टाल्कॉट पार्सन्स
[ Talcott Parsons : 1902 – 1978 ]
समाजशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए टाल्कॉट पार्सन्स का नाम नया नहीं है । पार्सन्स बीसवीं शताब्दी के उन प्रमुख समाजविज्ञानियों में से एक हैं जिन्होंने आलो चनात्मक एवं रचनात्मक स्तर पर समाजशास्त्रीय विकास को एक नयी दिशा प्रदान करने का प्रयत्न किया । ‘ सामाजिक प्रक्रिया के मूल सिद्धान्त से लेकर ‘ संरचनात्मक प्रकार्यात्मक विश्लेषण ‘ जैसे आधुनिक उपागम तक समाजशास्त्र को ले जाने में पार्सन्स की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण रही है । वास्तविकता तो यह है कि विभिन्न क्षेत्रों में समाज के सैद्धान्तिक अध्ययनों में पार्सन्स के योगदान को आज भी सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है । अपनी प्रारम्भिक कृतियों में पार्सन्स ने मैक्स वेबर की अनेक कृतियों तथा लेखों का अंग्रेजी में अनुवाद करके वेबर के विचारों का व्यापक रूप से प्रसार किया । इसके पश्चात् अनेक महत्त्वपूर्ण अवधारणाओं को नवीन रूप देकर पार्सन्स ने समाजशास्त्रीय चिन्तन को जो नयी दिशा देना आरम्भ की , उसके फलस्वरूप सम्पूर्ण विश्व में पार्सन्स के अनुयायियों की संख्या बढ़ती गयी । भारत में भी वाई० बी० दामले ( Y . B . Damle ) , योगेन्द्र सिंह तथा बड़गया जैसे प्रमुख समाजशास्त्री पार्सन्स की परम्परा पर चलकर भारतीय समाजशास्त्र को एक नवीन रूप देने में बड़ी भीमा तक सफल हो सके हैं
जीवन तथा कृतित्व
( Life and Works )
टाल्कॉट पार्सन्स का जन्म सन् 1902 में अमेरिका हुआ था । सन् 1924 में आपने एम्हर्ट कालेज से प्राणीशास्त्र ( Biology ) विषय में स्नातक की उपाधि ग्रहण की । इसके पश्चात पार्सन्स का जब अर्थशास्त्र के प्रोफेसर वाल्टन हैमिल्टन ( Walton Hamilton ) से परिचय हुआ तब उनके प्रभाव से पार्सन्स की रुचि अर्थ शास्त्र के अध्ययन में बढ़ने लगी । फलस्वरूप पासंन्स ने पुनः अर्थशास्त्र विषय में स्नातक की उपाधि प्रहण की । सन् 1927 में पार्सन्स ने ‘ मैक्स वेबर के . सिद्धान्तों में पंजीवाद की अवधारणा ‘ ( The Concept of Capitalism in the Theories of Max Weber and Werner Sompart ) विषय पर अपना शोध . ग्रन्थ प्रस्तुत किया जिस पर आपको डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त हुई । डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात सन् 1929 तक पार्सन्स ने अमेरिका एम्हर्ट कालेज में ही अर्थशास्त्र विषय में अध्यापन कार्य किया । सन् 1929 से 1931 तक के दो वर्षों का समय पार्सन्स के जीवन में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण रहा जब वह लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में हॉबहाउस ( Hobhouse ) तथा मैलीनॉस्की ( Malinowski ) के सम्पर्क में रहने के कारण उनके विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुए । यहीं से पार्सन्स की रुचि समाजशास्त्रीय अध्ययन की ओर बढ़ने लगी ।
