आत्महत्या का सिद्धान्त
( Theory of Suicide ) ,
दुखीम ने अपनी पुस्तक ‘ Le Suicide ‘ में बहत से आँकड़ों के आधार पर यह स्पष्ट किया कि आत्महत्या किसी व्यक्तिगत कारण का परिणाम नहीं होती बल्कि यह एक सामाजिक तथ्य है । इसे स्पष्ट करते हुए दुर्थीम का कथन है कि जिन विद्वानों ने आत्महत्या को वंशानुगत दोष , निर्धनता , निराशा , मानसिक असन्तुलन अथवा जलवायु आदि के आधार पर स्पष्ट किया है , वे विद्वान आत्म हत्या को एक वैयक्तिक घटना मानने की गलती कर बैठते हैं । वास्तविकता यह है कि आत्महत्या का सम्बन्ध कुछ विशेष . सामाजिक दशाओं एवं उनसे किए गये वैयक्तिक अनुकूलन की मात्रा से होता है । दुर्थीम के शब्दों में , ” आत्महत्या तथा सामाजिक पर्यावरण की विभिन्न दशाओं के बीच का सम्बन्ध उतना ही अधिक प्रत्यक्ष और स्पष्ट होता है जितना कि जैविकीय और भौतिक दशाएँ आत्महत्या के साथ एक अनिश्चित और अस्पष्ट सम्बन्ध को स्पष्ट करती हैं । अपने इस कथन के आधार पर दुर्शीम ने यह स्पष्ट किया कि एक सन्तुलित व्यक्तित्व के लिए यह आवश्यक होता है कि सामाजिक दशाओं तथा सामूहिक चेतना का व्यक्ति के जीवन पर पड़ने वाला प्रभाव स्वस्थ हो । इसके विपरीत , जब व्यक्ति के जीवन पर समूह के नियन्त्रण में आवश्यकता से अधिक वृद्धि अथवा कमी होने लगती है तो सामाजिक दशाएँ व्यक्ति को अस्वस्थ रूप से प्रभावित करना आरम्भ कर देती हैं । यही दशा आत्महत्याओं का कारण होती है ।
दुर्वीम ने अपने द्वारा एकत्रित आँकड़ों के आधार पर यह स्पष्ट किया कि स्त्रियों की तुलना में पुरुष अधिक आत्महत्या करते हैं ; कम आयु के लोगों की अपेक्षा अधिक आयु के लोगों में आत्म हत्या की दर अधिक पायी जाती है । सामान्यत : जनता की तुलना में सैनिक लोग अधिक आत्महत्याएँ करते हैं ; अविवाहित और सुखी पारिवारिक जीवन से वंचित लागों में उन व्यक्तियों की तुलना में आत्महत्या की दर अधिक होती है जो विवाहित अथवा सुखी पारिवारिक जीवन व्यतीत कर रहे होते हैं । इसी प्रकार कैथोलिक धर्म का मानने वालों की तुलना में प्रोटेस्टेन्ट धर्म को मानने वाले लोग अधिक आत्म हत्याएँ करते हैं । प्रोटेस्टेन्ट धर्म को मानने वालों में आत्महत्या की दर इसलिए जाधक है कि उनका धर्म व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर अधिक बल देने के कारण व्यक्तियों के व्यवहारों पर इतना नियन्त्रण स्थापित नहीं कर पाता कि वे पूर्णतया एक नैतिक समुदाय में संयुक्त हो सकें ।
