सामाजिक व्यवस्था
( Social System )
Parsons से पहले अनेक विद्वान सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा को अपने अपने ढंग से प्रस्तुत करते रहे थे । इस सम्बन्ध में लूमिस ( Loomis ) ने बतलायाथा कि सामाजिक व्यवस्था समाज की एक आन्तरिक स्थिति है । इससे कुछ भिन्न जोन्स ( Jones ) का कथन था कि सामाजिक व्यवस्था एक ऐसी स्थिति है जिसमें समाज के विभिन्न अंग एक – दूसरे के साथ अर्थपूर्ण ढंग से सम्बद्ध होकर कार्य करते हैं । टाल्कॉट पार्सन्स ने ऐसे सभी विचारों को अस्वीकार करते हुए सन् 1951 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ द सोशल सिस्टम ‘ में सामाजिक व्यवस्था को परिभाषित करते हुए कहा कि ” सामाजिक व्यवस्था सामाजिक क्रियाओं की संगठित प्रणाली है जिसमें अनेक कर्ताओं द्वारा की गयी क्रियाओं का समावेश होता है । ” 1 यह क्रियाएँ बनेक सामाजिक प्रतिमानों तथा सांस्कृतिक मूल्यों से प्रभावित होती हैं । इस दृष्टि कोण से वैयक्तिक कर्ता , कर्ताओं की पारस्परिक क्रियाओं की व्यवस्था तथा एक सांस्कृतिक व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था के 3 महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं । इन तीनों तत्वों के आधार पर पार्सन्स द्वारा प्रस्तुत सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा को दो पहलुओं के माध्यम से समझा जा सकता है : संरचनात्मक पहलू तथा प्रकार्यात्मक पहल । संरचनात्मक पक्ष के अन्तर्गत हम मुख्यतः कर्ताओं से सम्बन्धित अन्तःक्रियाओं की उस व्यवस्था का अध्ययन करते हैं जो एक विशेष सांस्कृतिक व्यवस्था द्वारा प्रभावित होती है जबकि प्रकार्यात्मक पक्ष के द्वारा पार्सन्स ने सामाजिक व्यवस्था द्वारा स्वतः समायोजन करने की विशेषता को स्पष्ट किया है । इस पक्ष को पार्सन्स द्वारा ‘ अजिल प्रारूप ‘ ( Agil Model ) द्वारा प्रस्तुत किया गया ।
सामाजिक व्यवस्था का संरचनात्मक पक्ष
( Structural Aspect of Social System )
सिन्स का विचार है कि सामाजिक व्यवस्था व्यक्तियों को परस्पर सम्बन्धित क्रियाओं से निर्मित होती है , अतः इसकी संरचना को उन क्रियाओं की नियमितता के स्तर और उनकी पुनरावृत्ति ( Recurrence ) में ही ढूंढा जा सकता है । इस प्रकार पार्सन्स ने सामाजिक व्यवस्था की संरचना में व्यक्तियों द्वारा की जाने वाली क्रियाओं की नियमितता और उनकी पुनरावृत्ति को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया । यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सामाजिक व्यवस्था की संरचना में व्यक्ति को महत्त्व देने के साथ ही पार्सन्स ने यह भी स्पष्ट किया कि इस संरचना में व्यक्तियों की अपेक्षा उनकी भूमिकाएं ( Roles ) अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं । इसका कारण यह है कि व्यक्ति की भूमिकाएँ स्वयं भूमिका – धारियों से अधिक स्थायी होती हैं । वास्तव में व्यक्तियों अथवा कर्ताओं की भूमिकाओं , उनकी नियमिमता और पुनरावृत्ति को विभिन्न सामाजिक प्रतिमानों अथवा मानदण्डों के द्वारा ही स्थायित्व प्राप्त होता है । इसे स्पष्ट करते हुए जॉन्सन ( Johnson ) ने लिखा है , ” विभिन्न प्रकार की भूमिकाएँ तथा उप – समूह ही सामाजिक व्यवस्था की संरचना के विभिन्न अंग हैं तथा सामाजिक अन्तक्रियाओं में पायी जाने वाली स्थिरता , नियमितता और पुनरावृत्ति उन सामाजिक मानदण्डों से ही प्रभावित होती है जो विभिन्न उप – समूहों की भूमिकाओं तथा दायित्वों का निर्धारण करते हैं । ”