सन् 1936 से लेकर सन् 1944 तक पार्सन्स ने हारवर्ड विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्राध्यापक के रूप में कार्य किया । इसी बीच आपने मैक्स वेबर की महत्त्वपूर्ण कृतियों ‘ द प्रोटेस्टेण्ट एथिक्स एण्ड द स्पिरिट ऑफ कैपिटलिज्म ‘ तथा ‘ द थ्योरी ऑफ सोशल एण्ड इकोनोमिक आर्गनाइजेशन ‘ ( The Theory of Social and Economic Orga nization ) का अंग्रेजी में अनुवाद प्रस्तुत किया । स्पष्ट है कि पार्सन्स के प्रारम्भिक चिन्तन को मैक्स वेबर के विचारों ने व्यापक रूप से प्रभावित किया था । हॉबहाउस , मैलीनॉस्की तथा वेबर का पासंन्स पर जो प्रभाव पड़ा , उसके फलस्वरूप समाजशास्त्र में उनकी रुचि निरन्तर गहरी होती गयी । अपने मौलिक चिन्तन एवं समालोचनात्मक विवेचनाओं के फलस्वरूप सन् 1946 में पार्सन्स को हारवर्ड विश्वविद्यालय से ‘ मानवीय सम्बन्ध विभाग ‘ ( Department of Human Relations ) का अध्यक्ष नियुक्त किया गया । यह एक महत्त्वपूर्ण विभाग था जिसमें समाजशास्त्र , मनोविज्ञान , मानवशास्त्र तथा अर्थशास्त्र का अन्तर वैषयिक अध्ययन किया जा रहा था । इस विभाग में अध्यक्ष पद पर रहते हुए पार्सन्स ने एक लम्बे समय तक समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का व्यापक अध्ययन किया जो उनकी रचनाओं में स्पष्ट होता है । सन् 1978 में 76 वर्ष की आयु में पार्सन्स की मृत्यु हो गयी । जहाँ तक पार्सन्स के कृतित्व का प्रश्न है , उनकी कृतियाँ उन मूल अव धारणाओं से सम्बन्धित रही हैं जिनके बिना समाजशास्त्र का वैज्ञानिक बोध सम्भव नहीं है । इनमें से कुछ प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं :
सामाजिक क्रिया की संरचना ( The Structure of Social Action )
सन 1937 में प्रकाशित इस पुस्तक में टाल्कॉट पार्सन्स ने मैक्स वेबर को आधार मानते हुए सामाजिक क्रिया की संरचना पर न केवल विस्तार से प्रकाश डाला बल्कि सामाजिक क्रिया की अवधारणा को एक नवीन रूप में भी प्रस्तुत किया । सामाजिक क्रिया का उल्लेख करते हुए उन्होंने इसमें कर्ता , लक्ष्य साधन तथा परि स्थिति को विशेष महत्त्व दिया । अनेक समालोचकों का विचार है कि इस पुस्तक में पार्सन्स द्वारा प्रस्तुत सामाजिक क्रिया का सिद्धान्त बहुत – कुछ स्वेच्छावादी था ।
( 2 ) समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के निबन्ध ( Essays in Sociological _ Theory ) – सन् 1949 में प्रकाशित पार्सन्स की यह पुस्तक समाजशास्त्र और सामाजिक क्रिया के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित निबन्धों का संग्रह है । इस पुस्तक के उनीस अध्यायों में सामाजिक क्रिया , आर्थिक गतिविधियों , फासीवादी आन्दोलन , सामाजिक नियन्त्रण , वर्ग – संघर्ष एवं मनोविज्ञान से सम्बन्धित अनेक लेख हैं ।
( 3 ) सामाजिक व्यवस्था ( The Soical System ) पार्सन्स की यह पुस्तक सन् 1951 में प्रकाशित हुई । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद योरोप तथा अमेरिका की – सामाजिक संरचना में परिवर्तन के जो तत्त्व स्पष्ट हए , उसके अनुभव के आधार पर पार्सन्स ने इस पुस्तक में सामाजिक किया के अपने पूर्न सिद्धान्त में संशोधन करते हुए इसे सामाजिक व्यवस्था से जोड़कर प्रस्तुत किया । इस पुस्तक के समालोचकों का कथन है कि पार्सन्स द्वारा द्वितीय विश्व यद्ध से पहले के अनुभवों पर आधारित सामाजिक क्रिया का सिद्धान्त जहाँ स्वेच्छावादी था , वहीं इस पुस्तक में सामाजिक क्रिया की संशोधित अवधारणा को अधिक प्राकृतिक माना जा सकता है ।
