भारत में सामाजिक विघटन के कारण

भारत में सामाजिक विघटन के कारण

  विकास और राष्ट्रीय निर्माण भारत में सामाजिक समस्याओं की स्थिति व विघटन के स्वरूप पर्याप्त गम्भीर हैं और इसका विस्तार भी इतना अधिक है कि वे एक जटिल रूप में ही आज हमारे सामने उपस्थित होते हैं । इस जटिलता को उत्पन्न करने के लिए एकाधिक कारण इस देश में निरन्तर क्रियाशील हैं ।

इन कारकों को संक्षेप में इस प्रकार क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है

सामाजिक कारण 

 

 जाति – प्रथा और जातिवाद  :

भारतीय जाति प्रथा ने हिन्दू समाज को विभिन्न खण्डों में विभाजित कर दिया है । इस खण्ड – विभाजन ( segmentla division ) का तात्पर्य , डॉ . घुरिये के अनुसार , यह है कि जाति – प्रथा द्वारा आबद्ध समाज में सामुदायिक भावना मोमिन होतो और वह सामुदायिक भावना समग्र मानव समुदाय के प्रति न होकर एक जाति के होती है । उस जाति के सदस्य पहले अपनी जाति के प्रति वफादार रहने का प्रयत्न करते हैं । इससे जातियों के बीच एक तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । इस तनाव का एक कारण यह भी है कि THथा के विभिन्न खण्डों में ऊँच – नीच का एक संस्तरण या चढ़ाव – उतार होता है और ऊँची जाति को कप्रकार के विशेषाधिकार दिए जाते हैं जिसके बल पर वह निम्न जातियों पर अत्याचार करती है । लियों के बीच यह कटता जातिवाद के कारण और भी बढ़ जाती है । जातिवाद एक जाति के मास्यों की वह भावना है जो अपनी जाति के हित के सम्मुख अन्य जातियों के सामान्य हितों की अवहलेना और प्रायः हनन करने को प्रेरित करती है ।

 

 . अस्पृश्यता ( Untouchability ) : जाति – प्रथा की भाँति अस्पृश्यता भी सामाजिक समस्याओं का एक उल्लेखनीय कारण है । अस्पृश्यता देश के लाखों लोगों को नाना प्रकार की धार्मिक , सामाजिक , आर्थिक व राजनीतिक निर्योग्यताओं का शिकार बनाकर समाज व सामाजिक जीवन से पृथक ही नहीं कर देती है बल्कि उन पर अनाचार और अत्याचार भी चलाती है । इन निर्योग्यताओं के फलस्वरूप सामाजिक एकता में बाधा उत्पन्न होती है , राजनीतिक फूट पनपती है , आर्थिक असमानताएँ समाज में घर कर लेती हैं , तथाकथित अस्पृश्य जातियों पर अशिक्षा और दरिद्रता का दानव राज्य करता है , उनके स्वास्थ्य का स्तर गिरता है और राष्ट्र – निर्माण के काम में वे सक्रिय भाग नहीं ले पाते हैं । इससे सामाजिक जीवन का सन्तुलन बिगड़ जाता है ।

 

 . सामाजिक कुरीतियाँ ( Defective Social Customs ) : भारतीय समाज एका धिक कुरीतियों का शिकार बना हुआ है जोकि समाज के सन्तुलित विकास के पथ पर बाधाओं की सृष्टि करती हैं । इन कुरीतियों में दहेज – प्रथा , बाल – विवाह प्रथा , कुलीन विवाह प्रथा , विवाह – विच्छेद तथा विधवा पुनर्विवाह पर रोक आदि उल्लेखनीय हैं ।

 

