धर्म का समाजशास्त्र विचारक

धर्म का समाजशास्त्र विचारक

( Sociology or Religion )

SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी मे

मैक्स वेबर बह सर्वप्रमुख विचारक हैं जिन्होंने धर्म का बहुत सूक्ष्म वैज्ञानिक अध्ययन करके समाजशास्त्र में धर्म के समाजशास्त्र ‘ ( Sociology of Religion ) जैसी एक स्वतन्त्र शाखा को स्थापित किया । वेबर ने अपने विद्यार्थी जीवन में ही प्रोटेस्टेण्ट धर्म के काल्विन मत का अध्ययन करना आरम्भ कर दिया था ।

अपने व्यावहारिक अनुभवों के आधार पर वेबर की यह मान्यता बन गयी कि धर्म का सम्बन्ध केवल पूजा और विश्वासों की व्यवस्था से ही नहीं है बल्कि धर्म का सार उसकी वे नीतियां अथवा आचार हैं जो एक विशेष धर्म के मानने वालों के आर्थिक तथा सामाजिक व्यवहारों को प्रभावित करती हैं । इस परिकल्पना के आधार पर वेबर ने संसार के विभिन्न धर्मों तथा मुख्यतः प्रोटेस्टेण्ट एवं कैथोलिक मत व्यापक अध्ययन करके अपने जो विचार प्रस्तुत किये , वह आपकी विश्ववि पुस्तक ‘ प्रोटेस्टेण्ट धर्म तथा पूंजीवाद का सार ‘ ( Protestant Ethic and the Spirit of Capitalism ) में प्रकाशित हुए । यह पुस्तक धर्म का अध्ययन करने वाले समाज – विज्ञानियों के लिए पथ – प्रदर्शक बन गयी । इसके अन्तर्गत धर्म के अध्ययन के लिए उपयोग में लायी गयी पद्धति वेबर की एक नयी सूझ – बूझ थी जिसके कारण मैक्स वेबर को ‘ धर्म के समाजशास्त्र का जनक ‘ भी कह दिया जाता है । वेबर के विचारों की पृष्ठभमि में उन दशाओं को समझना भी आवश्यक है जिन्होंने वबर को धर्म के बारे में एक नया दष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा दी । सर्व प्रथम , वेबर के एक विद्यार्थी बाडेन ( Baden ) ने अपने अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष किया था कि कैथोलिक धर्म को मानने वाले विद्यार्थियों की तुलना में प्रोटे स्टेण्ट धर्म को मानने वाले विद्यार्थी औद्योगिक शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश लेने के लिए अधिक प्रयत्नशील रहते हैं । दूसरे , वेबर ने यह भी देखा कि योरोप के अनेक देशों में आर्थिक और राजनैतिक संकट के समय प्रोटेस्टेण्ट धर्म के मानने वाले लोगों ने परिश्रम के द्वारा अपनी आर्थिक दशा को फिर से सुदृढ़ बना लिया जबकि कैथोलिक धर्म के अनुयायी ऐसा नहीं कर सके । तीसरे , योरोप के जिन देशों में प्रोटेस्टेण्ट धर्म का प्रभाव अधिक है , वहाँ पूंजीवाद का विकास उन देशों की तुलना में अधिक हुआ जहाँ कैथोलिक धर्म को मानने वाले लोगों की संख्या अधिक थी । इन सभी दशाओं ने वेबर को इस बात की प्रेरणा दी कि संसार के सभी प्रमुख धर्मों का अध्ययन करके व्यक्ति के व्यवहारों पर धार्मिक आचारों के प्रभाव को समझा जाये ।

विभिन्न धर्मों का व्यापक अध्ययन करने के पश्चात् वेबर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि साधारण मनुष्य अपनी सांसारिक आकांक्षाओं के कारण ही धर्म से प्रभावित होते हैं । वे धर्म से इसलिए प्रभावित नहीं होते कि बड़े – बड़े धार्मिक विचारों से उनका कोई विशेष लगाव होता है । विभिन्न समाज में धार्मिक आचारों के प्रभाव को ज्ञात करने के साथ ही वेबर ने इस तथ्य को विशेष रूप से जानने का प्रयत्न किया कि क्या प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचारों तथा पूंजीवाद के विकास में कोई सह – सम्बन्ध है । वेबर का यही अध्ययन उनके ‘ धर्म के समाजशास्त्र ‘ का मुख्य आधार है । इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि वेबर द्वारा बतायी गयी पूंजीवाद की मुख्य विशेषताओं तथा प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचारों को समझकर आर्थिक व्यवस्था और धार्मिक कारकों के पारस्परिक सम्बन्ध को समझा जाय ।

 

पूँजीवाद का सार

( Spirit of Capitalism )

 

 वेबर ने अपनी पुस्तक ‘ दि प्रोटेस्टेण्ट इथिक एण्ड द स्पिरिट ऑफ कैपिट लिज्म ‘ के अधिकांश भाग में इस समस्या पर प्रकाश डाला है कि प्रोटेस्टेण्ट धर्म की नीतियाँ अथवा शुद्धाचरणवादी विचारों ने पंजीवाद को किस तरह प्रभावित किया है ? इसे स्पष्ट करने के लिए वेबर ने बतलाया कि पूंजीवाद आधुनिक समाजों की एक प्रमुख विशेषता है । यह सच है कि पंजीवादी अर्थव्यवस्था अनेक ऐतिहासिक – स्तरों में मौजूद रही लेकिन आधुनिक पूंजीवाद की प्रकृति पुरातन पूंजीवादी व्यवस्था से भिन्न है । आधुनिक पूंजीवाद की प्रकृति का आभास वेबर को सर्वप्रथम अपने परिवार से ही होने लगा था । उन्हें अपने परिवार में व्यक्तिवाद तथा आर्थिक आचरणों से सम्बन्धित नैतिकता का अनूठा सम्मिश्रण देखने को मिला । वेबर के चाचा कार्ल डेविड एक सम्मानित उद्यमकर्ता थे ।

 उनके व्यवहारों और रहन – सहन में कठोर परिश्रम , दिखावे का अभाव , दयालुता और तार्किकता के गुण थे । यह वह गुण थे जो आधुनिक पूंजीवाद के अन्तर्गत सभी बड़े उद्योगपतियों में विद्यमान थे । इसके फलस्वरूप वेबर की यह धारणा बनने लगी कि आधुनिक पूंजीवाद एक विशेष प्रकार की नैतिकता है जिसमें अनेक विचारों का समावेश है । बेबर के अनुसार आधुनिक औद्योगिक जगत के मनुष्य का यह एक विशेष गुण है कि उसके लिए कठोर परिश्रम एक कर्तव्य है और वह इसका फल इसी जीवन में मानने का विश्वास करता है । पूंजीवाद में मनुष्य की वैयक्तिक सन्तुष्टि का आधार यह है कि वह अपने व्यवसाय को परिश्रम से करे – इस भावना से नहीं कि वह कार्य उसे मजबूरी में करना पड़ रहा है बल्कि इस भावना से कि वह स्वयं ऐसा करना चाहता है । वेबर ने लिखा है कि ” एक व्यक्ति से अपनी आजीविका से सम्बन्धित कर्तव्यों का अनुभव करने की आशा की जाती है और वह उसे करता भी है , भले ही वह क्रिया किसी भी क्षेत्र से सम्बन्धित हो । “

 

 अमरीका में एक कहावत कही जाती है कि यदि कोई काम करने योग्य है तो उसे सबसे अच्छे ढंग से पूरा करना चाहिए । वेबर के अनुसार यह कहावत पूंजीवाद का सार है क्योंकि इस धारणा का सम्बन्ध किसी अलौकिक उद्देश्य से नहीं बल्कि आर्थिक जीवन में व्यक्ति को प्राप्त होने वाली सफलता से है । पंजीवाद के सार को स्पष्ट करने के लिए वेबर ने इसकी तुलना एक दूसरी आर्थिक क्रिया से की जिसका नाम उन्होंने ‘ परम्परावाद ‘ रखा । आर्थिक क्रियाओं में परम्पराबाद एक विशेष स्थिति है जिसमें व्यक्ति अधिक प्रतिफल मिलने के बाद भी कम से कम काम करना चाहते हैं । काम के दौरान वे अधिक से अधिक आराम पसन्द करते हैं तथा कार्य की नयी प्रविधियों को उपयोग में लाना नहीं चाहते । परम्परावाद की दशा में लोग जीवनयापन के लिए साधारण आय से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं तथा ऐसे प्रयत्न करते हैं जिनसे अकस्मात लाभ प्राप्त किया जा सके । ग्राहकों तथा कर्मचारियों से इनके सम्बन्ध वैयक्तिक होते हैं ।

 

 सिद्धान्तहीन ढंग से धन का संचय करना भी आर्थिक परम्परावाद का ही एक पहलू है । 24 यह सभी विशेषताएं पंजीवाद के सार के बिलकुल विपरीत हैं । वेबर का विचार था कि दक्षिणी योरोप , एशिया के विशेषाधिकार सम्पन्न समूहों , चीन के अधिकारियों , रोम के अभिजात वर्गों तथा एल्बी नदी के पूर्व के जमींदारों की आर्थिक क्रियाएँ अकस्मात लाभ प्राप्त करने के लिए की गयी थीं जिनमें उन्होंने सभी नैतिक विचारों का परित्याग कर दिया था । उनकी क्रियाओं में तार्किक प्रयत्नों का भी अभाव था जिसके कारण उन क्रियाओं को आधुनिक पूंजीवाद के समकक्ष नहीं रखा जा सकता । इस आधार पर पूंजीवाद को परिभाषित करते हुए वेबर ने लिखा कि ” आधुनिक पूजीवाद परस्पर सम्बन्धित संस्थाओं का एक ऐसा संकुल है जिसका आधार तर्क पर आधारित आर्थिक प्रयत्न हैं , न कि सटोरियों के प्रयत्न । ” 25 इसका तात्पर्य है कि व्यापारिक निगमों का कानूनी रूप , संगठित विनिमय प्रणाली , तार्किक आधार पर वस्तुओं का उत्पादन , विक्रय की संगठित व्यवस्था , ऋण प्रणाली , निजी सम्पत्ति तथा श्रम – विभाजन पर आधारित पारस्परिक निर्भरता आधुनिक पूंजीवाद की प्रमुख विशेषताएं हैं । वेबर के अनुसार पूंजीवाद के सार से सम्बन्धित यह विशेषताएं केवल पश्चिमी समाजों का ही गुण रही हैं । अनेक दूसरे समाजों में भी ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने अपने व्यापार को बहुत तार्किक ढंग से चलाया , जो नौकरों से भी अधिक कठोर परिश्रम करते थे , जिनका जीवन आडम्बरों से दूर था तथा जो अपनी बचत को व्यापार के प्रसार में लगा देते थे । इसके बाद भी इन पूंजीवादी विशषताओं का प्रभाव दूसरे समाजों की अपेक्षा पश्चिमी समाजों में कहीं अधिक पाया जाता रहा । इसका कारण यह था कि पश्चिम में यह गुण वैयक्तिक गुण न रहकर जीवनयापन के सामान्य ढंग के रूप में विकसित हो गये । इस प्रकार जनसामान्य में व्याप्त कठोर परिश्रम , व्यापारिक तर्कनावाद , सार्वजनिक ऋण व्यवस्था , पूंजी का निरन्तर विनियोजन तथा परिश्रम के लिए ऐच्छिक स्वीकृति पूंजीवाद का सार है । इसके विपरीत , अकस्मात आर्थिक लाभ पाने का प्रयत्न करना , परिश्रम को बोझ और अभिशाप समझकर उससे दूर भागना . धन का सिद्धान्तहीन ढंग से संचय करना तथा जीवनयापन के लिए सामान्य आय से ही सन्तुष्ट हो जाना परम्परावादी आर्थिक प्रवृत्तियाँ हैं । वेबर ने उन विशेषताओं पर भी प्रकाश डाला है जो आधुनिक जीवादी व्यवस्था से प्रभावित समाजों में पायी जाती हैं । संक्षेप में , इन विशेषताओं को निम्नांकित रूप में समझा जा सकता है :

 

 ( 1 ) व्यवसाय की व्यवस्था का वैज्ञानिक ढंग ( Scientific mode of Business Management ) – आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था की प्रमुख विशेषता यह है कि यह व्यापार अथवा व्यवसाय में वैज्ञानिक ढंग को अधिक महत्त्व देती है । इसके अन्तर्गत समाज में व्यवसाय की नयी पद्धतियों का विकास होने लगता है । आय तथा व्यय का हिसाब रखने के लिए न केवल व्यवस्थित विधियों को उपयोग में लाया जाता है बल्कि तार्किक आधार पर भविष्य में वस्तुओं की मांग का अनुमान लगाकर साधनों का अधिकतम उपयोग करने का प्रयत्न किया जाता है ।

 

( 2 ) उत्पादन प्रणाली में वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग ( Use of Scientific Techniques in the System of Production ) – वेबर का मत है कि पूंजीवादी समाजों में व्यवसाय करने वाले लोग सदैव ऐसी तकनीकों का प्रयोग करते रहते हैं जिनसे वे अधिक से अधिक सफलता प्राप्त कर सकें । उनका उद्देश्य ऐसे तरीकों पर विचार करना तथा उन्हें उपयोग में लाना होता है जिनसे वस्तु के उत्पादन में प्रयुक्त होने वाले कच्चे माल , श्रम तथा प्रबन्ध का अधिक से अधिक उपयोग किया जा सके । इन समाजों में लोगों के परम्परागत सामन्तवादी विचार बदलने लगते हैं । समाज में रोजगार के नये – नये अवसरों में वृद्धि होती है । श्रमिकों को इस तरह की पद्धतियों में मजदूरी और वेतन देने का प्रावधान किया जाता है जिससे उनकी कार्य कुशलता बढ़ सके । श्रमिकों की कार्य की दशाओं में इस तरह सुधार किया जाने लगता है जिससे वे अपने को सुरक्षित समझकर उत्पादन की प्रक्रिया में अधिका धिक योगदान कर सकें ।

 

 ( 3 ) वैज्ञानिक नियम ( Scientific Laws ) – पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में समाज के नियमों में भी इस तरह परिवर्तन होने लगता है जिससे उत्पादन की प्रक्रिया में लगे सभी वर्गों को एक – दूसरे का विश्वास प्राप्त हो सके । फलस्वरूप राज्य के द्वारा ऐसे कानून बनाये जाते हैं जो एक ओर उद्यमियों और श्रमिकों के हितों का संरक्षण कर सकें तथा दूसरी ओर औद्योगिक विकास के लिए एक अनुकूल वातावरण तैयार कर सकें । यह कानून तथा नियम किसी परम्परा पर आधारित न होकर वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओं के अनुसार होते हैं ।

 

( 4 ) मुक्त श्रम तथा मुक्त व्यवसाय ( Free Labour and Free Trade ) मैक्स वेबर ने बतलाया कि पूंजीवादी समाजों में प्रत्येक व्यक्ति को अपना व्यवसाय चनने की स्वतन्त्रता होती है । वेबर ने स्पष्ट किया कि भारत परम्परागत समाज का एक उदाहरण है जिसमें जाति व्यवस्था के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही जाति के लिए निर्धारित व्यवसाय करने के लिए बाध्य है । फलस्वरूप भारत में व्यावसायिक गतिशीलता बहुत कम हो गयी है । दूसरी ओर पूंजीवादी आश्कि व्यवस्था वाले समाजों में व्यावसायिक गतिशीलता इसलिए अधिक होती है कि वहीं व्यक्ति को अपने श्रम अथवा व्यवसाय के चुनाव में किसी प्रथा अथवा परम्परा के द्वारा नहीं रोका जाता । यह स्थिति व्यक्ति को अपनी आवश्यकता तथा महत्त्वा कांक्षा में सन्तुलन स्थापित करने का अवसर प्रदान करती है ।

 

 ( 5 ) व्यवसाय तथा बिक्री के लिए संगठित बाजार ( Organized Markets for Trade and Sale of Goods ) – वेबर ने स्पाट किया कि आधुनिक पूंजीवादी समाजों में व्यापार तथा वस्तुओं की बिक्री के लिए संगठित बाजारों का निर्माण किया जाता है । यह बाजार स्थानीय स्तर से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक के होते हैं । आर्थिक क्रियाओं के लिए इन बाजारों के अपने कुछ विशेष नियम होते हैं । इनमें ऋणों के लेन – देन को व्यवस्थित आधार पर संचालित किया जाता है तथा बड़े – बड़े संगठनों द्वारा ऋण सम्बन्धी गतिविधियों पर नियन्त्रण रखा जाता है । वेबर का कथन है कि इस तरह के बाजारों का विकास मुख्यतः योरोप की औद्योगिक क्रान्ति का परिणाम है । इस प्रकार वेबर ने यह स्पष्ट किया कि पूंजीवाद का सार एक विशेष प्रकार की व्यावसायिक नैतिकता है जिसमें व्यक्ति का मूल्यांकन प्रदत्त स्थितियों ( Ascribed Status ) के आधार पर नहीं होता बल्कि उसकी ताकिकता तथा कार्यकुशलता के आधार पर होता है ।

