इमाइल दुर्थीम

इमाइल दुर्थीम

 Emile Durkheim : 1858 – 1917 ]

विश्व के प्रमुख समाजशास्त्रीय विचारकों में दीम का नाम अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । फ्रांस के विचारकों में ऑगस्ट कॉम्ट के पश्चात् दुर्थीम को ही सबस महत्त्वपूर्ण समाजशास्त्री माना जाता है । यह सच हैं कि कॉम्ट को ‘ समाजशास्त्र के जनक ‘ के रूप में स्वीकार किया जाता है लेकिन अपने जीवन – काल में कॉम्ट को बौद्धिक और शैक्षणिक जगत में कोई विशेष मान्यता प्राप्त नहीं हो सकी थी । इसके विपरीत , इमाइल दुर्थीम फ्रांस के वह पहले समाजशास्त्री थे जिन्हें शैक्षणिक जगत में भी पूर्ण सम्मान प्राप्त हुआ । सम्भवतः इसी कारण अब्राहम तथा मॉर्गन ने लिखा है कि ” यदि कॉम्ट और स्पेन्सर को सही अर्थों में समाजशास्त्र के जनक के रूप में स्वीकार किया जाता है तो दुर्थीम को समाजशास्त्र का पितामह कहा जाना चाहिए । ” यह एक अतिशयोक्ति हो सकती है लेकिन इसके समाजशास्त्रीय चिन्तन में दुर्थीम का महत्त्व अवश्य स्पष्ट हो जाता है । दुर्थीम ने समाजशास्त्रीय अध्ययनों के लिए नये उपागमों की खोज की तथा एक वैज्ञानिक आधार प्रदान किया । दुर्थीम ने अपने अध्ययनों द्वारा समाजशास्त्र को तथ्यात्मक बनाने में भी सर्वाधिक योगदान दिया । इनके जन्म के समय से ही फ्रांस की स्थिति बहुत गम्भीर बन चुकी थी । समाज से दुर्थीम का पहला परिचय उस रूप में हुआ जब फ्रांस का समाज प्रशिया ( Prussia ) के युद्ध में संलग्न था । इस प्रारम्भिक अनुभव ने दुीम के सामाजिक चिन्तन को बहुत बड़ी सीमा तक प्रभावित किया ।

जीवन परिचय तथा कृतियाँ

( Life and Works )

 उन्नीसवीं शताब्दी के महान विचारक इमाइल दुर्थीम का जन्म सन् 1858 में फ्रांस के एपिनल ( Epinal ) नामक स्थान में हुआ था । दुर्थीम के पिता यहूदी धर्म के अनुयायी थे तथा आरम्भ से ही वह दुर्थीम को यहूदी धर्म का कट्टर समर्थक बनाना चाहते थे । इसके फलस्वरूप दुर्थीम के जीवन की प्रारम्भिक शिक्षा हिब्रू भाषा में हुई । उनके पिता ने दुीम को बचपन में ही पुरातन धर्म की शिक्षाओं से परिचित कराना आरम्भ कर दिया । दुर्थीम की आयु जब तेरह वर्ष की थी तभी उन पर कैथोलिक धर्म को मानने वाले अपने एक शिक्षक का गहरा प्रभाव पड़ा । किशोरावस्था में ही दो धर्मों के प्रभाव के कारण दुर्थीम के मन में धार्मिक संशयवाद की दशा उत्पन्न हो गयी । इसके फलस्वरूप उन्होंने उस मौलिक एकता के बारे में विचार करना आरम्भ कर दिया जो सभी धर्मों का मूल स्रोत है । अपने विद्यार्थी जीवन में ही दुर्शीम ने एक विशिष्ट प्रतिभा का परिचय देना आरम्भ कर दिया था जिसके फलस्वरूप उन्हें बहुत से पुरस्कार प्राप्त हुए । कॉलेज जीवन के दौरान भी दुर्थीम अपने समय की प्रत्येक समस्या पर बहुत स्पष्ट और सुदृढ़ विचार प्रस्तुत करने लगे थे । यही कारण था कि दुर्थीम के मित्र उन्हें उसी समय से ‘ दार्शनिक ‘ के नाम से सम्बोधित करते थे । दुर्शीम की प्रारम्भिक शिक्षा दर्शनशास्त्र में हो रही थी , यद्यपि उनकी रुचि राजनीति – विज्ञान तथा समाजशास्त्र जैसे विषयों में कहीं अधिक थी । पेरिस में अध्ययन पूर्ण करने के पश्चात् आगामी अध्ययन के उद्देश्य से दुर्थीम जर्मनी चले गये । वहाँ उन्होंने अर्थशास्त्र , मनोविज्ञान तथा सांस्कृतिक मानव शास्त्र का व्यापक अध्ययन किया ।

