अधिकारीतन्त्र

अधिकारीतन्त्र

( Bureaucracy )

राजनैतिक समाजशास्त्र की विवेचना में वेबर का ध्यान आधुनिक राज्यों की उन विशेषताओं की ओर आकृष्ट हुआ जो पैतृक शासन तथा सामन्तवादी शासन से

उत्पन्न होने वाले दोषों से उत्पन्न हुई थीं । आज संसार के अधिकांश राज्यों में वैधानिक सत्ता पर आधारित शासन देखने को मिलता है । इस दृष्टिकोण से वेबर ने सर्वप्रथम उन दशाओं को स्पष्ट किया जिनके अन्तर्गत परम्परागत और चमत्कारी सत्ता के स्थान पर वैधानिक सत्ता तथा इसके एक विशेष उपकरण के रूप में अधि कारीतन्त्र को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा । सर्वप्रथम परम्परागत तथा चमत्कारी सत्ता की प्रणाली में शासन से सम्बन्धित अधिकांश अधिकारी वस्तु के रूप में मिलने वाले करों को अपनी निजी सम्पत्ति समझने लगे थे । जब मुद्रा का प्रचलन अधिक हो गया तब इस बात की आवश्यकता महसस की जाने लगी कि एक विश्वसनीय और कार्य – कुशल अधिकारीतन्त्र को विकसित करके राज्य की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाया जाय । इसके अतिरिक्त राज्य से आन्तरिक शान्ति की स्थापना करने , सामाजिक सेवाओं को पूरा करने तथा प्रौद्योगिक विकास करने के लिए भी यह आवश्यक हो गया कि शासन उन व्यक्तियों के माध्यम से चलाया जाय जो किसी विशेष व्यक्ति अथवा नेता के भक्त न होकर राज्य और कानून के प्रति अधिक वफा दार हों । राज्य में सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को दूर करने में भी वैधा निक सत्ता को अधिक उपयोगी महसूस किया जाने लगा । अधिकारीतन्त्र वैधानिक सत्ता का एक विशेष उपकरण है , इसलिए वैधानिक सत्ता के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए वेबर ने अधिकारीतन्त्र की प्रकृति तथा इसके लक्षणों का विश्लेषण किया । इस विश्लेषण में वेबर ने अधिकारीतन्त्र के चार पक्षों को विशेष रूप से स्पष्ट किया – – ( 1 ) अधिकारीतन्त्र के विकास के ऐतिहासिक कारण , ( 2 ) अधिकारी तन्त्र की कार्यप्रणाली में वैधानिक शासन का प्रभाव , ( 3 ) पैतृक शासन की कार्य प्रणाली की तुलना में , अधिकारीतन्त्र की प्रकृति , तथा ( 4 ) आधुनिक विश्व में अधिकारीतन्त्र के महत्त्वपूर्ण लक्षण तथा परिणाम । इन्हीं पक्षों के विवेचन द्वारा अधिकारीतन्त्र के बारे में वेबर के विचारों को अधिक व्यवस्थित रूप से समझा जा सकता है । सामान्य शब्दों में कहा जा सकता है कि ‘ अधिकारीतन्त्र एक इस तरह का संस्तरणात्मक संगठन ( Hierarchical Organization ) है जिसका उद्देश्य बड़े पैमाने पर प्रशासनिक कार्यों को चलाने के लिए बहुत से व्यक्तियों के कार्य को तार्किक रूप से समन्वित करना होता है । ” यदि इस दृष्टिकोण से विचार किया जाय तो जहाँ कहीं भी कानूनों पर आधारित शासन व्यवस्था ( वैधानिक सत्ता ) पायी जाती है वहाँ अधिकारीतन्त्र का प्रशासनिक संगठन अनेक नियमों अथवा सिद्धान्तों पर आधारित होता है ।

( 1 ) सर्वप्रथम , अधिकारीतन्त्र के अन्तर्गत सरकारी काम निरन्तरता के आधार पर किया जाता है । इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक कार्य के पीछे कुछ विशेष उद्देश्य और नीतियां होती हैं जिनके पालन की अपेक्षा इस तन्त्र से सम्बन्धित प्रत्येक व्यक्ति से करने की आशा की जाती है ।

