Social Structure – Concept and Theories 

सामाजिक संरचना – अवधारणा एवं सिद्धान्त

Social Structure – Concept and Theories 

सामाजिक संरचना समाजशास्त्र की महत्वपूर्ण अवधारणाओं में से है । समाजशास्त्र में सामाजिक संरचना की अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम हरबर्ट स्पेन्सर ने अपनी पुस्तक ” Principles of Sociology ” में किया । दुर्थीम ने इसका प्रयोग ‘ The Rules of Sociological Methods ‘ में किया । लेकिन दुर्भाग्य से ये इसकी स्पष्ट व्याख्या नहीं कर पाये । लुईस हेनरी मार्गन की पुस्तक ‘ Systems of Consanguinity and Affinity of the Human family ‘ का सामाजिक संरचना का प्रथम मानवशास्त्रीय अध्ययन माना जाता है । ज्ञातव्य हो कि संरचना शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग मकान की संरचना के परिप्रेक्ष्य में हुआ था । तत्पश्चात् शरीर संरचना के रूप में जीव विज्ञान में प्रयोग हुआ और जीव विज्ञान से ही समाजशास्त्र में लिया गया ।

जिस प्रकार से किसी शरीर या भौतिक वस्तु की संरचना होती है उसी प्रकार समाज की भी संरचना होती है । समाज की संरचना भी कई इकाइयों जैसे – परिवार , संस्थाओं , संघों , प्रतिमानित संबंधों , मूल्यों एवं पदों आदि से मिलकर बनी होती हैं । यह सभी इकाइयाँ परस्पर व्यवस्थित रुप से संबंधित होती है और अपने – अपने स्थान पर अपेक्षतया स्थिर होती है । इन सभी के संयोग से समाज का एक बाह्य स्वरुप प्रकट होता है जिसे हम सामाजिक संरचना कहते हैं ।समाज एक अखण्ड व्यवस्था नहीं है । उसके विभिन्न भाग होते हैं । ये विभिन्न भाग व्यवस्थित ढंग से संयुक्त होकर एक ढाँचे का निर्माण करते हैं । इसी ढांचे को सामाजिक संरचना कहा जाता है । टॉलकॉट पारसन्स ( Talcott Parsons ) के शब्दों में , ” सामाजिक संरचना से तात्पर्य अन्तर्सम्बन्धित संस्थाओं , अभिकर और सामाजिक प्रतिमानों तथा समूह में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किए गए प्रस्थितियों और भमिकाओं की विशिष्ट क्रमबद्धता से है ।  इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि –

-. सामाजिक संरचना का निर्माण सामाजिक संस्थाओं , अभिकरणों . सामाजिक प्रतिमानों और व्यक्ति के प्रस्थितियों और भूमिकाओं से होता है ।

 -. इस रूप में सामाजिक संरचना अमूर्त है , क्योंकि इसके निर्माण की इकाइयाँ अमूर्त हैं ।

 – ये इकाइयाँ एक – दूसरे से सम्बन्धित होती हैं ।

– सामाजिक संरचना में एक विशिष्ट क्रमबद्धता पाई जाती है ।

 कार्ल मैनहीम ( Karl Manheim ) की दृष्टि में , ‘ सामाजिक संरचना अन्तक्रियात्मक सामाजिक शक्तियों का जाल है जिससे अवलोकन एवं चिन्तन की विभिन्न पद्धतियों का उद्भव हुआ है । ”  इस कथन से पता चलता है कि –

 – सामाजिक संरचना सामाजिक शक्तियों का जाल है ।

 -यहाँ सामाजिक शक्तियों का अभिप्राय सामाजिक नियंत्रण के साधनों से है ।

-. ये सामाजिक शक्तिया परस्पर अन्तक्रिया करती रहती हैं ।

 – साथ ही ये शक्तियाँ अवलोकन व चिन्तन की पद्धतियों को जन्म देती हैं ।

एच०एम० जानसन ( H . M . Johnson ) के अनुसार , ‘ ‘ किसी वस्तु की संरचना उसके अंगों में विद्यमान अपेक्षाकत स्थाई अन्तर्सम्बन्धों से बनती हैं । स्वयं अंग शब्द में ही स्थायित्व की एक निश्चित मात्रा पाई जाती है । चूंकि एक सामाजिक व्यवस्था लोगों की असम्बन्धित क्रियाओं से निर्मित होती है , अत : उसकी संरचना को इन क्रियाओं की नियमितता या पुनरुपत्ति की मात्रा में ढूंढा जाना चाहिए । ” इस परिभाषा से स्पष्ट है कि सामाजिक गतिशीलता सामाजिक परिवर्तन से जुड़ा है । इस परिभाषा से पता चलता है कि –

– सामाजिक सरंचना के निर्माण की अनेक इकाइयां हैं ।

– इन इकाइयों में परस्पर सम्बन्ध पाए जाते हैं ।

 – इन सम्बन्धों में स्थायित्व के गुण होते और सामाजिक संरचना के निर्माण में व्यक्तियों से परस्पर सम्बन्धित क्रियाओं का योगदान होता है ।

 आर०के० मर्टन ( RKMerton ) ने सामाजिक संरचना का आधार समाज के व्यक्तियों की प्रस्थिति और भूमिका को बताया है । उनका कहना है कि समाज में व्यक्ति को कई प्रस्थितियाँ प्राप्त होती हैं और प्रत्येक प्रस्थिति से सम्बन्धित भूमिकाएं होती है । सामाजिक संरचना का निर्माण इन्हीं प्रस्थितियों और भूमिकाओं से होता है । उपरोक्त परिभाषाओं के आलोक में कहा जा सकता है कि सामाजिक संरचना अनेक इकाइयों ( सामाजिक समह संस्थाएं , व्यक्तियों की प्रस्थिति और भूमिका आदि ) से निर्मित होती है । ये इकाईयाँ परस्पर अन्तर्सम्बन्धित होती है । इसे अपेक्षाकृत अधिक स्थिर माना जाता है ।

सामाजिक संरचना की विशेषताएँ

 ( Characteristics of Social Structure )

– विशिष्ट क्रमवद्धता ( Particular Arrangement ) : सामाजिक संरचना एक विशिष्ट क्रमबद्धता है । किसी भी सामाजिक संरचना का निर्माण मात्र इकाइयों के योग से नहीं होता , बल्कि उन्हें एक विशिष्ट क्रम में संयुक्त करना होता है । क्रम के अभाव में संरचना नहीं बन सकती । ठीक उसी तरह ईंट , पत्थर , सीमेन्ट , लोहा , बालू आदि को यों ही एक जगह मिश्रित कर रख दिया जाए , तो भवन नहीं बन जाता है । इन चीजों को व्यवस्थित ढंग से संयुक्त करने पर ही भवन का ढांचा ठीक से बनता है ।

– स्थानीय विशेषताओं का अभाव ( Effect of LocalCharacteristics ) : सामाजिक संरचना में स्थानीय विशेषताओं भाव होता है । यही कारण है कि एक समाज की संरचना दसरे समाज से भिन्न होती है । दरअसल समाज उस स्थान भौगोलिक , आर्थिक , सांस्कृतिक और राजनीतिक दशाओं से प्रभावित होता है । स्वाभाविक है कि समाज की संरचना में स्थानीयता की छाप हो ।

– अन्तर्सम्बन्धित ( Interrelated ) : सामाजिक संरचना की इकाइयों में परस्परसम्बन्ध का गुण पाया जाता है । प्रत्येक टकार्ड दसरी इकाइयों से सम्बन्धित होती है । परिवार , स्कल . कॉलेज , अस्पताल , थाना , कचहरी , आदि सामाजिक संरचना की इकाइयाँ हैं । समाज में इनका अपना खास कार्य है जिससे उसकी महत्ता स्पष्ट होती है , परन्तु ये सभी इकाइयाँ स्वतंत्र नहीं हैं , बल्कि किसी – न – किसी रूप में एक – दूसरे से सम्बन्धित हैं । यही सामाजिक संरचना की विशेषता है । इन उपर्युक्त विशेषताओं से सामाजिक संरचना की अवधारणा और अधिक स्पष्ट हो जाती है । इस रूप में इसे पक्तियों की अन्तक्रियाओं का परिणाम कहा जा सकता है ।

– अमूर्त अवधारणा ( Abstract Concept ) : सामाजिक संरचना एक अमूर्त अवधारणा है । पारसन्स और मैकईवर । एवं पेज ने इस विशेषता का उल्लेख किया है । सामाजिक संरचना के इकाइयों के रूप में पारसन्स ने संस्थाओं , अभिकरणों , प्रतिमानों , परिस्थितियों व भूमिकाओं का उल्लेख किया है । इनमें से कोई भी इकाई मूर्त नहीं है , बल्कि अमूर्त है , अत : सामाजिक संरचना भी अमूर्त है । राइट ( Wright ) का मानना है कि सामाजिक संरचना का आशय एक अवस्था या दशा या सम्बन्ध से है , इसीलिए यह अमूर्त अवधारणा है ।

