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समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के प्रकार

समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के प्रकार

समाजशास्त्रीय सिद्धान्त कितने प्रकार के हैं , इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ भी कहना कठिन है , क्योंकि यदि हम यह मान लें कि समाजशास्त्र में अभी तक परिपक्व सिद्धान्तों का निर्माण नहीं हुआ है . तो इनके वर्गीकरण का प्रश्न ही नहीं उठता है । फिर भी . जिन्हें हम आज समाजशास्त्रीय सिद्धान्त कहते हैं , उनका वर्गीकरण विविध प्रकार से किया गया है । कुछ प्रमुख वर्गीकरण निम्न प्रकार हैं

जहाँ तक समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का प्रश्न है मर्टन का कहना है कि ” छ : प्रकार की समाजशास्त्रीय कृतियों को सिद्धान्त का पर्यायवाची समझा जाता है ।

 ( 1 ) पद्धतिशास्त्र ,

 ( 2 ) सामान्य समाजशास्त्रीय उन्मेष ,

( 3 ) समाज शास्त्रीय अवधारणाओं का विश्लेषण ,

( 4 ) कार्योत्तर समाजशास्त्रीय व्याख्या ,

 ( 5 ) समाजशास्त्र में शोधपरक सामान्यीकरण , तथा

( 6 ) समाजशास्त्रीय सिद्धान्त से तात्पर्य प्रस्थापनाओं के तार्किकतापूर्ण ढंग से अन्तर्सम्बद्ध युग्मों से है जिसमे शोधपरक समरूपताओं को व्युत्पादित किया जा सके ।

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( अ ) वाल्टर वैलेस ( Walter Wallace ) ने समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों को ग्यारह श्रेणियों में विभाजित किया है

( 1 ) सामाजिक क्रियावाद – इनमें सामाजिक अन्तक्रियाओं से सम्बन्धित सिद्धान्तों ( यथा वेबर व पारसन्स के सिद्धान्त ) को सम्मिलित किया जाता है । कूले एवं मीड ने भी सामाजिक अन्तक्रियाओं के आधार पर समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का निर्माण करने का प्रयास किया है ।

 ( 2 ) प्रकार्यात्मक अनिवार्यवाद – ये सिद्धान्त समग्रता की इकाइयों की प्रकार्यात्मक सम्बन्धों एवं अनिवार्यताओं को व्यक्त करते हैं ( यथा मर्टन व पारसन्स के सिद्धान्त ) ।

 ( 3 ) पारिस्थितिवाद – इसमें मानवीय पारिस्थितिकी से सम्बन्धित सिद्धान्तों ( यथा लीप्ले व मूर आदि के सिद्धान्त ) को सम्मिलित किया जाता है । अन्य शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि ऐसे सिद्धान्तों में मानव तथा उसके गैर – मानवीय पर्यावरणों के बीच आन्तरिक सम्बन्धों की व्याख्या करने का प्रयास किया जाता है ।

( 4 ) भौतिकवाद – इनमें भौतिक आधार पर सामाजिक जीवन की व्याख्या ( यथा मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद का सिद्धान्त ) देने का प्रयास किया जाता है ।

( 5 ) जनांकिकीवाद – इनमें जनसंख्या व मानव पर्यावरण के बीच सम्बन्धों की स्थापना ( यथा माल्थस तथा सैडलर का सिद्धान्त ) की जाती है ।

( 6 ) प्रौद्योगिकवाद – इनमें प्रौद्योगिकी का मानवीय जीवन पर प्रभाव की व्याख्या ( यथा मार्क्स , वेब्लन व ऑगबन का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त ) करने का प्रयास किया जाता है ।

( 7 ) मनोवैज्ञानिकवाद – इनमें मानवीय व्यवहार की मनोवैज्ञानिक आधार पर व्याख्या ( यथा कूले का समाजीकरण का सिद्धान्त ) देने का प्रयास किया जाता है । टार्ड के ‘ अनुकरण के सिद्धान्त ‘ को भी इसी श्रेणी में रखा जाता है ।

 ( 8 ) संघर्ष संरचनात्मकवाद – इनमें सामाजिक संरचना के तत्वों में संघर्ष की व्याख्या ( मार्क्स का वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त ) देने का प्रयास किया जाता है । ऐसे सिद्धान्तों की यह मान्यता है कि सामाजिक जीवन में पाया जाने वाला संघर्ष सामाजिक संरचना का मूल तत्त्व होता है ।

