भारतीय समाज एवं संस्कृति
भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ
( Characteristics of Indian Culture )
वर्ण – व्यवस्था – भारतीय समाज एवं संस्कृति में व्यक्तियों के सामाजिक जीवन को प्रकार्यात्मक रूप से उपयोगी बनाने और उसे स्थायित्व प्रदान करने के दृष्टिकोण से ‘ वर्ण – व्यवस्था अत्यन्त महत्वपूर्ण है । भारत में वह सामाजिक स्तरीकरण की एक व्यवस्था के रूप में मानी जाती है , वर्ण और जाति को बिलकूल दो पृथक धाराओं की तरह ही समझना एवं विवेचित किया जाना चाहिए . भारतीय समाज को चार वरणों – ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य एवं शुद्र में विभाजित किया गया । प्रत्येक वर्ण के दायित्व ( भूमिका ) , अधिकार , कार्य एवं व्यवसाय एक दूसरे से भिन्न – भिन्न निर्धारित किए गए । वेदों में ऋग्वेद के पुरुष – सूक्त द्वारा वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति पर कुछ प्रकाश पड़ता है । इसके अनुसार ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण , बाहु से क्षत्रिय , उदर एवं जंघा से वैश्य और पैरों से शूद्र वर्ण की उत्पत्ति हुई । इन्हीं के आधार पर इनके कार्यों का बँटवारा भी किया गया । ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन – अध्यापन , क्षत्रियों का रक्षा करना , वैश्यों का व्यापार एवं शूद्रों का उपयूक्त तीनों वर्गों की सेवा करना निर्धारित किया गया था ।
जाति – व्यवस्था – जाति – व्यवस्था भारतीय एवं संस्कृति की एक अत्यन्त विशिष्ट सामाजिक विशेषता है । भारत के प्रत्येक भाषायी क्षेत्र में ग्राज लगभग तीन हजार जातियाँ एवं उपजातियाँ हैं । व्यावहारिक रूप से हमारी सामाजिक संरचना का निर्माण उन हजारों जातियों और उपजातियों से हुआ है जो जन्म के आधार पर व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति ( Social Status ) का निर्धारण करती हैं । ई . ए . एच . ब्लन्ट ने जाति को परिभाषित करते हुये लिखा है कि ” जाति एक अन्तविवाही समूह अथवा अन्तविवाही समूहों का संकलन है , जिसका एक सामान्य नाम होता है , जिसकी सदस्यता अनुवंशिक होती है , जो सामाजिक सहवास के क्षेत्र में अपने सदस्यों पर कुछ प्रतिबन्ध लगाती है । इसके सदस्य या तो एक सामान्य परम्परागत व्यवसाय करते हैं अथवा किसी सामान्य प्राधार पर अपनी उत्पत्ति का दावा करते हैं और इस प्रकार एक समरूप समुदाय के रूप में मान्य होते हैं । ” 1 अत : जाति – व्यवस्था एक बन्द – वर्ग ( Closed Class ) है । वर्तमान में जाति प्रथा के स्वरूप एवं कार्यों में विभिन्न कारणों से अनेक परिवर्तन पाए हैं फिर भी यह भारतीय सामाजिक स्तरीकरण की अपनी विशिष्ट व्यवस्था है ।
अाश्रम – व्यवस्था – भारतीय समाज में प्राश्रम – व्यवस्था जीवन के विभिन्न स्तरों पर व्यक्ति के भिन्न – भिन्न कर्तव्यों को निर्धारित करके उसके व्यक्तित्व को संगठित बनाने का प्रयत्न करती है । पी . एन . प्रभु ( P . N . Prabhu ) ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि प्राश्रम शब्द से दो अवस्थाओं की अोर संकेत मिलता है – ( 1 ) एक स्थान जहाँ परिश्रम किया जाए तथा ( 2 ) इस प्रकार के परिश्रम के लिए की जाने वाली क्रिया । भारतीय समाज में पाश्रम – व्यवस्था के अनुसार व्यक्ति की आयु 100 वर्ष मानकर उसे 25 – 25 वर्षों के चार भागों में विभक्त किया गया है , वे चार आश्रम हैं –
( 1 ) ब्रह्मचर्य – प्राश्रम ,
( 2 ) गृहस्थ – पाश्रम ,