– अपेक्षाकृत स्थाई ( Relatively Stable ) : सामाजिक संरचना अपेक्षाकृत स्थाई अवधारणा है । जॉनसन का कहना है कि सामाजिक संरचना का निर्माण जिन इकाइयों से होता है , वे अपेक्षाकृत अधिक स्थाई होते हैं । इसीलिए अपेक्षाकृत स्थाई इकाइयों से निर्मित सामाजिक संरचना अपेक्षाकृत स्थाई होते हैं । दरअसल संरचना स्थाई तत्त्वों या अंगों का एक प्रतिमान है और इस कारण इनमें अत्यधिक परिवर्तनशील तत्वों को सम्मिलित नहीं किया जा सकता ।

– सामाजिक प्रक्रियाएं ( Social Processes ) : सामाजिक संरचना के निर्माण में सामाजिक प्रक्रियाओं का योगदान होता है । सहयोग , समायोजन , सात्मीकरण , प्रतिस्पर्द्धा और संघर्ष आदि कुछ ऐसी प्रक्रियाएं हैं जिसके अभाव में सामाजिक संरचना का निर्माण नहीं हो सकता । इन प्रक्रियाओं का स्वरूप जैसा होता है , उसी के अनुरूप एक विशेष सामाजिक संरचना निर्मित होती है । एम०बी० ओल्सन ( M . B . Olsen ) ने सामाजिक संरचना को प्रक्रियाओं का ही बाह्य वाला माना है ।

– उप – संरचनाएँ ( Sub – Structures ) : सामाजिक संरचना की अनेक उप – संरचनाएँ होती हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि सामाजिक संरचना का निर्माण जिन इकाइयों से होता है , उनकी अपनी एक अलग संरचना होती है । उदाहरणस्वरूप , सामाजिक सरंचना का निर्माण परिवार , स्कूल , कालेज , अस्पताल , जाति आदि के द्वारा होता है ।इस तरह सामाजिक संरचना अनेक उप संरचनाओं से बनती है ।

– वाहा स्वरूप ( Outer Form ) : सामाजिक संरचना समाज के बाहरी स्वरूप का बोध कराती है । इसका निर्माण विभिन्न इकाइयों ( समूह , संस्थाएं , समितियों , व्यक्तियों की प्रस्थिति और भूमिका आदि ) से होता है । ये इकाइयाँ एक – दूसरे से सम्बन्धित होकर एक संरचना का निर्माण करते है । ठीक उसी तरह जिस तरह शरीर के विभिन्न अंगों ( हाथ , पैर कान . आंख आदि ) से शरीर ढांचे का निर्माण होता है ।

 

 

 

सामाजिक संरचना के तत्व

( Elements of Social Structure )

 सामाजिक संरचना के तत्त्वों के संदर्भ में सामाजिक वैज्ञानिकों के बीच एक मत का अभाव देखा जाता है । एच०एम० जॉनसन ( H . M . Johnson ) ने विभिन्न समूहों , उप – समूहों एवं उनके बीच पाए जाने वाले सामाजिक सम्बन्धों को सामाजिक संरचना का तत्त्व माना है । आर०एम० मैकईवर ( R . M . Maclver ) ने परिवार , समुदाय , जाति , वर्ग , नगर , गाँव आदि को तत्त्व के रूप में देखा है । सामाजिक संरचना के मूल तत्त्वों को निम्न रूप में समझा जा सकता

प्रस्थितियाँ और भूमिकाएँ ( Statuses and Roles ) : सामाजिक संरचना का आधारभूत तत्त्व व्यक्तियों की प्रस्थितियाँ और भमिकाएँ हैं । इन दोनों के व्यवस्थित योग से सामाजिक संरचना का निर्माण होता है । सामाजिक संरचना में प्रत्येक व्यक्ति को एक निश्चित पद मिलता है , वही उसकी प्रस्थिति कहलाता है । प्रस्थिति के अनुकूल व्यक्ति से कार्य पूरा किए जाने की आशा की जाती है , वही उसकी भूमिका है । प्रस्थिति और भूमिका में सामंजस्य संरचना को बनाए रखता है ।

सामाजिक अन्तक्रियाएँ ( Social Interactions ) : सामाजिक संरचना का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व सामाजिक अन्तक्रियाएँ हैं । प्रत्येक समाज में व्यक्ति अपनी विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक – दूसरे से अन्तर्किया । करता है । इसी अन्तक्रिया के क्रम में श्रम विभाजन व्यक्ति के अधिक से अधिक लाभ व सन्तुष्टि से जुड़ा है । इस पर समाज की संरचना टिकी है

सामाजिक संस्थाएँ ( Social Institutions ) : संस्थाएँ सामाजिक संरचना के महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं । संस्थाओं का अभिप्राय उन नियमों एवं कार्यविधियों से है जो सामाजिक सम्बन्धों को बनाए रखने में योगदान देती हैं । ऐसी संस्थाओं का विकास एक लम्बी प्रक्रिया के बाद होता है । इनमें अपेक्षाकत स्थायित्व के गण होते हैं । संस्थाए उचित व अनुचित व्यवहार का निर्धारण करती हैं । इनके माध्यम से सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना की जाती है । नियंत्रण की व्यवस्था का बनाए रखा जाता है । इस प्रकार सामाजिक संरचना का निर्माण एकाधिक तत्त्वों से है । ये तत्त्व समाजशास्त्रीय दृष्टिकोणों के अधिक निकट हैं ।

व्यक्ति ( Person ) : सामाजिक संरचना का पहला तत्त्व व्यक्ति कहा जाता है । आर० ब्राउन ( R . Brown ) ने लिखा है , ” सामाजिक संरचना के अंग मनुष्य हैं । ” व्यक्ति परस्पर सामाजिक सम्बन्धों का विकास करते रहते हैं । इससे सम्बन्धों का जटिल जाल बन जाता है । सामाजिक संस्थाओं द्वारा ये सम्बन्ध परिभाषित तथा नियमित हो जाते हैं । यह व्यक्तियों को एक निश्चित ढंग से व्यवस्थित कर देता है । व्यक्तियों का यह व्यवस्थित रूप ही सामाजिक संरचना है ।

मूल्य तथा प्रतिमान ( Norms and Values ) : सामाजिक संरचना का आधारभूत तत्त्व सामाजिक मूल्य और प्रतिमान है । आर०के० मर्टन ( R . K . Merton ) का कहना है कि सामाजिक संरचना की क्रमबद्धता उस समय तक बनी रहती है जब तक समूह के व्यक्ति मूल्यों और प्रतिमानों के अनुसार व्यवहार करते रहते हैं । जब इन नियमों का सन्तुलन एवं क्रमबद्धता बिगड़ जाती है , नियमहीनता ( Anomie ) की स्थिति पनप जाती है

सामाजिक व्यवस्था

( Social System)

सामाजिक व्यवस्था का निर्माण सामाजिक अन्तक्रियाओं एवं अन्तर्सम्बन्धों के द्वारा होता है । मानव प्राणियों के बीच होने वाले अन्तक्रियाओं एवं अन्तर्सम्बन्धों के परिणामस्वरूप विभिन्न रीति – रिवाज , कार्य – प्रणाली , समिति , संस्था , नियंत्रण के साधन आदि विकसित होते हैं । ये विभिन्न तत्त्व प्रकार्यात्मक रूप में संयुक्त रहते हैं . यही सामाजिक व्यवस्था है । आधुनिक समाजशास्त्र में व्यवस्था विश्लेषण का सर्वाधिक विस्तृत विवेचन टी पारसन्स ( T . Parsons ) ने किया है । इसकी विस्तृत व्याख्या इन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ द सोशल सिस्टम ‘ 1951( The Social System ) में किया है । पारसन्स ने सामाजिक व्यवस्था को परिभाषित करते हुए लिखा है , ‘ एक सामाजिक व्यवस्था एक ऐसी दशा में परस्पर अन्तक्रिया करने वाले वैयक्तिक कर्ताओं की बहुलता में निर्मित होती है जिसका कम – से – कम एक भौतिक या पर्यावरण सम्बन्धी पक्ष होता है , ऐसे कर्ता जो आशानुकूल सन्तुष्टि की प्रवृत्ति से प्रेरित होते हैं और एक – दूसरे के साथ तथा उनकी स्थितियों के साथ जिनके सम्बन्ध की परिभाषा और निर्णय सांस्कृतिक संरचना और सामान्य सहयोगी प्रतीकों द्वारा होती है ।  इस परिभाषा से अग्रलिखित मूल तथ्यों का पता चलता है —

( 1 ) सामाजिक व्यवस्था के लिए एक से अधिक कर्ताओं का होना है ।

( 2 ) इन कर्ताओं के बीच अन्तक्रिया की प्रक्रिया पायी जाती है ।

( 3 ) अन्तक्रिया के लिए परिस्थिति आवश्यक है । इस परिस्थिति में भौतिक एवं सामाजिक दोनों प्रकार के पर्यावरण अन्तर्निहित है ।

( 4 ) एक निश्चित लक्ष्य होंगे तथा

( 5 ) जिसकी एक सांस्कृतिक संरचना होगी ।

लूमिस का मानना है कि ( 1 ) सामाजिक व्यवस्था एकाधिक वैयक्तिक कतओिं की अन्तक्रिया से निर्मित होती है ; ( 2 ) इन कर्ताओं में अन्योन्याश्रयता के गुण होते हैं । ( 3 ) कर्ता का एक लक्ष्य होता है । उस लक्ष्य प्राप्ति की अभिलाषा में कर्ता एक – दूसरे से सम्बन्धित होते हैं और अन्तक्रिया करते हैं ।