 ( 9 ) प्रतीकात्मक अन्तक्रियावाद – इनमें सामाजिक अन्तक्रियाओं को वस्तुनिष्ठ आधार पर समझने का प्रयास ( यथा कूले , मीड व थॉमस के सिद्धान्त ) किया जाता है । कुछ विद्वानों का मत है कि ऐसे सिद्धान्त व्यक्तिनिष्ठ व्यवहार की विवेचना से सम्बन्धित होते हैं ।

( 10 ) विनिमय संरचनात्मक – इनमें सामाजिक जीवन में भाग लेने वाली इकाइयों के विनिमय के कारण सरंचना के निर्माण पर बल दिया जाता है ( यथा वेबर का संगठन का सिद्धान्त ) तथा

( 11 ) प्रकार्यात्मक संरचनात्मकवाद – इनमें संरचना व प्रकार्यों के अध्ययनों पर बल ( यथा मर्टन का सिद्धान्त ) दिया जाता है ।

 ( ब ) डॉन मार्टिण्डेल ( Don Marindale ) ने समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों को मुख्यतः निम्नलिखित पाँच श्रेणियों में विभाजित किया है

( 1 ) समाजशास्त्रीय प्रकार्यवाद – यह समाज के निर्माणक तत्त्वों ( अंगों या इकाइयों ) के प्रकार्यों की विवेचना से सम्बन्धित हैं ( यथा स्पेन्सर , दुर्जीम , मैलिनोस्की , रैडक्लिफ – बाउन , मर्टन व पारसन्स के सिद्धान्त ) ।

( 2 ) संघर्ष सिद्धान्त यह मानव जीवन व समाज में पाए जाने वाले संघर्ष की व्याख्या से सम्बन्धित हैं ( यथा हॉन्स , ह्यूम , मार्क्स , ओपनहीमर , स्माल आदि के सिद्धान्त ) ।

( 3 ) प्रत्यक्षात्मक सावयववाद – यह समाज की व्याख्या एक सावयव के रूप में करता है ( यथा कॉम्ट , स्पेन्सर , वार्ड , टॉनीज , पैरेटो के सिद्धान्त ) ।

 ( 4 ) सामाजिक व्यवहारवाद – यह सामाजिक व्यवहार की व्याख्या से सम्बन्धित है ( यथा गिडिंग्स , रॉस , मीड , कूलें , पारसन्स इत्यादि के सिद्धान्त ) तथा

( 5 ) स्वरूपात्मक सिद्धान्त – यह सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों से सम्बन्धित हैं ( यथा वीरकान्त , लीप्ले , मैक्स देवर इत्यादि के सिद्धान्त ) समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों को उनके कार्य क्षेत्र के आधार पर , आजकल अधिकांश विद्वान निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित करते हैं

( 1 ) प्रतिष्ठित या बृहत् सिद्धान्त ( Grand or macro theories ) ,

 ( 2 ) मध्य – सीमा सिद्धान्त ( Middle range theories ) तथा

 ( 3 ) सूक्ष्म सिद्धान्त ( Micro theories ) ।

 उपर्युक्त तीनों प्रकार के सिद्धान्तों को उनके अध्ययन क्षेत्र एवं कार्यक्षेत्र के आधार पर विभाजित किया जाता है । बृहत् सिद्धान्त बृहत अध्ययनों पर आधारित होते हैं , सूक्ष्य सिद्धान्त सूक्ष्म अध्ययनों पर आधारित होते हैं , जबकि मध्य – सीमा सिद्धान्त इन दोनों प्रकार के अध्ययनों के बीच की श्रेणी पर आधारित होते हैं । साथ ही , बृहत् अध्ययनों का दृष्टिकोण विस्तृत . सूक्ष्म अध्ययनों का सूक्ष्म तथा मध्य – श्रेणी के अध्ययनों का समन्वित दृष्टिकोण होता है । प्रतिष्ठित या बृहत् सिद्धान्त बृहत समस्याओं का विस्तृत अध्ययन कर बनाए जाते हैं तथा इनमें अधिक सार्वभौमिकता पाई जाती है । इसके विपरीत . सूक्ष्म सिद्धान्त लघु स्तर पर किए गए आनुभविक अध्ययनों पर आधारित होते हैं तथा इनमें सार्वभौमिकता का अभाव पाया जाता है । इन दोनों में अन्तर को स्पष्ट करते हुए डॉन मार्टिण्डेल ने लिखा है , ” इन दोनों में भेद पूर्णतया इस आधार पर किया जाता है कि एक शोधकर्ता अपने सिद्धान्त को प्रतिपादित करने के लिए अध्ययन विषय के रूप में जिस इकाई को चुनता है , उसका आकार क्या है । ” यदि बृहत् एवं सूक्ष्म दृष्टिकोणों में से किसी को भी न अपना कर दोनों के समन्चित दृष्टिकोण द्वारा अध्ययन किया जाता है , तो इस प्रकार के अध्ययन के आधार पर निर्मित सिद्धान्त मध्य – सीमा सिद्धान्त कहे जाते हैं । इन सिद्धान्तों के प्रतिपादन का श्रेय अमेरिकी समाजशास्त्री रोबर्ट के ० मर्टन ( Robert K. Merton ) को दिया जाता है ।