 

 

 

 

प्रोटेस्टेन्ट धर्म के आचार

( Protestant Ethic )

 

 

 पूंजीवाद का सार स्पष्ट कर लेने के बाद वेवर ने अनेक ऐसे कारणों को प्रस्तुत किया जिनके आधार पर पूंजीवाद को उत्पत्ति को धार्मिक आचारों के सन्दर्भ में खोजा जा सके । वेबर से पहले पेटी ( Petty ) , मान्टेस्क्यू ( Montesquieu ) , बकल ( Buckle ) तथा कीट्स ( Keats ) ने अपने अध्ययनों के द्वारा यह स्पष्ट किया था कि प्रोटेस्टेन्ट धर्म तथा व्यापारी प्रवृत्ति के विकास के बीच एक सह – सम्बन्ध है । इनसे प्रभावित होकर वेबर ने यह विचार प्रस्तुत किया कि विभिन्न धर्मों और उनसे सम्बन्धित सिद्धान्तों ( बाचारों ) पर इस दृष्टि से विचार किया जाना चाहिए कि वे बपने मानने वालों को किस तरह की शिक्षाएं देते हैं तथा मनुष्य और ईश्वर के सम्बन्धों की विवेचना के द्वारा किस तरह आचरणों को प्रोत्साहन देते हैं । वेबर यह स्पष्ट करना चाहते थे कि प्रोटेस्टेन्ट धर्म के आचार किस प्रकार उन लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गये जो आर्थिक लाभ को तार्किक दृष्टि से प्राप्त करने के पक्ष में थे ।

 

इस बात को ध्यान में रखते हुए वेबर ने एक बोर प्रोटेस्टेन्ट धर्म के बाचारों की बनेक पादरियों से सही जानकारी प्राप्त की तथा दूसरी ओर कैथोलिक मत की तुलना में लोगों के दैनिक आचरणों पर इन आचारों के प्रभाव को स्पष्ट किया । प्रोटेस्टेन्ट धर्म के बाचार के रूप में सेन्ट पॉल ने बतलाया कि ” प्रोटेस्टेन्ट धर्म की नीति बह है कि जो व्यक्ति काम नहीं करेगा वह भोजन का अधिकारी नहीं श्वर के गौरव को बढ़ाने के लिए गरीबों के साथ धनी लोग भी किसी न किसी व्यवसाय में अवश्य जुटे रहें ; तथा व्यक्ति की सबसे बड़ी धार्मिक निष्ठा यह है कि वह अधिक से अधिक सक्रिय जीवन व्यतीत करें । ” रिचार्ड बेक्सटर ( Richard Baxter ) ने प्रोटेस्टेन्ट आचार पर प्रकाश डालते हए कहा कि ” केवल धर्म के लिए ही ईश्वर हमारी और हमारे कार्यों की रक्षा करता है । परिश्रम ही शक्ति का नैतिक और प्राकृतिक उद्देश्य है । केवल परिश्रम से ही ईश्वर की सबसे अधिक सेवा करके उसका सम्मान बढ़ाया जा सकता है । ” एक अन्य ईसाई सन्त जॉन बनियन ने प्रोटेस्टेन्ट धर्म के आचार को इन शब्दों में स्पष्ट किया कि ” मृत्यु के बाद तुमसे यह नहीं पूछा जायेगा कि तुम क्या विश्वास करते थे ; केवल यह पूछा जायेगा कि तुम कुछ परिश्रम भी करते थे या केवल बातों में ही समय बिताते थे । ” इन कथनों से स्पष्ट होता है कि प्रोटेस्टेन्ट धर्म के आचारों ने परिश्रम पर आधारित एक विस्तृत नियमावली को जम दिया । इसके अनुसार समय को व्यर्थ में खोना एक घातक पाप है । जीवन क्षणभंगुर तथा मूल्यवान है , इसलिए मनुष्य की ईश्वर का गौरव बढ़ाने के लिए अपना प्रत्येक क्षण उपयोगी व्यवसाय में लगाना चाहिए 17 व्यर्थ की बात – चीत , लोगों से अधिक मिलना – जुलना , आवश्यकता से अधिक सोना तथा दैनिक क्रियाओं को हानि पहुंचाकर धार्मिक क्रियाओं में लगे रहना पाप है क्योंकि इनके कारण व्यक्ति आजीविका उपार्जित करने के काम को ईश्वर की इच्छा के अनुरूप सक्रिय ढंग से पूरा नहीं कर सकता । इस दृष्टिकोण से प्रोटेस्टेन्ट धर्म की नीतियाँ वैयक्तिक आचार के इस आदर्श के विरुद्ध हैं कि ” धनी व्यक्ति कोई भी काम न करे अथवा यह कि धार्मिक ध्यान व्यक्ति के सांसारिक दायित्वों से अधिक मूल्यवान है । “

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रोटेस्टेन्ट धर्म तथा पूँजीवाद के विकास में सह – सम्बन्ध

( Corelation of Protes tant Ethic and Rise of Capitalism )

 

 . पूंजीवाद की मुख्य विशेषताओं तथा प्रोटेस्टेन्ट आचारों के अध्ययन से वेबर को इनके बीच अनेक समानताएं देखने को मिलीं । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि अपने सम्पूर्ण अध्ययन के द्वारा वेबर ने प्रोटेस्टेन्ट धर्म के ऐसे अनेक तत्त्वों को खोज निकाला जिनका पूंजीवाद के विकास से सीधा सम्बन्ध हो सकता है । वेबर द्वारा बतलाये गये प्रोटेस्टेन्ट धर्म के इन आचारों को समझकर ही उनकी पूंजीवाद के विकास से सम्बन्ध ज्ञात किया जा सकता है ।

 

परम्परागत मूल्यों से तकपूर्ण मूल्यों की स्थापना ( Establishment of Rational Values from Traditional Values ) – वेबर का विचार अन्य धर्मों में पायी जाने वाली रूढ़िवादिता इसलिए विकसित हुई कि व्यक्ति का के रहस्य को जानने के लिए तरह – तरह के कर्मकाण्डों तथा उपासना के तरीकों में लगे रहे । इसके विपरीत , प्रोटेस्टेन्ट आचारों ने एक ऐसे विवेक अथवा तर्क को प्रोत्साहन दिया जो ईश्वर को तो स्वीकार करता है लेकिन उसके रहस्यों को जानने में अपना समय नहीं खोता । वेबर का मत है कि योरोप के कुछ देशों में पूंजीवाद को प्रोत्साहन देने वाले वैज्ञानिक आविष्कारों तथा तर्कपूर्ण चिन्तन में इसलिए वृद्धि हुई क्योंकि प्रोटेस्टेन्ट धर्म के आचार स्वयं तर्कपूर्ण चिन्तन को प्रोत्साहन दे रहे थे । इसके विपरीत , भारत के आध्यात्मिक चिन्तन में ज्ञान – योग , भक्ति – योग तथा तपस्या के द्वारा ईश्वर के रहस्यों को खोजने का प्रयास किया गया । बौद्ध धर्म ने तो ईश्वर के रहस्य को जानना ही मुक्ति के मार्ग के रूप में स्वीकार कर लिया । यही कारण है कि अन्य धर्मों की तुलना में प्रोटेस्टेन्ट धर्म एक अधिक विवेकशील और तार्किक धर्म के रूप में विकसित हुआ जो पूंजीवाद के विकास के लिए एक अनुकूल दशा है ।

 

 ( 2 ) कार्य के प्रति रचनात्मक दृष्टिकोण ( Creative Attitude towards Work ) – प्रोटेस्टेण्ट आचार के अनुसार कार्य अपने आप में पूजा है । ‘ वेबर ने स्पष्ट किया कि परिश्रम को एक धार्मिक आचार मानने के कारण ही प्रोटेस्टेन्ट धर्म के अनुयायियों में अधिकाधिक कार्य करने की प्रवृत्ति बढ़ी जो पूंजीवाद से इसके सह सम्बन्ध को स्पष्ट करती है । प्रोटेस्टेन्ट धर्म में जहाँ कार्य तथा परिश्रम को व्यक्ति का महत्त्वपूर्ण गुण माना गया है वहीं कुछ अन्य धर्मों में कार्य के प्रति पाये जाने वाले दृष्टिकोण इससे भिन्न हैं । उदाहरण के लिए , रोमन कैथोलिक धर्म में कार्य को एक ऐसा दण्ड माना गया है जो ईश्वर ने आदम और ईव को दिया । कैथोलिक धर्म की मान्यताओं के अनुसार , आदम ने जब ईव के कहने पर स्वर्ग के पेड़ से फल तोड़ लिया तो ईश्वर ने दण्डस्वरूप उन्हें पृथ्वी पर भेज दिया । ईश्वर ने उन्हें यह श्राप दिया कि ईव और उसकी कन्याओं को बच्चों को जन्म देते समय कष्ट होगा तथा उनकी सन्तानों को जीविका उपार्जित करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी । इस मान्यता के आधार पर ही कैथोलिक मत के अनुयायी किसी भी कार्य और परिथम को ईश्वर के द्वारा दिए जाने वाले दण्ड के रूप में देखते हैं । कैथोलिक धर्म के आचार केवल पुरुषों को ही कार्य करने की अनुमति देते हैं जबकि स्त्रियों द्वारा घरेल काम करना ही उचित माना जाता है । इसके विपरीत , प्रोटेस्टेण्ट आचार स्त्रियों द्वारा किये जाने वाले कार्य को उनके एक विशेष गुण के रूप में स्वीकार करते हैं । इस प्रकार वेबर ने कार्य तथा श्रम के प्रति प्रोटेस्टेन्ट धर्म के आचारों को पंजीवाद के एक सहायक आधार के रूप में स्वीकार किया ।

 

 ( 3 ) मुक्ति की अवधारणा ( The Concept of Salvation ) – – प्रोटेस्टेण्ट धर्म में मुक्ति की अवधारणा काल्विन मत की मान्यताओं पर आधारित है । इस अवधारणा को ‘ पूर्व निश्चय का सिद्धान्त ‘ ( Theory of Predestination ) कहा जाता है । काल्विन के मत के अनुसार , जिस ईश्वर ने मनुष्य को जन्म दिया , उसी ईश्वर ने उनके स्वर्ग या नरक में जाने का निश्चय पहले से ही कर दिया है । व्यक्तिद्वारा किया जाने वाला पूजा – पाठ या कोई भी दूसरा प्रयत्न ईश्वर के इस निश्चय को नहीं बदल सकता । काल्विन मत के अनुसार व्यक्ति के कार्यों की सफलता के आधार पर केवल इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि कौन – सा व्यक्ति स्वर्ग में जायेगा । इस प्रकार प्रोटेस्टेण्ट धर्म के अनुयायी यह मानते हैं कि जो व्यक्ति अपने कार्य को जितनी सफलता से पूरा कर लेता है , उसका स्वर्ग में जाना उतना ही अधिक निश्चित है । इस मान्यता के आधार पर प्रोटेस्टेण्ट धर्म के अनुयायी अपने कार्य तथा व्यवसाय में सफल होने के लिए अधिक से अधिक प्रयत्नशील रहते हैं । वेबर ने बतलाया कि अनेक दूसरे धर्मों में स्वर्ग अथवा मुक्ति को प्राप्त करने के लिए व्यावसायिक सफलता को एक आधार के रूप में नहीं देखा जाता । हिन्दू धर्म में तो व्यक्ति को केवल गृहस्थ आश्रम की अवधि में ही व्यावसायिक कार्य करने की अनुमति प्रदान की गयी है । इस प्रकार अन्य धर्मों से प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचारों की तुलना करते हुए वेबर ने यह बतलाया कि प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचार पूंजीवाद के विकास से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं ।

 

( 4 ) ऋण के लिए ब्याज के प्रति नवीन दृष्टिकोण ( New Attitudes towards Collection of Interest on Loans ) – – जहाँ कैथोलिक धर्म ऋण के ऊपर ब्याज लेना एक अपराध मानता है , वहीं प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचार धन से धन कमाने की अनुमति प्रदान करते हैं । सन् 1545 में जब काल्विन चर्च ने यह नारा दिया कि धन से धन कमाया जाना चाहिए , तभी से प्रोटेस्टेण्ट धर्म द्वारा ऋण पर लिये गये ब्याज को उचित माना जाना लगा । केवल इसी विचार के कारण प्रोटेस्टेण्ट धर्म को मानने वाले समाजों में पंजीवाद का विकास होना आरम्भ हो गया जबकि कैथोलिक धर्म के अनुयायी अपनी नैतिकता के कारण ऋण और ब्याज के लेन – देन से दूर रहे । वेबर के अनुसार अनेक दूसरे धर्मों में भी ऋण पर ब्याज को अनुचित माना जाता है । उदाहरण के लिए , इस्लाम धर्म के ग्रन्थ कुरान में लिखा है कि सूद लेना अपराध है । कुरान में सूद लेने वाले व्यक्ति को दण्ड देने की भी व्यवस्था है । वेबर का मत है कि जिन समाजों में धन से धन कमाने की प्रवृत्ति नहीं है , उन समाजों में मुक्त रूप से ऋण लेने तथा देने का प्रचलन नहीं बढ़ पाता । इसके फल स्वरूप ऐसे समाजों में व्यवसायों तथा उद्योगों की भी अधिक स्थापना नहीं हो पाती । प्रोटेस्टेण्ट धर्म ने ऋण तथा ब्याज के प्रति अधिक उदारवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जिसके फलस्वरूप इससे प्रभावित समाजों में पूंजी का महत्त्व बढ़ने लगा ।

 

 ( 5 ) नशे पर प्रतिबन्ध ( Strictures on Alcohalism ) – प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचार अपने अनुयायियों पर नशा करने पर प्रतिबन्ध लगाते हैं । वेबर ने नशे पर लगाये जाने वाले इस प्रतिबन्ध को पूंजीवाद के विकास का एक महत्त्वपूर्ण कारण स्वीकार किया है । ऐसा इसलिए है कि शराब न पीने वाले व्यक्ति ही बड़ी – बड़ी मशीनों के बीच अधिक कुशलतापूर्वक कार्य कर सकते हैं । वेबर ने बतलाया कि कैथोलिक धर्म में नशे के प्रति इस तरह का कोई प्रतिबन्ध नहीं है जिसके फलस्वरूप

 

इसके अनुयायियों में कार्य के प्रति अधिक उत्साह नहीं पाया जाता । दूसरी ओर प्रोटेस्टण्ट धर्म के अनुयायियों ने मद्यनिषेध का एक व्यापक आन्दोलन चलाकर न केवल अपने आलस्य को कम कर लिया बल्कि कार्य के प्रति अपनी कुशलता तथा उत्साह में भी वृद्धि की । इस प्रकार प्रोटेस्टेण्ट धर्म का यह आचार भी पूंजीवाद के विकास में सहायक सिद्ध हुआ ।

 

 ( 6 ) साक्षरता तथा सीखने को प्रोत्साहन ( Encouragement to Literacy and Learning ) – – प्रोटेस्टेण्ट धर्म का एक प्रमुख आचार यह है कि उसके प्रत्येक अनुयायी को बाइबिल पढ़ने के लिए किसी पुरोहित अथवा पादरी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए बल्कि इस पवित्र ग्रन्थ को स्वयं पढ़ना चाहिए । वेबर का कथन है कि इस आचार के कारण प्रोटेस्टेण्ट धर्म के अनुयायियों में पढ़ने और सीखने की प्रवृत्ति बढ़ी तथा इसी के फलस्वरूप प्रोटेस्टेण्ट धर्म के अनुयायियों में साक्षरता तथा शिक्षा की दर बढ़ सकी । वेबर के साथ अनेक दूसरे समाजशास्त्रियों ने यह भी स्पष्ट किया है कि शिक्षा की दर में होने वाली वृद्धि का सामाजिक विकास से एक सीधा सम्बन्ध है । वास्तविकता यह है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था जिन तर्कप्रधान सम्बन्धों पर आधारित है , उनका विकास शिक्षा के बिना नहीं हो सकता । इस दृष्टिकोण से प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचार पुनः पूंजीवाद में सहायक प्रतीत होते हैं ।

 

