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अपराजिता विधेयक विवाद: राज्यपाल की वीटो शक्ति और राज्य के अधिकारों पर बड़ा सवाल

अपराजिता विधेयक विवाद: राज्यपाल की वीटो शक्ति और राज्य के अधिकारों पर बड़ा सवाल

चर्चा में क्यों? (Why in News?):

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक पारा एक बार फिर गरमा गया है। राज्यपाल सी. वी. आनंद बोस ने राज्य सरकार द्वारा प्रस्तावित ‘अपराजिता विधेयक’ को कुछ आपत्तियों के साथ वापस भेज दिया है। राज्यपाल का कहना है कि विधेयक दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराधों के लिए अत्यंत कठोर सजा का प्रावधान करता है, जिसके औचित्य और कार्यान्वयन पर सवाल उठाए गए हैं। वहीं, सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने राज्यपाल के इस कदम का कड़ा विरोध करने की घोषणा की है। यह घटनाक्रम न केवल विधायी प्रक्रिया पर प्रकाश डालता है, बल्कि राज्यपाल की भूमिका, राज्य सरकार के अधिकारों और विधायी शक्ति के संतुलन जैसे महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दों को भी सामने लाता है। UPSC की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों के लिए यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है, जिसकी गहराई से पड़ताल आवश्यक है।

‘अपराजिता विधेयक’: पृष्ठभूमि और उद्देश्य

किसी भी कानून के बनने की प्रक्रिया को समझने के लिए उसकी पृष्ठभूमि जानना महत्वपूर्ण है। ‘अपराजिता विधेयक’ (या इससे मिलता-जुलता कोई विधेयक) संभवतः महिलाओं के खिलाफ, विशेषकर यौन हिंसा के मामलों में, न्याय प्रक्रिया को तेज करने और अपराधियों को सख्त सजा दिलाने के उद्देश्य से लाया गया था। ऐसे विधेयक अक्सर सार्वजनिक भावना और अपराधों की बढ़ती दर के जवाब में लाए जाते हैं।

  • उद्देश्य: दुष्कर्म और अन्य गंभीर यौन अपराधों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान करना, पीड़ितों को त्वरित न्याय दिलाना, और समाज में एक निवारक (deterrent) प्रभाव पैदा करना।
  • प्रस्तावित प्रावधान: संभवतः विधेयक में सजा की अवधि बढ़ाना, दोषसिद्धि के लिए साक्ष्य के मानकों को समायोजित करना, या फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना जैसे प्रावधान शामिल हो सकते हैं।

यह समझना महत्वपूर्ण है कि ऐसे कानून का इरादा नेक हो सकता है, लेकिन संविधान के ढांचे के भीतर इसकी संवैधानिकता और व्यावहारिकता सुनिश्चित करना सर्वोपरि है।

राज्यपाल की भूमिका: एक संवैधानिक प्रहरी

भारतीय संविधान, विशेष रूप से अनुच्छेद 153 से 167 तक, राज्यों में राज्यपाल के पद और शक्तियों को परिभाषित करता है। राज्यपाल, राज्य का कार्यकारी प्रमुख होता है, हालांकि उसकी भूमिका काफी हद तक औपचारिक होती है, और वह मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करता है (अनुच्छेद 163)। हालांकि, कुछ विशिष्ट मामलों में, राज्यपाल के पास विवेकाधिकार (discretionary powers) और वीटो शक्तियां भी होती हैं, जो उसे संवैधानिक गतिरोधों में एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बनाती हैं।

अनुच्छेद 200: “जब कोई विधेयक किसी राज्य के विधान-मंडल के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया हो, तब वह राज्यपाल को प्रस्तुत किया जाएगा और राज्यपाल, इसके लिए अपनी सम्मति देगा या रोकेगा:
(क) उस विधेयक को, राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रख सकेगा…
(ख) … उस विधेयक को, यदि वह धन-विधेयक नहीं है, तो, अन्यथा, किसी संदेश के साथ, जिसे वह आवश्यक समझे, विधान-मंडल के सदन या सदनों को, जैसा भी स्थिति हो, इस प्रकार लौटा सकेगा कि वे उस पर पुनर्विचार करें और यदि विधान-मंडल, विधेयक को राज्यपाल की सम्मति के लिए फिर से प्रस्तुत करता है, तो राज्यपाल उस पर अपनी सम्मति देगा।”