एम – ई . जोन्स ( M . E . Jones ) के अनुसार , ” सामाजिक व्यवस्था एक स्थिति या दशा है जिसमें समाज के निर्माण करने वाली विभिन्न क्रियाशील इकाइयों एक – दूसरे के साथ तथा सम्पूर्ण समाज के साथ अर्थपूर्ण ढंग से सम्बन्धित होती है । ” इस कथन से पता चलता है कि अनेक व्यक्तियों के मान्यताप्राप्त ढंग से सम्बन्धित होते हुए अन्तक्रिया के फलस्वरूप सामाजिक व्यवस्था का निर्माण होता है । इस प्रकार उपरोक्त वर्णन के आधार पर यह कहा जा सकता है , कि सामाजिक व्यवस्था का निर्माण व्यक्तियों की अन्तर्किया के फलस्वरूप होता है । ये व्यक्ति एक लक्ष्य को ध्यान में रखकर एक – दूसरे से अन्तर्किया करते हैं । साथ ही अन्तक्रिया के लिए स्थान व परिस्थिति का होना आवश्यक है । 

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सामाजिक व्यवस्था की विशेषताएँ

 ( Characteristics of Social System )

 

अर्थपूर्ण अन्तक्रिया ( Meaningful Interaction ) : सामाजिक व्यवस्था अर्थपूर्ण अन्तक्रियाओं की व्यवस्था है । अर्थहीन या उद्देश्यहीन अन्तक्रयाएँ सामाजिक व्यवस्था का निर्माण नहीं करती हैं । समाज में पाए जाने वाले रीति – रिवाज , कार्य के ढंग , समूह , संस्था , नियंत्रण के साधन विधि आदि की उत्पत्ति एवं विकास अर्थपूर्ण अन्तक्रियाओं का परिणाम है

प्रकार्यात्मक सम्बन्ध ( Functiongal Relation ) : सामाजिक व्यवस्था के निर्माण की इकाइयों के बीच प्रकार्यात्मक सम्बन्ध पाए जाते हैं । इसके प्रत्येक इकाई के एक निश्चित कार्य होते हैं । इस प्रकार्य के आधार पर ही प्रत्येक इकाई एक – दूसरे से जुड़ जाते है जिसके चलते एक सम्बद्ध समानता का निर्माण होता है । इसी को सामाजिक व्यवस्था कहा जाता है ।

गतिशील ( Dynamic ) : सामाजिक व्यवस्था गतिशील होती है । इसका आधार अन्तक्रियात्मक सम्बन्ध है । अन्तक्रियात्मक सम्बन्धों में बदलाव आते रहते हैं । इसलिए सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन स्वाभाविक है । इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें स्थिरता नहीं होती । इसकी स्थिरता में ही गतिशीलता का अवलोकन किया जाता है ।

सांस्कृतिक व्यवस्था से सम्बन्धित ( Related with Cultural System ) : पारसन्स ने सामाजिक व्यवस्था के निर्माण में सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का उल्लेख किया है । उनके अनुसार सामाजिक व्यवस्था का आधार अन्तक्रियात्मक सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध धर्म , प्रथा , कानून , जनरीति आदि के द्वारा निर्धारित होता है । ये सब सांस्कृतिक व्यवस्था की इकाइयों हैं , इस रूप में सामाजिक व्यवस्था की सांस्कृतिक व्यवस्था से सम्बन्ध होना स्वाभाविक है ।

मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति ( Fulfilment of Human Needs ) : सामाजिक व्यवस्था की एक प्रमख विशेषता मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्ध कहा जाता है । इस व्यवस्था का एक निश्चित लक्ष्य होता है जो मानवीय होता है । दो या अधिक कर्ताओं के बीच पाए जाने वाले अनक्रियाओं का मूल आधार आवश्यकताओं का पूर्त होता है । मानवीय आवश्यकताएं अन्योन्याश्रयता की नींव हैं । इसीलिए तो पारसन्स ने सामाजिक व्यवस्था सर्व आवश्यकताओं का भी उल्लेख किया है । ये हैं – जैविकीय पूर्व – आवश्यकताएँ . कार्यात्मक पूर्व – आवश्यकता भर सांस्कृतिक पूर्व – आवश्यकताएँ ।

अनुकूलनता ( Adaptable ) : सामाजिक व्यवस्था में अनुकूलनता का गुण होता है । एक , समाज परिवर्तनशील है । इस क्रम में व्यवस्था भी परिवर्तित परिस्थितियों से अनुकूलन करता रहता है । दूसरा , मानवीय आवश्यकताएँ बदती रहती है । इस क्रम में सामाजिक व्यवस्था भी बदलती है और बदली परिस्थितियों से अनुकूलन करती है

सामाजिक अन्तक्रिया ( Social Interaction ) : सामाजिक व्यवस्था अन्तर्किया की प्रक्रिया पर आधारित है । पारसन्स ने लिखा है , ” सामाजिक व्यवस्था अनिवार्य रूप से अन्त : क्रियात्मक सम्बन्धों का जाल है  इसमें जब दो या अधिक कर्ताओं के बीच अन्तक्रियात्मक सम्बन्ध होते हैं , तब सामाजिक – व्यवस्था का निर्माण होता है । पारसन्स ने क्रिया को व्यवस्था के लिए भवन का पत्थर कहा है ।

सन्तुलन ( Equilibrium ) : सामाजिक व्यवस्था सन्तुलन की व्यवस्था है । यह अखण्ड व्यवस्था नहीं है । इसकी अनेक इकाइयाँ एवं उप – इकाइयाँ होती हैं । ये इकाइयाँ बिल्कुल पृथक् होकर कार्य नहीं करतीं , बल्कि सभी इकाइया मिलकर कार्य करती हैं । इससे सन्तुलन बना रहता है

 

 समग्र रूप में ‘ समाज ‘ का अध्ययन करने वाले विज्ञान समाजशास्त्र में दो आधारभूत अवधारणाएँ – ‘ सामाजिक संरचना ‘ तथा ‘ सामाजिक व्यवस्था ‘ हैं । आरम्भिक तथा मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि सामाजिक संरचना समाज के ढाँचे की परिचायक है , जबकि सामाजिक व्यवस्था उसी समाज के प्रकार्यात्मक पक्ष की ओर संकेत करती है । समाज एक अखण्ड व्यवस्था नहीं है , उसके विभिन्न अंग होते हैं । ये विभिन्न अंग व्यवस्थित ढंग से संयुक्त होकर एक ढाँचे या रूपरेखा की रचना करते हैं , इसी को सामाजिक संरचना कहते हैं । इसके विपरीत समाज के ये निर्माणक ( constituent ) अंग , तत्त्व या इकाइयाँ अपने – अपने निर्धारित प्रकार्यों ( functions ) के आधार पर परस्पर सम्बन्धित रहते हुए जिस सन्तुलन को उत्पन्न करते हैं , उसे सामाजिक व्यवस्था कहा जाता है । इस अर्थ में , ‘ सामाजिक संरचना ‘ से समाज की बाहरी रूपरेखा के प्रतिमान का बोध होता है , जबकि ‘ सामाजिक व्यवस्था ‘ से समाज की आन्तरिक प्रक्रियाओं का ।

कुछ विद्वानों का मत है कि सामाजिक संरचना रचनात्मक या प्रतिमानणाात्मक पक्ष से सम्बन्धित होने के कारण अधिक क्रियाशील या गतिशील धारणा है । उदाहरदणार्थ , एक सावयव ( organism ) को ही लीजिए – सावयव यानि शरीर के विभिन्न अंगों के एक विशिष्ट प्रकार के संयोग से एक विशेष प्रकार की शरीर – रचना या ढाँचे का निर्माण होता है । इसी को हम प्राणिशास्त्रीय संरचना या सावयवी संरचना ( organic structure ) कहते हैं । परन्तु यदि एक कुत्ते के कंकाल को और एक मनुष्य के कंकाल को पास – पास रखा जाए तो यह स्पष्ट होगा कि वे दोनों एक समान नहीं हैं क्योंकि उनकी सावयवी संरचना में भिन्नता होती है । संरचना एक विशिष्ट प्रतिमान ( pattern ) को प्रस्तुत करती है जिसके आधार पर एक को दूसरे से अलग किया जा सकता है । एक – दूसरे दृष्टिकोण से सावयव के विभिन्न अंगों के कुछ निश्चित कार्य होते हैं , उन कार्यों के आधार पर ये अंग एक – दूसरे से सम्बन्धित रहते हुए सम्पूर्ण सावयव को क्रियाशील बनाए रखने में अपना – अपना सहयोग देते हैं जिसके फलस्वरूप सावयव का अस्तित्त्व सम्भव होता है । सावयव के इस पक्ष को सावयवी व्यवस्था ( organic system ) कहते हैं ।

समाज की संरचना वास्तव में वास्तविक वस्तु या मूर्त अवधारणा हो भी नहीं सकती क्योंकि स्वयं समाज ही अमूर्त है ।

राइट ने लिखा है “ सार रूप में इसका आशय एक अवस्था या दशा एक सम्बन्ध से है , अतः इसीलिए आवश्यक रूप में यह एक अमूर्तता है ।