 ( 7 ) अवकाश का बहिष्कार ( Rejection of Holidays ) – वेबर ने बत लाया कि कार्य के प्रति प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचार अधिक अवकाश के पक्ष में नहीं हैं । इसके फलस्वरूप इस धर्म के अनुयायी ईश्वर को सम्मान देने के लिए अधिक से अधिक कार्य करना पसन्द करते हैं । वे कर्मकाण्डों और उत्सवों के कारण अधिक अवकाश लेने में विश्वास नहीं रखते । इसके साथ ही इस धर्म में उन कर्मकाण्डों तथा उत्सवों की संख्या भी अधिक नहीं है जिनके कारण इसके अनुयायियों को अपने कार्य से अवकाश लेना पड़े । वेबर ने इस सम्बन्ध में कैथोलिक , इस्लाम , बौद्ध तथा हिन्दू धर्म की चर्चा करते हुए बतलाया कि इन धर्मों में कर्मकाण्डों की संख्या अधिक होने के कारण सामाजिक रूप से भी लोगों को अधिक अवकाश लेने की स्वीकृति दी जाती है । दूसरी और प्रोटेस्टेण्ट धर्म के मानने वाले लोग कम अवकाश लेने के कारण अधिक धन उपामित करने में सफल हो जाते हैं । यह दशा भी पंजीवाद के विकाम में सहयोग करती है ।

 

 ( 8 ) प्रोटेस्टेण्ट वैराग्य ( Protestant Asceticism ) – – वैराग्य की अवधारणा संसार के सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में अवश्य पायी जाती है लेकिन प्रोटेस्टेण्ट धर्म में वैराग्य की प्रकृति अन्य धर्मों में वैराग्य के रूप से बिलकुल भिन्न है । संसार के विभिन्न धर्मों में वैराग्य का सम्बन्ध जहाँ सांसारिक दायित्वों से विमुख हो जाना अथवा एक सक्रिय जीवन को छोड़ देना है वहीं प्रोटेस्टण्ट धर्म एक ऐसे वैराग्य का प्रधानता देता है जिसमें व्यक्ति धन लो उपाजित करता है लेकिन उसके संचय स ।वैराग्य ले लेता है । इसका तात्पर्य है कि प्रोटेस्टेण्ट वैराग्य धन को संचित करने के स्थान पर उसका अधिक से अधिक उपयोग करने पर बल देता है । यह धर्म जीवन को नश्वर और गलतियों से युक्त मानता है । इसलिए प्रोटेस्टेण्ट आचार यह है कि जय तक जीवन है तब तक अधिक से अधिक श्रम करके धन उपार्जित करना चाहिए और अधिक से अधिक आनन्द प्राप्त करने के लिए धन का उपभोग करना चाहिए । इसका तात्पर्य है कि प्रोटेस्टेण्ट वैराग्य ने व्यक्तियों की सुविधा से सम्बन्धित बस्तुओं के उत्पादन को बढ़ाने में विशेष योगदान दिया । वेबर का कथन है कि प्रोटेस्टेण्ट धर्म का यह आचार बहुत बड़ी बीमा तक पूंजीवाद के सार के समकक्ष है ।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कारण तथा परिणाम पर विचार

 ( Consideration of Cause and Effect )

 

पूंजीवाद की विशेषताओं तथा प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचारों के बीच पायी जाने वाली उपर्युक्त समानताओं को स्पष्ट करने के बाद वेबर ने इस प्रश्न पर विचार किया कि इन दोनों में कौन कारण है तथा कौन परिणाम ? वेबर ने यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया कि धार्मिक आचारों के प्रभाव से ही कुछ समाजों में आर्थिक जीवन तर्कपूर्ण बना जबकि कुछ समाजों में आर्थिक जीवन में ताकिकता का स्थान बहुत गौण रह गया । इस सम्बन्ध में यह भी कहा जा सकता है कि स्वयं पूंजीवाद की विशेषताएँ भी प्रोटेस्टेण्ट आचारों के विकास का कारण हो सकती हैं लेकिन ऐसा निष्कर्ष इसलिए सही नहीं है कि जिन समाजों में प्रोटेस्टेण्ट धर्माचार अथवा इससे मिलते – जुलते धर्माचार विकसित नहीं हुए , वहाँ पूंजीवादी प्रणाली के आधार पर आर्थिक विकास आरम्भ हो जाने के बाद भी वह कुछ समय बाद रुक गया । इसका स्पष्ट तात्पर्य यह है कि धर्म के आचार कारण हैं जबकि पूंजीवाद का विकास उसका परिणाम है । वेबर ने यह स्पष्ट किया कि पूंजीवाद वे विकास पर प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचारों का प्रभाव किस सीमा तक पड़ा है , इसे निश्चित नहीं किया जा सकता लेकिन एक कारण के रूप में इसे तब तक मान्यता दी जा सकती है जब तक पूंजी वाद के विकास का कोई दूसरा सुदृढ़ आधार न खोज लिया जाय । ३० प्रोटेस्टेण्ट आचार तथा पूंजीवाद के विकास के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए वेबर ने बतलाया कि संसार के सभी धर्मों का विकास कुछ विशेष विचारों के सन्दर्भ में हुआ है । सच तो यह है कि जनसाधारण की मनोवृत्तियों तथा व्यवहार के ढंगों को प्रभावित करने में वहाँ के पुरोहितों और धर्माचायों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होती है । पुरोहित वर्ग अपने धर्म के आचारों के आधार पर ही जन सामान्य के जीवन को प्रभावित करता है । अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए वेबर ने संसार के सभी बड़े धर्मों का उदाहरण लेकर यह दिखलाया कि किस प्रकार इन धर्मों के आचारों ने वहाँ की आर्थिक व्यवस्था को प्रभावित किया है । उदाहरण के लिए , हिन्दू धर्म तथा बौद्ध धर्म ने पारलौकिक मोक्ष तथा संसार परित्याग की अवधारणा को प्रोत्साहन दिया जिसका स्पष्ट प्रभाव कृषि पर आ रित एक सरल अर्थ – व्यवस्था के रूप में देखने को मिलता है । प्रारम्भिक मत भी अलौकिक आचारों पर जोर देने के कारण उन प्रेरणाओं को विकसित नहीं कर सका जो पूंजीवाद के विकास के लिए आवश्यक हैं । इसी तरह बेबीलोन से यहदियों को निकाल देने के बाद जूडा धर्म भी निम्न श्रेणी के व्यक्तियों का धर्म रह गया । 31 इसके फलस्वरूप इसने परम्परावाद पर अधिक जोर दिया , न कि व्यवसाय सम्बन्धी दायित्वों पर । इस आधार पर वेबर ने स्पष्ट किया कि समाज में साधारण लोग अपनी सांसारिक आवश्यकताओं और आकांक्षओं को पूरा करने के लिए ही धर्म से प्रभावित होते हैं । वे धर्म से इसलिए प्रभावित नहीं होते कि किन्हीं बड़े धार्मिक सिद्धान्तों से उनका कोई लगाव होता है । प्रोटेस्टेण्ट तथा कैथोलिक धर्म के आचारों की भिन्नता तथा उनके विभिन्न प्रभावों की सहायता से भी पूंजीवाद के विकास में धार्मिक आचारों के योगदान को समझा जा सकता है । कैथोलिक धर्म के आचार मेहनत के जीवन को ईश्वर द्वारा दिया गया दण्ड मानते हैं । यह आचार धन के संग्रह तथा सांसारिक समृद्धि को मान्यता नहीं देते । इनमें सांसारिक जीवन की अपेक्षा पारलौकिक जीवन पर अधिक बल दिया गया है । साथ ही कैथोलिक धर्माचार एक ऐसे जीवन – चक्र में विश्वास करते हैं जिसमें पाप करने , उसका प्रायश्चित करने , उससे मुक्ति पाने तथा पुनः नए पाप करने के चक्र का विधान है । 32 यह सभी धर्माचार वे हैं जो पूंजीवाद की विशेषताओं के अनुकूल नहीं हैं । यही कारण है कि इटली , स्पेन तथा बेबीलोन जैसे देशों में , जहाँ कैथोलिक धर्माचार अधिक प्रभावपूर्ण हैं , वहाँ पूंजीवाद का अधिक विकास नहीं हो सका । इसके विपरीत , इंग्लण्ड , अमरीका तथा योरोप के उन देशों में जहाँ प्रोटेस्टेण्ट धर्म का प्रभाव अधिक है वहाँ पूंजीवाद का विकास भी सबसे अधिक हुआ । इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचार ही वे कारण हैं – जिन्होंने अपने मानने वालों की मनोवृत्तियों को एक विशेष ढंग से प्रभावित करके ” पूंजीवाद के विकास में योगदान किया । इस तरह धार्मिक आचारों तथा पूंजीवाद के सम्बन्ध को स्पष्ट करते हए वेबर ने यह निष्कर्ष दिया कि ” इतिहास की घटनाओं के कारणों की खोज करने में मेरा उद्देश्य आर्थिक कारकों के स्थान पर पूरी तरह धार्मिक कारकों को स्थापित कर देना नहीं है । यह भी सम्भव है कि आर्थिक कारक ही धार्मिक आचारों को प्रभावित करते हों । लेकिन इनमें से किसी भी एक को ‘ कारण ‘ और दूसरे को ‘ परिणाम ‘ मानने से पहले ऐतिहासिक और तुलनात्मक आधार पर विभिन्न समाजों का अध्ययन कर लेना अनिवार्य है । ” यदि इस दृष्टिकोण से विचार किया जाये तो निश्चय ही धार्मिक आचारों को पूंजीवाद के विकास का कारण माना जा सकता है ।

 

समालोचना ( Critical Appraisal ) – धर्म के समाजशास्त्र की विवेचना में वेबर की प्रमुख रुचि यह स्पष्ट करने में रही कि संसार के विभिन्न धर्मों के आचारों का आर्थिक क्रियाओं पर क्या प्रभाव पड़ा । इसके लिए वेबर ने केवल धार्मिक आचारों तथा आर्थिक व्यवहारों के सह – सम्बन्ध को ही स्पष्ट नहीं किया बस्कि सामाजिक संस्तरण पर भी धार्मिक विचारों के प्रभाव को स्पष्ट करने का प्रथल किया । उन्होंने यह बतलाया कि किस प्रकार प्रोटेस्टेण्ट धर्म के उपदेशकों , कन्फ्यूशियस विद्वानों , हिन्दू ब्राह्मणों तथा यहदी लेवी और पैगम्बरों की अपनी – अपनी एक अलग जीवन – शैली थी तथा किस प्रकार उन्होंने अपने धार्मिक आचारों के द्वारा सामाजिक संस्तरण तथा आर्थिक क्रियाओं को एक विशेष रूप देने का प्रयत्न किया । इस सम्पूर्ण विवेचना के द्वारा वेबर ने मार्क्स से असहमत होते हुए धार्मिक आचारों की भिन्नता को ही विभिन्न समाजों में पायी जाने वाली आर्थिक व्यवस्थाओं की भिन्नता का कारण मान लिया । इसके बाद भी अनेक विद्वानों ने वेबर की धर्म सम्बन्धी विवेचना से असहमति व्यक्ति की है । सॉरोकिन ने लिखा है कि वेबर ने पूँजीवाद के विकास पर धार्मिक आचारों के प्रभाव को स्पष्ट करने के लिए धर्म की जिस ढंग से विवेचना की है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि उनका विश्लेषण धर्म के समाजशास्त्र से सम्बन्धित न होकर संस्कृति के विश्लेषण से अधिक सम्बन्धित है । कुछ दूसरे आलोचक यह मानते हैं कि वेबर की व्याख्या से ऐसा प्रतीत होने लगता है कि पूंजीवाद की उत्पत्ति ही प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचारों के कारण हुई । * वेबर ने यद्यपि इस आलोचना का खण्डन यह कहकर किया है कि उनका उद्देश्य पूंजीवाद की उत्पत्ति को स्पष्ट करना न होकर पूंजीवाद के विकास के एक प्रमुख कारण को दंढना रहा है , लेकिन इन दोनों दशाओं को एक – दूसरे से पृथक् कर सकना बहुत कठिन है । प्रोफेसर बेन्डिक्स ने कुछ आलोचकों का सन्दर्भ देते हुए कहा है कि धर्म के समाजशास्त्र की व्याख्या में वेबर ने अनेक स्थानों पर पूर्वाग्रहों से युक्त विचार दिए हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न धमों के आचारों का अध्ययन करते समय वेबर केवल उन्हीं धर्माचारों को प्रकाश में लाना चाहते थे जो उनकी परिकल्पना को प्रमाणित कर सकें । साथ ही , वेबर ने धार्मिक आचारों की विवेचना में तो ऐति हासिक काल से लेकर वर्तमान सुधार आन्दोलनों तक की चर्चा की है लेकिन भारत , चीन तथा इजरायल में अतीत की उन आर्थिक उपलब्धियों को स्पष्ट नहीं किया जो वेवर की अवधारणा के अनुरूप एक विकसित ताकिकता पर आधारित थीं । यह भ सच है कि पश्चिम में पूजीवाद का विकास केवल प्रोटेस्टेण्ट आचारों का ही परिणाम नहीं था बल्कि यह पश्चिम की सांस्कृतिक विरासत से भी सम्बन्धित रहा है । कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं कि वेबर के विवेचन में वैज्ञानिकता की अपेक्षा अर्थ तात्विकता को अधिक महत्त्व दिया गया है । इन समस्त आलोचनाओं के बाद भी यह कहा जा सकता है कि वेबर ने एक विकसित पद्धतिशास्त्र तथा गहन अन्तदष्टि के द्वारा आर्थिक सम्बन्धों की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न धर्मों के आचारों के प्रभाव को जिस रूप में स्पष्ट किया , वह धर्म के समाजशास्त्र में निश्चय ही वेबर का एक महत्त्वपूर्ण योगदान है । वेबर का सम्पूर्ण विवेचन ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक पद्धतियों के उपयोग पर आधारित रहा जिसके फलस्वरूप उनके विचारों की सरलता से आलोचना कर सकना सम्भव नहीं है ।

 

 

 

 

तीन स्तरों का नियम

 ( The Law of Three Stages )

 

 

 कॉम्ट द्वारा प्रतिपादित यह नियम सामाजिक उदाधिकास ( Social Evolu tion ) की प्रकृति को स्पष्ट करने से सम्बन्धित है । मह नियम कॉम्ट की उस मान्यता का स्पष्ट करता है जिसमें उनका कहना है कि समाज का विकास कुछ निश्चित नियमों के आधार पर ही होता है । कॉम्ट की बौद्धिक प्रतिभा इसी तथ्य से प्रमाणित हा जाती है कि उन्होंने इस नियम का प्रतिपादन अल्पायु में ही कर दिया था ।

 

