अभिवृत्ति मापन

अभिवृत्ति मापन ( Attitude Measurement )

 जैसा कि पहले कहा जा चुका है , अभिवृत्ति के तीन तत्व होते है – संज्ञानात्मक , भावात्मक और व्यवहारात्मक । इनमें से संज्ञानात्मक एवं भावात्मक तत्त्वों की सीधी जानकारी नहीं प्राप्त की जा सकती । अभिवृत्ति के मापन में प्राय : इन तत्त्वों का अनुमान , व्यक्ति क्या कहता है और क्या करता है ? इसके आधार पर लगाया जाता है । अभिवृत्ति मापन की प्रचलित विधियों में कागज और पेंसिल वाली मापनियाँ प्रमख हैं । इन मापनियों के निर्माण करने की अनेक विधियाँ हैं । यहाँ मुख्य रूप से प्रचलित मापनियों की चर्चा की जा रही है ।

 थर्स्टन मापनी ( Thurstone Scale ) : वैसे तो व्यक्ति की अभिवृत्तियों का मापन अत्यन्त सरल लगता है पर वास्तव में ऐसा है नहीं । इसका मुख्य कारण यह है कि अभिवृत्ति से सम्बन्धित सीधे प्रश्नों के पूछने में इस अर्थ में अस्पष्टता होती है कि उत्तरदाता , उनका एक विशिष्ट अर्थ समझकर अपनी राय व्यक्त करता है । ऐसी स्थिति में अभिवृत्ति मापनी पर किन्हीं दो व्यक्तियों के प्राप्तांकों की तुलना सम्भव नहीं हो पाती है क्योंकि वे दो अलग – अलग बातों के सूचक होंगे । इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए थर्स्टन ( 1929 ) ने शिकागो विश्वविद्यालय में एक प्रयोगशाला प्रारंभ की जिसका उद्देश्य अभिवत्ति की वैध एवं वैजानिक मापनियों का निर्माण करना था । थर्स्टन की इस विधि को समान अन्तराल ( Equainterval ) विधि के नाम से जाना जाता है । इस विधि से मापनी का निर्माण निम्नलिखित सात चरणों में पूरा किया जाता है :

 ( अ ) सर्वप्रथम अभिवृत्ति की लक्ष्य वस्तु से सम्बन्धित अनेक कथनों को एकत्र या तैयार किया जाता है ।

 ( ब ) इन कथनों का मूल्यांकन ऐसे निर्णायकों से कराया जाता है जो उन व्यक्तियों के समान होते हैं जिनके लिए यह मापनी बनायी जा रही है । ये निर्णायक इन कथनों को ग्यारह वर्गों में वितरित करते हैं । इन वर्गों का विस्तार अत्यधिक अनुकूल ( I ) से अत्यन्त कम अनुकूल ( II ) होता है ।

 जिन कथनों के बारे में निर्णायकों की राय समान होती है उन्हें मापनी के लिए चन लिया जाता है तथा अस्वीकृत कथनों को छोड दिया जाता है । निर्णायकों द्वारा किसी कथन को जिस वर्ग में चुना जाता है , उसके प्राप्तांक सभी निर्णायकों के लिए जोड़ दिये जाते हैं । फिर उसका मध्यांक ( Median ) ज्ञात कर लिया जाता है । यह मध्यांक ही उस कथन का मापन मूल्य ( Scale value ) होता है ।

 ( र ) इन कथनों को प्रयोज्यों के एक समूह पर प्रशासित ( Administer ) किया जाता है जिनको प्रत्येक कथन से सहमति या असहमति बतलानी पड़ती है ।

 ( ल ) कथनों की सहमति को उस कथन के मध्यांक मूल्य के आधार पर अंक दे दिये जाते हैं । कुल कथनों का मध्यांक मूल्य प्रयोज्य की अभिवृत्ति का परिचायक होता है ।

 लिकर्ट – मापनी ( Likert scale ) : थर्स्टन मापनी के निर्माण में बहुत समय लगता है । परिश्रम भी अधिक लगता है । इसलिए समाज मनोवैज्ञानिकों ने अभिवृत्ति मापन की कुछ सरल विधियों को विकसित किया हैं । लिकर्ट ( 1932 ) ने इसी तरह की एक सरल विधि का विकास किया था । इस विधि के द्वारा अभिवृत्ति मापनी का निर्माण निम्नलिखित चरणों में पूरा किया जाता है :

