आधुनिकीकरण
SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में
( Modernization ) :
परम्परात्मक समाजों में होने वाले परिवर्तनों या औद्योगीकरण के कारण पश्चिमी समाजों में आये परिवर्तनों को समझने तथा दोनों में भिन्नता को प्रकट करने के लिए विद्वानों ने आधुनिकीकरण को अवधारणा का जन्म दिया । एक तरफ उन्होंने परम्परात्मक समाज को रखा और दूसरी तरफ आधुनिक समाज को । इस प्रकार उन्होंने परम्परात्मक बनाम आधुनिकता को जन्म दिया । इसके साथ ही जब पाश्चात्य विद्वान उपनिवेशों एवं विकासशील देशों में होने वाले परिवर्तनों की चर्चा करते हैं तो वे आधुनिकीकरण की अवधारणा का सहारा लेते हैं । कुछ लोगों ने आधुनीकीकरण को एक प्रक्रिया के रूप में माना है तो कुछ ने एक प्रतिफल के रूप में । आईजन स्टैंड ने इसे एक प्रक्रिया मानते हुए लिखा हैं , “ ऐतिहासिक दृष्टि से आधुनिकीकरण उस प्रकार की सामाजिक , आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्थाओं की ओर परिवर्तन की प्रक्रिया है जो सत्रहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी तक पश्चिमी यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका में और बीसवीं शताब्दी तक दक्षिणी अमेरिका एशियाई व अफ्रीकी देशों में विकसित हुई । ” आधुनिकीकरण की प्रक्रिया किसी एक ही दिशा या क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन को प्रकट नहीं करती वरन् यह एक बहु – दिशा वाली प्रक्रिया है । साथ ही यह किसी भी प्रकार के मूल्यों से भी बँधी हुई नहीं है । परंतु कभी – कभी इसका अर्थ अच्छाई और इच्छित परिवर्तन से लिया जाता है ।
उदाहरण के लिए जब कोई यह कहता है कि सामाजिक , आर्थिक और धार्मिक संस्थाओं का आधुनिकीकरण हो रहा है , तब उसका उद्देश्य आलोचना करना नहीं वरन् अच्छाई बताना है । आधुनिकीकरण की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए अब तक कई पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों ने समय – समय पर अपना विचार प्रकट किया है और इस अवधारणा को अनेक नामों से सम्बोधित किया है । आधुनीकिकरण पर अपने विचार प्रकट करने वाले विद्वानों में कुछ प्रमुख में हैं , वाईनर , एयटर लर्नर , बैक , एलेक्स इन्कालेक्स , ए ० आर ० देसाई , वाई सिंह , एम ० एन ० श्रीनिवासन , एडवर्ड शिल , डब्ल्यू ० सी ० स्मिथ आदि । आधुनीकिकरण शब्द के पर्यायवाची रूप में अंग्रेजीकरण , यूरोपीकरण , पाश्चात्यकरण , नगरीकरण , उद्विकास , विकास प्रगति आदि शब्दों का प्रयोग भी हुआ है । औद्योगीकरण , नगरीकरण एवं पश्चिमीकरण की तरह आधुनिकीकरण भी एक जटिल प्रक्रिया है ।
आधुनिकीकरण परिभाषा एवं अर्थ : अब तक विभिन्न विद्वानों ने आधुनिकीकरण पर बहुत कुछ लिखा है और इसे अनेक रूपों में परिभाषित किया है । यहाँ हम कुछ विद्वानों द्वारा प्रस्तुत परिभाषाओं एवं विचारों का उल्लेख , करेंगे । मैस्मिन जे ० लेवी ने आधुनिकीकरण को प्रोद्योगिक वृक्ष के रूप में परिभाषित किया है । मैं , इन दो तत्वों में से प्रत्येक को सातत्य का आधार मानता हूँ । उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि लेवी ने शक्ति के जड़ स्रोत जैसे पेट्रोल , डीजल , कोयला , जल – विद्युत और अणु – शक्ति और यन्त्रों के प्रयोग को आधुनिकीकरण के आधार के रूप में माना है । किसी समाज विशेष को कितना आधुनिक कहा जायेगा , यह इस बात पर निर्भर करता है कि वहाँ जड़ शक्ति तथा यन्त्रों का कितना प्रयोग हुआ है ।
डा ० योगेन्द्र सिंह ने बताया है कि साधारणतः आधुनिक होने का अर्थ ‘ फैशनेबल ‘ से लिया जाता है । वे आधुनिकीकरण को एक सांस्कृतिक प्रयत्न मानते हैं जिसमें तार्किक अभिवृति , सार्वभौम दृष्टिकोण , परानुभूति वैज्ञानिक विश्व दृष्टि , मानवता , प्रौद्योगिक प्रगति आदि सम्मिलित हैं । डॉ ० सिंह आधुनिकीकरण पर किसी एक ही जातीय समूह या सांस्कृतिक समूह का स्वामित्व नहीं मानते वरन् सम्पूर्ण मानव समाज का अधिकार मानते हैं ।
डेनियल लर्नर ने अपनी पुस्तक ‘ दी पासिंग आफ ट्रेडिसनल सोसायटी मॉर्डनइिजिंग दा मीडिल ईस्ट ‘ में आधुनिकीकरण को पश्चिमी मॉडल स्वीकार किया है । वे आधुनिकीकरण में निहित निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख करते हैं
( a ) बढ़ता हुआ नगरीकरण
( b ) बढ़ती हुई साक्षरता
( c ) बढ़ती हुई साक्षरता विभिन्न साधनों जैसे समाचार – पत्रों , पुस्तकों , रेडियो आदि के प्रयोग द्वारा शिक्षित लोगों के अर्थपूर्ण विचार – विनियम में सहभागिता को बढ़ाती है ।
( d ) इन सभी से मनुष्य की दक्षमता में वृद्धि होती है , राष्ट्र को आर्थिक लाभ होता है जो प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाने में योग देता है ।
( e ) यह राजनैतिक जीवन की विशेषताओं को उन्नत करने में सहायता देता है ।
लर्नर उपयुक्त विशेषताओं को शक्ति , तरुणाई , निपुणता तथा तार्किकता के रूप में व्यक्त करते हैं । वे आधुनिकीकरण को प्रमुखतः मस्तिक की एक स्थिति के रूप में स्वीकार करते हैं , प्रगति की अपेक्षा वृद्धि की ओर झुकाव तथा परिवर्तन के अनुरूप अपने को ढालने की तत्परता के रूप में मानते हैं । परानुभूति भी आधुनिकीकरण का एक मुख्य तत्व है जिसमें अन्य लोगों के सुख दुख में भाग लेने और संकट के समय उनको सहायता देने की प्रवृत्ति बढ़ती है ।
आइजनस्टैड ने अपनी पुस्तक आधुनिकीकरण : विरोध एवं परिवर्तन में विभिन्न क्षेत्रों में आधुनिकीकरण को निम्न प्रकार से व्यक्त किया है
( a ) आर्थिक क्षेत्र में : प्रौद्योगिकी का उच्च स्तर ।
( b ) राजनीतिक क्षेत्र में : समूह में शक्ति का प्रसार तथा सभी वयस्कों को शक्ति प्रदान करना ( मताधिकार द्वारा ) एवं संचार के साधनों द्वारा प्रजातंत्र में भाग लेना ।
( c ) सांस्कृतिक क्षेत्र में : विभिन्न समाजों के साथ अनुकूलन की क्षमता में वृद्धि तथा दूसरे लोगों की परिस्थितियों के प्रति परानुभूति में वृद्धि ।
( d ) संरचना के क्षेत्र में : सभी संगठनों के आकार का बढ़ना , उसमें जटिलता एवं विभेदीकरण की दृष्टि से वृद्धि ।
( e ) पारिस्थितिकीय क्षेत्र में : नगरीकरण में वृद्धि ।
डॉ ० राज कृष्ण ने आधुनिकीकरण एवं आधुनिकता में अंतर दिखाते हुए आधुनिकता को आधुनिकीकरण से अधिक व्यापक माना है । इसके अनुसार आधुनिकीकरण एक ऐसी सभ्यता की ओर इंगित करता है जिसमें साक्षरता तथा नगरीकरण का उच्च स्तर तथा साथ ही लम्बवत् और भौगोलिक गतिशीलता , प्रति व्यक्ति उच्च आय और प्रारम्भिक स्तर से उच्च स्तर की अर्थ – व्यवस्था जो कमी के स्तर ( उत्पन्न – बिंदु के परे जा चुकी हो ) समाविष्ट है । दूसरी ओर आधुनिकता , एक ऐसी संस्कृति को बताती है जिसकी विशेषता का निर्धारण तार्किकता , व्यापक रूप में उदार दृष्टिकोण , मतों की विविधता तथा निर्णय लेने के विभिन्न केन्द्र , अनुभव के विभिन्न क्षेत्रों की स्यायत्तता , धर्म – निरपेक्ष , आचार – शास्त्र तथा व्यक्ति के निजी संसार के प्रति आदर के रूप में होता है ।