 तीन स्तरों के नियम की चर्चा करते हए कॉम्ट ने बतलाया कि व्यक्ति के चिन्तन करने के तीन स्तर होते हैं अर्थात विभिन्न समाजों अथवा विभिन्न कालों में व्यक्ति विभिन्न नासक अवस्थाओं से गजरते हए चिन्तन तथा विकास के मार्ग पर आगे बढ़त हा न बतलाया कि प्रत्येक समाज में अधिकांश व्यक्तियों का मस्तिष्क लगभग न रूप से चिन्तन करता है , इसीलिए एक निश्चित काल में समाज की चिन्तन । किसी एक अवस्था के अन्तर्गत रखा जा सकता है । सान स्तरों के नियम की चर्चा करते ना कॉस्ट ने लिखा है कि हमार की प्रत्येक शाखा तीन विभिन्न सैद्धान्तिक अवस्थाओं से होकर गुजरती है जिन्हें हम आध्यात्मिक अवस्था , अब – तात्विक अवस्था एवं प्रत्यक्षवादी अवस्था कह सकते हैं । कॉस्ट यह स्वीकार करते है कि व्यक्ति अपने सम्पूर्ण जीवन में कल्पना पर आधारित विश्व के महान सिद्धान्तों और वैज्ञानिक ( प्रत्यक्षवादी ) तरीकों से चिन्तन करता है । व्यक्तियों द्वारा किये जाने वाले चिन्तन के यह विभिन्न स्तर जब पूरे समूह के चिन्तन में बदल जाते हैं तब सम्पूर्ण समाज के चिन्तन की एक विशेष अवस्था का निर्धारण होता है । कास्ट द्वारा व्यक्त विचारों को सरल करते हुए अब्राहम एवं मॉर्गन से लिखा है कि , ” एक व्यक्ति अपने बचपन में अधिप्राकृतिक ( Supernatural ) शक्ति के प्रति अन्धविश्वास रखता है और साधारणतया उससे भयभीत भी रहता है । किशोरावस्था में वही व्यक्ति अन्धविश्वासों से मुक्त होकर विश्व के सिद्धान्तों के आधार पर चिन्तन करने लगता है या सामाजिक मूल्यों और नैतिक मानदण्डों को स्वीकार करता है । वृद्धावस्था तक पहुँचते पहुंचते वही व्यक्ति व्यावहारिक हो जाता है और प्रत्यक्षवादो अथवा वैज्ञानिक धरातल पर विचार करने लगता है । ” 18 / अब्राहम एवं मॉर्गन द्वारा व्यक्त इन विचारों को यदि हम एक व्यक्ति के जीवन के उदाहरण से समझने का प्रयत्न करें तो देखेंगे कि बचपन में व्यक्ति उन बातों में रुचि रखते हैं जिनमें भूत – प्रेत , पगियों या काल्पनिक ईश्वरीय विश्वासों की प्रधानता होती है । युवावस्था में व्यक्ति की रुचियों के केन्द्र में परिवर्तन होने लगा है । और वे प्रेम , संघर्ष , आथिक अथवा राजनीतिक सिद्धान्तों के सन्दर्भ में चिन्तन करने लगते हैं यद्यपि इन व्यावहारिक सन्दर्भो में चिन्तन करने के बाद भी युवा पीढ़ी भावनात्मक आधार पर ही चिन्तन करती है इसीलिए कॉम्ट इस मध्य अवस्था को तात्विक अथवा अर्द्ध – तात्विक चिन्तन स्तर के रूप में स्वीकार करते हैं । वृद्धावस्था तक पहुँचते – पहुंचते व्यक्ति कल्पनावाद और भावनात्मकता को छोड़कर पूर्णतया । सामाजिक वास्तविकताओं के आधार पर व्यावहारिक चिन्तन करने लगता है । वह प्रत्येक घटना अथवा क्रिया के परिणामों पर सोच – विचार कर ही निर्णय लेता है । इसे इम चिन्तन का प्रत्यक्षवादी स्तर कह सकते हैं । यदि चिन्तन के विकास को सम्पूर्ण समाज के सन्दर्भ में देखा जाये तो भी यह क्रम लगभग इन्हीं अवस्थाओं के रूप में देखने को मिलता है । इस दृष्टिकोण से आवश्यक है कि कॉम्ट द्वारा प्रतिपादित चिन्तन के तीनों स्तरों की प्रकृति को समझने का प्रयास किया जाये ।

 

( A) ईश्वरीय अथवा धार्मिक स्तर ( Theological Stage )

( B ) तात्त्विक अथवा अमूर्त स्तर ( Metaphysical Stage )

( C ) प्रत्यक्षवादी स्तर ( Positive Stage )

 

 

( A) ईश्वरीय अथवा धार्मिक स्तर ( Theological Stage )

 

इस प्राथमिक अवस्था में व्यक्ति प्राकृतिक या सामाजिक घटनाओं के कार्य – कारण स कारण सम्बन्धों ( Causal Relationship ) की खोज ईश्वरीय  आधार पर करता है । ” कॉम्ट द्वारा प्रतिपादित इस विचार की व्याख्या इन शब्दों में कर सकते हैं कि जब व्यक्ति अथवा समाज चिन्तन की . इस प्रथम अवस्था में रहता है तब समाज में घटित होने वाली प्रत्येक घटना के कारणों की खोज बद ईश्वरीय अथवा धार्मिक विश्वासों के आधार पर करता है । उदाहरण के लिए , हम कह सकते हैं कि यदि कोई व्यक्ति किसी दुर्घटना का शिकार हो जाय और वह इस दुर्घटना के वास्तविक कारण को समझने की जगह ईश्वरीय , प्रकोप , भाग्य अथवा किसी अपशकुन को इसका कारण मानने लगे तब उसके चिन्तन के इस स्तर को ईश्वरवादी अथवा धार्मिक स्तर का चिन्तन कहा जायेगा । स्पष्ट है कि चिन्तन का यह स्तर कल्पनावादी होता है । आधुनिक समाजों में भी अनेक व्यक्ति चिन्तन के इसी स्तर पर हो सकते हैं । उदाहरण के लिए , यदि परीक्षा के दिनों में विद्यार्थी कुछ प्रश्न ही पढ़कर परीक्षा देने जाते हैं तथा जब परीक्षा परिणाम निकलता है और वे फेल हो जाते हैं तब उनमें से कुछ या सभी यह सोच सकते हैं कि ईश्वर की इच्छा से ही वे परीक्षा में सफल नहीं हो सके । इस प्रकार जब व्यक्ति घटनाओं के कार्य – कारण का सम्बन्ध ईश्वर या अलौकिक शक्ति से जोड़ने लगता है तब वह ईश्वरीय या धार्मिक अवस्था के स्तर पर रहता है । आगस्त कॉम्ट ने चिन्तन के इस स्तर को तीन विभिन्न उप – स्तरों में वर्गीकृत किया है , जो इस प्रकार हैं :

 

1जीवित सत्तावाद ( Fetishism )  – कॉम्ट का विचार है कि चिन्तन की इस प्राथमिक अवस्था में व्यक्ति प्रत्येक जड़ अथवा चेतन वस्तु में जीवन को स्वीकार करता है । उसका यह विश्वास होता है कि कुछ विशेष अधिप्राकृतिक शक्तियां तथा वस्तुओं में विद्यमान आत्मा ही उसके व्यवहारों और परिणामों को प्रभावित करती हैं । उदाहरण के लिए , यदि कोई व्यक्ति बाढ़ में बह जाता है और किसी पेड़ की शाखा को पकड़कर बच निकलता है तब ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति यदि यह स्वीकार करने लगे कि उस पेड़ की जीवित मात्मा ने ही उसकी रक्षा की , तब ऐसी स्थिति में हम कह सकते हैं कि वह व्यक्ति ईश्वरीय स्तर की आत्मावादी अवस्था में चिन्तन कर रहा है । कॉम्ट का कथन है कि चिन्तन का यह स्तर विकास के आदिम स्तर का प्रतिनिधित्व करता है । सम्बन्धी विचारों से हटकर कुछ एस जिनका सम्बन्ध अनेक देवान्द न केवल तरह – तरह की जादु मानने लगता है कि विभिन्न

 

2 . बहुदेवत्ववाद ( Polytheism ) कॉम्ट का कथन है कि ईश्वरीय स्तर स दूसरी अवस्था में व्यक्ति का धार्मिक चिंतन वस्तुओं के जीवन तथा आत्मा चारों से हटकर कुछ ऐसे अलौकिक विश्वासों में केन्द्रित होने लगता है व अनेक देवी – देवतामों से होता है । चिन्तन की इस अवस्था में व्यक्ति तरह की जादुई शक्तियों में विश्वास करने लगता है बल्कि वह यह भी पता है कि विभिन्न क्षेत्रों में उसकी सभी क्रियाएं किसी – न – किमी देवी – देवता की प्रसन्नता अथवा अप्रसन्नता का ही परिणाम हैं । उदाहरण के लिए , निर्धनता कारण लक्ष्मी का प्रकोप , अतिवृष्टि या अनावृष्टि का कारण इन्द्र का पर तूफान का कारण पवन का प्रकोप आदि मान्यताएँ चिन्तन के इसी स्तर करती हैं ।

 

  3 .एकेश्वरवाद ( Monotheism ) ज्यामिक अथवा ईश्वरीय चिन्तन की इस अन्तिम अवस्था में कॉम्ट यह स्वीकार करते हैं कि अलग – अलग प्रकार की पट नाओं के पीछे विभिन्न देवी – देवताओं को कार्य – कारण के रूप में स्वीकार करने के कच्छ समय पश्चात् व्यक्ति में यह विश्वास होने लगता है कि उसके समस्त व्यवहारों का संचालन विभिन्न देवी – देवताओं से न होकर किसी एक केन्द्रित शक्ति अथवा सर्वशक्ति मान ईश्वर की इच्छा से ही होता है । इस प्रकार जब व्यक्ति समस्त प्रकार की प्राकृतिक और सामाजिक घटनाओं के कार्य – कारण के रूप में एक ईश्वर की शक्ति को ही स्वीकार करता है तब वह एकेश्वरवाद के चितन की अवस्था के अन्तर्गत होता है । कॉम्ट के मतानुसार , धार्मिक स्तर ( Theological Stage ) में ये तीनों अवस्थाएँ ( प्रेतवाद , बहुदेवत्ववाद और एकेश्वरवाद ) एक के बाद एक के क्रम से आती हैं । “

 

 ( B ) तात्त्विक अथवा अमूर्त स्तर ( Metaphysical Stage )

 

  यह दूसरी अवस्था एक संक्रमणकालीन अवस्था है । कॉम्ट के मतानुसार चिन्तन की इस अवस्था का प्रारम्भ यूरोप में सन् 1300 ई० के पश्चात् हुआ और यह अवस्था बहुत अधिक समय तक नहीं रही । तात्त्विक अवस्था में व्यक्ति के चिन्तन में सैद्धान्तिकता के साथ अमूर्त शक्तियों के विश्वास का भी समावेश रहता है । इसका तात्पर्य है कि चिन्तन की इस अर्द्ध – तात्त्विक अवस्था में व्यक्ति भौतिक या वास्तविक धरातल पर घटना के कार्यकारण की खोज करता है किन्तु उसके द्वारा विचार किए गये निर्णयों में अलौकिक शक्तियों के विश्वास का भी कुछ प्रभाव बना रहता है । उदाहरण के लिए , यदि कोई व्यक्ति स्कूटर को तेज गति से चलाने के कारण दुर्घटनाग्रस्त हो जाने पर यह विचार करे कि दुर्घटना का कारण स्कूटर को अधिक तेज गति से चलाना अथवा ब्रक कमजोर होना था ता इसका तात्पर्य है कि वह तात्त्विक या भौतिक धरातल पर विचार करने का करता है किन्तु अन्त में यदि वह यह भी सोचने लगे कि वह तो रोज ही स्कूटर चलाता था किन्तु आज ईश्वर को यही मंजर था तो ऐसी स्थिति में उस व्या चिन्तन स्तर अर्द्ध – तात्त्विक अवस्था में ही माना जायेगा । कॉम्ट द्वारा व्यक्त तात्त्विक अवस्था से सम्बन्धित विचारों के आधार पर हम कह सकते है । व्यक्ति या समाज के अधिकांश सदस्य सांसारिक सिद्धान्तों के साथ – साथ अधिना धरातल पर भी विचार करते हैं तो वे व्यक्तिमा  द्वारा व्यक्त अर्द्ध किते हैं कि जब साथ अधि – प्राकृतिक अवस्था में रखता है । कॉम्ट का मत है कि इस अवस्था में व्यक्ति की ताकिक क्षमता का विकास होने लगता है और व्यक्ति ईश्वरवादी चिन्तन को छोड़कर कुछ अमूर्त शक्तियों Abstract Forces ) अथवा सिद्धान्तों को घटनाओं के कार्य – कारण के रूप में देखने लगता है । इसीलिए कॉम्ट ने लिखा है कि तात्त्विक अवस्था , धामिर्क अवस्था के बाद और प्रत्यक्षवादी अवस्था के पूर्व की स्थिति है ।

 

 ( C ) प्रत्यक्षवादी स्तर ( Positive Stage )

 

 कॉम्ट द्वारा प्रस्तुत चिन्तन का यह तीसरा स्तर प्रत्यक्षवादी अथवा वैज्ञानिक स्तर के नाम से जाना जाता है । कॉम्ट के मतानुसार ” उन्नीसवीं सदी का उदय ही प्रत्यक्षवादी स्तर का प्रारम्भ है जिसमें वैज्ञानिक अवलोकन ने कल्पनात्मक चिन्तन । पर विजय प्राप्त की है । ” 20 कॉम्ट का कथन है कि चिन्तन की प्रत्यक्षवादी अवस्था में व्यक्ति किसी घटना के कार्य – कारण सम्बन्धों की खोज न तो दैविक आधार पर करता है और न ही वह भावनात्मक धरातल पर निर्णय लेता है , बल्कि इस अवस्था में व्यक्ति घटनाओं का विश्लेषण अवलोकन और परीक्षण के आधार पर करता है । स्वयं कॉम्ट ने प्रत्यक्षवादी अवस्था की विवेचना करते हुए लिखा है कि , ” चिन्तन की इस अन्तिम अवस्था में व्यक्ति का मस्तिष्क निरपेक्ष अवधारणाओं और विश्व की उत्पत्ति सम्बन्धी घटनाओं आदि के कार्य – कारण सम्बन्धों को जानने का प्रयास छोड़ कर प्रकृति और समाज के नियमों की क्रमिकता तथा समरूपता के सम्बन्धों की खोज में लग जाता है । इस अवस्था में अवलोकन ( observation ) और परीक्षण को ही महत्त्व दिया जाता है । प्रत्यक्षवादी चिन्तन के स्तर पर व्यक्ति इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि मनुष्य अवलोकन के द्वारा तथ्यों को प्राप्त करके तथा उनके वर्गीकरण और परीक्षण द्वारा तार्किक आधार से चिन्तन करके ही विभिन्न घटनाओं के कार्य कारण सम्बन्धों को समझ सकता है । ना Vइस प्रकार कॉम्ट ने मानव – मस्तिष्क के चिन्तन के तीन स्तरों के आधार पर समाज की प्रगति के तीन विभिन्न चरणों को स्पष्ट किया है । कॉम्ट इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि विश्व का प्रत्येक समाज चिन्तन की इन तीन अवस्थाओं से होकर गुजरता है । इसके साथ ही वे यह भी मानते हैं कि किसी एक काल में एक समाज में तीनों प्रकार के चिन्तन के स्तर व्यक्तियों के मध्य पाये जा सकते है । इसका तात्पर्य यह है कि कॉस्ट ने यह भी स्वीकार किया कि किसी भी समाज चिन्तन की प्रत्येक अवस्था अपने पर्ण या समग्न रूप में नहीं पाई जा सकती ह भारत कॉम्ट द्वारा प्रतिपादित इन विचारों के विश्लेषण के आधार पर रेमण्ड ऐ oad Aron ) ने अपनी पस्तक ‘ मेन करेन्टस इन सोशियोलोजाकल था ( Main Currents in Sociological Thought ) में चिन्तन के तीन स्तरों में विकास – कम में समाजों के विभिन्न स्वरूपों को भी दर्शाने का प्रयास किया है । उनले द्वारा प्रस्तुत विश्लेषण इस प्रकार है : चिन्तन – स्तरबौद्धिकता क्रियात्मकता भावनात्मकता ( Stages of Thinking ) ( Intellegence ) ( Activity ) ( Affectivity ) ईश्वरीय चिन्तन स्तर जीवित सत्तावाद सैनिक सत्ता अहमवादी प्रवृत्ति बहुदेवत्ववाद एकेश्वरवाद तात्त्विक चिन्तन स्तर अमूर्तता प्रत्यक्षवादी चिन्तन स्तर प्रत्यक्षवाद औद्योगिक समाज परार्थवादी प्रवृत्ति –

 

 रेमण्ड ऐरों द्वारा व्यक्त इन विचारों से स्पष्ट होता है कि कॉम्ट ने चिन्तन के तीन स्तरों के आधार पर सामाजिक परिवर्तन की एक ऐतिहासिक रूपरेखा प्रस्तत की थी । उक्त चार्ट के आधार पर हम कह सकते हैं कि कॉम्ट ने चिन्तन के जिन विभिन्न स्तरों को स्पष्ट किया वे व्यक्ति को बौद्धिकता , क्रियात्मकता और भावनात्मक धरातल पर प्रभावित करते हैं । कॉम्ट के मतानुसार जब समाज में चिन्तन का स्तर ईश्वरवादी होता है तब व्यक्ति बौद्धिक धरातल पर अधि – प्राकृतिक विश्वासों से प्रभावित होता है । इस अवस्था में समाज में सैनिक सत्ता पाई जाती है और व्यक्तियों के मध्य अहमवादिता की बढ़ी हुई प्रवृत्ति देखने को मिलती है । अन्तिम अवस्था तक पहुंचते – पहुंचते समाज में वैज्ञानिक चिन्तन उत्पन्न हो जाता है और समाजों का स्वरूप सैनिक सत्ता या राजशाही से अलग होकर औद्योगिक समाजों के रूप में परिवर्तित होने लगता है । प्रत्यक्षवादी अवस्था में व्यक्ति की भावना परार्थवादी ( Altruistic ) हो जाती है । इस प्रकार कॉम्ट ने चिन्तन के स्तरों का उल्लेख केवल बौद्धिक धरातल पर ही नहीं किया है बल्कि इस सिद्धान्त के द्वारा उन्होंने समाज के स्वरूप और व्यक्तियों के मध्य पाये जाने वाले सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूपों की विवेचना भी की है ।

 

 

 

 