 ( 2 ) अधिकारीतन्त्र के अन्तर्गत प्रत्येक कार्य पूर्व – निश्चित नियमों के अनुसार होता है जिनमें तीन नियम अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । सर्वप्रथम , कोई भी अधिकारी अथवा कर्मचारी अपने प्रत्येक कार्य को अवैयक्तिक रूप से ही कर सकता है । दूसरे , प्रत्येक कार्य को पूरा करने के लिए सम्बन्धित अधिकारियों को कुछ विशेष अधिकार सौंपे जाते हैं । तीसरे , किसी कार्य के लिए एक अधिकारी कुछ वैध साधनों का प्रयोग करके ही जनता को उसके लिए बाध्य कर सकता है । वह मनमाने रूप से अपने अधिकारों का उपयोग नहीं कर सकता ।

 ( 3 ) सम्पूर्ण अधिकारीतन्त्र में प्रत्येक अधिकारी के दायित्व और अधिकार उसके विभाग की सत्ता का एक अंग मात्र होते हैं । साधारणतया उच्च अधिकारियों को निरीक्षण का अधिकार दिया जाता है जबकि निम्न श्रेणी के अधिकारियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे आग्रह के द्वारा अपने कार्यों को पूरा करें ।

( 4 ) इस तन्त्र में सरकारी और व्यक्तिगत कार्य एक – दूसरे से बिलकुल अलग होते हैं । इसका तात्पर्य है कि एक अधिकारी राज्य के साधनों का उपयोग तो कर सकता है लेकिन किसी भी रूप में वह उन पर अपना स्वामित्व प्रदर्शित नहीं कर सकता ।

 ( 5 ) कोई भी अधिकारी अपने पद का उपयोग उसे व्यक्तिगत सम्पत्ति मान कर नहीं कर सकता । इसका तात्पर्य है कि किसी पद को न तो बेचा जा सकता है और न ही उसे किसी दूसरे व्यक्ति को उत्तराधिकार में दिया जा सकता है । अधिकारियों को अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह निभाने की प्रेरणा देने के लिए उन्हें पेन्शन प्राप्त करने और पद से बिना कारण न हटाये जाने का अधिकार अवश्य मिलता है लेकिन यह अधिकार भी सम्पत्ति के समान नहीं होते ।

( 6 ) अधिकारीतन्त्र के प्रशासनिक संगठन का एक प्रमुख नियम यह है कि कार्य लिखित दस्तावेजों ( Written Documents ) के आधार पर किये जाते हैं ।  इन दस्तावेजों को विभिन्न फाइलों के रूप में सुरक्षित रखा जाता है जिससे आवश्यकता पड़ने पर किसी भी पुराने निर्णय और उसके आधार को कभी भी पुनः देखा जा सके ।

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 इस प्रकार स्पष्ट होता है कि अधिकारीतन्त्र में सरकारी काम की निरन्तर निश्चित नियमों के द्वारा अधिकारों का सीमित उपयोग , नियमों को लागू करने के निरीक्षण , काम करने का अवैयक्तिक ढंग , पद और पदाधिकारी का भेद तथा लि रूप में कार्यों का सम्पादन कुछ ऐसी प्रमुख विशेषताएं हैं जिनके बिना अधिकारी के रूप में वैधानिक सत्ता को प्रभावपूर्ण नहीं बनाये रखा जा सकता ।