 दहेज – प्रथा दिन – पर – दिन कटु रूप धारण करती चली जाती है और इसे रोकने के लिए कानन बन जाने पर भी इसका प्रकोप आज भी कम नहीं हआ है । वर पक्षक बढ़ती हुई माँगों को पूरा करने के लिए लड़की के माता – पिता ऋण लेते हैं अथवा अपनी सम्पत्ति को बेचते या गिरवी रखते हैं और आजीवन ऋण के बोझ से लदकर पारिवारिक विघटन का बीज बोते हैं । यह भी होता है कि लड़कियाँ अपने माता – पिता के दुर्व्यवहार या तानों से परेशान होकर या उन्हें योग्य वर की तलाश में दर – दर ठोकरें खाते देखकर आत्महत्या को आत्मरक्षा के साधन के रूप में चुन लेती हैं ।

 

 विवाह – विच्छेद और विधवा पुनर्विवाह पर रोक अन्य सामाजिक कुरीतियाँ हैं जिनके कारण भारत में सामाजिक व पारिवारिक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं । भारतीय समाज विशेषकर हिन्द समाज के वैवाहिक जीवन में सामाजिक और धार्मिक कानूनों का ऐसा जाल बिछा हुआ है कि उसमें फँसी हुई हिन्दू स्त्री दुखी जीवन को सुखी बनाने की बात सोच भी नहीं सकती ; चाहे पति अत्याचारी , शराबी , जुआरी , चोर और भ्रष्टाचारी ही क्यों न हो , पत्नी को उसी के साथ जीवन व्यतीत करने का आदर्श बचपन से ही उसमें भर दिया जाता है । फलतः कानूनी तौर पर विवाह – विच्छेद मान्य होने पर भी पलियाँ विवाह – विच्छेद का बात बहुत कम सोचती हैं । परिणाम यह होता है कि समाज में स्त्रियों की स्थिति गिरती है और पारिवारिक जीवन असुखी बना रहता है । उसी प्रकार विधवापुनर्विवाह पर रोक अनेक सामाजिक समस्याओं को उत्पन्न करती है जिसके परिणास्वरूप सामाजिक विघटन की स्थिति उत्पन्न होती है । बाल – विधवाओं की समस्या वास्तव म . मर्मस्पर्शी है । यौन – इच्छाओं की तप्ति एक स्वाभाविक मानव – वृत्ति है । जब विधवाओं को पुनविवाह काछूत न देकर जबरदस्ती इसे रोकने का प्रयत्न किया जाता है , तभी अनुचित यौन सम्बन्ध को प्रोत्साहन मिलता है ।

इस प्रकार जिन विधवाओं का पैर फिसल जाता है वे या तो आत्महत्या करके परिवार तथा अपन सम्मान को रक्षा करती हैं या समाज व परिवार से बहिष्कत होकर धर्म – परिवर्तन कर लेती हैं या वेश्यावृत्ति  हैं । ोलन ( Feminist movement ) : महिला आन्दोलन और स्त्रियों को ” कप्रसार के फलस्वरूप भारतीय स्त्रियों की स्थिति समाज में पहले से काफी उन्नत हा गरहै । यह बात सच होते हुए भी इस सत्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि महिला आन्दोलन व स्त्री – शिक्षा के परिणामस्वरूप स्त्रियों में जो जागृति आई है उससे सामाजिक असन्तुलन की स्थिति भी उत्पन्न हुई है , इसलिए नहीं कि महिला आन्दोलन व जागृति बुरी है , पर इसलिए कि इसके फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों से अभी तो पुरुष क्या , स्वयं स्त्रियों का भी ठीक से अनुकूलन नहीं हो पाया पत्नियाँ भी महिला आन्दोलन के फलस्वरूप प्राप्त अधिकारों का उपभोग करने के जोश में आधारभूत कर्तव्यों के सम्बन्ध में कभी – कभी सचेत नहीं रहती हैं । नौकरी करती हैं , पर परिवार के बड़े – बूढ़ों का अनादर भी करती हैं ; शिक्षा प्राप्त करती हैं , पर अशिक्षितों से घृणा भी करनी लगती है : विवाह करती हैं , पर अपने ‘ मैं को बनाए रखने की धुन में विवाह के बाद पति – पत्नी मिलकर ‘ हम हो जाते हैं या हो जाना चाहिए इस सत्य को भूल जाती हैं ; माँ बनती हैं , पर फीचर ‘ या ‘ फिगर खराब होने के डर से अपनी ही सन्तान को अपना दूध पिलाना तक पसन्द नहीं करती है – यह काम ‘ अमूल ‘ ( Amul ) या ग्लैक्सों ( Glaxo ) कम्पनी के जिम्मे छोड़कर निश्चिन्त हो जाती हैं । समस्या यहीं से शुरू होती है , इसी प्रकार शुरू होती है ।