( 4 ) क्रिया का सामान्य सिद्धान्त ( Towards a General Theory of Action ) – इस पुस्तक का सम्पादन पार्सन्स नशा एडवर्ड शिल्स ( Edward Shills ) द्वारा किया गया तथा यह पुस्तक सन् 1951 में प्रकाशित हुई । इसी पुस्तक में पार्सन्स और शिल्स ने ‘ सन्दर्भ क्रिया का ढांचा ‘ ( Action Frame of Reference नाम से एक नये सिद्धान्त को उल्लेख किया तथा एक – दूसरे सन्दर्भ में उन्होंने अनेक ऐसी प्रेरणाओं ( Orientations ) का उल्लेख किया जो सामाजिक क्रियाओं को प्रभावित करती हैं । इन प्रमुख पुस्तकों के अतिरिक्त पार्सन्स ने स्मैलसर ( Smelser ) के साथ एक अन्य महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘ इकॉनॉमी एण्ड सोसायटी ‘ ( Economy and Society ) की भी रचना की । समय – समय पर पार्सन्स ने अनेक लेख लिखकर भी समाजशास्त्रीय साहित्य को अधिक से अधिक समृद्ध बनाने का प्रयत्न किया । इन विभिन्न रचनाओं में पार्सन्स ने जो महत्त्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किए , उनमें से चिन्तन के स्तर पर दिए गये कुछ प्रमुख विचारों का हम प्रस्तुत विवेचन में समावेश करेंगे ।
सामाजिक क्रिया
( Social Action )
पार्सन्स द्वारा प्रस्तुत अवधारणाओं में सामाजिक क्रिया की अवधारणा अथवा ” क्रिया के सिद्धान्त ‘ ( Theory of Action ) का विशेष महत्त्व है । यह सच है कि पार्सन्स से पहले दुर्थीम , मैक्म वेबर तथा परेटो ने भी सामाजिक क्रिया की विवेचना की थी लेकिन पार्सन्स के विचार इन विद्वानों से प्रभावित होते हुए भी इनसे बिल्कुल भिन्न हैं । दुर्थीम ने जहाँ सामाजिक तथ्य के सन्दर्भ में क्रिया के सिद्धान्त की चर्चा की थी , वहीं परेटो ने तार्किक एवं अतार्किक क्रियाओं ( Logical and Non – Logi cal Actions ) के रूप को स्पष्ट केरके सामाजिक किया की अवधारणा को एक नया रूप देने का प्रयल किया । मैक्स वेबर ने परेटो से असहमत होते हुए मनुष्य को क्रियाओं को विवेकशीलता की दिशा में बढ़ने वाली क्रियाओं के रूप में व्यक्त किया था । आपने सामाजिक क्रिया को समाजशास्त्र की आधारभूत विषय – वस्तु मानते हए कहा कि ” समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो सामाजिक क्रिया का व्याख्यात्मक बोध इस तरह करने का प्रयत्न करता है जिससे सामाजिक क्रिया के कार्य – कारण सम्बन्धों तथा इसके परिणामों को समझा जा सके । ” सामाजिक क्रिया को परिभाषित करते हुए वेबर ने लिखा है कि सामाजिक क्रिया वह क्रिया है जिसमें कर्ता ( Actor ) या कर्ताओं के द्वारा स्वीकार किए गये व्यक्तिनिष्ठ अर्थ के अनुसार उस क्रिया में दूसरे व्यक्तियों की क्रियाओं और दृष्टिकोणों का समावेश होता है तथा जो दूसरों को प्रभावित भी करती है । ”