( 3 ) वानप्रस्थ – पाश्रम , एवं
( 4 ) संन्यास – प्राश्रम ।
इन्हीं प्राश्रमों के माध्यम से व्यक्ति चार पुरुषार्थों – धर्म , अर्थ , काम एवं मोक्ष को प्राप्त करता है । वेदव्यास ने ‘ महाभारत ‘ में लिखा है कि ” जीवन के चार प्राश्रम व्यक्तित्व के विकास की चार सीढ़ियां हैं , जिन पर कम से चढ़ते हुये व्यक्ति ब्रह्म की प्राप्ति करता है । ‘ ‘
इस प्रकार हम देखते हैं कि आश्रम व्यवस्था में व्यक्ति के जीवन को संगठित कर उसमें भोग और त्याग दोनों का व्यवस्था की गई थी ।
संयुक्त परिवार – भारतीय समाज की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता संयुक्त परिवार है । के . एम . पन्नीकर के अनुसार , ” यहाँ हिन्दू समाज की इकार व्यक्ति न होकर संयुक्त परिवार है । ” श्रीमती इरावती कर्वे ने लिखा है कि ” या हम भारत में किसी भी साँस्कृतिक तथ्य को समझना चाहते हैं तो तीन बातों का शा ” आवश्यक है । ये हैं – भाषायी क्षेत्र की संरचना , जाति – संस्था और पारिवारिक ज्ञान डॉ . एस . सी . दुबे ने संयुक्त परिवार को स्पष्ट करते हुये लिखा है कि दि कई मल – परिवार एक साथ रहते हों , और उनमें निकट का नाता हो , एक समान पर भोजन करते हों , और एक आथिक इकाई के रूप में कार्य करते हों . मान्य पूजा में भाग लेते हों तो उन्हें उनके सम्मिलित रूप में संयुक्त परिवार कहा सकता है । ” उपर्युक्त विशेषताओं से स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत अनेक स्रोतों से लिये गये तत्त्वों को एक रूप में संगठित किया गया है और ये एकीकरण की प्रक्रिया इतनी पूर्ण थी यह इसी से स्पष्ट है कि प्रारम्भिक संश्लेषण के परिणाम स्वरूप संस्कृति का आधार बना और उसकी जो रूपरेखा दृष्टिगत हुई उसमें प्राज तक कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं हुआ । यद्यपि निरन्तर चलने वाली उद्विकासीय प्रक्रिया के कारण उसमें थोड़े – बहुत संशोधन अवश्य हुये हैं लेकिन वे संशोधन भी उन्हीं दिशाओं में जो सम्भवतः पहले से ही निर्धारित होते हैं ।
साहिष्णुता एवं महानता – भारतीय संस्कृति की प्रथम महत्त्वपूर्ण विशेषता उसकी सहिष्णुता एवं महानता है । अनेक जातियों , प्रजातियों एवं धर्म के लोगों ने भारत में प्रवेश किया और भारत ने बिना किसी भेदभाव के उन सभी के साथ सहिष्णुता एवं प्रेम – भाव प्रदर्शित किया । साथ – ही – साथ भारत ने किसी भी व्यक्ति या समूह पर अपनी संस्कृति थोपने का प्रयास नहीं किया , बल्कि उन्हें अपने मौलिक रूप में ही रहने दिया । यही कारण है कि भारत में आज भी विभिन्न धर्मों , विभिन्न जातियों , विभिन्न प्रजातियों एवं विभिन्न सम्प्रदायों के लोग स्वतन्त्रता से रह रहे हैं । यह सब भारतीय संस्कृति की सहिष्णुता एवं महानता से ही सम्भव हो सका है ।
समन्वय एवं सम्मिश्रण – भारतीय संस्कृति की महानता के कारण ही विभिन्न संस्कृतियों का यहाँ समन्वय एवं सम्मिश्रण सम्भव हो पाया है । भारतीय संस्कृति के महासागर ने विभिन्न धर्मों , प्रणालियों व सम्प्रदायों को अपने में समाहित कर लिया एवं अपनी संस्कृति को और महान् बनाया । विभिन्न संस्कृतियों के समन्वय से भारतीय संस्कृति में एकता की स्थापना की गई । शक , हण , कुषाण , यवन , आदि लोग भारतीय संस्कृति के अंग हो गए । इस्लाम समर्थक मुस्लिम , सिक्ख , पारसी , ईसाई , आदि भी भारतीय जन – जीवन में घुल – मिल गए । स्पष्ट है कि अपनी महानता के कारण ही यह समन्वय सम्भव हो पाया और इस समन्वय के कारण ही भारतीय संस्कृति निरन्तर गतिमान एवं विद्यमान रही ।