चिन्तन के तीन स्तर एवं सामाजिक संगठन

( Three Stages of Thinking and Social Organization )

 

 

कॉम्ट द्वारा प्रस्तुत चिन्तन के तीन स्तरों का नियम केवल बौद्धिक स्तर को ही प्रभावित नहीं करता बल्कि कॉम्ट ने सामाजिक इतिहास के अध्ययन के आधार पर यह दर्शाने का भी प्रयास किया कि , जैसे – जैसे समाज के चिन्तन की अवस्थाओं में परिवर्तन आता गया वैसे – वैसे समाज के संगठन का स्वरूप भी परिवर्तित होता गया । चिन्तन की अवस्थाओं के नियम पर आधारित सामाजिक संगठन के स्वरूप में होन । वाले जिस परिवर्तन की चर्चा कॉम्ट ने की है , उसे वे प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में । स्वीकार करते हैं । सामाजिक संगठनों के स्वरूप में होने वाले विकासशील परिवर्तन,कॉस्ट ने राज्यों के स्वरूपों के आधार पर किया है जिसे चिन्तन के विभिन्न स्तरों के सन्दर्भ में निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है

 

  1. पावरवादी स्तर एवं दैवीय नियम ( Theological Stage and Divine Law )

 

आगस्त कॉम्ट ने बतलाया कि जब समाज में व्यक्ति ईश्वरीय अथवा धार्मिक आधार पर चिन्तन करता है तब सामाजिक संरचना में राजनीतिक सत्ता का स्वरूप निरंकुश राजतन्त्र के रूप में विद्यमान रहता है । इस अवस्था में व्यक्ति ( समाज का सदस्य ) यह सोचता है कि प्रत्येक प्राणी को ईश्वर ने ही पैदा किया है और उसे जिस प्रस्थिति अथवा वर्ग में जन्म दिया गया है , उसी में जीवन व्यतीत करना उसका भाग्य है । व्यक्ति यह सोचता है कि राजा को ईश्वर की विशेष कृपा प्राप्त है तथा वह ईश्वर का ही प्रतिनिधि है । इसीलिए जनता स्वयं को ईश्वर के पुत्र की भांति मानती है और यह भी मानती है कि राजा की आज्ञा ही ईश्वर की आज्ञा ( Divine Law ) है । कॉम्ट का कथन है कि जब जनता राजाज्ञा को ईश्वरीय आदेश के रूप में शिरोधार्य करती है तब समाज में निरंकुश राजशाही का जन्म होता है । ऐसे समाजों में जनता राजनीति से दूर रहकर केवल राजा के आदेशों का पालन करना ही अपना नैतिक दायित्त्व मानती है । समाजशास्त्र के आधुनिक विचारक टी० पारसन्स और ए० शिल्स ( Talcott Parsons and Edward Shills ) ने इस प्रेरणा को काग्निटिव ( Cognitive ) या जिज्ञासात्मक प्रेरणा ‘ कहा है जिसमें व्यक्ति केवल विश्वास के आधार पर ही कार्य करता है । एमण्ड और पॉवेल ने विश्वास के आधार पर संचालित ऐसी राजनीति को संकीर्ण राजनीतिक संस्कृति ( Parachial Political Culture ) कहा है ।

 

( B) तात्त्विक स्तर एवं पुरोहितवाद ( Metaphysical Stage and Priesthood )

 

 जब व्यक्ति घटनाओं के कार्य – कारण को जानने के लिए भौतिक और ईश्वरीय ( दोनों आधारों पर ) आधारों पर साथ – साथ चिन्तन करता है तब ऐसी स्थिति को कॉम्ट ने तात्त्विक स्तर के रूप में स्वीकार किया है । चिन्तन के इस स्तर एवं राजनीतिक संगठन में सम्बन्ध स्थापित करते हुए कॉम्ट ने बतलाया कि जब समाज तात्त्विक चिन्तन के स्तर में रहता है तब समाज में सत्ता के स्तर पर पुरोहितवाद की स्थापना होती है । पुरोहितवाद की अवस्था में व्यक्ति ( समाज का सदस्य ) अमूत या अथवा सैद्धान्तिक विचारों में आस्था रखता है । व्यक्ति यह सोचने लगता है । म राजा ईश्वर का प्रतिनिधि नहीं है अपित पुरोहित ( Priest ) अथवा ( Rope ) ही ईश्वर का प्रतिनिधि ( Prophet of God ) है । जब सिद्धान्त रूप रिक्त पुरोहित को ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार करने लगता है तब ह विचार भी जन्म लेने लगते हैं कि राज्य के कार्यों का संचालन स्वयं ईश्वर हत के माध्यम से करता है तथा राजा की शक्ति भी पुरोहित के अधीन है ।कॉम्ट ने पुरोहितवाद की इस अवस्था का विवरण राजनीतिक इतिहास में चर्च राज्य ( Church State ) की अवस्था के रूप में दिया क्योंकि पश्चिमी यूरोप में नगर राज्य की स्थापना के पश्चात् ही चर्च राज्य की स्थापना हुई । भारतीय समाज के ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि यहाँ आदिकालीन राज्यों के बाद ईसा पूर्व में कुछ ऐसे राज्यों की स्थापना हुई थी जिनमें पुरोहितों का वर्चस्व था । उदाहरण के लिए , चाणक्य और चन्द्रगुप्त के काल को पुरोहितवाद के अन्तर्गत रखा जा सकता है । पुरोहितवाद ( Priesthood ) अथवा पोपवाद की अवस्था में जनता निरंकुश राजसत्ता को अमान्य करते हुए यह मानने लगती है कि सामाजिक तथा राजनैतिक संगठन का संचालन पुरोहित की सलाह के आधार पर ही होना चाहिए । एडवर्ड शिल्स और टॉल्काट पारसन्स ने इस दृष्टिकोण को विश्वासात्मक प्रेरणा ( Affective Orientation ) का नाम दिया है । एमण्ड और पॉवेल ने विश्वासात्मक प्रेरणा के आधार पर निर्मित राजनीतिक संस्कृति को ‘ भावनात्मक राजनीतिक संस्कृति ‘ ( Subjective Political Culture ) कहा है ।

 

 ( C ) प्रत्यक्षवादी स्तर एवं प्रजातन्त्र ( Positive Stage and Democracy )

 

आगस्त कॉम्ट ने चिन्तन के तीन स्तरों के नियम के आधार पर यह बतलाया कि जब समाज में व्यक्ति प्रत्यक्षवादी धरातल पर राज्य के कार्यों का अवलोकन एवं परीक्षण करता है तब समाज की राजनीतिक व्यवस्था का स्वरूप ( Form ) प्रजा तान्त्रिक हो जाता है । कॉम्ट प्रजातन्त्र को एक बेहतर अथवा उत्तम राजनीतिक संगठन के रूप में स्वीकार करते हैं । एडवर्ड शिल्स एवं टॉल्काट पारसन्स ने इस स्तर की प्रेरणा को ‘ मूल्यांकित प्रेरणा ‘ ( Evaluative Orientation ) के नाम से सम्बोधित करते हुए बतलाया कि इस स्तर में समाज का संगठन विभिन्न व्यवस्थाओं के गुणों और अवगुणों के आधार पर निर्मित होता है । एमण्ड और पॉवेल ने राजनीतिक व्यवस्था पर इस मूल्यांकित प्रेरणा के प्रभाव का उल्लेख किया है । उनके मतानुसार जब किसी समाज में व्यक्ति मूल्यांकित प्रेरणा से प्रभावित होकर राजनीतिक व्यवस्था से सम्बन्धित निर्णय लेते हैं तब समाज में सहभागी राजनीतिक संस्कृति ( Participant Political Culture ) का उदय होता है । आगस्त कॉम्ट ने बतलाया कि प्रत्यक्षवादी चिन्तन की अवस्था में समाज का तीव्र गति से औद्योगीकरण होने लगता है जिसके साथ – साथ समाज में प्रजातान्त्रिक मूल्यों की स्थापना होती है । कॉम्ट द्वारा प्रस्तुत उक्त विचार समाज और राज्य के परस्पर सम्बन्धों को स्पष्ट करते हैं । इन विचारों के आधार पर हम कह सकते हैं कि कॉम्ट ने तीन स्तरों के नियम द्वारा राजनीति और समाजशास्त्र के अन्तर्सम्बन्धों की ओर भी संकेत दिया ।

 

 

 

 

समाजशास्त्र के लिए , दुर्सीम का एक प्रमुख योगदान धर्म जैसे विवादपूर्ण विषय की व्यवस्थित विवेचना करके उसके सामाजिक स्वरूप को स्पष्ट करना है । दुर्चीम ने न केवल धर्म की उत्पत्ति को सामाजिक सन्दर्भ में स्पष्ट किया बल्कि धर्म के सामाजिक प्रकार्यों का विस्तार से वर्णन करके धर्म के विश्लेषण को एक नयी दिशा प्रदान की । धर्म की उत्पत्ति तथा धर्म के प्रकार्यों से सम्बन्धित दुीम के विचार उनकी अन्तिम पुस्तक ‘ धार्मिक जीवन के मूल स्वरूप ‘ ( The Elementary Forms of Religious Life ) में प्रस्तुत किये गये हैं । इस पुस्तक के बारे में रेमण्ड ऐरों ने लिखा है , ” दुर्थीम की यह पुस्तक इस दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि एक ओर इसमें सशक्त वैज्ञानिक आधार पर किया गया मौलिक चिन्तन देखने को मिलता है तो दूसरी ओर यह पुस्तक दुीम की सामाजिक प्रेरणाओं का एक स्पष्ट प्रमाण है । ” 29 इस पुस्तक में दुखीम द्वारा दिये गय विचारों को दो प्रमुख भागों में विभा जित करके स्पष्ट किया जा सकता है । पहला भाग धर्म की उत्पत्ति के सामाजिक सिद्धान्त से सम्बन्धित है जबकि दूसरे भाग को धर्म के प्रकार्यों से सम्बन्धित माना जा सकता है । दुर्थीम से पहले अनेक विचारकों जैसे टायलर ( E . B . Taylor ) , मैक्समूलर ( Max Muller ) तथा फेजर ( Frazer ) आदि ने विभिन्न आधारों पर धर्म की उत्पत्ति को स्पष्ट किया था । टायलर ( E . B . Taylor ) ने यह स्पष्ट किया था कि संसार के प्रत्येक समाज में धर्म की उत्पत्ति का वास्तविक आधार आत्मावाद ( Animism ) है ।  इसका तात्पर्य है कि आत्मा को प्रसन्न करने के लिए जिन क्रियाओं तथा विश्वासों का विकास हुआ , उन्हीं से धर्म की उत्पत्ति हुई । मैक्समूलर ( Max Muller ) जर्मनी के एक प्रमुख भाषा – विज्ञानी थे जिन्होंनेअनेक धर्म ग्रन्थों का विस्तृत अध्ययन करके यह निष्कर्ष दिया कि समाज में धर्म को उत्पत्ति प्रकृति की असीमित शक्ति के परिणामस्वरूप हुई । मैक्समूलर ने इसे प्रकृति वाद का नाम देते हए यह निष्कर्ष दिया कि प्रकृति की समस्त जड़ व चेतन वस्तुओं में एक जीवित सत्ता ( Animatism ) का विश्वास ही धर्म की उत्पत्ति का वास्तविक आधार है । जर ( Frazer ) ने बतलाया कि धर्म से मेरा तात्पर्य मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की सन्तुष्टि अथवा आराधना से है जिनके विषय में मनुष्यों को यह विश्वास हो कि वे प्रकृति और मानव जीवन को नियन्त्रित अथवा निर्देशित करती हैं । ”  इस प्रकार फेजर ने भी धर्म को कुछ अधिमानवीय अथवा अलौकिक शक्तियों से सम्बन्धित विश्वासों को व्यवस्था में रूप में ही स्पष्ट किया । दुर्थीम ने ऐसे सभी विचारों का खण्डन करते हुए बतलाया कि आत्मा अथवा प्राकृतिक शक्तियों की पूजा या उपासना के आधार पर धर्म जैसे जटिल सामाजिक तथ्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती । इसका कारण यह है कि धर्म एक सामाजिक घटना है तथा इसकी उत्पत्ति सामाजिक कारकों का ही परिणाम है । धर्म की परिभाषा देते हुए दुर्शीम ने लिखा है , ” धमं पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित अनेक विश्वासों तथा आचरणों की वह व्यवस्था है जो अपने से सम्बन्धित लोगों को एक नैतिक समुदाय से जोड़ती है । ”  इस कथन से स्पष्ट होता है कि धर्म से सम्बन्धित विश्वास उन पवित्रता सम्बन्धी विचारों का ही परिणाम हैं जिनकी प्रकृति सामाजिक होती है । धर्म इस लिए एक शक्तिशाली आधार है क्योंकि यह लोगों को नैतिक आधार पर जोड़कर सामाजिक संगठन को दृढ़ बनाता है । इस प्रकार दुर्शीम धर्म में ईश्वर अथवा किसी अधिप्राकृतिक शक्ति की अवधारणा को अनिवार्य नहीं मानते । इस सम्बन्ध में उन्होंने बुद्ध तथा कन्फ्यूशियस द्वारा बतलाये गये धर्म के सिद्धान्त का उल्लेख करते हुए कहा कि बौद्ध धर्म तथा कन्फ्यूशियसवाद में ईश्वर का कोई स्थान नहीं है । दुखीम के अनुसार धम की वास्तबिक अभिव्यक्ति ईश्वर नहीं बल्कि समाज है । यदि ईश्वर हा धर्म की वास्तविकता होता तो धर्म के रूप में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता । इसक विपरीत , सत्या राठ कि ” विचारों की यह प्रणाली जिसे धर्म कहा जाता है और लिका र्ण स्थान है , उसे प्रत्येक युग में व्यक्ति जीवन की आवश्य