( अ ) अभिवृत्ति के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित अनेक कथनों को एकत्र किया जाता है । प्रायः ये कथन व्यक्ति के अनुभव , शोधकर्ता की समझ या पूर्व परीक्षण के आधार पर चुन लिये जाते हैं ।

 ( ब ) इन कथनों को प्रयोज्यों के एक समूह पर प्रशासित किया जाता है जिसमें प्रयोज्य को प्रत्येक कथन से अपनी सहमति / असहमति पाँच वर्ग वाली मापनी पर व्यक्त करनी होती है । इस मापनी में “ अत्यधिक असहमति ( 1 ) ” की श्रेणियाँ सम्मिलित रहती है । प्रयोज्य को किसी एक श्रेणी पर अपनी अभिवृत्ति व्यक्त करनी होती है । शोधकर्ता यदि चाहे तो मापनी की श्रेणियों की संख्या में वृद्धि कर सकता है ।

 ( स ) प्रत्येक कथन पर इंगित श्रेणी से सम्बन्धित अंक दे दिया जाता है तथा सभी कथनों के अंकों का योग ज्ञात कर लिया जाता है । इसके पश्चात् प्रत्येक कथन पर प्राप्तांकों एवं कुल प्राप्तांकों के बीच सहसम्बन्ध ज्ञात किया जाता है । सहसम्बन्ध के आधार पर केवल उन कथनों का चयन कर लिया जाता है , जिनका कुल प्राप्तांकों से सहसम्बन्ध अधिक होता है । कथनों के इस प्रकार से चयन करने की विधि को एकांश विश्लेषण ( Item analysis ) कहा जाता है । उपर्युक्त दोनों मापनियों का उपयोग समाज मनोवैज्ञानिक शोधों में होता है । तथा ये दोनों मापनियाँ प्रामाणिक सिद्ध हुई हैं । उदाहरण के लिए थर्स्टन विधि से मापनी को विश्वसनीयता . 75 या इससे अधिक पायी गयी है । थस्टेन व लिकटे विधि से एक ही वस्तु के प्रति निर्मित अभिवृत्ति मापनियों के बीच 40 से अधिक सहसम्बध गुणांक पाया गया है । अत : यह कहा जा सकता है कि दोनों प्रकार की मापन – विधियों में वैधता रहती हैं ।

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 अर्थ विभेदक मापनी ( Semantic – Differential Technique ) :

इस प्रविधि का विकास आसगुड , सूसी तथा टेनेनबाम ( 1959 ) ने शब्दों के अर्थो के मापन के लिए किया है । इस विधि का उपयोग अभिवृत्ति का मापन करने के लिये किया गया । इस विधि में अभिवृत्ति का मापन दो छोरवाले विशेषणों के आधार पर किया जाता है । विशेषण के दोनों छोर सात बिन्दु की मापनी पर रखे जाते हैं और प्रयोज्य को अपनी राय विशेषण के छोरों ( जैसे – अच्छा बुरा ) के संदर्भ में व्यक्त करना होती है । मापनी के सात बिन्दुओं में से मध्य का बिन्दु तटस्थता का द्योतक होता है तथा बांयी और दायीं ओर के 3 – 3 बिन्दु क्रमशः प्रथम व द्वितीय छोरों के लिए हैं । बिन्दुओं के छोरों की निकटता के आधार पर अभिवृत्ति की तीव्रता निर्धारित होती है । अर्थ मापनी के रूप में इस प्रविधि के द्वारा मूल्यांकन सम्बन्धी ( Evaluative ) जैसे – अच्छा . . . . बुरा , क्षमता ( Potency ) . जैसे – कमजोर – निर्बल , तथा सक्रियता ( Activity ) , जैसे – धीमा . . . _ तेज सम्बन्धी विशेषण को चुना जाता है । अभिवृत्ति मापनी के लिए बहुधा मूल्यांकन आयाम से सम्बन्धित विशेषण ही रखे जाते हैं ।