अभौतिकता एवं अध्यात्मवाद – भारतीय संस्कृति भौतिक की अपेक्षा अभौतिक ( Non – Material ) वस्तुओं पर अधिक ध्यान नहीं देती है । अध्यात्मवाद को भारत ने प्रारम्भ से ही अत्यन्त महत्त्व प्रदान किया । हमारे यहाँ भौतिक सुख – भोग प्रानन्द को कभी जीवन का लक्ष्य स्वीकार नहीं किया गया वरन् ईश्वर , प्रात्मा , कर्म व पुनर्जन्म जैसी अवधारणाओं के कारण अध्यात्मवाद को बल प्रदान किया गया । इस प्रकार भौतिक आनन्द , भोग – लिप्सा की जगह धर्म एवं अध्यात्मवाद ही भारतीय संस्कृति का प्राण है ।
पुरुषार्थ – परम्परागत भारतीय जीवन – प्रणाली को सुव्यवस्थित करने में ‘ पुरुषार्थ ‘ का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन का प्रभावित करने और उसके प्रमुख कर्तव्यों को कुछ विशेष वर्गों में विभाजित किया जा सके , इस कारण व्यक्ति के जीवन के चार महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों को पुरुषाथ में स्पष्ट किया गया है । ये चार लक्ष्य हैं – धर्म , अर्थ , काम एवं मोक्ष । चारों पुरुषार्थों का अर्थ स्पष्ट करते हुए के . एम . कपाड़िया ने लिखा मक्ष मानव – जीवन के चरम उद्देश्य तथा मानव की आन्तरिक प्राध्यात्मिक न्यूति का प्रतीक है । अर्थ मानव के वस्तुत्रों को प्राप्त करने एवं संग्रहण की जो शल प्रवृत्ति है उसको स्पष्ट करता है । काम मानव के सहज – स्वभाव और भावुक जीवन को व्यक्त करता है तथा इसका कार्य मनुष्य की काम – भावना एवं सौन्दर्य प्रियता की वृत्ति को सन्तुष्ट करना है । ये दोनों इस संसार में व्यक्ति के भौतिक लगाव , कार्य कलाप एवं जीवन की सफलता का प्रतिनिधित्व करते हैं । धर्म मानव के पाशविक एवं दैवीय प्रवृत्ति के मध्य की एक श्रृंखला है । इस प्रकार ये चारों लक्ष्य आध्यात्मिकता के लिए किए गए प्रयत्नों के बीच समन्वय स्थापित करते हैं । “
कर्म एवं पुनर्जन्म – भारतीय जीवन को ‘ कर्म एवं पुनर्जन्म ‘ ने सम्भवतः जितना प्रभावित किया , उतना शायद किसी अन्य अवधारणा ने नहीं । यहाँ व्यक्तियों को संसार में विरक्त होने का उपदेश नहीं दिया गया बल्कि संसार में रहते हुए फल की इच्छा किए बिना कर्म करते रहने या अपने दायित्वों को निभाते रहने पर जोर दिया गया । गीता में लिखा गया है ” मनुष्य को तो केवल कर्म करने का अधिकार है , फल की इच्छा व्यर्थ है । श्री पी . एन . प्रभु ने अनेक पौराणिक उदाहरणों द्वारा इसे भाग्य से जोड़ने का प्रयास किया है । प्रार्थर कीथ ने भी कर्म के सिद्धान्त को पूर्णतया भाग्यवादी सिद्धान्त ‘ कह कर इसे भाग्य का निर्धारक कारक माना । डॉ . राधाकृष्णन ने लिखा है कि “ कर्म का सिद्धान्त व्यक्ति को भाग्य से बाँधना नहीं है , बल्कि प्रत्येक परिस्थिति में व्यक्ति को अपने अभ्युदय अथवा विकास को छूट देता है । ” व्यक्ति के कर्म के साथ ही पुनर्जन्म ( Re – birth ) की धारणा जुड़ी हुई है । पुनर्जन्म का वास्तविक कारण द्वारा पिछले जन्म में किए गए उसके कर्म ही हैं । सत्कर्मों से व्यक्ति को आगामी जीवन में श्रेष्ठ और दुष्कर्मों से निकृष्ट जन्म प्राप्त होता है ।