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जर्मनी में वहां के एक प्रमुख मनोवैज्ञानिक विलहेम वुन्ड ( Wilhelm Wondt ) के वैज्ञानिक प्रयोगों से दुर्थीम बहुत प्रभावित हुए । जर्मनी में रहते हुए अपने अध्ययन के दौरान ही दुर्थीम ने अनेक लेख लिखना आरम्भ कर दिए जिन्हें वहाँ के बौद्धिक जगत में काफी समर्थन मिला । उनका पहला लेख ‘ जर्मनी के शैक्षणिक जीवन ‘ ( The Academic Life of Germany ) से सम्बन्धित था । सन् 1887 में दुमि को जर्मनी के बोडिऑक्स विश्वविद्यालय में समाज विज्ञान के प्राध्यापक का पद प्राप्त हो गया । उस समय वहाँ एस्पिनॉस ( Espinas ) सामाजिक मनोविज्ञान के प्रोफेसर थे जिनका दुखीम के चिन्तन पर गहरा प्रभाव पड़ने लगा । इसी वर्ष दुर्थीम का विवाह ल्यूसी नाम की एक यहूदी लड़की के साथ हुआ । ल्यूसी सहयोगी स्वभाव की महिला थी जिसके फलस्वरूप दुखीम को एक मधुर पारिवारिक जीवन प्राप्त हो गया । सन् 1893 में दुर्थीम ने ‘ समाज में श्रम – विभाजन ‘ ( Division of Labour In Society ) विषय पर अपना शोध कार्य पूर्ण करके डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की ।

यहीं से एक लेखक तथा विचारक के रूप में दुर्थीम की ख्याति निरन्तर बढ़ लगी । दुर्थीम के विचारों पर कॉम्ट , वेबर , स्पेन्सर तथा मान्टेस्क्यू जैसे विद्वानों का व्यापक प्रभाव पड़ा । इसके अतिरिक्त रूसो के ‘ प्रजातान्त्रिक व्यक्तिवाद ‘ ( Demo cratic Individualism ) ने भी दुर्थीम के चिन्तन को एक बड़ी सीमा तक प्रभावित किया । सच तो यह है कि अपना शोध – कार्य पूर्ण करने के पश्चात् सन् 1917 में अपनी मृत्यु के समय तक दुर्थीम का सम्पूर्ण चिन्तन समाजशास्त्र के लिए समर्पित रहा तथा उन्हीं के चिन्तन में समाजशास्त्र को विकास की एक नयी दिशा प्राप्त हो सकी । इमाइल दुखींस ने समाजशास्त्र से सम्बन्धित जिन विचारों का प्रतिपादन किया , उनमें से कुछ का प्रकाशन उनके जीवनकाल में ही हो चुका था जबकि उनके विचारों को संकलित करके अनेक दूसरे प्रकाशन उनकी मृत्यु के पश्चात् हुए । अपने जीवनकाल में दुर्थीम ने ( L ‘ annae Sociologique ) नामक जिस पत्रिका का सम्पादन किया , उनके अधिकांश विचार किसी – न – किसी रूप में इसी पत्रिका में प्रकाशित होते रहे । समाजशास्त्र के लिए दुर्थीम के योगदान को विस्तार से समझने से पूर्व यह आवश्यक है कि उनकी प्रमुख कृतियों के बारे में संक्षिप्त जानकारी प्राप्त कर ली जाय ।