सी ० ई ० ब्लेक ने आधुनिकीकरण को ऐतिहासिक रूप में स्वीकार किया है और इसे परिवर्तन की एक ऐसी प्रक्रिया माना है जो पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका में सत्रहवीं सदी में विकसित , सामाजिक , आर्थिक एवं राजनैतिक व्यवस्थाओं में बीसवीं सदी के अमेरिका तथा यूरोप आदि देशों की ओर अग्रसर हो सकी है । आधुनिकीकरण एक ऐसी मनोवृत्ति का परिणाम है जिसमें यह विश्वास किया जाता है कि समाज को बदला जा सकता है और बदला जाना चाहिए तथा परिवर्तन वांछनीय है । आधुनिकीकरण में व्यक्ति के संस्थाओं के बदलते हुए कार्यों के अनुरूप समायोजन करना होता है , इससे व्यक्ति के ज्ञान में वृद्धि होती है जिसके परिणामस्वरूप वह पर्यावरण पर नियन्त्रण प्राप्त कर लेता है । ब्लेक के अनुसार आधुनिकीकरण का प्रारम्भ तो यूरोप व अमेरिका से हुआ परंतु बीसवीं सदी तक इसका प्रसार संपूर्ण विश्व में हो गया और इसने मानवीय संबंधों के स्वरूप को ही परिवर्तित कर दिया ।
डॉ ० एस ० सी ० दुबे आधुनिकीकरण को मूल्यों से युक्त मानते हैं ।
( 1 ) मानव समस्याओं के हल के लिए जड़ – शक्ति का प्रयोग ।
( 2 ) ऐसा व्यक्तिगत रूप से न करके सामूहिक रूप से किया जाता है । परिणामस्वरूप जटिल संगठनों का निर्माण होता है । शिक्षा को आधुनिकीकरण का एक सशक्त साधन मानते हैं क्योंकि शिक्षा ज्ञान की वृद्धि करती है एवं मूल्यों तथा धाराओं में परिवर्तन लाती है जो आधुनिकीकरण के उद्देश्य तक पहुँचने के लिए बहुत आवश्यक है । डॉ ० एम ० एन ० श्रीनिवास ने ‘ सोशल चेन्ज इन मॉर्डन इंडिया ( 1966 ) तथा मार्डनाइजेशन : ए फ्यू क्यूरीज ‘ ( 1969 ) , में आधुनिकीकरण के संबंध में अपने विचार व्यक्त किये हैं । आप आधुनिकीकरण को एक तटस्थ शब्द नहीं मानते , आपके अनुसार आधुनिकीकरण का अर्थ अधिकांशतः ‘ अच्छाई ‘ से लिया जाता है । किसी भी पश्चिमी देश के प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्पर्क के कारण किसी गैर – पश्चिमी देशों में होने वाले परिवर्तनों के लिए प्रचलित शब्द आधुनिकीकरण है । आप आधुनिकीकरण में निम्नलिखित बातों को सम्मिलित करते हैं : बढ़ा हुआ नगरीकरण , साक्षरता का प्रसार , प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि , वयस्क माताधिकार तथा तर्क का विकास ।
डॉ ० श्रीनिवास ने आधुनिकीकरण के तीन प्रमुख क्षेत्र बताये हैं
- भौतिक संस्कृति का क्षेत्र ( इसमें तकनीकी भी सम्मिलित की जाती है )
- सामाजिक संस्थाओं का क्षेत्र , और
- ज्ञान , मूल्य एवं मनोवृत्तियों का क्षेत्र ।
ऊपरी तौर पर तो ये तीनों क्षेत्र भिन्न – भिन्न मालूम पड़ते हैं , परंतु ये परस्पर सम्बन्धित हैं । एक क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन दूसरे क्षेत्र को भी प्रभाविक करते हैं । बी ० वी ० शाह ने ‘ प्रोबलम आफ मॉर्डनाइजेशन आफ एजुकेशन इन इंडिया : ( 1969 ) ‘ नामक लेख में आधुनिकीकरण पर अपने विचार प्रकट किये हैं । शाह आधुनिकीकरण को बहूद्देशीय प्रक्रिया मानते हैं जो आर्थिक , सामाजिक , राजनैतिक आदि सभी क्षेत्रों में व्याप्त है । ( a ) आर्थिक क्षेत्र में आधुनिकीकरण का अर्थ है : औद्योगिकीकरण का बढ़ना , अधिक उत्पादन , मशीनीकरण , मुद्रीकरण व नगरीकरण में वृद्धि । व्यक्ति व सामूहिक सम्पत्ति में भेद किया जाता है । रहने और कार्य करने के स्थान अलग – अलग होते हैं , लोगों को व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता होती है । उनमें तर्क और गतिशीलता की वृद्धि होती है । आय , खरीद , बचत तथा पूँजी लगाने के क्षेत्र में नये दृष्टिकोण का विकास होता है । ( b ) राजनैतिक क्षेत्र में धर्म – निरपेक्ष व कल्याण राज्य की स्थापना होती है जो शिक्षा , स्वास्थ्य , मकान एक रोजगार की व्यवस्था करता । कानून के समक्ष सभी को समानता प्रदान की जाती है तथा सरकार के चुनने अथवा बदलने में स्वतंत्रता व्यक्त करने की छूट होती है ।
( c ) सामाजिक क्षेत्र में संस्तरण की खुली व्यवस्था होती है । प्रदत्त पद के स्थान पर अर्जित पदों का महत्त्व होता है तथा सभी को अवसर की समानता दी जाती है , विवाह , धर्म , परिवार तथा व्यवसाय के क्षेत्र में वैयक्तिक स्वतंत्रता पर बल दिया जाता है । ( d ) वैयक्तिक क्षेत्र में सामाजिक परिवर्तन के लिए मानव प्रयत्नों में विश्वास किया जाता है ।
धर्म निरपेक्ष , तार्किक , वैज्ञानिक और विश्वव्यापी दृष्टिकोण का विकास होता है । सामाजिक समस्याओं के प्रति समानतावादी और स्वतंत्रात्मक दृष्टिकोण अपनाया जाता है । ए ० आर ० देसाई आधुनिकीकरण का प्रयोग केवल सामाजिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं बल्कि जीवन के सभी पहलुओं तक विस्तृत मानते हैं । बौद्धिक क्षेत्र में आधुनिकीकरण का अर्थ तर्क शक्ति का बढ़ना है । भौतिक व सामाजिक घटनाओं की तार्किक व्याख्या की जाती है । ईश्वर को आधार मानकर किसी भी घटना को स्वीकार नहीं किया जाता । धर्मनिरपेक्ष तार्किकता का परिणाम है जिसके फलस्वरूप अलौकिक जाति के स्थान पर इस दुनिया का दृष्टिकोण पनपता है ।
सामाजिक क्षेत्र में : ( a ) सामाजिक गतिशीलता बढ़ती है । पुरानी सामाजिक , आर्थिक , राजनैतिक तथा मनोवैज्ञानिक धारणाओं को तीव्र कर व्यक्ति नये प्रकार के व्यवहार को अपनाने को प्रस्तुत होता है । ( b ) सामाजिक संरचना में परिवर्तन – व्यक्ति के व्यावसायिक एवं राजनैतिक कार्यों में परिवर्तन आता है , प्रदत्त के स्थान पर अर्जित पदों का महत्त्व बढ़ता है । ( c ) समाज की केन्द्रीय कानूनी , प्रशासकीय तथा राजनैतिक संस्थाओं का विस्तार एवं प्रसार । ( d ) प्रशासकों द्वारा जनता की भलाई की नीति अपनाना ।
आर्थिक क्षेत्र में : ( a ) उत्पादन , वितरण , यातायात तथा संचार आदि में पशु और मानव शक्ति के स्थान पर जड़ शक्ति का प्रयोग करना । ( b ) आर्थिक क्रियाओं का परम्परात्मक स्वरूप से पृथक्करण । ( c ) मशीन , तकनीकी एवं औजारों का प्रयोग । ( d ) उच्च तकनीकी के प्रभाव के कारण उद्योग , व्यवसाय , व्यापार आदि में वृद्धि । ( 1 ) आर्थिक कार्यों में विशेषीकरण का बढ़ना , साथ ही उत्पादन उपभोक्ता विशेषता कह सकते हैं । ( 2 ) अर्थव्यवस्था में उत्पादन तथा उपभोग में वृद्धि ।
