सामाजिक समस्याओं के प्रमुख कारण
सामाजिक समस्याओं की उत्पत्ति के अनेक कारण हैं । सामाजिक विपन , सामाजिक आकांक्षाएँ , सामाजिक प्रथाएँ , सामाजिक गतिशीलता आदि सामाजिक समस्याओं को उत्पन्न करने के कुछ प्रमुख कारण है । अनेक विद्वानों ने अपने मतानुसार सामाजिक समस्याका इन कारणों का उल्लेख किया है ।
रॉब और सेल्जनिक ने पांच कारणों को उत्तरदायी माना
1 . जब एक संगठित समाज के लोगों के सम्बन्यों को व्यवस्थित करने की योग्यता समाप्त होती दिखाई दे ।
2 . जब समाज की विभिन्न संस्थाएँ विचलित होती प्रतीत हो ।
3जब समाज के कानूनों का उल्लंघन होने लगे ।
4 . जब समाज के मूल्यों का संचरण ( पीढ़ी दर पीढ़ी ) रुक जाए ।
5 . सामान्य नागरिकों की अपेक्षाओंच आकांक्षाओं का हाँचा लहखडाने लगे
पॉल लैण्डिस ने सामाजिक समस्याओं के चार प्रमख कारणों का उल्लेख किया है ।
1 . व्यक्ति समायोजन में असफलता
2 . सामाजिक संरचना में दोष
3 . संस्थात्मक समायोजन में असफलता
4 . सामाजिक नीतियों में संस्थात्मक विलम्बन ।
रॉबर्ट एं निस्वेत ने भी सामाजिक समस्याओं के चार प्रमुख कारणों का उल्लेख किया है ।
1 . संस्थाओं का संघर्ष ,
2 . सामाजिक गतिशीलता ,
3 . व्यक्तिवादिता एवं
4 . व्याधिकीय स्थितियाँ ।
रॉब और सेल्जनिक तथा पॉल लेण्डिस ने सामाजिक समस्याओं को अलग – अलग कर उनका विश्लेषण किया है जबकि हरमन और वाल्श ने इस प्रकार के अध्ययन विधि की आलोचना की है क्योंकि अब यह माना जाता है कि सभी समस्याओं का पारस्परिक सम्बन्ध है । तथा सभी समस्याओं का एक सामान्य आधार है । इस सामान्य आधार के पाँच सिद्धान्त – सामाजिक विघटन का सिद्धान्त , सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त मल्य – संघर्ष का सिद्धान्त , वैयक्तिक विचलन का सिद्धान्त और सामाजिक विचलन का सिद्धान्त मिलते हैं ।
प्रो . टिम्स ने लिखा है कि ” सामाजिक समस्याओं को जन्म देने वाली अवस्थाएं सामाजिक रोग , सामाजिक विघटन , मतभेद और विचलन की अवस्थाएँ हैं । . टिम्स ने सामाजिक समस्याओं के अध्ययन की दो सामान्य पद्धतियों का विवेचन किया है
1 . विचलन की प्रक्रिया ( Process of Deviation )
2 . संरचनात्मक पद्धति ( Structural Method ) ।
पहली पद्धति के सम्बन्ध में टिम्स का कहना है कि कुछ लोग कतिपय परिस्थितियों के कारण विचलित हो जाते हैं और वे अपना एक समूह बनाने का प्रयत्न करते हैं । इस प्रकार वे सामाजिक समस्याएँ पैदा करते हैं । दूसरी संरचनात्मक पद्धति में टिम्स ने पर्टन द्वारा विकसित असामान्य या विसंगति की धारणा का संकेत किया है । संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे समाज में भी , जहाँ सफलता के सांस्कृतिक लक्ष्य और इस तथ्य पर बल दिया जाता है कि समाज में अनेक लोग अपने लक्ष्यों की पूर्ति में संस्थागत साधनों की सहायता नहीं लेते , अपराधी व्यवहार की दर ऊंची है ।
” प्रोफेसर मर्टन ने सामाजिक समस्याओं को , ‘ सामाजिक विघटन ‘ ( Social Disorganization ) और ‘ विचलित आचरण ( Devient Bchaviour ) में विभक्त करना लाभप्रद बताया है । इनके अतिरिक्त कुछ अन्य वर्ग भी हैं जिन्हें पारिवारिक विघटन , अपराधी व्यवहार और सामुदायिक संघर्ष की संज्ञा दी जा सकती है और जिनसे सामाजिक विघटन तथा विचलित आचरण दोनों का ही आभास भिन्न क्षेत्रों में होता है । . .
