आथिक निर्णायकवाद

आथिक निर्णायकवाद

( Economic Determinism )

 व्यवस्था की समालोचना ‘ ( Critique of Political र्स की वह प्रमुख रचना है जिसमें उन्होंने मानवीय सम्बन्धों तथा

 राजनैतिक संरचना पर आर्थिक व्यवस्था की प्राथमिकता को स्वीकार किया । यह सच है कि राजनैतिक अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित विचार भी मार्क्स को एक आर्थिक निर्णायकवादी के रूप में स्पष्ट करते हैं लेकिन यह ध्यान रखना आवश्यक है कि मार्क्स का आर्थिक निर्णायकवाद निरपेक्ष न होकर बहुत कुछ सापेक्षिक है । इस पुस्तक में मार्क्स ने जहाँ एक ओर समाज की संरचना तथा वैचारिकी पर आर्थिक व्यवस्था के प्रभावों को स्पष्ट किया है वहीं दूसरी ओर उनका उद्देश्य शक्ति तथा राज्य के स्वरूप का निर्धारण करने में आर्थिक कारकों के प्रभाव को स्पष्ट करना रहा है । इस पुस्तक में मार्क्स ने बतलाया कि उत्पादन और वितरण की आर्थिक प्रणाली अथवा उत्पादन के सम्बन्ध ही किसी समाज की मूल संरचना ( Infra – structure ) का निर्माण करते हैं । समाज की इस मूल संरचना के अनुसार ही अन्य सामाजिक संस्थाओं के स्वरूप का निर्धारण होता है । इन सामाजिक संस्थाओं में राज्य तथा वैज्ञानिक संस्थाओं का प्रमुख स्थान है । मार्क्स के इस विचार को और अधिक स्पष्ट करते हुए उनके मित्र तथा सह – लेखक फेडरिक एंगेल्स ने लिखा है कि ” आर्थिक विकास की दशा में राज्य में अनेक संस्थाओं का निर्माण होता है उनमें आर्थिक परिवर्तन के साथ – साथ न केवल वैधानिक संस्थाओं का रूप बदलने लगता है बल्कि समाज में धर्म और कला से सम्बन्धित विचारों में भी परिवर्तन होने लगता है । ” 19 इस प्रकार मार्क्स ने सामाजिक तथा राजनैतिक संस्थाओं पर आर्थिक कारकों के जिस प्रभाव को स्पष्ट किया उन्हें निम्नांकित चार भागों में विभाजित करके स्पष्ट किया जा सकता है :

( 1 ) आर्थिक व्यवस्था एवं समाज ( Economic System and Society ) – मार्क्स ने यह स्पष्ट किया कि किसी भी समाज में विद्यमान आर्थिक व्यवस्था ही उस समाज की वास्तविक नींव होती है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि आर्थिक व्यवस्था समाज की मूल संरचना ( Infra – structure ) होती है । उस समाज में पाये जाने वाले मूल्य , रीति – रिवाज , संस्कृति , कानून , नियम तथा सामाजिक मानदण्ड आदि वे अधि – संरचनाएँ ( Super – structures ) हैं जिनका विकास मूल संरचना की प्रकृति के अनुसार ही होता है । मार्क्स का कथन है कि समाज की मूल संरचना का निर्माण जिन आर्थिक दशाओं के आधार पर होता है उनमें उत्पादन के साधनों तथा उत्पादन के तरीकों का स्थान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । इसका कारण यह है कि उत्पादन के साधनों के स्वामित्व तथा श्रम – सम्बन्धों के आधार पर ही समाज की उस अधो – संरचना का .  निर्माण होता है जिसमें सामाजिक मूल्य , रीति – रिवाज , धर्म , कानून , शिक्षा तथा राजनीति आदि का समावेश होता है । इसे स्पष्ट करते हुए मार्क्स ने बताया कि जब समाज रीति रिवाज में आदिम साम्यवाद की दशा विद्यमान थी तब वह मूलतः एक अनुत्पादक समाज था । आर्थिक उस समय व्यक्ति पशुओं की तरह प्रकृति से प्राप्त वस्तुओं कारक का उपभोग किया करते थे । इस स्तर में हथियार मनुष्य की पहली सम्पत्ति बने जिसका उपयोग शक्तिशाली लोगों ने / कानून दुर्बल लोगों का शोषण करने के लिए किया । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि उस समय के हथियार तथा औजार ही उत्पादन के साधन थे जिन्होंने समाज में एक विशेष प्रकार की मूल संरचना का निर्माण किया । इनके आधार पर तत्कालीन समाज में जिन सामाजिक मूल्यों क स्थापना हुई वे वर्तमान समाज के मूल्यों से बिलकुल भिन्न थी ।