 बोगार्डस सामाजिक दूरी मापनी ( Bogardus social Distance Scale ) : इस मापनी का निर्माण ई . आर . बोगार्डस ( 1925 ) द्वारा किया गया । इस मापनी का निर्माण करते समय बोगार्डस का उद्देश्य भिन्न – भिन्न देशों के लोगों के प्रति सामाजिक दूरी का मापन करना था । इसके अन्तर्गत भिन्न – भिन्न प्रकार के कार्यों की सूची वक्तव्यों के रूप में प्रस्तुत की जाती है । ये सभी वक्तव्य भिन्न – भिन्न सामाजिक दूरियों को व्यक्त करते हैं । ये वक्तव्य क्रमशः सामाजिक दूरी में वृद्धि प्रस्तुत करते हैं । प्रयोज्य को अभिवृत्ति उद्दीपक , जैसे – देश , जाति , वर्ग आदि को मापनी के विभिन्न दूरी वाले विकल्पों में से एक विकल्प की श्रेणी में रखना होता है । मूल अध्ययन में बोगार्डस ने निम्न श्रेणियाँ ली थीं

 1 . वैवाहिक आधार पर परिजन के रूप में स्वीकार करना ।

 2 . अभिन्न मित्र के रूप में स्वीकार करना ।

 3 . पड़ोसी के रूप में स्वीकार करना ।

4 . नौकरी में सहकर्मी के रूप में स्वीकार करना ।

5 . नागरिक के रूप में स्वीकार करना ।

6 . पर्यटक के रूप में स्वीकार करना ।

 7 . देश की सीमा में रहने देने के लिए अस्वीकार करना । उपरोक्त श्रेणियों को देखने से स्पष्ट है कि पहली श्रेणी अत्यन्त निकटता बतलाती है और क्रमश : बाद की श्रेणियों में दूरी बढ़ती जाती है । इस मापनी का उपयोग विभिन्न अभिवृत्ति उद्दीपकों के प्रति व्यक्ति की निकटता और दूरी , पसन्द और नापसन्द को समझने के लिए होता है । परन्तु इस मापनी के विभिन्न वक्तव्यों के बीच दूरी समान होने का कोई निश्चित आधार नहीं होता । फलतः यह सांख्यिकीय दृष्टि से बहुत परिशुद्ध नहीं मानी जाती ।

प्रच्छन्न तकनीकें ( Disguised Techniques ) :

ऊपर जिन तकनीकों की चर्चा की गयी है , वे प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति की अभिवृत्ति को मापने का प्रयास करती हैं । परन्तु व्यक्ति सदैव ठीक – ठीक उत्तर देने के लिए तत्पर नहीं रहता है । कभी – कभी वह गलत उत्तर देता है या अपने उत्तर को छिपाने का प्रयास करता है । इस कठिनाई को दूर करने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने बहुत सी ऐसी तकनीकों का विकास किया है , जो व्यक्ति की अभिवृत्ति को सीधे – सीधे न पूछकर अप्रत्यक्ष रूप से मापने का प्रयास करती हैं । प्रायः ये विधियाँ प्रक्षेपी विधियों ( Projective Techniques ) की श्रेणी में आती हैं । वाक्य पूर्ति ( Sentence Completion ) , कहानी निर्माण तथा में के प्रासंगिक अवबोध परीक्षण या टी . ए . टी . का भी उपयोग अभिवृत्ति के मापन के लिए किया गया है । आत्मपरक होने के कारण इन तकनीकों से प्राप्त प्रदत्तों का विश्लेषण विश्वसनीय और वैध ढंग से करना जटिल समस्या उत्पन्न करता है । इनका उपयोग बड़ा सीमित है ।

आभवृत्ति परिवर्तन ( Attitude Change )

आधुनिक युग में व्यक्ति के व्यवहार तथा विचारों में परिवर्तन लाने के प्रयास में विभिन्न संस्थायें अनेक संचार साधनों के माध्यम से लगी हुई हैं । व्यापारिक प्रतिष्ठान भी अपनी उत्पादित वस्तुओं के पक्ष में विज्ञापन के द्वारा अभिवृत्ति परिवर्तन का प्रयास करते हैं । वैसे तो अभिवृत्तियों में परिवर्तन व्यक्ति के अपने अनुभवों के आधार पर भी होता है परन्तु समाज – मनोवैज्ञानिकों के शोध से सायास अभिवृत्ति परिवर्तन ( Induced attitude change ) के विभिन्न तरीके स्पष्ट हुए हैं । समाज – मनोवैज्ञानिकों ने अभिवृत्ति परिवर्तन को प्रभावित करने वाले तत्त्वों , अभिवृत्ति परिवर्तन एवं व्यवहार परिवर्तन के सहसम्बन्ध , परिवर्तन की अवधि , अभिवृत्ति परिवर्तन में बाधाओं आदि का व्यापक अध्ययन किया है । अभिवृत्ति परिवर्तन को आधुनिक समाज – मनोविज्ञान में केन्द्रीय महत्त्व दिया गया है । अभिवृत्ति परिवर्तन का अध्ययन सामाजिक प्रभाव ( Social influence ) की प्रक्रिया का अंग है । इसमें