 ( 1 ) समाज में श्रम – विभाजन ( The Division of Labour in Society ) – दुर्थीम के द्वारा लिखित इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 1893 में हुआ । उनका यह ग्रन्थ पेरिस विश्वविद्यालय में डॉक्टरेट की उपाधि के लिए लिखे गये शोध प्रबन्ध पर आधारित था । फ्रांसीसी भाषा में इस पुस्तक का नाम ‘ दि ला डिवीजन ट्रेवेल सोशल ‘ ( De La Division Travil Social ) है । साधारणतया श्रम – विभाजन एक ऐसा विषय है जिसे अर्थशास्त्र से सम्बन्धित माना जाता है लेकिन दुीम ने श्रम – विभाजन के सामाजिक पक्ष को स्पष्ट करते हुए इस विषय को कहीं अधिक व्यावहारिक बना दिया । इस पुस्तक में उन्होंने मुख्यत : श्रम – विभाजन के सामाजिक कारणों तथा उसके सामाजिक प्रभावों का उल्लेख किया है । रेमण्ड ऐरों ने लिखा है , ” दुखीम द्वारा लिखित इस पुस्तक का केन्द्रीय विचार व्यक्ति और समूह के बीच पाये जाने वाले अन्तर्सम्बन्धों के सन्दर्भ में हैं । ” ” व्यक्ति और समूह के अन्तर्सम्बन्धों को स्पष्ट करने के लिए दुर्थीम ने इस पुस्तक में यान्त्रिक एकता तथा सावयवी एकता ( Mechanical Solidarity and Organic Solidarity ) की विस्तार से चर्चा की । यान्त्रिक तथा सावयवी एकता के बीच अन्तर स्पष्ट करते हुए दुखीम ने श्रम – विभा न को सामाजिक परिवर्तन के एक महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में स्वीकार किया । सुविधा के लिए इस पुस्तक को दो खण्ड़ों में विभाजित किया जा सकता है । प्रथम खण्ड में दुर्थीम ने श्रम – विभाजन के प्रकार्यों तथा प्रभावों की विवेचना की है जबकि दूसरे खण्ड में उन्होंने इसके सामाजिक कारकों पर प्रकाश

डाला है । इसी ग्रन्थ के माध्यम से दुर्शीम ने उविकास की प्रक्रिया को भी समझाने का प्रयत्न किया ।

 ( 2 ) समाजशास्त्रीय पद्धति के नियम ( The Rules of Sociological Method ) – फच भाषा में इस पुस्तक का नाम ‘ लेस रीगेल्स डि ला मेथड ‘ सोशियो नजिकी ‘ ( Les Regles De La Methode Sociologique ) है । इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 1895 में हुआ । इसके माध्यम से दुर्थीम ने समाजशास्त्र की प्रकृति को प्राकृतिक विज्ञानों के निकट लाने का प्रयत्न करते हए उन पद्धतियों की विवेचना की जिनके द्वारा समाजशास्त्रीय अध्ययनों को वैज्ञानिक बनाया जा सकता है । पुस्तक में दुर्चीम ने समाजशास्त्रीय शोध के अन्तर्गत अमूर्त तथ्यों को भी विशेष महत्त्व प्रदान किया । इसी कारण रेमण्ड ऐरों ने लिखा है कि ” यह पुस्तक दुर्थीम को समाजशास्त्र से दर्शनशास्त्र की ओर ले जाती है । ” इस पुस्तक में दुर्वीम ने यह स्पष्ट किया कि प्रत्येक सामाजिक घटना एक सामाजिक तथ्य है जिसका ‘ वस्तु ‘ की भांति अध्ययन किया जा सकता है । इस दृष्टिकोण से पुस्तक के विभिन्न अध्यायों में दुर्थीम ने सामाजिक तथ्यों की प्रकृति , समाजिक एवं व्याधिकीय तथ्यों के अन्तर तथा सामाजिक तथ्यों का अवलोकन करने के नियमों की विवेचना की है । समाज शास्त्र में दुर्थीम की यह पुस्तक इस दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है कि इससे पूर्व कॉम्ट तथा स्पेन्सर जैसे विद्वानों ने समाजशास्त्रीय अध्ययन की पद्वति के बारे में कोई स्पष्ट विचार प्रस्तुत नहीं किये थे । कॉम्ट की पुस्तक ‘ द कोर्स ऑफ पाजिटिव फिलॉसफी ‘ ( The Course of Positive Philosophy ) में केवल एक अध्याय में ही पद्धतिशास्त्रीय नियमों की संक्षेप में विवेचना की गयी थी जबकि स्पेन्सर की पुस्तक ‘ स्टडी ऑफ सोशियोलॉजी ‘ ( Study of Sociology ) में पद्धति शास्त्रीय समस्याओं से सम्बन्धित कोई चर्चा तक नहीं की गयी । इस दृष्टिकोण से ‘ समाजशास्त्रीय पद्धति के नियम ‘ पुस्तक के द्वारा दुीम ने एक ऐसा समाजशास्त्रीय होने का गौरव प्राप्त कर लिया जिन्होंने सबसे पहले तार्किक आधार पर समाज शास्त्रीय पद्धतियों का विवेचन प्रस्तुत किया ।