ऋण – हिन्दू जीवन पद्धति में व्यक्ति को प्रमुखतः पाँच ऋणों से युक्त माना है । ये हैं देव – ऋण , ऋषि – ऋण , पितृ – ऋण , अतिथि – ऋण एवं भूत – ऋगा । व्यक्ति प्राज कुछ भी है , जिस अवस्था में है उसके लिए वह दूसरों का ऋणी है , वह देवताओं , ऋषियों , माता – पिता , अतिथियों तथा पशु – पक्षियों तक का ऋणी है अतः इनके प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करके वह इन ऋणों से मुक्त हो सकता है । इसके लिए पांच महायज्ञों की व्याख्या की गई है ।भारताय समाज एव सस्कृति इन ऋणों के द्वारा भारतीय जीवन व्यक्तियों को उनके उत्तरदायित्व से जा रखता है और वे स्वच्छन्द तरीके से अपने बुजुर्गों का अपमान नहीं कर सकते ।
संस्कार – ‘ संस्कार ‘ वस्तुतः भारतीय जीवन की एक सामाजिक नायक अवधारणा है जो व्यक्तियों के शुद्धिकरण से जुड़ी है । डॉ . एस . पी . नागेन्द्र ही ईस्टर्न एन्थ्रोपोलोजिस्ट ‘ नामक पत्रिका में लिखे अपने लेख में लिखा है कि प्रसंस्कारों की उत्पत्ति के मूल में मानवीय प्रवृत्तियों का हाथ है । यह आख्यानों के निर्माण की प्रवृत्ति का ही दूसरा रूप है । ” 1 भारतीय सामाजिक अवस्था में व्यक्ति को सामाजिक – धामिक व्यक्ति बनाने तथा उसके व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास करने तथा उसे समाजोपयोगी बनाने के लिए व्यक्ति का शारीरिक , मानसिक एवं नैतिक परिष्कार तथा शुद्धिकरण अनिवार्य माना गया है । इसी परिष्कार या शद्धिकरण की पद्धति को ही संस्कार माना गया है । डॉ . राजबली पाण्डे ने ‘ हिन्दू संस्कार ‘ में लिखा है कि संस्कार का अर्थ है ‘ धार्मिक विधि विधान ‘ अथवा वह कृत्य जो आन्तरिक एवं आत्मिक सौन्दर्य का बाह्य तथा दृश्य प्रतीक माना जाता है । जैमिनी पूर्व मीमांसा में भी कहा गया है कि ” संस्कार वह है जिसके करने से कोई पदार्थ उपयोगी बन जाता है । “
हिन्दू सामाजिक संगठन के परम्परागत आधार
( TRADITIONAL BASES OF HINDU SOCIAL ORGANIZATION )
हिन्दू समाज में करीब चार हजार वर्ष पूर्व ही कुछ समाज चिन्तकों ने यह अनुभव किया कि व्यक्ति और समाज की प्रगति उस समय तक सम्भव नहीं है जब तक लोगों को जीवन के मूलभूत तथ्यों से परिचित नहीं कराया जाता , जब तक उन्हें अपने कर्तव्यों की जानकारी प्रदान नहीं की जाती और जब तक दायित्वों का निर्वाह करने हेतु उन्हें कोई प्रेरणा प्रदान नहीं की जाती । सामाजिक जीवन को संगठित बनाये रखने की दृष्टि से यह सब कुछ आवश्यक समझा गया । लोगों के सम्मुख ऐसा जीवन – दर्शन रखा गया और इस प्रकार की सामाजिक योजना बनायी गयी जिसने सामाजिक जीवन को संगठित बनाये रखने
में योग दिया । इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु भारतीय समाज को | दो प्रमुख आधारों पर संगठित किया गया , जिनमें से प्रथम दार्शनिक आधार तथा द्वितीय संगठनात्मक आधार है । दार्शनिक आधार के अन्तर्गत उन सिद्धान्तों को महत्ता प्रदान की गयी , जिन्होंने व्यक्ति के जीवन को परिष्कृत कर उसे उसके लक्ष्यों एवं कर्तव्यों से परिचित कराने में योग दिया । संगठनात्मक आधार के अन्तर्गत वे सामाजिक योजनाएं आती हैं , जिनके माध्यम से व्यक्ति और समूह के जीवन को इस प्रकार विभिन्न इकाइयों में बांटा गया कि उनकी योग्यता और कार्यक्षमता का पूरा – पूरा लाभ उठाया जा सके । अब हम यहां इन दोनों आधारा का संक्षेप में उल्लेख करेंगे ।
दार्शनिक आधार : मौलिक विशेषताएं
( IDEOLOGICAL BASIS : BASIC PCHARACTERISTICS )
दार्शनिक आधारों में चार आधार प्रमुख हैं , जिन्होंने सामाजिक जीवन को संगठित बनाये रखने और व्यक्ति को पग पर उसके कर्तव्यों का बोध कराने में सहायता पहंचायी । ये आधार इस प्रकार हैं :