इसका तात्पर्य है कि धार्मिक विश्वास तथा धार्मिक आचार अनिवार्य रूप से आत्महत्या पर नियन्त्रण नहीं लगाते । एक विशेष धर्म अपने आचारों के द्वारा वैयक्तिक जीवन को जितना अधिक संगठित कर लेता है , उसके मानने वालों में आत्महत्या की दर उतनी ही कम हो जाती है । इससे पुनः यह स्पष्ट होता है कि आत्महत्या की घटनाओं को सामाजिक आधार पर ही समझा जा सकता है । 15 इस सम्बन्ध में एक प्रश्न यह उठ सकता है कि यदि सामाजिक दशाएँ ही आत्महत्या का कारण हैं तो समान सामाजिक दशाओं में रहने वाले लोगों में आत्म हत्या की घटनाएं एक – दूसरे से भिन्न क्यों होती हैं ? इसे स्पष्ट करते हुए दुर्थीम का कथन है कि आत्महत्या को प्रेरणा देने वाली दशाएँ प्रत्येक समाज में क्रियाशील रहती हैं लेकिन विभिन्न व्यक्तियों पर उनका प्रभाव समान नहीं होता । इसका तात्पर्य है कि एक विशेष दशा को कुछ लोग बहुत सामान्य समझकर उसे यूं ही छोड़ देते हैं अथवा उसके प्रति पूरी तरह उदासीन बने रहते हैं । दूसरी ओर कुछ व्यक्ति ऐसे भी हो सकते हैं जो उसी दशा के उत्पन्न होने पर या तो पूरी तरह से टूट जाते हैं अथवा अपने कर्तव्य को इस सीमा तक पूरा करने के लिए तैयार हो जाते हैं कि उन्हें अपने जीवन की भी चिन्ता नहीं रहती । इसका तात्पर्य है कि आत्महत्या को प्रेरणा देने वाली विभिन्न सामाजिक दशाओं के प्रति जो व्यक्ति जितना अधिक लगाव महसूस करते हैं , उनमें आत्महत्या की ओर बढ़ जाने की सम्भावना उतनी ही अधिक हो जाती है । इसी कारण दुर्थीम ने लिखा है , ” यह निश्चित प्रतीत होता है कि कोई भी सामूहिक भावना व्यक्तियों को तब तक प्रभावित नहीं कर सकती जब तक वे उसके प्रति उदासीन बने रहें । ” दुर्शीम ने आत्महत्या को प्रेरणा देने वाली विभिन्न दशाओं के आधार पर आत्महत्या के तीन प्रमुख प्रकारों का उल्लेख किया है :
( 1 ) अहमवादी आत्महत्या ( Egoistic Suicide ) – यह आत्महत्या एक ऐसी सामाजिक स्थिति का परिणाम है जिसमें समूह के नियन्त्रण में बहत कमी हो जाने के कारण व्यक्ति और समूह का पारस्परिक सम्बन्ध इतना ढीला और कमजोर हो जाता है कि व्यक्ति अपने आपको न केवल उपेक्षित बल्कि समाज से पूर्णतया अलग – थलग समझने लगता है । दुर्थीम ने पश्चिमी समाजों का उदाहरण देते हुए बतलाया कि यहाँ व्यक्तिवाद में अत्यधिक वृद्धि हो जाने के फलस्वरूप अधिकांश व्यक्ति अपने निजी सुखों और स्वार्थों को इतना महत्व देने लगे हैं कि इससे पार . . .रिक त्याग , प्रेम और सहानुभूति के गुण समाप्त होते जा रहे हैं । इन अवैयक्तिक नों में जब इतनी वृद्धि हो जाती है कि व्यक्ति सामाजिक नियन्त्रण की चिन्ता करके केवल अपने स्वार्थों को पूरा करने में ही लिप्त हो जाते हैं तब संवेदनशील ति के अहम् के लिए यह दशा बहुत अपमानजनक बन जाती है । उसे यह अनुभव होने लगता है कि समूह में उसका ‘ अपना ‘ कोई नहीं है । ऐसा व्यक्ति जीवन के किसी स्तर पर पहुँच कर न केवल स्वयं को बहुत अकेला , अपरिचित और परित्यक्त महसूस करने लगता है बल्कि कभी – कभी अपने जीवन को अनुपयोगी भी समझने लगता है । आत्महत्या इसी स्थिति का स्वाभाविक परिणाम है जो व्यक्ति द्वारा अपने हम की रक्षा करने के लिए की जाती है । इससे स्पष्ट होता है कि सामाजिक घनिष्ठता में कमी , सम्बन्धों में औपचारिकता तथा सामाजिक नियन्त्रण में होने वाला ह्रास , अहमवादी आत्महत्या के प्रमुख कारण हैं ।