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सामन्तवादी अर्थव्यवस्था तथा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधनों तथा उत्पादन के तरीकों में एक आधारभूत अन्तर देखने को मिलता है । यही कारण है कि इन दोनों तरह की व्यवस्थाओं में समाज की जिस अधो – संरचना का निर्माण – हुआ उनका रूप भी एक – दूसरे से काफी भिन्न है । सामन्तवादी आर्थिक व्यवस्था में बनने वाली समाज की अधो – संरचना में परम्परागत सत्ता अर्थ – दास प्रथा अथवा बन्धुआ मजदूरों का समावेश था । दूसरी ओर पूंजीवादी अर्द्धव्यवस्था ने एक ऐसी अधो – संरचना का निर्माण किया जिसमें वैयक्तिक स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के संचय को विशेष महत्त्व दिया जाने लगा । इस आधार पर मार्क्स ने बतलाया कि प्रत्येक युग के समाज में उत्पादन सम्बन्धों के आधार पर बनने वाली मूल संरचना तथा उसकी अधो – संरचना के बीच द्वन्द्व होता है । इसी द्वन्द्व के परिणामस्वरूप ऐसी दशा उत्पन्न होती है जिसे हम क्रान्ति कहते हैं । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक समाज दो मुख्य भागों में विभक्त होता है जिनमें से एक को हम इसकी मूल संरचना और दूसरे को इसकी अधो – संरचना कहते हैं । मूल संरचना का निर्माण आर्थिक सम्बन्धों के आधार पर होता है जबकि अधो – संरचना में सामाजिक , वैधानिक तथा अन्य सम्बन्धों का समावेश होता है । समाज की इस मूल संरचना और अधो संग्चना के बीच लो अन्तविरोध बने रहते हैं उसी के फलस्वरूप क्रान्ति का जन्म हो

 ( 2 ) आर्थिक व्यवस्था एवं विचार ( Economic System and Ideas ) राजनैतिक अर्थव्यवस्था की समालोचना में मार्क्स ने विचारों के निर्माण की प्रक्रिया को भी आर्थिक व्यवस्था के आधार पर ही समझाने का प्रयत्न किया है । उनका कथन है कि दर्शन , राजनीति , मूल्यों एवं धर्म से सम्बन्धित वैचारिकी का रूप आर्थिक व्यवस्था के आधार पर ही निर्धारित होता है । मार्क्स ने कॉम्ट तथा हीगल की आलोचना करते हुए बतलाया कि सामाजिक संरचना में होने वाला विकास विचारों के फलस्वरूप नहीं होता बल्कि परिवर्तनशील भौतिक दशाएँ ही नये विचारों को जन्म देकर विकास के रूप में होने वाले परिवर्तनों को उत्पन्न करती हैं । इस दृष्टिकोण से विचारों का सम्बन्ध समाज की अघो – संरचना से होता है जबकि समाज की मूल संरचना का निर्माण आर्थिक दशाओं के द्वारा ही होता है । मार्क्स ने यह स्पष्ट किया कि एक विशेष अवधि में किसी समाज की वैचारिकी अथवा आदर्श उस काल के प्रभुतासम्पन्न वर्ग के विचारों का ही प्रतिबिम्ब होते हैं । 20 अपने कथन को स्पष्ट करते हुए मार्क्स ने लिखा है कि ” प्रत्येक युग में लोगों पर नियन्त्रण रखने वाले विचार अथवा समाज को संचालित करने वाले नियम उसी वर्ग से सम्बन्धित होते हैं जो एक ही समय में न केवल भौतिक शक्तियों का स्वामी होता है बल्कि साथ ही उसका बौद्धिक शक्तियों पर भी नियन्त्रण होता है । ” 

दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि पूंजीपति वर्ग जिसके पास आर्थिक साधनों का स्वामित्व भी होता है , वह पूंजी की शक्ति से बौद्धिक शक्ति को भी खरीद लेता है । समाज में जो वर्ग आर्थिक रूप से प्रभुतासम्पन्न होता है वह एक ऐसी वैचारिकी को विकसित करने में सफल हो जाता है जो उसी के हितों के अनुकूल हो । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि भौतिक शक्ति ही वह आधार है जो विचारों को नियन्त्रित करती है । S स्पष्ट है कि मार्स ने आर्थिक कारकों को ही समाज में पायी जाने वाली वैचारिवी के निर्णायक कारक के रूप में स्वीकार किया है । इस सन्दर्भ में अपने अनुयायियों को सचेत करते हुए मार्क्स ने लिखा कि ” यदि हम ऐसा मानने लगेंगे कि शासक वर्ग का एक पृथक अस्तित्व है तथा वह समाज की वैचारिकी को अपनी सत्ता से पृथक रखता है , तो हम ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को उचित ढंग से नहीं समझ STATQUADYCAMERAसे के अनुसार आर्थिक कारकों तथा वैचारिकी के बीच  एक घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा प्रत्येक आर्थिक सत्ता अपने हितों के अनुसार ही वैचारिकी को एक विशेष रूप देने का प्रयत्न करती है ।

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 ( 3 ) आर्थिक कारक एवं शक्ति ( Economic Factors and Power ) शक्ति राजनैतिक व्यवस्था का एक प्रमुख आधार है । बॉटोमोर ( Bottomore ) ने भी शक्ति को ‘ राजनीति के केन्द्र बिन्दु ‘ के रूप में स्पष्ट किया है । पार्सन्स ( Parsons ) शक्ति को एक ऐसे तत्त्व के रूप में स्वीकार करते हैं जो शासक और शासितों के बीच सन्तुलन बनाये रखता है । आपके अनुसार शक्ति ही वह आधार है जिसके कारण शासक और शासित दोनों समाज के हित को ध्यान में रखते हुए कार्य करते हैं । इन विचारों के ठीक विपरीत , कार्ल मार्क्स ने यह स्पष्ट किया कि शक्ति एक ऐसा तत्त्व है जिसका उपयोग आर्थिक रूप से प्रभुतासम्पन्न वर्ग अपने हितों के लिए करता है । SAR मार्क्सवादी दृष्टिकोण से समाज में शक्ति का स्रोत समाज की आर्थिक मूल संरचना ( Economic Infra – structure ) में निहित होता है । 23 इसे स्पष्ट करते हुए मार्क्स ने बताया कि स्तरों में विभाजित प्रत्येक समाज में उत्पादन की शक्तियां – कुछ लोगों ने हाथ में ही केन्द्रित होती हैं । यही लोग सत्ता वर्ग के प्रतिनिधि भी होते हैं । उत्पादन की शक्तियों के कारण समाज में जिस उच्च वर्ग का निर्माण होता है उसकी प्रभुता अथवा शक्ति का कारण उत्पादन की शक्तियों पर उनका | अधिकार होना ही है । इस दृष्टिकोण से शक्ति की विवेचना केवल आर्थिक आधार पर ही की जा सकती है । सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जिस वर्ग के पास पूंजी होती है , वही वर्ग समाज में शक्तिशाली होता है ।

इस आधार पर मार्क्स ने लिखा है कि ” यदि सत्ता को पुनः जनसाधारण में स्थानान्तरित करना है । तो जनसामान्य को सामूहिक रूप से उत्पादन की शक्तियाँ अपने हाथों में लेनी होंगी । ” एक पूंजीवादी समाज में सत्ता वर्ग के द्वारा अपनी शक्ति का उपयोग समाज के अन्य वर्गों का शोषण करने के लिए ही किया जाता है । शोषण की इसी प्रक्रिया में बुर्जुआ वर्ग सर्वहारा वर्ग से अधिक से अधिक उत्पादन करवाता है और उसे कम से कम मजदूरी देता है । मार्क्स का कथन है कि शक्तिशाली वर्ग द्वारा किए जाने वाले शोषण को बल – प्रयोग ( Coercion ) का ही एक विशेष स्वरूप कहा जा सकता ह । समाज का सर्वहारा वर्ग बुर्जुआ वर्ग के शोषण को अपने हितों के विरुद्ध होने के दिता है तो इस दशा में यह स्वीकार करना आवश्यक है क समाज की अधो – संरचना बल – प्रयोग पर आधारित है । इस दशा की इस रूप में भी समझा जा सकता है कि यदि सामाजिक संरचना द्वारा छिपे तौर पर बल – प्रयोग को मान्यता न दी जा रही हो तो सर्वहारा वर्ग उस शोषण को कभी स्वीकार नही करेगा जो बुर्जुआ अथवा प्रभुतासम्पन्न वर्ग द्वारा किया जाता है ।

