सार्वभौमिकरण 

 सार्वभौमिकरण 

( Universalization )

 – ‘ सार्वभौमिकरण ‘ की अवधारणा मूलतः स्थानीयकरण ( Parochialization ) की अवधारणा • के पूर्णतः विपरीत है । शाब्दिक दृष्टिकोण से यदि हम इसे देखें तो हम कह सकते हैं कि सार्वभौमिकरण का प्राशय किसी साँस्कृतिक विशेषता का प्रत्येक स्थान में प्रसार होना है । –

 मैकिम मेरियट ने सार्वभौमिकरण की प्रक्रिया का उल्लेख एक ऐसी स्थिति के लिए किया है , जिसमें स्थानीय एवं लघु परम्परागों से शनैः – शनैः वृहत् परम्परा का निर्माण होता है । किसी भी समाज के सांस्कृतिक जीवन को सुस्पष्ट करने के लिए सार्वभौमिकरण एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अवधारणा है ।

‘ सार्वभौमिकरण ‘ की प्रक्रिया का सर्वप्रथम उल्लेख मिल्टन सिंगर एवं रोबर्ट रेडफील्ड ने किया था । बाद में इसका प्रयोग मैकिम मेरियट ने लघु परम्परा एवं वृहत् परम्परा के पारस्परिक सम्बन्धों को स्पष्ट करने के लिए किया था । मैकिम मेरियट ने स्वयं अपनी सम्पादित कृति ‘ विलेज इण्डिया ‘ में लिखे एक लेख ‘ लिटिल कम्यूनिटी इन एन इण्डिजीनस सिविलाइजेशन ‘ में लिखा है कि ” यह समझने के लिए कि अक्सर प्राचीन संस्कृत कर्मकाण्ड असंस्कृत कर्मकाण्डों ( Non – Sanskritized ) को हटाए बिना उनसे क्यों जुड़ जाते हैं ? हमें उस प्रक्रिया को समझना होगा जो स्वदेशी सभ्यता से सम्बन्धित है । परिभाषा के दृष्टिकोण से स्वदेशी सभ्यता वह है जिससे सम्बद्ध वृहत् परम्पराओं की उत्पत्ति पहले से ही विद्यमान छोटी परम्परामों के तत्त्वों के मिलने से होती है । वृहत परम्पराओं की इसी प्रक्रिया को हम ‘ सार्वभौमिकरण ‘ , ‘ सर्वव्यापीकरण ‘ या ‘ सर्वदेशीकरण ‘ के नाम से जानते हैं । “

 स्पष्ट है कि जब स्थानीय लघु या छोटी परम्पराओं के मिलने से एक बडी परम्परा का निर्माण होता है तथा उनका विवेचन धर्म – ग्रन्थों में कर लिया जाता है , तब संस्कृति के प्रसार की यह प्रकिया ‘ सार्वभौमिकरण ‘ कहलाती है ।

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सार्वभौमिकरण का अर्थ एवं विशेषताएँ

( Meaning and Characteristics of Universalization )

मैकिम मेरियट लिखते हैं कि जब लघु परम्परा ( Little Tradition ) के तत्त्व ( देवी देवता प्रथाएँ , संस्कार प्रादि ) ऊपर की ओर बढ़ते हैं , अर्थात् उनके फैलाव का क्षेत्र विस्तृत हो जाता है , जब वे * सार्वभौमिकरसा की हम तो

वृहत परम्परा ( Great Tradition ) के स्तर तक पहुँच जाते हैं और उनका मूल स्वरूप परिवर्तित हो जाता है , तो इस प्रक्रिया को हम ‘ सार्वभौमिकरण ‘ कहते हैं । मेरियट ने स्वयं लिखा है कि ” सार्वभौमि करण की प्रक्रिया का तात्पर्य वृहत् परम्परा का उन तत्त्वों से निर्मित होता है जो छोटी परम्परागों में पहले से ही विद्यमान होते हैं तथा जिनसे वृहत् परम्पराएँ सदैव पाच्छादित रहती हैं । “