इस मामले में, राज्यपाल द्वारा विधेयक को वापस भेजना अनुच्छेद 200 के तहत उनकी शक्ति का प्रयोग दर्शाता है। राज्यपाल की आपत्तियाँ दो मुख्य श्रेणियों में आ सकती हैं:

  1. संवैधानिकता पर सवाल: क्या विधेयक संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन करता है?
  2. न्यायसंगतता और व्यावहारिकता: क्या प्रस्तावित सजाएं अत्यधिक कठोर हैं, और क्या वे न्याय प्रणाली पर अनुचित बोझ डाल सकती हैं? क्या वे किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों (जैसे अनुच्छेद 21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार, जिसमें गरिमापूर्ण जीवन भी शामिल है) का उल्लंघन करती हैं?

राज्यपाल बनाम राज्य सरकार: विधायी शक्ति का टकराव

यह घटना पश्चिम बंगाल में राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच लंबे समय से चले आ रहे तनावपूर्ण संबंधों का एक और उदाहरण है। ऐसे टकराव अक्सर तब उत्पन्न होते हैं जब राज्यपाल को केंद्र सरकार (जो अक्सर सत्तारूढ़ दल से संबंधित होती है) के एक एजेंट के रूप में देखा जाता है, जो राज्य सरकार की विधायी पहलों में बाधा डालता है।

  • TMC का पक्ष: तृणमूल कांग्रेस निश्चित रूप से राज्यपाल के कदम को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप और जनता द्वारा चुनी गई सरकार के अधिकारों का हनन मानेगी। वे तर्क दे सकते हैं कि:
    • विधेयक राज्य विधानसभा द्वारा पारित किया गया है, जो जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है।
    • दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराधों के लिए सख्त सजा की मांग जनता की है।
    • राज्यपाल की आपत्तियाँ विधायी प्रक्रिया को बाधित करने का बहाना मात्र हैं।
    • TMC इस मामले को सड़कों पर और विधायी मंचों पर जोरदार तरीके से उठाएगी।
  • राज्यपाल का पक्ष: राज्यपाल का तर्क यह होगा कि वे केवल संविधान के प्रति अपनी निष्ठा का पालन कर रहे हैं और सुनिश्चित कर रहे हैं कि कानून न केवल प्रभावी हो बल्कि संवैधानिक रूप से भी मान्य हो। उनकी चिंताओं में शामिल हो सकते हैं:
    • अत्यधिक कठोर सजाएं न्याय के सिद्धांत के विपरीत हो सकती हैं।
    • समान अपराधों के लिए विभिन्न राज्यों में अलग-अलग, अत्यधिक भिन्न दंड न्यायसंगत नहीं हो सकते।
    • कानून की कार्यान्वयन क्षमता और इसके संभावित अनपेक्षित परिणाम।

सख्त सजाओं के कानून: फायदे और नुकसान (Pros and Cons of Stringent Punishment Laws)

किसी भी अपराध के लिए सजा को बढ़ाने की प्रवृत्ति अक्सर जनता की मांगों से प्रेरित होती है। ‘अपराजिता विधेयक’ के मामले में, इसका सीधा संबंध दुष्कर्म जैसे अपराधों के प्रति समाज की गहरी चिंता से है।

फायदे (Pros):

  • निवारक प्रभाव (Deterrent Effect): सख्त सजाएं संभावित अपराधियों को अपराध करने से रोक सकती हैं, इस डर से कि उन्हें गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।
  • न्याय की भावना (Sense of Justice): पीड़ितों और समाज को यह महसूस हो सकता है कि अपराध की गंभीरता के अनुपात में न्याय हो रहा है।
  • सार्वजनिक विश्वास (Public Confidence): ऐसे कानून सरकार में जनता के विश्वास को बढ़ा सकते हैं कि वह अपराध से लड़ने के लिए गंभीर है।