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आर्थिक कारण ( Economic Causes ) भारत में सामाजिक समस्याओं के कुछ आर्थिक कारण भी हैं जिनमें से सर्वप्रमुख निम्नलिखित

 

 औद्योगीकरण सामाजिक समस्याओं के कारण के रूप में ( Industrializa tion as a cause of Social Problems ) : भारतीय समाज में समस्याओं को जन्म देने में जितने भी आर्थिक कारण उत्तरदायी हैं उनमें सबसे प्रमुख औद्योगीकरण है । औद्योगीकरण निम्न प्रकार से सामाजिक समस्याओं को उत्पन्न करता है

 

 पारिवारिक महत्त्व को घटाकर – औद्योगीकरण के कारण परिवार के बहुत से कार्यों को अब बाहर की समिति तथा संस्थाओं ने ले लिया है । इतना ही नहीं , औद्योगीकरण के कारण नगरों में रोजगार का क्षेत्र विस्तृत हो गया है और परिवार के सदस्य देश में इधर – उधर छिटक गए हैं जिनमें संयुक्त परिवार का विघटन हुआ है ।

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  निवास – स्थानों की कमी उत्पन्न करके – – औद्योगीकरण के फलस्वरूप नगरों में जनसंख्या तेजी से बढ़ती है , पर उस तेजी से मकान नहीं बन पाते हैं जिसके फलस्वरूप औद्योगिक केन्द्रों में मकानों का किराया बहुत ज्यादा होता है । ऊंचा किराया देकर मकान न ले सकने के कारण अनेक लोगों को मेस तथा होटल आदि में रहना पड़ता है और उस अवस्था में उनके उपर परिवार का कोई नियन्त्रण नहीं रहता है और वे मनमाने ढंग से काम कर सकते हैं – चाहे जुआ खेले , नशा करें या वेश्यागमन करें । इससे धन और स्वास्थ्य की बर्बादी होने के साथ – साथ व्यक्तिगत तथा पारिवारिक संघटन या तनाव उत्पन्न हो जाता

 

 स्त्री – पुरुष के अनुपात में भेद उत्पन्न करके – मकानों की कमी होने तथा महंगाई भी अधिक होने के कारण शहर में रहने वाले बहुत से पुरुष अपने बीवी – बच्चों को नगरों में नहीं ला पाते हैं और स्वयं अकेले रहते हैं । इससे नगरो में स्त्रियों से कहीं अधिक पुरुष रहते हैं । स्वस्थ पारिवारिक जीवन न बिता सकने वाले पुरुष वेश्यावृत्ति , जुआ , शराब इत्यादि व्यभिचार फैलाकर न केवल अपने जीवन को बल्कि सामाजिक जीवन को भी कलुषित व विघटित कर देते हैं ।