( 1 ) धर्म ( Dharma ) हिन्द सामाजिक जीवन में धर्म का प्रमुख स्थान है । हिन्दुओं का सम्पूर्ण जीवन धर्म के इर्द – गिर्द घूमता है । एक हिन्दू प्रातःकाल उठने से रात्रि को सोने तक , जन्म से लेकर मृत्यु तक अपने जीवन में अनेक धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न करता है । हिन्दुओं में चार पुरुषार्थ अर्थात् कर्तव्य माने गये हैं धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष । इस प्रकार से धर्म की पूर्ति मानव का सर्वोपरि कर्तव्य है । हिन्दुओं में धर्म को सभी जीवों पर दया करने के रूप में और कर्तव्य के रूप में माना गया है । धर्म के भी यहां अनेक स्वरूप पाये जाते हैं , जैसे सामान्य धर्म , विशिष्ट धर्म , राज धर्म , मित्र धर्म , कुल धर्म , गुरुधर्म , युग धर्म , आपद्धर्म , आदि । धर्म ने व्यक्ति और समाज के नियन्त्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी 030 है ।
( 2 ) पुरुषार्थ ( Purushartha ) पुरुषार्थ सिद्धान्त के द्वारा व्यक्ति के जीवन के चार प्रमुख लक्ष्यों को स्पष्ट किया गया है । ये चार लक्ष्य है धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष । इन्हें ही चार पुरुषार्थ माना गया है , जिन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न व्यक्ति अपने जीवन में करता है । यहां धर्म का अर्थ नैतिक कर्तव्यों और नियमों के पालन से लिया गया है ताकि व्यक्ति और समाज दोनों का विकास हो सके । धर्म आत्मसंयम , सन्तोष , दया , उदारता , क्षमा , अहिंसा एवं कर्तव्य – पालन , आदि गुणों को ग्रहण करने की प्रेरणा देता है । अर्थ का तात्पर्य केवल धन या सम्पत्ति से नहीं है बल्कि उन सभी साधनों से है , जिनकी सहायता से हम अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । यहां अर्थ या धन को साध्य नहीं बल्कि साधन माना गया है । अपने विभिन्न धार्मिक कर्तव्यों के पालन के लिए अर्थ को एक पुरुषार्थ के रूप में महत्ता प्रदान की गयी है । काम का तात्पर्य केवल यौन – सन्तुष्टि ही नहीं है , बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से जीवन के आनन्द का उपभोग भी है । काम की एक पुरुषार्थ के रूप में इस दृष्टि से महत्ता है कि यह मनुष्य की प्राणीशास्त्रीय आवश्यकता की पूर्ति , सन्तानोत्पत्ति द्वारा माता – पिता के ऋण से उऋण होने और समाज की निरन्तरता को बनाये रखने में योग देता है । उपर्यत प्रथम तीन पुरुषार्थों को प्राप्त करने के पश्चात् व्यक्ति चौथे पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति का प्रयत्न करता है । मोक्ष का अर्थ पूर्ण सन्तुष्टि की स्थिति से लिया गया है । इस Eव्यक्ति बह्मानन्द की अनभति और परम आनन्द का प्राप्ति करता है और जीवन – मरण के बन्धनों से छूट जाता है । पुरुषार्थ के सिद्धान्त ने व्यक्ति को अनशासित जीवन व्यतीत करते हुए चारों लक्ष्यों को प्राप्त कर अपने जीवन में पूर्णता प्राप्त करने और समाज के जीवन को उन्नत बनाने में अपूर्व योग दिया है ।