 मर्टन के शब्दों में , ” मध्य – सीमा सिद्धान्त वे सिद्धान्त हैं जो कि एक ओर दिन प्रतिदिन के शोध में प्रचुर मात्रा में प्रकट होने वाली लघु परन्तु कार्यवाहक उपकल्पनाओं एवं दूसरी ओर सामाजिक व्यवहार , सामाजिक संगठन व सामाजिक परिवर्तन में समस्त अवलोकित समानताओं की व्याख्या करने वाले एक समन्वित सिद्धान्त को विकसित करने हेतु व्यवस्थित प्रयासों के बीच में स्थित होते हैं । ” मर्टन के विचारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि मध्य – सीमा के सिद्धान्त बृहत् सिद्धान्तों एवं सूक्ष्म सिद्धान्तों के बीच की श्रेणी हैं ।

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 काल्विन लार्सन का कहना है कि समाजशास्त्रियों ने निम्नलिखित अर्थों में समाजशास्त्रीय सिद्धान्त का प्रयोग किया है

  1. अवधारणा – अवधारणात्मक व्यवस्थापन – शब्द विन्यास – निर्मित प्रकार | 2 उद्धरण सन्दर्भ – अवधारणात्मक योजना – संदर्भ ।
  2. बौद्धिक कल्पना – उप कल्पना – प्रमेय – उपधारणा – व्यवस्थापित करना ।
  3. प्रस्थापना – स्वयंसिद्ध कथन – नियम – सामान्यीकरण |
  4. प्रतिकृति – तार्किक – निगमनात्मक विधि – गणितीय सूत्रीकरण |
  5. आदर्श प्रारूप – शब्द रूपावली – प्ररूपण – सातत्य ।

गिस का कहना है कि सिद्धान्तों में तीन विशेषताएँ होनी चाहिए

 -1 . अपेक्षाकृत अधिक औपचारिक ढंग से कहा जाना

, 2. जाँचे – परखे जाने योग्य होना ,

  1. भविष्यवाणी करने की क्षमता का होना ।

होमन्स ( Homans ) ने सामान्य सिद्धान्तों को दो श्रेणियों में विभाजित किया है

 ( 1 ) आदर्शात्मक ( Normative ) तथा

( 2 ) गैर – आदर्शात्मक ( Non – normative ) ।

आदर्शात्मक सिद्धान्त इस बात की व्याख्या करते हैं कि व्यक्तियों को लक्ष्य प्राप्ति हेतु किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए । गैर – आदर्शात्मक सिद्धान्त व्यक्तियों के वास्तविक व्यवहार की व्याख्या पर बल देते है ।

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जोनाथन टर्नर ने सिद्धान्त के चार प्रमुख तत्त्वों का उल्लेख किया है

( 1 ) अवधारणा ( Concept ) ,

 ( 2 ) परिवर्त्य ( Variable ) ,

 ( 3 ) कथन ( Statement ) , तथा

 ( 4 ) बाह्याकृति ( Format ) |

 ( 1 ) अवधारणा ( Concept ) — सिद्धान्त अवधारणामों से बनते हैं और अवधारणाएं परिभाषाओं से बनती हैं । परिभाषा पदों की व्यवस्था होती है जैसे कोई वाक्य , तर्क या प्रतीक या गरिणतीय सूत्र । अवधारणाग्रों की सिद्धान्त निमांग में विशिष्ट भूमिका होती है । ये प्रयोग की जाने वाली वस्तु में एकरूपता लाती हैं । इनकी दूसरी प्रमुख विशेषता है कि ये सूक्ष्मता प्रकट करती हैं । कुछ अवधारगायें स्थूल घटनाओं तथा कुछ अवधारणाएँ सूक्ष्म घटनाओं को प्रकट करती हैं

