एल० ए० कोजर ,जार्ज सिम्मेल  

एल० ए० कोजर ,जार्ज सिम्मेल  

 एल० ए० कोजर

 

अमेरिकन समाजशास्त्री लेविस ए० कोजर , जर्मन समाजशास्त्री जार्ज सिम्मेल के विचारों से प्रभावित थे । कोजर ने अपनी पस्तक ” फंक्शन ऑफ सोशल कंफ्लिक्ट 1955 में संघर्ष से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर कछ प्रस्ताव रखे । वस्तुतः इन प्रस्तावों की प्रकृति प्राकल्पनात्मक है । उन्होंने अपने प्रस्तावों को संघर्ष के पाँच पहलूओं पर केन्द्रित किया हैI

1 . संघर्ष के कारणों से संबंधित प्रस्ताव

2 . संघर्ष की अवधि से संबंधित प्रस्ताव

3 . हिंसात्मक संघर्ष से संबंधित प्रस्ताव

4 . समूह के लिए संघर्ष की उपादेयता

5 . सम्पूर्ण समाज पर पड़ने वाले संघर्ष के प्रकार्य

 

संघर्ष के कारणों से संबंधित प्रस्ताव : आखिर संघर्ष क्यों होता है इसके उत्तर में कोजर ने मुख्य रूप से दो प्रस्ताव रखे हैं

1.पहला , जब गैर – बरावरी के प्रश्न पर अधिक संख्या में अधीनस्थ सदस्य विरोध करते हैं और गैर बराबरी को वैधता नहीं देने तो संघर्ष प्रारंभ हो जाता है । 

2.दूसरा ,जव अधीनस्थ लोगों के सीमित अभाव अभियोग सामान्य अधीनस्थों के अभाव अभियोग बन जाते हैं तो संघर्ष व्यापक हो जाता है । मतलब हुआ कि जब कुछ लोगों की गरीबी व त्रासदी सामान्य जन – जीवन की त्रासदी बन जाती है तो संघर्ष सापेक्षिक हो जाता है । 

             संघर्ष की परिभाषा देते हुए कोजर ने लिखा है ” जब समाज में किसी प्रकार की सत्ता , सिद्धांत , साधन है और इस विरोध के लिए एक – दूसरे पर हिंसात्मक प्रहार करते हैं या दोनों एक निष्कर्ष पर पहुँचते हैं । ” स्पष्टतः संघर्ष एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति या समूह अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए विरोधी को हिंसा की धमकी देता है या वास्ततिक हिंसात्मक कार्यवाही करता है ।

 संघर्ष के प्रकार्य : कोजर के संघर्ष के प्रकार्यों अथवा परिवर्तन की चर्चा निम्न है 

1.यदि समूह संघर्ष की स्थिति में हों तो प्रत्येक समूह के सदस्यों के आपसी संबंध बढ़ जाते हैं तथा सामूहिक चेतना का विकास होता है । इस चेतना के फलस्वरूप समूह की आंतरिक एकता बढ़ती है तथा संगठन मजबूत होता है ।

2.यदि दो अर्द्ध – समूह संघर्ष की स्थिति में हों तो , दोनों के बीच का सीमा स्पष्ट हो जाता है । 

3.यदि समूह में नेता का अभाव हो या नेतृत्व कमजोर हो तो दूसरे समूह से संघर्ष की स्थिति में , अपने समूह को मजबूत करने के लिए नेतृत्व परिवर्तन किया जाता है तथा नेतृत्व को शक्तिशाली बनाया जाता है । 

4.दोनों के आदर्श प्रतिमान तथा मूल्यों में परिवर्तन होता है जिसके कारण नए आदर्श प्रतिमान आते हैं जो समूह के लिए फायदेमन्द होता है । 

5.दो समूह में संघर्ष के कारण अपने समूह के अन्दर होने वाले द्वन्द्व समाप्त होते हैं जो कि प्रायात्मक वितरण को बदलना पड़ता है और नए ढंग से कार्यों को वितरित किया जाता है । अतः संघर्ष के फलस्वरूप एक नई संरचना का उदय होता है , जिससे सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा मिलता है ।

आलोचना : एल चॉनस्की एवं ऑसिपोव ने कोजर की आलोचना करते हुए कहा है कि संघर्ष हमेशा ही व्यवस्था के विनाशकारी साबित होता है ।

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जार्ज सिम्मेल  

           19वीं शताब्दी के प्रमुख संघर्ष सिद्धांतकारों में जार्ज सिम्मेल तथा कार्ल मार्क्स प्रमुख हैं । मगर इन दोनों के विचारों में अन्तर है । जहाँ सिम्मेल के अनुसार संघर्ष समाज व्यवस्था के लिए । विघटनकारी ही नहीं बल्कि समाज व्यवस्था के लिए फायदेमन्द तथा व्यवस्था को सुदृढ़ करता है । कार्ल मार्क्स के अनुसार संघर्ष से समाज में परिवर्तन होता है तो सिम्मेल कहते हैं कि प्रत्येक संघर्ष समाज को परिवर्तित नहीं करता है                        