( 3 ) आत्महत्या ( The Suicide ) – फ्रेंच भाषा में इस पुस्तक का प्रकाशन ‘ ली सुसाइड ‘ ( Le Suicide ) के नाम से सन् 1897 में हुआ । इस पुस्तक में दुर्थीम ने समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से वैयक्तिक विघटन की विस्तृत विवेचना प्रस्तुत की । आत्महत्या का अध्ययन करने के लिए दुर्शीम ने पहली बार समाजशास्त्र में संख्यात्मक आँकड़ों का उपयोग किया । इसी के फलस्वरूप समाजशास्त्रीय अध्ययनों में वस्तुनिष्ठ अध्ययन की परम्परा आरम्भ हो सकी । यह विवाद आज भी बना हुआ है कि समाज शास्त्र से सम्बन्धित अध्ययनों में वस्तुनिष्ठ आधार को प्रधानता दी जानी चाहिए अथवा विषयगत ( Subjective ) आधार को , लेकिन इतना सुनिश्चित है कि समाज शास्त्र में संख्यात्मक आँकड़ों के आधार पर सैद्धान्तिक विश्लेषण करने तथा समाज शास्त्र की प्रकृति को वैज्ञानिक बनाने में दुर्थीम का योगदान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है ।

धार्मिक जीवन के मूल स्वरूप ( The Elementary Forms of Religious Life ) – एक लम्बे अन्तराल के बाद दुर्थीम की इस पुस्तक का प्रकाशन सन 1912 में हुआ । फैच भाषा में इस पुस्तक का नाम ‘ लेस फार्स एलीमेन्टेयर लीजियस Des Formes Elementaire De LaVie Religieuse ) है । दुर्चीम ने इस पुस्तक में जिस सिद्धान्त को प्रतिपादित किया उसे ‘ धर्म के समाज शास्त्र ‘ का प्रमुख आधार माना जाता है । इस पुस्तक में एक ओर फ्रांस की धार्मिक स्थिति तथा प्रथम विश्व युद्ध में फ्रांस के धार्मिक समूहों पर पड़ने वाले प्रभावों का प्रतिबिम्ब देखने को मिलता है तो दूसरी ओर फ्रांस की क्रान्ति से उत्पन्न होने वाले प्रभावों की भी पुस्तक में स्पष्ट झलक दिखायी देती है । दुर्थीम ने जिस समय धर्म सम्बन्धी विचार प्रस्तुत किये , उस समय जर्मनी में मैक्स वेबर तथा इटली में परेटो भी धर्म और समाज के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन कर रहे थे । इन दोनों विद्वानों के चिन्तन ने दुीम को कुछ सीमा तक अवश्य प्रभावित किया लेकिन इसके बाद भी इस पुस्तक के द्वारा दुर्वीम ने धर्म के जिस सामाजिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया उसकी प्रकृति वेबर तथा परेटो की विवेचना से बिलकुल भिन्न है । उपर्युक्त प्रमुख ग्रन्थों के अतिरिक्त दुर्थीम द्वारा लिखे गये अनेक लेखों का भी समाजशास्त्रीय साहित्य में विशेष स्थान है । सन् 1917 में दुर्वीम की मृत्यु के पश्चात् उनकी पत्नी ल्यूसी ने उनके अनेक लेखों का संयोजन करके कुछ अन्य पुस्तकें भी प्रकाशित करवाई । सन् 1922 में उनकी पुस्तक ‘ शिक्षा का समाजशास्त्र ‘ ( Sociology of Education ) प्रकाशित हुई जिसमें समाजशास्त्रीय आधार पर शिक्षा के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है । इसके बाद सन् 1924 में ‘ दर्शनशास्त्र तथा समाजशास्त्र ‘ ( Sociologie et Philosophy ) का प्रकाशन हुआ जबकि सन् 1925 में ‘ शिक्षा – नीति ‘ ( Education Morale ) नामक पुस्तक प्रकाशित हुई । यह सच है कि समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से दुर्थीम के सभी विचार अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन प्रस्तुत विवेचन में हम दुीम द्वारा प्रस्तुत उन प्रमुख विचारों पर प्रकाश डालेंगे जो कॉम्ट के समान दुर्थीम को भी एक प्रत्यक्षवादी विचारक के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं ।

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