इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या
( Materialistic Interpretation of History )
कार्ल मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को स्पष्ट करने के लिए इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या प्रस्तुत की । इसी को मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद ‘ ( Historical Materialism ) कहा जाता है । इतिहास से सम्बन्धित अपने पूर्ववर्ती विचारकों से असहमत होते हुए मार्क्स ने बतलाया कि दुनिया में आज तक जो इतिहास लिखा गया है , वह केवल राजा – महाराजाओं तथा कुछ विशेष तारीखों का विवरण है । विश्व के इतिहासकारों ने साधारण लोगों के इतिहास की चर्चा नहीं की है । इसके विपरीत , वास्तविकता यह है कि जब तक हम जनसाधारण के इतिहास को नहीं समझ लेते , तब तक सामाजिक विकास की प्रक्रिया को नहीं समझा जा सकता । राजाओं के इतिहास अथवा उनके उत्थान और पतन के क्रम के आधार पर सम्पूर्ण समाज की परिवर्तन – धारा को समझना सम्भव नहीं है । अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ साम्यवादी घोषणा – पत्र ‘ ( Communist Manifesto ) के अन्तर्गत ने मार्स इतिहास की व्याख्या भौतिकवादी आधार पर प्रस्तुत की । इस पुस्तक के मुखपृष्ठ पर मार्क्स ने अपने विचारों का निचोड़ देते हुए यह लिखा कि ‘ दुनिया का आज तक का इतिहास वर्ग – संघर्ष का इतिहास है । ‘ इतिहास की भौतिक वादी व्याख्या प्रस्तुत करते हुए मार्क्स ने समाज के सम्पूर्ण इतिहास को पांच युगों में विभाजित किया । इन सभी युगों में उत्पादन के साधनों तथा उत्पादन के सम्बन्धों में पाये जाने वाले अन्तविरोधों के साथ – साथ मार्क्स ने विभिन्न युगों के बीच पाये जाने वाले द्वन्द्व तथा इस द्वन्द्व के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली संश्लेषण की दशा को भी स्पष्ट किया ।
1 ) आदिम साम्यवाद ( Oriental Communism ) मार्क्स के अनुसार आदिम साम्यवाद मानव समाज की पहली अवस्था है । इस युग में मनुष्य जंगलों में निवास करता था तथा जीवन – यापन के लिए कन्दमूल और जंगली फलों पर आश्रित था । इस युग में मनुष्य के पास किसी तरह के हथियार या उपकरण नहीं थे । जीवन – यापन के लिए वह जंगलों से उपलब्ध होने वाले प्राकृतिक उत्पादन पर ही आश्चित था । मार्क्स के अनुसार आदिम साम्यवाद के इस युग में व्यक्तिगत सम्पत्ति का पूर्ण अभाव था । यह समाज एक वर्ग – विहीन समाज था जिसमें न कोई व्यक्ति अमीर था और न ही गरीब । इस युग में विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए मार्क्स ने बतलाया कि धीरे – धीरे मनुष्य हथियारों का निर्माण करने लगा । आरम्भ में इन हथियारों के द्वारा जंगली जानवरों का शिकार किया जाता था लेकिन धीरे – धीरे हथियारों के द्वारा शक्तिशाली लोगों ने दुर्बल लोगों का शोषण करना आरम्भ कर दिया । इस आधार पर मार्क्स ने लिखा कि ‘ शोषण के क्षेत्र में हथियार मानव की पहली पूंजी है । ‘ इस प्रकार मार्क्स ने यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया कि आदिम साम्यवादी युग के अन्तिम चरण में जब मनुष्य ने उत्पादन के साधन के रूप में हथियारों को निर्माण कर लिया , तब कुछ व्यक्तियों द्वारा अन्य व्यक्तियों का शोषण किया जाने लगा । आदिम साम्यवादी युग में हथियारों के रूप में जब कुछ लोगों के पास उत्पादन के साधनों की शक्ति का केन्द्रीय करण हो गया , तब इसका प्रतिवाद उत्पन्न होने लगा । आदिम साम्यवाद के इस प्रति वाद को मार्क्स ने ‘ दास युग ‘ कहा ।