( 3 ) कर्म तथा पुनर्जन्म ( Karma and Rebirth ) भारतीय समाज के एक आधार के रूप में कर्म सिद्धान्त का महत्व पाया जाता है । यहां व्यक्ति को संसार से विरक्त होने का उपदेश नहीं दिया गया : बल्कि संसार में रहते हुए फल की इच्छा किये बिना कर्म करते रहने या दायित्वों को निभाते रहने पर जोर दिया गया है । यह सिद्धान्त व्यक्ति में नैतिक उत्तरदायित्व की भावना को विकसित करता है , उसे कर्तव्य बोध कराता है । व्यक्ति अपने ‘ कर्म के प्रति सजग रहे और दायित्व की भावना से कार्य करता रहे , इसके लिए पुनर्जन्म की धारणा पर जोर दिया गया । आज व्यक्ति जो कुछ है . चाहे धनी है या निर्धन , सुखी है या दु : खी , उच्च पद पर आसीन है या निम्न पद पर , सब कुछ उसके पूर्वजन्म में किये गये कर्मों का ही फल है । सदकों से व्यक्ति का आगामी जीवन अच्छा और दुष्कर्मा से बुरा बनता है । यह सिद्धान्त व्यक्ति को अपने परिवार , वर्ण और आश्रम से सम्बन्धित कर्तव्यों के पालन हेतु अपूर्व प्रेरणा प्रदान करता है ।
( 4 ) ऋण तथा यज्ञ ( Rinas and Yajna ) हिन्दु जीवन – व्यवस्था में व्यक्ति पर पांच प्रकार के ऋण माने गये हैं — देव – ऋण , ऋषि – ऋण पित – ऋण , अतिथि – ऋण तथा भूत – ऋण । व्यक्ति जो कुछ है , उसका जैसा भी विकास हुआ है , उसने जो कुछ प्राप्त किया है उसके लिए वह दूसरों का ऋणी है । वह देवताओं , ऋषियों , माता – पिता , अतिथियों तथा पशु – पक्षियों तक का ऋणी है । अत : इनके प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करके ही वह पांच प्रकार के ऋणों से छुटकारा प्राप्त कर सकता है । इसी हेतु पंच महायज्ञों की व्यवस्था की गयी है । साथ ही व्यक्तिवाद पर अंकुश रखने और जीवन को त्याग के आदर्श में ढालने के लिए भी इन यज्ञों का विधान किया गया । ये यज्ञ व्यक्ति को सभी प्राणियों के प्रति अपने दायित्व को निभाने की शिक्षा देते हैं । यहां यज्ञ का तात्पर्य अन्य के प्रति दायित्व – निर्वाह से लिया गया है । कर्तव्यों की पूर्ति को ही यज्ञ कहा जाता है ।
( 5 ) संस्कार ( Sanskar ) संस्कार का तात्पर्य शुद्धिकरण की प्रक्रिया से है । भारतीय सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति को सामाजिक प्राणी बनाने , उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करने तथा उसकी नैसर्गिक प्रवृत्तियों को समाजोपयोगी बनाने के लिए व्यक्ति का शारीरिक , मानसिक और नैतिक परिष्कार आवश्यक माना गया है । परिष्कार या शद्धिकरण की पद्धति को ही यहां संस्कार की संज्ञा दी गयी है । जीवन को परिष्कृत करने की प्रक्रिया जीवन – पर्यन्त चलती रहती है । यद्यपि यहां संस्कारों की संख्या काफी बतायी गयी है , परन्तु प्रमुख संस्कार 14 ही माने गये हैं । इन संस्कारों का उद्देश्य एक विशेष स्थिति और आयु में व्यक्ति को उसके सामाजिक कर्तव्यों का ज्ञान कराना है ।
संगठनात्मक आधार : मौलिक विशेषताएं
( ORGANIZATIONAL BASES : BASIC CHARACTERISTICS )
उपर्युक्त दार्शनिक आधारों के अनुरूप भारतीय समाज को संगठित करने के उद्देश्य से यहां कुछ ऐसी सामाजिक व्यवस्थाओं को निर्मित किया गया जो व्यक्ति और समाज दोनों के सर्वांगीण विकास में योग देने की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । इन्हें ही भारतीय समाज के संगठनात्मक आधारों के नाम से जाना जाता है । ये आधार इस प्रकार हैं :
( 1 ) वर्ण – व्यवस्था ( Varna – System ) वर्ण – व्यवस्था भारतीय सामाजिक संगठन की आधारशिला के रूप में है । यहां आर्थिक आधार के बजाय व्यक्ति के गुण तथा स्वभाव के आधार पर समाज को चार वर्णों ( ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य एवं शूद्र ) में विभाजित किया गया । प्रत्येक वर्ण के अधिकार , दायित्व और व्यवसाय एक – दूसरे से भिन्न थे । प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह आवश्यक था कि वह अपने वर्ण – धर्म के अनुरूप कर्तव्यों का पालन करे । वर्ण – व्यवस्था