इस परिभाषा के आधार पर सामाजिक क्रिया की अव धारणा को निम्न प्रारूप के आधार पर समझा जा सकता है : अन्य व्यक्तियों की प्रेरणा क्रियाएं तथा दृष्टिकोण प्रभाव कर्ता क्रिया अन्य व्यक्तियों पर प्रभाव सामाजिक क्रिया से सम्बन्धित वेबर की उपर्युक्त अवधारणा से पार्सन्स सहमत – नहीं थे । अत : उन्होंने अपनी प्रथम पुस्तक ‘ द स्ट्रक्चर ऑफ सोशल एक्शन ‘ में सामाजिक क्रिया को सामाजिक व्यवस्था की एक प्रमुख इकाई के रूप में स्वीकार करते हुए इससे सम्बन्धित विभिन्न पक्षों को स्पष्ट किया । पार्सन्स द्वारा व्यक्त क्रिया के सिद्धान्त को जानने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि पार्सन्स ने सन 1937 से लेकर 1951 तक के 14 वर्षों के अन्तराल में क्रिया से सम्बन्धित अपने ही विचारों में अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए । इस दृष्टिकोण से सामाजिक क्रिया के सिद्धान्त से सम्बन्धित पार्सन्स की पूर्व धारणा तथा बाद में दी गयी अवधारणा , दोनों को ही समझना आवश्यक है ।
क्रिया की पूर्व अवधारणा ( Basic Concept of Action )
सन् 1937 में प्रकाशित पुस्तक में क्रिया का उल्लेख करते हुए पार्सन्स ने बतलाया कि ‘ किसी क्रिया – व्यवस्था में साधन – साध्य सम्बन्धों के रूप में परिवर्तन की कोई भी प्रक्रिया केवल तार्किक आदर्शों की ओर ही अग्रसर हो सकती है जिसे एक सामाजिक व्यवस्था से सम्बन्धित अन्य कर्ता भी स्वीकार करते हैं । ” इस कथन के द्वारा पार्सन्स ने सामाजिक क्रिया को एक ऐसे व्यवहार के रूप में स्पष्ट किया जो साधन और साध्य के स्वाभाविक सम्बन्ध पर आधारित होता है तथा जिसके फलस्वरूप उत्पन्न होने वाला परिवर्तन पहले की अपेक्षा अधिक तार्किक अथवा विवेक पूर्ण होता है । यह सच है कि पार्सन्स के इस कथन में उनके द्वारा प्रस्तुत क्रिया की पूर्ण अवधारणा का समावेश नहीं है , यद्यपि सामाजिक व्यवस्था की एक इकाई के रूप में क्रिया के महत्त्वपूर्ण पक्ष पर कुछ प्रकाश अवश्य पड़ता है । इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि पार्सन्स द्वारा प्रस्तुत किया सिद्धान्त को उन विभिन्न विचारों के आधार पर समझा जाए जिनका उल्लेख पार्सन्स ने अपनी पुस्तक ‘ द स्ट्रक्चर ऑफ सोशल एक्शन में किया है । पार्सन्स के अनुसार प्रत्येक सामाजिक क्रिया होने के पीछे अनेक कारण या अनेक व्यक्ति हो सकते हैं । एक कर्ता अथवा अनेक कर्त्ता किसी न किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ही सामाजिक क्रिया करते हैं । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सामाजिक क्रिया लक्ष्य – निर्देशित होती है । क्रिया की अवधारणा में लक्ष्य के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए पार्सन्स ने बतलाया कि किसी एक सामाजिक क्रिया के एक या अनेक लक्ष्य हो सकते हैं । कर्ता इन अनेक लक्ष्यों में से अपने लिए उपयुक्त एक अथवा अधिक लक्ष्यों का चुनाव कर लेता है । कर्ता जब अपने लक्ष्य का चुनाव करता है तो उसके लिए यह भी आवश्यक होता है कि वह अपने लक्ष्य और उपलब्ध साधनों के बीच ताल – मेल स्थापित करे । इस दष्टिकोण से सामाजिक क्रिया में साधन के महत्त्व को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता । इसे स्पष्ट करते हुए पार्सन्स ने कहा कि ” किसी भी क्रिया के लिए साधन और लक्ष्य परस्पर सम्बन्धित होते हैं तथा न्यूनतम साधनों से लक्ष्य की अधिक से अधिक प्राप्ति ही सफलतम सामाजिक क्रिया का आधार है ।