मार्क्स ने लिखा कि यदि बुर्जुआ वर्ग की शक्ति को समाज उसकी वैधानिक शक्ति के रूप में स्वीकार कर लेता है तो इस दशा को केवल एक ‘ झूठी वर्ग – चेतना ‘ ( False Class – conscious . ness ) ही कहा जा सकता है । मार्क्स ने स्पष्ट किया कि समाज की मूल संरचना अथवा आर्थिक संरचना में शोषण और दमन के रूप में प्रभुत्त के जो सम्बन्ध विकसित होते हैं , वे धीरे – धीरे समाज की अधो – संरचना ( Super – structure ) में स्पष्ट रूप से दिखलाई देने लगते हैं । उदाहरण के लिए , एक पूंजीवादी समाज में नियोजक ( Employer ) तथा कर्म चारी ( Employee ) के बीच पाये जाने वाले असमानतापूर्ण सम्बन्धों का प्रतिबिम्ब वहाँ की वैधानिक व्यवस्था में दिखलाई देता है । इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक पूंजी वादी समाज में विधायिका तथा कानूनों के द्वारा सम्पत्ति के स्वामियों के हितों का ही संरक्षण किया जाता है ।

मार्क्स के इस कथन से स्पष्ट होता है कि पूंजीवादी समान की आर्थिक व्यवस्था में पाये जाने वाले असमानताकारी सम्बन्धों के फलस्वरूप ही एक ऐसी असमानता को प्रोत्साहन मिलता है जिसे वैधानिक मान्यता मिली होती है । इस प्रकार समाज के उच्च वर्ग को जब वैधानिक रूप से जनसामान्य का शोषण करने की अनुमति मिल जाती है तब उसकी शक्ति का विस्तार होने लगता है । उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि मार्क्स आर्थिक शत्तियो , अर्थात् उत्पादन की शक्तियों को ही सामाजिक शक्ति का प्रमुख आधार मानते हैं । साथ ही मार्क्स यह भी स्वीकार करते हैं कि आर्थिक आधार पर प्राप्त होने वाली शक्ति ही समाज की अन्य संस्थाओं को भी प्रभावित करती है ।

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( 4 ) आर्थिक कारक एवं राज्य ( Economic Factors and State ) हम जानते हैं कि मार्क्स ने इंग्लैण्ड की तत्कालीन अर्थ – व्यवस्था के आधार पर ही अपने विचार प्रस्तुत किये । अपने आर्थिक सिद्धान्तों की विवेचना के लिए मार्क्स ने उस समय के कुछ विचारों को मान्यता प्रदान की तो अनेक दसरे विचार का दृएतापूर्वक खण्डन भी किया । मार्स के समकालीन विचारकों में प्राधा ( Prodhon ) तथा बकुनिन ( Bakunin ) प्रमुख अराजकतावादी विचारक थे । विद्वानों ने तत्कालीन सामाजिक चिन्तन को प्रभावित करने में भी महत्त्वपूर्ण का दान किया था । यह अराजकतावादी विचारक ( Anarchsists ) जहाँ राज्य का आवश्यक बुराई के रूप में देखते थे , वहीं मार्क्स ने आर्थिक – राजनैतिक विचार द्वारा राज्य की अवधारणा को एक भिन्न रूप से स्पष्ट किया । इस सम्बन्ध म ऐरों ( Ramond Aron ) ने लिखा है कि मार्क्स द्वारा प्रस्तत राजनीति की अवधारणा तथा राज्य के लुप्त हो जाने से सम्बन्धित विचारों ने मुझे उनके अन्य सामाजिक विचारों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावित किया । रेमण्ड ऐरों के इस कथन से राजनैतिक अर्थ – व्यवस्था से सम्बन्धित मार्क्स के विचारों का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है । इस दृष्टिकोण से आवश्यक है कि राज्य के बारे में मार्क्स के विचारों के प्रमुख अंशो को संक्षेप में समझ लिया जाय ।