सांस्कृतिक क्षेत्र में : ( a ) बढ़ता हुआ औद्योगीकरण जिसे हम आर्थिक आधुनिकीकरण की प्रमुख विशेषता कह सकते हैं । पारिस्थितिकीय शास्त्रीय क्षेत्र में नगरीकरण की वृद्धि होती है । ( b ) शिक्षा का विस्तार तथा विशेष प्रकार की शिक्षा देने वाली संस्थाओं में वृद्धि । ( c ) नये सांस्कृतिक दृष्टिकोण का विकास जो उन्नति व सुधार , योग्यता सुख अनुभव व क्षमता पर जोर दे । ज्ञान का बढ़ना , दूसरों का सम्मान करता , ज्ञान व तकनीकी में विश्वास पैदा होना तथा व्यक्ति के उसके कार्य का प्रतिफल मिलना और मानवतावाद में विश्वास । ( d ) समाज द्वारा ऐसी संस्थाओं और योग्यताओं का विकास करना जिससे कि लगातार बदलती हुई माँगों और समस्याओं से समायोजन किया जा सके । इस प्रकार श्री देसाई ने आधुनिकीकरण को एक विस्तृत क्षेत्र के संदर्भ में देखा है जिसमें समान संस्कृति के सभी पहलू आ जाते हैं ।
आधुनिकीकरण पर भारतीय और पश्चिमी विद्वानों के उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट है कि उन्होंने इस अवधारणा का प्रयोग परम्परात्मक , पिछड़े तथा उपनिवेश वाले देशों की पश्चिमी , पूँजीवादी एवं औद्योगीकरण व नगरीकरण कर रहे देशों के साथ तुलना करने के लिए किया है जो कि उनमें हो रहे नवीन परिवर्तनों की और इंगित करती है ।
बौद्धिक क्षेत्र में आधुनिकीकरण का अर्थ भौतिक एवं सामाजिक घटनाओं को तार्किक व्याख्या करना तथा उन्हें कार्य कारण के आधार पर स्वीकार करना है । सामाजिक क्षेत्र में आधुनिकीकरण होने पर गतिशीलता बढ़ती है , पुरानी प्रथाओं के स्थान पर नवीन मूल्य पनपते हैं , जटिल संस्थाओं का जन्म होता है , रक्त – संबंध आदि में शिथिलता आती है । राजनैतिक क्षेत्र में सेना को अलौकिक शक्ति ही देन परिवार नहीं माना जाता सत्ता का लोगों में विकन्द्रीकरण और वयस्क मताधिकार द्वारा सरकार का चयन होता है । आर्थिक क्षेत्र में मशीनों का . उपयोग बढ़ता है तथा उत्पादन जड़ – शक्ति के प्रयोग द्वारा होता है । यातायात के साधनों का विकास होता है और औद्योगीकरण बढ़ता है , परिस्थितिजन्य क्षेत्र में नगरीकरण बढ़ता है ।
सांस्कृतिक क्षेत्र में आधुनिकीकरण कारण का तात्पर्य नये सांस्कृतिक दृष्टिकोण का विकास और व्यक्ति में नवीन गुणों के प्रादुर्भाव से है । विभिन्न विद्वानों के उपर्युक्त विचारों से आधुनिकीकरण की निम्नलिखित विशेषताओं का पता चलता है घटनाओं की विवेकपूर्ण व्याख्या , सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि , धर्म – निरपेक्षता व लैकिकीकरण , वयस्क मताधिकार द्वारा राजनैतिक सत्ता का लोगों में हस्तान्तरण बढता हुआ नगरीकरण , वैज्ञानिक दृष्टिकोण , औद्योगीकरण , प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि शिक्षा का प्रसार , परानुभूति , जड़ शक्ति का प्रयोग , नवीन व्यक्तित्व का विकास , प्रदत्त के स्थान पर अर्जित पदों का महत्व , वस्तु – विनियम के स्थान पर द्रव्य – विनियम , व्यवसायों में विशिष्टता , यातायात एवं संचार व्यवस्था का विकास , चिकित्सा एवं स्वास्थ्य में वृद्धि तथा प्राचीन कृषि विधि के स्थान पर नवीन विधियों का प्रयोग । इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिकीकरण एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें अनेक तत्वों का समावेश है तथा जो जीवन के भौतिक , आर्थिक , राजनैतिक , सामाजिक , धार्मिक एवं बौद्धिक सभी वस्तुओं से सम्बन्धित है । यह अवधारणा हमें परम्परात्मक समाजों में होने वाले परिवर्तनों को समझने में योग देती है । आज विश्व में कहीं परम्परात्मक समाज दिखलाई पड़ता है , तो कहीं आधुनिक समाज । इनकी तुलना करने तथा परिवर्तन की प्रकृति और दिशा को समझने में यह अवधारणा उपयोगी है ।
आधुनिकीकरण का प्रारूप
( Forms of Modernization ) :
प्रश्न उठता है कि कौन – से परिवर्तन होने , कौन – सी स्थिति पैदा होने या कौन – सी प्रक्रिया प्रारम्भ होने पर उसे हम आप आधुनिकीकरण कहकर पुकारेंगे । साधारणतः आधुनिकीकरण के आदर्श पाश्चात्य देश एवं उनमें होने वाले परिवर्तन ही रहे हैं । जैसा कि बैनडिक्स कहते हैं “ आधुनिकीकरण से मेरा तात्पर्य उस किस्म के सामाजिक परिवर्तनों से है जो 1760-1830 में इंगलैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति तथा 1789-1794 में फ्रांस की राजनैतिक क्रांति के दौरान उत्पन्न हुए । ” वर्तमान प्रजातंत्र , शिक्षा प्रणाली और औद्योगिक क्रान्ति का प्रारम्भ अधिकांशतः पश्चिमी देशों में ही हुआ । अतः यदि उन परिवर्तनों का जो सामाजिक , आर्थिक , राजनैतिक और अन्य क्षेत्रों में पश्चिमी देशो में हुए ।
दूसरे देशों में अनुकरण होता है तो वह आधुनिकीकरण के नाम से जाना जायेगा । अतः इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि प्रारम्भ में आधुनिकीकरण का प्रारूप पश्चिमी देश ही रहे हैं , अब चाहे रूप , चीन , जापान या अन्य देश में आधुनिकीकरण के आदर्श के रूप में हों , रूडोल्फक एवं फूट ल्फ ने भी इसी बात की पुष्टि की है । लर्नर का मत है कि पश्चिमी मॉडल केवल ऐतिहासिक दृष्टि से पश्चिमी है , समाजशास्त्रीय दृष्टि से विश्वव्यापी ।
आधुनिकीकरण बनाम परम्परा :
एक सामान्य धारणा आधुनिकीकरण एवं परम्परा को एक – दूसरे का विरोधी मानने की है । इन्हें एक युग्म के रूप में स्वीकार किया जाता है । रूडोल्फ एवं रूडोल्फ लिखते हैं– “ वर्तमान सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तनों के विश्लेष्ण में आधुनिकीकरण का प्रयोग साधारणतः परम्परा के विरोधी रूप में किया गया है । पश्चिमी और गैर – पश्चिमी समानों की तुलना में भी इन दोनों अवधारणाओं का प्रयोग हुआ है । समाज की प्रगति , परिवर्तन और उद्विकास परम्परा में आधुनिकीकरण की ओर माने गये हैं । बेनडिक्स ने आधुनिक के स्थान पर विकसित तथा परम्परात्मक के स्थान पर अनुगामी शब्दों का प्रयोग किया है । यह ठीक है कि परम्परात्मक समाज वर्तमान आधुनिकृति समाजों का सामाजिक , आर्थिक , राजनैतिक , सांस्कृतिक , बौद्धिक , शैक्षणिक सभी क्षेत्रों में अनुकरण समाज में परम्पराओं का कोई महत्व नहीं है ।
एडवर्ड शील्स लिखते हैं , “ परम्परात्मक समाज किसी भी तरह से पूर्णतया परम्परात्मक नहीं है , आधुनिक समाज किसी तरह से परम्परामुक्त नहीं है । ‘ ‘ किसी भी आधुनिकता का निर्माण भी परम्परा के कन्धों व अनुभवों पर ही होता है । इस नाते वह भूत एवं वर्तमान के बीच एक कड़ी है । प्रो ० शील्स परम्परा व आधुनिकता को एक सातत्यता के रूप में स्वीकार करते हैं । आधुनिक समाज भी पूर्णतः आधुनिक नहीं है , विज्ञान की तरह ही आधुनिकीकरण भी खुले उद्देश्य वाला प्रक्रिया है । इसकी प्रकृति उद्विकासीय है , जो स्वतः परिवर्तित होती और आगे बढ़ती रहती है । अतः कोई भी समाज यह दावा नहीं कर सकता कि उसका पूरी तरह से आधुनिकीकरण हो गया है या वह पूरी तरह आधुनिक है ; वरन् वहाँ आधुनिकीकरण एक मात्रा में मौजूद है ।
संस्कृतिकरण एवं पश्चिमीकरण में अंतर :