– ऊर्जा प्राप्त करने के लिए परिवर्तित करता रहा है । ”  इसका तात्पर्य है कि धर्म की उत्पत्ति तथा धर्म की प्रकृति को सामाजिक आधार पर ही समझा जा सकता है । दीम के अनुसार “ समाज ही देवता है तथा स्वर्ग का साम्राज्य भी एक गौरवान्वित समाज के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । ” दुर्थीम ने धर्म सम्बन्धी विचार आस्ट्रेलिया की अरुण्टा जनजाति ( Arunta Tribe ) का अध्ययन करके प्रस्तुत किये । जिस समय दुर्थीस ने इस जनजाति का अध्ययन किया , उस समय तक यह जनजाति अपने आदिकालीन रूप में थी । इस स्थिति में दुर्थीम ने पुरातन प्रक्रियाओं को ज्ञात करने के लिए प्रतिनिधित्वपूर्ण निदर्शन के आधार पर इस जनजाति में पाये जाने वाले विश्वासों का अध्ययन किया । अपने – इस क्षध्ययन के आधार पर दुर्थीम ने बतलाया कि धर्म का महत्त्वपूर्ण सार यह है कि इसने सम्पूर्ण विश्व को दो भागों में विभाजित कर दिया है । इनमें से एक भाग को हम पवित्र ( Sacred ) कहते हैं तथा दूसरे को साधारण ( Profane ) दुर्थीम के अनुसार समस्त धर्मों का सम्बन्ध ‘ पवित्र ‘ पक्ष से ही होता है । इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि दुखीम द्वारा प्रस्तुत धर्म के सामाजिक सिद्धान्त को समझने के लिए सर्वप्रथम ‘ पवित्र ‘ तथा ‘ साधारण ‘ की अवधारणा को समझ लिया जाये । दुर्थीम के शब्दों में पवित्र वस्तुएँ “ वे हैं जिनकी अनेक निषेधों के द्वारा रक्षा की जाती है जबकि साधारण वस्तुएँ वे हैं जिन्हें अनेक निषेधों के द्वारा पवित्र वस्तुओं से दूर रखने का प्रयत्न किया जाता है । ” 36 इसका तात्पर्य है कि पवित्र वस्तुएँ सामू हिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती हैं अथवा इन्हें सम्पूर्ण समूह के द्वारा स्वीकार किया जाता है । इन पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित सभी विश्वास तथा क्रियाकलाप लोगों को एक नैतिक समुदाय के रूप में संगठित करते हैं । दूसरी ओर अपवित्र वस्तुओं की प्रकृति पवित्र वस्तुओं के ठीक विपरीत होती है । दुर्थीम के शब्दों में , ” अपवित्र वस्तुएँ वे हैं जिनके छूने पर प्रतिबन्ध होता है तथा जनसामान्य की भावना यह होती है कि कोई दण्ड न मिलने पर भी उनसे दूर ही रहना चाहिए । ”  हारणा के आधार पर कुछ विद्वान यह मानते हैं कि धार्मिक आधार पर विश्वासRA रीति – रिवाजों तथा आचरणों का विकास होता है , उन्हीं को दुर्सीम ने पवित्र वस्तु के रूप में स्पष्ट किया है । कुछ दूसरे विद्वानों का कथन । कि दुर्थीम ने प्रकृति में पायी जाने वाली वस्तुओं के प्रति लोगों के उस दृष्टिकोण को भी पवित्र वस्तु के रूप में स्पष्ट किया है जो अच्छाई से व्यक्ति को अधिक अच्छाई की ओर ले जा सकते हैं । स्वयं दुखीम के शब्दों में ” पवित्र वस्तुएँ अच्छाई की चरम – सीमा पर होती हैं । ” ‘ दुर्योम ने यह भी स्पष्ट किया कि विभिन्न धर्मों में पवित्र तथा साधारण वस्तुओं की धारणा अलग अलग हो सकती है । उनका कथन है कि पवित्र वस्तुओं का घेरा या क्षेत्र ( Circle ) सभी के लिए समान नहीं होता बल्कि विभिन्न धर्मों में इसका रूप एक – दूसरे से भिन्न हो सकता है । उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि संसार के सभी धर्मों का सम्बन्ध पवित्र वस्तुतों से होता है लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि सभी पवित्र वस्तुएँ धर्मिक होती हैं , यद्यपि सभी धार्मिक विश्वास तथा आचरण पवित्र अवश्य होते हैं । पवित्र को साधारण अथवा अपवित्र से दूर रखने के लिए ही अनेक तरह के विश्वासों , आचरणों तथा क्रिया – कलापों का जन्म होता है । इन्हीं विश्वासों , आचरणों तथा क्रिया – कलापों की सम्पूर्णता को हम धर्म कहते हैं । स्पष्ट है कि पवित्र वस्तुएँ अथवा पवित्रता की धारणा सामूहिक चेतना का प्रति निधित्व करती हैं तथा इसीलिए व्यक्ति अपने आपको इसके अधीन मानने लगता है । आदिकालीन समाजों में आज भी अनेक ऐसे त्यौहार तथा धार्मिक अनुष्ठान देखने को मिलते हैं जो सामूहिक शक्ति के प्रभाव को स्पष्ट करते हैं । पवित्रता की धारणा से उत्पन्न होने वाले विश्वास किस तरह धर्म को जन्म देते हैं , इसे दुर्थीम ने टोटमवाद के आधार पर स्पष्ट किया । दुीम ने टोटमवाद को ही सभी धर्मों का प्राथमिक रूप बताते हुए यह स्पष्ट किया कि आदिकालीन समाजों में टोटम सम्बन्धी विश्वासों के आधार पर ही ‘ पवित्र ‘ तथा ‘ साधारण ‘ के बीच भेद करने की भावना का आरम्भ हुआ । इस दृष्टिकोण से टोटम के अर्थ एवं इसकी विशेषताओं के सन्दर्भ में ही पवित्र तथा साधारण के विभेद को समझा जा सकता है । टोटम क्या है ? इसे स्पष्ट करते हुए दुीम ने बतलाया कि टोटम सामान्य वस्तुओं की तरह ही पशु , पौधा , चमकीला पत्थर अथवा लकड़ी का एक टुकड़ा मात्र हो सकता है , जिसे एक समूह के द्वारा पवित्र वस्तु के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है । व्यक्ति जिस वस्तु को टोटम के रूप में स्वीकार कर लेते हैं , उसकी शक्ति तथा उससे सम्बन्धित विश्वास पीढ़ी – दर – पीढ़ी बने रहते हैं यद्यपि व्यक्ति की कुछ हा समय बाद मृत्यु हो जाती है । दुखीम ने बताया कि कुछ लोग ऐसा मानते है । टोटम की पूजा भी ईश्वर की पूजा का ही प्रतीक है , लेकिन ऐसा दष्टिकोण जा नहीं है । ” दुखीम के अनुसार ” टोटम विशुद्ध रूप से अवैयक्तिक होता है . उसका कार इतिहास या नाम नहीं होता तथा इससे सम्बन्धित विश्वास अनेक क्रियाओं में आग _व्यक्त होते हैं । ” इस दृष्टिकोण से टोटम को परिभाषित करते हए उन्होंने पून : लिखा टोटम एक रहस्यपूर्ण अथवा पवित्र शक्ति अथवा उस सिद्धान्त में निहित एक विश्वास है , जो निषेधों के अस्वीकार करने पर दण्ड का प्रावधान करता है तथा जिसमें समह के नैतिक उत्तरदायित्व का समावेश होता है । ” दुर्शीम ने पुनः यह स्पष्ट किया कि ” हमें यह नहीं समझना चाहिए कि टोटम किसी पशु अथवा कुछ विशिष्ट प्रति माओं ( Images ) से सम्बन्धित विश्वासों का धर्म है बल्कि यह एक अज्ञात और अवैयक्तिक शक्ति है जिसे उसको मानने वाले सभी लोग एक साथ स्वीकार करते हैं । ” टोटम में अनेक ऐसी विशेषताओं का समावेश है जो इससे सम्बन्धित विश्वासों को धर्म के रूप में स्पष्ट करती हैं । टोटमवाद की विशेषताएँ इस प्रकार हैं :

 

( क ) कोई जनजाति अथवा समूह जिस पदार्थ अथवा जीव को अपना टोटम मानता है , उससे वह अपना एक रहस्यपूर्ण , पवित्र तथा अलौकिक सम्बन्ध मानने लगता है । भारतीय जननातियों के सन्दर्भ में दुर्थीम द्वारा बतलाई गयी इस विशेषता को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है । दक्षिण भारत के नीलगिरि पर्वत पर रहने वाली टोडा जनजाति भैस को अपना टोटम मानती है । टोडा लोगों का विश्वास है कि महाप्रलय के दिन एक भैंसा मागता हुआ नीलगिरि पर्वत पर चढ़ गया था तथा उसी की पूंछ से एक टोडा लटका हुआ था । इस प्रकार भैसा ही टोडा जनजाति का सबसे पहला पूर्वज है जिसे यह लोग एक पवित्र वस्तु मानकर अनेक ऐसे आचरण करते हैं , जिन्हें धार्मिक आचरण माना जाता है ।

 

 ( ख ) यह विश्वास किया जाता है कि अपने रहस्यपूर्ण सम्बन्धों के आधार पर टोटम समूह की रक्षा करता है । दुर्थीम का कथन है कि अरुण्टा जनजाति में यह विश्वास किया जाता है कि उनका टोटम समूह की रक्षा करने के साथ ही भविष्य में आने वाली विपत्तियों का भी उन्हें संकेत देता है । अरुण्टा जनजाति की तरह अनेक दूसरी जनजातियों में भी टोटम से सम्बन्धित इसी तरह के विश्वास पाये जाते हैं ।

 

 ( ग ) टोटम के प्रति एक समूह के सदस्यों की भावनाओं में भय , श्रद्धा तथा सम्मान का समावेश होता है । इसीलिए टोटम को मारना अथवा उसे हानि पहुंचाना निषिद्ध होता है । एक विशेष टोटम में विश्वास करने वाले लोग अपने शरीर पर उसके चित्र की गुदाई करवाना पसन्द करते हैं तथा कुछ विषेष अवसरों पर टोटम से सम्बन्धित वस्तुओं के प्रति विशेष श्रद्धा प्रदर्शित की जाती है । टोटम की पवित्रता को बनाये रखने के लिए समूह में अनेक निषेधों का प्रचलन हो जाता है तथा समूह में उन व्यक्तियों को दण्डित किया जाता है जो इन निषेधों का उल्लंघन करते हैं ।

 अनुसार टोटम से किसी जनजाति का जो रहस्यात्मक सम्बन्ध होता है उसी से समाज में पवित्रता की धारणा का जन्म होता है ।

 

इन विशेषताओं के आधार पर दुर्वीम ने बतलाया कि पवित्र विश्वासों के आधार पर एक विशेष नैतिकता का विकास होता है । यही नैतिकता सामूहिक चेतना की प्रकृति को प्रभावित करती है । इस प्रकार टोटम ही समूह के नैतिक जीवन का प्रतिनिधित्व करता है , अतः एक सामाजिक तथ्य के रूप में टोटम को ही सभी धर्मों का मूल स्रोत माना जाना चाहिए । टोटम की प्रकृति सामाजिक है , अधिप्राकृतिक नहीं । इस दृष्टिकोण से भी धर्म का आधार कोई आलौकिक शक्ति न होकर स्वयं समाज है । टोटम की उपयुक्त व्याख्या के आधार पर दुर्शीम ने यह स्पष्ट किया कि अस्ट्रेलिया की अरुण्टा जनजाति में विभिन्न समूह टोटम के आधार पर कुछ विशिष्ट विश्वासों तथा क्रिया – कलापों को पवित्र मानने हुए एक – दूसरे से सम्बन्धित रहते हैं तथा अपवित्र समझे जाने वाली घटनाओं से दूर रहते हैं । इस जनजाति में सामा जिक उत्सवों के अवसर पर एक गोत्र ( एक टोटम से अपनी उत्पत्ति में विश्वास करने वाले लोग ) के सभी सदस्य जब एक स्थान पर एकत्रित होते हैं तब प्रत्येक सदस्य को सामूहिक शक्ति की तुलना में अपनी व्यक्तिगत शक्ति बहुत गौण मालूम होती है । इसके फलस्वरूप व्यक्ति सामूहिक शक्ति के सामने नतमस्तक हो जाता है । उसके मन में समूह की शक्ति के प्रति भय , श्रद्धा और भक्ति की भावना उत्पन्न होने लगती है । इससे स्पष्ट होता है कि पवित्रता की धारणा में सामूहिक चेतना का समावेश होता है तथा इसीलिए पवित्रता से उत्पन्न होने वाले विश्वासों की व्यवस्था को व्यक्ति धर्म के रूप में स्वीकार कर लेते हैं । इसे स्पष्ट करते हुए दुर्शीम ने लिखा है कि ‘ ‘ एक दुनियाँ ( समाज ) वह है जिसमें व्यक्ति का दैनिक जीवन नीरस ढंग से व्यतीत होता है लेकिन दूसरी दुनियाँ वह है जिसमें वह उस समय तक प्रवेश नहीं कर सकता जब तक कि उसका सम्बन्ध ऐसी असाधारण शक्ति से न हो जाय जिसमें यह अपने अस्तित्व को ही न भूल जाय । पहली दुनियाँ साधारण . ( Profane ) है और दूसरी दुनियाँ पवित्र ( Sacred ) है । 38 सामाजिक तथ्यों की विवेचना में दुर्थीम ने यह स्पष्ट किया था कि प्रत्येक सामान्य सामाजिक तथ्य समाज के लिए कोई न कोई उपयोगी कार्य अवश्य करता है । दुर्थीम ने धर्म को भी एक सामान्य सामाजिक तथ्य मानते हुए व्यक्ति तथा समाज के लिए इसके अनेक प्रकार्यों का उल्लेख किया । उन्होंने बतलाया कि धर्म समाज में सामूहिक चेतना को बढ़ाकर सामाजिक एकता में वृद्धि करता है , यह समाज में एक नैतिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाता है ; एकीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देता है , सामाजिक संरचना को बनाए रखने में विशेष योगदान करता है , उपयोगी सामाजिक मूल्यों को संरक्षण देकर क्षण नेक व्यक्ति के अस्तित्व की रक्षा करता है तथा सामाजिक सहभागिता को बढ़ाता है । धर्म के यह प्रकार्य भी इसकी सामाजिक प्रकति को ही स्पष्ट करते हैं । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि धर्म के सभी अकार्य एक ओर समूह के लोगों को नैतिक बन्धन में बाँधने से सम्बन्धित हैं तो दूसरी ओर इनके द्वारा समूह की एकता तथा सुदृढ़ता में वृद्धि होती है । इस प्रकार धर्म एक विभेदकारी तथ्य नहीं है बल्कि सामाजिक संगठन में वृद्धि करने वाला एक प्रमुख आधार है । यही तथ्य धर्म की सामाजिक प्रकृति को स्पष्ट कर देता है ।

 

 

 

 

समालोचना ( Criticism )

 

 धर्म को एक सामाजिक तथ्य के रूप में स्पष्ट करके दुर्थीम ने एक अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया लेकिन अनेक विद्वानों ने दुर्थीम के धर्म सम्बन्धी विचारों की कटु आलोचना की है । सर्वप्रथम , यह कहा जाता है कि धर्म से सम्ब न्धित अपने विचारों को दुर्शीम ने आस्ट्रेलिया की अरूण्टा जनजाति को आधार मानकर प्रस्तुत किया तथा यह मान लिया कि यह एक ऐसी जनजाति है जो पुरातन प्रक्रियाओं का प्रतिनिधित्व करती है । वास्तविकता यह है कि अरुण्टा जनजाति को पुरातन प्रक्रियाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली जनजाति नहीं माना जा सकता । इसका तात्पर्य है कि जब दुर्थीम के अध्ययन का आधार ही वास्तविकता पर आधारित नहीं है तब उनके निष्कर्ष को किसी भी तरह सही नहीं माना जा सकता । गोल्डन वीजर ( Goldenweiser ) का कथन है कि दुर्थीम के इस निष्कर्ष में विश्वास नहीं किया जा सकता कि टोटमवाद ही धर्म की उत्पत्ति का सर्वप्रमुख आधार है । दुनियाँ में ऐसे अनेक समाज हैं जिनमें धर्म और टोटम का अस्तित्व एक – दूसरे से पृथक है । दूसरे , इस कथन में भी अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता कि केवल ‘ पवित्र ‘ और ‘ साधारण ‘ के विभेद के आधार पर ही धर्म जैसे जटिल तथ्य का विकास हो गया । यदि जनजातियों के सन्दर्भ में पवित्र और साधारण का विभेद किया जाय तब दुर्थीम के निष्कर्ष और अधिक अव्यावहारिक दिखलाई देने लगते हैं । इसका कारण यह है कि अपने आदिम जीवन में जनजातियाँ ‘ पवित्रता ‘ जैसे जटिल तथ्य का विश्लेषण करके धर्म को एक व्यवस्थित रूप नहीं दे सकतीं । तीसरे , धर्म की उत्पत्ति में दुर्चीम ने समाज अथवा सामाजिक कारकों को आवश्यकता से अधिक महत्व दे दिया है । दुर्थीम का यह कथन बहुत अतिश्योक्तिपूर्ण लगता है कि ‘ समाज – ही वास्तविक देवता है । ‘ दुर्वीम ने अपने कथन की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए समाज और ईश्वर के बीच जिस समानता को स्पष्ट किया है , उससे सहमत हो सकना बहुत कठिन है । अन्त में , मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के आधार पर भी दुीम के धर्म सम्बन्धी विचार सही प्रतीत नहीं होते । यह कहना कि ‘ धर्म की उत्पत्ति केवल भीड़ अथवा समूह की उत्तेजनाओं का परिणाम है ‘ , एक गलत दृष्टिकोण है । दुखीम ने धर्म के जिन सामाजिक प्रकार्यों का उल्लेख किया है , उनकी प्रकृति भी सर्वव्यापी तथा सर्वकालिक नहीं होती ।

 

 

 

धर्म के सिद्धांत

धर्म के मानवशास्त्रीय सिद्धांत मुख्य रूप से अलग-अलग समाजों में अलग-अलग समय में प्रचलित अलौकिक की विभिन्न अवधारणाओं की सामग्री की जांच करने से संबंधित रहे हैं। पहले के मानवशास्त्रियों ने भी कच्चे से विकसित रूपों में धर्म के विकास का पता लगाने की कोशिश की। हाल के सिद्धांत धर्म के कार्यों की रूपरेखा पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

जीववाद। आदिम धर्म के बारे में सबसे पहला मानवशास्त्रीय सिद्धांत, इसकी उत्पत्ति का पता लगाने और इसकी व्याख्या करने की कोशिश करते हुए, टाइलर द्वारा दिया गया था। उन्होंने कहा कि यद्यपि मूल कई प्रतीत होता है, फिर भी इसके पीछे एक ही विचार है, आत्मा में विश्वास (एनिमा); इसलिए इस सिद्धांत के लिए नाम जीववाद।