नुकसान (Cons):

  • अल्प प्रभावशीलता (Limited Effectiveness): कई अध्ययनों से पता चला है कि केवल सजा बढ़ाने से अपराध दर पर महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं पड़ता है, जब तक कि दोषसिद्धि की संभावना (certainty of punishment) और गिरफ्तारी की संभावना (certainty of apprehension) अधिक न हो।
  • अन्यायपूर्ण परिणाम (Unjust Outcomes): अत्यंत कठोर सजाएं, विशेष रूप से आजीवन कारावास या मृत्युदंड, विचाराधीन कैदियों (undertrials) या छोटे-मोटे अपराध करने वालों के लिए अनुचित हो सकती हैं।
  • कारागारों पर बोझ (Burden on Prisons): लंबी सजाओं के कारण जेलों में भीड़ बढ़ सकती है, जिससे संसाधनों पर दबाव पड़ता है।
  • न्यायिक प्रक्रिया पर प्रभाव: इससे न्यायिक प्रणाली पर और अधिक बोझ पड़ सकता है, जिससे मामलों को निपटाने में अधिक समय लग सकता है।
  • संविधान का उल्लंघन: जैसा कि राज्यपाल की चिंता हो सकती है, कुछ सजाएं अनुच्छेद 21 के तहत गरिमा के अधिकार का उल्लंघन कर सकती हैं।

यह एक नाजुक संतुलन है जिसे बनाए रखना होता है। कानून को निवारक होना चाहिए, लेकिन न्यायपूर्ण भी।

कानूनी और संवैधानिक दृष्टिकोण

यह पूरा विवाद भारतीय संविधान में निहित शक्तियों के पृथक्करण (separation of powers) और विधायी प्रक्रिया के महत्व पर केंद्रित है।

  • विधायी प्रक्रिया: एक विधेयक को कानून बनने के लिए राज्य विधानसभा के दोनों सदनों (यदि द्विसदनीय है) से पारित होना होता है, और फिर राज्यपाल की सहमति प्राप्त करनी होती है। राज्यपाल के पास सहमति देने, रोकने, या राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखने का अधिकार है।
  • राज्यपाल का विवेकाधिकार: हालांकि अधिकांश मामलों में राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करते हैं, ‘संविधान का प्रहरी’ के रूप में उनकी भूमिका उन्हें कुछ महत्वपूर्ण निर्णय लेने की अनुमति देती है, जैसे कि जब उन्हें लगता है कि कोई विधेयक असंवैधानिक है या राज्य के हितों के विरुद्ध है।
  • न्यायिक समीक्षा (Judicial Review): यदि राज्यपाल विधेयक को वापस कर देते हैं और सरकार उसे फिर से पारित कर देती है, और राज्यपाल अभी भी सहमत नहीं होते हैं, तो अंततः मामला न्यायपालिका के पास जा सकता है। अदालतें यह तय कर सकती हैं कि क्या विधेयक संवैधानिक है और क्या राज्यपाल का कार्य उचित था।

यहां मुख्य प्रश्न यह है कि क्या राज्यपाल की “आपत्तियां” केवल विधायी गतिरोध पैदा करने का एक तरीका है, या क्या वे वास्तव में संवैधानिक या तार्किक आधार पर की गई हैं।

चुनौतियाँ और आगे की राह (Challenges and Way Forward)

इस तरह के गतिरोध भारत के संघीय ढांचे के लिए कई चुनौतियाँ पेश करते हैं:

  1. संवैधानिक संकट: राज्यपाल और चुनी हुई सरकार के बीच लगातार टकराव संवैधानिक संकट को जन्म दे सकता है।
  2. शासन में बाधा: महत्वपूर्ण कानून और नीतियां अधर में लटक सकती हैं, जिससे शासन प्रभावित हो सकता है।
  3. राजनीतिक ध्रुवीकरण: ऐसे मुद्दे अक्सर राजनीतिक ध्रुवीकरण को बढ़ाते हैं, जिससे समाधान खोजना और मुश्किल हो जाता है।

