एम . एन . श्रीनिवास : गाँव

एम . एन . श्रीनिवास : गाँव

भारतीय समाजशास्त्री मैसूर नरसिम्हाचार श्रीनिवास ( एम . एन . श्रीनिवास : M. N. Srinivas ) का समाजशास्त्रीय अवधारणाओं एवं प्रक्रियाओं के विकास में विशेष योगदान रहा है । इन्होंने बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में समाजशास्त्र की नवीन कार्यसूची को तैयार करने में मदद की । ये स्वतंत्र भारत के बेहतरीन भारतीय समाजशास्त्री के रूप में विख्यात हैं । जी ० एस ० घुरिये , एन ० के ० बोस , डी ० पी ० मुकर्जी जैसे प्रथम पीढ़ी के समाजशास्त्रियों एवं मनावशास्त्रियों के बाद जिन समाजशास्त्रियों की देश और विदेश में सर्वाधिक चर्चा की जाती है उनमें मैसूर नरसिम्हाचार श्रीनिवास का नाम प्रमुख है । उनकी बहुचर्चित संस्कृतिकरण की अवधारणा ने उन्हें पूरे विश्व में प्रसिद्ध कर दिया । इनके पी – एच . डी . शोध निबंध का प्रकाशन ‘ रिलीजन एंड सोसाइटी एमग द कुर्गस ऑफ साउथ इंडिया ‘ के नाम से हुआ । इस पुस्तक ने पूरे विश्व में श्रीनिवास का सम्मान बढ़ाया ।

श्री निवास का लेखन कार्य श्रीनिवास ने भारतीय समाज और समाज के विभिन्न पहलूओं पर लेखन कार्य किया । वे धर्म , ग्रामीण समुदाय , जाति और सामाजिक पर लेखन की वजह से बहुत प्रसिद्ध हुए । वे रैडक्लिफ – ब्राउन की सामाजिक संरचना की अवधारणा से बहुत प्रभावित थे । रेडकिल्फ – ब्राउन ऑर्क्सफोर्ड में उनके शिक्षक रहे थे । उनका लेखन दक्षिण भारत में किये गये गहन क्षेत्र कार्य पर आधारित है । । उन्होंने अध्ययन में सिर्फ जाति और धर्म के व्यवाहारिक और संरचनात्मक पक्ष को ही उजागर नहीं किया बल्कि ग्रामीण व्यवस्था में जातिप्रथा की सक्रिय भूमिका को भी रेखांकित किया । उन्होंने अन्तर्जातीय सम्बन्धो के यथार्थ को समझने के लिए तथा उनकी सक्रियता दिखाने के लिए सैद्धान्तिक उपकरणों के रूप में कुछ विशिष्ट शब्द निर्मित किये जैसे प्रबल जाति संस्कृतिकरण ‘ पाश्चात्यकरण ‘ धर्मनिरपेक्षीकरण आदि गाँव के स्तर पर सत्तात्मक सम्बन्धों के अध्ययन में उन्होंने प्रबल जाति की अवधारणा का उपयोग किया ।

एम- एन- श्रीनिवास का जन्म 16 नवम्बर , 1916 को मैसूर के आयंगार ब्राह्मण परिवार में हुआ । इनके पिता जमींदार थे और मैसूर के ऊर्जा तथा बिजली विभाग में कार्यरत थे । श्रीनिवास की प्रारम्भिक शिक्षा मैसूर राज्य में हुई । प्रारंभ से ही वे मेधावी छात्र के रूप में जाने गये । विश्वविद्यालयी शिक्षा बम्बई में हुई , जहाँ उनके गुरु जी . एस . पूर्ये थे । 1942 में स्नातकोत्तर शोध विषय के रूप में उनकी पुस्तक ‘ मैरिज एण्ड फैमिली एमंग द कुर्गस ‘ प्रकाशित हुई । 1944 में पी – एच . डी शोध – कार्य बम्बई विश्वविद्यालय से घूर्ये के निर्देशन में किया । यह शोध – प्रबन्ध 1952 में ” रिलीजन एण्ड सोसाइटी एमंग द कुर्गस ऑफ साउथ इण्डिया ‘ के नाम से पुस्तक के रूप में छपी । इस पुस्तक ने उसे पूरे विश्व में सम्मान बढ़ाया । 1947 में ऑक्सफोर्ड से सामाजिक मानव विज्ञान में डी . लिट् कर वापस भारत आये । 1948 में ऑक्सफोर्ड में भारतीय समाजशास्त्र के प्रवक्ता के रूप में नियुक्ति हुई । 1948 में ही रामपुरा में क्षेत्रकार्य किया , जिसके अन्तर्गत उन्होंने मैसूर के रामपुरा गांव की सामाजिक संरचना का अध्ययन किया । 1951 में महाराजा सायाजीराव विश्वविद्यालय , बड़ौदा में प्रोफेसर पद पर नियुक्त हुए तथा समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की । 1959 में दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स में प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति हुई व समाजशास्त्र विभाग की स्थापना हुई । 1971 में बैंगलोर स्थित इन्स्टीच्यूट ऑफ सोशल एण्ड इकॉनोमिक चेंज के सह – संस्थापक बने । एम . एन- श्रीनिवास का यह शिकायत रहता था कि उनका अधिकांश समय संस्थाओं को बनाने में ही बीत जाता है । उनके पास शोधकार्य के लिए बहुत ही कम समय रह जाता है । इसके बावजूद श्रीनिवास ने कुछ विषयों – जाति . आधुनिकीकारण व सामाजिक परिवर्तन की अन्य प्रक्रियाएं और ग्रामीण समाज आदि – पर महत्त्वपूर्ण कार्य किये । श्रीनिवास ने अपनी अन्तर्राष्ट्रीय पहचान तथा भारतीय समाजशास्त्र को विश्व के मानचित्र पर स्थापित किया । इन्होंने नई पीढ़ी के समाज को तैयार किया , जो समाजशास्त्र के दिग्गजों के रूप में स्थापित हुए । 30 नवम्बर , 1999 यानि 83 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हुई । उनकी रुचि जीवन – पर्यन्त भारतीय गांव तथा ग्रामीण समाज बनी रही ।

जिन आँकड़ों को आधार मानकर उन्होंने बम्बई में पी – एच ० डी ० के लिए थीसिस लिखा था उन्हीं आँकड़ों के आधार पर डी ० फिल ० ( D. Phil ) के लिए ” Religion and Society among the Coorgs of South India ” नामक विषय पर थीसिस लिखा जोकि 1952 ई ० में पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ । इस पुस्तक में ही उन्होने सर्वप्रथम ‘ संस्कृतिकरण ‘ की अवधारणा का प्रयोग किया है । श्रीनिवास की प्रमुख कृतियाँ निम्नांकित है

( 1 ) Marriage and Family in Mysore ( 1942 ) ;

( 2 ) Religion and Society Among The Coorgs of South India ( 1952 ) ;

( 3 ) India’s Village ( edited.1955 ) ;

( 4 ) Caste in Modern India and Other Essays ( 1962 ) ;

( 5 ) Social Change in Modern India ( 1966 ) ;

( 6 ) India : Social Structure ( 1969 ) ;

( 7 ) Itineries of an Indian Social Anthropologist ( 1973 ) ;

( 8 ) The Remembered Village ( 1976 ) :

( 9 ) Nation – building in Independent India ( 1976 ) ;

( 10 ) Dimensions of Social Change in India ( edited , 1977 ) ;

( 11 ) My Baroda Days ( 1981 ) ;

( 12 ) The Dominant Caste and Other Essays ( 1986 ) :

( 13 ) The Cohesive Role of Sanskritization ( 1989 ) ;

( 14 ) On Living in a Revolution and Other Essays ( 1992 ) ;

( 15 ) Sociology in Delhi ( 1993 ) ;

( 16 ) Village , Caste , Gender and Method ( 1996 ) ; तथा

( 17 ) Indian Society Through Personal Writings ( 1996 ) ।

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गाँव पर एम ० एन ० श्रीनिवास के विचार

 ( Views of M. N. Srinivas on the village )

एम . एन . श्रीनिवास को रुचि भारतीय गांव तथा ग्रामीण समाज में विशेष बनी रही । गाँव में रहकर कार्य करने का अनुभव इनके व्यवसाय तथा बौद्धिक विकास के लिये महत्त्वपूर्ण साबित हुआ । इन्होंने एस . सी- दूबे तथा डी . एन . मजुमदार जैसे विद्वानों के साथ मिलकर भारतीय समाजशास्त्र में उस समय के ग्रामीण अध्ययन को प्रभावशाली बनाया । एम . एन . श्रीनिवास का मानना था कि गांव एक अनिवार्य सामाजिक पहचान है । इतिहास साक्षी है कि गांवो ने अपनी एक एकीकत पहचान बनाई है और ग्रामीण एकता ग्रामीण सामाजिक जीवन में काफी महत्त्वपूर्ण है । श्रीनिवास ने ब्रिटिश प्रशासक व उन मानव वैज्ञानिको की आलोचना की जिन्होंने भारतीय गांव का स्थिर , आत्मनिर्भर , छोटे गणतंत्र के रूप में चित्रण किया था । श्रीनिवास ने ऐतिहासिक व सामाजिक साक्ष्य के माध्यम से दर्शाया कि गांवों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आये है । उनका मानना था कि गांव कभी भी आत्मनिर्भर इकाई के रूप में नहीं रहे । विभिन्न प्रकार के आर्थिक , सामाजिक तथा राजनीतिक सम्बन्धों से क्षेत्रीय स्तर पर जुड़े हुए थे । एम . एन . श्रीनिवास ने 1948 में मैसूर के रामपुरा गांव की सामाजिक सरचना का अध्ययन किया । उस समय उस गाँव की जनसंख्या 1523 थी । गाँव में 19 हिन्दू जातियां तथा मुसलमान रहते थे । रामपुरा का आधा भाग , कृषि करता था । ओक्कालिगा वहाँ सबसे बड़े भू – स्वमी थे । अधिकांश जातियाँ अपना परम्परागत व्यवसाय करती थीं । फिर भी व्यवसाय में परिवर्तन होने लगा था । ब्राह्मण कृषि करने लगे थे । निम्न जातियों के व्यक्ति दुकान चलाने , चावल की मिलें खोलने एवं मोटरो में काम करने लगे थे । गड़रियो ने भेड़ पालन व कम्बल बुनना छोड़कर कृषि कार्य प्रारम्भ कर दिया था । मछुआ मछली पकड़ने के स्थान पर कृषि करते थे । इस प्रकार रामपुरा के जातियों के परम्परागत व्यवसाय में परिवर्तन व लचीलापन दिखाई देता था । राजनीतिक दृष्टि से रामपुरा एक स्वयात्त इकाई थी । गांव के विवादों का निबटारा प्रभु जाति के वयोवृद्ध व्यक्तियों द्वारा किया जाता था । रामपुरा में ओक्कालिंगा जाति संख्यात्मक , शक्ति व आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव के कारण प्रभु जाति बनी हुई थी । रामपुरा गांव के अधिकांश निवासी हिन्दू त्योहारों को मानते थे । इस गाँव के लोग मारी देवी के मंदिर में पूजा करते थे । परम्परागत रूप से ब्राह्मण और लिंगायत मुख्य रूप से पुरोहितो तथा पुजारी का काम करते थे । रामपुरा गांव मुख्य रूप से तीनों स्तरों में बंटा था । सबसे ऊपर ब्राह्मण , लिंगायत और क्षत्रिय जातियों का था । तेली , नाई , कुम्हार , गड़रिया और मछुआ जातियाँ दूसरे स्थान पर थे । अस्पृस्य जातियाँ निम्न स्तर पर थे । विभिन्न जातियों के बीच खान – पान , व्यवसाय और सामाजिक सम्पर्क के सम्बन्ध जातिगत मान्यताओं से प्रभावित थे । इसके बावजूद सभी लोग सामान्य अनुभवों के कारण सामुदायिकता की भावना से बधे थे । इस प्रकार एम – एन- श्रीनिवास का ग्रामीण अध्ययन भारतीय समाजशास्त्र को कई रूपों में लाभान्वित करते हैं । प्रथम , इसने नृजातीय शोधकार्य की पद्धति के महत्त्व से परिचित कराने का एक मौका दिया । द्वितीय , इसने भारतीय गाँवों में तीव गति से होने वाले सामाजिक परिवर्तन के बारे में आँखो – देखी जानकारी दी । तृतीय , नगरीय भारतीय निर्माता इससे अनुमान लगा सकते थे कि भारत के आंतरिक हिस्सों में क्या हो रहा था । चतुर्थ , इसे आधुनिकता की ओर बढ़ते समाज के लिये उपयोगी बनाया जा सकता है । एम . एन- श्रीनिवास के ग्रामीण अध्ययन के दौरान तीन अवधारणाओं का उल्लेख विशेष महत्त्वपूर्ण है । ये हैं – संस्कृतिकरण , पश्चिमीकरण और प्रभु जाति ।

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संस्कृतिकरण

( Sanskritization )

 

संस्कृतिकरण नामक अवधारणा का प्रयोग भारतीय सामाजिक संरचना में सांस्कृतिक गतिशीलता की प्रक्रिया का वर्णन करने हेतु किया गया । दक्षिण भारत के कुर्ग लोगों के सामाजिक और धार्मिक जीवन के विश्लेषण में प्रसिद्ध भारतीय समाजशास्त्रीय प्रो ० एम ० श्री निवास ने इस अवधारणा का सर्वप्रथम प्रयोग किया । मैसूर में कुर्ग लोगों का अध्ययन करते समय प्रो ० एम ० एस ० श्री निवास ने पाया कि निम्न जातियों के लोग ब्राह्मणों को कुछ प्रथाओं का अनुकरण करने और अपनी स्वयं की कुछ प्रथाओं जैसे मांस खाना , शराब का प्रयोग तथा पशु – बलि आदि छोड़ने में लगे हुए थे । वे सब कुछ इसलिए कर रहे थे ताकि जातीय – संस्करण की प्रणाली में उनकी स्थिति ऊँची उठ सके । ब्राह्मणों का वेशभूषा , भोजन संबंधी आदतें तथा कर्मकाण्ड आदि अपनाकर वे अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयल कर रहे थे । उन्होंने ब्राह्मणों की जीवन पद्धति का अनुकरण करके एक दो पीढ़ी में जातीय संस्तरण की प्रणाली में उच्च स्थिति प्राप्त करने की दृष्टि से माँग प्रस्तुत की , गतिशीलता की इस प्रक्रिया का वर्णन करने हेतु प्रो ० श्रीनिवास ने प्रारम्भ में ‘ ब्राह्मणीकरण ‘ मक शब्द का प्रयोग किया । लेकिन बाद में उसके स्थान पर अपने ‘ संस्कृतिकरण ‘ नामक अवधारणा का प्रयोग ज्यादा उपयुक्त समझा । प्रो ० श्रीनिवास ने अपनी पुस्तक ‘ रिलीजन एण्ड सोसायटी अमंग दी कुर्गस ऑफ साउथ इंडिया ‘ में गतिशीलता को व्यक्त करने के लिए संस्कृतिकरण नामक प्रत्यय का प्रयोग किया । इनके अनुसार “ जाति अवस्था उस कठोर प्रणाली से जिसमें काफी दूर है जिसमें प्रत्येक घटक जाति की स्थिति हमेशा के लिए निश्चित कर दी जाती है । यहाँ गतिशीलता सदैव संभव रही है , और विशेषतः संस्तरण की प्रणाली के मध्य भागों में , एक निम्न जाति एक या दो पीढ़ी में शाकाहारी बनकर मद्यपान को छोड़कर तथा अपने कर्मकाण्ड एवं देवगण का संस्कृतिकरण कर संस्तरण की प्रणाली में अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने समर्थ हो जाती । संक्षिप्त में , जहाँ तक संभव था , वह ब्राह्मणों के प्रथाओं , अनुष्ठानों एवं विश्वासों को अपना लेती । साधारणतः निम्न जातियों के द्वारा ब्राह्मणी जीवन प्रणाली को प्रायः अपना लिया जाता यद्यपि सैद्धान्तिक रूप से यह वर्जित था । इस प्रक्रिया को ब्राह्मणीकरण की बजाय संस्कृतिकरण कहा गया है । ” डा ० योगेन्द्र सिंह ने लिखा हैं कि संस्कृतिकरण ब्राह्मणीकरण की अपेक्षा अधिक विस्तृत अवधारणा है ।

एम- एन- श्रीनिवास ( M.N. Srinivas ) ने 1952 में ‘ सस्कृतिकरण की अवधारणा ‘ को दक्षिण भारत के ‘ कुर्ग ‘ लोगों के सामाजिक व धार्मिक जीवन के विश्लेषण में विकसित किया । श्रीनिवास ने अपनी पुस्तक ‘ आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन ‘ ( Social Change India ) में संस्कृतिकरण की परिभाषा इस रूप में व्यक्त की है , ” संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई निम्न हिन्दू जाति या कोई जनजाति अथवा अन्य समूह किसी उच्च और प्रायः द्विज जाति की दिशा में अपनी रीति – रिवाज , विचारधारा और जीवन पद्धति को बदलना है । ” ( ” Sanskrization is the process by which a ‘ low ‘ Hindu , caste , of tribal or other group , changes its customs , rituals , ideaology and way of life in the direction of high and frequently , ‘ twice born ‘ caste . ” )

. श्रीनिवास ने आगे यह भी लिखा है , ” संस्कृतिकरण का अर्थ केवल नवीन प्रथाओं व आदतों को ग्रहण करना ही नहीं , अपितु पवित्र एवं लौकिक जीवन से सम्बन्धित नए विचारों एवं मूल्यों को भी प्रकट करना है जिनका वितरण संस्कृत के विशाल साहित्य में बहुधा देखने को मिलता है । कर्म , धर्म , पाप , माया , संसार , मोक्ष . आदि संस्कृत के कुछ अस्कृत लोकप्रिय विचार है और जब लोगों का संस्कृतिकरण हो जाता है तब वे अपनी बातचीत मे इन शब्दों का बहुधा प्रयोग करते हैं । ” ( ” Sanskritization means not only theadoption of new customs and habits , but alsoexposure to new ideas and values which found frequent expression in the vast body of Sanskrit literature , sacred as well as secular , karma , dharma , papa , maya , sansara and moksha are examples of some of the most common Sanskrit theological ideas , and when a people become sanskritized these words occur frequently in their talk . ” ) इस प्रकार संस्कृतिकरण के माध्यम से कोई जाति या जनजाति या अन्य समुह से उच्च जाति ( विशेष रूप से द्विज जाति ) के उत्तम विचार , आदर्श , मूल्य , आदत , कर्मकाण्ड आदि को अपनाकर अपनी वर्तमान स्थिति से उच्च स्थिति को प्राप्त करने का प्रयास करता है । संस्कृतिकरण सामाजिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया है । एक प्रक्रिया के रूप में इसे निम्न प्रकार से समझा जा सकता

  1. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के माध्यम से कोई भी जाति , जनजाति या समूह अपने से उच्च ( विशेषतः द्विज जाति ) के मानदण्डों को अपनाने का प्रयत्न करता है तथा उनमें परिवर्तन होते हैं ।

  1. संस्कृतिकरण के द्वारा निम्न जाति , जनजाति या समूह अपनी वर्तमान स्थिति से उच्च स्थिति प्राप्त करता है , फलस्वरूप जातीय संस्तरण में परिवर्तन होता है ।

  1. संस्कृतिकरण जातीय आधारों में खुलापन लाता है तथा जातीय गतिशीलता को सम्भव बनाता है ।

  1. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया केवल जाति में ही नहीं अपितु जनजाति व अन्य समूहों में भी देखी जा सकती है ।

  1. संस्कृतिकरण के द्वारा सामाजिक संरचना में ऊंचे पद या स्थिति का दावा किया जाता है जिसके फलस्वरूप निम्न जाति , जनजाति या समूह की नीचे से ऊपर की ओर गतिशिलता बन जाती है ।

  1. संस्कृतिकरण परिवर्तन की दोहरी प्रक्रिया है । ऐसा नहीं है कि निम्न जाति उच्च जाति से सिर्फ प्राप्त ही करती है , बल्कि उसे कुछ प्रदान भी करती है । श्रीनिवास के अनुसार , ऐसे प्रकरणों की जानकारी है जहाँ कहीं – कहीं ब्राह्मण अपने किसी गैर – ब्राह्मण मित्र के माध्यम से रक्त बलि भी देता है । एम ० एन ० श्रीनिवास ने उन दशाओं या कारकों का भी उल्लेख किया है जो संस्कृतिकरण में सहायक हैं । ये हैं – औद्योगीकरण , व्यावसायिक गतिशीलता , विकसित संचार व्यवस्था , साक्षरता का प्रसार , पश्चिमी प्रौद्योगिकी . कर्मकाण्डी क्रियाएं व संसदीय प्रजातंत्र की राजनीतिक संस्था । इन कारकों के प्रभाव में संस्कृतिकरण में सरलता आ गयी ।

प्रो ० श्रीनिवास ने स्वयं यह महसूस कर लिया था कि जिस प्रक्रिया ने निम्न जातियों को मैसूर में ब्राह्मणों के रीति – रिवाजों का अनुकरण करने के लिए प्रेरित किया , निम्न जातियों में उच्च जातियों के सांस्कृतिक तरीकों का अनुकरण करने की एक सामान्य प्रवृत्ति का ही एक विशिष्ट उदाहरण था । बहुत से मामलों में उच्च जातियाँ अ – ब्राह्मण थीं । वे देश के विभिन्न भागों में क्षत्रिय जात , वैश्य आदि थे । संस्कृतिकरण का अर्थ : प्रो ० श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण को परिभाषित करते हुए लिखा ” संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई निम्न हिन्दू जाति या कोई जनजाति अथवा कोई अन्य समूह , किसी उच्च और प्रायः द्विज जाति ( ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य ) की दिशा में अपने रीति – रिवाज , कर्मकाण्ड , विचारधारा और जीवन पद्धति को बदलता है । “ साधारणतः ऐसे परिवर्तनों के बाद निम्न जाति जातीय संस्तरण की प्रणाली में स्थानीय समुदाय में परम्परागत रूप में उसे जो स्थिति प्राप्त है , उसे उच्च स्थिति का दावा करने लगती हैं । डॉ ० बी ० आर चौहान ने संस्कृतिकरण नामक अवधारणा का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है , ” यह एक उपकरण है जिसके द्वारा हम उस प्रक्रिया को मालूम कर सकते हैं जिसमें निम्न जाती तथा जनजाति अपने व्यवहार एवं जीवन के तरीके हिन्दू समाज के उच्च वर्गों के अनुसार बदलती हैं ।