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  प्रतिस्पर्धा और बेकारी को बढ़ाकर – औद्योगीकरण ने बड़े पैमाने पर उत्पादन – कार्य को करने में सहायता पहुँचाई । फलतः एक आवश्यकता की पूर्ति के लिए अनेक चीजों का उत्पत्र होना शुरू हो गया जिसके फलस्वरूप आर्थिक जीवन में प्रतिस्पर्धा ( competition ) अत्यधिक बढ़ गई है । प्रतिस्पर्द्धा में जो लोग वैध तरीक से सफल नहीं हो पाते हैं वे प्रायः अवैध तरीकों को अपनाते हैं । इसमे देश में  अतिरिक्त औद्योगीकरण हो जाने के बाद आज उन सब कामों को एक मशीन ली है पी करते थे । इससे श्रमिकों की आवश्यकता कम हो गई और देश में बेकारीफैलने लगी । या ग्रामोद्योगों को नष्ट करके – भारत में औद्योगीकरण का एक और दुष्परिणाम यह कि उससे ग्रामोद्योगों का विनाश होता गया । इससे एक ओर ग्रामोद्योगों का विनाश होता गया और के साथ – साथ गाँव की आर्थिक स्थिति खराब होती गई और दूसरी ओर इन उद्योगों में लगे हजारों कि बेकार हो गए और उनके व्यक्तिगत तथा पारिवारिक जीवन का सन्तलन बिगड़ गया है । कछ लोगों बार में आकर नौकरी कर ली और जिन लोगों को नहीं मिली उनमें से कुछ लोगों ने चोरी , डकैती आदि के धन्धों को अपनाया ।

 

  गन्दी बस्तियाँ विकसित करके – औद्योगीकरण का एक बहुत भयंकर सामाजिक परिणाम गन्दी बस्तियों का विकास है । उद्योग – धन्धों के पनप जाने से नगर की जनसंख्या बहुत बढ़ जाती है और मकानों की अत्यधिक कारी हो जाती है । उस कमी को पूरा करने के लए नगरों में गन्दी बस्तियों का विकास होता है । इन बस्तियों में मकानों की दशा कितनी शोचनीय होती है उसे देखे बिना उसके सम्बन्ध में अनमान भी नहीं लगाया जा सकता । बम्बई , कलकत्ता , कानपुर आदि औद्योगिक केन्द्रों में एक छोटे – से कमरे में 6 से 9 व्यक्ति तक रहते हैं । इन कमरों में हवा और रोशनी , पाखाना और पेशाब किसी भी चीज का प्रबन्ध नहीं रहता है । दिन के बारह बजे भी बत्ती के बिना कुछ दिखाई नहीं देता है । फर्श कच्चे होते हैं , जहाँ – तहाँ कड़ा – करकट इकट्ठा होता रहता है और समस्त वातावरण दूषित और असहनीय होता है । किराये में बचत करने के विचार से 4 से 6 परिवार एक मकान को किराए पर ले लेते हैं जहाँ न तो स्त्रियों के लिए और न हो जवान लड़कियों के लिए कोई पदो रह जाता है । बरे व्यक्ति अक्सर उन्हें अपनी काम – वासना का शिकार बना लेते हैं । अस्वास्थ्यकार मकानों में रहने से लोगों का न केवल स्वास्थ्य ही खराब होता है बल्कि वे अनेक ऐसी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं जो पीढ़ियों तक उनका पीछा नहीं छोड़तीं । ऐसे लोगों के परिवार में बाल – मृत्यु , मलेरिया और तपेदिक आदि रोग घर कर लेते हैं । गन्दे वातावरण में रहने वाले श्रमिकों की मनोभावना भी गन्दी हो जाती है । उसमें चोरी की आदत , शराब पीने की आदत , जुआ खेलने का शौक आदि दुर्गुण पैदा हो जाते हैं । ऐसे मकानों में गोपनीय स्थान का नितान्त अभाव होता है । इस कारण माता – पिता तथा अन्य व्यस्क व्यक्तियों के यौन – व्यवहारों को बच्चे देखते और सोखते रहते है । इसका बुरा प्रभाव बच्चों के नैतिक विकास पर पड़ता है । साथ ही घर के अन्दर बच्चों को खेलने – कदने का स्थान न मिलने वे रास्ते पर खेलने जाते हैं , बुरी संगत में फँस जाते हैं और बाल – अपराधी बन जाते हैं ।