इससे स्पष्ट होता है कि सामाजिक व्यवस्था की संरचना का निर्माण केवल कर्ताओं अथवा उप – समूहों से ही नहीं होता बल्कि इसमें सामाजिक मानदण्डों अथवा सामाजिक प्रतिमानों का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । पर्सिन्स ने स्पष्ट किया कि किसी भी सामाजिक व्यवस्था की संरचना में कुछ सामाजिक प्रतिमान अनिवार्य रूप से पाए जाते हैं तथा इन्हीं के आधार पर एक उप – समूह के सदस्य अपनी – अपनी भूमिकाओं का निर्वाह करते हैं । इस सम्बन्ध में पार्सन्स ने दो प्रकार के सामाजिक प्रतिमानों का उल्लेख किया :
( 1 ) सम्बन्धात्मक सामाजिक प्रतिमान ( Relational Social Norms ) तथा
( 2 ) नियामक सामाजिक प्रतिमान ( Regulative Social Norms ) ।
सम्बन्धात्मक सामाजिक प्रतिमान भूमिकाधारियों और उनके समूहों के बीच स्थापित होने वाले सम्बन्धों की प्रकृति का निर्धारण करते हैं । यह प्रतिमान सकारात्मक होते हैं । इस दृष्टिकोण से जो सामा जिक प्रतिमान व्यक्ति को अपने परिवार से एक विशेष प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करने का दायित्व देते हैं , वे प्रतिमान किसी व्यावसायिक संगठन या दूसरे समहों में नहीं पाए जाते । यही प्रतिमान पिता की भूमिका को उसके पुत्र की भूमिका से अलग करते हैं नियामक सामाजिक प्रतिमान अनुमति – बोधक ( Permissive ) होते हैं । यह भूमिकाधारियों तथा उप – समूहों को यह निर्देश देते हैं कि सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं । उदाहरण के लिए यह एक नियामक सामाजिक प्रतिमान है कि पुत्र की भूमिका में व्यक्ति को पिता का अनादर नहीं करना चाहिए । इसी तरह हमारे समाज में राजनैतिक समूहों के लिए यह एक नियामक सामाजिक प्रतिमान है कि हिंसा के द्वारा कोई आन्दोलन नहीं किया जाना चाहिए । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सम्बन्धात्मक सामाजिक प्रतिमान जहाँ कर्ताओं की क्रियाओं को निर्देशित करते हैं , वहीं नियामक सामाजिक प्रतिमान उप समूहों और उनके सदस्यों की भूमिकाओं को प्रभावित करते हैं ।
सामाजिक व्यवस्था की संरचना में सम्बन्धात्मक और नियामक प्रतिमानों के साथ – साथ सामाजिक मूल्यों ( Social Values ) का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । मूल्य को परिभाषित करते हुए पार्सन्स ने लिखा है , ” मूल्य को एक ऐसी धारणा अथवा मानक ( Standard ) के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो सांस्कृतिक या केवल वैयक्तिक हो सकता है तथा जिसके माध्यम से वस्तुओं की तुलना की जा सकती है अथवा उन्हें स्वीकृत या अस्वीकृत किया जा सकता है । इस प्रकार कोई मूल्य चाहे व्यक्ति का हो अथवा समूह का , उसे भावनात्मक रूप से एक महत्त्वपूर्ण मानदण्ड के रूप में स्वीकार किया जाता है । इसके बाद भी यह सच है कि कुछ , विशेष दशाओं में सामाजिक मूल्यों और वैयक्तिक इच्छाओं के बीच संघर्ष अथवा द्वन्द्व भी हो सकता है । उदाहरण के लिए व्यक्ति द्वारा ईमानदारी के मूल्य को स्वीकार करने के बाद भी यदि उसकी इच्छा बहुत शीघ्र धनवान बन जाने की हो तो यह स्थिति इसी तरह के द्वन्द्व को स्पष्ट करती है । प्रासन्स ने बतलाया कि व्यक्ति की कुछ गतिविधियाँ कभी – कभी मूल्य – विरोधी ( Disvalued Activities ) भी होती हैं क्योंकि उनमें द्वेषपूर्ण मूल्यों ( Despite Values ) का समावेश होता है । व्यभिचारिक गतिविधियों की ओर आकर्षित होना इसका उदाहरण है । यह दशा केवल व्यक्ति तक ही सीमित नहीं है बल्कि विभिन्न समूहों के स्तर पर भी अक्सर मूल्यों का यह द्वन्द्व देखने को मिलता है ।