” कर्ता , लक्ष्य और साधन के साथ पार्सन्स ने सामाजिक क्रिया में सांस्कृतिक परिवेश को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया । उन्होंने बतलाया कि प्रत्येक सामाजिक क्रिया एक निश्चित सांस्कृतिक परिवेश में की जाती है । सांस्कृतिक परिवेश से पार्सन्स का तात्पर्य कर्ता की आनुवंशिक दशाओं , उसके द्वारा अजित मानसिक विशेषताओं एवं उन विशेष परिस्थितियों से है जिनमें रहकर व्यक्ति सामाजिक क्रिया करता है । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सामाजिक क्रिया की अपनी पूर्व अवधारणा में पार्सन्स ने जिन चार तत्त्वों को अधिक महत्त्वपूर्ण माना , वे
कर्त्ता ,
लक्ष्य ,
साधन तथा
परिस्थिति हैं ।
( 1 ) कर्ता ( Actor ) – किसी भी क्रिया के संचालन के लिए कर्ता सबसे | आधारभूत तत्त्व है । एक सामाजिक प्राणी के रूप में व्यक्ति द्वारा की जाने वाली | क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं । प्रथम तो एक प्राणी के रूप में व्यक्ति अनेक क्रियाएँ | करता है और दूसरे , समाज का सदस्य होने के नाते व्यक्ति अनेक सामाजिक क्रियाएँ करता है । मनुष्य द्वारा की जाने वाली यह दोनों प्रकार की क्रियाएँ उसके सामाजिक परिवेश से जुड़ी होती हैं । उदाहरण के लिए प्रत्येक प्राणी भोजन की क्रिया करता है किन्तु पशुओं में जहाँ भोजन की क्रिया उनकी स्वभावगत विशेषता होती है , वहीं मनुष्य में भोजन की क्रिया उसकी सामाजिक – सांस्कृतिक विशेषता से प्रभावित होती है । इस तरह एक कर्ता के रूप में मनुष्य बहुत – से सामाजिक मूल्यों से बंधा होता और उन्हीं मूल्यों के आधार पर वह अपनी क्रिया के लक्ष्य का चयन करता है ।
( 2 ) लक्ष्य ( Goal ) – पार्सन्स के मतानुसार किसी भी व्यक्ति द्वारा की जान वाली क्रिया में कर्ता के एक अथवा अनेक लक्ष्यों का समावेश अवश्य होता है । यह लक्ष्य चेतन भी हो सकते हैं और अचेतन भी । इसके बाद भी यह लक्ष्य मनमाने नहीं होते बल्कि इनका निर्धारण समाज की मूल्य – व्यवस्था ( Value System ) के अन्तर्गत होता है । इसका तात्पर्य है कि सामाजिक मूल्य ही कर्ता के वांछित लक्ष्यों ( Desired Goals ) को प्रभावित करते हैं । यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि एक समय में ही व्यक्ति के सामने अनेक लक्ष्य हो सकते हैं तथा इन लक्ष्यों की प्रकृति एक – दूसरे के विपरीत भी हो सकती है । इसका कारण यह है कि समाज की मूल्य – व्यवस्था के अन्तर्गत विभिन्न मूल्यों के बीच अन्तविरोध भी सम्भव है । उदाहरण के लिए अपनी मूल्य – व्यवस्था के अन्तर्गत किसी कर्ता के लक्ष्यों में राष्ट्रवादिता और अहिंसा की विशेषताएँ हो सकती हैं लेकिन यदि कोई अन्य राष्ट्र , कर्ता के राष्ट्र पर आक्रमण कर दे तो इस विशेष परिस्थिति में कर्ता को अपने लक्ष्य का निर्धारण नये सिरे से करना होता है । इसी आधार पर पार्सन्स यह मानते हैं कि लक्ष्यों के निर्धारण में परिस्थिति भी एक विशेष तत्त्व है ।
