्रियाँ मजदूरी का व कृषि का ही कार्य करती हैं , फिर भी अन्य कार्यों में उनकी संख्या में वृद्धि होती जा रही है । इस तरह स्त्रियों की आर्थिक स्वतन्त्रता व परिवार के बाहर कार्यरत होने से प्रजनन दर की कमी होना स्वाभाविक है ।
प्रजननता के निर्धारक तत्व कौन – कौन से है-
भारत में उच्च प्रजननशीलता के जनांकिकीय कारक
जनांकिकीय कारक ( Demographic Factors ) प्रजननशीलता को उच्च स्तर पर बनाए रखने वाले जनांकिकीय कारक निम्न प्रकार ( i ) विवाह की सार्वभौमिकता ( Universa Marriage ) – भारत में विवाह एक आवश्यक धार्मिक संस्कार माना जाता है । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह कितना ही गरीब क्यों न हो , विवाह अवश्य करता है । वह धार्मिक संस्कारों में बिना पत्नी के भाग नही ले सकता । यहाँ पितृ ऋण से मुक्ति हेतु पुत्र होना आवश्यक माना जाता है । हिन्दू धर्म के अनुसार यदि किसी दम्पत्ति के कोई पुत्र नहीं है तो पिण्ड , श्राद आदि न हो सकने के कारण परलोक में उनकी आत्माओं को शान्ति नहीं मिलती है । पुत्रविहीन व्यक्ति को लोगभाग्यहीन और निम्न स्तर का समझते हैं । यहाँ मुस्लिम समाज में भी विवाह सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टि से उचित माना जाता है । मुसलमानों में बहुपत्नी तथा पुनर्विवाह प्रथा भी प्रचलित है । इस प्रकार हर भारतीय विवाह करके सन्तान उत्पन्न करना अपना धार्मिक एवं सामाजिक कर्त्तव्य समझता है अतः यहाँ जन्म दर का ऊँचा होना स्वाभाविक है । इसलिए यहाँ जन्म – दर भी अधिक ऊँचे स्तर की रही है ।
( ii ) विवाह की आयु का नीचा होना ( Low Age at Marriage ) – भारत में विवाह की आयु बहुत नीची है । इसका मुख्य कारण बाल – विवाह प्रथा है । विवाह की आयु कम होने के लिए यहाँ सामाजिक , धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्पराएँ जिम्मेदार हैं । भारतीय धर्मशास्त्रों के अनुसार कन्या का पाणिग्रहण संस्कार यौवन प्राप्ति अर्थात् रजस्वला होने से पूर्व ही हो जाना चाहिए अन्यथा उसके माता – पिता नरकगामी होते हैं । इसलिए कम आयु में विवाह होने से बच्चा पैदा करने के लिए सम्पूर्ण प्रजनन सामर्थ्य मिल जाता है अत : बच्चे अधिक पैदा होते हैं और जन्म – दर ऊँचे स्तर की होती है । पश्चिमी देशों में लड़कियाँ । जब पूर्ण वयस्क हो जाती हैं तब उनका विवाह होता है । इंग्लैण्ड में पुरुषों के विवाह की औसत आयु 30 वर्ष तथा लड़कियों की 25 वर्ष है । परन्तु भारत में पुरुषों के विवाह की औसत आयु 21.6 वर्ष तथा स्त्रियों के विवाह की औसत आयु 15.8 वर्ष थी जो 1991 में बढ़कर क्रमश : 23.8 वर्ष तथा 17.7 वर्ष हो गयी । इस तरह यहाँ अभी भी विवाह की औसत आयु पश्चिमी देशों की तुलना में बहुत नीची है । अत : यहाँ जन्म दर ऊँची रही है । कुछ विद्वानों के अनुसार शीघ्र विवाह से प्रजनन दर बढ़ती नहीं बल्कि घट जाती है । क्योंकि शीर्घ विवाह , शीर्ष वैधव्य का कारण होता है । शीघ्र विवाह से विधवाओं की संख्या में वृद्धि होती है परन्तु धार्मिक एवं सामाजिक प्रथाएँ उनको पुनर्विवाह की अनुमति नहीं देती हैं जिसके फलस्वरूप सन्तानोत्पादन योग्य विधवाएँ अपने शेष सन्तानोत्पत्ति काल में सन्तानोत्पादन नहीं कर पातीं ।
