सामाजिक आन्दोलन

सामाजिक आन्दोलन

अवधारणा :

 

– सामाजिक आन्दोलन की चर्चा 20 वीं शताब्दी के मध्य में बहुत गई । इसका काल यह है कि लातीनी अमेरिका और एशिया में इस काल में बहुत व्यापक आन्दोलन हुए । इस समय चीन जैसे देश में सामाजवादी क्रान्ति हो गई । पूर्वी यूरोप के चौदह देशों में लौटती रूसी सेना ने समाजवाद ला दिया और 1960 में अफ्रीका के देश एक ही समय में स्वतन्त्र हो गए । सामाजिक आन्दोलन को एक ऐसे प्रयत्न के रूप में देखा जाता है जिसके द्वारा एक विशेष समूह अथवा समुदाय अपनी सामाजिक संस्थाओं तथा सामाजिक संरचना में वांछित परिवर्तन ला सके । वास्तव में , सामाजिक आन्दोलन का उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन लाना ही नहीं बल्कि कभी – कभी परिवर्तन को रोकना भी होता है ।

इसका तात्पर्य है कि सामाजिक आन्दोलन एक ऐसा सामूहिक प्रयास है जो किसी विशेष विचारधारा के आधार पर लोगों को संगठित होकर अपनी समस्याओं का समाधान करने तथा वाछित उद्देश्यों को प्राप्त करने की प्रेरणा देता है | प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बाध्यता और दबाव का तत्व मौजूद रहता है । विभिन्न विद्वानों के द्वारा दिए गए परिभाषाओं को देखा जा सकता है एम . एस . ए . राव ने अपनी पुस्तक Social Movements in India में लिखा है कि “ सामाजिक आन्दोलन समाज के किसी भाग द्वारा समाज में आंशिक या पूर्ण परिवर्तन लाने के लिए किया जाने वाले संगठित प्रयत्न है । इसमें एक विचारधारा पर आधारित सामूहिक संगठन निहित होता है । ” ( ” …… a social movement is an organised attempt on the part of a section of society to bring about either parlial or total change in society through collective mobilization based on an ideology . ” ) इस प्रकार , एम . एस . ए . राव की परिभाषा से निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं

  1. सामूहिक प्रयास

  2. आंशिक अथवा पूर्ण परिवर्तन

  3. उद्देश्य

  4. एक विचारधारा

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राल्फ टर्नर तथा लेविस किलेन ने अपनी पुस्तक Collective Behaviour में कहा कि ” सामाजिक आन्दोलन निरन्तरता के साथ किया जाने वाला वह सामूहिक प्रयास है जिसका उद्देश्य उस समाज में परिवर्तन को प्रोत्साहन देना या परिवर्तन को रोकना होता है जिसके कि वे लोग एक अंग होते हैं । ” ( ” Social movement is a collective acting with some continuity to promote or resist change in the society or group of which it is a part . ” —Collective Behaviour – P – 38 ) टर्नर तथा किलेन की परिभाषा में निम्नलिखित तत्व अन्तर्निहित हैं

  1. सामूहिक प्रयास

  2. निरन्तरता

  3. उद्देश्य

  4. परिवर्तन – रोकना अथवा करना

हरबर्ट ब्लूमर ने परिभाषित करते हुए कहा कि ” जीवन की एक नयी व्यवस्था को स्थापित करने के उद्देश्य से किया जाने वाला सामूहिक प्रयास को ही सामाजिक आन्दोलन कहते हैं । ” अतः उपर्युक्त सभी विद्वानों की परिभाषाओं पर नजर डालें तो इसमें ये सभी तत्व अन्तर्निहित हो तो हैं

1 . एक सामूहिक प्रयास

  1. आंशिक अथवा पूर्ण परिवर्तन
  2. एक विशेष उद्देश्य
  3. एक विचारधारा
  4. निरन्तरता
  5. एक नेतृत्व
  6. परिवर्तन – रोकना अथवा करना

8.संगठन

सामाजिक आन्दोलन की विशेषताएँ :