आरम्भ में ही यह समझ लेना आवश्यक है कि मार्क्स राज्य की अनिवार्यता को स्वीकार करते हैं । मार्क्स ने बतलाया कि आधुनिक युग में कुछ प्रशासनिक कार्य ऐसे हैं जो प्रत्येक समाज के लिए अनिवार्य होते हैं । कोई भी व्यक्ति इस तथ्य से इन्कार नहीं कर सकता कि औद्योगिक समाजों में प्रशासनिक संरचना के बिना कोई काम नहीं चल सकता । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि औद्योगिक समाजों में भी एक विशेष प्रकार के केन्द्रीकृत प्रशासन का होना अनिवार्य होता है । केन्द्री कृत प्रशासनिक संरचना समाज के आर्थिक विकास की योजनाओं के लिए भी आवश्यक है । मार्क्स का विचार है कि राज्य समाज के प्रशासनिक तथा दिशा – निर्देश देने वाले कार्यों का सम्मिलित रूप है अतः किसी भी समाज में राज्य को समाप्त नहीं किया जा सकता । इसके बाद भी मार्क्स राज्य के वर्तमान रूप को एक बुराई के रूप में देखते हैं । यही कारण है कि सद्भावनापूर्ण समाजों ( Nonantagonist Societies ) में मार्क्स ने राज्य का लोप हो जाने से सम्बन्धित अपने जो विचार प्रस्तुत किये हैं , उनका अर्थ प्रतीकात्मक है ।

वास्तव में मार्क्स यह नहीं मानते कि क्रान्ति के बाद बनने वाले साम्यवादी समाज में राज्य पूर्णतया समाप्त हो जायेगा बल्कि मार्क्स के अनुसार साम्यवादी समाज में राज्य तो रहेगा लेकिन वर्गों पर आधारित उसका चरित्र नष्ट हो जायेगा । यही राज्य के लुप्त हो जाने का प्रतीका त्मक अर्थ है । – सार्म के अनुसार राजनैतिक व्यवस्था तथा आर्थिक व्यवस्था के बीच आदान प्रदान का एक गहरा सम्बन्ध है । साम्यवादी समाजों में राजनैतिक व्यवस्थाका स्वरूप आर्थिक व्यवस्था की ही तरह स्वायत्ततापूर्ण ( Autonomous ) होना चाहिए । मार्क्स का विचार है कि जिस तरह उत्पादन और वितरण का एक पृथक संगठन होता है तथा जिस प्रकार उत्पादन की समस्याओं का निदान आर्थिक व्यवस्था में ही खोजा जाता है , उसी तरह राजनैतिक व्यवस्था को भी एक ऐसे तन्त्र के रूप में होना । चाहिए जिसके द्वारा जनसाधारण की समस्याओं का समाधान किया जा सके तात्पर्य है कि राजनीति को सत्ता से पृथक करना आवश्यक है । राज्य की सत्त विरोध करते हुए मार्क्स ने लिखा है कि ” राज्य के लुप्त होने का अर्थ यह है कि राज्य का अस्तित्व केवल उत्पादन और वितरण के स्रोतों को खोजने तथा इनसे सम्बन्धित समस्याओं का निदान करने तक ही सीमित होगा । ” 28 इस प्रकार पूंजी वादी समाजों में राज्य की शक्ति को चुनौती देते हुए भार्स ने उन प्रयत्नों पर बल दिया जिनके द्वारा क्रान्ति के माध्यम से राज्य की परम्परागत सत्ता को नष्ट किया जा सके ।

समालोचनात्मक मूल्यांकन ( Critical Evaluation ) .