इस प्रकार स्पष्ट है कि जब लघु परम्परा से सम्बन्धित सांस्कृतिक तत्त्वों के फैलाव का क्षेत्र बढ़ता जाता है तो इस दौरान उनका स्वरूप भी बदल जाता है । ये साँस्कृतिक तत्त्व कालान्तर में शनैः शनैः वृहत् परम्परा के अंग बन जाते हैं । जब लघ परम्परा के तत्त्व देवी – देवता , प्रथाएँ , संस्कार वृहत् परम्परा के स्तर तक प्रचलित हो जाते हैं और उन्हें वृहत् परम्परा का ही अंग माना जाने लगता है , तो इस प्रक्रिया को हम ‘ सार्वभौमिकरण ‘ के नाम से जानते हैं । –

 इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यावहारिक रूप से लघु एवं वृहत् परम्पराएँ किसी भी समाज में साथ – साथ चलती हैं तथा व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करती हैं । संक्षेप में लघु परम्पराओं के तत्त्वों के ऊर्ध्वगामी परिवर्तनों से जिन बड़ी परम्परायों का निर्माण होता है , उसी प्रक्रिया को हम ‘ सार्वभौमिकरण ‘ कहते हैं ।

 इसी परिभाषिक विश्लेषण के आधार पर ‘ सार्वभौमिकरण ‘ की कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषताएं प्रस्तुत की जा सकती हैं

 ( 1 ) सार्वभौमिकरण की प्रक्रिया का विकास लघ एवं वृहत परम्परामों के पारस्परिक सम्बन्धों से होता है ।

 ( 2 ) सार्वभौमिकरण में लध परम्पराएं अपना अस्तित्व समाप्त नहीं करतीं वरन् वे अपने अस्तित्व को बनाए रखने के बाद भी अपने से भिन्न एक नई वृहत् परम्परा का निर्माण करती हैं ।

 ( 3 ) लघु एवं वृहत् दोनों परम्पराएँ पवित्रता के दृष्टिकोण से समान रूप से बनी रहती हैं । इसका प्राशय है कि किसी समाज के अधिकांश व्यक्ति इन दोनों परम्परायों में समान रूप से भाग लेते हैं और दोनों से सम्बद्ध कर्मकाण्डों को पूरा करना अनिवार्य मानते हैं ।

( 4 ) इस प्रकार वृहत् परम्पराएँ पूर्णतः नवीन दिखाई देने के बाद भी पूरी तरह नवीन नहीं होती , बल्कि ये वृहत् परम्पराएं मूलतः लघु परम्पराओं का ही संशोधित रूप होती हैं ।

( 5 ) संक्षेप में सार्वभौमिकरण स्थानीय धार्मिक विश्वासों एवं कर्मकाण्डों का एक व्यापक विस्तार है ।

मैकिम मेरियट ने बताया है कि यह जानने के लिए कि किशनगढ़ी के त्यौहारों में काफी लम्बे समय में भी संस्कृतिकरण अधिक नहीं हो पाया तथा यह समझने के लिए कि साँस्कृतिक संस्कार प्रसाँस्कृतिक संस्कारों को बदले बिना सामान्यत : उनमें क्यों जोड़ दिए जाते हैं , सभ्यता की प्राथमिक अथवा देशी प्रक्रिया की यह अवधारणा लाभदायक पथ – प्रदर्शन करती है । मेरियर के अनुसार ” एक देशी : सभ्यता वह है , जिसकी बृहत् परम्परा सार्वभौमिकरण या लघु परम्परा में पहले से मौजूद तत्त्वों को आगे बढ़ाने से उत्पन्न होती है । “

 स्पष्ट है कि लघ परम्परा के तत्त्व फैलते – फैलते काफी विस्तृत रूप में फैल जाते हैं . फैलाव की इस अवधि में वे अपने मूल स्वरूप को खो देते हैं , और शनैः – शनैः वे वृहत् परम्परा के अंग के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं , तो इसे हम ‘ सार्वभौमिकरण ‘ कहते है ।

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 सार्वभौमिकरण के कुछ उदाहरण

( Some Examples of Universalization )

मैकिम मेरियट ने ‘ सार्वभौमिकरण ‘ की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए किशनगढी गाँव की कुछ परम्परानों को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है । वस्तुतः सार्वभौमीकरण की प्रकृति को देखने से भी यह स्पष्ट होता है कि भारत की वहत परम्परामों में स्थानीय विशेषताओं का केवल मिश्रण ही नहीं है , बल्कि ग्रामीण समुदाय की स्थानीय विशेषतामों ने अनेक वृहत् परम्पराओं को जन्म भी दिया है ।