( 3 ) परिस्थिति ( Situation ) – पार्सन्स का कथन है कि प्रत्येक सामाजिक क्रिया एक विशेष परिस्थिति में होती है । दूसरे शब्दों में , कर्त्ता जब कोई क्रिया करता । है तब उसकी वह क्रिया एक विशेष परिस्थिति से प्रभावित होती है । विशेष परि स्थिति से पार्सन्स का तात्पर्य मुख्यत : कर्ता के सांस्कृतिक परिवेश , उसकी आनुवंशिक विशेषताओं तथा कर्ता द्वारा अजित मानसिक स्थिति से है । इस सम्बन्ध में पार्सन्स ने यह भी स्पष्ट किया कि कर्ता जिन विशेष परिस्थितियों में सामाजिक क्रिया करता है अथवा अन्य कर्ताओं से अन्तःक्रियात्मक सम्बन्ध स्थापित करता है , उसमें अनेक प्रकार के विश्वासों , मूल्यों , आदर्श – नियमों , कानूनों तथा ज्ञान का भी समावेश होता है । वास्तव में यही वे परिस्थितियाँ हैं जिनमें कर्त्ता अपने लक्ष्यों तथा उन्हें प्राप्त करने के साधनों के बीच ताल – मेल स्थापित करता है ।
( 4 ) साधन ( Means ) – अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किसी भी कर्ता द्वारा की जाने वाली क्रिया के लिए एक अथवा अनेक साधनों का होना अनि वार्य है । पार्सन्स का मत है कि परिस्थितियों की भिन्नता के कारण इन साधनों की प्रकृति भी अलग – अलग हो सकती है । इसके अतिरिक्त , स्वयं कर्ताओं की भिन्नता के आधार पर भी साधनों की प्रकृति में भिन्नता आ जाती है । तात्पर्य यह है कि कर्ता द्वारा जो साधन उपयोग में लाए जा सकते हैं , यह आवश्यक नहीं है कि अन्य कर्ताओं के द्वारा भी उन्हीं साधनों का उपयोग किया जाये । इस प्रकार सामाजिक क्रिया में प्रयुक्त होने वाले साधनों की भिन्नता के अनुसार क्रिया की प्रकृति में भी एक स्पष्ट अन्तर देखने को मिलता है ।
क्रिया को संशोधित अवधारणा
( Modified Concept of Action )
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् पार्सन्स की दो महत्त्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुई । – ‘ सामाजिक व्यवस्था ‘ ( The Social System ) तथा ‘ क्रिया का सामान्य सिद्धान्त ‘ ( Towards A General Theory of Action , 1952 ) । इन पुस्तकों के माध्यम ने पार्सन्स ने सामाजिक क्रिया की अपनी पूर्व अवधारणा को संशोधित रूप मप्रस्तुत किया । क्रिया की इस नवीन अवधारणा को स्पष्ट करते हुए पार्सन्स ने कहा सामाजिक क्रिया की अवधारणा को किसी विशेष व्यक्ति अथवा विशिष्ट कर्ता के लिए लागू नहीं किया जा सकता । उनके अनुसार सामाजिक क्रिया को सामाजिक व्यवस्था के सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है । इस दृष्टिकोण से पार्सन्स ने समाज के संरचनात्मक – प्रकार्यात्मक पक्षों पर प्रकाश डालते हुए सामाजिक क्रिया को सामा जिक व्यवस्था की विभिन्न उप – व्यवस्थाओं पर लागू किया । सामाजिक व्यवस्था को परिभाषित करते हुए पार्सन्स ने लिखा , ” सामाजिक व्यवस्था सामाजिक क्रियाओं की एक संगठित प्रणाली है जिसमें अनेक कर्ताओं द्वारा की जाने वाली क्रियाओं का समावेश होता है । ” इसे स्पष्ट करते हुए पार्सन्स ने बतलाया कि सामाजिक व्यवस्था में जो व्यक्ति ( कर्ता ) सहभागी होते हैं , वे वास्तव में कुछ विशेष प्रकार की भूमिकाओं का निर्वाह करने वाले अथवा भूमिकाधारक ( Role Occupant ) होते हैं । उनकी यह सभी भूमिकाएँ मानदण्डों ( Social Norms ) तथा सांस्कृतिक मूल्यों द्वारा निर्धा रित और संचालित होती हैं । इस प्रकार पासंन्स ने स्पष्ट रूप से सामाजिक क्रिया पर एक से अधिक कर्ताओं , सामाजिक मानदण्डों और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रभाव को स्वीकार किया है । सामाजिक क्रिया के इस पक्ष को निम्नाकित समीकरण के द्वारा समझा जा सकता है : सामाजिक मानदण्ड भमि का धारक के रूप में कत्ता सामाजिक क्रिया सांस्कृतिक मल्य जोडना drow Actor क्रिया की संशोधित अवधारणा में पार्सन्स ने यह स्पष्ट किया कि सामाजिक क्रिया मुख्यतः सामाजिक व्यवस्था की तीन उप – व्यवस्थाओं से प्रभावित होती है । यह – व्यवस्थाएं इस प्रकार हैं :