 वेबर ने अधिकारीतन्त्र की प्रकृति को एक पैतृक शासन से इसकी भिन्नता के आधार पर स्पष्ट किया है । सर्वप्रथम , एक पैतृक शासक और उसके द्वारा नियुक्त अधिकारी सम्पूर्ण कार्य अपनी इच्छा से करते हैं तथा वे कोई भी काम तभी करता चाहते हैं जब काम से उत्पन्न कष्टों के लिए उन्हें उसका समुचित पुरस्कार दिया जाय । दूसरे , पैतृक शासन के अन्तर्गत शासक और उसके अधिकारी कभी भी यह नहीं चाहते कि किन्हीं निश्चित नियमों के द्वारा उनकी सत्ता को एक सीमा में बाँध दिया जाय । वे कुछ परम्परागत नियमों का पालन कर सकते हैं लेकिन ऐसे नियम उनकी स्वच्छन्दता का समर्थन करने वाले ही होते हैं । तीसरे , एक पैतृक शासक यह स्वयं निश्चित करता है कि वह अपनी सत्ता को छोड़े अथवा जब तक चाहे उसे बनाये रखे । वह अपने पदाधिकारियों को क्योंकि स्वयं चुनता है इसलिए उनके कामों का निरीक्षण भी अपने प्रति उनकी स्वामिभक्ति और काम के प्रति रुचि को देखते हुए करता है । चौथे , पैतृक शासन में सभी प्रशासनिक पद शासक की इच्छा से जुड़े होते हैं तथा सभी अधिकारियों को शासक का व्यक्तिगत नौकर समझा जाता है ।

पांचवें , ऐसे शासन में अधिकारियों और प्रशासन पर होने वाला व्यय शासक के व्यक्तिगत कोष से दिया जाता है । अन्त में , सरकारी कार्य लिखित रूप में नहीं होता बल्कि शासक की इच्छाओं को ध्यान में रखते हुए मौखिक रूप से किया जाता है । वैधानिक सत्ता के अन्तर्गत अधिकारीतन्त्र की प्रकृति पैतक शासन की उपर्युक्त विशेषताओं से पूर्णतया भिन्न है । सवप्रथम , अधिकारीतन्त्र अधिकारियों के पद और उनके कार्यों का संचालन एक प्रशासनिक संगठन से प्रभावित होता है , किसी व्यक्ति की इच्छा से नहीं । दूसरे , इसके अन्तर्गत जहाँ अनेक लिखित नियमों को लागू करने पर जोर दिया जाता है , वहीं अधिकारियों की नियुक्ति भी कुछ विशेष नियमों के अन्तर्गत ही होती है । तीसरे , एक बार जब किसी व्यक्ति को एक अधिकारी के रूप में नियुक्त कर दिया जाता है तो वह नियमों का अवैयक्तिक रूप से पालन करता है , चाहे नियमों के पालन से स्वयं उसे नियुक्त करने वाले व्यक्ति अथवा संगठन को ही हानि क्यों न होती हो । उदाहरण के लिए सरकार द्वारा नियुक्त न्यायाधीश नियमों का पालन करने के लिए सरकार के विरुद्ध भी कोई आदेश दे सकते हैं । चौथे , प्रशासनिक कार्यों की निरन्तरता को बनाये रखने के लिए पूरे समय काम करने वाले अधिकारियों को नियुक्त किया जाता है । अपने कार्य से व्यक्तिगत प्रसन्नता न मिलने के बाद भी उन्हें एक निश्चित प्रणाली के अन्तर्गत काम करना आवश्यक होता है ।

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 पाँचवें , अधिकारीतन्ध में एक अधिकारी को अपने कर्तव्यों का समुचित रूप से पालन करने का अवसर देने के लिए उसकी कुशलता का मूल्यांकन उसके द्वारा अजित लाभ से नहीं किया जाता । इसी कारण किसी भी कर्मचारी का वेतन उसके विभागीय राजस्व से नहीं दिया जाता बल्कि एक पथक सरकारी कोष से दिया जाता है । यह सभी विशेषताएँ पैतृक शासन के रूप में परम्परागत सत्ता तथा अधिकारीतन्त्र के रूप में वैधानिक सत्ता के अन्तर को स्पष्ट करती हैं ।

 वेबर ने वैधानिक सत्ता के अन्तर्गत प्रशासनिक संगठन की इन विशेषताओं पर विचार करने के बाद आधुनिक जगत में अधिकारीतम्ब के महत्त्वपूर्ण लक्षणों और परिणामों पर भी प्रकाश डाला है । इन्हें संक्षेप में निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :

( 1 ) सर्वप्रथम , वेबर का कथन है कि अधिकारीतन्त्र का संगठन दूसरे संगठनों की तुलना में उसी प्रकार श्रेष्ठ है जिस प्रकार मशीन से किया गया उत्पादन हाथ से किये गये उत्पादन से श्रेष्ठ होता है । उदाहरण के लिए काम का नियमित रूप से होना , किसी तरह की अस्पष्टता न होना , काम लिखित रूप से और निरन्तर होते रहना , कार्य – संचालन में एकरूपता होना , व्यक्ति की अपेक्षा नियमों की प्रधानता होना और मतभेद की कम से कम सम्भावना रहना अधिकारीतन्त्र के कुछ विशेष लाभ हैं । इसके बाद भी यह लाभ इसलिए तुलनात्मक है कि अधिकारीतन्त्र एक स्वयंचलित मशीन की तरह है जिसमें व्यक्तिगत कुशलता का अधिक महत्त्व नहीं होता । वेबर के शब्दों में ” वर्तमान न्यायाधीश सामान बेचने वाली ऐसी मशीन की तरह है जिसमें कीमत के समान मुकदमे के प्रमाण डाल दिए जाते हैं और वस्तु के समान निर्णय निकलकर सामने आ जाता है । इसका तात्पर्य है कि अधिकारी तन्त्र में व्यक्ति यदि नियमों को जानता है तो वह किसी भी निर्णय को पहले से ही बतला सकता है । इस तन्त्र में विधि का शासन होने के कारण लक्ष्य पर आधारित मनोवृत्ति व्यावहारिकता से अक्सर अलग हो जाती है । प्राचीन समय में एक शासक कोई भी निर्णय लेने के लिए सहानुभूति , परिस्थिति , कृतज्ञता तथा अतीत की निष्ठा आदि से प्रभावित था लेकिन अधिकारीतन्त्र अवैयक्तिक होने के कारण किसी तरह के प्रेम , घृणा अथवा किसी दूसरी वैयक्तिक भावना से प्रभावित नहीं होता । वास्तव में यह दशाएँ अधिकारीतन्त्र की तार्किकता और अवैयक्तिकता का परिणाम हैं ।

 ( 2 ) आधुनिक अधिकारीतन्त्र का दूसरा लक्षण ‘ प्रशासन के साधनों पर एकाधिकार की प्रवृत्ति ‘ है । वेबर ने मार्क्स की इस शब्दावली का उपयोग इसलिए किया कि वेबर यह स्पष्ट करना चाहते थे कि एकाधिकार की यह प्रक्रिया केवल आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं पायी जाती बल्कि सरकार , सेना , राजनैतिक दलों , विश्व विद्यालय और सभी बड़े – बड़े संगठनों में एकाधिकार की प्रवृत्ति विद्यमान होती है । इसका तात्पर्य है कि वैधानिक सत्ता में जैसे – जैसे किसी संगठन का आकार बढ़ता है . इसे चलाने वाले साधनों को स्वतन्त्र व्यक्तियों के हाथों से छीनकर उनका अधिकार शासन करने वाले कुछ थोड़े से व्यक्तियों को सौंप दिया जाता है । 47 उदाहरण के लिए जब बड़े – बड़े व्यापारिक संगठनों के द्वारा उत्पादन के उपकरणों पर अधिकार किया गया तब कारीगरों के अधिकार छिन गये ; जब सरकारों ने प्रशासन पर एका धिकार कर लिया तो सामन्ती व्यवस्था वाले सरदारों के अधिकार छिन गये ; जब विश्वविद्यालयों ने अपनी बड़ी – बड़ी प्रयोगशालाओं और पुस्तकालयों की स्थापना कर ली तो व्यक्तिगत रूप से शोध करने वाले विद्वानों का महत्त्व कम हो गया । इससे स्पष्ट होता है कि अधिकारीतन्त्र अधिकारों के विकेन्द्रीकरण को महत्त्व न देकर अधिकारों के एकाधिकार में अधिक रुचि लेता है ।