 मैकिम मेरियट ने किशनगढी के अध्ययन द्वारा यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि यहाँ दीपावली के त्यौहार के अवसर पर गांववासी अपने घर की दीवार पर चावल के आटे की एक प्रतिमा बनाते हैं , जिसे ग्रामीण भाषा में यहां के निवासी ‘ सौरती ‘ ( Saurti ) कहते हैं । ‘ सौरती ‘ देवी की पूजा करना दीपावली के दिन यहाँ के ग्रामीणों के लिए अनिवार्य माना जाता है । यहाँ के निवासियों की मान्यता है कि लक्ष्मी धनवानों की देवी है , जबकि ‘ सौरती उनकी अपनी देवी है । यहाँ ‘ सौरती ‘ के अलावा लक्ष्मी की पूजा भी दीपावली पर की जाती है ।

मैंकिम मेरियट ने इस सम्बन्ध में बताया है कि ‘ सौरती ‘ से सम्बन्धित विश्वास लघु परम्परा से सम्बन्धित हैं , लेकिन जब इसके फैलाव का क्षेत्र विस्तृत होता गया , एणं यह फैलाव ऊपर की ओर होता गया , तो इस लम्बी यात्रा में उसका स्वरूप परिवर्तित हो गया और उसने लक्ष्मी का रूप ग्रहण कर लिया । लक्ष्मी एक ऐसी देवी है , जिसकी गणना वहत परम्परा के अन्तर्गत होती है । इस प्रकार एक क्षेत्र विशेष में प्रचलित लघु परम्परा ( सौरती पूजा ) कालान्तर में वहत् परम्परा ( लक्ष्मी पूजा ) में बदल गई । यह स्थानान्तरण ही ‘ सार्वभौमिकरण ‘ कहलाता है । मैकिम मेरियट ने एक दूसरा उदाहरण ‘ रक्षा बन्धन ‘ का दिया है । मेरियट कहते हैं कि रक्षा बन्धन की वृहत् परम्परा का प्रारम्भ एक ऐसी लघु परम्परा से हुआ है , जिसे किशनगढ़ी में ‘ सलूनो ‘ ( Saluno ) का त्यौहार कहा जाता है । सम्पूर्ण राष्ट्र में रक्षा बन्धन के दिन ही इस गाँव में ‘ सलनो ‘ का त्यौहार मनाया जाता है । इस त्यौहार के कुछ दिन पहले ही परम्परागत रूप से विवाहित स्त्रियाँ अपने माता – पिता के घर से ससुराल लौटने की तैयारी करती हैं । ये स्त्रियाँ अपने ससुराल के लिए वापस जाने से पूर्व अपनी प्रविवाहिता बहिनों सहित अपने भाइयों के सिर तथा कान पर जो की बालें ( पवित्र माना जाने वाला अनाज ) रखती हैं । वस्तुतः वे ऐसा अपने भाइयों के प्रति अपनी प्रास्था एवं सम्बन्ध रखने के लिए ही करती हैं क्योंकि भाई अपनी बहिनों से बिना कुछ दिए कोई चीज स्वीकार नहीं करते , अत : जो की बालियों के बदले वे अपनी बहिनों को कुछ सिक्के या धन प्रादि देते हैं । तत्पश्चात् भाई एवं जीजा खेल में भाग लेते हैं । उसी दिन रक्षा बन्धन का त्यौहार मनाया जाता है । ब्राह्मण पण्डित अपने जजमानों की कलाई पर मन्त्रोचारण करते हुए आशीर्वाद के साथ राखी बांधते हैं और उन्हें बदले में नकद सिक्का या रुपये आदि दिए जाते हैं , क्योंकि परम्परागत रूप में ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों को बिना कुछ दिए कोई वस्तु प्राप्त करना अनुचित है । ‘ सलनो ‘ के पारिवारिक त्यौहार पौर रक्षा बन्धन के ब्राह्मणों के विशिष्ट त्यौहार में ‘ बहिन ‘ एवं ‘ ब्राह्मण ‘ की भूमिका में समानता पाई जाती है ।