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  1. सामूहिक प्रयास : सामाजिक आन्दोलन का संबंध सामूहिक प्रयासों से होता है , व्यक्तिगत प्रयत्नों से नहीं । यह सामूहिक प्रयास वे हैं जो एक लम्बे समय तक समाज अथवा संस्कृति में पूर्ण या आंशिक परिवर्तन लाने के लिए किये जाते हैं अथवा इसके द्वारा किसी परिवर्तन का विरोध किया जाता है । सामूहिक प्रयास से ही बहुत बड़ी संख्या में लोग अपनी समस्याओं और उनके समाधान के प्रति जागरूक होते हैं ।

  1. संगठित योजनाओं पर आधारित : आन्दोलन का स्वरूप सामाजिक , धार्मिक , राजनीतिक चाहे जैसा भी हो उसका संचालन कोई – न – कोई संगठित जन – समूह ही करता है । भारत में महँगाई के विरुद्ध आन्दोलन अनेक संगठित राजनीतिक दल कर रहे हैं । सती प्रथा तथा बाल विवाह के विरुद्ध आन्दोलन आर्य समाज , ब्रह्म समाज आदि संगठित संस्थाओं ने किया था ।

  1. निश्चित लक्ष्य : सामाजिक आन्दोलन की एक प्रमुख विशेषता यह है कि प्रत्येक आन्दोलन का एक निर्धारित लक्ष्य अथवा उद्देश्य होता है । यही लक्ष्य आन्दोलन को एक विशेष दिशा देते हैं अथवा इसमें सहभाग करने वाले लोगों को एक – दूसरे से जोड़ते हैं । यह संभव है कि आन्दोलन के द्वारा निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त न किया जा सके लेकिन आन्दोलन के रूप का निर्धारण उसके लक्ष्यों के अनुसार ही होता है । उदाहरण के लिए ब्रह्म समाज का लक्ष्य कुप्रथाओं और धार्मिक अंधविश्वासों को दूर करना था , जबकि गाँधीजी द्वारा चलाये जाने वाले नमक आंदोलन का लक्ष्य अहिंसक ढंग से सरकारी कानूनों की अवज्ञा करना था । इसी तरह ताना भगत आन्दोलन के द्वारा मांसाहार और मदिरापान की बुराइयों को दूर करने के प्रयत्न किये गये ।

  1. विचारधारा : किसी समस्या के प्रति लोगों की सामूहिक चेतना और सामूहिक प्रयास एक सामाजिक आन्दोलन का रूप तभी लेते हैं जब ऐसे प्रयत्न किसी विशेष विचारधारा पर आधारित होते हैं । उदाहरण के लिए , छात्रों द्वारा की जाने वाली हड़ताल में कुछ समस्याओं और सामूहिक प्रयत्नों का समावेश होता है लेकिन इसे एक आन्दोलन नहीं कहा जा सकता क्योंकि ऐसी हड़तालें किसी विचारधारा से संबंधित नहीं होती । दूसरी ओर जब समाज के पिछड़े वर्गों द्वारा संगठित रूप से अपनी स्थिति में सुधार करने अथवा अपने अधिकारों की माँग करने के लिए प्रयल किये जाते हैं , तब ऐसे प्रयल एक विशेष विचारधारा पर आधारित होते हैं । इसलिए इन प्रयत्नों को हम पिछड़े वर्गों का आन्दोलन कहते हैं ।

  1. समस्या : सभी सामाजिक आन्दोलनों का आधार किसी क्षेत्र , समुदाय अथवा बड़े समूह में एक विशेष समस्या का उत्पन्न होना है । यह समस्या लोगों को सामाजिक , सांस्कृतिक , आर्टि कि अथवा राजनीतिक जीवन से संबंधित हो सकती है । संकट की दशा पैदा होने से बहुत से व्यक्ति संगठित होकर या तो व्यवस्था में परिवर्तन लाकर उसे दूर करने का प्रयत्न करते हैं अथ वा उन परिवर्तनों का विरोध करते हैं जिसके फलस्वरूप यह समस्या उत्पन्न हुई है । 