संस्कृतिकरण तथा पश्चिमीकरण की प्रकृति को देखने से स्पष्ट होता है कि यह दोनों प्रक्रियाएँ इस दृष्टिकोण से परस्पर सम्बन्धित हैं कि यह दोनों एक – दूसरे का कारण और परिणाम हैं । एक ओर पश्चिमी प्रौद्योगिकी तथा सामाजिक मूल्यों ने संस्कृतिकरण को प्रोत्साहन दिया , जबकि दूसरी ओर , संस्कृतिकरण में वृद्धि होने से पश्चिमी संस्कृति के मूल्यों का अधिक तेजी से प्रसार होने लगा । इसके बाद भी एम ० एन ० श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण तथा पश्चिमीकरण की अवधारणा से संबंधित अनेक भिन्नताओं को स्पष्ट किया है ।
- संस्कृतिकरण एक स्वदेशी अथवा आंतरिक प्रक्रिया है जो भारत की परम्परागत सामाजिक संरचना में होने वाले आन्तरिक परिवर्तनों को स्पष्ट करती है । दूसरी ओर , पश्चिमीकरण एक विदेशी प्रक्रिया है तथा इसका संबंध इन बाह्य प्रभावों से है जिन्होंने हमारे समाज में अनेक परिवर्तन उत्पन्न किये ।
- संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का क्षेत्र सीमित है क्योंकि यह केवल जातिगत गतिशीलता से ही संबंधित है । पश्चिमीकरण एक व्यापक प्रक्रिया है जिसने भारतीय जीवन के सभी पक्षों को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है ।
- मूल रूप से संस्कृतिकरण का आधार धार्मिक है । इसके द्वारा निम्न जातियाँ उच्च जातियों के धार्मिक कर्मकाण्डों और पवित्रता संबंधी आचरणों को अपनाकर अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयत्न करती है । इसके विपरीत , पश्चिमीकरण का आधार लौकिक और वैज्ञानिक है ।
- संस्कृतिकरण तथा पश्चिमीकरण के मूल्यों की प्रकृति भी एक – दूसरे से भिन्न है । संस्कृतिकरण के मूल्य हिन्दुओं की वृहत् परम्पराओं को प्रोत्साहन देते हैं तथा मांस और मदिरा के
प्रयोग को अपवित्र मानकर उन पर रोक लगाते हैं , पश्चिमीकरण के मूल्य इस अर्थ में आधुनिक है कि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता , समानता , सामाजिक न्याय और तर्कपूर्ण व्यवहारों को अधिक महत्त्व देते हैं । –
- संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो निम्न जातियों तथा जनजातियों में उच्च जातियों की जीवन शैली के समान होने वाले परिवर्तनों को स्पष्ट करती है । दूसरे शब्दों में , इसका प्रभाव निम्न जातियों तथा जनजातियों तक ही सीमित होता है । दूसरी ओर , प्रभाव के दृष्टिकोण से पश्चिमीकरण एक व्यापक प्रक्रिया है क्योंकि इसने भारतीय समाज में सभी वर्गों , जातियों तथा समुदायों के जीवन को प्रभावित किया है ।
- विभिन्न क्षेत्रों में संस्कृतिकरण के आदर्श एक – दूसरे से भिन्न होते हैं । किसी क्षेत्र में इसका संबंध उच्च जातियों की जीवन शैली के अनुकरण से है तो किसी क्षेत्र में प्रभु जाति के रूप में कोई पिछड़ी या निम्न जाति भी संस्कृतिकरण का आदर्श हो सकती है । दूसरी ओर , पश्चिमीकरण का एक ही आदर्श है अर्थात् पश्चिमी जीवन शैली तथा मूल्यों को ग्रहण करना ।
- संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो जातीय संस्तरण में व्यक्ति की स्थिति में पदमूलक , परिवर्तन करती है । इस प्रकार संस्कृतिकरण से उदग्र गतिशीलता को प्रोत्साहन मिलता है । इसके विपरीत , पश्चिमीकरण के प्रभाव से लोगों को जातीय प्रस्थिति में किसी तरह का परिवर्तन नहीं होता ।
- भारतीय इतिहास में संस्कृतिकरण की प्रक्रिया किसी न किसी रूप में सदैव विद्यमान रही है । इसके विपरीत , पश्चिमीकरण की प्रक्रिया का आरम्भ ब्रिटिश शासन के समय से हुआ तथा स्वतंत्रता के बाद इसमें अधिक तेजी से वृद्धि हुई ।
लौकिकीकरण या धर्मनिरपेक्षीकरण :
लौकिकीकरण अथवा धर्मनिरपेक्षीकरण वह प्रक्रिया है जिसके परिणामस्वरूप किसी समाज में धर्म के आधार पर सामाजिक व्यवहार में भेदभाव समाप्त किया जाता है । धर्मनिरपेक्षीकरण जो बुद्धिवाद पर आधारित है , आधुनिकीकरण के लिए आवश्यक है , चूँकि प्रत्येक समाज अब आधुनिकृत होना चाहता है , इसलिए वह धर्मनिरपेक्षीकरण को आश्रय दे रहा है । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में जो भी राज्य धर्म निरपेक्ष राज्य नहीं था , आज वहाँ भी धर्मनिरपेक्षीकरण की बात की जा रही है । लौकिकीकरण में धर्म की पुनर्व्याख्या , बुद्धिवाद और उदारवाद का सीधा संबंध है । डॉ ० श्रीनिवास ने इस प्रक्रिया का विस्तृत विश्लेषण किया है ।
धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया समाज की एक मूलभूत विशेषता हो गयी है । आज से कुछ दशाब्दी पूर्व भारत में जिन कृत्यों को धार्मिक तथा पवित्र समझा जाता था आज उन्हें व्यर्थ के रूढ़िवादी अतार्किक व्यवहार के रूप में देखा जाता है , एक धर्म तथा जाति का जो विशेष प्रभाव स्वीकार किया जाता रहा है , अब वह उस प्रकार से प्रभावी नहीं रहा है । विभिन्न विचारकों का मत है कि भारत में धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया को गति देने का क्षेय अंग्रेजी शासन को है । अंग्रेजी शासन अपने साथ भारतीय सामाजिक जीवन और संस्कृति के लौकिकीकरण की प्रक्रिया भी लाया । यह प्रवृति संचार साधनों के विकास और नगरों की बढ़ी हुई स्थानमूलक गतिशीलता और शिक्षा के प्रसार के साथ – साथ क्रमशः और भी प्रबल हो गई । दोनों महायुद्धों और महात्मा गाँधी के नागरिक अवज्ञा आन्दोलनों ने जन – साधारण के राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से सक्रिय तो किया ही , लौकिकीकरण की वृद्धि में भी योग दिया । सन् 1947 के बाद भारत में धर्मनिरपेक्षीकरण की प्राप्ति का जो प्रत्यल किया है , वह वास्तव में उल्लेखनीय है ।
स्वतंत्र भारत के संविधान में यह लिखा हुआ है कि ‘ भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होगा । ‘ कानून की दृष्टि में भी नागरिकों में धर्म , जाति , लिंग आदि के आधार पर कोई भेद भाव नहीं होगा । संसद सभा विधानसभाओं के लिये चुनाव बालिग मताधिकार के आधार पर होगा और भारतीय भूभागों का विकास निष्पक्ष योजनाबद्ध कार्यक्रमों के आधार पर सम्पादित होगा ।
धर्मनिरपेक्षीकरण का अर्थ : शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से यह वह प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति के अस्तित्व , महत्त्व , पहचान या विकास का धर्म के साथ कोई संबंध नहीं जोड़ा जाता है धर्मनिरपेक्षीकरण का प्रत्यक्ष संबंध तार्किक दृष्टिकोण से है । इसके अन्तर्गत विश्व की व्याख्या विशुद्ध चिन्तन के रूप में प्रस्तुत की जाती है धर्मनिरपेक्षीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा परम्परागत विश्वासों तथा धारणाओं के स्थान पर तार्किक ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है । प्रो ० श्रीनिवास ने स्पष्ट लिखा है कि ‘ धर्मनिरपेक्षीकरण ‘ में यह बात निहित है कि जिसे पहले धार्मिक माना जाता था , अब वह वैसा नहीं माना जाता है उन्होंने इसका स्पष्टीकरण देते हुए लिखा है कि , उसमें विभेदीकरण की एक प्रक्रिया भी निहित है जिसके परिणामस्वरूप समाज के विभिन्न आर्थिक , राजनीतिक , कानूनी तथा नैतिक पक्ष एक दूसरे के मामले में अधिकाधिक सावधान होते जा रहे हैं । इस प्रकार श्रीनिवास ने लौकिकीकरण को मात्र धर्मनिरपेक्षता के अर्थ में नहीं समझा । इनके अनुसार लौकिकीकरण की दो विशेषताएँ प्रमुख हैं