के अन्तर्गत ब्राह्मण वर्ण की स्थिति सबसे उच्च थी , परन्तु इस व्यवस्था के प्रारम्भ में जन्म पर आधारित नहीं होकर गुण तथा स्वभाव पर आधारित होने के कारण व्यक्ति का वर्ण – परिवर्तन सम्भव था । व्यक्ति अपने व्यवहार से किसी उच्च या निम्न वर्ण का सदस्य हो सकता था । ऐसे उदाहरण भी पाये जाते हैं जहां लोगों ने अपने गुण तथा स्वभाव को बदलकर एक वर्ण से दूसरे वर्ण की सदस्यता प्राप्त कर ली । यद्यपि वर्ण – व्यवस्था में मुक्त प्रणाली ( Open System ) की कुछ विशेषताएं अवश्य पायी जाती हैं , परन्तु व्यवहार के रूप में वर्ण – परिवर्तन उतना आसान नहीं था , जितना साधारणतः समझा जाता है । समाज में विभिन्न कार्यों की समुचित व्यवस्था की दृष्टि से वर्ण – व्यवस्था का भारतीय समाज के आधार के रूप में विशेष महत्व था ।
( 2 ) आश्रम – व्यवस्था ( Ashram – System ) वर्ण – व्यवस्था का उद्देश्य समाज के जीवन को और आश्रम – व्यवस्था का उद्देश्य व्यक्ति के जीवन को सन्तुलित एवं संगठित बनाये रखना था । आश्रम – व्यवस्था के माध्यम से व्यक्ति के जीवन में भोग , त्याग दोनों के महत्व को स्वीकार किया गया है । इस व्यवस्था के अन्तर्गत व्यक्ति की आय को 100 वर्ष मानकर उसे 25 – 25 वर्ष के चार भागों में विभाजित किया MERO मानकर
हरया . गया है जिनमें से प्रत्येक का एक आश्रम कहा गया है । – बहाचर्य आश्रम , ( ii ) गृहस्थ आश्रम कमानसिक और बौद्धिक दृष्टि से ( iii ) वानप्रस्थ आश्रम , तथा ( iv ) संन्यास आश्रम । अपन के प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम में बिताकर व्यक्ति व्यक्तित्व का विकास करता था , अपने आप में सदया । विकसित करता था , शारीरिक , मानसिक और बौटिक अपने को सबल बनाता था । फिर वह विवाह संस्कार के गहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था , जहां वह धर्म की मर्यादा अनरूप अर्थ और काम का उपभोग करता , धन कमाता और अपनी काम – इच्छाओं की पूर्ति करता हुआ सन्तानोत्पत्ति करता था । वहां वह प्रतिदिन पंच महायज्ञ करता हुआ समाज के अन्य सदस्यों एवं पशु – पक्षियों तक के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करता । 50 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने पर वह वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करता । वह परिवार की सीमा से बाहर निकलकर सम्पूर्ण समाज के कल्याण हेतु कार्य करता । वह ज्ञान का प्रसार और समाज की सांस्कृतिक परम्पराओं को एक पीढी से दसरी पीढी को हस्तान्तरित करता तथा योग्य व्यक्तियों के निर्माण में योग देता हआ आध्यात्मिक चिन्तन में अपने आपको लगा देता । 75 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर वह संसार से विरक्त होकर संन्यास आश्रम में प्रवेश कर अन्तिम पुरुषार्थ – मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न करता । इस प्रकार आश्रम – व्यवस्था के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन काल में चार पुरुषार्थों – धर्म , अर्थ काम और मोक्ष को प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ता ।