आगे की राह:

  • संवाद और परामर्श: राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच खुले संवाद और परामर्श से गतिरोध को दूर किया जा सकता है। राज्यपाल को अपनी आपत्तियों को स्पष्ट रूप से संप्रेषित करना चाहिए, और सरकार को उन पर विचार करना चाहिए।
  • न्यायपालिका की भूमिका: यदि बातचीत विफल रहती है, तो न्यायपालिका अंतिम समाधान प्रदान कर सकती है।
  • संवैधानिक सुधार: राज्यपाल की भूमिका और शक्तियों को लेकर चल रही बहसें संभावित रूप से भविष्य में संवैधानिक सुधारों की ओर ले जा सकती हैं, ताकि ऐसे टकरावों को कम किया जा सके।
  • स्पष्ट दिशानिर्देश: राज्यपाल की वीटो शक्ति और विवेकाधीन शक्तियों के उपयोग के संबंध में अधिक स्पष्ट दिशानिर्देशों की आवश्यकता है, ताकि उनका दुरुपयोग न हो।

निष्कर्ष

पश्चिम बंगाल का ‘अपराजिता विधेयक’ विवाद सिर्फ एक राज्य-विशिष्ट मुद्दा नहीं है, बल्कि यह राज्यपाल की भूमिका, राज्य के विधायी अधिकार और विधायी शक्ति के संतुलन जैसे व्यापक संवैधानिक मुद्दों पर प्रकाश डालता है। जहाँ एक ओर समाज दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराधों के खिलाफ सख्त कानूनों की मांग करता है, वहीं दूसरी ओर यह सुनिश्चित करना भी महत्वपूर्ण है कि ऐसे कानून संविधान के दायरे में हों और न्याय के सिद्धांतों का पालन करें। राज्यपाल का कदम इस नाजुक संतुलन को बनाए रखने के उनके संवैधानिक कर्तव्य का हिस्सा हो सकता है, लेकिन TMC का विरोध इस बात का संकेत है कि इस कदम को राजनीतिक और सार्वजनिक दोनों स्तरों पर कड़ी चुनौती मिलेगी।

UPSC उम्मीदवारों के लिए, इस मामले का अध्ययन राज्यपाल की शक्तियों, विधायी प्रक्रिया, विधायी शक्ति के पृथक्करण, भारतीय संविधान के मूल ढांचे, और महिला सुरक्षा तथा आपराधिक न्याय जैसे समसामयिक सामाजिक मुद्दों के बीच संबंधों को समझने का एक उत्कृष्ट अवसर प्रदान करता है।

UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)

प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs

1. निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
I. भारतीय संविधान के अनुसार, राज्यपाल राज्य का कार्यकारी प्रमुख होता है।
II. राज्यपाल को राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किसी भी विधेयक पर वीटो शक्ति प्राप्त है।
III. राज्यपाल, राष्ट्रपति के विचार के लिए किसी भी विधेयक को आरक्षित कर सकता है।
उपरोक्त में से कौन से कथन सही हैं?
(a) केवल I
(b) I और II
(c) I और III
(d) I, II और III
उत्तर: (c)
व्याख्या: कथन I सही है क्योंकि अनुच्छेद 154 के अनुसार, राज्यपाल राज्य का कार्यकारी प्रमुख होता है। कथन II आंशिक रूप से सही है, राज्यपाल के पास विधेयक को ‘रोके रखने’ (withhold assent) की शक्ति है, लेकिन यह वीटो पूर्ण नहीं है क्योंकि वह इसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर सकता है या पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकता है। हालांकि, ‘अपराजिता विधेयक’ के संदर्भ में, राज्यपाल ने इसे वापस भेजा है, जो एक प्रकार का वीटो ही है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक आरक्षित कर सकता है (अनुच्छेद 200(1)(a)), यह शक्ति अन्य विधेयकों पर भी लागू होती है। कथन III बिल्कुल सही है।