( 2 ) दास युग ( Age of Slavery ) मानव समाज के इतिहास में दास युग को कार्ल मार्क्स ने इतिहास की दूसरी अवस्था के रूप में स्पष्ट किया । मार्क्स ने बतलाया कि आदिम साम्यवादी युग में जब व्यक्ति ने पशुओं को मारने के स्थान पर उन्हें पालकर रखना आरम्भ कर दिया तभी से व्यक्तिगत सम्पत्ति का प्रादुर्भाव हुआ । पशुपालन और कृषि के लिए मनुष्यों ने जब घुमन्तू जीवन छोड़कर एक क्षेत्र में स्थायी रूप से रहना आरम्भ किया , तब उत्पादन के साधनों में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर ही दास युग का आरम्भ हुआ । इस युग में हथियारों की शक्ति के आधार पर शक्तिशाली लोगों ने अन्य लोगों को दास बनाना आरम्भ कर दिया । इसका उद्देश्य पशूपालन तथा खेती के लिए अधिक से अधिक लोगों को काम पर लगाना था । दास युग की इस स्थिति में कुछ व्यक्तियों के पास ही उत्पादन के साधनों का स्वामित्व केन्द्रित होने लगा । दास युग की विशेषताओं के अनुरूप ही उस समय की सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन होने लगे । धीरे – धीरे सम्पूर्ण समाज में दास प्रथा का प्रचलन बढ़ने लगा । उस समय सम्पूर्ण समाज दो वर्गों में अर्थात् ‘ मालिकों और उनके ‘ दासों ‘ में विभाजित हो गया । मालिकों द्वारा अपने दासों का इतना शोषण किया जाने लगा कि दासों को भी वस्तु की तरह खरीदा और बेचा जाने लगा । जिस व्यक्ति के पास जितने अधिक दास होते समाज में उसे उतना ही अधिक धनी और प्रतिष्ठित समझा जाता था । मार्स का कथन है कि दास युग का प्रादुर्भाव विश्व के अनेक समाजों में लगभग एक साथ हा तथा दासों को पशुओं के समान खरीदने और बेचने की दशा भी विभिन्न समाजों . . में लगभग समान प्रकृति की थी । जिस समय दास युग अपनी पराकाष्ठा पर था , उस समय कूछ स्वामियों के पास दास – दासियों की संख्या हजारों तक पहुँच गयी । मार्क्स के अनुसार दास युग की अन्तिम अवस्था में ही कृषि का विस्तार होने लगा तथा धीरे – धीरे समाज में उत्पादन के साधनों में परिवर्तन की प्रक्रिया दिखायी देने लगी । कृषि का विस्तार होने के साथ ही सामन्तवाद का प्रादुर्भाव होने लगा ।
( 3 ) सामन्तवाद ( Feudalism ) मास का कथन है कि आदिम साम्यवाद तथा दास युग के बीच उत्पन्न होने वाले अन्तर्विरोधों के संश्लेषण अथवा परिणाम के रूप में सामन्तवाद का जन्म हुआ । जैसा कि पहले दिये गये चित्र से स्पष्ट है कि आदिम साम्यवाद तथा दास युग क्रमशः वाद तथा प्रतिवाद की दशा को स्पष्ट करते हैं जबकि इन दोनों के बीच होने वाले द्वन्द्व के परिणामस्वरूप संश्लेषण के रूप में सामन्तवाद की स्थिति उत्पन्न हई । मार्क्स ने बतलाया कि सामन्तवाद की दशा में समाज में दो वर्गों का निर्माण हो गया । इनमें पहला वर्ग जमींदारों ( Land Lords ) का था तथा दूसरा वर्ग अर्द्ध – दास किसानों ( Serfs ) का । सामन्तवादी युग के किसानों को मार्क्स ने ‘ अर्द्ध – दास ‘ इसलिए कहा कि उनका जीवन पूर्णतया स्वतन्त्र नहीं था । ‘ यह सच है कि सामन्त वादी युग में किसानों को दासों की तरह खरीदा या बेचा नहीं जाता था लेकिन यह किसान जमींदारों की शक्ति और इच्छाओं के पूर्णतया अधीन थे । उत्पादन के साधनों में होने वाले इस परिवर्तन के कारण सम्पूर्ण समाज का ढाँचा बदलने लगा । कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था में धर्म , परिवार , नैतिकता , आदर्श नियमों तथा अन्य सांस्कृतिक संस्थाओं