जैसे भारत में व्याप्त बेरोजगारी की समस्या को ही लिया जाए , यह एक सामाजिक समस्या है क्योंकि इससे समाज का एक बड़ा भाग या वर्ग ( विशेषकर युवा वर्ग ) प्रभावित है तथा इसका निदान किसी एक युवक के प्रयास से संभव न होकर युवकों , सरकार तथा अन्य गैर – सरकारी संस्थानों के संयुक्त प्रयास से ही संभव है । निर्धनता , जनसंख्या विस्फोट , युद्ध , असंतोष , आतंकवाद आदि सामाजिक समस्या के कुछ उदाहरण हैं । सामाजिक समस्या के स्वरूप को समझने के लिए
यह आवश्यक है कि इसकी कुछ विशेषताओं पर एक नजर डाली जाए । इसकी कुछ ऐसी प्रमुख विशेषताएं निम्नांकित हैं
1 . सामाजिक समस्याएं आदर्श तथा सामाजिक मानक से एक प्रकार का विचलन होती हैं ।
2 . सामाजिक समस्याओं की उत्पत्ति का कोई समान आधार होता है ।
3 . सभी सामाजिक समस्याएं कमोबेश एक – दूसरे से अन्तर्संबंधित होती हैं ।
4 . सभी सामाजिक समस्याओं की जड़ समाज ही होता है ।
5 . सभी सामाजिक समस्याओं का परिणाम भी सामाजिक ही होता है क्योंकि उसका प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पूरे समाज पर ही पड़ता है ।
6 . सामाजिक समस्याओं के समाधान का दायित्व वैयक्तिक न होकर सामाजिक ही होता है ।
दूसरे शब्दों में , किसी समस्या का समाधान किसी एक व्यक्ति के संभव न होकर परे समाज के प्रयास से ही संभवहोता है । सामाजिक समस्या की परिभाषा सामाजिक समस्या एक ऐसी दशा है जो चिन्ता , तनाव , संघर्ष या निराशा उत्पन्न करती है और आवश्यकता की पूर्ति में बाधा डालती सामाजिक समस्या उद्वेगात्मक अथवा मानसिक व्याकुलता के लिए उत्तरदायी है । चिन्ता , समस्या में गतिशील तत्व के रूप में पायी जाती है । एक समस्यामूलक परिस्थति उन व्यक्तियों को इसका हल खोजने के लिए बाध्य करती है जो इससे प्रभावित हों । समस्या से छुटकारा प्राप्त करने के लिए परिस्थिति को सामाजिक परिवर्तनों के माध्यम से बदलना आवश्यक होता है । सामाजिक समस्याओं के अध्ययन में ध्यान सामाजिक परिस्थितियों पर केन्द्रित किया जाता है । सामाजिक समस्या मानवीय सम्बन्धों से सम्बन्धित एक समस्या है जो समाज के लिए गम्भीर खतरा पैदा करती है अथवा जो व्यक्तियों की महत्वपूर्ण आकांक्षाओं की प्राप्ति में बाधाएं उत्पन्न करती है । सामाजिक समस्याएं व्यक्तियों की कल्याण सम्बन्धी अपूर्ण आकांक्षाएं हैं । सामाजिक समस्या का तात्पर्य किसी ऐसी सामाजिक परिस्थिति से है जो एक समाज में काफी संख्या में योग्य अवलोकनकर्ताओं के ध्यान को आकर्षित करती हैं , और सामाजिक अर्थात् सामूहिक , किसी एक अथवा दूसरे किस्म की क्रिया के द्वारा पुनः सामंजस्य या हल के लिए उन्हें आगाह करती हैं । व्यवहार के जिन प्रतिमानों या परिस्थितियों को किसी समय समाज के बहुत से सदस्य आपत्तिजनक अथवा अवांछनीय मानते हों , वे ही सामाजिक समस्याएं हैं । इन सदस्यों की यह मान्यता रहती है कि इन समस्याओं को हल करने और उनके कार्यक्षेत्र को कम