 मैकिम मेरियट कहते हैं कि ऐसा दिखाई देता है कि रक्षा बन्धन के त्योहार की उत्पत्ति सलूनो जैसे लघु परम्परा के त्यौहार से हुई है । अब किशनगढ़ी में भी दोनों ही त्यौहार साथ – साथ मनाए जाते हैं । प्रकट है कि सलूनो के त्योहार का फैलाव शनैः – शनै : बढ़ता गया और शनै : – शनै : इस त्यौहार ने . जो एक लघ परम्परा थी , वहत् परम्परा का रूप धारण कर लिया तथा भविष्योत्तर पुराण एवं अनेक दूसरे संस्कृत धर्म – ग्रन्थों में इसने स्थान पा लिया । इस प्रकार सलनो का रक्षा – बन्धन के रूप में परिवर्तित होना भी सार्वभौमिकरण की प्रक्रिया स्पष्ट करता है ।

 इसी प्रकार मैकिम मेरियट ने सार्वभौमिकरण की प्रक्रिया को समझाने के लिए कुछ स्थानीय । देवी – देवताओं के भी उदाहरण प्रस्तुत किए हैं । इस सन्दर्भ में उन्होंने ठाकूर – ठकुरानी नयनसुख , कल्याणी – एवं मियां साहब नामक स्थानीय देवताओं का उल्लेख किया है और कहा है कि ये सार्वभौमिकरण का प्रक्रिया को व्यक्त करते हैं , क्योंकि ये अपनी उत्पत्ति के स्थान से धीरे – धीरे अन्य क्षेत्रों में प्रसिद्ध होते चल जा रहे हैं लेकिन मैकिम मेरियट के इन विचारों की बहुत मालोचना हई है । डॉ . एस . एल . श्रीवास्तव ने । राजस्थान और पूर्वी उत्तर – प्रदेश में अनुभाविक अध्ययन कार्य करके मैकिम मेरियट के विचारों से असहमति व्यक्त की है । आपके अनुसार इन त्योहारों की जड़ वृहत् परम्परा में ही है । श्रीवास्तव के अनुसार सौरती कोई और देवी नहीं है , सिवाय लक्ष्मी के । स्वयं मैकिम मेरियट ने भी एक स्थान पर लिखा है कि ” ग्रामीण सौरती को लक्ष्मी के रूप में मानते हैं । ” भाषा विज्ञान की दृष्टि से यह प्रासानी से सिद्ध किया जा सकता है सौरती शब्द सुखरावी शब्द का विभ्रश है । सुखरात्री . शब्द दीपावली के त्यौहार का प्राचीन नाम है , जिसमें देवी लक्ष्मी की पूजा की जाती रही है । प्राचीन काल में देवी लक्ष्मी की पूजा को सुखरात्री की पूजा कहा जाता था । वर्तमान समय में भी कुछ विद्वान् पण्डित ऐसा कही है । कि वे सुखरात्री की पूजा दीपावली की रात्रि में करते हैं । ऐसी अधिक सम्भावना है कि कालान्तर में सुखरात्री पूजा धीरे – धीरे किशनगढ़ी के किसानों में नाम बिगड़ने के नाते सौरती पूजा के नाम से जाना जाने लगा है ।

सामान्यत : यह पाया जाता है कि अनेक हिन्दू अपने प्रिय देवी – देवताओं की पूजा करते समय दूसरे देवी – देवताओं की मूर्तियां एवं तस्वीरें प्रादि अपने प्रिय देवता की तस्वीर या मूर्ति के साथ रख लेते हैं और उनकी भी पूजा करते हैं । देवताओं का इस प्रकार का एकत्रीकरण अनेक हिन्दू मन्दिरों में भी देखा जा सकता है । इन मन्दिरों को देखकर यह नहीं कहा जा सकता . कि मन्दिर के मुख्य देवता की उत्पत्ति उन अन्य देवी – देवतामों से हई है , जिन्हें उस मन्दिर में रखा गया है ।