( 1 ) सामाजिक क्रिया एवं प्रतिमान ( Social Action and Pattern ) पार्सन्स ने स्पष्ट किया कि कर्त्ता जब विशेष परिस्थितियों में अपने लक्ष्य और साधनों का चयन करता है तब उसकी चेतना सामाजिक प्रतिमानों से प्रभावित होती है । लक्ष्य और साधनों का चयन जिन प्रतिमानित विकल्पों ( Pattern Variables ) से प्रभावित होता है , उन्हें पार्सन्स ने पांच युग्मों ( Sets ) में विभाजित करके स्पष्ट किया है । प्रतिमानित विकल्पों के यह युग्म अथवा जोड़े इस प्रकार हैं : 1 . सार्व भौमिकता बनाम व्यक्तिवादिता , ( Universalistic v / s Particularistic ) 2 . विशिष्टता बनाम मिश्रित ( Specific v / s Diffused ) , 3 रागात्मक निष्पक्षता बनाम रागात्मकता ( Affective Neutrality v / s Affectivity ) , 4 . अजित बनाम प्रदत्त ( Achieved v / s Ascribed ) , 5 . समह केन्द्रता बनाम स्व – केन्द्रता ( Collective Orientation v / s Self – Orientation ) | इन प्रतिमानित विकल्पों के द्वारा पार्सन्स ने यह स्पष्ट किया कि कर्ता द्वारा की जाने वाली क्रिया स्वेच्छाचारी नहीं होती बल्कि उस पर सामाजिक नियन्त्रण का एक स्पष्ट प्रभाव होता है । इनकी विस्तृत विवेचना हम प्रतिमानित विकल्प ‘ की आगामी विवेचना में करेंगे ।
( 2 ) सामाजिक क्रिया तथा अन्य किया – ध्यवस्थाएँ ( Sccial Action and Other Action – Systems ) – पार्सन्स तथा एडवर्ड शिल्स ने अपनी पुस्तक ‘ टुवर्डस ए जनरल थियोरी ऑफ एक्शन ‘ में स्पष्ट किया कि व्यक्ति अथवा कर्ता द्वारा की जाने वाली क्रियाओं के कार्य – कारण के रूप में कुछ प्रेरणाओं का विशेष स्थान होता है । यह प्रेरणाएँ मुख्य रूप से तीन है : 1 . ज्ञानात्मक प्रेरणा ( Cognitive Orientation ) वह प्रेरणा है जिसमें व्यक्ति तथ्यों और विश्वासों का निर्धारण उचित की भावना अथवा किसी अन्य प्रकार के ज्ञान के आधार पर करता है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जब व्यक्ति की क्रिया किसी जिज्ञासा , विश्वास अथवा उपलब्ध ज्ञान से प्रभावित होती है तब इसे ज्ञानात्मक प्रेरणा से प्रेरित होने वाली सामाजिक क्रिया कहा जाता है । 2 . भावनात्मक प्रेरणा ( Affective Orientation ) वह दूसरी प्रेरणा है जो कर्ता द्वारा की जाने वाली क्रिया का आधार होती है । इस प्रेरणा से प्रभावित सामाजिक क्रियाएँ विवेक या तर्क पर आधारित नहीं होती है ।