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  औद्योगिक झगड़े ( Industrial Disputes ) : आधुनिक औद्योगीकरण का एक भयंकर दुष्परिणाम औद्योगिक झगड़े हैं जो आर्थिक उत्पादन की प्रक्रिया के दो सजीव साधनों – पूँजीपति और श्रमिक के बीच संघर्ष की स्थिति को उत्पन्न करता है । मालिक अपनी तिजोरी भरना चाहता है और श्रमिक अपना पेट । पर जब तिजोरी भरती जाती है और पेट खाली रह जाता है , तभी तिजोरी और पेट में – मालिक और मजदूरों में – संघर्ष होता है । औद्योगिक झगड़ों का बहुत बुरा प्रभाव श्रमिकों , मालिकों आर राष्ट्रों पर पड़ता है । हड़ताल और तालाबन्दी की अवस्था में श्रमिकों को मजदूरी नहीं मिलती , जिससे उनमें निर्धनता और ऋणग्रस्तता बढ़ती है ; कुछ बेहड़ताल में सक्रिय भाग लेने के कारण नौकरी से हाथ धोना पड़ता है । इससे बेरोजगारी बढती है । और बेरोजगारी दोनों ही ऐसी सामाजिक समस्याए है , जोकि आर्थिक व सामाजिक जीवन को खोखला बना देती हैं ।

 

 निर्धनता ( Poverty ) : निर्धनता स्वयं सामाजिक समस्या की एक अभिव्यक्ति है , पर साथ ही निर्धनता अन्य रूप में सामाजिक समस्याओं का कारण भी है । निर्धनता बाल – अपराध , अपराध , आत्महत्या , विवाह – विच्छेद और बेकारी का कारण बनकर सामाजिक सन्तुलन को समाप्त कर सकती है । कुछ विद्वानों का कथन है कि निर्धनता बाल – अपराध का मख्य कारण है । इसी प्रकार निर्धनता के कारण अपराध भी पनपता है । अपनी आँखों के सामने स्त्री व बच्चों को भूखा मरते हुए देखने की तुलना में चोरी करना  अरल होता है । गरीबी से पीडित व्यक्ति अपने आश्रितों के रोटी – कपड़ो का  उस अवस्था में वह आत्महत्या करके अपने को आत्मलज्जा से बचाता OPE

 

है । अतः स्पष्ट है कि निर्धनता बाल – अपराध , आत्महत्या , बेरोजगारी को पनपाकर सामाजिक समस्याओं को उत्पत्र करने वाला एक कारण है ।

 

 बेरोजगारी ( Unemployment ) : भारतवर्ष में बेरोजगारी की समस्या बहुत ही गम्भीर है । यह बेकारी की स्थिति स्वयं एक सामाजिक समस्या होने के साथ – ही – साथ उसका एक प्रमुख कारण भी है । अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति एच . हवर ( H . Hoover ) ने सच ही कहा है कि बेरोजगारी से बढ़कर संसार में कोई बर्बादी नहीं है । बेकार व्यक्ति अपने तथा अपने आश्रितों की मौलिक आवश्यकताओं तक की पूर्ति नहीं कर पाता है । उसे न तो उचित रूप में खाने को मिलता है और न ही अच्छे मकानों में रहने की सुविधा प्राप्त होती है । इससे न केवल रहन – सहन का स्तर घटता है , बल्कि स्वास्थ्य – स्तर भी गिरता है । बेकार व्यक्ति के लिए चोरी , डकैती , जालसाजी या वेश्यावत्ति के रास्ते को अपना लेना सरल होता है । बेकारी , भीख माँगने , जआ खेलने और शराब पीने की सामाजिक समस्या को जन्म देती है ।

 