       सिम्मेल के अनुसार संघर्ष के दो कारण हैं 

1.व्यक्ति की संघर्षशील मूल प्रवृत्ति एवं 

2.सामाजिक संबंधों के प्रकार ।

ये दोनों तत्व संघर्ष को आवश्यक घटना बनाते हैं । 

संघर्ष के परिवर्त्य :

               1.समाज में नियमन की मात्रा

                2.सीधे संघर्ष की मात्रा एवं 

                3.संघर्षरत पक्षों में तीव्रता की मात्रा

 जब समाज में नियमन की मात्रा अधिक होगी तो संघर्ष प्रतिस्पर्धा बनकर रह जाएगा तथा संगठन मजबूत होगा । अगर समाज में हिंसा अधिक होगी तो संगठन घटेगा । 

संघर्ष के सैद्धान्तिक सूत्र – सिम्मेल के संघर्ष के सैद्धान्तिक सूत्र निम्नलिखित हैं- 

1.संघर्षरत दलों का संघर्ष में जितना अधिक संवेगीय लगाव होगा संघर्ष उतना ही अधिक तीव्र होगा ।

2 . संघर्षरत दल , संघर्ष के दौरान जितने अधिक संगठित होंगे , संघर्षात्मक मुकाबले में उतना ही अधिक भावावेश में आकर व्यवहार करेंगे । 

 3.संघर्षरत दल के सदस्य जितनी अधिक मात्रा में अपने निजी हितों का त्याग करेंगे संघर्ष में उतने ही भावावेश में व्यवहार करेंगे । 

4.यदि संघर्ष का उपयोग , किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधन के रूप में किया जायेगा तो संघर्ष कम तीव्र होगा ।               सिम्मेल द्वारा सैद्धांतिक व्याख्या में कहा गया है कि संघर्ष का लक्ष्य स्पष्ट हो जाने से संघर्षरत दल यह देखते हैं कि कम – से – कम कीमत पर लक्ष्य की प्राप्ति कैसे होगी । कम – से – कम कीमत का अर्थ है संघर्ष के द्वारा हिंसा और तीव्रता के विकल्प को नहीं चूना जायेगा ।

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संघर्ष के परिणाम या प्रकार्य –

सिम्मेल के अनुसार संघर्ष के परिणाम संघर्षरत दल तथा पूरे समाज पर पड़ता है । संघर्ष के परिणामों को सूत्र रूप में इस प्रकार रखा जा सकता है । 

1.संघर्ष के परिणामस्वरूप संघर्षरत दलों की एकता बढ़ती जाती है । 

2.संगठित होकर संघर्षरत दल जब प्रयास करते हैं तो तीव्र संघर्ष की मात्रा घटती है । ऐसा इसलिए होता है कि संगठित दल की मात्र धमकी से ही लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती और तीव्र । संघर्ष या हिंसा की नौबत नहीं आती है जिसके कारण सामाजिक एकीकरण बढ़ता है । मार्क्स का अभिव्यक्ति अधिक होती है । मत इसके विपरीत है कि दलों के संगठित होने से संघर्ष का ध्रुवीकरण होता है और हिंसात्मक अभिव्यक्ति अधिक होगी I

3.संघर्षरत दलों का संघर्ष जितना तीव्र होगा उन दलों का संगठन और आंतरिक व्यवस्था , उतनी ही अधिक संगठित होगी । 

4.संघर्षरत दल जितने ही कम संगठित होंगे , और अगर संघर्ष की मात्रा तीव्र होगी तो दलों में तानाशाही की प्रवृत्ति बढ़ेगी ।

5.यदि संघर्ष तीव्र होगा . और संघर्षरत लोटे या अल्पसंख्यक होंगे तो उनमें आंतरिक एकता बढ़ेगी । 

6.संघर्षरत दल जब आत्मरक्षा के लिए संघर्ष करेगा तो उसका संगठन तथा एकता होगी । सिम्मल के विचारों की तलना मार्क्स के विचारों से करने स्पष्ट है कि मार्क्स सामाजिक संघर्ष का आनवार्य घटना मानते हैं , जबकि सिम्मेल सहयोगात्मक और असहयोगात्मक दोनों प्रवृत्तिया को महत्त्व देता है । मार्क्स के अनुसार संघर्ष से समाज परिवर्तित होता है जबकि सिम्मेल कहते हैं कि प्रत्येक संघर्ष परिवर्तन नहीं लाता है । 

संघर्ष से परिवर्तन : 

 

 1.एकता 2 . संगठित होकर संघर्ष 

             3.तीव्र संघर्ष एवं 4 . तानाशी की प्रवृत्ति 

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