( ii ) ग्रामीण समाज ( Rural Society ) – भारतीय समाज एक ग्रामीण समाज है । यहाँ अन्य देशों की तुलना में नगरीकरण कम हुआ है । 1991 में यहाँ कुल 6.05 लाख गाँव व लगभग 4,689 नगर थे । यहाँ की 74.3 % जनसंख्या गाँवों में निवास करती हैं यहाँ नगरीकरण में प्रगति कम है । वर्ष 1971 में 19.91 % जनसंख्या नगरों में निवास करती थी , 1981 में 23.84 % , 1991 में नगरों में निवास करने वाले लोगों का प्रतिशत 25.72 % तथा 2001 में देश में कुल नगरीय जनसंख्या का प्रतिशत 27.78 % था । जबकि अमेरिका में 73 % ब्रिटेन में 95 % , जापान में 78 % तथा रूस में 65 % जनसंख्या शहरों में रहती है । गाँवों में कृषि की प्रधानता एवं सुरक्षा की दृष्टि से बड़े परिवार जरूरी माने जाते हैं । गाँवों में लोग परम्पराओं एवं रूढ़ियों से प्रभावित रहते हैं अत : परिवार को छोटा करने के उपायों की ओर कम सोचते हैं । नगरों में लोगों की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि लोग छोटे परिवार की ओर अधिक ध्यान देने लगते हैं । 0
जीवन प्रत्याशा ( Life Expectancy )
उत्तर जीवन की प्रत्याशा ( Expectation of Life ) जीवन प्रत्याशा जनसंख्या समस्या का एक महत्वपूर्ण पहलू है । साधारण शब्दों में , किसी देश के निवासी जन्म के समय जितने वर्ष जीवित रहने की आशा कर सकते हैं , वह वहाँ की औसत या प्रत्याशित आयु कहलाती है । प्रमुख रूप से यह मृत्यु दर और मरने के समय आयु पर निर्भर करती है । स्पष्टतः यदि मृत्यु दर ऊंची है अथवा मृत्यु कम आयु में होती है तो प्रत्याशित आयु थोड़ी होगी । इसके विपरीत , यदि मृत्यु दर नीची है अथवा मृत्यु बड़ी उम्र में होती है , तो प्रत्याशित आयु लम्बी होगी । प्रत्याशित आयु किसी देश के स्वास्थ्य स्तर का एक महत्वपूर्ण निर्देशांक मानी जाती है । देश की सभ्यता और आर्थिक विकास का भी इससे परिचय होता है , जो देश जितना विकसित होगा उसकी जीवन प्रत्याशा उतनी ही अधिक होगी । प्रो ० और गैन्सकी ने लिखा है , उसके रहन – सहन के स्तर को जानने के लिए जीवित रहने की प्रत्याशा पर दृष्टिपात कीजिये क्योंकि इससे अच्छा कोई भी माप नहीं है कोई सभ्यता प्रत्येक व्यक्ति को जीवन के कितने वर्ष देती है । ” यह न केवल किसी राष्ट्र के जन्म एवं मृत्यु दरों पर प्रकाश डालता है बल्कि इसके द्वारा किसी समुदाय में जनता को मिलने वाली सुविधाओं का भी अनुमान लगाया जा सकता है । यद्यपि जीवन प्रत्याशा जनांकिकी से भी अधिक जीव विज्ञान का विषय है फिर भी जनांकिकी में इसका अध्ययन जीवन सारणी के उपयोग से किया जाता है और शायद यही कारण है कि आधुनिक समय में जीवन सारणी का महत्त्व इसी वजह से बढ़ गया है । भारत में प्रत्याशित आयु सम्बन्धी आँकड़ों पर दृष्टिपात करने से यह पता चलता है कि योनाबद्ध विकास काल में प्रत्याशित आयु की दर में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है , जोकि देश की प्रगति , सम्पन्नता और विकास का एक संकेत है । भारत में प्रत्याशित आयु