- प्रथम तो यह प्रक्रिया इस भावना से सम्बन्धित है कि हम पहले जिसे धार्मिक मानते थे उसे अब धर्म की श्रेणी में नहीं रखते ।
- दूसरी विशेषता यह है कि इस प्रक्रिया के अन्तर्गत हम प्रत्येक तथ्य को तर्क बुद्धि से देखने और समझने का प्रयत्न करते हैं । परम्परागत रूप से हमारे सामाजिक जीवन में इन दोनों विशेषताओं का नितान्त अभाव था । कोई व्यक्ति सामाजिक व्यवस्था की सार्थकता के बारे में तर्क नहीं कर सकता था क्योंकि सम्पूर्ण व्यवस्था को धर्म से मिला दिया गया था । कन्साईज आक्सफोर्ड शब्दकोष में लौकिकीकरण की कई परिभाषाएँ दी गई हैं । इन परिभाषाओं को लोकवाद , धार्मिक विश्वासों के प्रति संदेहवाद तथा धार्मिक शिक्षा के प्रति विरोधाभास के रूप में बतलाया गया है । तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय शब्द कोष में लौकिकवाद की निम्न परिभाषा दी गई है । ” ( लौकिकवाद ) सामाजिक आचारों की एक ऐसी व्यवस्था है जो इस सिद्धान्त पर आधारित है कि आचार संबंधी मापदण्ड तथा व्यवहार विशेष रूप में धर्म से हटकर वर्तमान जीवन तथा सामाजिक कल्याण पर आधारित होने चाहिये । ” बाटर हाउस ने ” लौकिकीकरण की परिभाषा एक ऐसी वैचारिकी के रूप में की है जो जीवन तथा आचार व्यवहार का एक सिद्धान्त प्रस्तुत करती है , जो धर्म द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त के विरुद्ध है । इसका सार भौतिकवादी है । इसकी मान्यता यह है कि मानवीय कल्याण को केवल राष्ट्रीय प्रयासों के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । ” लेकिन बेकर ने यह मानने से इंकार किया है कि लौकिकवाद एक धर्मविरोधी अवधारणा है ।
इनका कहना है कि “ लौकिक ” ” अपवित्र ” या इसी प्रकार के अन्य शब्दों का पर्यायावाची नहीं है । ‘ ‘
ब्लेकशील्ड ने बेकर के इस विचार का समर्थन किया है । इन्होंने बतलाया है कि ” लौकिकवाद धार्मिक संस्थाओं का विरोध नहीं करता । नही यह विधि , राजनीतिक तथा शिक्षा संबंधी प्रक्रियाओं में धार्मिक उप्रेरणाओं का विरोधी है । इसमें तो केवल मनोवृत्तियों के प्रकार्यात्मक विभाजन पर बल दिया जाता है अर्थात् विभिन्न प्रकार की सामाजिक क्रियाओं में शक्तियों का सामाजिक विभाजन । ” ब्लेकशील्ड का कहना है कि धर्म , शिक्षा तथा विधि को एक दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिये और न ही अपने क्षेत्र को सीमाओं से बाहर जाना चाहिये । जिस सीमा तक धर्म अपनी ही सीमाओं के अन्दर रहता है वहाँ तक लौकिकवाद की अवधारणा धार्मिक निरपेक्ष मानी जा सकती है ।
यह न तो धार्मिकता का समर्थन करता है और न ही विरोध । इस प्रकार लौकिकवाद सामाजिक समस्याओं के क्षेत्र में वह स्थिति है जिसमे विधि तथा शिक्षा धार्मिक संस्थाओं तथा धार्मिक उत्प्रेरणाओं को स्वतंत्र होते हैं । लौकिकवाद तो एक ऐतिहासिक विकास की अवस्था है जिसमें विधि तथा शिक्षा का धर्म पर आधारित न होना स्थापित हो जाता है । इस प्रकार यदि लौकिकवाद की विभिन्न परिभाषाओं पर विचार किया जाय तो ऐसे अनेक विषयों की सूची बनायी जा सकती है जिनको इसके अन्तर्गत माना जाता है । जैसे : वैज्ञानिक मानववाद , प्रकृतिवाद और भौतिकवाद , अजेयवाद और प्रत्यक्षवाद , बौद्धिकवाद , प्रजातंत्रवाद तथा साम्यवाद , आशावाद तथा प्रगतिवाद , नैतिक सापेक्षवाद व शून्यवाद आदि ।
धर्मनिरपेक्षीकरण के आवश्यक तत्व :
- तार्किकता : धर्मनिरपेक्षीकरण का प्रत्यक्ष संबंध तार्किक दृष्टिकोण से है । इसके अन्तर्गत प्रघटना की संख्या विशुद्ध रूप में की जाती है । समाज में जितने भी व्यवहार तर्कहीन हैं , उन्हें इस प्रक्रिया द्वारा नकारा जाता है । इसी कारण इस प्रक्रिया में रूढ़िवादी , अतार्किक , परम्परागत विश्वासों तथा धारणाओं के स्थान पर तार्किक ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है । इसमें विभेदीकरण की एक प्रक्रिया भी निहित है जिसके परिणामस्वरूप समाज के विभिन्न आर्थिक , राजनैतिक , कानूनी , नैतिक और सामाजिक आदि अंग एक दूसरे से अधिकाधिक स्वतंत्र होते जाते हैं ।
- कार्य – कारण संबंध : धर्मनिरपेक्षीकरण में एक अन्य आवश्यक तत्व ‘ कार्य करण ‘ सम्बन्धों का प्रदर्शन है जिसे बुद्धिवाद से भी सम्बोधित किया जाता है । प्रो ० श्रीनिवास के अनुसार इसके अन्तर्गत पारम्परिक विश्वासों तथा धारणाओं के स्थान पर आधुनिक ज्ञान की स्थापना निहित है । धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया की यह विशेषता है कि यह पारस्परिक विश्वासों तथा तर्कहीन धारणाओं को यथासंभव नष्ट करने का प्रयत्न करती है । ऐसे विचार जो पारस्परिक हैं व जिन्हें कार्य कारण संबंध की कसौटी पर नहीं बक्सा जा सकता , वे अपने आप इस प्रक्रिया द्वारा समाप्त हो जाते हैं । यदि उनका अस्तित्व किसी प्रकार बना भी रहता है तो उन्हें उचित जनमत का समर्थन नहीं मिल पाता है ।
- पवित्रता – अपवित्रता की धारणा : हिन्दू धार्मिक आचरण में पवित्रता और अपवित्रता की धारणा प्रमुख रही है । इसी आधार पर विभिन्न जातियों की दूरी निश्चित होती है । इसी आधार पर जातियों में स्पर्श , विवाह और भोजन निषेध रहे हैं प्रत्येक हिन्दू को सामान्य जीवन में पवित्रता और अपवित्रता की धारणाएँ और कार्य जुड़े हुए हैं । जैसे : दाढ़ी बनाना ब्राह्मणों के लिये अपवित्र कार्य था । पिछले वर्षों में ये धारणाएँ क्षीण हुई हैं पवित्रता के नियमों का स्थान स्वास्थ्य और स्वच्छता के नियमों ने ले लिया । शिक्षित ब्राह्मणों और कट्टपंथियों ने धीरे – धीरे कट्टर नियमों के स्थान पर बुद्धि संगत व्याख्या को महत्त्व दिया है और पवित्रता को स्वास्थ्य नियमों का दूसरा रूप कहा है । श्रीनिवास ने मैसूर की ब्राह्मण स्त्रियों का उदाहरण दिया है और कहा है कि शिक्षित स्त्रियाँ अपवित्रता के बारे में बहुत अधिक चिंतित नहीं है , परन्तु स्वास्थ्य के नियमों को महत्त्व दे रही है । संयुक्त परिवार से अलग होने पर कर्मकाण्डों के इस रूढ़ रूप को छोड़ देती हैं । लौकिकीकरण को प्रक्रिया से अनेक कर्मकाण्डों को त्याग दिया गया है । नामकरण और अन्य कर्मकाण्ड जैसे : विधवा का मुण्डन अब प्रचलित नहीं है , संस्कारों को छोड़ने व संक्षिप्त करने की प्रक्रिया के साथ – साथ संस्कारों को मिला भी दिया जाता है जिससे व्यक्त जिन्दगी में समयाभाव को कम किया जा सके । यथा विवाह के साथ दो दिन पूर्व उपनयन संस्कार भी हो जाता है । —