टाइलर के अनुमानित तर्क इस प्रकार थे: आदिम मनुष्य को कुछ अनुभव थे; अपने सपनों में वह सोते समय भी विभिन्न प्रकार की गतिविधियों में लगा रहता था; वह सपनों में अपने मृत पूर्वजों से मिले थे और उनके और अन्य प्राणियों के बारे में मतिभ्रम के अनुभव थे, जबकि वह जागरूक थे; उसने अपनी आवाज़ की गूँज सुनी; उसने तालाबों, तालों और नदियों में अपना प्रतिबिंब देखा; और वह स्वयं को अपनी छाया से अलग करने में असफल रहा। यहां तक ​​​​कि जब वह इन समझ से बाहर के अनुभवों को प्राप्त कर रहा था, तो समय-समय पर कुछ अधिक गहरा अर्थ भी हुआ होगा और आदिम मनुष्य के दिमाग को सोचने पर मजबूर कर दिया होगा; लोग मर गए होंगे। यह तबाही एक बड़ी बौद्धिक चुनौती रही होगी। वास्तव में ऐसा क्या हुआ था जिसने एक व्यक्ति के मौखिक और गैर-मौखिक कार्यों पर अचानक विराम लगा दिया था? वह वही दिखता था, लेकिन वह वैसा नहीं था। उसमें जरूर कोई अनदेखी चीज रही होगी जो बच निकली होगी, नजर नहीं आई होगी, जिससे वह मर गई होगी। यह इस प्रकार था कि एक ऐसी अनदेखी चीज, या शक्ति में विश्वास पैदा हुआ, जो लोगों में होने पर उन्हें जीवित रखती थी और उनके शरीर छोड़ने पर उन्हें मृत कर देती थी। ऐसी चीज या शक्ति को ‘आत्मा’ कहा जाता है। लेकिन यह कैसे हुआ कि जो सोता है, मृत्यु के समान है, वह मृत्यु नहीं थी, और यह कैसे हुआ कि लोगों को सपने में ये सभी विभिन्न अनुभव हुए, और जागते समय, प्रतिध्वनि सुनाई दी और छाया और प्रतिबिंब देखा? निश्चित रूप से, टाइलर कहते हैं, आदिम मनुष्य ने सोचा होगा कि मनुष्य में दो आत्माएं होनी चाहिए; एक मुक्त आत्मा जो उससे बाहर जा सकती थी और अनुभव कर सकती थी, और एक शरीर आत्मा जो अगर शरीर छोड़ देती तो उसकी मृत्यु हो जाती। पहला सांस और छाया के साथ जुड़ा हुआ और प्रतिनिधित्व कर सकता है, बाद वाला रक्त और सिर से। आदिम मनुष्य इस निष्कर्ष पर पहुंचा होगा कि जब शरीर आत्मा स्थायी रूप से शरीर छोड़ती है, तो संबंधित व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है; और उसकी आत्मा भूत या आत्मा बन गई। आत्मा स्पष्ट रूप से अमर प्रतीत हुई होगी क्योंकि वे ऐसे लोगों के बारे में सपना देख सकती थीं जो लंबे समय से मृत थे। यह अनिश्चितता कि क्या आत्मा ने शरीर को अस्थायी रूप से या स्थायी रूप से छोड़ दिया है, भारत और अन्य जगहों के कुछ समकालीन आदिम लोगों के बीच पाए जाने वाले ‘हरे’ और ‘सूखे’ दोहरे अंतिम संस्कार के अभ्यास का एक कारण हो सकता है। पहला, हरा अंतिम संस्कार, मृत्यु के तुरंत बाद होता है और दूसरा, सूखा अंतिम संस्कार, कुछ दिनों के बाद मनाया जाता है जब आत्मा की वापसी की सभी उम्मीदें छोड़ दी जाती हैं; और दूसरा अंतिम संस्कार अक्सर अधिक महत्वपूर्ण समारोह का अवसर होता है, उदा। टोडा और हो के बीच। हो इसे जंगटोपा कहते हैं; जब ढोल बजते हैं, तोपम जंगटोपम, वे अवैयक्तिक शक्ति के साथ आत्मा के मिलन का उत्सव मनाते हैं जिसे वे बोंगा कहते हैं। कोटा में हरित अंत्येष्टि को पसदाऊ कहा जाता है और वास्तविक मृत्यु होने के कुछ ही समय बाद होता है। दूसरा सूखा अंतिम संस्कार वर्लडाऊ कहा जाता है, कुछ समय बाद आयोजित किया जाता है और उन सभी के लिए जिनका निधन अंतिम सूखे अंतिम संस्कार के बाद हुआ है। शुष्क अंतिम संस्कार मृतकों और इस दुनिया के बीच संबंध के पूर्ण विच्छेद और दूसरी दुनिया में उनके प्रवेश का प्रतीक है।

इसलिए, टायलर का मानना ​​था कि इन अमूर्त और गैर-भौतिक आध्यात्मिक प्राणियों के प्रति विस्मय और श्रद्धा आदिम धर्म के प्रारंभिक रूप का मूल है। ये आध्यात्मिक प्राणी हमारे नियंत्रण में नहीं हैं, और इसलिए, उन्हें नुकसान पहुँचाना चाहिए, और ताकि वे सहायता प्रदान कर सकें। इस प्रकार, पूर्वजों की पूजा पूजा का सबसे प्रारंभिक रूप था और सबसे पुराने मंदिरों की कब्रें थीं। जीववाद में मानव जीवन में आध्यात्मिक प्राणियों की भूमिका में ऐसा विश्वास शामिल है; यह एक प्रकार का बहुदेववाद है। टाइलर का मानना ​​था कि समय के साथ धार्मिक विश्वासों और रूपों में विकासवादी विकास हुआ और बहुदेववाद से एकेश्वरवाद की ओर प्रगति हुई।

यह शिकायत की गई है कि टाइलर ने आदिम मनुष्य को एक दार्शनिक और बुद्धिवादी बना दिया, जो निश्चित रूप से वह नहीं है, और न कभी रहा होगा। टाइलर के पास क्षेत्र का कोई अनुभव नहीं था और वह नहीं जानता था कि आदिम मनुष्य एक सक्रिय जीवन जीता है और थिन को इतना कुछ नहीं दिया जाता है

उनके सिद्धांत के रूप में पोस्ट किया गया। इसके बजाय, वह जीवन और प्रकृति को देखता है और उसमें भाग लेता है; वह इसके बारे में तर्कसंगत नहीं है। नतीजतन, अन्य स्पष्टीकरण मांगे गए थे। लेकिन यह सुझाव नहीं दिया गया कि टाइलर का सिद्धांत पूरी तरह से गलत था। यह आदिम धर्म के पूर्ण पहलू पर अधिक बल देता है, जैसे आत्मा और आत्माओं में विश्वास। बहुदेववाद से एकेश्वरवाद की ओर ले जाने वाले टाइलर के विकासवादी क्रम को, हालांकि, कोई प्रमाण नहीं मिला है और इसलिए कई अनुयायी नहीं हैं।

एनिमेटिज्म और मैनिज्म। टाइलर के शुरुआती आलोचकों ने कहा कि जीववाद धर्म के इतिहास में बाद का विकास है। उन्होंने एक पूर्व-एनिमिस्टिक चरण को पोस्ट किया जब धार्मिक विश्वास मुख्य रूप से इस विश्वास में शामिल था कि हर चीज में जीवन है और यह चेतन है। इन लेखकों में प्रमुख थे प्रीस और मैक्स मूलर। उत्तरार्द्ध का नाम नीचे दिए गए प्रकृतिवाद के सिद्धांत से जुड़ा है।

हाल ही में, मेरेट ने एनिमेटिस्ट सिद्धांत का एक विशेष रूप विकसित किया जिसे उन्होंने मनवाद कहा। मेरेट ने कहा कि आदिम लोगों का संपूर्ण धार्मिक जीवन एक निश्चित अबोधगम्य, अव्यक्तिगत, गैर-भौतिक और अवैयक्तिक अलौकिक शक्ति में उनके विश्वास से पैदा हुआ है, जो सभी वस्तुओं, चेतन और निर्जीव में निवास करता है, जो कि अस्तित्व में हैं। दुनिया। यह कमोबेश इंद्रियों की पहुंच से परे है लेकिन शारीरिक बल या ऐसे अन्य उत्कृष्टता के रूप में प्रकट होता है जो मनुष्य स्वयं में, दूसरों में और अपने आसपास की वस्तुओं में भी सोच सकता है। यह तीव्रता में भिन्न हो सकता है जिस डिग्री में यह किसी व्यक्ति या वस्तु पर मौजूद है, लेकिन संक्षेप में यह हमेशा समान होता है। इस तरह के विश्वासों के एक सेट को मारेट ने इस बल को नामित करने के लिए मेलानेशियनों द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्द के बाद एनिमेटिज़्म या मैनिज़्म कहा। मजूमदार का वर्णन और हो के बीच बोंगा की अवधारणा का विश्लेषण (नीचे दिया गया है) मेरेट के आदिम धर्म के सिद्धांत के अनुरूप है। कुछ उत्तरी अमेरिकी जनजातियाँ इस शक्ति को ऑरेन्डा कहते हैं। इसे अन्य जगहों पर अरेन और वकुआ के नाम से जाना जाता है।

लेकिन यह व्याख्या भी कुछ हद तक टाइलर के खिलाफ की गई मुख्य आलोचना के लिए खुली है, जैसे कि यह आदिम लोगों को सोच और तर्कसंगतता के लिए एक योग्यता के साथ निवेश करती है जो वास्तव में उनके पास नहीं है।

प्रकृतिवाद। मैक्स मुलर के साथ जुड़े स्वाभाविकवाद के जर्मन सिद्धांत का संदर्भ पहले ही दिया जा चुका है। उन्होंने कहा कि धर्म का सबसे प्राचीन रूप प्रकृति की वस्तुओं की पूजा रहा होगा; और इस तरह के दृष्टिकोण के समर्थन में साक्ष्य मिस्र और अन्य जगहों पर किए गए पुरातात्विक उत्खनन से प्राप्त हुए हैं। यह माना जाता है कि प्रकृति की वस्तुओं के प्रति विस्मय या प्रेम और श्रद्धा का एक ‘रोगग्रस्त’ दिमाग के परिणामस्वरूप पैदा होता है जो जीवन के साथ बेजान चीजों और जीवन से जुड़ी सभी शक्तियों को निवेश करता है। मन की यह त्रुटि, इस सिद्धांत के अनुसार, दोषपूर्ण भाषा से पैदा हुई है। इस तरह की भाषाई त्रुटियां जैसे सूरज उगता है और डूबता है, या बिजली की बारिश होती है, या पेड़ों में फूल और फल लगते हैं, सूर्य, वज्र, पेड़ों आदि में निहित किसी शक्ति में विश्वास पैदा करते हैं।

जहाँ तक यह माना जाता है कि प्रकृति की वस्तुओं की पूजा की जाती थी, कोई कठिनाई नहीं आती; ऐसी प्रथा के पक्ष में साक्ष्य भारी है। लेकिन इस तरह की पूजा के धर्म का सबसे पुराना रूप होने का कोई भी दावा, या दी गई व्याख्या, विश्वास करने योग्य नहीं है। यह दर्शाने के लिए कोई प्रमाण नहीं है कि विभिन्न अवधारणाएँ उसी के बारे में भाषाई अभिव्यक्तियों का अनुसरण करती हैं। इसके विपरीत, भाषाई अभिव्यक्तियाँ कुछ पहले से मौजूद विचारों का अनुसरण कर सकती हैं।

इन विभिन्न सिद्धांतों की योग्यता और उपयोगिता तब सामने आती है जब उन्हें एक साथ लिया जाता है, क्योंकि उनमें से प्रत्येक आदिम धर्म के बारे में कुछ आवश्यक सत्य व्यक्त करता है।

कार्यात्मक सिद्धांत मलिनॉस्की और रेडक्लिफ-ब्राउन ने आदिम धर्म की कार्यात्मक व्याख्या की है। मलिनॉस्की ट्रोब्रियांड द्वीपवासियों के संदर्भ में बताते हैं कि धर्म विभिन्न भावनात्मक अवस्थाओं से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है, जो तनाव की अवस्थाएं हैं। उदाहरण के लिए, उनकी कुछ जादुई और धार्मिक प्रथाएं मछली पकड़ने के अभियानों के आसपास केंद्रित हैं। ये उस भय की स्थिति के परिणाम हैं जो इन पर संभावित आपदा को जन्म देता है। इसी प्रकार मनुष्य के जीवन में विभिन्न परिस्थितियों के कारण घृणा, लोभ, क्रोध, प्रेम आदि उत्पन्न हो सकते हैं। ये स्थितियाँ तनाव और तनाव पैदा करती हैं और यदि उन्हें लंबे समय तक रहने दिया जाए तो सभी क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं। एक इंसान को व्यक्तिगत रूप से अभिनय करना पड़ता है; और अस्तित्व की भावनात्मक रूप से परेशान अवस्था में सामान्य क्रिया संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में धर्म को अनुकूलन के उपकरण के रूप में उपयोग किया जाता है; इसका उद्देश्य मानव मन को उसके तनाव और तनाव से मुक्त करना है, अर्थात यह अपनी क्रिया में कैथर्टिक है। दूसरे शब्दों में, धर्म का कार्य अस्तित्व की अशांत अवस्था में मनुष्य और अलौकिक के बीच पुन: समायोजन लाने का है। यह किसी व्यक्ति के जीवन में मानसिक और मानसिक स्थिरता को सुरक्षित करने का एक उपकरण है।

रैडक्लिफ-ब्राउन एक अलग स्टैंड लेते हैं। वे कहते हैं कि धर्म का कार्य मानव मन से भय और अन्य भावनात्मक तनावों को दूर करना नहीं है, बल्कि उसमें निर्भरता की भावना पैदा करना है। उनका कहना है कि, अंततः, व्यक्ति की तुलना में समूह का अस्तित्व अधिक महत्वपूर्ण है; एक

और यदि बाद वाले को कुछ त्याग करना पड़े तो ऐसा करना उसके अपने हित में है, क्योंकि सामाजिक अस्तित्व के बिना व्यक्तिगत अस्तित्व संभव नहीं है। हालाँकि, व्यक्ति को हमेशा इसका एहसास नहीं होता है, और वह कार्रवाई के एक व्यक्तिगत पाठ्यक्रम को चार्ट करना चाहता है। यदि प्रत्येक व्यक्ति ऐसा करता है तो पूरी तरह से भ्रम और अराजकता होगी और कोई संगठित गतिविधि संभव नहीं होगी। सामाजिक उत्तरजीविता के संदर्भ में व्यवहार के एक आदर्श का पालन आवश्यक है; और सामाजिक रूप से स्वीकृत आचरण के मामले में समर्थन की प्रत्याशा भी, जिससे यह पालन होता है। इसलिए, धर्म का कार्य समाज पर निर्भरता की दोहरी भावना पैदा करना है और इस तरह सामाजिक मानदंडों के साथ व्यक्ति की सहमति प्राप्त करना है, अंतिम लक्ष्य सामाजिक अस्तित्व है। धर्म का कार्य वह योगदान है जो यह उस समग्र गतिविधि में योगदान देता है जिसे समाज को स्थायी बनाने के लिए डिज़ाइन किया गया है।

यहाँ हम फिर से कह सकते हैं कि सत्य मलिनॉस्की और रैडक्लिफ-ब्राउन के विचारों के संयोजन में निहित है। उनके दृष्टिकोण विरोधी दिखाई दे सकते हैं, लेकिन वे नहीं हैं; उन्हें पूरक के रूप में लेना होगा। व्यक्ति समाज के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना समाज व्यक्ति के लिए।

रैडक्लिफ-ब्राउन और मलिनॉस्की की समाजशास्त्रीय व्याख्याएं आंशिक रूप से दुर्खीम के धर्म के सिद्धांत से ली गई हैं। दुर्खीम का कहना है कि धार्मिक धारणाएँ तब पैदा होती हैं और कल्पना की जाती हैं जब हम सामाजिक समूह को त्योहारों और अन्य सामाजिक समारोहों के लिए एक साथ इकट्ठा होते हुए पाते हैं। ऐसे अवसरों पर सामाजिक जीवन अपने चरम पर होता है, और मानव मन को प्रभावित करता है जो कि समूह की पारलौकिकता और सर्वशक्तिमत्ता है। मनुष्य के पास जो कुछ है और जो कुछ मनुष्य है, उसके स्रोत के रूप में इसकी कल्पना की गई है। धर्म व्यक्ति पर सामूहिकता की नैतिक और भौतिक श्रेष्ठता की मान्यता है।

दुर्खीम ने धर्म को उन भागों के आधार पर परिभाषित किया है जिनसे यह बना है। ये भाग विश्वास और संस्कार हैं; पूर्व ‘धर्म के स्थिर भाग और बाद वाले गतिशील भाग का गठन करते हैं। मात्र विश्वास धर्मशास्त्र का निर्माण करते हैं। धर्म में हमारी केवल पवित्र मान्यताएँ हैं; विश्वास जो देवताओं और देवताओं को संदर्भित करते हैं जो वास्तव में समाज के प्रतीक हैं। इन मान्यताओं को संस्कारों के प्रदर्शन से व्यवहार में लाया जाता है। अपवित्र विश्वास और प्रथाएँ पवित्र नहीं हैं और धर्म का हिस्सा नहीं हैं; वे जादू हैं। वे व्यक्तिगत अहंकार का सूचक हैं और असामाजिक हैं और इसलिए अपवित्र हैं।