जीवन प्रत्याशा के इतिहास पर दृष्टिपात करने से यह पता चलता है कि 1881 में पुरुषों की प्रत्याशित आयु 23.67 तथा स्त्रियों की 25.58 थी । 1911 में प्रत्याशित आयु घट गई और पुरुषों की 22.59 तथा स्त्रियों की 29.31 हो गई । 1921 में प्रत्याशित आयु में और गिरावट आई और यह 20.91 तथा 19.42 स्त्री – पुरुषों के लिये क्रमशः रही । 1921 के बाद देश में प्रत्याशित आयु धीरे – धीरे बढ़ने लगी और आगे चलकर विशेषकर 1951 में वृद्धि दर तीव्र होती गई । प्रत्याशित आयु 1951 में 32 वर्ष , 1961 में 41 वर्ष और 1971 में 46 वर्ष और 1981 की जनगणना में 54 वर्ष के लगभग पहुँच चुकी है । कुछ समय में औसत आयु में काफी तेजी से वृद्धि हो रही है । पिछले तीस वर्षों में यह लगभग डेढ़ गुनी हो गई है । इससे देश में जीवन स्तर के थोड़ा – बहुत ऊपर उठने का संकेत मिलता है । प्रत्याशित आयु मृत्यु दर पर निर्भर करती है और मृत्यु दर स्वयं महामारी , रोग , जीवन दशाओं , स्त्रियों की देख – भाल , शिशु मरण दर और पोषण तत्व पर निर्भर करती है । भारत में बहुत समय तक प्रत्याशित आयु कम रहने का मुख्य कारण यह था कि 1921 तक मृत्यु दर में अधिकता थी । 1881 से 1921 के मध्य मृत्यु दर 40 से 48 प्रति हजार तक , परन्तु 1921 के बाद रोगों पर नियन्त्रण कर लिया गया है । शिशुओं की मृत्यु दर घट गई ( क्योंकि प्रसव सुविधाओं का विस्तार हो गया है और बच्चों के स्वास्थ्य और सफाई का ध्यान रखा जाने लगा है ) , साक्षरता में वृद्धि हो गयी है , दुर्भिक्षों का प्रकोप कम हो गया है ।
जीवन प्रत्याशा : भारत एवं विदेशों में ( Expectation of Life : In India & Abroad )
भारत में औसत आयुमान यद्यपि पिछले वर्षों में बढ़ा है , फिर भी विश्व के अन्य देशों की तुलना में यह बहुत कम है । उदाहरण के लिये प्रत्याशित आयु अमेरिका में 74 , आस्ट्रेलिया में 71 वर्ष है और जापान में 77 तथा कनाडा में 76 वर्ष हैं , जबकि भारत में केवल 54.4 वर्ष है । प्रत्याशित आयु की दृष्टि से भारत अब भी बहुत से एशियाई देशों से पिछड़ा हुआ है , पश्चिमी देशों की अपेक्षा तो बहुत ही पीछे है । भारतवर्ष में प्रत्याशित आयु के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि यहाँ स्त्रियों की जीवन अवधि पुरुषों से कम है , जबकि एशिया तथा पश्चिमी देशों में वह लगभग बराबर अथवा पुरुषों से अधिक ही है । भारत वर्ष में स्त्रियों को जीवन अवधि अपेक्षाकृत कम होने का मुख्य कारण स्त्रियों की असामयिक मृत्यु है । इसके भी कुछ कारण हैं , जैसे – बाल – विवाह , पर्दा – प्रथा , मातृत्व व्यवस्था का अभाव , प्रसव सम्बन्धी सुविधाओं के ज्ञान का अभाव , निर्धनता आदि । हमारे देश में अविवेकपूर्ण मातृत्व के कारण भी स्त्रियों की अधिक मृत्यु होती है । फलतः भारत में स्त्रियों की जीवन अवधि पुरुषों की अपेक्षा कम है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के एक प्रकाशन के अनुसार , ” किसी निश्चित प्रदेश में एक निश्चित समय में रहने वाले सभी व्यक्तियों के सम्बन्ध में जनांकिकीय , आर्थिक एवं सामाजिक तथ्यों का संकलन , सम्पादन एवं प्रकाशन करने की सम्पूर्ण प्रक्रिया को जनगणना कहते हैं । ” स्पष्ट है कि जनगणना के अन्तर्गत मात्र स्त्री – पुरुषों की संख्या को ही नहीं गिना जाता बल्कि उनकी आर्थिक व सामाजिक स्थिति का भी स्पष्ट चित्रण करने का प्रयास किया जाता है । किसी देश में कितने व्यक्ति रह रहे हैं । उन सबके सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने के लिए सरकार एक व्यवस्थित ढंग से अनुसन्धान कराती है जिसे जनगणना कहा जाता है ।