इसके बाद भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सामाजिक व्यवस्था की संरचना अपने सांस्कृतिक मूल्यों के द्वारा मूल्यों के द्वन्द्व की स्थितियों का निराकरण करती रहती है । यही कारण है कि सामाजिक व्यवस्था की संरचना में स्थायित्व बना रहता है । पार्सन्स ने बतलाया कि सामाजिक प्रतिमानों तथा मूल्यों के बीच इतना घनिष्ठ . सम्बन्ध है कि अक्सर इनके बीच अन्तर करना कठिन हो जाता है । वास्तव में ” मूल्य समाज के सामान्य मानक हैं और इन्हें उच्चतर श्रेणी के प्रतिमान माना जा सकता है । इस दृष्टिकोण से सामाजिक व्यवस्था की संरचना को स्थायी बनाने में सामाजिक प्रतिमानों तथा सामाजिक मूल्यों का समान उपर्युक्त विचारों के आधार पर सामाजिक व्यवस्था की संरचना निर्माण करने वाली प्रमुख इकाइयों अथवा लत्त्वों को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :
नातेदारी व्यवस्था ( Kinship System ) – नातेदारी व्यवस्था ही वह आधार है जो परिवार तथा विभिन्न उप – समूहों में व्यक्ति की प्रस्थिति का निर्धारण – करती है । इसी के द्वारा इस बात का निर्धारण किया जाता है । कि परिवार अथवा
परिवार के आधार पर बनने वाले सभहों जैसे – गोत्र वंश तथा जाति आदि में व्यक्ति की प्रस्थिति क्या होगी तथा समूह में उससे किन किन भूमिकाओं को पूरा करने का आशा की जायेगी । इस प्रकार सामाजिक व्यवस्था की संरचना में नातेदारा वह महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जो व्यक्तियों की सामाजिक प्रस्थितियों और भूमिकाओं का निर्धारण करता है ।
सामाजिक स्तरीकरण ( Social Stratification ) – – यह सामाजिक व्यवस्था का दूसरा प्रमुख संरचनात्मक तत्त्व है । सामाजिक स्तरीकरण वह प्रणाली है जिसके द्वारा एक समूह के विभिन्न सदस्य अपनी प्रस्थिति के आधार पर अनेक श्रेणियों में विभाजित होते हैं । यह सभी श्रेणियाँ एक – दूसरे की तुलना में उच्च अथवा निम्न होती हैं । पार्सन्स ने स्पष्ट किया कि इसी उच्चता अथवा निम्नता के आधार पर सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत विभिन्न कर्ताओं के पारस्परिक सम्बन्धों का निर्धारण होता है । यह सामाजिक स्तरीकरण भी कुछ निश्चित नियमों पर आधारित होता है । उदाहरण के लिए हमारी सामाजिक व्यवस्था में सामाजिक स्तरीकरण का प्रमुख आधार जाति हैं जबकि अनेक अन्य समाजों में आय , लिंग , सम्पत्ति अथवा सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर विभिन्न सामाजिक श्रेणियों का निर्माण होता है । सामाजिक स्तरीकरण जिन नियमों पर आधारित होता है , उन्हीं के अनुरूप सामा जिक संरचना एक विशेष स्वरूप ग्रहण कर लेती है । पार्सन्स के अनुसार यह स्तरी करण इस दृष्टिकोण से उपयोगी भी है कि एक ओर इससे सामाजिक व्यवस्था में स्थायित्व उत्पन्न होता है तो दूसरी ओर इसके आधार पर विभिन्न सदस्यों के बीच पुरस्कारों का वितरण करना सरल हो जाता है ।