भारत में करने के लिए सुधार – नीतियों , कार्यक्रमों एवं सेवाओं की आवश्यकता होती है । सामाजिक समस्या के सामान्य तत्व – उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर सामाजिक समस्याओं में निम्नलिखित सामान्य तत्व पाए जाते हैं : _
1 . सामाजिक समस्या एक ऐसी कष्टप्रद दशा है जो व्यक्ति और समाज दोनों में विकास की दृष्टि से बाधक है ।
2 . सामाजिक समस्या का मनोवैज्ञानिक एवं भौतिक विस्तार इतना होता है कि उससे एक महसूस की जाने वाली आवश्यकता की पूर्ति में बाधा पड़ती है ।
3 . किसी सामाजिक दशा के सामाजिक समस्या कहलाने के लिए यह आवश्यक है कि समूह या जनता में उसके प्रति जागरूकता पायी जाए ।
4 . असामंजस्यपूर्ण शक्तियों तथा उनके परिणामों को रोकने के लिए सामाजिक क्रिया एवं नियंत्रण की आवश्यकता । पड़ती है ।
5 . पुनः सामंजस्य स्थापित करने के लिए पर्यावरण सम्बन्धी परिस्थिति में संरचनात्मक संशोधन आवश्यक रहता है । अत : सामाजिक समस्याओं को उन सामाजिक दशाओं के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो सामाजिक कल्याण के लिए खतरे के रूप में होती हैं , जिनके प्रति एक समाज के काफी लोग जागरूक होते हैं और जिनके निराकरण के लिए सामूहिक रूप से कोई रचनात्मक कार्य या प्रयास करने की आवश्यकता होती है । –
फुल्लर के अनुसार – किसी सामाजिक दशा को सामाजिक समस्या के रूप में समझने और हल करने के लिए तीन अवस्थाओं से गुजरना आवश्यक है :
1 . किसी परिस्थिति को सामाजिक समस्या मानने के लिए यह आवश्यक है कि लोगों को यह दृढ़ विश्वास हो कि वह परिस्थिति लोगों के लिए मूल्य – व्यवस्था की दृष्टि से अनुचित है और उसको हल करने के लिए कुछ करना चाहिए ।
2 . सामाजिक समस्या के अस्तित्व को स्वीकार करने पर उसके निवारण के लिए अनेक सुझावों में से किसी एक को मानकर उसके अनुरूप साधन ढूँढ़ने का प्रयास किया गया है ।
3 . सामाजिक समस्या के समाधान के लिए किसी साधन को के पश्चात् उसे कार्यान्वित कर सुधार लाने की की जाती है ।
सामाजिक समस्याओं के कारण
1 . जब किसी संगठित समाज के सदस्यों के सम्बन्धों को व्यवस्थित करने की योग्यता समाप्त होने लगती है अथवा समाप्त होती प्रतीत होती है तो सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं ।
2 . जब समाज की संस्थाएँ विचलित होने लगती हैं तो सामाजिक समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं ।
3 . जब किसी समाज के लोग कानूनों का उल्लंघन करने लगते हैं तो सामाजिक समस्याएँ उभरने लगती हैं ।
4 . जब लोगों की अपेक्षाओं का ढाँचा लड़खड़ाने लगता है तो सामाजिक समस्याएँ पैदा हो जाती हैं । म
5 . जब समाज के मूल्यों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को 8 हस्तान्तरित होना रुक जाता है तो ऐसी दशा में सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं ।