प्रभु जाति

प्रभु जाति

एम ० एन ० श्रीनिवास के संस्कृतिकरण की व्याख्या के संदर्भ में प्रभु जाति की अवधारणा का उल्लेख किया जा सकता है । इस अवधारणा को उन्होंने 1959 मे मैसूर के रामपुरा गांव के अध्ययन के दौरान विकसित किया । श्रीनिवास ने प्रभु जाति को परिभाषित करते हुए लिखा है , ” एक जाति जब ‘ प्रभु ‘ कही जाती है जब वह संख्या के आधार पर गाँव अथवा स्थानीय क्षेत्र में शक्तिशाली हो और प्रभावशाली आर्थिक व राजनैतिक शक्ति रखती हो । यह आवश्यक नहीं कि वह परम्परात्मक जाति पदक्रम सोपान में सर्वोच्च जाति की हो । ” ( ” A caste is dominant when it is numerically the strongest in the village or local area , and economically and politically exercises a preponderating influence , it need not be the highest caste in terms of traditional and conventional ranking of caste . ” ) । श्रीनिवास के इस कथन से स्पष्ट है कि प्रभु जाति होने के लिये तीन तत्त्वों का होना जरूरी है-

( 1 ) सम्बन्धित गांव या क्षेत्र में एक विशेष जाति के सदस्यों का अधिक संख्या में होना ,

( 2 ) आर्थिक क्षेत्र में सम्पन्न होना , और

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( 3 ) राजनीतिक प्रभुत्व का होना । इसके अतिरिक्त उनका यह भी कहना है कि प्रभु जाति होने के लिये परम्परागत जाति पदाक्रम सोपान में सर्वोच्च जाति का होना आवश्यक नहीं है । एम ० एन ० श्रीनिवास ने प्रभु जाति की कुछ खास विशेषताओं या तत्त्वों का उल्लेख किया है , जिसके सहारे वे उस स्थिति को प्राप्त करते हैं । ये निम्न है

( 1 ) जनसंख्यात्मक शक्ति ( Numerical Strength : श्रीनिवास का कहना है कि प्रभु जाति के निर्धारण का एक 361 महत्त्वपूर्ण आधार या तत्त्व किसी गाँव या क्षेत्र में एक विशेष जाति के सदस्यों की अधिक संख्या का होना है । इन्होंने जब मैसर के रामपुरा गाव का अध्ययन किया तो पाया कि इस गाँव में अधिक जनसंख्या ओक्कालिंगा जाति की थी । दरअसल 10 गांव में जिस जाति समूह को समर्थन प्रदान करने वाले व्यक्ति अधिक संख्या में होते हैं , उसका अन्य जातियों पर प्रभुत्व स्थापित होने की सम्भावना बढ़ जाती है ।

( 2 ) भू – स्वामित्व ( Land Ownership ) : श्रीनिवास ने अपने अध्ययन के आधार पर पाया कि किसी गाँव या भर में वही जाति प्रभु जाति का स्थान प्राप्त कर पाती है जिसके पास गांव की कृषि योग्य भूमि के एक बड़े भाग पर स्वामित्व हो । रामपुरा गांव में ओक्कालिंगा जाति प्रभु जाति इसलिए भी है कि उस जाति के व्यक्ति ही बड़े भूस्वामी हैं ।

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( 3 ) आर्थिक शक्ति ( Economic Strength ) : श्रीनिवास ने प्रभु जाति के निर्धारण में आर्थिक शक्ति को महत्वपूर्ण माना है । जो जाति आर्थिक रूप में जितनी अधिक सम्पन्न होती है , उसे प्रभु जाति का स्थान प्राप्त करने में उतनी अधिक सुविधा होती है । आर्थिक शक्ति के प्रभाव में ही ये अन्य जातियों की विभिन्न रूपों में आर्थिक मदद करते रहते हैं ।

( 4 ) राजनीतिक शक्ति ( Political Strength ) : श्रीनिवास के अनुसार प्रभु जाति का एक प्रमुख निर्धारक तत्त्व राजनीतिक शक्ति माना जाता है । आज भारत के विभिन्न भागों में पाई जाने वाली प्रभु जातियाँ राजनीतिक सत्ता को प्रभावित करती रहती है । प्रभु जाति की चुनावों में विशेष भूमिका होती है ।

( 5 ) पाश्चात्य शिक्षा एवं पेशा ( Western Education andoccupation ) : गाँव या क्षेत्र में जिस जाति के अधिक लोगों में आधुनिक या पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त करके सरकारी नौकरियों में अधिक स्थान प्राप्त कर लिया है , उनका अन्य जातियों पर प्रभुत्व स्थापित हो जाता है । श्रीनिवास ने जब रामपुरा गांव का अध्ययन किया तो पाया कि उस समय गांव में मात्र 4 स्नातक थे और उनमें 9 ओक्कालिंगा जाति के थे । फलस्वरूप ओक्कालिंगा जाति को प्रभु जाति के रूप में स्वीकार किया गया ।

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( 6 ) जाति संस्तरण में ऊपर ( High in Caste Hierarchy ) : श्रीनिवास का मानना है कि प्रभु जाति के लिए उस जाति का जातीय संस्तरण में ऊँचा स्थान हो । उनका कहना है कि कुछ लोगों की यह धारणा है कि जाति समूह प्रभु जाति होने के लिये सदैव आवश्यक नहीं कि सम्पूर्ण जातीय संस्तरण में उसका स्थान उच्च ही हो । ऐसी धारणा ठीक नहीं । व्यावहारिक तौर पर आज भी संख्या के आधार पर कोई हरिजन जाति प्रभु जाति नहीं बन पाती । इस प्रकार श्रीनिवास ने प्रभु जाति के लिये अनेक तत्त्वों की व्याख्या दी । यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि किसी जाति को प्रभु जाति होने के लिये उपरोक्त सभी तत्त्वों का होना जरूरी नहीं है । विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न – भिन्न तत्त्व दूसरे की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं ।

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