शक्ति – व्यवस्था ( Power System ) – शक्ति – व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था का वह तीसरा संरचनात्मक तत्त्व है जिसका कार्य सामाजिक व्यवस्था में सन्तुलन बनाए रखना तथा विभिन्न कर्ताओं और समहों के व्यवहारों पर नियन्त्रण स्थापित करना है । शक्ति – व्यवस्था के अनुसार ही एक समाज विभिन्न शक्ति – समूहों में इस तरह बँट जाता है जिससे प्रत्येक समूह दूसरे के मनमाने व्यवहारों पर नियन्त्रण रख सके । उदाहरण के लिए शक्ति – व्यवस्था के द्वारा विभिन्न राजनैतिक समूहों को कुछ न कुछ शक्ति प्राप्त हो जाने से जब कभी भी सत्ताधारी समूह स्वेच्छाचारी आचरण करना चाहता है तो विपक्ष के समूह अपनी शक्ति का उपयोग करके अराजकता उत्पन्न होने से रोकते हैं ।
मूल्यों का एकीकरण ( Integration of Values ) – – पासंन्स के अनुसार सामाजिक व्यवस्था की संरचना में मूल्यों का एकीकरण वह महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जो नैतिक आधार पर विभिन्न कर्ताओं को एक – दूसरे बाँधे रखता है । प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था में मूल्य ही वह सामाजिक मानदण्ड है जिसके आधार पर कत्ताओं की मनोवत्तियों और व्यवहारों का निर्धारण होता है । समान मूल्यों में जीवन व्यतीत करने के कारण ही एक समाज के सदस्यों के व्यवहारों में एकरूपता पैदा होती है ।
सामाजिक व्यवस्था का प्रकार्यात्मक पक्ष : अजिल प्रारूप
( Functional Aspect of Social System : Agil Model )
सामाजिक व्यवस्था का संरचनात्मक पक्ष जहाँ एक और सामाजिक व्यवस्था के स्थायित्व को स्पष्ट करता है , वहीं प्रकार्यात्मक पक्ष का सम्बन्ध उन विशेषताओं से है जो सामाजिक व्यवस्था के गतिशील पक्ष को स्पष्ट करती हैं । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जो इकाइयां सामाजिक व्यवस्था की संरचना को गतिशील बनाने में योगदान करती हैं , उन्हीं को हम सामाजिक व्यवस्था की प्रकार्यात्मक इकाइयाँ कहते हैं । पार्सन्स के प्रकार्य सम्बन्धी विचारों को स्पष्ट करने से पहले थॉमस हान्स ( T . Hobbes ) द्वारा लिखित पुस्तक ‘ लबियथान ‘ में उन्होंने जो विचार व्यक्त किए थे , उन्हें समझना आवश्यक है । हॉब्स ने कहा था कि सभी व्यक्ति अपने आस – पास पायी जाने वाली दुर्लभ और सीमित वस्तुओं पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहते हैं । एक प्राकृतिक अवस्था में ( जिसमें कोई सामाजिक प्रतिमान नहीं होते ) एक – दूसरे पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए व्यक्तियों में कटु संघर्ष हो सकता है । इस अवस्था में मनुष्य का जीवन संघर्षपूर्ण , पाशविक और अल्पकालिक हो जायेगा । पार्सन्स का कथन है कि यदि थॉमस हॉब्स के उक्त कथन को सच मान लिया जाय तो मानव समाज में शक्ति के लिए होने वाले संघर्ष को समाप्त करना हमारी सामाजिक आवश्यकता ( Social Need ) बन जाती है ।