( 3 ) अधिकारीतन्त्र की तीसरी विशेषता समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को कम करना है । इसका तात्पर्य है कि अधिकारीतन्त्र के विकास से धनी और सम्भ्रान्त लोगों के विशेषाधिकार समाप्त कर दिये जाते हैं । इस बात को पुनः अधिकारीतन्त्र की पैतृक सरकार से तुलना करके समझा जा सकता है । एक पैतृक शासन में सरकारी कामों का सम्पादन साधारणतया उन्हीं व्यक्तियों के द्वारा किया जाता है जो आर्थिक रूप से सम्पन्न होते हैं अथवा किसी न किसी रूप में उन्हें समाज में अधिक प्रतिष्ठा मिली होती है । ऐसे लोग अपने कार्य के विशेषज्ञ नहीं होते बल्कि प्रशासन के काम को एक शौक अथवा आनन्दपूर्ण व्यवसाय के रूप में देखते हैं । इसके फलस्वरूप उन्हें अपने पद के द्वारा आर्थिक लाभ उठाने के भी अवसर दिये जाते रहते हैं । अधिकारीतन्त्र में उन लोगों का समावेश होता है जो अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ होते हैं तथा अपना पूरा समय प्रशासन के लिए देना आवश्यक मानते हैं । नियमों को लागू करने लिए इनकी दृष्टि में सभी लोग समान होते हैं । अधिकारीतन्त्र का एक अधिकारी समाज के किसी भी आर्थिक वर्ग का सदस्य हो सकता है तथा परम्परागत रूप से उसके परिवार का प्रतिष्ठित होना आवश्यक नहीं होता । इस दृष्टिकोण से अधिकारीतन्त्र को विशेषज्ञों द्वारा लागू किया जाने वाला एक ऐसा शासन कहा जा सकता है जिसमें सामाजिक और आर्थिक असमानताएं कम से कम होती हैं ।

 ( 4 ) अधिकारीतन्त्र का अन्तिम महत्वपूर्ण लक्ष्य सत्ता के सम्बन्धों को एक स्थायी प्रणाली का लागू होना है । पैतृक शासन से सम्बन्धित कुलीन परिवारों के अधिकारी प्रशासनिक कार्य को न केवल आनन्द और वैभव की भावना से करते हैं बल्कि ऐसे शासन से अधिकारी के सम्बन्धों का भी स्थायी होना आवश्यक नहीं होता । इसके विपरीत , अधिकारीतन्त्र के अन्तर्गत एक अधिकारी की सम्पूर्ण सा जिक और आर्थिक अस्तित्व प्रशासन से मिल जाता है । इसी कारण वह अन्य कम चारियों का जितना अधिक सहयोग प्राप्त कर लेता है . वह अपने कार्य में उतना ही सफल रहता है । यह तन्त्र इसलिए भी स्थायी है कि इससे शक्ति होने वाले लोग इसे न तो समाप्त कर सकते हैं और न ही इससे नियमों में वैयक्तिक इच्छा से कोई परिवर्तन ला सकते हैं । वर्तमान अधिकारीतन्त्र का संचालन उन विशेषज्ञों के द्वारा होता है जो अपने कार्य के लिए एक लम्बा प्रशिक्षण प्राप्त करके विशेष क्षेत्र में योग्यता प्राप्त कर लेते हैं । प्रशिक्षण और विशेषीकरण की यह प्रक्रिया भी अधिकारी तन्त्र के स्थायित्व में वृद्धि करती है । उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि एक वैधानिक सत्ता को बनाये रखने के लिए वेवर अधिकारीतन्त्र को प्रशासन की स्थायी और आवश्यक विशेषता मानते हैं । इस सम्पूर्ण विवेचन में वेबर के विचार उन अराजकतावादियों और समाज वादियों से भिन्न हैं जो यह मानते हैं कि एक आदर्श समाज में प्रशासन के लिए अधिकारीतन्त्र अनावश्यक ही नहीं है बल्कि न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की स्थापना में बाधक भी है । वेबर ने दृढ़ना से यह विचार किया कि समाज में यदि वैधानिक सत्ता को बनाये रखना आवश्यक है तो इसे अधिकारीतन्त्र के द्वारा ही प्रभावपूर्ण बनाया जा सकता है । यदि कोई व्यवस्था अधिकारीतन्त्र के बिना किसी तरह का सुधार लाने का वचन देती है तो ऐसा सुधार निश्चय ही अधिक अव्यावहारिक और शोषणकारी होगा ।