का रूप बदलने लगा । दास युग में मालिक द्वारा अपने दासों से काम लेने पर उन्हें जीवित रहने लायक भोजन दिया जाता था किन्तु सामन्तवादी व्यवस्था में किसानों को जमीन पर खेती करने के बदले में अपने जमींदार को लगान दना आवश्यक था चाहे सूखा या बाढ़ के कारण वह कोई भी फसल पैदा न कर सक । इस दृष्टिकोण से सामन्तवाद की दशा में किसानों की स्थिति दासों से बहुत अच्छी नहीं थी । एक प्रादुर्भाव के पश्चात् समाज में धीरे – धीरे आदिम साम्यवाद की त्यात समाप्त हाने लगी । इस यम में दास प्रथा और सामन्तवाद केवल दाहा अवस्थाएं बच गयीं । पूर्व चित्र से स्पष्ट होता है कि इस काल में दास प्रथा तथा सामन्त के बीच द्वन्द्व होने लगा । अर्थात् यह वह समय था जब बाल समान जीवन व्यतीत कर रहा था जबकि दूसराव सामन्तों के रूप में सभी तरह के अधिकारों से युक्त था । दास युग और सामन्तवाद के द्वन्द्व के कारण सामन्तों ने अपनी पूंजी की सहायता से उत्पादन के तरीकों को पुनः बदलना आरम्भ कर दिया । इसके फलस्वरूप समाज में पूंजीवादी युग का प्रादुर्भाव हुआ । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सामन्तवाद के युग में दास युग तथा सामन्तवाद ने क्रमश : वाद और प्रतिवाद का रूप ले लिया जबकि इसका संश्लेषण | पूंजीवाद के रूप में हमारे सामने आया । स्पष्ट है कि दास युग और सामन्तवाद के बीच चलने वाले द्वन्द्व के परिणामस्वरूप भौतिक साधनों में जो परिवर्तन हुए , उसी के आधार पर पूंजीवादी युग का आरम्भ हुआ ।
( 4 ) पूँजीवाद ( Capitalism ) उत्पादन के साधनों के रूप में जब बड़ी – बड़ी मशीनों का उपयोग किया जाने लगा , तभी से पूंजीवादी युग का आरम्भ हआ । मार्क्स के अनुसार इस युग में उत्पा दन के साधनों का स्वामित्व समाज के पूंजीपति वर्ग के हाथ में आ गया । इसके फलस्वरूप समाज पुनः दो वर्गों में विभाजित हो गया – पहला वर्ग वह जिसका पूंजी पर अधिकार था तथा दूसरा वह जो पूंजीपतियों के हाथों अपना श्रम बेचने के लिए बाध्य था । मार्क्स ने पहले वर्ग को बुर्जुआ ( Bourgeosie ) तथा दूसरे को सर्वहारा वर्ग ( Proletariate ) के नाम से सम्बोधित किया है । उद्योगों की स्थापना के कारण सामन्तवादी युग के जमींदारों में से जिन लोगों ने औद्योगिक उत्पादन पर एकाधिकार कर लिया , उनसे बुर्जुआ वर्ग का निर्माण हुआ तथा दास जीवन से मुक्त होकर या कृषि को छोड़कर जो लोग उद्योगों में श्रमिकों के रूप में काम करने लगे , वे सर्वहारा वर्ग का हिस्सा बन गये । सर्वहारा वर्ग से मार्क्स का तात्पर्य उस वर्ग से है जो अपना सब कुछ हार चुका है । मार्स ने बतलाया कि दास अथवा किसान के रूप में अपनी शारीरिक शक्ति या जमीन पर की जाने वाली खेती के कारण उन लोगों के जीवन का कुछ महत्व अवश्य था । दास और किसान एक ऐसी अर्थव्यवस्था से जुड़े हुए थे जिसमें उनका जीवन कुछ सीमा तक सुरक्षित भी था । लेकिन वे श्रमिक जो दासता या किसानी से मुक्त होकर उद्योगों में अपना श्रम बेचने लगे , वे अपना सब कुछ हार गये । इसीलिए श्रमिक वर्ग को ‘ सर्वहारा वर्ग ‘ का नाम दिया गया । मार्क्स का कथन है जब समाज में पूंजीवाद का प्रभाव बढ़ने लगा तब धीरे धीरे दास युग समाप्त हो गया । पृष्ठ 158 पर दिए गये चित्र से स्पष्ट है कि इस काल – क्रम में सामन्तवाद ने वाद का रूप ले लिया जबकि पूंजीवाद उसका प्रतिवाद बन गया । मार्क्स के अनुसार सामन्तवाद और पंजीवाद के इस द्वन्द्व में पूंजीवाद ने सामन्तवाद को पूंजी के हथियार से समाप्त करना आरम्भ कर दिया । धीरे – धीरे समाज की सामन्तवादी अर्थव्यवस्था टूटने लगी तथा पूँजीवाद ‘ में तेजी से वृद्धि होने लगी । जवादी युग में पंजीपति वर्ग ने अपने हाथों में पूंजी का अधिक से अधिक केन्द्राकरण करना भाभकर दिया । इसके फलस्वरूप समाज में जो प्रमुख दशाएं उत्पन्न हुई , उन्हें मावर्स ने दरिद्रीकरण , ध्रुवीकरण तथा अलगाव का नाम दिया है ।