” कार्ल मैनहीम ने सामाजिक संरचना को अन्तःक्रियात्मक ( interacting ) सामाजिक शक्तियों का जाल माना है । एकाधिक समाजशास्त्री समाज को सामाजिक सम्बन्धों का जाल मानते हैं । मैनहीम ने उसी समाज की संरचना को सामाजिक शक्तियों का जाल कहा है ।

उनके अनुसार ‘ जाल ‘ शब्द स्वयं ही एक व्यवस्थित प्रतिमान का परिचायक है । सामान्य रूप में एक जाल में अनेक तार होते हैं ये तार ही ‘ जाल ‘ की इकाइयाँ हैं , परन्तु इन तारों को एकत्रित कर देने मात्र से ही ‘ जाल ‘ नहीं बनता जब तक उनमें एक सिलसिला , तानाबाना या क्रमबद्धता न हो । सामाजिक संरचना भी इसी भाँति एक सिलसिला , तानाबाना या क्रमबद्धता की ओर संकेत करती है । सामाजिक संरचना का यह तानाबाना सामाजिक शक्तियाँ ही हैं । सामाजिक शक्तियों से तात्पर्य उन नियामक व नियन्त्रणात्मक साधनों से है जो सामाजिक जीवन को स्थिरता प्रदान करते हैं । ये शक्तियाँ पृथक् – पृथक् रहकर कार्य नहीं करती बल्कि उनमें परस्पर क्रिया होती रहती है । अन्तःक्रियात्मक सामाजिक शक्तियों का यह तानाबाना जिस ‘ जाल ‘ का निर्माण करता है उसी को मैनहीम ने सामाजिक संरचना कहा है । मैनहीम का यह कहना है कि समाज में पाए जाने वाले निरीक्षण तथा चिन्तन की पद्धतियों का जन्म इन्हीं सामाजिक शक्तियों की अन्तःक्रियाओं के फलस्वरूप ही होता है । इस विवेचना से यह स्पष्ट है कि मैनहीम की परिभाषा अस्पष्ट तथा अपूर्ण है । आ

पकी परिभाषा से सामाजिक संरचना के निर्माणक अथवा रचने वाले तत्त्वों या अंगों का कोई स्पष्ट आभास नहीं होता है । आधुनिक अर्थ में केवल ‘ शक्तियों ‘ चाहे वे किसी भी प्रकार की क्यों न हों , के आधार पर संरचना का निर्माण सम्भव नहीं । ‘ संरचना ‘ शब्द से जिस ढाँचे स्वरूपात्मक रचना या प्रतिमान का बोध होता है उसकी कल्पना , शक्ति के आधार पर नहीं की जा सकती । जिन्सबर्ग की परिभाषा मैनहीम की परिभाषा से अधिक स्पष्ट है । जिन्सबर्ग ने सम्पूर्ण सामाजिक – संस्थापक संरचना को ही सामाजिक संरचना माना है और साथ ही सामाजिक संगठन व संरचना में किसी स्पष्ट भेद का उल्लेख ही नहीं किया है । सामाजिक संगठन के प्रमुख स्वरूपों में आपने विभिन्न प्रकार के समूहों , समितियों तथा संस्थाओं को सम्मिलित किया है । इन्हीं समूहों , समितियों तथा संस्थाओं को लेकर ही समाज का निर्माण होता है और सामाजिक संगठन पनपता है । सामाजिक संरचना सामाजिक संगठन की ही अभिव्यक्ति या स्वरूप है । “ समूह से तात्पर्य मनुष्यों के किसी भी संग्रह से हो

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टाल्कॉट पार्सन्स

सामाजिक व्यवस्था

( Social System )

 प्रर्सिन्स से पहले अनेक विद्वान सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा को अपने अपने ढंग से प्रस्तुत करते रहे थे । इस सम्बन्ध में लूमिस ( Loomis ) ने बतलायाथा कि सामाजिक व्यवस्था समाज की एक आन्तरिक स्थिति है । इससे कुछ भिन्न जोन्स ( Jones ) का कथन था कि सामाजिक व्यवस्था एक ऐसी स्थिति है जिसमें समाज के विभिन्न अंग एक – दूसरे के साथ अर्थपूर्ण ढंग से सम्बद्ध होकर कार्य करते हैं । टाल्कॉट पार्सन्स ने ऐसे सभी विचारों को अस्वीकार करते हुए सन् 1951 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ द सोशल सिस्टम ‘ में सामाजिक व्यवस्था को परिभाषित करते हुए कहा कि ” सामाजिक व्यवस्था सामाजिक क्रियाओं की संगठित प्रणाली है जिसमें अनेक कर्ताओं द्वारा की गयी क्रियाओं का समावेश होता है । ” 1 यह क्रियाएँ बनेक सामाजिक प्रतिमानों तथा सांस्कृतिक मूल्यों से प्रभावित होती हैं । इस दृष्टि कोण से वैयक्तिक कर्ता , कर्ताओं की पारस्परिक क्रियाओं की व्यवस्था तथा एक सांस्कृतिक व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था के 3 महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं ।

इन तीनों तत्वों के आधार पर पार्सन्स द्वारा प्रस्तुत सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा को दो पहलुओं के माध्यम से समझा जा सकता है : संरचनात्मक पहलू तथा प्रकार्यात्मक पहल । संरचनात्मक पक्ष के अन्तर्गत हम मुख्यतः कर्ताओं से सम्बन्धित अन्तःक्रियाओं की उस व्यवस्था का अध्ययन करते हैं जो एक विशेष सांस्कृतिक व्यवस्था द्वारा प्रभावित होती है जबकि प्रकार्यात्मक पक्ष के द्वारा पार्सन्स ने सामाजिक व्यवस्था द्वारा स्वतः समायोजन करने की विशेषता को स्पष्ट किया है । इस पक्ष को पार्सन्स द्वारा ‘ अजिल प्रारूप ‘ ( Agil Model ) द्वारा प्रस्तुत किया गया ।

सामाजिक व्यवस्था का संरचनात्मक पक्ष

( Structural Aspect of Social System )

 सिन्स का विचार है कि सामाजिक व्यवस्था व्यक्तियों को परस्पर सम्बन्धित क्रियाओं से निर्मित होती है , अतः इसकी संरचना को उन क्रियाओं की नियमितता के स्तर और उनकी पुनरावृत्ति ( Recurrence ) में ही ढूंढा जा सकता है । इस प्रकार पार्सन्स ने सामाजिक व्यवस्था की संरचना में व्यक्तियों द्वारा की जाने वाली क्रियाओं की नियमितता और उनकी पुनरावृत्ति को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया । यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सामाजिक व्यवस्था की संरचना में व्यक्ति को महत्त्व देने के साथ ही पार्सन्स ने यह भी स्पष्ट किया कि इस संरचना में व्यक्तियों की अपेक्षा उनकी भूमिकाएं ( Roles ) अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं । इसका कारण यह है कि व्यक्ति की भूमिकाएँ स्वयं भूमिका – धारियों से अधिक स्थायी होती हैं ।

वास्तव में व्यक्तियों अथवा कर्ताओं की भूमिकाओं , उनकी नियमिमता और पुनरावृत्ति को विभिन्न सामाजिक प्रतिमानों अथवा मानदण्डों के द्वारा ही स्थायित्व प्राप्त होता है । इसे स्पष्ट करते हुए जॉन्सन ( Johnson ) ने लिखा है , ” विभिन्न प्रकार की भूमिकाएँ तथा उप – समूह ही सामाजिक व्यवस्था की संरचना के विभिन्न अंग हैं तथा सामाजिक अन्तक्रियाओं में पायी जाने वाली स्थिरता , नियमितता और पुनरावृत्ति उन सामाजिक मानदण्डों से ही प्रभावित होती है जो विभिन्न उप – समूहों की भूमिकाओं तथा दायित्वों का निर्धारण करते हैं । ” 3 इससे स्पष्ट होता है कि सामाजिक व्यवस्था की संरचना का निर्माण केवल कर्ताओं अथवा उप – समूहों से ही नहीं होता बल्कि इसमें सामाजिक मानदण्डों अथवा सामाजिक प्रतिमानों का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । पर्सिन्स ने स्पष्ट किया कि किसी भी सामाजिक व्यवस्था की संरचना में कुछ सामाजिक प्रतिमान अनिवार्य रूप से पाए जाते हैं तथा इन्हीं के आधार पर एक उप – समूह के सदस्य अपनी – अपनी भूमिकाओं का निर्वाह करते हैं । इस सम्बन्ध में पार्सन्स ने दो प्रकार के सामाजिक प्रतिमानों का उल्लेख किया :

( 1 ) सम्बन्धात्मक सामाजिक प्रतिमान ( Relational Social Norms ) तथा

( 2 ) नियामक सामाजिक प्रतिमान ( Regulative Social Norms ) ।

सम्बन्धात्मक सामाजिक प्रतिमान भूमिकाधारियों और उनके समूहों के बीच स्थापित होने वाले सम्बन्धों की प्रकृति का निर्धारण करते हैं । यह प्रतिमान सकारात्मक होते हैं । इस दृष्टिकोण से जो सामा जिक प्रतिमान व्यक्ति को अपने परिवार से एक विशेष प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करने का दायित्व देते हैं , वे प्रतिमान किसी व्यावसायिक संगठन या दूसरे समहों में नहीं पाए जाते । यही प्रतिमान पिता की भूमिका को उसके पुत्र की भूमिका से अलग करते हैं नियामक सामाजिक प्रतिमान अनुमति – बोधक ( Permissive ) होते हैं । यह भूमिकाधारियों तथा उप – समूहों को यह निर्देश देते हैं कि सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं । उदाहरण के लिए यह एक नियामक सामाजिक प्रतिमान है कि पुत्र की भूमिका में व्यक्ति को पिता का अनादर नहीं करना चाहिए । इसी तरह हमारे समाज में राजनैतिक समूहों के लिए यह एक नियामक सामाजिक प्रतिमान है कि हिंसा के द्वारा कोई आन्दोलन नहीं किया जाना चाहिए ।