अपने कथन को स्पष्ट करते हुए उन्होंने बतलाया कि सामाजिक व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने में यद्यपि शक्ति – व्यवस्था की एक प्रमुख भूमिका है लेकिन शक्ति से उत्पन्न होने वाले संघर्ष अनेक समस्याओं को भी जन्म देते हैं । समाज में जब शक्ति या सम्पत्ति के स्वामित्व को लेकर संघर्ष बढ़ जाते हैं तब समाज के सदस्यों और विभिन्न उप – समूहों के बीच तनाव की दशाएं पैदा होती हैं । संघर्षों के बढ़ने से कुछ ऐसी प्रतिकूल दशाएं भी जन्म लेने लगती हैं जो समाज की एकता को तोड़ती हैं तथा विघटनकारी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न करती हैं । तनाव , प्रतिकूलता अथवा विघटन की ऐसी कोई भी प्रक्रिया सामाजिक व्यवस्था को नष्ट कर सकती है । इसलिए प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था अपने लक्ष्य की प्राप्ति ( Goal Attainment ) के लिए यह प्रयत्न करती है कि ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न न हों । पार्सन्स ने अपनी पुस्तक ‘ द सोशल सिस्टम ‘ में ऐसे चार प्रकार्यों का उल्लेख किया जिनके पूरा करने से ही सामाजिक व्यवस्था अपनी इस आवश्यकता को पूरा कर पाती है । यह प्रकार्य हैं :
1 . अनुकूलन ( Adaptation ) ,
2 . लक्ष्य – प्राप्ति ( Goal Attainment ) ,
3 . एकीकरण ( Integration ) ,
4 . तनाव की समाप्ति ( Latency )
पार्सन्स द्वारा बतलाए गये इन चारों प्रकार्यों को ‘ अजिल प्रारूप ( Agil Model ) के नाम से जाना जाता है , अत : सामाजिक व्यवस्था के सन्दर्भ में इन प्रकार्यों का उल्लेख हम इसी नाम के अन्तर्गत करेंगे । सामाजिक व्यवस्था की व्याख्या करते हुए पार्सन्स ने कहा कि ” सामाजिक व्यवस्था की उत्पत्ति तथा विकास व्यक्तियों की अन्तःक्रियाओं के फलस्वरूप होता है । उनके अनुसार , जब सामाजिक प्रतिमानों और सांस्कृतिक मूल्यों के अन्तर्गत विभिन्न वर्ता पारस्परिक क्रियाएँ करते हुए अपनी इच्छाओं को आदेश रूप में सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करते हैं तब एक विशेष सामाजिक व्यवस्था का निर्माण होता है । इसका तात्पर्य है कि किसी भी सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्तियों की इच्छाओं की पूर्ति सामाजिक प्रतिमानों के अनुसार हो । पार्सन्स के अनुसार सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना व्यक्ति के हित में है क्योंकि इसी से व्यक्तियों की वे आवश्यकताएं पूरी हो सकती हैं जिनकी वह इच्छा करता है । पार्सन्स ने स्पष्ट किया कि किसी भी सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जहाँ कुछ माध्यम और लक्ष्य बाह्य होते हैं , वहीं अनेक लक्ष्य और उनके माध्यम माध्यम लक्ष्य ( Medium ) ( Goal ) बाह्य अनुकूलन ( Adaptation ) लक्ष्य – प्राप्ति ( Goal Attainment ) ( External ) आन्तरिक ( Internal ) तनाव की समाप्ति ( Latency ) एकीकरण ( Integration ) अपनी प्रकृति से आन्तरिक होते हैं । इस दशा को जिस प्रारूप के द्वारा पार्सन्स ने ‘ प्रस्तुत किया , उसे ‘ अजिल प्रारूप ‘ व हा जाता है । इसके अन्तर्गत सामाजिक व्यवस्था के प्रकार्यात्मक पक्ष को जिन चार प्रमुख तत्त्वों के द्वारा प्रस्तुत किया गया , उन्हें निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :
( 1 ) बाह्य माध्यम ( External Medium ) – प्रत्येक व्यवस्था में कोई न कोई बाह्य माध्यम होना आवश्यक है । उदाहरण के लिए यदि हम एक मेज की व्यवस्था को लें , तो मेज का बाह्य माध्यम वह वस्तुएँ होंगी जिनसे मेज का निर्माण हुआ हो । मेज की यह व्यवस्था सुचारु ढंग से काम करती रहे , इसके लिए यह आवश्यक है कि मेज के विभिन्न अंगों के बीच अनुकूलन ( Adaptation ) बना रहे । इसका तात्पर्य है कि यदि मेज के पाए पतले हों तो उस पर बहत भारी लकडी