3 . मूल्यांकित प्रेरणा ( Evaluative Orientation ) विशुद्ध रूप से वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधा रित होती है तथा इसमें विश्वास या भावना का कोई समावेश नहीं होता । यह प्रेरणा कर्ता को किसी भी क्रिया को करने से पहले परिस्थितियों का तटस्थ मूल्यांकन करने के लिए प्रेरित करती है । पार्सन्स और शिल्स ने बतलाया कि भिन्न – भिन्न परिस्थितियों और अवसरों पर विभिन्न कर्ताओं की क्रियाएँ इनमें से अलग – अलग प्रेरणाओं से संचालित हो सकती हैं अथवा एक ही कर्ता विभिन्न अवसरों पर इन तीनों तरह की प्रेरणाओं से प्रभावित हो सकता है । इतना अवश्य है कि कोई भी कर्ता जब अनेक लक्ष्यों और साधनों में से कुछ विशेष लक्ष्यों तथा साधनों का चयन करके कोई क्रिया करता है तब वह इन्हीं प्रेरणाओं में से होकर गुजरता है ।
( 3 ) सामाजिक किया तथा भूमिका – व्यवस्थाएँ ( Social Action and Role System ) – पार्सन्स के मतानुसार समाज में कोई क्रिया करते समय कर्ता की अपनी विशिष्ट भूमिकाएं होती हैं । इन भूमिकाओं का कर्ता द्वारा की जाने वाली क्रियाओं के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । यही कारण है कि पार्सन्स ने व्यक्ति को केवल कर्ता के रूप में ही स्वीकार नहीं किया बल्कि उनके अनुसार व्यक्ति भूमिका धारक ( Role Occupant ) भी होता है । उदाहरण के लिए परिवार में क्रिया करने वाला व्यक्ति एक पिता , पुत्र अथवा भाई की भूमिका का धारक भी होता है तथा उसके द्वारा की जाने वाली क्रियाओं पर उसकी भूमिका का एक स्पष्ट प्रभाव पड़ता है । सामाजिक क्रिया और भूमिका – व्यवस्था के सह – सम्बन्ध का उल्लेख करते हुए पासेन्स ने भूमिका व्यवस्था को दो भागों में विभाजित करके स्पष्ट किया । पहली भूमिका व्यवस्था वह है जिसमें कर्ता जिन अन्य व्यक्तियों के बीच रहकर क्रिया करता है , बह उनकी क्रियाओं से प्रभावित होता है ।
कोई भी क्रिया करने से पहले वह यह अवश्ण सोचता है कि दूसरे कर्ताओं के साथ किस तरह का व्यवहार करने से उसका व्यवहार अन्य कर्ताओं के व्यवहार के समान बन सकता है । इस क्रिया को पार्सन्स ने ‘ तकनीकी भूमिका व्यवहार ‘ ( Technical Role Behaviour ) का नाम दिया । दूसरी भूमिका – व्यवस्था कर्ता के उन वास्तविक व्यवहारों से सम्बन्धित है जो कर्ता अन्य व्यक्तियों के साथ करता है । इसके द्वारा पार्सन्स ने यह बतलाया कि कोई भी सामाजिक क्रिया करने से पहले प्रत्येक कर्ता अन्य कर्ताओं से प्रभावित होता है तथा स्वयं उसके व्यवहार अथवा क्रियाएं भी अन्य कर्ताओं को प्रभावित करती हैं । सामाजिक क्रिया की उपर्युक्त अवधारणा से स्पष्ट होता है कि अपने संशोधित रूप में पार्सन्स ने सामाजिक क्रिया के अन्तर्गत पांच तत्त्वों को विशेष रूप से महत्त्व पूर्ण माना है । यह तत्त्व हैं : ( 1 ) कर्ताओं की बहुलता , ( 2 ) लक्ष्यों की अनेकता , ( 3 ) साधनों की विविधता , ( 4 ) परिस्थितियाँ , तथा ( 5 ) उत्प्रेरणा । अपनी पुस्तक ‘ द सोशल सिस्टम में पार्सन्स ने पुन : यह स्पष्ट किया कि सामाजिक क्रिया को सामाजिक व्यवस्था की एक प्रमुख इकाई के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है । इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा कि “ सामाजिक व्यवस्था मानवीय क्रिया व्यवस्था की एक प्रमुख उप – व्यवस्था है । ” वास्तव में सामाजिक क्रिया और सामाजिक व्यवस्था परस्पर सम्बन्धित हैं । पासंन्स का कथन है कि प्रत्येक समाज व्यवस्था इसलिए बनी रहती है कि कर्ता समाज के मूल्यों और सामाजिक प्रतिमानों से प्रभावित होकर ही कोई क्रिया करता है ।