84 भारत में सामाजिक परिवर्तन : दशा एवं दिशा विवाह संस्कार भी संक्षिप्त होता जा रहा है सर्वसंस्कार युक्त ब्राह्मण – विवाह जिसमें पहले 5 से 7 दिन लगते थे अब एक दिन या कुछ घण्टों में ही निपटा दिया जाता है । विवाह के समय निकट संबंधी ही उपस्थित रहते हैं , अन्य अतिथि केवल स्वागत समारोह में भाग लेते हैं । वर वधू को ऊँचे आसन पर बिठला कर संगीत आदि सुनना , बैण्ड बजवाना , अतिथियों को जलपान कराना आदि क्रियाएँ महत्त्वपूर्ण हो गयी हैं । परम्परागत व्यवस्था में जैसे सप्तवादी में 7-8-9 घण्टे लग जाते थे । अब बहुत जल्दी ही इन कार्यों से वर वधू को निवृत्त कर दिया जाता है ।
धर्मनिरपेक्षीकरण के उद्देश्य :
- धर्मनिरपेक्षीकरण का उद्देश्य धर्मनिरपेक्षता की प्राप्ति है । धर्मनिरपेक्षता से ताप्तर्य एक निश्चित प्रकार के व्यवहार से है जबकि धर्मनिरपेक्षीकरण एक प्रक्रिया है जो उस व्यवहार प्रतिमान को प्राप्त करने में मदद देती है । धर्मनिरपेक्षता व्यवहार की उस दशा को कहेंगे जहाँ राज्य , नैतिकता तथा शिक्षा आदि के ऊपर धर्म का अनावश्यक प्रभाव नहीं होता । अमेरिका में धर्मनिरपेक्षीकरण का अर्थ होता है कि समाज में राज्य तथा चर्च बिना एक दूसरे को प्रभावित किए हुए अपने – अपने अस्तित्व को बनाए रखें । यही कारण है कि जो शिक्षण संस्थाएँ वहाँ चर्च द्वारा चलाई जाती हैं राज्य सरकार उसे अनुदान नहीं देती है । भारतवर्ष में धर्मनिरेपक्षता का अर्थ पश्चिम में लिये गये अर्थ से कुछ भिन्न है । यहाँ धर्म निरपेक्षता का अर्थ होता है कि राज्य किसी भी धर्म को आश्रय नहीं देता , लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि यदि कोई धार्मिक संस्था किसी शिक्षण संस्था को चलाती है तो राज्य सरकार उसे अनुदान नहीं देगी ।
सांस्कृतिक विकास के लिये तथा विभिन्न सम्प्रदायों के सह – अस्तित्व के लिए यदि आवश्यक हुआ तो राज्य सरकार विभिन्न धार्मिक संस्थाओं को निर्देशित कर सकती है । जैसे : केन्द्र सरकार द्वारा गौ – हत्या पर प्रतिबन्ध है जबकि कुछ धर्म इस प्रकार के प्रतिबन्ध को अवांछनीय मानते हैं । भारत में इस बात की व्यवस्था है कि कानून तथा आग्रह के माध्यम से धर्म के दोषों को दूर किया जाय । जैसे : हिन्दू धर्म के विभिन्न दोष दूर किये गये । इस्लाम धर्म के दोषों को भी इस प्रकार दूर किया जा । अब भारत में धर्म के प्रति विद्यमान परम्परागत दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है । यद्यपि मुसलमानों का ‘ परसनल लाँ ‘ अभी भी आधुनिकीकृत होना है , भारत में धर्मनिरपेक्षता के मार्ग में भारतीय समाज स्वयं बाधक रहा है । हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदाय धर्म के माध्यम से अपने – अपने उद्देश्यों को पूरा करते रहे हैं । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अब विभिन्न राजनीतिक दल धर्म के माध्यम से राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा कर रहे हैं , जो धर्म निरपेक्षता के मार्ग में बाधक हैं ।
सरकारी तथा विरोधी दल कोई भी पूर्ण धर्मनिरपेक्षता के लिए सक्रिय नहीं दीखता । जवाहर लाल नेहरू ने 14 अगस्त , 1947 के सत्ता मिलने के समय कहा था कि इस अर्ध रात्रि के समय जब पूरा विश्व सो रहा है , भारत स्वतन्त्र जीवन के लिए जागेगा । इस स्वतंत्र जीवन का आधार धर्मनिरपेक्षता होगा । वह राष्ट्र अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकता जो साम्प्रदायिकता तथा धर्म पर आधारित होगा । भारत केवल एक धर्म निरपेक्ष तथा प्रजातांत्रिक राज्य होगा जहाँ प्रत्येक नागरिक को चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी क्यों न हो , उसे समान अधिकार प्राप्त होंगे ।
- धर्मनिरपेक्षीकरण का दूसरा उद्देश्य धर्मनिरपेक्ष राज्य की प्राप्ति है । धर्मनिरपेक्ष राज्य वह है जहाँ प्रत्येक नागरिक को समान अवसर समानता के आधार पर प्राप्त है और जहाँ समाज नागरिकों के कार्य – कलापों में धर्म के आधार पर व्यवधान नहीं डालता । डी ई स्मिथ ने धर्मनिरपेक्ष राज्य की व्याख्या करते हुए लिखा है कि वह राज्य जो लोगों को धर्म के स्वतंत्रता की गारंटी देता है , प्रत्येक धर्म अनुयायी को नागरिक की मान्यता देता है वह मात्र संवैधानिक रूप से किसी विशेष धर्म से सम्बन्धित नहीं होना चाहिये और न ही वह किसी धर्म विशेष को प्रगति और सकता
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ 85 – अवनति से सम्बन्धित हो । धर्मनिरपेक्ष राज्य का शाब्दिक अर्थ है कि वह राज्य जो किसी धर्म विशेष में आस्था नहीं रखता है । अतः धर्मनिरपेक्ष राज्य एक व्यक्ति को एक नागरिक के रूप में देखता है न कि किसी विशेष धार्मिक समूह के सदस्य के रूप में । धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म के आधार पर लोगों के अधिकार तथा कर्त्तव्य की व्याख्या नहीं होती । भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 की धारा एक में यह घोषणा की गई है कि राज्य धर्म , प्रजाति , जाति , लिंग तथा जन्म स्थान के आधार पर लोगों में भेदभाव नहीं करेगा । इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्मनिरपेक्षीकरण के कारण भारत एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में प्रवतरित हुआ है जहाँ धार्मिक भेदभाव है । वैसे अब धर्म का समाज में वह स्थान नहीं रहा जो पाँच दशाब्दी पूर्व था ।
धर्मनिरपेक्षीकरण की विशेषताएँ :
- बुद्धिवाद का विकास : धर्मनिरपेक्षीकरण के कारण प्रत्येक घटना के लिये धर्म पर आश्रित रहने की बात समाप्त हो जाती है । आदिम व्यक्ति प्रत्येक सामाजिक घटना का धर्म तथा अलौकिक शक्ति की देन मानता था लेकिन जैसे – जैसे बुद्धिवाद का विकास हुआ कार्य कारण सम्बन्धों की व्याख्या बढ़ी और वास्तविक कारणों की जानकारी के कारण धर्म का महत्त्व कुछ कम हुआ । अब प्रत्येक व्यक्ति तार्किक व्यवहार को उचित मानता है ।
- धार्मिकता में ह्रास : धर्मनिरपेक्षीकरण के कारण धार्मिक संस्थाओं का महत्त्व अब कम हुआ है । इसका कारण यह है कि धर्म के नाम पर अब उच्च या निम्न प्रस्थिति का निर्धारण नहीं होता । पहले जो व्यक्ति जितने अधिक धार्मिक कर्मकाण्ड करता था उसे उतना हो अधिक सम्मान दिया जाता था । लेकिन अब उसी व्यक्ति को पिछड़ा हुआ व्यक्ति कहा जाता है जो अपने कार्यों की सफलता असफलता को धर्म में ढूँढ़ता है । अतः स्पष्ट है कि जैसे – जैसे धर्मनिरेपक्षीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ती है धर्म का महत्त्व कम होता है , और इस प्रकार धार्मिकता में ह्रास होता है ।