( 3 ) जाति – व्यवस्था ( Caste – System ) भारतीय सामाजिक संगठन के एक महत्वपूर्ण आधार के रूप में जाति – व्यवस्था का महत्व रहा है । भारतीय समाज हजारों ऐसे जातीय और उप – जातीय समूहों में बंटा है , जिनकी सदस्यता का आधार व्यक्ति के गुण एवं स्वभाव नहीं होकर जन्म है । भारतीय समाज में कालान्तर में स्तरीकरण के आधार के रूप में गुण तथा स्वभाव का स्थान जन्म ने ले लिया । परिणाम यह हुआ कि वर्ण – व्यवस्था जाति – व्यवस्था के रूप में बदल गयी । प्रत्येक वर्ण में जातियां बढ़ती गयीं और जाति की सदस्यता पूर्णतः जन्म पर आधारित हो गयी । यद्यपि वर्ण – परिवर्तन तो फिर भी सम्भव था , परन्तु एक जाति की सदस्यता छोड़कर किसी अन्य जाति में पहंचना प्रायः असम्भव था । धीरे – धीरे एक ही वर्ण की विभिन्न जातियों तक में ऊंच – नीच की भावना पनपने लगी । उच्च जातियों को अनेक विशेषाधिकार प्राप्त रहे है तो निम्न जातियों को कुछ निर्योग्यताओं से पीडित रहना पड़ा है । जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक जाति ने अन्तर्विवाह ( En dogamy ) की नीति को अपनाया । प्रत्येक जाति की अपनी जातीय पंचायतें भी रही हैं जो जाति से सम्बन्धित नियमों का पालन नहीं करने वालों को कठोर दण्ड देती रही हैं । यह व्यवस्था बन्द वर्ग – प्रणाली ( Closed Class System ) का उदाहरण प्रस्तुत करती है । वर्तमान में जाति – व्यवस्था के स्वरूप एवं काया को ए विभिन्न कारणों से अनेक परिवर्तन आये हैं । इनके बावजूद अधिकांश भारतीयों के जीवन को जाति – व्यवस्था आज भी अनेक रूपों में प्रभावित कर रही है ।
4 ) संयुक्त परिवार ( Joint – Family ) भारतीय समाज के परम्परागत आधार के रूप में संयुक्त परिवार का विशेष महत्व रहा है । मैक्समूलर ने संयक्त – परिवार को भारत की ‘ आदि – परम्परा ‘ माना है जो सदियों से भारतीयों को सामाजिक विरासत ( Social Heritage ) के रूप में प्राप्त होती रही है । बहुत प्राचीन काल से ही भारतीय समाज की इकाई वास्तव में संयुक्त परिवार ही रहा है , न कि व्यक्ति । संयुक्त परिवार भारतीय संस्कृति के आदर्श तत्वों और समूह – कल्याण के सुन्दर आदर्श को प्रस्तुत करता है । एक संयुक्त परिवार उन लोगों का एक समूह है जो साधारणतः एक ही मकान में साथ – साथ रहते हैं , एक ही रसोई में बना हुआ भोजन करते हैं , सभी परिवार की आय का सम्मिलित रूप से उपभोग करते हैं , सभी सम्पत्ति के संयुक्त स्वामी होते हैं तथा सभी सामान्य पूजा या धार्मिक क्रियाओं में भाग लेते हैं । इसमें साधारणतः तीन चार पीढ़ियों के रक्त सम्बन्धी होते हैं , यद्यपि कुछ ऐसे सदस्य भी होते हैं जो रक्त सम्बन्धी नहीं होते । संयुक्त परिवार का एक ‘ कर्ता ‘ होता है जिसकी आज्ञा का पालन अन्य सभी सदस्य करते हैं । संयुक्त परिवार जातिगत नियमों के पालन एवं परम्परागत आदर्शों के अनुरूप कार्य करने का विशेषत : प्रयत्न करता है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय समाज के कुछ ऐसे परम्परागत आधार रहे हैं जिन्होंने समाज में समन्वयकारी प्रवृत्तियों के विकास में योग दिया । इन आधारों ने व्यक्ति की उन्नति के साथ – साथ समाज के विकास में भी सहायता पहुंचायी । भारतीय सामाजिक व्यवस्था से सम्बन्धित उपरोक्त बातों ने व्यक्ति को समन्वित जीवन व्यतीत करने हेतु प्रोत्साहित किया , उसे यह सोचने और समझने में सहायता प्रदान की कि वह केवल स्वयं के लिए ही नहीं जीता है , उसका एकमात्र उद्देश्य रोटी , कपड़ा और मकान ही नहीं है । वह यह जानता है कि इस जीवन के आगे भी कुछ है , वह आत्मा की अमरता , कर्मवाद और पुनर्जन्म के सिद्धान्त में विश्वास करता है , पंच महायज्ञों की धारणा पर जोर देता है तथा पुरुषार्थ के सिद्धान्त के अनुरूप लक्ष्यों की प्राप्ति का प्रयत्न करता है ।