आधुनिक काल में देश का कोई भी महत्त्वपूर्ण राजनैतिक , नियोजन बगैर जनगणना सम्बन्धी जानकारी के पूरा नहीं हो सकता । जनगणना के आंकड़ों के अध्ययन से हमें रोजगार विनियोजन , आवास व्यवस्था , कृषि विकास , यातायात व संचार , विकास , शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं का विकास , प्रवास का नियोजन आदि समस्त कार्यों में सहायता मिलती है । परिभाषाएँ संयुक्त राष्ट्र संघ के एक प्रलेख के अनुसार- ” एक देश या परिसीमित प्रदेश के समस्त व्यक्तियों की एक निश्चित समय से सम्बन्धित संख्या आर्थिक व सामाजिक सूचना के संग्रहण व संकलन और प्रकाशन की सम्पूर्ण विधि । “
जनगणना की विशेषताएँ- जनगणना की कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं
- जनगणना सम्बन्धी समस्त जानकारी को प्रकाशित किया जाता है ।
- जनगणना में किसी भी व्यक्ति के बारे में जानकारी उसी व्यक्ति से प्रत्यक्ष रूप से ज्ञात की जाती है , अर्थात् पंजीकरण पद्धति से ज्ञात नहीं की जाती है ।
- प्राय : जनगणनाएँ एक निश्चित समय अन्तराल ( 10 वर्ष के बाद ) की जाती हैं ।
- जनगणना में जनसंख्या के बारे में जानकारी एक ही निश्चित समय बिन्दु पर इकट्ठी की जाती है । 5. जनगणना में देश के समस्त निवासियों को सम्मिलित किया जाता है । 6. जनगणना देश की सम्पूर्ण सीमा के निवासियों की होती है । 7. जनगणना में क्योंकि व्यापक व्यय एवं संगठन आदि की आवश्यकता पड़ती है , अतः इसे सरकार द्वारा किया जाता है । यहाँ यह दृष्टव्य है कि सामान्यतया जनगणना को प्रत्येक 10 वर्ष बाद करना पड़ता है । संयुक्त राष्ट्र संघ की सिफारिश के अनुसार विश्व के हर देश को ‘ O ‘ से समाप्त होने वाले वर्ष ( जैसे 1960 , 1970 तथा 1980 क्रमश 🙂 या उसके निकट जनगणना करना चाहिए । मौसम तथा धरातल सम्बन्धी विशेषताओं के कारण महीने या दिन में अन्तर हो सकता है ।
वर्गीकरण व सारणीयन में अनुरूपता का अभाव –
विभिन्न जनगणनाओं से वर्गीकरण व सारणीयन विभिन्न ढंग से किए गए हैं । अनुरूपता अभाव के कारण उनकी तुलना में असुविध्य होती है और उनकी उपयोगिता कम हो जाती है ।
सुधार के लिए सुझाव ( Suggestions for Improvement )
इसमें कोई सन्देह नहीं कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद जनगणना समकों में काफी गुणात्मक सुधार हुए हैं , परन्तु अब भी उपर्युक्त कमियों के आधार पर सुधार हेतु सुझाव दिए जा सकते हैं , जो कि 2011 की जनगणना के लिए लाभदायक होंगे । कुछ सुझाव निम्न प्रकार हैं-
प्रगणकों का पूर्व प्रशिक्षण-
यह बहुत ही आवश्यक है कि जनगणना कार्य आरम्भ होने से पूर्व प्रगणको का भली प्रकार प्रशिक्षण किया जाए । तत्पश्चात् प्रगणकों का प्रशिक्षण होना चाहिए , जिससे यह ज्ञात हो सके कि वे पूर्णतः इस कार्य हेतु योग्य हो गए या नहीं ।
जनता का सहयोग-
जनगणना की शुद्धता हेतु जनता का सहयोग अपेक्षित है । इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि सतत प्रचार कार्य द्वारा जनता से सम्पर्क बना रहना चाहिए तथा जनगणना से कुछ समय पूर्व जनता के सुझाव आमंत्रित किए जाने चाहिए ।