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सम्बन्धात्मक सामाजिक प्रतिमान जहाँ कर्ताओं की क्रियाओं को निर्देशित करते हैं , वहीं नियामक सामाजिक प्रतिमान उप समूहों और उनके सदस्यों की भूमिकाओं को प्रभावित करते हैं । सामाजिक व्यवस्था की संरचना में सम्बन्धात्मक और नियामक प्रतिमानों के साथ – साथ सामाजिक मूल्यों ( Social Values ) का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । मूल्य को परिभाषित करते हुए पार्सन्स ने लिखा है , ” मूल्य को एक ऐसी धारणा अथवा मानक ( Standard ) के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो सांस्कृतिक या केवल वैयक्तिक हो सकता है तथा जिसके माध्यम से वस्तुओं की तुलना की जा सकती है अथवा उन्हें स्वीकृत या अस्वीकृत किया जा सकता है । इस प्रकार कोई मूल्य चाहे व्यक्ति का हो अथवा समूह का , उसे भावनात्मक रूप से एक महत्त्वपूर्ण मानदण्ड के रूप में स्वीकार किया जाता है । इसके बाद भी यह सच है कि कुछ , विशेष दशाओं में सामाजिक मूल्यों और वैयक्तिक इच्छाओं के बीच संघर्ष अथवा द्वन्द्व भी हो सकता है । उदाहरण के लिए व्यक्ति द्वारा ईमानदारी के मूल्य को स्वीकार करने के बाद भी यदि उसकी इच्छा बहुत शीघ्र धनवान बन जाने की हो तो यह स्थिति इसी तरह के द्वन्द्व को स्पष्ट करती है । प्रासन्स ने बतलाया कि व्यक्ति की कुछ गतिविधियाँ कभी – कभी मूल्य – विरोधी ( Disvalued Activities ) भी होती हैं क्योंकि उनमें द्वेषपूर्ण मूल्यों ( Despite Values ) का समावेश होता है । व्यभिचारिक गतिविधियों की ओर आकर्षित होना इसका उदाहरण है । यह दशा केवल व्यक्ति तक ही सीमित नहीं है बल्कि विभिन्न समूहों के स्तर पर भी अक्सर मूल्यों का यह द्वन्द्व देखने को मिलता है । इसके बाद भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सामाजिक व्यवस्था की संरचना अपने सांस्कृतिक मूल्यों के द्वारा मूल्यों के द्वन्द्व की स्थितियों का निराकरण करती रहती है । यही कारण है कि सामाजिक व्यवस्था की संरचना में स्थायित्व बना रहता है । पार्सन्स ने बतलाया कि सामाजिक प्रतिमानों तथा मूल्यों के बीच इतना घनिष्ठ . सम्बन्ध है कि अक्सर इनके बीच अन्तर करना कठिन हो जाता है । वास्तव में ” मूल्य समाज के सामान्य मानक हैं और इन्हें उच्चतर श्रेणी के प्रतिमान माना जा सकता है । इस दृष्टिकोण से सामाजिक व्यवस्था की संरचना को स्थायी बनाने में सामाजिक प्रतिमानों तथा सामाजिक मूल्यों का समान उपर्युक्त विचारों के आधार पर सामाजिक व्यवस्था की संरचना निर्माण करने वाली प्रमुख इकाइयों अथवा लत्त्वों को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :

 नातेदारी व्यवस्था ( Kinship System ) – नातेदारी व्यवस्था ही वह आधार है जो परिवार तथा विभिन्न उप – समूहों में व्यक्ति की प्रस्थिति का निर्धारण – करती है । इसी के द्वारा इस बात का निर्धारण किया जाता है । कि परिवार अथवा

परिवार के आधार पर बनने वाले सभहों जैसे – गोत्र वंश तथा जाति आदि में व्यक्ति की प्रस्थिति क्या होगी तथा समूह में उससे किन किन भूमिकाओं को पूरा करने का आशा की जायेगी । इस प्रकार सामाजिक व्यवस्था की संरचना में नातेदारा वह महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जो व्यक्तियों की सामाजिक प्रस्थितियों और भूमिकाओं का निर्धारण करता है ।

  सामाजिक स्तरीकरण ( Social Stratification ) – – यह सामाजिक व्यवस्था का दूसरा प्रमुख संरचनात्मक तत्त्व है । सामाजिक स्तरीकरण वह प्रणाली है जिसके द्वारा एक समूह के विभिन्न सदस्य अपनी प्रस्थिति के आधार पर अनेक श्रेणियों में विभाजित होते हैं । यह सभी श्रेणियाँ एक – दूसरे की तुलना में उच्च अथवा निम्न होती हैं । पार्सन्स ने स्पष्ट किया कि इसी उच्चता अथवा निम्नता के आधार पर सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत विभिन्न कर्ताओं के पारस्परिक सम्बन्धों का निर्धारण होता है । यह सामाजिक स्तरीकरण भी कुछ निश्चित नियमों पर आधारित होता है । उदाहरण के लिए हमारी सामाजिक व्यवस्था में सामाजिक स्तरीकरण का प्रमुख आधार जाति हैं जबकि अनेक अन्य समाजों में आय , लिंग , सम्पत्ति अथवा सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर विभिन्न सामाजिक श्रेणियों का निर्माण होता है । सामाजिक स्तरीकरण जिन नियमों पर आधारित होता है , उन्हीं के अनुरूप सामा जिक संरचना एक विशेष स्वरूप ग्रहण कर लेती है । पार्सन्स के अनुसार यह स्तरी करण इस दृष्टिकोण से उपयोगी भी है कि एक ओर इससे सामाजिक व्यवस्था में स्थायित्व उत्पन्न होता है तो दूसरी ओर इसके आधार पर विभिन्न सदस्यों के बीच पुरस्कारों का वितरण करना सरल हो जाता है ।

  शक्ति – व्यवस्था ( Power System ) – शक्ति – व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था का वह तीसरा संरचनात्मक तत्त्व है जिसका कार्य सामाजिक व्यवस्था में सन्तुलन बनाए रखना तथा विभिन्न कर्ताओं और समहों के व्यवहारों पर नियन्त्रण स्थापित करना है । शक्ति – व्यवस्था के अनुसार ही एक समाज विभिन्न शक्ति – समूहों में इस तरह बँट जाता है जिससे प्रत्येक समूह दूसरे के मनमाने व्यवहारों पर नियन्त्रण रख सके । उदाहरण के लिए शक्ति – व्यवस्था के द्वारा विभिन्न राजनैतिक समूहों को कुछ न कुछ शक्ति प्राप्त हो जाने से जब कभी भी सत्ताधारी समूह स्वेच्छाचारी आचरण करना चाहता है तो विपक्ष के समूह अपनी शक्ति का उपयोग करके अराजकता उत्पन्न होने से रोकते हैं ।

 मूल्यों का एकीकरण ( Integration of Values ) – – पासंन्स के अनुसार सामाजिक व्यवस्था की संरचना में मूल्यों का एकीकरण वह महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जो नैतिक आधार पर विभिन्न कर्ताओं को एक – दूसरे बाँधे रखता है । प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था में मूल्य ही वह सामाजिक मानदण्ड है जिसके आधार पर कत्ताओं की मनोवत्तियों और व्यवहारों का निर्धारण होता है । समान मूल्यों में जीवन व्यतीत करने के कारण ही एक समाज के सदस्यों के व्यवहारों में एकरूपता पैदा होती है ।

सामाजिक व्यवस्था का प्रकार्यात्मक पक्ष : अजिल प्रारूप

( Functional Aspect of Social System : Agil Model )

सामाजिक व्यवस्था का संरचनात्मक पक्ष जहाँ एक और सामाजिक व्यवस्था के स्थायित्व को स्पष्ट करता है , वहीं प्रकार्यात्मक पक्ष का सम्बन्ध उन विशेषताओं से है जो सामाजिक व्यवस्था के गतिशील पक्ष को स्पष्ट करती हैं । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जो इकाइयां सामाजिक व्यवस्था की संरचना को गतिशील बनाने में योगदान करती हैं , उन्हीं को हम सामाजिक व्यवस्था की प्रकार्यात्मक इकाइयाँ कहते हैं । पार्सन्स के प्रकार्य सम्बन्धी विचारों को स्पष्ट करने से पहले थॉमस हान्स ( T . Hobbes ) द्वारा लिखित पुस्तक ‘ लबियथान ‘ में उन्होंने जो विचार व्यक्त किए थे , उन्हें समझना आवश्यक है ।