अनुनयात्मक संचार ( Persuasive communication ) का विशेष महत्व है जिसकी चर्चा पुस्तक के सातवें अध्याय में की गयी है ।

 सैद्धान्तिक दृष्टि से विचार करने पर अभिवृत्ति परिवर्तन की व्याख्या के दो रूप प्राप्त होते हैं – एक ओर संज्ञानात्मक सिद्धान्त है जिसमें व्यक्ति अभिवृत्ति के अवयवों में सन्तुलन बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील माना जाता है तो दूसरी ओर पुनर्बलन पर आधारित व्याख्यायें हैं जो पुरस्कार और दण्ड पर बल देती हैं । इन सिद्धान्तों की चर्चा की जा चुकी हैं । अत : उन पर पुनः विस्तार में चर्चा आवश्यक नहीं है । फिर भी यह उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत हो रहा है कि अभिवृत्ति परिवर्तन में संज्ञानात्मक विसन्नादिता सिद्धान्त का विशेष रूप से उपयोग किया गया है ।

संज्ञानात्मक कारकों को आधार बनाकर रोजेनबर्ग ( 1960 ) ने भावात्मक संज्ञानात्मक संगति ( Affective cognitive congruity ) की अवधारणा प्रस्तुत की है । इस प्रकार की संगति का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति मानसिक जगत में सामंजस्य बनाये रखना चाहता है । यदि हम अभिवृत्ति में परिवर्तन लाना चाहते है तो अतिरिक्त सूचना या किसी अन्य बाह्य प्रभाव के आधार पर भावात्मक तथा संज्ञानात्मक तत्त्वों के बीच की संगति में असंतुलन लाना होगा । इससे उत्पन्न अव्यवस्था को दूर करने के लिए व्यक्ति अपनी अभिवृत्ति में परिवर्तन लायेगा । रोजेनबर्ग के अनुसार भावात्मक परिवर्तन संज्ञानात्मक परिवर्तन को जन्म देता है । र अभिवृत्ति परिवर्तन का मापन अभिवृत्ति मापनी पर व्यक्ति की प्रतिक्रियाओं में होने वाले परिवर्तन के रूप में किया जाता है । इसके लिए पूर्व ( pre ) + पश्चात् ( Post ) अभिकल्प का उपयोग किया जाता है । इसके अन्तर्गत अभिवृत्ति परिवर्तन के प्रयास के पहले व बाद में अभिवृत्ति की मात्रा का मापन किया जाता है परन्तु इस प्रकार के अध्ययनों में अनेक सम्बन्धित परिवयों का नियन्त्रण नहीं हो पाता है । इसके कारण कुछ अध्ययनकर्ता एक अतिरिक्त नियन्त्रित समूह , जिसे केवल पश्चात् परीक्षण दिया जाता है , का उपयोग करते हैं । परिवत्यों का समुचित नियन्त्रण न होने के कारण इस प्रकार के अध्ययनों के परिणाम अस्पष्ट हो जाते हैं । अभिवृत्ति परिवर्तन की प्रक्रिया का विश्लेषण करते हुए मेक्गुआर ( 1962 ) ने अनुनयात्मक संचार के छह चरणों की चर्चा की है – संचार का प्रेषण , उस पर अवधान , उसकी समझ , उसकी स्वीकृति , उसे स्मरण रखना और अन्त में व्यवहार पर उसका प्रभाव । इन सब चरणों में किसी भी चरण पर असफलता के फलस्वरूप अनुनयात्मक संचार विफल हो सकता है । मोहसिन ( 1976 ) ने अभिवृत्ति परिवर्तन से सम्बन्धित शोध का विश्लेषण करते हुए निम्नांकित परिवों को महत्त्वपूर्ण बताया है ।

 ( अ ) अभिवृत्ति परिवर्तन में स्रोत की विशेषतायें ( Characteristics of the source ) : अभिवृत्ति परिवर्तन विषयक अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि अभिवृत्ति परिवर्तन करने के लिए सक्रिय स्रोत को विश्वसनीय , विषय का विशेषज्ञ और साख वाला होना चाहिए । साथ ही यह भी पाया गया है कि स्रोत और लक्ष्य व्यक्ति ; इन दोनों के बीच बहुत अधिक अन्तर हो तो लक्ष्य व्यक्ति की अभिवृत्ति में परिवर्तन कम होता है । इसी प्रकार स्रोत की साख का प्रभाव उन व्यक्तियों की अभिवृत्ति परिवर्तन पर नहीं होता जिनकी अभिवृत्ति की लक्ष्यवस्तु में लगाव अधिक होता है ।

यह भी पाया गया है कि यदि लक्ष्य – व्यक्ति स्रोत की विश्वसनीयता पर शक नहीं करता है तो परिवर्तन होता है ; अन्यथा नहीं होता है । स्रोत की साख का प्रभाव तब भी कम हो जाता है जबकि लक्ष्य – व्यक्ति को संचार के सुनने या न सुनने की स्वतंत्रता हो । स्रोत की साख का प्रभाव अधिक दिन तक बना रहे , यह आवश्यक नहीं है । सामान्यतया यही पाया जाता है कि तात्कालिक प्रभाव के पश्चात् समय अन्तराल के बढ़ने के साथ – साथ अधिक साख वाले स्रोत का प्रभाव कम होता जाता है । इसके विपरीत कम साख वाले स्रोत का प्रभाव समय के साथ – साथ बढ़ता जाता है जिसे ” सुप्त प्रभाव ” ( Sleeper effect ) कहा गया है । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि स्रोत की विश्वसनीयता , साख , तथा आकर्षण अभिवृत्ति परिवर्तन को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण कारक हैं । परन्तु इनका प्रभाव अन्य कारकों के प्रभाव के साथ बदलता रहता है ।

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अपर्याप्त न्यायिक संगति ( Inadequate Justification ) :

अनेक प्रायोगिक अध्ययनों द्वारा यह दर्शाया गया है कि विसंगत संचार की तुलना में विसंगत व्यवहार अभिवृत्ति में अधिक परिवर्तन लाते हैं । उदाहरण के लिए – जेनिस तथा मैन ( 1965 ) द्वारा किये गये एक प्रयोग में धूम्रपान करने वाले प्रयोज्यों से कैन्सर के रोगी की भूमिका अदा करने को कहा गया । प्रयोगकर्ता ने एक डाक्टर की भूमिका अदा की और रोगी को धूम्रपान का कारण बतलाते हुए अपनी राय प्रस्तुत की । बाद में यह पाया गया कि प्रयोज्यों की धूम्रपान के प्रति अभिवृत्ति में सुधार हुआ ।

इस प्रकार के प्रयोगात्मक अध्ययनों में पुरस्कार का भी उपयोग किया गया है । इनमें अभिवृत्ति से विसंगत व्यवहार करने के लिये प्रयोज्यों को पुरस्कार दिया जाता है । फेस्टिजर तथा कार्लस्मिथ ( 1959 ) के पूर्व चर्चित प्रयोग में एक समूह को विसंगत व्यवहार करने पर कम पुरस्कार ( 1 डालर ) तथा दूसरे समूह को अधिक पुरस्कार ( 20 डालर ) दिये गये थे । प्रयोग के परिणामों से ज्ञात हुआ था कि कम पुरस्कार पाने वाले प्रयोज्यों में अभिवृत्ति परिवर्तन की मात्रा अधिक थी ; जबकि अधिक पुरस्कार पाने वालों में कम | ऐसा क्यों हआ ? इस प्रश्न की व्याख्या अपर्याप्त न्यायिक संगति के आधार पर की गयी है । विसंगत व्यवहार को करने पर यदि कम पुरस्कार मिलता है तो व्यक्ति विसंगत व्यवहार को पुरस्कार योग्य नहीं मान सकता ; जबाक अधिक पुरस्कार की स्थिति में वह सोचता है कि विसंगत व्यवहार पैसे के लिए किया गया था । अत : कम पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रयोज्य अरुचिकर कार्य को ही रुचिकर मानने लगते हैं । संक्षेप में जब स्रोत द्वारा किये गये कार्यों को आन्तरिक कारणों के फलस्वरूप माना जाता है तो संचार अधिक प्रभावकारी होता है और अभिवत्ति परिवर्तन को सहज बनाता है ।

 प्रयत्न की मात्रा तथा अभिवृत्ति परिवर्तन : जिस लक्ष्य को पाने में व्यक्ति को जितना अधिक श्रम करना पड़ता है , व्यक्ति के लिए वह लक्ष्य उतना ही महत्वपूर्ण हो जाता है । एरान्सन तथा मिल्स ( 1959 ) ने अपने अध्ययन में यह पाया कि जिस समूह की सदस्यता पाना जितना ही कठिन होता है , उसके प्रति आकर्षण उतना ही अधिक बढ़ जाता है । इसका अभिवत्ति के प्रसंग में यह महत्व है कि व्यक्ति उन अभिवृत्तियों में परिवर्तन का प्रतिरोध करता है , जिन्हें वह परिश्रम व लगाव से अर्जित कर चुका है ।

निष्पादन की प्रत्याशा : प्रत्येक व्यक्ति अपना व्यवहार दूसरों के द्वारा की गयी प्रत्याशाओं के अनुरूप ढालने का प्रयास करता है । यदि किसी व्यक्ति से उच्च स्तर के निष्पादन की अपेक्षा की जाती है तो वह उच्च स्तर का प्रयास करता है । इसके विपरीत निम्न स्तर के निष्पादन की प्रत्याशा के फलस्वरूप व्यक्ति निम्न स्तर का निष्पादन करता है । रथ ( 1973 ) द्वारा जातिगत रूढ़ियुक्तियों के अध्ययन में यह पाया गया कि निम्न जाति समूह के व्यक्तियों ने अपने लिए ऋणात्मक विशेषणों का उपयोग किया जैसा कि उच्च वर्ग के सदस्य करते हैं । इस प्रकार व्यक्ति के लिए अन्य महत्त्वपूर्ण व्यक्ति या समूह की प्रत्याशा व्यक्ति की अभिवृत्ति को प्रभावित करती है ।

प्रतिबद्धता तथा व्यक्ति की इच्छा : ब्रेहम तथा कोहन ( 1959 ) ने संज्ञानात्मक विसन्नादिता सिद्धान्त का परिमार्जन करते हुए कहा है कि जब व्यक्ति प्रतिबद्ध रहता है ( Committed ) तो अधिक विसन्नादिता का अनुभव करता है । जब व्यक्ति अभिवृत्ति के विरुद्ध कोई कार्य करने के लिए स्वीकृति ( चाहे अपनी इच्छा से या दबाव से ) दे देता है तो व्यक्ति उस व्यवहार के लिए प्रतिबद्ध हो जाता है । इस प्रतिबद्धता के साथ व्यक्ति की पहले की अभिवृत्ति असंगत हो जाती है । यह स्थिति अभिवृत्ति परिवर्तन को सहज बनाती है । किसलर ( 1971 ) ने यह परिणाम पाया कि उच्च प्रतिबद्धता की स्थिति में अभिवृत्तियों के प्रति प्रतिरोध अधिक होता है और दृढ़ता भी बढ़ती है ।

अभिवृत्ति परिवर्तन एक जटिल प्रक्रम है । इसके प्रभावी होने के लिए यह आवश्यक है कि जो व्यक्ति वा स्रोत अभिवृत्ति में परिवर्तन के लिए प्रयास कर रहा है , उसके प्रति धनात्मक अभिवृत्ति उत्पन्न हो । जब तक ऐसा नहीं होगा , अभिवृत्ति को बदलने का प्रत्येक प्रयास असफल होगा । भारतीय परिप्रेक्ष्य में परिवार नियोजन , जीवन बीमा , प्रौढ़ शिक्षा , कृषि के उन्नत तरीके आदि अनेक क्षेत्रों में सायास परिवर्तन लाने के सरकारी और स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा प्रयास किये जा रहे हैं । इन प्रयासों की सफलता को उपरोक्त परिवयों के प्रसंग में देखने पर अभिवृत्ति परिवर्तन की जटिलता का अनुमान लगाया जा सकता है ।

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