न रखी जाय और न ही उसमें बहुत मोटे पेचों या कीलों का प्रयोग किया जाय । पार्सन्स का मत है कि इसी तरह सामाजिक व्यवस्था के विकास के लिए भी व्यक्तियों के वीच अनुकूलन की प्रक्रिया का होना आवश्यक है । इस प्रकार आपके अनुसार , अनुकूलन की प्रक्रिया सामाजिक व्यवस्था का बाह्य माध्यम है । पार्सन्स ने अनुकूलन की प्रक्रिया के अन्तर्गत तीन प्रणालियों का उल्लेख इस प्रकार किया है : ( क ) समाज के केन्द्रीय मूल्य ( Main Values of Society ) – प्रत्येक समाज में कुछ मूल्य केन्द्रीय महत्त्व के होते हैं तथा व्यक्तियों द्वारा की जाने वाली सभी क्रियाएँ इन मूल्यों से प्रभावित होती हैं ।
यह मूल्य समाज की विभिन्न उप – व्यवस्थाओं के बीच संघर्ष को कम करके उनका एक – दूसरे से अनुकूलन कराते हैं । इस अर्थ में केन्द्रीय मूल्य अनुकूलन की प्रक्रिया की एक प्रणाली के रूप में कार्य करते हैं । ( ख ) विवेकीकरण ( Rationalization ) – पार्सन्स का कथन है कि समाज के विभिन्न मूल्यों में यदि कोई विरोधाभास उत्पन्न होता है तव तर्क और विवेक के आधार पर यह भी तय किया जाता है कि किस मूल्य को समाज द्वारा स्वीकार करना अधिक विवेकपूर्ण होगा । इसी तरह जब कोई व्यक्ति सामाजिक मूल्यों के विपरीत आचरण करता है तब दूसरे व्यक्ति संघर्ष को जन्म न देकर विवेक के द्वारा उस व्यक्ति के अनुकूलन करने का प्रयत्न करते हैं । ( ग ) प्रतीकात्मक पृथक्करण ( Symbolic Isolation ) सामाजिक व्यवस्था में प्रतीकात्मक पृथक्करण एक ऐसी प्रणाली के रूप में कार्य में लाया जाता है जिससे परस्पर विरोधी व्यवहारों को भी मान्तता दी जा सके । उदाहरण के लिए आधुनिक समाजों में धार्मिक आचरणों के साथ धम निरपेक्ष व्यवहारों को भी मान्यता दी जाती है । इस दशा में एक – दूसरे में भिन्न व्यवहारों के बीच प्रतीकात्मक पृथक्करण कर दिए जाने से सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत अनुकूलन बना रहता है और संघर्ष की दशा उत्पन्न नहीं हो पाती ।
( 2 ) बाह्य लक्ष्य ( External Goal ) – पार्सन्स के अनुसार सामाजिक व्यवस्था की दूसरी प्रकार्यात्मक आवश्यकता कुछ बाह्य लक्ष्यों को प्राप्त करना है । यह लक्ष्य के होते हैं जिनका सम्बन्ध सामाजिक व्यवस्था की बाह्य संरचना को व्यवस्थित बनाए रखने और उसे प्रकार्यात्मक रूप से उपयोगी बनाए रखने से होता । है । सामाजिक व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति अपने लक्ष्यों को प्राप्त करना चाहता है । इस स्थिति में यह सम्भव है कि उसके और समाज के लक्ष्यों में कुछ विरोधाभास उत्पन्न हो जाय । सामाजिक व्यवस्था इस दशा में विरोध को समाप्त करके अनुकूलन के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को लक्ष्य – प्राप्ति के अवसर प्रदान करती है । जॉनसन ने अब व्यवस्था को सामाजिक व्यवस्था की एक उप – व्यवस्था मानते हए पासेन्स का विचार को स्पष्ट किया है । आपके अनुसार , समाज की अर्थ – व्यवस्था वह उप व्यवस्था ( Sub – system ) है जो वस्तुओं और सेवाओं का कई तरह के प्रयोजना के लिए उत्पादन करती है । इस प्रकार सामाजिक व्यवस्था में लक्ष्य प्राप्ति के लिए भिन्न – भिन्न तरीकों से आर्थिक उत्पादन का कार्य होता रहता है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अर्थ – व्यवस्था अपने प्रकार्यों के द्वारा समाज की लक्ष्य – प्राप्ति का साधन बनी रहती है ।