दरिद्रीकरण ( Paupcrization ) जनसाधारण में पायी जाने वाली वह व्यापक निर्धनता है जो कुछ लोगों के हाथ में ही पूंजी का संचय हो जाने के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई । माक्स ने स्पष्ट किया कि जब समाज में बुर्जुआ और सर्वहारा जैसे दो वर्गही शेष रह गये तो स्वयं पूंजीपतियों की आपसी प्रतियोगिता के कारण बुर्जुआ लोगों की संख्या भी निरन्तर कम होती चली गयी । दूसरी ओर सर्वहारा वर्ग के लोगों की संख्या में दिनोंदिन वृद्धि होने लगी । इस दशा का नाम ध्रवीकरण ( Pohirzation ) है । समाज में जब दरिद्रीकरण और ध्रुवीकरण में और अधिक वृद्धि हुई , तब श्रमिक लोग अपने आप को मानसिक रूप से निराश , असहाय और असमर्थ समझने लगे । इसी दशा को मार्क्स ने अलगाव की दशा ( Alienation ) कहा है । पूंजीपति वर्ग अपनी पूंजी की शक्ति से ही सर्वहारा वर्ग का शोषण करता है । इस शोषण में पंजी को ठीक उसी तरह हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है जिस तरह आदिम साम्यवादी युग में हथियारों के द्वारा शक्तिशाली लोग कमजोर लोगों का शोपण करते थे । इस दृष्टिकोण से मार्क्स ने बुर्जुआ वर्ग को पूँजीवादी युग के सबसे प्रमुख हथियार के रूप में स्पष्ट किया ।
( 5 ) साम्यवाद ( Communism ) मार्क्स के चिन्तन के समय तक पूंजीवादी युग ही चल रहा था । इसलिए वाद प्रतिवाद तथा संश्लेषण के रूप में मार्क्स ने अपनी द्वन्द्ववादी पद्धति का उपयोग आदिम साम्यवादी युग से लेकर पूंजीवादी युग तक के सामाजिक विकास को स्पष्ट करने के लिए ही किया । अपने से पूर्व के भौतिक इतिहास को आधार मानते हुए मार्क्स ने यह बतलाया कि जब पूँजीवाद विकास की चरम अवस्था पर पहुंच जायेगा , तब सामन्तवाद तथा पूंजीवाद के बीच उत्पन्न होने वाले द्वन्द्व के फलस्वरूप साम्य वाद के रूप में एक नया संश्लेषण सामने आयेगा । इस स्थिति में सर्वहारा वर्ग संगठित होकर उत्पादन के साधनों पर अपना अधिकार कर लेगा । यह एक ऐसी दशा होगी जिसमें उत्पादनों के साधनों पर पूरे समाज का अधिकार होगा तथा उत्पादक शक्ति का उपयोग सभी के लाभ के लिए किया जायेगा । इस स्थिति में कोई भी सम्पत्ति व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होगी और न ही किसी व्यक्ति को सम्पत्ति के इस्ता न्तरण का अधिकार होगा । प्रत्येक व्यक्ति को उसकी कुशलता और क्षमता के अनुसार कार्य दिया जायगा तथा उसकी आवश्यकता के अनुसार ही उसे सुविधाएं प्राप्त होंगी । इस साम्यवादी समाज में कोई वर्ग – भेद नहीं होगा । मार्क्स का कथन है कि साम्यवादी युग की स्थापना के लिए श्रमिक वर्ग पूंजीपति वर्ग को उसी हाल देशा जिस हथियार से पूंजीपतियों ने सामन्तवाद को नष्ट वि