 ( 2 ) परिवर्त्य ( Variable ) – सिद्धान्त की दृष्टि से अवधारणा दो प्रकार की होती है व ( 1 ) नामवाचक ( गुणनात्मक ) घटनाओं से सम्बन्धित , तथा ( 2 ) मात्रात्मक परिवर्तन होने वाली घटनाओं से सम्बन्धित । सामान्यतः सिद्धान्त निर्माण में दूसरे प्रकार की अवधारणायें । इनमें ‘ परिवयं – गुण ‘ पाए जाते हैं ।

( 3 ) सैद्धान्तिक कथन ( Theoretical Statements ) – अवधारणायें सैद्धान्तिक कथनों से सम्बन्धित होती हैं । कथन किसी घटना की स्थिति या अस्तित्व की ओर संकेत देते हैं । परिवयं अवधारणा किसी घटना में होने वाली भिन्नता को प्रदर्शित करती है उदाहरणार्थ , सामाजिक इकाइयों में संघर्ष की मात्रा जितनी अधिक होगी , उतनी ही ज्यादा प्रत्येक इकाई में एकता की मात्रा होगी ।

( 4 ) सिद्धान्त की बाह्याकृति ( Format of Theory ) – सैद्धान्तिक कथन या प्ररचना को क्रमबद्ध रूप से व्यवस्थित होना चाहिए । समाज विज्ञानों में सैद्धान्तिक प्ररचना की दो बाह्याकृतियाँ पाई जाती हैं । ( 1 ) स्वयंसिद्ध कथनात्मक ( Axiomatic ) प्रक्रिया , तथा ( 2 ) कारणात्मक या कारण सम्बन्धी ( Causal ) प्रक्रिया । ( 1 ) स्वयंसिद्ध कथनात्मक बाह्याकृति – स्वयंसिद्ध कथनात्मक प्रक्रिया में तीन तत्त्व निहित होते हैं ( 1 ) इसमें अवधारणाओं की शृंखला या युग्म होता है । ( 2 ) इसमें – अस्तित्व – बोधक कथन पाये जाते हैं जो उन स्थितियों का संकेत देते हैं जिन पर अवधारणायें तथा सम्बन्धित काथन लागू होते है । टर्नर ने इसे सिद्धान्त को क्षेत्र ‘ दशायें कहा है । ( 3 ) सम्बन्धात्मक कथन पदसोपान के रूप में कहे जाते हैं । पदसोपान के सबसे ऊपर स्वयंसिद्ध कथन होते हैं जिनसे अन्य सभी कथन व्युत्पादित होते हैं । टर्नर ने इसे अपोषित चित्र द्वारा समझाया है 1

वागनर ( Wagner ) ने समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया है

 ( 1 ) प्रत्यक्षवादी समाजशास्त्रीय सिद्धान्त ( Positive sociological theories ) ,

( 2 ) व्याख्यात्मक समाजशास्त्र ( Interpretative sociology ) तथा

( 3 ) अवैज्ञानिक या मूल्यांकन सामाजिक सिद्धान्त ( Non – scientific or evaluative theories ) |

प्रत्यक्षवादी सिद्धान्तों के समर्थक समाजशास्त्र को प्राकृतिक विज्ञान के समान मानते हैं । नव – प्रत्यक्षवादी , संरचनात्मक – प्रकार्यात्मक व सामाजिक व्यवहारवाद जैसे सिद्धान्त इस श्रेणी के उदाहरण है । व्याख्यात्मक सिद्धान्तों के समर्थक समाजशास्त्र को प्राकृतिक विज्ञान के विपरीत एक सामाजिक विज्ञान मानते हैं । सांस्कृतिक व्याख्या , क्रिया व अन्तक्रिया का व्याख्यात्मक समाजशास्त्र , सामाजिक प्रघटनाशास्त्र आदि इस श्रेणी के उदाहरण है । अवैज्ञानिक या मूल्यांकन सामाजिक सिद्धान्तों के समर्थक समाजशास्त्र को न तो प्रत्यक्ष विज्ञान मानते हैं और न ही व्याख्यात्मक विज्ञान । सामाजिक – दार्शनिक सिद्धान्त , वैचारिक – सामाजिक सिद्धान्त तथा मानवीय सुधार सिद्धान्त इस श्रेणी के उदाहरण है ।

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