हॉब्स ने कहा था कि सभी व्यक्ति अपने आस – पास पायी जाने वाली दुर्लभ और सीमित वस्तुओं पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहते हैं । एक प्राकृतिक अवस्था में ( जिसमें कोई सामाजिक प्रतिमान नहीं होते ) एक – दूसरे पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए व्यक्तियों में कटु संघर्ष हो सकता है । इस अवस्था में मनुष्य का जीवन संघर्षपूर्ण , पाशविक और अल्पकालिक हो जायेगा । पार्सन्स का कथन है कि यदि थॉमस हॉब्स के उक्त कथन को सच मान लिया जाय तो मानव समाज में शक्ति के लिए होने वाले संघर्ष को समाप्त करना हमारी सामाजिक आवश्यकता ( Social Need ) बन जाती है । अपने कथन को स्पष्ट करते हुए उन्होंने बतलाया कि सामाजिक व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने में यद्यपि शक्ति – व्यवस्था की एक प्रमुख भूमिका है लेकिन शक्ति से उत्पन्न होने वाले संघर्ष अनेक समस्याओं को भी जन्म देते हैं । समाज में जब शक्ति या सम्पत्ति के स्वामित्व को लेकर संघर्ष बढ़ जाते हैं तब समाज के सदस्यों और विभिन्न उप – समूहों के बीच तनाव की दशाएं पैदा होती हैं । संघर्षों के बढ़ने से कुछ ऐसी प्रतिकूल दशाएं भी जन्म लेने लगती हैं जो समाज की एकता को तोड़ती हैं तथा विघटनकारी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न करती हैं । तनाव , प्रतिकूलता अथवा विघटन की ऐसी कोई भी प्रक्रिया सामाजिक व्यवस्था को नष्ट कर सकती है । इसलिए प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था अपने लक्ष्य की प्राप्ति ( Goal Attainment ) के लिए यह प्रयत्न करती है कि ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न न हों । पार्सन्स ने अपनी पुस्तक ‘ द सोशल सिस्टम ‘ में ऐसे चार प्रकार्यों का उल्लेख किया जिनके पूरा करने से ही सामाजिक व्यवस्था अपनी इस आवश्यकता को पूरा कर पाती है । यह प्रकार्य हैं :

 

1 . अनुकूलन ( Adaptation ) ,

2 . लक्ष्य – प्राप्ति ( Goal Attainment ) ,

3 . एकीकरण ( Integration ) ,

4 . तनाव की समाप्ति ( Latency )

 पार्सन्स द्वारा बतलाए गये इन चारों प्रकार्यों को ‘ अजिल प्रारूप ( Agil Model ) के नाम से जाना जाता है , अत : सामाजिक व्यवस्था के सन्दर्भ में इन प्रकार्यों का उल्लेख हम इसी नाम के अन्तर्गत करेंगे । सामाजिक व्यवस्था की व्याख्या करते हुए पार्सन्स ने कहा कि ” सामाजिक व्यवस्था की उत्पत्ति तथा विकास व्यक्तियों की अन्तःक्रियाओं के फलस्वरूप होता है । उनके अनुसार , जब सामाजिक प्रतिमानों और सांस्कृतिक मूल्यों के अन्तर्गत विभिन्न वर्ता पारस्परिक क्रियाएँ करते हुए अपनी इच्छाओं को आदेश रूप में सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करते हैं तब एक विशेष सामाजिक व्यवस्था का निर्माण होता है । इसका तात्पर्य है कि किसी भी सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्तियों की इच्छाओं की पूर्ति सामाजिक प्रतिमानों के अनुसार हो । पार्सन्स के अनुसार सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना व्यक्ति के हित में है क्योंकि इसी से व्यक्तियों की वे आवश्यकताएं पूरी हो सकती हैं जिनकी वह इच्छा करता है ।

पार्सन्स ने स्पष्ट किया कि किसी भी सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जहाँ कुछ माध्यम और लक्ष्य बाह्य होते हैं , वहीं अनेक लक्ष्य और उनके माध्यम माध्यम लक्ष्य ( Medium ) ( Goal ) बाह्य अनुकूलन ( Adaptation ) लक्ष्य – प्राप्ति ( Goal Attainment ) ( External ) आन्तरिक ( Internal ) तनाव की समाप्ति ( Latency ) एकीकरण ( Integration ) अपनी प्रकृति से आन्तरिक होते हैं । इस दशा को जिस प्रारूप के द्वारा पार्सन्स ने ‘ प्रस्तुत किया , उसे ‘ अजिल प्रारूप ‘ व हा जाता है । इसके अन्तर्गत सामाजिक व्यवस्था के प्रकार्यात्मक पक्ष को जिन चार प्रमुख तत्त्वों के द्वारा प्रस्तुत किया गया , उन्हें निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :

 ( 1 ) बाह्य माध्यम ( External Medium ) – प्रत्येक व्यवस्था में कोई न कोई बाह्य माध्यम होना आवश्यक है । उदाहरण के लिए यदि हम एक मेज की व्यवस्था को लें , तो मेज का बाह्य माध्यम वह वस्तुएँ होंगी जिनसे मेज का निर्माण हुआ हो । मेज की यह व्यवस्था सुचारु ढंग से काम करती रहे , इसके लिए यह आवश्यक है कि मेज के विभिन्न अंगों के बीच अनुकूलन ( Adaptation ) बना रहे । इसका तात्पर्य है कि यदि मेज के पाए पतले हों तो उस पर बहत भारी लकडी न रखी जाय और न ही उसमें बहुत मोटे पेचों या कीलों का प्रयोग किया जाय । पार्सन्स का मत है कि इसी तरह सामाजिक व्यवस्था के विकास के लिए भी व्यक्तियों के वीच अनुकूलन की प्रक्रिया का होना आवश्यक है । इस प्रकार आपके अनुसार , अनुकूलन की प्रक्रिया सामाजिक व्यवस्था का बाह्य माध्यम है । पार्सन्स ने अनुकूलन की प्रक्रिया के अन्तर्गत तीन प्रणालियों का उल्लेख इस प्रकार किया है : ( क ) समाज के केन्द्रीय मूल्य ( Main Values of Society ) – प्रत्येक समाज में कुछ मूल्य केन्द्रीय महत्त्व के होते हैं तथा व्यक्तियों द्वारा की जाने वाली सभी क्रियाएँ इन मूल्यों से प्रभावित होती हैं । यह मूल्य समाज की विभिन्न उप – व्यवस्थाओं के बीच संघर्ष को कम करके उनका एक – दूसरे से अनुकूलन कराते हैं । इस अर्थ में केन्द्रीय मूल्य अनुकूलन की प्रक्रिया की एक प्रणाली के रूप में कार्य करते हैं । ( ख ) विवेकीकरण ( Rationalization ) – पार्सन्स का कथन है कि समाज के विभिन्न मूल्यों में यदि कोई विरोधाभास उत्पन्न होता है तव तर्क और विवेक के आधार पर यह भी तय किया जाता है कि किस मूल्य को समाज द्वारा स्वीकार करना अधिक विवेकपूर्ण होगा । इसी तरह जब कोई व्यक्ति सामाजिक मूल्यों के विपरीत आचरण करता है तब दूसरे व्यक्ति संघर्ष को जन्म न देकर विवेक के द्वारा उस व्यक्ति के अनुकूलन करने का प्रयत्न करते हैं । ( ग ) प्रतीकात्मक पृथक्करण ( Symbolic Isolation ) सामाजिक व्यवस्था में प्रतीकात्मक पृथक्करण एक ऐसी प्रणाली के रूप में कार्य में लाया जाता है जिससे परस्पर विरोधी व्यवहारों को भी मान्तता दी जा सके । उदाहरण के लिए आधुनिक समाजों में धार्मिक आचरणों के साथ धम निरपेक्ष व्यवहारों को भी मान्यता दी जाती है । इस दशा में एक – दूसरे में भिन्न व्यवहारों के बीच प्रतीकात्मक पृथक्करण कर दिए जाने से सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत अनुकूलन बना रहता है और संघर्ष की दशा उत्पन्न नहीं हो पाती ।

 ( 2 ) बाह्य लक्ष्य ( External Goal ) – पार्सन्स के अनुसार सामाजिक व्यवस्था की दूसरी प्रकार्यात्मक आवश्यकता कुछ बाह्य लक्ष्यों को प्राप्त करना है । यह लक्ष्य के होते हैं जिनका सम्बन्ध सामाजिक व्यवस्था की बाह्य संरचना को व्यवस्थित बनाए रखने और उसे प्रकार्यात्मक रूप से उपयोगी बनाए रखने से होता । है । सामाजिक व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति अपने लक्ष्यों को प्राप्त करना चाहता है । इस स्थिति में यह सम्भव है कि उसके और समाज के लक्ष्यों में कुछ विरोधाभास उत्पन्न हो जाय । सामाजिक व्यवस्था इस दशा में विरोध को समाप्त करके अनुकूलन के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को लक्ष्य – प्राप्ति के अवसर प्रदान करती है । जॉनसन ने अब व्यवस्था को सामाजिक व्यवस्था की एक उप – व्यवस्था मानते हए पासेन्स का विचार को स्पष्ट किया है । आपके अनुसार , समाज की अर्थ – व्यवस्था वह उप व्यवस्था ( Sub – system ) है जो वस्तुओं और सेवाओं का कई तरह के प्रयोजना के लिए उत्पादन करती है । इस प्रकार सामाजिक व्यवस्था में लक्ष्य प्राप्ति के लिए भिन्न – भिन्न तरीकों से आर्थिक उत्पादन का कार्य होता रहता है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अर्थ – व्यवस्था अपने प्रकार्यों के द्वारा समाज की लक्ष्य – प्राप्ति का साधन बनी रहती है ।