2. पश्चिम बंगाल के राज्यपाल द्वारा ‘अपराजिता विधेयक’ वापस भेजने के संबंध में निम्नलिखित में से कौन सी एक संभावित चिंता हो सकती है?
(a) विधेयक का राज्य सूची का विषय होना
(b) विधेयक में दुष्कर्म के लिए अत्यंत कठोर सजा का प्रावधान
(c) विधेयक का संघीय ढांचे को कमजोर करना
(d) विधेयक का अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन करना
उत्तर: (b)
व्याख्या: समाचार के अनुसार, राज्यपाल ने विधेयक को इसलिए वापस भेजा है क्योंकि इसमें दुष्कर्म जैसे अपराधों के लिए बहुत सख्त सजा का कानून है। यह उनकी मुख्य चिंता का बिंदु है।

3. भारतीय संविधान का कौन सा अनुच्छेद राज्यपाल की विधायी शक्तियों से संबंधित है, जिसमें विधेयकों पर सहमति या असहमति की शक्ति भी शामिल है?
(a) अनुच्छेद 153
(b) अनुच्छेद 163
(c) अनुच्छेद 200
(d) अनुच्छेद 213
उत्तर: (c)
व्याख्या: अनुच्छेद 200 राज्यपाल की विधायी शक्तियों, जिसमें विधेयकों पर सहमति, असहमति या राष्ट्रपति के लिए आरक्षित रखने की शक्ति शामिल है, से संबंधित है। अनुच्छेद 213 अध्यादेश जारी करने की शक्ति से संबंधित है।

4. ‘अपराजिता विधेयक’ जैसे विधेयकों को राज्यपाल द्वारा वापस भेजने का सबसे संभावित संवैधानिक कारण क्या हो सकता है?
(a) राज्यपाल का राज्य सरकार को अस्थिर करना
(b) यह सुनिश्चित करना कि विधेयक असंवैधानिक या न्यायसंगत न हो
(c) विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी से बचाना
(d) राज्य विधानसभा को और अधिक शक्तियाँ देना
उत्तर: (b)
व्याख्या: राज्यपाल का संवैधानिक कर्तव्य है कि वे राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों की संवैधानिकता और न्यायसंगतता सुनिश्चित करें। यदि उन्हें विधेयक में कोई कमी दिखती है, तो वे उसे वापस भेज सकते हैं।

5. निम्नलिखित में से कौन राज्यपाल की एक विवेकाधीन शक्ति (discretionary power) मानी जा सकती है?
(a) राज्य के मुख्यमंत्री की नियुक्ति
(b) राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना
(c) राज्य के मंत्री की नियुक्ति
(d) विधानसभा के सत्र को आहूत करना
उत्तर: (b)
व्याख्या: राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना (अनुच्छेद 356 के तहत) राज्यपाल की एक प्रमुख विवेकाधीन शक्ति है, हालांकि यह अक्सर राजनीतिक जांच के दायरे में आता है। अन्य विकल्प मंत्रिपरिषद की सलाह पर किए जाते हैं।

6. यदि राज्यपाल किसी विधेयक को पुनर्विचार के लिए राज्य विधानमंडल को वापस भेजते हैं, और विधानमंडल द्वारा उसे फिर से पारित कर राज्यपाल की सहमति के लिए प्रस्तुत किया जाता है, तो राज्यपाल को क्या करना चाहिए?
(a) विधेयक को तुरंत स्वीकार करना होगा।
(b) विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करना होगा।
(c) विधेयक को तीसरी बार वापस भेजना होगा।
(d) विधेयक को अस्वीकार करना होगा।
उत्तर: (a)
व्याख्या: अनुच्छेद 200 के अनुसार, यदि विधेयक को राज्यपाल की सहमति के लिए फिर से प्रस्तुत किया जाता है, तो राज्यपाल को उस पर अपनी सहमति देनी होगी।