- बढ़ता हुआ विभिन्नीकरण : पहले प्रत्येक घटना के पीछे धर्म को प्रभावी कारक मान लिया जाता था और प्रत्येक घटना की व्याख्या धर्म के ही आधार पर की जाती थी चाहे वह अपराध हो या बीमारी , मृत्यु हो या प्राकृतिक प्रकोप , लेकिन अब प्रत्येक घटना के अलग – अलग और वास्तविक कारणों की खोज की जाती है जिसमें सामान्यतः धार्मिक और आध्यात्मिक शक्ति के प्रभाव को कम से कम स्वीकारा जाता है । इस स्थिति के कारण विभिन्नीकरण की मात्रा बढ़ जाती है । विशिष्ट प्रकार के कार्य करने वाले अलग – अलग लोग होते हैं । अतः उनमें दूरी स्वाभाविक है ।
- आधुनिकीकरण की प्राप्ति में सहायक : वर्तमान में आधुनीकरण की लहर बड़े जोरों पर थी । प्रत्येक समाज अब अपने को आधुनिक कहलाना चाहता है जिसके लिये आवश्यक हो जाता है कि परम्परागत व्यवहारों में परिवर्तन लाया जाये । धर्मनिरपेक्षीकरण भी परम्परागत व्यवहारों को बदलता है । यथा – स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भारत में विभिन्न धर्म और धर्मवाद की भावना सूत्र फलफूल रही थी । किन्तु स्वतंत्रता संग्राम से ही जो धर्मनिरपेक्षीकरण की स्वाभाविक लहर उठी उसने इस प्रयास को बहुत कम कर दिया । स्वतंत्रता प्राप्त होने पर ज्यों ही भारत ने अपने को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया , यहाँ के परम्परागत व्यवहार प्रतिमानों में आमूल परिवर्तन आए । वर्तमान में देश में ऐसे परिवर्तन हो रहे हैं जो सामाजिक विकास और आधुनिकीकरण के लिये आवश्यक है । अतः कहा जा सकता है कि धर्मनिरपेक्षीकरण आधुनिकीकरण में सहायक है ।
- समानता का विकास : प्राचीन काल में भारतवर्ष में अनेक प्रकार की सामाजिक विभिन्नताएँ पाई जाती थीं , भारत में धर्म , जाति , लिंग आदि के आधार पर विस्तृत विभेद किया जाता था । एक ही प्रकार के अपराध करने पर भिन्न – भिन्न धर्मों में भिन्न – भिन्न दण्ड का प्रावधान था । लेकिन धर्मनिरपेक्षीकरण के कारण इस कार का भेदभाव स्वतः समस्त हो जाता है और सभी लोगों को समान अवसर सुलभ हो जाते हैं। –
- एक वैज्ञानिक अवधारणा : धर्मनिरपेक्षीकरण एक वैज्ञानिक अवधारणा है । धर्म के प्रभाव के कारण कार्य – संबंध का प्रदर्शन उचित नहीं । अतः लोग अतार्किक हो जाते हैं । धर्मनिरपेक्षीकरण तार्किकता पर बल देता है और उसी चीज को सही कहता है जिसमें कार्य कारण संबंधों का प्रदर्शन हो ।
- मानवतावादी और तटस्थ अवधारणा : धर्मनिरपेक्षीकरण एक ऐसी अवधारण है जिसमें मानव को मानव मानते हुए व्यवहार की बात कही गई है । ऐसा नहीं की किसी भी काल्पनिक जैसे जाति के आधार पर मानव के साथ अमानवीय व्यवहार की बात करती हो । यह प्रक्रिया मानवतावादी व्यवहार को प्रोसाहित करती है । साथ ही एक तटस्थ अवधारणा है जिसमें एक तरफ धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं पाया जाता तो साथ ही किसी भी धर्म को स्वीकारने की पूर्ण स्वतंत्रता भी दी गई है ।
- धर्मनिरपेक्षीकरण के प्रकार के कारक : भारत के धर्मनिरपेक्षीकरण का प्रारम्भ उस समय हुआ जब धर्म पूरे जोर से समाज को प्रभावित कर रहा था । यह काल था भारत में अंग्रेजी शासन आगमन का । अंग्रेजों ने भारत में अपने साम्राज्य की स्थापना व नींव गहरी करने के जो प्रयत्न किये उनके परिणामस्वरूप स्वतः ही नगरीकरण , औद्योगीकरण , संस्कृतिकरण जैसी प्रक्रियाओं के साथ धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया भी प्रारम्भ हुई । अंग्रेजों ने अपने पैर जमाने और व्यापार बढ़ाने के लिये जो प्रयत्न किये उन्होंने धर्म निरपेक्षीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया । जैसे : अंग्रेजों ने बड़े – बड़े उद्योग धन्धों , बन्दरगाहों , नगरों यातायात के साधनों का विकास किया जिससे स्वतः ही धर्मसापेक्षता को ठेस पहुंची , जातिगत प्रतिबन्ध शिथिल पड़ने लगे और संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के बराबर ही धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया चलने लगी ।
भारत में धर्मनिरपेक्षीकरण के प्रसार के निम्न कारण रहे :
- पश्चिमीकरण : भारत में धर्म निरपेक्षीकरण की प्रक्रिया को प्रारम्भ कर उसे आगे बढ़ाने का श्रेय पश्चिमीकरण को है । पाश्चात्य संस्कृति ने भौतिकता तथा व्यक्तिवाद को इतना अधिक बढ़ावा दिया है कि उसके कारण धर्म तथा उससे सम्बन्धित व्यवहारों में ह्रास स्वाभाविक है । भारतवर्ष परम्परागत देश के नाम से विख्यात रहा है । परम्परा का धर्म से प्रत्यक्ष संबंध है । पश्चिमीकरण की प्रक्रिया ने परम्परा का हनन कर उन व्यवहारों को अपनाने पर बल दिया जो तार्किक , व्यावहारिक और लाभकारी हों । यही कारण है जिसने धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया है ।
- नगरीकरण तथा औद्योगीकरण : नगरों में रहने वाले लोग विभिन्न प्रकार के औद्योगिकीय आविष्कारों के सम्पर्क में रहने के कारण धार्मिक अंधविश्वासों से अलग होते जाते हैं । जैसे – जैसे नगरों में विभिन्न प्रकार के औद्योगिक संस्थान स्थापित होते जा रहे हैं , वैसे – वैसे जनसंख्या का घनत्व बढ़ रहा है । अब यह आवश्यक नहीं रहा कि एक स्थान पर एक ही धर्म की प्रधानता हो और उसी धर्म के अनुयायी अधिक संख्या में वहाँ निवास करें , नगरों में तथा औद्योगिक केन्दों पर विभिन्न धर्मों के अनुयायी , साथ – साथ काम करते हैं तथा विचारों का आदान प्रदान करते हैं । इस स्थिति के कारण धर्म विशेष की कट्टरता समाप्त होती है तथा सह – अस्तित्व की भावना विकसित होती है । अतः कहा जा सकता है कि नगरीकरण तथा औद्योगीकरण धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया में सहायक कारक हैं ।
- यातायात तथा संचार के विकसित साधन : जब यातायात के साधन विकसित नहीं थे लोग दूर – दूर के स्थानों पर चाहते हुए भी नहीं जा सकते थे । एक ही स्थान पर रहने के कारण वे अपनी धार्मिक भावना को कायम रखते हुए उसी के अनुरूप आचरण किया करते थे । संचार के साधनों में विकास न होने के कारण अन्य स्थानों तथा समाजों में क्या हो रहा है , इसकीजानकारी लोगों को नहीं हो पाती थी । यह भी एक कारण था कि लोग धार्मिक कट्टरता को बनाए रखते थे । लेकिन जैसे जैसे धार्मिक आचरण तथा कर्म काण्डों में परिवर्तन हो रहा है अब धर्म के आधार पर छुआछूत का भेदभाव या खानपान में भेदभाव तथा उसमें कठोरता अधिक संभव नहीं रही ।