( 3 ) आन्तरिक लक्ष्य ( Internal Goal ) – पार्सन्स के अनुसार , सामाजिक व्यवस्था का तीसरा प्रकार्य अपनी आन्तरिक संरचना से सम्बन्धित लक्ष्यों को प्राप्त करना है । यह लक्ष्य मुख्यतः सामाजिक व्यवस्था से सम्बन्धित व्यक्तियों को एकीकृत करना अथवा उनके बीच एकीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देना है । ऐसा एकी करण संस्थागत समूहों के द्वारा किया जाता है । इसे स्पष्ट करते हुए जॉनसन ने लिखा है कि “ सामाजिक व्यवस्था के आन्तरिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मनो बल की आवश्यकता होती है । अपनी दैनिक क्रियाओं में व्यक्ति का चिन्तन सम्पूर्ण समाज के हित से सम्बन्धित नहीं होता बल्कि वह स्वयं से सम्बन्धित समूहों ( उप समूह ) के हितों पर अधिक ध्यान देता है । ” इस दशा में अनेक संस्थागत समूह व्यक्ति के व्यवहार को सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था से जोड़ने में मदद करते हैं । स्पष्ट है कि सामाजिक व्यवस्था का आन्तरिक लक्ष्य एकीकरण की प्रक्रिया में अधिक से अधिक वृद्धि करना है ।

 ( 4 ) आन्तरिक माध्यम ( Internal Medium ) – – सामाजिक व्यवस्था के आन्तरिक लक्ष्य के रूप में एकीकरण को बढ़ाने के लिए जिस माध्यम का उपयोग किया जाता है , उसे पार्सन्स ने तनाव तिरोहन अथवा तनाव की समाप्ति ( Latency ) कहा है । इसका तात्पर्य है कि जब सामाजिक व्यवस्था से सम्बन्धित विभिन्न इकाइयों में तनाव की दशा उत्पन्न हो जाय तब आवश्यकता इस बात की होती है कि या तो उस तनाव को कम किया जाय अथवा उसे समाप्त कर दिया जाय । ऐसा तभी सम्भव होता है जब सामाजिक व्यवस्था की इकाइयाँ , चाहे वे कर्ता हों अथवा उप समूह , अपने सामाजिक प्रतिमानों के प्रति आदर का भाव रखें और उन्हीं के अनुसार व्यवहार करें । इस कथन के द्वारा पार्सन्स ने यह स्पष्ट किया कि एकीकरण के लक्ष्य की दिशा में समाजीकरण की प्रक्रिया सामाजिक व्यवस्था का एक आन्तरिक माध्यम है । समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी सामाजिक व्यवस्था से सम्बन्धित सदस्यों के व्यक्तित्व में समाज के सांस्कृतिक प्रतिमानों का समावेश हो जाता है ।सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गक अनेक दशाओं में कुछ भ्रम और अविश्वास भी उत्पन्न हो जाते हैं । ऐसे भ्रमों और अविश्वासों को दूर करना आवश्यक होता है क्योंकि इसके बिना सामाजिक व्यवस्था भंग हो सकती है । उदाहरण के लिए परिवार एक उप – व्यवस्था है तथा यह अनेक प्रकार्यों के द्वारा अपने सदस्यों को चिन्तामुक्त करती है , अच्छे कार्यों के लिए सदस्यों की प्रशंसा करती है तथा उनकी समस्याओं का निरा करण करके तनाव की सम्भावना को कम से कम करने का प्रयत्न करती है । यही वह माध्यम है जिसके द्वारा किसी व्यवस्था के अन्तर्गत एकीकरण की प्रक्रिया अधिक महत्त्वपूर्ण बन पाती है । रेल पार्सन्स द्वारा प्रस्तुत इस अजिल प्रतिमान से स्पष्ट होता है कि पार्सन्स ने न केवल प्रकार्य की अवधारणा को एक नयी दिशा देने का प्रयत्न किया बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि सामाजिक व्यवस्था जिन वाह्य और आन्तरिक लक्ष्यों और माध्यमों से सम्बन्धित अनेक प्रकार्य करती है , उन्हीं के कारण सामाजिक व्यवस्था में गत्या त्मकता बनी रहती है ।

 रैडक्लिफ – ब्राउन के सामाजिक संरचना के विचार

( Views of Radcliffe – Brown on Social Structure )

 रैडक्लिफ – ब्राउन ने स्पष्टतः लिखा है “ सामाजिक संरचना के अंग ( components ) मनुष्य ही हैं और स्वयं संरचना संस्थापक रूप में परिभाषित तथा नियमित सम्बन्धों के अन्तर्गत व्यक्तियों का एक व्यवस्थित रूप या ( arrangement ) क्रमबद्धता है । ” आपने यह भी लिखा है कि प्रत्यक्ष निरीक्षण से हमें ज्ञात होता है कि मनुष्य परस्पर सामाजिक सम्बन्धों के जटिल जाल द्वारा एक – दूसरे से सम्बन्धित हैं । वास्तविक रूप में विद्यमान सम्बन्धों के इस जाल को दान के लिए ही ‘ सामाजिक संरचना ‘ वाक्यांश का Radcliffe – Brown प्रयोग किया गया है । परन्तु स्मरण रहे कि सम्बन्धों के इस जाल को बनाने वाला स्वयं मनुष्य ही है और सम्बन्धों का तानाबाना उन्हीं मुनष्यों के बीच होता है । सामाजिक अन्तःक्रियाओं के दौरान ये सम्बन्ध अधिक स्पष्ट तथा नियमित हो जाते हैं , या यूँ कहिए कि सामाजिक संस्थाओं द्वारा ये सम्बन्ध परिभाषित तथा नियमित हो जाते हैं । इस प्रकार परिभाषित व नियमित सम्बन्ध समाज के सदस्यों को एक निश्चित ढंग से व्यवस्थित कर देता है । व्यक्तियों या समाज के सदस्यों का यह व्यवस्थित रूप ही सामाजिक संरचना है । इसे एक – दूसरे प्रकार से भी प्रस्तुत किया जा सकता है । संस्थागत रूप में परिभाषित व नियमित सम्बन्ध व्यक्ति को दूसरे व्यक्तियों से एक निश्चित ढंग से संयुक्त करता है । इस संयुक्तीकरण के फलस्वरूप समाज के सदस्य अपनी समाज – व्यवस्था के अन्तर्गत एक निश्चित ढंग से सज जाते हैं ।

इस प्रकार सजे ढंग से या व्यवस्थित रूप से समाज के सदस्य जिस प्रतिमान को बनाते हैं वही सामाजिक संरचना है । अपने इस मत को अधिक स्पष्ट रूप में समझाने के लिए ब्राउन ने आस्ट्रेलिया तथा अफ्रीका के जनजातीय ( tribal ) समाजों का उदाहरण प्रस्तुत किया है । इन समाजों में नातेदारी व्यवस्था संस्थागत सम्बन्धों की ही अभिव्यक्ति है । ये सम्बन्ध एक विशिष्ट ढंग से नातेदारों को एक – दूसरे से संयुक्त करते हैं और उन्हें कतिपय निश्चित स्थिति भी प्रदान करते हैं । इन स्थितियों पर विराजमान ये नातेदार सम्मिलित रूप में जिस प्रतिमान का निर्माण करते हैं उसे नातेदारी संरचना कहते हैं । यही ढंग या क्रमबद्धता सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी देखने को मिलती है । उदाहरण के लिए , विवाह को ही लीजिए । दक्षिण अफ्रीका की थोंगा और बांटू जनजातियों में वधु – मूल्य के रूप में ढोर जिसे ‘ लाबोला ‘ कहा जाता है , देने की प्रथा है । विवाह से सम्बन्धित यह प्रथा अनेक लोगों को एक – दूसरे से संयुक्त करती है और वह इस रूप में कि ‘ लाबोला ‘ को एकत्र करने में केवल एक व्यक्ति के अपने ही परिवार के सदस्य नहीं , बल्कि उसके निकट के रिश्तेदार भी सहायता करते हैं । यही लाबोला वधु के भाई के विवाह के लिए या अन्य किसी निकट के नाते – रिश्तेदारों के विवाह में सहायता स्वरूप दे दिया जाता है । इस प्रकार विवाह संस्था के द्वारा दो परिवारों के सदस्य परस्पर सम्बन्धित ही नहीं हो जाते हैं बल्कि उनमें एक प्रकार का आर्थिक सहयोग भी पनपता है । इस रूप में संस्थागत रूप में परिभाषित व नियमित विवाह – सम्बन्ध वह कड़ी बन जाती है जो दो परिवारों के सदस्यों को सामाजिक – आर्थिक क्षेत्र में जोड़ती या |

एस . एफ . नैडेल के सामाजिक संरचना के विचार

( Views of S.F. Nadel on Social Structure )