 डॉ . श्रीवास्तव ने इसी प्रकार रक्षा बन्धन के त्यौहार के स्रोत के विषय में भी यह बताया है कि इसका स्रोत बृहत् परम्परा में ही है , न कि लघु परम्परा के त्यौहार सामनों में है , जैसा कि मैकिम मेरियट मानते हैं । लगभग पचास वर्ष पहले रक्षा बन्धन के त्यौहार का उल्लेख करते हुए ए . सी . मुकर्जी ने यह लिखा है कि रक्षा बन्धन का त्यौहार जो कि सालूनों के नाम से भी जाना जाता है , श्रावण की पूर्णिमा के दिन पड़ता है । सलूनो शब्द परसियन भाषा के शब्द साल – इ – नौ से लिया गया है , जिसका अर्थ है नया वर्ष ! अतः ऐसा लगता है कि सलूनो साल – इ – नौ का विभ्रश रूप है । यह नाम श्रावण की पूणिमा के दिन को दिया गया है , क्योंकि यह दिन सन् फसली अथवा खेतिहर वर्ष के अन्तिम दिन एवं प्रथम दिन के प्रारम्भ को व्यक्त करता है । रक्षा बन्धन का त्यौहार इसी दिन आता है । अतएव अधिक सम्भावना इसी बात की है कि रक्षा बन्धन त्यौहार को लोग सलोनो या सलूनो कहने लगे हों , क्योंकि साल – इ – नौ एवं रक्षा बन्धन का त्योहार दोनों एक ही दिन पड़ते हैं । haitech एक और बात ध्यान देने की यह है कि रक्षा बन्धन के त्यौहार को सलनो का त्यौहार कहने का प्रचलन अधिकांशतः उन क्षेत्रों में हैं , जहाँ मुस्लिम सस्कृति का अधिक प्रभाव रहा है । यह शब्द उन क्षेत्रों के लोगों को नहीं मालूम है , जहाँ मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव नहीं के बराबर है । इसके अतिरिक्त सलनो शब्द का उल्लेख इतिहास अथवा साहित्यिक कृतियों में मुस्लिम संस्कृति के आगमन के पहले नहीं दिखाई पड़ता है । परन्तु रक्षा बन्धन शब्द का उल्लेख भविष्योत्तर पुराणों में है , जिसमें इस बात का उद्धरण मिलता है कि इन्द्राणी ने इन्द्र के दाहिने हाथ में रक्षा – सूत्र बांधा था , जिसके प्रभाव से इन्द्र ने असुरों को हराया ।

डॉ . श्रीवास्तव मैकिम मेरियट के उस कथन को भी असंगत ठहराते हैं जिसमें मेरियट ने स्थानीय देवी – देवताओं के माध्यम से सार्वभौमिकरण की अवधारणा को समझाने का प्रयास किया था । श्रीवास्तव का मानना है कि इन देवी – देवताओं ( ठाकुर – ठकुराइन , नयनसुख , कल्याणी . मिया माहित आदि ) में से किसी एक ने भी वहत् परम्परा में अपना स्थान नहीं बनाया है । प्रतः ये विचार भी मैकिम मेरियट के सार्वभौमिकरगण की व्याख्या करने में असमर्थ ही है ।

 डॉ . बी . आर . चौहान ने भी लिखा है कि ‘ स्थानीयकरण ‘ एवं ‘ सार्वभौमिकरण ‘ की अवधारणाएँ एक श्रेणी से दूसरी श्रेणी में रूपान्तरण का पता लगाने में उस सीमा तक सहायता करती है , जहाँ तक कि श्रेणियाँ पहचानने योग्य हो । ये अवधारणाएँ श्रेणियों के अन्तर्गत त्यौहारों के उत्थान और पतन की व्याख्या नहीं करती है । इस सृष्टि से मैकिम मेरियट का प्रश्न संस्कृतिकरण लम्बे काल से अधिक क्यों नहीं हो पाया ? और सांस्कृतिक संस्कारों को प्रसास्कृतिक संस्कारों के हटाए बिना क्यों जोड़ दिया जाता है ? सार्वभौमिकरण , स्थानीयकरण या प्राथमिक सम्यता की अवधारणाओं द्वारा अनुत्तरित रहता है , अर्थात् इस प्रश्न का हल नहीं निकलता है । अधिक से अधिक ये प्रक्रियाएँ इस बात का वर्णन करती हैं कि गति का संचालन कैसे हमा , लेकिन इसके पीछे पाए जाने वाले तार्किक प्राधार का नहीं । उपर्युक्त विवेचन से यह स्वतः स्पष्ट होता है कि सार्वभौमिकरण एवं स्थानीयकरण की अवधारणाएँ वृहत तथा लघु परम्परामों के मध्य पाए जाने वाले सम्पर्क या अन्तःक्रिया की व्याख्या करने में अवश्य सहायक हैं , लेकिन यह स्पष्ट करने में नहीं कि किसी विशिष्ट सांस्कृतिक तत्त्व की उत्पत्ति सर्वप्रथम वृहत् परम्परा में हुई है या लघु परम्परा में । मिल्टन सिंगर भी लघु एवं वहत् परम्परागों के आदान – प्रदान से काफी प्रभावित थे । । सिंगर भारत में सर्वाधिक रूप में सांस्कृतिक माध्यम ( Cultural Media ) से प्रभावित हुए । सांस्कृतिक माध्यम अर्थात् गीत , नृत्य , नाटक , त्यौहार , समारोह , कथा , उपदेश , शास्त्रों का पाठ , पूजा , यज्ञ आदि जिनसे भारतीय संस्कृति काफी मुखरित हई । आप उन तरीकों से काफी प्रभावित रहे हैं , जिनसे ये स्वरूप निरन्तर एक – दूसरे में एकीकृत होते हैं ।