7. “अपराध के लिए कठोर सजा” के संबंध में निम्नलिखित में से कौन सा कथन सत्य नहीं है?
(a) यह अपराध दर को कम करने में सहायक हो सकती है।
(b) यह न्याय की भावना को बढ़ाती है।
(c) दोषसिद्धि की निश्चितता (certainty of conviction) से अधिक प्रभावी हो सकती है।
(d) यह हमेशा संवैधानिक रूप से मान्य होती है।
उत्तर: (c)
व्याख्या: कई अध्ययनों से पता चलता है कि केवल सजा बढ़ाने से अपराध दर पर उतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना दोषसिद्धि की निश्चितता और गिरफ्तारी की निश्चितता से पड़ता है। कथन (d) गलत है क्योंकि बहुत कठोर सजाएं संविधान का उल्लंघन कर सकती हैं।

8. भारतीय संविधान में राज्यपाल की भूमिका के संबंध में निम्नलिखित में से किस मामले पर अक्सर बहस होती है?
(a) उनका वेतन और भत्ते
(b) केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में उनकी भूमिका
(c) उनके अवकाश लाभ
(d) उनके यात्रा भत्ते
उत्तर: (b)
व्याख्या: राज्यपाल की भूमिका अक्सर विवादास्पद रही है, खासकर जब उन्हें केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में देखा जाता है जो राज्य सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप करता है।

9. “विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करना” (Reserving bills for the consideration of the President) शक्ति का प्रयोग राज्यपाल किस अनुच्छेद के तहत करते हैं?
(a) अनुच्छेद 154
(b) अनुच्छेद 163
(c) अनुच्छेद 200
(d) अनुच्छेद 213
उत्तर: (c)
व्याख्या: अनुच्छेद 200 स्पष्ट रूप से विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करने की राज्यपाल की शक्ति का उल्लेख करता है।

10. ‘अपराजिता विधेयक’ के संदर्भ में, TMC का विरोध मुख्य रूप से किस पर केंद्रित होने की संभावना है?
(a) विधेयक में सजाओं की अस्पष्टता
(b) विधेयक के कार्यान्वयन की लागत
(c) विधायी प्रक्रिया में राज्यपाल द्वारा हस्तक्षेप
(d) विधेयक में लैंगिक समानता का अभाव
उत्तर: (c)
व्याख्या: TMC का विरोध राज्यपाल के विधेयक को वापस भेजने के कार्य पर केंद्रित होगा, जिसे वे विधायी प्रक्रिया में हस्तक्षेप और लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार के अधिकारों का हनन मानते हैं।

मुख्य परीक्षा (Mains)

1. भारतीय संविधान के तहत राज्यपाल की विधायी शक्तियों का वर्णन करें, विशेष रूप से विधेयकों पर उनकी सहमति, असहमति और पुनर्विचार के लिए वापस भेजने की शक्तियों पर प्रकाश डालें। ‘अपराजिता विधेयक’ जैसे मामलों में राज्यपाल की भूमिका और उसकी संवैधानिकता पर एक विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करें।
2. ‘अपराजिता विधेयक’ जैसे सख्त सजा वाले कानूनों के पक्ष और विपक्ष पर एक विस्तृत चर्चा करें। अपराधों की रोकथाम और न्यायसंगत दंड के बीच संतुलन बनाने में विधायी नीति की भूमिका का विश्लेषण करें।
3. राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच विधायी टकराव भारत के संघीय ढांचे को कैसे प्रभावित करते हैं? पश्चिम बंगाल के हालिया घटनाक्रम के आलोक में, राज्यपाल की भूमिका को अधिक वस्तुनिष्ठ और संवैधानिक बनाने के लिए सुझाई गई उपायों पर चर्चा करें।
4. यौन अपराधों के खिलाफ लड़ाई में केवल सजा बढ़ाने के अलावा अन्य कौन से प्रभावी उपाय हो सकते हैं? ‘अपराजिता विधेयक’ जैसे कानूनों की सीमाएं क्या हैं और उन्हें अधिक प्रभावी बनाने के लिए क्या किया जा सकता है?

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