 समाजशास्त्रीय चिन्तन के क्षेत्र में राजनैतिक अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित मार्क्स के विचारों का विशेष महत्त्व है । इसका कारण यह है कि उन्होने आर्थिक निर्णायकवादी विचारधारा के आधार पर ही राजनैतिक व्यवस्था का विश्लेषण प्रस्तुत किया । मार्क्स के अतिरिक्त अनेक दूसरे समाजशास्त्रियों को भी निर्णायक वादी विचारक माना जाता है लेकिन उनका निर्णायकवाद मार्क्स से बिल्कुल भिन्न है । उदाहरण के लिए , सारोकिन ( Sorokin ) ने सांस्कृतिक निर्णायकवाद को मान्यता दी , जबकि वेबलिन ( Veblen ) , ने प्रौद्योगिक निर्णायकवाद के आधार पर सामाजिक परिवर्तन की विवेचना की । विचारों की इसी भिन्नता के कारण अनेक विद्वानों ने राजनैतिक अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित मार्क्स के विचारों से असहमति व्यक्त की है । – सॉरोकिन ने मार्क्स के विचारों की आलोचना करते हुए कहा है कि समाज में परिवर्तन के प्रमुख कारक सांस्कृतिक होते हैं ।

इस दृष्टिकोण से राज्य , सत्ता तथा राजनीति में होने वाले परिवर्तनों को आर्थिक आधार पर स्पष्ट नहीं किया जा सकता । दूसरी ओर वेबलिन ने यह स्पष्ट किया कि सामाजिक संरचना तथा सामा जिक व्यवस्था से सम्बन्धित दशाओं को प्रौद्योगिकी में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर ही स्पष्ट किया जा सकता है । मेक्स वेबर उन प्रमुख विद्वानों में से एक हैं जिन्होंने सत्ता की अवधारणा तथा इसके विभिन्न पक्षों का विस्तार से विवेचन करते हुए मार्क्स के इस कथन को अस्वीकार किया कि समाज में सत्ता का स्वरूप पूंजी के आधार पर निर्मित होता है । मैक्स वेबर ने सामाजिक विकास तथा परिवर्तन के कारक के रूप में किसी भी निर्णायकवादी विचार को स्वीकार नहीं किया । उनके अनुसार निर्णायकबादी विचार समाजशास्त्रीय विश्लेषण को एकपक्षीय बना देते हैं । वेबर ने अपनी पुस्तक ‘ प्रोटेस्टेण्ट धर्म तथा पूंजीवाद की आत्मा ‘ में यह स्पष्ट किया कि समाज की राजनैतिक तथा आर्थिक व्यवस्था को प्रभावित करने में आर्थिक कारकों का एक महत्त्वपूर्ण योगदान होता है ।

यह सच है कि मैक्स वेबर ने आर्थिक कारकों के महत्त्व को पूरी तरह अस्वीकार नहीं किया किन्तु उन्होंने मार्क्स के इस कथन से असहमति  व्यक्त की कि सामाजिक व्यवस्था तथा राजनीति आर्थिक कारकों का ही परिणाम होती है । भारत के राजनैतिक विचारक डॉ० लोहिया ने अपनी पुस्तक ‘ मार्क्स , गाँधी तथा समाजवाद ‘ में राजनैतिक अर्थव्यवस्था सम्बन्धी मार्क्स के विचारों की आलोचना करते हए लिखा है कि ” मास सत्ता पर पहुंचने से पहले और सत्ता पर पहुँचने के बाद दोनों ही दशाओं में क्रान्ति के समर्थक हैं । यह स्वयं में एक अन्तविरोध है । ” सट है कि डॉ . लोहिया भी मार्क्स से इसलिए सहमत नहीं हैं क्योंकि प्रत्येक स्तर पर मार्क्स के विचारों में आर्थिक निर्णायकवाद के कारण परस्पर विरोध उत्पन्न हो गये हैं । महात्मा गांधी ने सामाजिक विकास के लिए ट्रस्टीशिप ( Trusteeship ) के जिस सिद्धान्त को प्रस्तुत किया उससे भी यह स्पष्ट होता है कि केवल आर्थिक कारकों के आधार पर ही सामाजिक विकास के प्रत्येक पक्ष को स्पष्ट नहीं किया जा सकता । कि उपर्युक्त आलोचनाओं के बाद भी यह सच है कि राजनैतिक अर्थव्यवस्था सम्बन्धी मार्क्स के विचारों का समाज विज्ञानों में विशेष महत्त्व है । आज भी समाजशास्त्र , राजनीतिशास्त्र तथा अर्थशास्त्र जैसे विषयों से सम्बन्धित अनेक अध्ययनकर्ता इन्हीं विचारों के आधार पर सामाजिक घटनाओं का विश्लेषण और चिन्तन करने में संलग्न हैं ।

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