  कृषि की पिछड़ी दशा ( Backward Condition of Agriculture ) : कृषि भारतवर्ष का सबसे प्रमुख और प्राचीन पेशा है । इस देश की 75 प्रतिशत जनता अपनी जीविका के लिए कृषि पर निर्भर है । फिर भी दुख की बात यह है कि भारत में कृषि की दशा बहुत ज्यादा पिछड़ी हुई है । इस दशा ने गाँव की जनता की दशा को भी बहुत पछाड़ दिया है । ग्रामीण समुदाय को विघटित करने वाली समस्याओं , जैसे भूमिहीन कृषि मजदूरों की समस्या , ग्रामीण जनता की गरीबी की समस्या , ऋणग्रस्तता और स्वास्थ्य की समस्याओं का एक प्रमुख कारण कृषि की पिछड़ी दशा है । डॉ . हैकरवाल ( Haikerwal ) का कथन है कि भारतवर्ष में जिस साल प्रदेश में फसल अच्छी नहीं होती है , वहाँ अपराधियों की संख्या में तत्काल वृद्धि हो जाती है । डकैती , चोरी आदि सम्पत्ति के विरुद्ध अपराध बहुत होने लगते हैं जिससे ग्रामीण समुदाय एक अनिश्चित व संकटकालीन स्थिति में से गुजरता है । रन

 

  अति जनसंख्या ( Over – population ) : भारतीय जीवन व समाज को विघटित करने और उसे खोखला बनाने वाला एक और उल्लेखनीय कारक यहाँ की अति जनसंख्या की स्थिति है । हमारे राष्ट्रीय जीवन को पाकिस्तान या चीनी हमलों से उतना खतरा नहीं है जितना की अति जनसंख्या की स्थिति से । विभिन्न जनगणना से पता चलता है कि सन् 1921 में भारत की जनसंख्या प्रायः 25 . 13 करोड़ थी जोकि सन् 1991 में बढ़कर प्रायः 84 . 39 करोड़ हो गई है । इस देश की आबादी में 47 . 319 की दैनिक वृद्धि होती है । अति जनसंख्या के कारण राष्ट्र का अधिकांश धन जनता के लिए खाद्य – सामग्री जुटाने में खर्च हो जाता है और पूंजी का निर्माण नहीं हो पाता है । अति जनसंख्या होने से प्रति व्यक्ति आय घट जाती है और निर्धनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । निर्धन जनता बीमार , दर्बल और अकुशल होती है । इस कारण उनकी कार्यक्षमता भी कम होती है और उत्पादन घटता है । इतना ही नहीं , अति जनसंख्या की स्थिति में वेकारी की समस्या गम्भीर हो जाती है जोकि स्वंय ही सामाजिक समस्याओं का एक कारण है । अतिजनसंख्या के कारण जमीन पर जनसंख्या का दबाव भी बढ़ता जाता है और खेत के छोटे – छोटे टुकडे होते जाते हैं । दोनों ही स्थितियों में ग्रामीण जनता को आर्थिक हानि होती है ।

 

 सांस्कृतिक कारण ( Cultural Causes ) भारत में सामाजिक समस्याओं के कुछ सांस्कृतिक कारण भी उल्लेखनीय है जोकि इस प्रकार है

 

 त्रुटिपूर्ण शिक्षा पद्धति ( Defective Elucational System ) : भारत में वर्तमान शिक्षा रूपारी आवश्यकताओं को पूर्ति करने में असफल है , इस कारण इस शिक्षा के द्वारा व्यवहारिक जीवन की समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सक रहा है । वर्तमान शिक्षा न तो व्यवहारिक है और न ही प्राकृतिक साथ ही सम्पूर्ण शिक्षा पद्धति या परीक्षा पद्धति दोषपूर्ण है । इसका परिणाम यह हआ है कि विद्यार्थियों में अनुशासन की मात्रा दिन – प्रतिदिन घटती जा रही है । विद्यार्थियों में अनुशासन न होना सामाजिक विघटन OREDएका लक्षण है क्योकि स्कूल का अनुशासन धीरे – धीरे परिवार में और फिर परिवार में राष्ट्र में 3AQUAD CAMERA क्योकि स्कूल का अनुशासन धीरे