( 2 ) परमार्थवादी आत्महत्या ( Altruistic Suicide ) – – आत्महत्या का यह रूप अहमवादी आत्महत्या से पूर्णतया विपरीत दशा को स्पष्ट करता है । परार्थवादी आत्महत्या व्यक्तिगत अहम् की सन्तुष्टि के लिए न होकर किसी अन्य व्यक्ति अथवा समूह के हित को ध्यान में रखकर की जाती है । इसका तात्पर्य है कि कुछ विशेष परिस्थितियों में व्यक्ति का अस्तित्व अपने समूह में इस प्रकार घल – मिल जाता है कि व्यक्ति अपने जीवन की अपेक्षा अपने समूह को कहीं अधिक महत्वपूर्ण समझने लगता है । इस दशा में वह जो भी विचार करता है अथवा व्यवहार करता है , वह सब कुछ समूह – कल्याण को ध्यान में रखते हुए ही किया जाता है । किसी विशेष परिस्थिति में व्यक्ति यदि यह अनुभव करता है कि उसके बलिदान से उसके समूह की प्रतिष्ठा बढ़ेगी , किसी अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति की रक्षा होगी अथवा समूह अधिक संगठित बन सकेगा , तो व्यक्ति अक्सर अपने जीवन का बलिदान करने के लिए तैयार हो जाता है । यही परार्थवादी आत्महत्या है । दुर्चीम ने स्पष्ट किया कि इस श्रेणी की आत्महत्याएँ दो प्रमुख आधारों पर होती हैं – नैतिक आधार पर तथा मनोवैज्ञानिक आधार पर । नैतिक आधार व्यक्ति को अपने समूह के कल्याण के प्रति अधिक जागरूक बनाता है जबकि मनोवैज्ञानिक आधार पर आत्महत्या के विचार से उसे व्यक्तिगत सन्तुष्टि की अनुभूति होती है । उदाहरण के लिए जापान में ‘ हाराकिरी ‘ का प्रचलन अथवा भारत में एक लम्बे समय तक प्रचलित रहने वाली ‘ जौहर की प्रथा ‘ नैतिक आधार पर की जाने वाली आत्महत्याएँ हैं । दूसरी ओर एक प्रेमी द्वारा अपनी प्रेमिका के हित में की जाने वाली आत्महत्या अथवा परिवार की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए एक निरन्तर बीमार रहने वाली स्त्री द्वारा को जाने वाली आत्महत्या मनोवैज्ञानिक आधार से सम्बन्धित परार्थवादी आत्म हत्या है । दुर्थीम ने यह भी स्पष्ट किया कि किसी समूह का आकार जितना छोटा होता है तथा उसमें वैयक्तिक और त्यागपूर्ण सम्बन्धों की जितनी प्रधानता होती है , वहाँ इस श्रेणी की आत्महत्याएँ उतनी ही अधिक होती हैं ।
( 3 ) विसंगत आत्महत्या ( Anomique Suicide ) – आत्महत्या का यह प्रकार समाज की उस दशा से सम्बन्धित है जिसे दुर्थीम ने ‘ विसंगति ‘ अथवा अप्रतिमानता ( Anomic ) कहा है । विसंगति को परिभाषित करते हुए दुर्थीम ने लिखा कि , ” विसंगति आदर्श – नियमों की समाप्ति की दशा है , एक सामान्य शून्यता है , नियमों का निलम्बन है तथा यह एक ऐसी स्थिति है जिसे हम अक्सर नियम विहीनता कहते है । ” 28 इसका तात्पर्य है कि जब किन्हीं आकस्मिक दशाओं के फलस्वरूप समाज का संगठन तथा उसका