कम्प्यूटर एवं यन्त्रों का प्रयोग
गणना क्रिया , समंक , विधियन , सारणीयन आदि में कम्प्यूटर एवं यांत्रिक सारणीयन का प्रयोग अधिकाधिक होना चाहिए , जिससे प्राप्त परिणामों का शीघ्रताशीघ्र विश्लेषण करके उनका प्रकाशन सम्भव हो सकें ।
प्रगणनकों को अच्छा एवं यथाशीघ्र पारिश्रमिक भुगतान –
समंकों की शुद्धता एवं पर्याप्तता पूर्ण रूप से प्रगणकों पर निर्भर करती है । इनके कार्य के लिए पुरस्कार बहुत ही कम और वह भी काफी विलम्ब से दिया जाता है । अतः उनका पुरस्कार बढ़ाकर तथा भुगतान भी शीघ्र होना चाहिए , जिससे वे कार्य में अधिक रुचि ले सकें ।
उर्वरता एवं प्रजनन सम्बन्धी सूचना –
जनसंख्या वृद्धि एवं परिवार नियोजन कार्यक्रम के मूल्यांकन हेतु उर्वरता एवं प्रजनन सम्बन्धी सूचना भी एकत्र होनी चाहिए ।
पेशे के वर्गीकरण में स्थायित्व –
विभिन्न जनगणनाओं में पेशे के वर्गीकरण में भिन्नता के कारण तुलना सम्भव नहीं हो पाती , अतः यह आवश्यक है कि इस वर्गीकरण के आधार को स्थिर बनाया जाए ।
महिला प्रगणकों की नियुक्ति – महिलाओं से , विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में सही सूचनाएँ लेने के लिए महिला प्रगणकों की नियुक्ति करनी चाहिए ।
पर्दा प्रथा का कुप्रभाव पर्दा तथा कठोर रीति –
रिवाजों के कारण स्त्रियों से सम्बन्धित सूचनाएँ प्राय : अशुद्ध मिलती है । कारण यह है कि ये सूचनाएँ प्रायः पुरुषों की स्त्रियाँ स्वयं नहीं देतीं बल्कि कोई पुरुष अनुमानतः देता है ।
आयु सम्बन्धी सूचनाएँ अशुद्ध –
आयु के सम्बन्ध में भारतीय आँकड़े प्रायः अशुद्ध होते हैं । इसका मुख्य कारण सूचना देने वालों की अज्ञानता है । बहुत से लोग आँकड़ो के महत्व को न मानते हुए अपने रीति – रिवाजों से प्रभावित होकर गलत सूचनाएँ देते हैं , जैसे हिन्दू साधारणत : अपनी अविवाहित लड़कियों की आयु कम बताते हैं , क्योंकि हिन्दू धर्म के अनुसार लड़कियों का विवाह कम आयु में ही हो जाना चाहिए । इसी प्रकार कुंवारे या विधुर अपनी आयु कम बताते हैं तथा बूढ़े अपनी आयु बढ़ाकर बताते हैं ।
मकानों की संख्या में क्रमबद्धता की कमी साधारणत :
देश के बड़े – बड़े शहरों में मकानों की संख्या में क्रमबद्धता नहीं मिलती । फलस्वरूप गणना करते समय अनेक कठिनाइयाँ व अशुद्धियाँ उपस्थित हो जाती हैं ।
गणकों की अवैतनिक सेवा –
गणकों को इस कार्य के लिए कोई वेतन नहीं मिलता । इसलिए वे लापरवाही से कार्य करते हैं । साधारणतः इनमें कार्य करने की योग्यता को भी कमी होती है ।
तुलनीयता का अभाव – विभिन्न जनगणनाओं में प्रयोग किए जाने वाले शब्दों व इकाइयों की परिभाशा बदलती रहती है । भौगोलिक व्याप्ति व सारणीयन के आधार पर भिन्न – भिन्न होते रहते हैं । पहले बर्मा ( म्यांमार ) व श्रीलंका और फिर पाकिस्तान अलग हुआ । दादर व नगर हवेली की जनगणना 1962 में की गयी । इसलिए समंक पूर्णतः तुलनीय नहीं है ।
अशुद्धता –
वैवाहिक स्थिति तथा धर्म सम्बन्धी आँकड़ों में बहुत दोष है । 8. बहुउद्देश्य – एक ही साथ विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जनगणना की जाती है , इसलिए व्यय अधिक होने पर भी शुद्धता का अभाव होता है