 

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*  . भाषा का संघर्ष ( Conflict of Language ) : भारतवर्ष एक ऐसा देश है , जहाँ कि अनेक भाषाओं को बोला जाता है । भाषा के आधार पर जितनी भिन्नता भारत में है उतनी शायद दनिया के और किसी देश में नहीं । प्रत्येक भाषा अपनी उत्कृष्टता को प्रमाणित करने के लिए दूसरे को दबाने का प्रयत्न भी करती है । इसका परिणाम भाषा के आधार पर संघर्ष ही होता है । हिन्दी राष्ट्रभाषा है , फिर भी उसे उस रूप में पर्णतया मान लेने के विरुद्ध अभी हाल में बंगाल , मद्रास आदि प्रान्तों में कितना विरोध – आन्दोलन चला . इससे तो सभी लोग अवगत हैं । लड़ाई भाषा को लेकर होती है , पर जान आम आदमी की जाती है । इतना ही नहीं , इस देश में भाषा के आधार पर पृथक प्रान्तों में विभाजन की माँग की जाती है जो दंगों , हड़तालों आदि को उत्साहित करती है ।

 

. धर्म ( Religion ) : हमारे देश में अनेक ठग और बदमाश साधुओं और पुजारियों के रूप में समाज – विरोधी कार्यों को धर्म की आड़ में करते रहते हैं । भाँग , गाँजा , चरस आदि नशाखोरी को इस देश में धार्मिक मान्यता दी जाती है और इस प्रकार का नशा करने वाले लोग कोई खराब काम कर रहे हैं यह बात कभी स्वीकार नहीं करते हैं । भारतवर्ष में धर्म की सबसे कटु विघटनात्मक अभिव्यक्ति हिन्दू और मुस्लिम धार्मिक समूहों के बीच होने वाले संघर्ष में है । स्वतन्त्रता – प्राप्ति के पूर्व तो ऐसे झगड़े प्रायः होते ही रहते थे जिससे दोनों ही पक्षों के अनेक लोगों की जान जाती थी और मकान , व्यापार धन आदि की जो बर्बादी होती थी वह अलग से । सन् 1942 में कलकत्ता तथा बंगाल के अन्य भागों में हुए ‘ डाइरेक्ट ऐक्शन ‘ ( Direct Action ) को विभीषिका को आज भी हम भूल नहीं सके हैं । ‘ इस्लाम खतरे में हैं यह नारा लगाकर अखण्ड भारत को , हजारों वर्ष से भाई – भाई से रूप में रहने वाले हिन्दू और मुसलमानों को , दो टुकड़ों में बाँट दिया गया । संयुक्त देश विभाजित हुआ , लाखों लोग बेघरबार हो गए , लुट गए , मिट गए । इससे धर्म की रक्षा कितनी हुई , यह सन्देहजनक है । हाँ मानवता के विरुद्ध घृणा , पक्षपात , हिंसात्मक भावनाएँ , असहनशीलता और अविश्वास अवश्य ही उत्पन्न हुआ । यही धर्म का विघटनात्मक प्रभाव है ।

 

 . मनोरंजन ( Recreation ) : भारतवर्ष में मनोरंजन के विभिन्न साधन भी सामाजिक विघटन को उत्पत्र करते हैं । इस देश में मनोरंजन के साधनों का व्यापारीकरण दिन – प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है । मनोरंजन से सम्बन्धित व्यापारी केवल अधिक – से – अधिक लाभ उठाने के लिए जनता के कल्याण पर भी आघात कर बैठते हैं । सिनेमाओं तथा थियेटरों में दिखलाए जाने वाले भद्दे , अश्लील , कमोद्दीपक दृश्य इसके उत्तम मनोरंजन के साधनों से भारत के नवयुवक तथा युवतियाँ रोमान्स की नई – नई विधियों तथा ‘ चमत्कारों को सीखते हैं , माता – पिता के प्रति अनादर की भावना अपनाते हैं , रोमाण्टिक तरीके से विवाह करते हैं और पारिवारिक विघटन के जाल में फँस जाते हैं । यौन – अपराधों को भी सिनेमा द्वारा ही बढ़ावा मिलता है । सिनेमा से ही लोग विलासपूर्ण जीवन के प्रति इतना अधिक आकृष्ट हो जाते हैं कि गैर – कानूनी तौर पर भी उस जीवन – स्तर पर पहुँचने का प्रयत्न करते हैं । सामाजिक समस्याओं का सूत्रपात तभी होता है ।