मार्क्स ने यह स्पष्ट किया कि पूंजीवादी समाज की स्थापना में उत्पादन के मानों तथा उत्पादन के स्वरूप ( mode of production ) के बीच होने वाला संघर्ष महत्त्वपूर्ण होगा । इसके अन्तर्गत जो नये उत्पादन सम्बन्ध स्थापित होंगे , उनका आधार व्यक्तियों द्वारा किये जाने वाला श्रम होगा । इसी से समाज में सर्वहारा वर्ग की सत्ता स्थापित होगी । इस साम्यवादी व्यवस्था में कोई अन्तविरोध नहीं होगा , अतः साम्यवादी युग ही सामाजिक विकास के इतिहास का अन्तिम और स्थायी स्तर रहेगा । उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचना से स्पष्ट होता है कि मार्क्स ने भौतिक शत्तियों के बीच चलने वाले द्वन्द्व के आधार पर इतिहास की विवेचना करके सामाजिक विकास को बिलकुल नये रूप से स्पष्ट किया । साथ ही , आपने जिस द्वन्द्ववादी पद्धति की सहायता से भौतिक दशाओं के प्रभाव का स्पष्ट किया , वह मार्क्स के चिन्तन की विशिष्टता को स्पष्ट करती है । वास्तविकता तो यह है कि मावर्स द्वारा प्रतिपादित आथिक निर्णायकवाद , अतिरिक्त मूल्य तथा वर्ग – संघर्ष के सिद्धान्तों पर भी उनकी द्वन्द्ववादी पद्धति के प्रभाव की स्पष्ट झलक दिखलायी देती है । इस दृष्टिकोण से द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को मार्क्स का सर्वप्रमुख विचार कहा जा सकता है ।
समालोचनात्मक मूल्यांकन ( Critical Appraisal )
मार्क्स द्वारा प्रस्तुन द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धान्त एक तार्किक पद्धति तथा सुसम्बद्ध विचारों पर आधारित है । इस सिद्धान्त के आधार पर मार्क्स का उद्देश्य सामाजिक विकास के आधारभूत कारण को स्पष्ट करनी तथा पूँजीवादी व्यवस्था के स्थान पर साम्यवादी व्यवस्था की अनिवार्यता को स्पष्ट करना था । मार्क्स ने बतलाया कि द्वन्द्वात्मक विकासवाद के अनुसार समाज में परिवर्तन होना अनिवार्य है । भौतिक दशाओं के बीच होने वाला द्वन्द्व एक सार्वभौमिक नियम है , अतः यह भी आवश्यक है कि जिस तरह प्राचीन युग में दासों के मालिकों और मध्य युग के सामन्तों का प्रभाव समाप्त हो गया , उसी तरह पूंजीपतियों द्वारा श्रमिकों का शोषण भी अधिक समय तक नहीं चल सका । द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के द्वारा मार्क्स ने सामाजिक विकास के विभिन्न स्तरों तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों को ही स्पष्ट नहीं किया बल्कि इसके आधारभूत कारण को भी बहुत व्यवस्थित और तार्किक रूप से प्रस्तुत किया । मासं का विश्वास था कि कोई सिद्धान्त तभी व्यावहारिक बन सकता है जब वह जनसाधारण की महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं और हितों को पूरा करने में योगदान कर सके । यह काम एक निर्पेक्ष विचार के आधार पर नहीं हो सकता बल्कि इसके लिए उन भौतिक पदार्थों को ध्यान में रखना आवश्यक है जो मनुष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने से सम्बन्धित होते हैं । इन भौतिक पदार्थों के सन्दर्भ में ही वाद , प्रतिवाद तथा संश्लेषण के रूप में द्वन्द्व की अनिवार्यता को समझा जा सकता है तथा इन्हीं के आधार पर विभिन्न वर्गों के बीच होने वाले संघर्ष की यथार्थ विवेचना की जा सकती है । इस दृष्टिकोण से मार्क्स द्वारा प्रस्तुत द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया जाता चाहिए । उपयुक्त विशेषताओं के बाद भी अनेक विद्वानों ने मास के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में पायी जाने वाली कुछ विसंगतियों अथवा दोषों को स्पष्ट किया है । इन्हें समझे बिना द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के बारे में मासं के विचारों का वास्तविक मूल्यांगन नहीं किया जा सकता । ( 1 ) सर्वप्रथम यह कहा जाता है कि मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त में अनेक अन्तविरोध हैं ।