  1. नेतृत्व : प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन में नेतृत्व एक प्रमुख तत्व है । यह संभव है कि आन्दोलन का नेतृत्व अनेक व्यक्तियों के हाथों में हो लेकिन नेता ही आन्दोलन की रूपरेखा बनाकर उसका जनसाधारण में प्रचार करते हैं तथा उसे प्रभावपूर्ण बनाने के लिए लोगों का मार्ग निर्देशन करते हैं । आंदोलन का नेतृत्व यदि चमात्कारिक नेता द्वारा किया जाता है तो इसकी शक्ति बहुत अधिक हो जाती है ।

 7.परिवर्तन : सामाजिक आन्दोलन का लक्ष्य परिवर्तन लाना होता है , यह परिवर्तन सामाजिक संबंधों , आदर्शों , विश्वासों , परम्पराओं अथवा प्रथाओं आदि में हो सकता है । यह लक्ष्य जानबूझकर बनाया जाता है तथा घोषणा की जाती है ।

  1. व्यवस्था विरोधी प्रकृति : साधारणतया सामाजिक आन्दोलन की प्रकृति किसी विशेष व्यवस्थ ॥ का विरोध करने वाली होती है । एक विशेष अवधि में समाज में जो सामाजिक , सांस्कृतिक अथवा आर्थिक व्यवस्थाएँ विद्यमान होती हैं , उन्हीं का विरोध करने अथवा उनमें परिवर्तन लाने के लिए एक विशेष आन्दोलन आरंभ होता है । ऐसे विरोध का उद्देश्य उन बाधाओं को दूर करना होता है जो सामाजिक विकास में रुकावटें डाल रही हों अथवा किसी वर्ग विशेष को उसके न्यायपूर्ण अधिकारों से वंचित कर रही हों ।

  1. त्याग तथा समर्पण : सामाजिक आन्दोलन में सहभाग करने वाले लोगों में त्याग , समर्पण और बलिदान की भावना का होना इसकी एक प्रमुख विशेषता है । जब कभी भी समाज का एक बड़ा भाग देश की स्वतंत्रता , समाज सुधार , न्यायोचित अधिकारों की माँग अथवा असमानता को दूर करने के लिए कोई आन्दोलन करता है तो इस दशा में वह अपना सब कुछ समर्पित करने को तैयार हो जाता है । यही भावना आन्दोलन को मजबूत बनाती है । उदाहरण के तौर पर ब्रह्म समाज आन्दोलन तथा भारत छोड़ो आन्दोलन से जुड़े समूह में त्याग एवं समर्पण पायी जाती है जो इस आंदोलन को बल देता है ।

  1. अहिंसात्मक साधन : आन्दोलनकर्ता अहिंसात्मक साधनों का ही प्रयोग करते हैं । वे अपने प्रयास से सामाचार पत्रों , रेडियो , भाषणों द्वारा आन्दोलन का प्रचार करते हैं और लोकमत को अपने पक्ष में करने का पूर्ण प्रयास करते हैं । अपने कार्यक्रम में कई बार हड़ताल , धरना , भूख हड़ताल , बहिष्कार , सत्याग्रह आदि साधनों का प्रयोग करके आन्दोलनकारी जनता व सरकार का ध्यान अपनी कठिनाइयों की ओर आकर्षित करते हैं ।

  1. भावुकता पर आधारित : आन्दोलन एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है । इसमें कुशल नेतृत्व की आवश्यकता होती है । यदि नेता अपने प्रभाव के कारण जनता के विचारों में भावुकता का संचार करने में सफल हो जाता है तो आन्दोलन एक ही क्षण में आरंभ होता है । व्यक्ति किसी आन्दोलन के प्रति जितना अधिक भावात्मक रूप से जुड़े होंगे उतना ही आन्दोलन संगठित होगा ।

12. आन्दोलन की प्रकृति : आन्दोलन वैसे तो संगठित होता है और जिन क्षेत्रों में होता है सभी में साथ ही साथ आरंभ होता है किन्तु यदि आन्दोलन शीघ्र ही समाप्त नहीं होता है तो आन्दोलनकर्ता की सहानुभूति में दूसरे क्षेत्रों तथा वर्गों या संगठनों में भी आन्दोलन फैल जाता है । यह भी हो सकता है कि अन्य संगठन आन्दोलन में सक्रिय भाग न लें , किन्तु उसके प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन करते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से आन्दोलनकर्ताओं की सहायता करने लगते हैं

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