 

 

 

 

धार्मिक संगठनों के प्रकार

धर्म खुद को – अपनी संस्थाओं, चिकित्सकों और संरचनाओं को – विभिन्न प्रकार के फैशन में व्यवस्थित करते हैं। उदाहरण के लिए, जब रोमन कैथोलिक चर्च का उदय हुआ, तो उसने अपने कई संगठनात्मक सिद्धांतों को प्राचीन रोमन सेना से उधार लिया, उदाहरण के लिए सीनेटरों को कार्डिनल में बदल दिया। इस प्रकार के संगठनों को परिभाषित करने के लिए समाजशास्त्री अलग-अलग शब्दों का उपयोग करते हैं, जैसे चर्च, संप्रदाय और संप्रदाय। विद्वान भी जानते हैं कि ये परिभाषाएँ स्थिर नहीं हैं। अधिकांश धर्म विभिन्न संगठनात्मक चरणों के माध्यम से संक्रमण करते हैं। उदाहरण के लिए, ईसाई धर्म एक पंथ के रूप में शुरू हुआ, एक संप्रदाय में परिवर्तित हो गया, और आज एक चर्च के रूप में मौजूद है।

चित्र 15.4। आप मेनोनाइट्स को कैसे वर्गीकृत कर सकते हैं? एक पंथ, एक संप्रदाय या संप्रदाय के रूप में? (फोटो फ्रेंकीब / फ़्लिकर के सौजन्य से)

पंथ, संप्रदायों की तरह, नए धार्मिक समूह हैं। लोकप्रिय उपयोग में, इस शब्द में अक्सर अपमानजनक अर्थ होते हैं। आज, “पंथ” शब्द का प्रयोग नए धार्मिक आंदोलन (NRM) शब्द के साथ किया जाता है। हालाँकि, लगभग सभी धर्म NRM के रूप में शुरू हुए और धीरे-धीरे बड़े आकार और संगठन के स्तरों तक पहुँचे। इसके निंदनीय उपयोग में, इन समूहों को अक्सर गुप्त, सदस्यों के जीवन पर अत्यधिक नियंत्रण, और एक एकल, करिश्माई नेता के प्रभुत्व के रूप में नापसंद किया जाता है।

इस बात पर विवाद मौजूद है कि क्या कुछ समूह पंथ हैं, शायद बहुपत्नी मॉर्मन या पीपल्स टेंपल अनुयायियों जैसे समूहों पर मीडिया सनसनीखेज होने के कारण, जो जॉनस्टाउन, गुयाना में मारे गए थे। कुछ समूह जिन्हें विवादास्पद रूप से पंथ के रूप में लेबल किया जाता है, उनमें चर्च ऑफ़ साइंटोलॉजी और हरे कृष्ण आंदोलन शामिल हैं।

एक संप्रदाय एक छोटा और अपेक्षाकृत नया समूह है। उत्तरी अमेरिका में अधिकांश प्रसिद्ध ईसाई संप्रदाय आज संप्रदायों के रूप में शुरू हुए। उदाहरण के लिए, प्रेस्बिटेरियन और बैपटिस्ट ने इंग्लैंड में अपने मूल एंग्लिकन चर्च के खिलाफ विरोध किया, ठीक उसी तरह जैसे हेनरी VIII ने एंग्लिकन चर्च बनाकर कैथोलिक चर्च के खिलाफ विरोध किया था। “विरोध” से प्रोटेस्टेंट शब्द आता है।

कभी-कभी, एक पंथ टूटा हुआ समूह होता है जो बड़े समाज के साथ तनाव में हो सकता है। वे कभी-कभी “बुनियादी बातों” पर लौटने या किसी विशेष सिद्धांत की सत्यता का विरोध करने का दावा करते हैं। जब एक संप्रदाय में सदस्यता समय के साथ बढ़ती है, तो यह एक संप्रदाय में विकसित हो सकता है। अक्सर एक संप्रदाय एक संप्रदाय की शाखा के रूप में शुरू होता है, जब सदस्यों का एक समूह मानता है कि उन्हें बड़े समूह से अलग होना चाहिए।

कुछ संप्रदाय संप्रदायों में विकसित हुए बिना विकसित हुए। समाजशास्त्री इन स्थापित संप्रदायों को कहते हैं। स्थापित संप्रदाय, जैसे कि कनाडा में हटराइट्स या यहोवा के साक्षी, संप्रदाय-पंथ सातत्य पर संप्रदाय और संप्रदाय के बीच आधे रास्ते में आते हैं क्योंकि उनके पास संप्रदाय-जैसी और संप्रदाय-जैसी विशेषताओं का मिश्रण होता है।

एक संप्रदाय एक बड़ा, मुख्यधारा का धार्मिक संगठन है, लेकिन यह आधिकारिक या राज्य प्रायोजित होने का दावा नहीं करता है। अनेक धर्मों में एक धर्म है। उदाहरण के लिए, कनाडा में इंग्लैंड का चर्च, प्रेस्बिटेरियन चर्च, यूनाइटेड चर्च और सेवेंथ-डे एडवेंटिस्ट सभी ईसाई संप्रदाय हैं।

एक्लेसिया शब्द, मूल रूप से प्राचीन एथेंस, ग्रीस में नागरिकों की एक राजनीतिक सभा का जिक्र करते हुए, अब एक मण्डली को संदर्भित करता है। समाजशास्त्र में, इस शब्द का उपयोग एक धार्मिक समूह को संदर्भित करने के लिए किया जाता है, जिसमें समाज के अधिकांश सदस्य शामिल होते हैं। यह एक राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त, या आधिकारिक, धर्म माना जाता है जो एक धार्मिक एकाधिकार रखता है और राज्य और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है। इस मानक के अनुसार कनाडा में एक एक्लेसिया नहीं है।

इन धार्मिक संगठनात्मक शर्तों को याद रखने का एक तरीका यह है कि पंथों (एनआरएम), संप्रदायों, संप्रदायों और चर्चों के बारे में सोचें, जो समाज पर बढ़ते प्रभाव के साथ एक निरंतरता का प्रतिनिधित्व करते हैं, जहां पंथ सबसे कम प्रभावशाली हैं और चर्च सबसे प्रभावशाली हैं।

धर्मों के प्रकार

विभिन्न विषयों के विद्वानों ने धर्मों को वर्गीकृत करने का प्रयास किया है। एक व्यापक रूप से स्वीकृत वर्गीकरण जो लोगों को विभिन्न विश्वास प्रणालियों को समझने में मदद करता है, इस बात पर विचार करता है कि लोग क्या या किसकी पूजा करते हैं (यदि कुछ भी हो)। वर्गीकरण की इस पद्धति का उपयोग करते हुए, धर्म इन मूल श्रेणियों में से एक में आ सकते हैं,

धार्मिक वर्गीकरण क्या/कौन ईश्वरीय उदाहरण है

बहुदेववाद एकाधिक देवता प्राचीन यूनानी और रोमन

एकेश्वरवाद एकल ईश्वर यहूदी धर्म, इस्लाम

नास्तिकता कोई देवता नहीं नास्तिकता

जीववाद अमानवीय प्राणी (जानवर, पौधे, प्राकृतिक दुनिया) स्वदेशी प्रकृति पूजा (शिंटो)

टोटमवाद मानव-प्राकृतिक अस्तित्व का संबंध ओजिब्वा (प्रथम राष्ट्र)

 

Religious Classification What/Who Is Divine Example
Polytheism Multiple gods Ancient Greeks and Romans
Monotheism Single god Judaism, Islam
Atheism No deities Atheism
Animism Nonhuman beings (animals, plants, natural world) Indigenous nature worship (Shinto)
Totemism Human-natural being connection Ojibwa (First Nations)

 

ध्यान दें कि विभिन्न श्रेणियों में कुछ धर्मों का अभ्यास किया जा सकता है या समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए, पवित्र त्रिमूर्ति (ईश्वर, यीशु, पवित्र आत्मा) की ईसाई धारणा कुछ विद्वानों के लिए एकेश्वरवाद की परिभाषा को खारिज करती है। इसी तरह, कई पश्चिमी लोग हिंदू धर्म के देवत्व के कई रूपों को बहुदेववादी के रूप में देखते हैं, जबकि हिंदू उन अभिव्यक्तियों का वर्णन कर सकते हैं जो ईसाई ट्रिनिटी के समानांतर एक एकेश्वरवादी हैं।

यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक समाज में नास्तिक जैसे नास्तिक भी होते हैं, जो ईश्वर में विश्वास नहीं करते।

 

 

 

 

धर्म के लिए समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण

लैटिन धर्म से (जो पवित्र है उसके लिए सम्मान) और रेलिगेयर (एक दायित्व के अर्थ में बाध्य करने के लिए), शब्द धर्म विश्वास और अभ्यास की विभिन्न प्रणालियों का वर्णन करता है जो लोग पवित्र या आध्यात्मिक होने का निर्धारण करते हैं (दुर्कहेम 1915; फाशिंग और डीचैंट 2001)। पूरे इतिहास में, और दुनिया भर के समाजों में, नेताओं ने जीवन को अधिक अर्थ देने और ब्रह्मांड को समझने के प्रयास में धार्मिक आख्यानों, प्रतीकों और परंपराओं का उपयोग किया है। प्रत्येक ज्ञात संस्कृति में धर्म का कोई न कोई रूप पाया जाता है, और यह आमतौर पर एक समूह द्वारा सार्वजनिक रूप से अभ्यास किया जाता है। धर्म के अभ्यास में उत्सव और त्यौहार, भगवान या देवता, विवाह और अंत्येष्टि सेवाएं, संगीत और कला, ध्यान या दीक्षा, बलिदान या सेवा, और संस्कृति के अन्य पहलू शामिल हो सकते हैं।

जबकि कुछ लोग धर्म को कुछ व्यक्तिगत मानते हैं क्योंकि धार्मिक विश्वास अत्यधिक व्यक्तिगत हो सकते हैं, धर्म भी एक सामाजिक संस्था है। सामाजिक वैज्ञानिक मानते हैं कि धर्म बुनियादी सामाजिक आवश्यकताओं और मूल्यों पर केंद्रित विश्वासों, व्यवहारों और मानदंडों के एक संगठित और एकीकृत समूह के रूप में मौजूद है। इसके अलावा, धर्म एक सांस्कृतिक सार्वभौमिक है जो सभी सामाजिक समूहों में पाया जाता है। उदाहरण के लिए, हर संस्कृति में, अंत्येष्टि संस्कार किसी न किसी तरह से किया जाता है, हालांकि ये रीति-रिवाज संस्कृतियों और धार्मिक संबद्धताओं के बीच भिन्न होते हैं। मतभेदों के बावजूद, किसी व्यक्ति की मृत्यु को चिह्नित करने वाले समारोह में सामान्य तत्व होते हैं, जैसे मृत्यु की घोषणा, मृतक की देखभाल, स्वभाव और समारोह या अनुष्ठान। ये सार्वभौमिक, और समाज और व्यक्ति धर्म को कैसे अनुभव करते हैं, इसमें अंतर, समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए समृद्ध सामग्री प्रदान करते हैं।

धर्म का अध्ययन करने में, समाजशास्त्री इस बात में अंतर करते हैं कि वे किसी धर्म के अनुभव, विश्वासों और रीति-रिवाजों को क्या कहते हैं। धार्मिक अनुभव का तात्पर्य उस दृढ़ विश्वास या अनुभूति से है जो व्यक्ति “परमात्मा” से जुड़ा हुआ है। इस प्रकार के संवाद का अनुभव तब हो सकता है जब लोग प्रार्थना या ध्यान कर रहे हों। धार्मिक मान्यताएँ विशिष्ट विचार हैं जो किसी विशेष विश्वास के सदस्य सत्य मानते हैं, जैसे कि यीशु मसीह ईश्वर का पुत्र था, या पुनर्जन्म में विश्वास करता था। धार्मिक विश्वासों का एक और उदाहरण यह है कि विभिन्न धर्म विश्व निर्माण की कुछ कहानियों का पालन करते हैं। धार्मिक अनुष्ठान ऐसे व्यवहार या प्रथाएं हैं जो किसी विशेष समूह के सदस्यों के लिए आवश्यक या अपेक्षित हैं, जैसे कि बार मिट्ज्वा या स्वीकारोक्ति (बर्कन और ग्रीनवुड 2003)।

एक समाजशास्त्रीय अवधारणा के रूप में धर्म का इतिहास

19वीं सदी के यूरोपीय औद्योगीकरण और धर्मनिरपेक्षता के मद्देनजर, तीन सामाजिक सिद्धांतकारों ने धर्म और समाज के बीच संबंधों की जांच करने का प्रयास किया: एमिल दुर्खीम, मैक्स वेबर और कार्ल मार्क्स। वे आधुनिक समाजशास्त्र के संस्थापक विचारकों में से हैं।

जैसा कि पहले कहा गया है, फ्रांसीसी समाजशास्त्री एमिल दुर्खीम (1858-1917) ने धर्म को “पवित्र चीजों के सापेक्ष विश्वासों और प्रथाओं की एकीकृत प्रणाली” (1915) के रूप में परिभाषित किया। उनके लिए, पवित्र का अर्थ असाधारण था – कुछ ऐसा जो आश्चर्य को प्रेरित करता था और जो “दिव्य” की अवधारणा से जुड़ा हुआ लगता था। दुर्खीम ने तर्क दिया कि समाज में “धर्म होता है” जब अपवित्र (साधारण जीवन) और पवित्र (1915) के बीच अलगाव होता है। एक चट्टान, उदाहरण के लिए, पवित्र या अपवित्र नहीं है क्योंकि यह मौजूद है। लेकिन अगर कोई इसे एक हेडस्टोन में बनाता है, या कोई अन्य व्यक्ति भूनिर्माण के लिए इसका इस्तेमाल करता है, तो इसका अलग-अलग अर्थ होता है- एक पवित्र, एक अपवित्र।

दर्खाइम को आम तौर पर पहला समाजशास्त्री माना जाता है जिसने धर्म का उसके सामाजिक प्रभाव के संदर्भ में विश्लेषण किया। इन सबसे ऊपर, दुर्खीम का मानना ​​था कि धर्म समुदाय के बारे में है: यह लोगों को एक साथ बांधता है (सामाजिक सामंजस्य), व्यवहार स्थिरता (सामाजिक नियंत्रण) को बढ़ावा देता है, और जीवन के संक्रमण और त्रासदियों (अर्थ और उद्देश्य) के दौरान लोगों को शक्ति प्रदान करता है। समाज के अध्ययन के लिए प्राकृतिक विज्ञान के तरीकों को लागू करके, उन्होंने माना कि धर्म और नैतिकता का स्रोत समाज की सामूहिक मानसिकता है और सामाजिक व्यवस्था के सामंजस्यपूर्ण बंधन समाज में सामान्य मूल्यों से उत्पन्न होते हैं। उन्होंने तर्क दिया कि सामाजिक स्थिरता बनाए रखने के लिए इन मूल्यों को बनाए रखने की आवश्यकता है।

फिर धर्म ने “सामाजिक सीमेंट” की अलग-अलग डिग्री प्रदान की जो समाजों और संस्कृतियों को एक साथ रखती थी। आस्था ने समाज को सांसारिक और अस्तित्व के आंशिक स्पष्टीकरण से परे अस्तित्व में रहने का औचित्य प्रदान किया, जैसा कि विज्ञान में प्रदान किया गया है, यहां तक ​​कि एक जानबूझकर भविष्य पर विचार करने के लिए: “विश्वास के लिए सबसे पहले कार्रवाई के लिए एक प्रेरणा है, जबकि विज्ञान, चाहे वह कितना भी दूर क्यों न हो। धक्का दिया, इससे हमेशा दूरी पर रहता है। (दुर्खाइम 1915, पृष्ठ 431)।

लेकिन अगर धर्म का पतन हो जाए तो क्या होगा? इस प्रश्न ने दुर्खीम को यह मानने के लिए प्रेरित किया कि धर्म केवल एक सामाजिक रचना नहीं है बल्कि कुछ ऐसा है जो समाज की शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है: जब लोग पवित्र चीजों का जश्न मनाते हैं, तो वे अपने समाज की शक्ति का जश्न मनाते हैं। इस तर्क से, भले ही पारंपरिक धर्म गायब हो जाए, समाज अनिवार्य रूप से भंग नहीं होगा।

SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
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