नैतिक सन्तुलन बिगड़ जाता है और व्यक्ति इन बदली हुई दशाओं से सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते तब यह दशा विसंगति की दशा होती है । यही कारण है कि इस स्थिति में की जाने वाली आत्महत्या को हम बिसंगतिपूर्ण अथवा नियमहीनता से उत्पन्न आत्महत्या कहते हैं । आत्महत्या के इस रूप को स्पष्ट करते हुए सारोकिन ( Sorokin ) ने लिखा है कि , ” जब किसी समाज के मूल्यों और आदर्श नियमों की व्यवस्था को आघात पहुँचता है तथा वह छिन्न – भिन्न हो जाती है तो विसंगत आत्महत्या की दर स्वयं ही ऊपर की ओर उठने लगती है । ” उदाहरण के लिए किसी समाज में आथिक संकट की दशा उत्पन्न हो जाने पर अथवा तीव्र राजनैतिक उथल – पुथल होने की दशा में समाज में न केवल आदर्श नियमों का प्रभाव समाप्त होने लगता है बल्कि बहुत से व्यक्ति अपने जीवन में एक शून्यता महसूस करने लगते हैं ।
इसका स्वाभाविक परिणाम बहुत से व्यक्तियों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या के रूप में देखने को मिलता है । भारत में सन् 1990 में आरक्षण की नीति को लेकर जिस अप्रतिमानता को प्रोत्साहन मिला उससे सम्बन्धित एक बड़ी संख्या में होने वाली आत्महत्याएँ विसंगत आत्महत्या की दशा को ही स्पष्ट करती हैं । इस सन्दर्भ में दुर्सीम ने पारिवारिक विसंगति का भी उल्लेख करते हुए बताया कि परिवार में यदि पति या पत्नी में से किसी एक की मृत्यु हो जाने के कारण परिवार का संगठन नष्ट हो जाये तो दूसरे पक्ष द्वारा की जाने वाली आत्महत्या भी विसंगत आत्महत्या की प्रकृति को ही स्पष्ट करती है । वास्तविकता यह है कि समाज में विसंगति अथवा नियमहीनता के कारण अनेक व्यक्ति अपनी दशाओं से सामंजस्य स्थापित करने में पूर्णतया असफल हो जाता हैं और इसलिए आत्महत्या के द्वारा इस संकट से स्वयं को बचाने का प्रयत्न करते हैं । इस प्रकार दुर्वीम ने आत्महत्या को एक सामाजिक घटना मानकर सामाजिक दशाओं के सन्दर्भ में ही आत्महत्या की प्रकृति तथा दर को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि दुर्थीम ने आत्महत्या की गतिशील प्रकृति की स्पष्ट करने तथा इसे सामाजिक दशाओं का परिणाम सिद्ध करके समाजशास्त्राय
चिन्तन में एक महत्वपूर्ण योगदान किया है लेकिन कुछ आधारों पर दुर्वीम के आत्महत्या के सिद्धान्त की आलोचना भी की जाती है । ऐरों ( Aron ) ने लिखा है । कि दुर्थीम के इस सिद्धान्त का सबसे बड़ा दोष यह है कि उन्होंने आत्महत्या की विवेचना में सामाजिक कारकों के प्रभाव पर आवश्यकता से अधिक बल दे दिया । वास्तविकता यह है कि व्यक्ति की मानसिक संरचना अथवा व्यक्तित्व सम्बन्धी कारक भी आत्महत्या जैसी घटना के लिए एक बड़ी सीमा तक उत्तरदायी होते हैं । दुर्सीम ने इस तथ्य को पूर्णतया अवहेलना कर दी जिसके फलस्वरूप उनके विचार एकपक्षीय प्रतीत होने लगते हैं ।