( 3 ) आन्तरिक लक्ष्य ( Internal Goal ) – पार्सन्स के अनुसार , सामाजिक व्यवस्था का तीसरा प्रकार्य अपनी आन्तरिक संरचना से सम्बन्धित लक्ष्यों को प्राप्त करना है । यह लक्ष्य मुख्यतः सामाजिक व्यवस्था से सम्बन्धित व्यक्तियों को एकीकृत करना अथवा उनके बीच एकीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देना है । ऐसा एकी करण संस्थागत समूहों के द्वारा किया जाता है । इसे स्पष्ट करते हुए जॉनसन ने लिखा है कि “ सामाजिक व्यवस्था के आन्तरिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मनो बल की आवश्यकता होती है । अपनी दैनिक क्रियाओं में व्यक्ति का चिन्तन सम्पूर्ण समाज के हित से सम्बन्धित नहीं होता बल्कि वह स्वयं से सम्बन्धित समूहों ( उप समूह ) के हितों पर अधिक ध्यान देता है । ” इस दशा में अनेक संस्थागत समूह व्यक्ति के व्यवहार को सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था से जोड़ने में मदद करते हैं । स्पष्ट है कि सामाजिक व्यवस्था का आन्तरिक लक्ष्य एकीकरण की प्रक्रिया में अधिक से अधिक वृद्धि करना है ।
( 4 ) आन्तरिक माध्यम ( Internal Medium ) – – सामाजिक व्यवस्था के आन्तरिक लक्ष्य के रूप में एकीकरण को बढ़ाने के लिए जिस माध्यम का उपयोग किया जाता है , उसे पार्सन्स ने तनाव तिरोहन अथवा तनाव की समाप्ति ( Latency ) कहा है । इसका तात्पर्य है कि जब सामाजिक व्यवस्था से सम्बन्धित विभिन्न इकाइयों में तनाव की दशा उत्पन्न हो जाय तब आवश्यकता इस बात की होती है कि या तो उस तनाव को कम किया जाय अथवा उसे समाप्त कर दिया जाय । ऐसा तभी सम्भव होता है जब सामाजिक व्यवस्था की इकाइयाँ , चाहे वे कर्ता हों अथवा उप समूह , अपने सामाजिक प्रतिमानों के प्रति आदर का भाव रखें और उन्हीं के अनुसार व्यवहार करें ।
इस कथन के द्वारा पार्सन्स ने यह स्पष्ट किया कि एकीकरण के लक्ष्य की दिशा में समाजीकरण की प्रक्रिया सामाजिक व्यवस्था का एक आन्तरिक माध्यम है । समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी सामाजिक व्यवस्था से सम्बन्धित सदस्यों के व्यक्तित्व में समाज के सांस्कृतिक प्रतिमानों का समावेश हो जाता है ।सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गक अनेक दशाओं में कुछ भ्रम और अविश्वास भी उत्पन्न हो जाते हैं । ऐसे भ्रमों और अविश्वासों को दूर करना आवश्यक होता है क्योंकि इसके बिना सामाजिक व्यवस्था भंग हो सकती है । उदाहरण के लिए परिवार एक उप – व्यवस्था है तथा यह अनेक प्रकार्यों के द्वारा अपने सदस्यों को चिन्तामुक्त करती है , अच्छे कार्यों के लिए सदस्यों की प्रशंसा करती है तथा उनकी समस्याओं का निरा करण करके तनाव की सम्भावना को कम से कम करने का प्रयत्न करती है । यही वह माध्यम है जिसके द्वारा किसी व्यवस्था के अन्तर्गत एकीकरण की प्रक्रिया अधिक महत्त्वपूर्ण बन पाती है । रेल पार्सन्स द्वारा प्रस्तुत इस अजिल प्रतिमान से स्पष्ट होता है कि पार्सन्स ने न केवल प्रकार्य की अवधारणा को एक नयी दिशा देने का प्रयत्न किया बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि सामाजिक व्यवस्था जिन वाह्य और आन्तरिक लक्ष्यों और माध्यमों से सम्बन्धित अनेक प्रकार्य करती है , उन्हीं के कारण सामाजिक व्यवस्था में गत्या त्मकता बनी रहती है ।