एस . एफ . नैडेल के विचारानुसार ‘ संरचना ‘ शब्द से अंगों का परिभाषित योग्य जोड़ , एक व्यवस्थित क्रमबद्धता प्रगट होती है । चूंकि ‘ संरचना ‘ जोड़ ( articulation ) या क्रमबद्धता ( arrangement ) से सम्बन्धित है , इस कारण इसका कोई सम्पर्क ‘ प्रकार्य ‘ , अन्तर्वस्तु , सामग्री या गुणात्मक प्रकृति से नहीं होता है । संरचना का वर्णन करते समय हम ‘ सम्पूर्ण ‘ से उन समस्त चीजों को निकाल देते हैं जो कि ‘ व्यवस्था ‘ ( order ) या क्रमबद्धता नहीं है । उदाहरणार्थ , हमें एक लकड़ी का या टीन का बक्सा बनाना है , इस बात का उल्लेख किए बिना ही ( अर्थात् अन्तर्वस्तु से अपने को सम्बन्धित S.E. Nadel न करते हुए ही ) उसकी संरचना का विवरण प्रस्तुत कर सकते हैं । संरचना की विवेचना में अन्तर्वस्तु या प्रकार्य को सम्मिलित नहीं किया जाता है ।

इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संरचना को अभिव्यक्त करने वाली मूर्त सामग्री के बिना ही संरचना का स्थान परिवर्तन हो सकता है । इसी को भिन्न रूप में इस प्रकार कहा जा सकता है कि संरचना के रूप में विलक्षणता में कोई परिवर्तन न होते हुए भी संरचना को बनानेको समझने के लिए एक समाज ‘ की भी व्याख्या आवश्यक है । समाज मनुष्यों का एक ऐसा समूह समझा जाता है जो कुछ ऐसे संस्थागत या सामान्य सामाजिक नियमों के आधार पर एक – दूसरे से सम्बन्धित रहते हैं जो कि उनके कार्यों को निर्देशित , नियमित व नियन्त्रित करते हैं अर्थात् एक समाज की अवधारणा में तीन परस्पर सम्बन्धित तत्त्व उल्लेखनीय हैं – पहला , स्वयं मनुष्य , दूसरा , इन मनुष्यों के बीच होने वाली क्रियाएँ तथा तीसरा , इन अन्तःक्रियाओं के फलस्वरूप उत्पन्न विभिन्न सामाजिक सम्बन्ध और उनकी अभिव्यक्तियाँ । इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि मनुष्यों में पाए जाने वाले सम्बन्धों में न तो अत्यधिक अनियमितता होती है और न ही अन्तःक्रियाशील व्यक्ति एकाएक परिवर्तनीय होते हैं । इसका प्रमुख कारण है कि क्रिया करने के कुछ संस्थागत नियम होते हैं जो कि क्रिया में नियमितता को उत्पन्न करते हैं । ये नियम भी निश्चित करते हैं कि किस व्यक्ति के द्वारा किस प्रकार का कार्य किया जाएगा ।

इसीलिए व्यक्ति की क्रिया को समाज से सम्बन्धित रूप में हम सामाजिक कार्य कहते हैं । यद्यपि कार्य तथा सम्बन्ध मानव प्राणियों को व्यवस्थित व नियमित करते हैं जो कि समाज का निर्माण करते हैं , तथापि विद्यमान सम्बन्धों के संकलन में भी व्यवस्था और नियमितता होनी आवश्यक है , यदि मानव प्राणियों में पाई जाने वाली व्यवस्थित क्रमबद्धता वास्तव में समग्र समाज में ओत – प्रोत एक समग्र क्रमबद्धता है । अतः यह स्पष्ट है कि केवल विद्यमान सामाजिक सम्बन्धों के संकलन का निर्माण नहीं हो सकता जब तक उसमें व्यवस्थित क्रमबद्धता न हो । साथ ही यह भी स्मरण रहे कि केवल एक ओर मनुष्यों को एक – दूसरे से जोड़ देने और उन्हें व्यवस्थित कर देने और दूसरी ओर उनमें पाए जाने वाले सम्बन्धों को जोड़ देने और उन्हें व्यवस्थित कर देने से ही सामाजिक संरचना का निर्माण नहीं हो जाता है । वास्तव में , सम्बन्धों के माध्यम से बहुसंख्यक व्यक्तियों को व्यवस्थित करने से ही सम्भव हो सकता है । ‘

इस प्रकार , नैडेल के अनुसार सामाजिक संरचना को निम्न प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है- ” मूर्त जनसंख्या और उसके व्यवहार से अलग निकलकर दूसरे व्यक्तियों से सम्बन्धित रहते हुए कार्य करने की स्थिति में कर्ताओं की बीच पाए जाने वाले सम्बन्धों के प्रतिमान , जाल या व्यवस्था को एक समाज की संरचना कहते हैं ।

 ” एस.एफ. नैडेल – भूमिका विश्लेषण की समस्याएँ ( S.F. Nadel — The Problems of Role Analysis )

 नैडेल के संरचनात्मक चिन्तन पर सैलिगमैन तथा मैलिनवस्की का विशेष प्रभाव रहा है । नैडेल ने सामाजिक संरचना को संस्कृति से अलग माना है । उनका मत है कि सामाजिक संरचना के समस्त विद्वान इस बात से सहमत हैं कि संरचना के अध्ययन में अनिवार्य रूप से सम्पूर्ण वस्तु या समग्र के अन्तर्गत अंगों के अन्तर्सम्बन्ध या उनकी क्रमबद्धता का अध्ययन किया जाता है । नैडेल ने सामाजिक संरचना को सामाजिक शक्तियों की अन्तःक्रियाओं का ताना – बाना कहा है जिससे पर्यालोकन एवं चिन्तन का उदय होता है । नैडेल ने सामाजिक संरचना के सिद्धान्त का केन्द्र बिन्दु भूमिका की संकल्पना को माना है । भूमिका व्यक्ति एवं समाज के बीच मध्यस्थ का कार्य करती है । भूमिका का अर्थ व्यवहार से लिया जाता है । भूमिका में केवल अन्तःक्रियाओं की दशा में सम्भव है । भूमिका उद्देश्यमूलक होती है । यह अनवरत अर्थात् बार – बार घटित होती है । सामाजिक संरचना भूमिकाओं की व्यवस्था है । भूमिका की श्रेणियाँ नैडेल ने भूमिका की निम्नलिखित श्रेणियाँ बतलाई हैं 1. प्रदत्त भूमिका 2. अर्जित भूमिका 3. व्यावसायिक भूमिका ( सेवा – भूमिका ) 4. प्रगट भूमिका ( भाषण देना , कला आदि ) 5. स्वतन्त्र भूमिका ( लिंग एवं मूल से सम्बन्धित भूमिकाएँ ) 6. परतन्त्र भूमिका ( नातेदारी वाली भूमिका ) 7. बाहरी भूमिका 8. आन्तरिक भूमिकाएँ 9. द्वेषपूर्ण एवं सहयोगी भूमिकाएँ 10. नेतृत्व भूमिकाएँ सामाजिक संरचना में भूमिका का योगदान ( ( Contribution of Role in Social Structure ) एस.एफ. नैडेल ने सामाजिक संरचना में व्यक्ति की भूमिकाओं का सूक्ष्म विश्लेषण कर भूमिकाओं के योगदान को दर्शाया है , जो इस प्रकार है

सामाजिक संरचना – अवधारणा एवं सिद्धान्त 83 एक व्यक्ति जितनी अधिकाधिक भूमिकाएँ सम्पन्न करता है उतना ही अधिक उसके सम्बन्धों का विस्तार होता जाता है और उसकी भूमिकाएँ भी उसी हिसाब से बढ़ती जाती हैं । जितनी भूमिकाएँ उसके द्वारा सम्पन्न होती हैं उतना ही अधिक वह समाज से जुड़ जाता है । जहाँ भूमिकाएँ दबाव में आकर की जाती हैं वे भूमिकाएँ कर्ता पर अनावश्यक तनाव का बोझ उसके व्यक्तित्त्व एवं समाज दोनों पर डालती हैं । परन्तु इस हानि के अतिरिक्त भूमिकाओं से अन्य लाभ भी हैं जैसे सामाजिक एकीकरण एवं सामाजिक नियन्त्रण । भूमिकाओं के सम्पन्न न करने पर दण्ड व्यवस्था है । भूमिकाएँ क्यों की जाती हैं इस प्रश्न के उत्तर में नैडेल ने बतलाया है कि सर्वप्रथम वे समाज के द्वारा व्यक्ति को प्रदान की जाती हैं या फिर आर्थिक क्रियाओं के सम्पादनार्थ उनका करना अनिवार्य हो जाता है । विचलनकारी भूमिकाएँ नकारात्मक चर हैं जो अधिकारों का उल्लंघन करती हैं । नैडेल का मत है कि भूमिका का मानव प्राणियों को व्यवस्थित करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है । फिर भी विद्यमान सम्बन्धों का संकलन भी व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध होना चाहिए क्योंकि मानव प्राणियों की व्यवस्थित क्रमबद्धता वस्तुतः एक सम्पूर्ण क्रमबद्धता होती है जो सम्पूर्ण समाज को समाविष्ट किए रहती है ।

इस तरह नैडेल ने सामाजिक संरचना को किसी समाज की मूर्त्त जनसंख्या और उसे व्यवहार से सूक्ष्मीकृत दूसरे व्यक्तियों से सम्बन्धित रहते हुए भूमिका – सम्पादन की स्थिति में कर्ताओं के बीच विद्यमान सम्बन्धों के प्रतिमान या व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया है ।

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