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समालोचना

( Critical Evaluation )

 वास्तविकता यह है कि मैक्स वेबर उन प्रमुख विचारकों में से एक हैं जिन्होंने अपने समय के प्रचलित सामाजिक दर्शन और चिन्तन को एक नया मोड़ प्रदान किया । इस सम्बन्ध में रेमण्ड ऐरो ( R . Aron ) ने लिखा कि ” मैक्स वेबर सम्भवतः महानतम् समाजशास्त्री हैं । ” समाजशास्त्र के लिए उनके योगदान को स्पष्ट करते हए बेन्डिक्स ( Berdix ) ने लिखा कि ‘ वेबर ने समाजशास्त्र के यद्यपि किसी विशेष सम्प्रदाय को स्थापित नहीं किया लेकिन उन्होंने समाजशास्त्र में सभी सम्प्रदायों और इसकी सभी शाखाओं को किसी न किसी रूप में अवश्य प्रभावित किया । है । मैक्स वेबर के चिन्तन में न केवल एक गहन अन्तर्दृष्टि विद्यमान है बल्कि समकालीन और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर उन्होंने जो निष्कर्ष प्रस्तुत किए , वे आज भी उतने ही उपयोगी हैं । ” वेबर द्वारा प्रस्तुत सामाजिक क्रिया का विश्लेषण . मानव व्यवहारों का वर्गीकरण , विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन तथा सत्ता और अधिकारीतन्त्र की अवधारणाएं , ऐतिहासिक तथा समाजशास्त्रीय चिन्तन पर आधारित होने के बाद भी इतिहासवेत्ताओं और दूसरे समाजशास्त्रियों द्वारा दी गयी विवेचनाओं से अधिक उपयुक्त हैं । अक्सर यह कहा जाता है कि ‘ मैक्स वेबर आजीवन कार्ल मार्क्स के भूत से द्वन्द्व करते रहे । ‘

इसी प्रयत्न में उन्होंने राजनैतिक पूंजीवाद को आधुनिक पूंजीवाद से पृथक करके मार्क्स के विचारों से असहमति व्यक्त की ; धर्म के समाजशास्त्र की विवेचना द्वारा आर्थिक कारकों के निर्णायकवादी प्रभाव को अस्वीकार किया ; तथा राजनैतिक समाजशास्त्र के विभिन्न पक्षों को स्पष्ट करके सामाजिक सम्बन्धों को अधिक व्यवस्थित रूप से समझने की आवश्यकता पर बल दिया । सच तो यह है कि वेबर ने जिस पद्धतिशास्त्र को विकसित किया , वह भी इन्हीं प्रयत्नों की शृंखला की एक कड़ी है । इसके बाद भी वेबर को मार्क्स का विरोधी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वेबर के अधिकांश विचार किसी पूर्वाग्रह पर आधारित न होकर तर्कपूर्ण तथ्यों पर आधारित हैं । सालोमन ने सामाजिक चिन्तन में वेबर के योगदान का मूल्यांकन करते हुए बतलाया कि एक दृष्टिकोण से वेबर का स्थान मार्क्स की तुलना में कहीं अधिक व्यावहारिक और महत्त्वपूर्ण है । मार्क्स का सम्पूर्ण चिन्तन एक ऐसे लक्ष्य से बंधा रहा जो श्रमिकों को अधिक जागरूक बनाकर उन्हें अपने अधिकारों के प्रति सचेत कर पाता । उनके चिन्तन का अन्तिम लक्ष्य एक साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना के पक्ष में विभिन्न तर्क और अवधारणाएँ प्रस्तुत करना था । मार्क्स से भिन्न , वेवर के विचारों में न तो कोई उग्रता है और न ही उनके विचार किसी स्तर पर एकपक्षीय हैं । वेबर का सम्पूर्ण चिन्तन उन ठोस तथ्यों पर आधारित रहा जिन्हें सरलता से अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।

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