यदि विभिन्न धर्मों के अनुयायी ट्रेन या बस में साथ – साथ सफर कर रहे हैं तो , वे चाहते हुए भी छुआछूत पूर्ण व्यवहार को कायम नहीं रख सकते क्योंकि उन्हें सभी मुसाफिरों की जाति , धर्म का भी ज्ञान नहीं होता है । एक समाज धर्म विशेष के परम्परागत व्यवहार प्रतिमान में यदि कोई छूट देता है तो उसकी जानकारी अन्य समाजों को संचार के साधनों के माध्यम से हो जाती है , अतः वहाँ भी परिवर्तन की बात प्रारम्भ हो जाती है । अब ग्रामीण छोटे छोटे कार्यों के लिये नगर की तरफ चल पड़ते हैं । वहाँ के रहन – सहन को देखकर वे प्रभावित होते हैं तथा अपने परम्परागत व्यवहार प्रतिमान ( जिस पर धर्म की प्रधानता होती है ) को छोड़ने के लिये तैयार हो जाते हैं । अब ग्रामीण व्यक्ति भी उन सभी चीजों को स्वीकार करने के लिये तैयार हैं जो उनके लिये लाभकारी हैं । भले ही उसका संबंध किसी अन्य धर्म से ही क्यों न हो ।
- वर्तमान शिक्षा प्रणाली : प्राचीन शिक्षा में विद्यार्थियों को धार्मिक आधार सिखाये जाते थे । शिक्षा धर्म प्रचार का माध्यम भी थी । शिक्षा का प्रारूप इस प्रकार का था कि धार्मिक आचारण में तनिक भी ह्रास न होने पाए । जो अपने को धार्मिक नहीं कर सकते थे उनके लिये शिक्षा का प्रबन्ध नहीं था । धार्मिक दृष्टि से पवित्र लोग ही शिक्षा प्राप्त कर सकते थे । अपवित्र लोगों यथा शूद्र और स्पृश्यों के लिए ज्ञान प्राप्ति वर्जित थी । धर्म – शिक्षा का केन्द्र बिन्दु हुआ करता था । ब्राह्मण जिनका प्रमुख कार्य शिक्षा देना होता था : धार्मिक कृत्यों और विधि – विधानों पर अधिक बल देते थे । लेकिन नवीन शिक्षा प्रणाली में धर्म का वह महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं रहा । अपवित्र समझे जाने वाले लोगों के लिये विशेष शिक्षा का प्रबन्ध हुआ है । उन्हें प्रोत्साहन देकर पढ़ाया जा रहा है । विभिन्न जातियों तथा धर्मों के अनुयायी साथ – साथ पढ़ते – लिखते , खाते – पीते हैं ।
इस स्थिति के कारण धार्मिक जटिलता समाप्त हुई है । अब धार्मिक संस्थाओं तथा जाति विशेष द्वारा संचालित शिक्षण संस्थाओं को अपना नाम परिवर्तन करने के लिए कहा जा रहा है , अब जिस तरह शिक्षण संस्थाओं में धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं रहा । उसी प्रकार लिंग भेद पर आधारित भेदभाव भी अब समाप्त होता जा रहा है । अब स्त्रियाँ भी तार्किक हो गई हैं एवं वे हर प्रकार की शिक्षा ग्रहण कर रही हैं । उनका दृष्टिकोण भी विकासवादी और स्वतन्त्रतावादी हो गया है । वे अपने अस्तित्व को पहचानने का प्रयत्न करने लगी हैं , वह समाज के एक आवश्यक अंग के रूप में अपने महत्त्व को आंकने लगी हैं । यह सर्वविदित तथ्य है कि भारत में परम्परागत व्यवहारों का प्रचलन जिसमें धार्मिक व्यवहार प्रमुख है स्त्रियों को घर के बाहर जाने की अनुमति नहीं होती थी । अतः उनका दृष्टिकोण परम्परागत होता था । आधुनिक शिक्षा में उन्हें भी समान अधिकार दिया गया है जिसके कारण उनकी मनोवृत्ति परम्परागत व्यवहारों के प्रति बदल रही और उनका व्यवहार अब धर्म निरपेक्षता की तरफ अधिक हो रहा है । इस प्रकार हम देखते है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली के कारण धर्म निरपेक्षीकरण की प्रक्रिया तीव्र हो रही है ।
- धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलन : विभिन्न धार्मिक तथा सामाजिक सुधारकों ने धर्म तथा उस पर आश्रित जाति – पाँति के भेदभाव तथा धार्मिक पाखण्डों को गलत बतलाया । इस स्थिति के कारण लोगों की धारणा धार्मिक कर्मकाण्डों के प्रति कुछ तटस्थ हुई । विभिन्न धर्म के अनुयायियों को साथ साथ रहने तथा कार्य करने के लिये कहा गया । मध्यकाल के भक्ति आन्दोलन ने भी इस क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया । राजाराम मोहनराय , सैयद अहमद खाँ , रानाडे , स्वामी दयानन्द , गाँधी आदि के प्रयल भी धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया में सहायक सिद्ध हुए । ब्रह्म समाज , आर्य समाज , प्रार्थना सभा , रामकृष्ण मिशन तथा थियोसोफिकल सोसाइटीका भी प्रयत्न धार्मिक जटिलता को दूर करने में सहायक सिद्ध हुआ । अतः कहा जा सकता है सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन भी धर्मनिरपेक्षीकरण में सहायक हुआ है ।
- सामाजिक विधान : विभिन्न सामाजिक विधान भी धर्मनिरपेक्षीकरण को बढ़ाने में सहायक रहे । हिन्दू विवाह अब धार्मिक संस्कार या धार्मिक कृत्य नहीं माना जाता क्योंकि इसके पीछे विहित धार्मिक कर्तव्यों की अवधारणा गौण होती जा रही है । अब तो यह एक सामाजिक बंधन या समझौता बनता जा रहा है । अतः अब अन्तरजातीय विवाह भी उचित ठहराए जा रहे हैं क्योंकि वैज्ञानिक आविष्कारों ने सभी जातियों में समान एक समूहों के होने की बात को स्पष्ट कर दिया है जिसका उद्देश्य समाज की स्वीकृत ढंग से लिंगीय संतुष्टि प्राप्त करना तथा परस्पर आर्थिक सहयोग करना बनता जा रहा है । अतः स्कीम शुद्धता की बात को भी धार्मिक और इसीलिये त्याज्यनीय माना जाने लगा है ।
विभिन्न जातियों के लिये आवश्यक नहीं कि वे एक ही धर्म के अनुयायी हों । विधान भी ऐसे विवाहों को उचित मानता है । इसी प्रकार सन् 1955 का अस्पृष्यता निवारण अधिनियम इस बात पर बल देता है कि जिन्हें अभी तक अस्पृश्य कहा गया उनका भी विभिन्न संस्थाओं के साथ वही संबंध है जो अन्य सवर्णों का है । अस्पृश्यता या धर्म के आधार पर लोगों में भेदभाव नहीं होगा । चूँकि भारतीय संविधान भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित कर चुका है इसलिए सरकार का हर प्रयत्न धर्मनिरपेक्षीकरण को आगे बढ़ाने के लिए होगा । प्रजातांत्रिक अवस्था में सरकार चलाने के लिए प्रतिनिधियों का चयन वयस्क मताधिकार होता है जिसमें धर्म और जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं बरता गया है , बल्कि सभी लोगों , ( ऐतिहासिक रूप से पिछड़े व्यक्तियों ) को समान स्तर लाने के लिए उन लोगों को अतिरिक्त सुविधायें दी जा रही हैं । विभिन्न प्रकार के समाज कल्याण कार्यक्रम भी सरकार द्वारा चलाए जा रहे हैं ताकि धर्मनिरपेक्षता को आगे बढ़ाया जा सके ।
- राजनीतिक दल : विभिन्न राजनीतिक दल भी धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया में सहायक सिद्ध हुए हैं जैसे कांग्रेस , समाजवादी दल तथा साम्यवादी दल आदि । कांग्रेस के निर्माण के समय ( 1885 ई ० ) ही उसमें कुछ नेता ऐसे थे जो धर्मनिरपेक्षीकरण को सामाजिक नीति के रूप में स्वीकार कराने के पक्ष में थे । जैसे – जैसे शिक्षित तथा पश्चिमीकृत लोगों की संख्या इस दल में बढ़ती गयी धर्मनिरपेक्षीकरण की माँग भी बलवती होती गयी । पं ० नेहरू जिन्हें कांग्रेस ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् अपना नेता चुना धर्मनिरपेक्षीकरण के प्रबल समर्थक थे । डॉ ० राधाकृष्णन ने पण्डित नेहरू के निधन के समय कहा था कि ” पं ० नेहरू का मुख्य उद्देश्य लोगों के मस्तिष्क में से धर्म के अतार्किक तत्वों को निकालना था ताकि लोगों का सामाजिक उत्थान हो सके ।
SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में