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 स्थानीयकरण एवं सार्वभौमिकरण में अन्तर

( Difference Between Parochialization and Universalization )

 को स्थानीयकरण एवं सार्वभौमिकरण की विशद् व्याख्या कर लेने के बाद अब हम इस स्थिति में हैं कि दोनों प्रक्रियामों में पाए जाने वाले अन्तर को समझे । स्थानीयकरण एवं सार्वभौमिकरण एक दूसरे से अन्तरसम्बन्धित होते हुए भी पृथक – पृथक है । इनमें पाए जाने वाले प्रमुख अन्तरों को हम निम्न बिन्दुनों में रखकर समझ सकते हैं

 ( 1 ) स्थानीयकरण का प्राशय वृहत परम्परागों ( Great Traditions ) का नीचे की ओर ( Downward ) ( लघु परम्परानों की दिशा में ) विकास होना है अर्थात् इस प्रक्रिया में एक वृहत् परम्परा अनेक छोटी या लघु परम्पराओं को जन्म देती है । दूसरी ओर सार्वभौमिकरण का तात्पर्य लघु परम्परारों ( Little Traditions ) या स्थानीय परम्पराओं का ऊपर की ओर ( Upward ) विकास करने से है । इसका प्राशय यह है कि यह प्रक्रिया अनेक छोटी – छोटी या लघु परम्परानों से एक बहत परम्परा के निर्माण को स्पष्ट करती है ।

( 2 ) स्थानीयकरण की प्रक्रिया परम्परागों के क्षेत्र को सीमित करती है । अन्य शब्दों में इस अवधारणा में धार्मिक जीवन से सम्बन्धित संकीर्णता का भाव निहित है । सार्वभौमिकरण की प्रक्रिया इससे विपरीत परम्परा के प्रभाव – क्षेत्र का विस्तार करती है

 ( 3 ) स्थानीयकरण की प्रक्रिया के प्रभाव में वृद्धि होने से स्थानीय विश्वासों एवं कर्मकाण्डों की संख्या में वृद्धि करती है जबकि सार्वभौमिकरण की प्रक्रिया स्थानीय कर्मकाण्डों ( Rituals ) के फैलाव की विरोधी होती है ।

( 4 ) स्थानीयकरण की प्रक्रिया किन्हीं नए विश्वासों अथवा कर्मकाण्डों को जन्म नहीं देती , बल्कि यह पहले से ही विद्यमान किसी बड़ी परम्परा के तत्त्वों को अनेक छोटी – छोटी परम्परागों के रूप में विकसित कर देती है । दूसरी ओर सार्वभौमिक रण की प्रक्रिया एक ऐसी प्रक्रिया है , जिसमें अनेक छोटी – छोटी परम्परागों से एक ऐसी नई परम्परा का जन्म होता है , जिसकी विशेषताएँ मूल लघु परम्परानों से पूरी तरह अलग होती हैं ।

( 5 ) स्थानीयकरण की प्रक्रिया एक प्रकार से प्रत्यर्वाचीन परम्परा है अर्थात् स्थानीय परम्परामों का स्वरूप प्रत्येक क्षेत्र , स्थान व समूहों में भिन्न – भिन्न दिखाई देता है । दूसरी ओर सार्वभौमिकरण की प्रक्रिया इस अर्थ में अधिक व्यवस्थित है कि इससे सम्बन्धित विश्वासों तथा कर्मकाण्डों का स्वरूप सभी क्षेत्रों में लगभग एक जैसा दिखाई देता है ।

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