अपनी द्वन्द्ववादी पद्धति के द्वारा मास ने यह स्पष्ट किया कि वाद के रूप में प्रत्येक दशा को एक प्रतिवाद अवश्य उत्पन्न होता है । लेकिन साथ ही मार्स ने साम्यवादी युग को विकास की अन्तिम दशा कहते हए यह मान लिया कि इसका कोई प्रतिवाद उत्पन्न नहीं होगा । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि या तो मार्स ने इस तथ्य का गहन अध्ययन नहीं किया कि किसी बाद का प्रतिवाद किन दशाओं में उत्पन्न होता है अथवा मास का यह कथन गलत है कि साम्यवादी व्यवस्था का कोई प्रतिवाद उत्पन्न नहीं होगा । ( 2 ) वर्तमान युग में मिलने वाले उदाहरणों से मासं की द्वन्द्ववादी पद्धति का महत्व तो स्पष्ट होता है लेकिन माम्यवादी समाजों के बारे में मार्क्स के निस्कर्ष वैज्ञानिक प्रतीत नहीं होते । इसका कारण यह है कि चीन और रूस की वर्तमान आर्थिक तथा राजनैतिक परिस्थिति से यह स्पष्ट होने लगा है कि साम्यवादी समाजों में भी प्रतिवाद की स्थिति उत्पन्न हो गकती है और इसके फलस्वरूप संश्लेषण के । भाप में कोई नया परिवर्तन सामने आ सकता है । ( 3 ) द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की विवेचना में मावसं द्वारा दिया गया सामाजिक विकास का क्रम सार्वभौमिक नहीं है । इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है किमास ने इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति तथा वहाँ की पूजीवादी व्यवस्था के आधार पर ही इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या प्रस्तुत की । मार्क्स ने जिस रूप में इतिहास की व्याख्या भौतिकवादी इन्द्रवादी पद्धति के आधार पर प्रस्तुत की , उसके अनुसार थमिकों द्वारा की जाने वाली क्रान्ति सबसे पहले इंग्लैण्ड में होनी चाहिए थी और वहीं सर्वहारा वर्ग की सत्ता के आधार पर साम्यवाद की स्थापना होनी चाहिए थी । इसके विपरीत , इंग्लैण्ड में पूंजीवाद आज भी अपने उसी रूप में है । दूसरी ओर ध्य और चीन जैसे देशों में पूंजीवाद की स्थापना हुए बिना ही वहाँ साम्यवाद की स्थापना । हो गयी । इससे पहले इन दोनों देशों का समाज सामन्तवादी समाज था । इसका । तात्पर्य है कि किसी देश में सामन्तवाद के बाद पूंजीवाद और पूंजीवाद के बाद साम्यवाद का आना आवश्यक नहीं है । ( 4 ) मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त में इन्द्र के अन्तर्गत हिंसात्मक संघर्ष को विशेष महत्त्व दिया है । उनके अनुसार एक विशेष अवस्था ।
दोषों के कारण ही प्रतिवाद की स्थिति जन्म लेती है तथा संश्लेषण के रूप में एक नयी दिशा उत्पन्न करती है । लेकिन गावर्स ने द्वन्द्व से उत्पन्न होने वाले उन रचनात्मक तथ्यों को स्पष्ट नहीं किया जिनके फलस्वरूप आदिम साम्यवादी युग में पशुपालन का जन्म हुआ अथवा जो दास युग को विकसित कृषि के स्तर तक ले गये । इसका तात्पर्य यह है कि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के द्वारा मार्क्स का उद्देश्य पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध श्रमिकों को मानसिक रूप से तैयार करना मात्र था । उपर्युक्त आरोपों में कुछ तथ्य हो सकता है लेकिन फिर भी इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी चिन्तन एक बड़ी सीमा तक इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति से उत्पन्न होने वाली दशाओं से प्रभावित था तथा इसके द्वारा मार्क्स ने इतिहास की सामाजिक विवेचना को एक नया रूप देने का प्रयत्न किया ।