 

 राजनैतिक कारण ( Political Causes ) भारत की सामाजिक समस्याओं में राजनीतिक कारण भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें से प्रमुख कारणों का हम संक्षेप में उल्लेख कर सकते हैं जोकि इस प्रकार है

 

 राजनीतिक दलबन्दी . भारतवर्ष के राजनीतिक जीवन की एक उल्लेखनीय विशेषता दलबन्दी है । अलग – अलग राजनीतिक पार्टियों में जो तनाव की स्थिति बहजो है ही , इसके अलावा एक ही पार्टी में गुटबन्दी ( Groupism ) सामानोबा निन्तर कलुषित करती रहती है । यह स्थिति उस समय और भी स्पष्टतः दृष्टिगा जबांग दी देश पर शासन करने वाले राजनीतिक दल में उमति कट रूप धारण कर लेती है । एक गटसाको नाम काता एक – दूसर । पर कीचड़ उछालता है और भ्रष्टाचार को फैलाने में सहायता करता है । सपटान्दो का परिणाम यह हाला हाक शासन की बागडोर एक गट से दसरेगर के हाथ में आ जाती है और फिर सव तनाव कास्थित अपना चरम सीमा पर पहुंच जाती है । इसके फलस्वरूप समाज में एक ऐसी अनिश्चित स्थिति उत्पन्न होता तिक समस्याएँ स्वयं ही जन्म लेती है ।

 

 युद्ध : भारतीय समाज को विघटतिकरने का एक और महत्त्वपूर्ण कारण युद्ध है जो पिछले 15 – 20 वर्ष से भारतीय जीवन को पीड़ित कर रहा है । सितम्बर , 1965 में और फिर बंगला देश के मामले को लेकर सन् 1971 के अन्त में एक और पड़ोसी राष्ट्र पाकिस्तान सदियों से साथ – साथ और भाई – भाई के रूप में रहने वालों ने अप्रत्यक्ष युद्ध छेड़ा जिसने शीघ्र ही वास्तविक युद्ध का रूप धारण कर लिया । इस युद्ध में धन , शहर , गाँव , मन्दिर , मस्जिद और गिर्जाघरों की जो बर्बादी हुई उसे छोड़कर 2 , 226 भारतीय जवानों को भारत माँ की लाज रखने के लिए अपने प्राणों को निछावर करना पड़ा । हमारे 7 , 870 जवान घायल हुए । इससे निःसन्देह ही भारत की गौरवपूर्ण मर्यादा की रक्षा हुई है , पर अनेक व्यक्तिगत , पारिवारिक तथा सामाजिक समस्याएँ भी उत्पन्न हुई हैं , इस सत्य को भी स्वीकार करना ही होगा ।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारत में सामाजिक समस्याओं के एकाधिक कारण हैं । परन्तु स्मरण रहे कि बहुधा इनमें से कोई एक कारण सामाजिक समस्या को उत्पन्न करने में सफल नहीं होता है जब तक कि अन्य कारणों का सहयोग उसे प्राप्त न हो जाए । अन्य समाजों की भाँति भारत में भी सामाजिक समस्याएँ एकाधिक कारणों की क्रियाशीलता का परिणाम हैं । किसी भी वैज्ञानिक विश्लेषण में इस सत्य को अस्वीकार करना किसी भी रूप में उचित न होगा

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