प्रो ० श्रीनिवास के अनुसार सामान्यतः संस्कृतिकरण के साथ – साथ और प्रायः उसके फलस्वरूप सम्बद्ध जाति ऊपर की ओर गतिशील होती है , परंतु गतिशीलता संस्कृतिकरण के बिना भी , अथवा गतिशीलता के बिना भी संस्कृतिकरण संभव है । किन्तु संस्कृतिकरण सम्बद्ध गतिशीलता के परिणामस्वरूप अवस्था में केवल पदमूलक परिवर्तन होते हैं और इससे कोई संरचनात्मक परिवर्तन नहीं होते अर्थात् एक जाति अपने पास की जातियों से ऊपर उठ जाती है और दूसरी नीचे आ जाती हैं । परंतु यह सब कुछ अनिवार्यतः स्थायी संस्तरणात्मक व्यवस्था में घटित होता है , व्यवस्था स्वयं परिवर्तित नहीं होती है । संस्कृतिकरण के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करते हुए प्रो ० श्रीनिवास ने लिखा ” संस्कृतिकरण का तात्पर्य केवल नई प्रथाओं एवं आदतों को ग्रहण करना नहीं है बल्कि नए विचारों व मूल्यों को भी व्यक्त करना है जिसका संबंध पवित्रता और धर्म निरपेक्षता से है और जो संस्कृत साहित्य में उपलब्ध है । कर्म , धर्म , पाप , प्रण्य , मोक्ष , आदि ऐसे शब्द हैं जिनका संबंध धार्मिक संस्कृत साहित्य से है । जब लोगों का संस्कृतिकरण हो जाता है तो उनके द्वारा अनायास ही इन शब्दों को प्रयोग किया जाता है । उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से कोई निम्न हिन्दू जातीय समूह अथवा कोई जनजातीय समूह अपनी संपूर्ण जीवन – विधि को उच्च जातियों या वर्णों की दिशा में बदल कर अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयत्न करता है , जातीय संस्तरण की प्रणाली में उच्च होने का दावा प्रस्तुत करता है । प्रो ० श्रीनिवास ने प्रारंभ में संस्कृतिकरण के आदर्श के रूप में ब्राह्मणी मॉडल पर जोर दिया परंतु कालान्तर में यह महसूस किया कि इसके अतिरिक्त क्षत्रीय एवं वैश्य मॉडल भी उपलब्ध रहे हैं । अर्थात् ब्राह्मणों के अतिरिक्त क्षत्रीय , वैश्य एवं कहीं – कहीं किसी अन्य प्रभु जाति की जीवन पद्धति का भी अनुकरण किया गया है |

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संस्कृतिकरण की विशेषताएँ :

  1. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का संबंध निम्न हिन्दू जातियों , जनजातियों तथा कुछ अन्य समूहों से है । हिन्दू जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत संस्तरण की प्रणाली में अपने समूह की सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने की दृष्टि से उपयुक्त समूहों ने संस्कृतिकरण का सहारा लिया है । भील , ओराँव , संथाल तथा गोंड एवं हिमालय के पहाड़ी लोगों का उन जनजातीय लोगों में सम्मिलित किया जाता है जिन्होंने संस्कृतिकरण के माध्यम से अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने और हिंदू समाज का अंग बनने का प्रयत्न किया । अन्य समूहों के अंतर्गत वे लोग आते हैं , जिनका हिन्दू धर्म व संस्कृति से संबंध न होकर अन्य धर्मों एवं संस्कृतियों से संबंध है ।
  2. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत अपने से उच्च जातियों की जीवन – विधि का अनुकरण किया जाता है , उनकी प्रथाओं , रीति – रिवाजों , खान – पान , विश्वासों एवं मूल्यों को अपना लिया जाता है

  1. संस्कृतिकरण के आदर्श या मॉडल एक अधिक हैं । अर्थात् निम्न जातियों एवं कुछ जनजातीय समूहों ने केवल ब्राह्मणों को ही आदर्श मानकर उनका अनुकरण नहीं किया , बल्कि

क्षणिय , वैश्य एवं किसी स्थानीय प्रभु जाति का अनुकरण भी किया , उनकी जीवन शैली को अपनाया । पोकॉक ने बतलाया है कि निम्न जातियों के लिए आदर्श अपने ऊपर की वे जातियाँ होती हैं जिनसे उनकी सबसे अधिक निकटता हो । प्रो ० श्रीनिवास ने भी पोकॉक के इस कथन को सही माना

  1. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में अग्रिम समाजीकरण का विचार शामिल है । डॉ ० योगेन्द्र सिंह , संस्कृतिकरण को अग्रिम समाजीकरण मानते हैं , अर्थात् कोई निम्न जातीय समूह एक दो पीढ़ी तक किसी उच्च जाति की जीवन – शैली की दिशा में अपना समाजीकरण करता है ताकि भविष्य में उसे उसके स्थानीय समुदाय में उच्च स्थान प्राप्त हो जाये । कोई भी जातीय समूह अपने इस प्रयत्न में उस समय आसानी से सफलता प्राप्त कर पाता है जब उसकी राजनीतिक एवं आर्थिक शक्ति बढ़ने लगती है या उसका संबंध किसी मठ , तीर्थ – केन्द्र आदि से हो जाता है ।
  2. संस्कृतिकरण की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह पदमूलक परिवर्तन को व्यक्त करने वाली प्रक्रिया है , न कि संरचनात्मक परिवर्तन को । इसका तात्पर्य यही है कि संस्कृतिकरण के माध्यम से किसी जातीय – समूह की स्थिति आस – पास की जातियों से कुछ ऊपर उठ जाती है परंतु स्वयं जाति – अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं होता है । संस्कृतिकरण की प्रक्रिया सामाजिक गतिशीलता को व्यक्त करती है । इससे किसी निम्न जातीय समूह के ऊपर उठने की संभावना रहती है ।
  3. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन को व्यक्त करती है । मिल्टन सिंगर ने लिखा है “ एम ० एन ० श्रीनिवास का संस्कृतिकरण का सिद्धान्त भारतीय सभ्यता में सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन का अत्यन्त विस्तृत और व्यापक रूप से स्वीकृत मानवशास्त्रीय सिद्धांत है । ” कहने का तात्पर्य यह है कि संस्कृतिकरण केवल सामाजिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया नहीं है बल्कि सांस्कृतिक परिवर्तनों की भी एक प्रक्रिया है । संस्कृतिकरण के फलस्वरूप भाषा , साहित्य , संगीत , विज्ञान , दर्शन , औषधि तथा धार्मिक विधान आदि के क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तनों के अन्तर्गत ही आते हैं ।
  4. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का संबंध किसी व्यक्ति या परिवार से नहीं होकर समूह से होता है , इस प्रक्रिया के द्वारा कोई जातीय या जनजातीय समूह अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयत्न करता है । यदि कोई व्यक्ति या परिवार ऐसा करता है जो उसे न केवल अन्य जातियों के बल्कि स्वयं की जाति के अन्य सदस्यों के क्रोध का भी भाजन बनना पड़ता है ।
  5. बर्नार्ड कोहन तथा हेरोल्ड गोल्ड नामक विद्वानों के अध्ययनों के आधार पर प्रो ० श्रीनिवास ने बताया है जहाँ निम्न जातियाँ अपनी जीवन – शैलियों का संस्कृतिकरण कर रहीं हैं वहीं उच्च जातियाँ आधुनिकीकरण एवं धर्म – निरपेक्षीकरण की ओर बढ़ रही हैं ।

प्रो ० श्रीनिवास ने स्वयं यह महसूस किया कि अपने प्रारम्भ में संस्कृतिकरण के ब्राह्मणी आदर्श पर आवश्यकता से अधिक जोर दिया । वास्तविकता यह है कि संस्कृतिकरण के आदर्श सदैव ब्राह्मण ही नहीं रहे हैं । पोकॉक ने क्षत्रिय आदर्श के अस्तित्व की चर्चा की है । मिल्टन सिंगर ने बतलाया है कि संस्कृतिकरण के एक या दो आदर्श ही नहीं पाये जाते , बल्कि चार नहीं तो कम से कम तीन आदर्श अवश्य मौजूद हैं । प्रथम तीन वर्ण के लोगों को द्विज कहते हैं क्योंकि इनका उपनयन संस्कार होता है और इन्हें वैदिक कर्मकाण्डों को सम्पन्न करने का अधिकार होता है जिनमें वेदों के मंत्रों का उच्चारण किया जाता है । श्रीनिवास के अनुसार , ” द्विज ‘ वर्गों में ब्राह्मण इन संस्कारों को पूरा करने के संबंध से सबसे अधिक सावधान होते हैं , और इसलिए दूसरों की अपेक्षा उन्हें संस्कृतिकरण का उत्तम आदर्श माना जा सकता है । लेकिन हमें यहाँ नहीं भूलना चाहिए कि स्वयं ब्राह्मण वर्ण में भी काफी विभिन्नता पाई जाती हैं ।

सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ पर ब्राह्मणों के अलावा क्षत्रिय और वैश्य वर्ण भी संस्कृतिकरण के आदर्श रहे हैं । देश के विभिन्न भागों में क्षत्रिय और वैश्य होने का दावा वे सब समूह करते हैं जिनकी क्रमशः सैनिक कार्य तथा व्यापार की परम्पराएँ रही हैं । देश के विभिन्न भागो में भी क्षत्रियो की और सभी वैश्यों की कोई समान कर्मकाण्ड की परम्परा नहीं रही है । इनमें से बहुत से लोगों के वे सब संस्कार नहीं होते जो कि द्विज वर्गों के लिए आवश्यक माने जाते हैं । कहीं कुछ समूहों ने ब्राह्मणों का , तो कहीं क्षत्रियों का और कहीं वैश्यों का अनुकरण किया है , उनकी जीवन – शैली को अपनाया है । नाई , कुम्हार , तेली , बढ़ई , लुहार , जुलाहे , गड़रिये आदि जातियाँ अपवित्रता रेखा के ठीक ऊपर अस्पृश्य या अछूत समूहों के निकट हैं । ये जातियाँ शूद्र वर्ग की जातियों का प्रतिनिधित्व करती हैं । प्रो ० श्रीनिवास का अवलोकन के आधार पर यह अनुभव है कि शूद्रों की व्यापक श्रेणी में कुछ अन्य जातियों का संस्कृतिकरण बहुत कम हुआ है । लेकिन चाहे उनका संस्कृतिकरण हुआ हो या नहीं हुआ हो , प्रभावी कृषक जातियाँ अनुकरण के स्थानीय आदर्श प्रस्तुत करती हैं और जैसा कि पॉकाक तथा सिंगर ने अवलोकित किया है कि ऐसी जातियों के माध्यम से ही क्षत्रिय ( तथा अन्य ) आदर्शों को अपनाया गया है । स्थानीय प्रभावी जाति ( प्रभु जाति संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । यदि स्थानीय प्रभावी जाति ब्राह्मण है , तब संस्कृतिकरण का आदर्श ब्राह्मणी प्रकार का होगा और यदि यह राजपूत या वैश्य है , तब आदर्श राजपूती या वैश्यी प्रकार का होगा । प्रो ० श्रीनिवास के अनुसार , यद्यपि एक लम्बी काल अवधि में ब्राह्मणी कर्मकाण्ड और प्रथाएँ नीची जातियों में फैली हैं , लेकिन बीच – बीच में स्थानीय रूप में प्रभुता – सम्पन्न जाति का भी शेष लोगों के द्वारा अनुकरण किया गया और प्रायः स्थानीय रूप से प्रभावी ये जातियाँ ब्राह्मण नहीं होती थीं । यह कहा जा सकता है कि निम्न स्तर वाली अनेक जातियों में ब्राह्मणी प्रथाएँ एक शृंखलाबद्ध प्रतिक्रिया के रूप में पहुँची अर्थात् प्रत्येक समूह ने अपने से एक स्तर ऊँचे समूह से कुछ ग्रहण किया और अपने से नीचे वाले समूह को कुछ दिया है ।

संस्कृतिकरण के प्रमुख स्रोत एवं कारक :

  1. जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत न केवल विभिन्न जातियों को ही एक दूसरे से उच्च या निम्न माना जाता है , बल्कि व्यवसायों , भोजन , वस्त्र , आभूषण आदि में भी कुछ विशेष प्रकारों को उच्च तथा अन्य को निम्न समझा जाता है । संस्तरण की प्रणाली में उन जातियों को ऊँचा माना जाता है जो शाकाहारी भोजन करते हैं , शराब का प्रयोग नहीं करते , रक्त – बलि नहीं चढ़ाते तथा अपवित्रता लाने वाली वस्तुओं को सम्बंधित व्यवसाय या व्यापार नहीं करते । ऊँची जातियों की स्थिति संस्तरण की इस प्रणाली में ऊँची मानी जाती है , अतः अपनी स्थिति को उन्नत करने की इच्छुक जाति अपने से उच्च जाति और अंतिम रूप से ब्राह्मणी जीवन – पद्धति का अनुकरण करती है । प्रो ० श्रीनिवास ने बतलाया है कि निम्न जातियों में संस्कृतिकरण के प्रसार में वो रूढ़ितः स्वीकृत वैध मान्यताओं ने सहायता पहुँचाई है । प्रथम , अद्विज जातियों को कर्मकाण्डों को सम्पन्न करने की आज्ञा थी , परंतु इसको सम्पन्न करते समय वैदिक मंत्रों के उच्चारण की इन्हें स्वीकृति नहीं थी । इस प्रकार कर्मकाण्डों को उस अवसर पर बोले जाने वाले मंत्रों से अलग कर दिया गया । इसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मणी कर्मकाण्ड सभी हिन्दुओं में और यहाँ तक कि अछूतों में फैल गये । द्वितीय , ब्राह्मण पुरोहित इन लोगों के यहाँ विवाह सम्पन्न करता है । अंतर केवल इतना है कि वह इस अवसर पर वैदिक मंत्रों का उच्चारण नहीं करके मंगालाप्टक स्रोत बोलता है जो वेदों के काल के बाद की संस्कृति रचनायें है । ये दो ऐसी रूढ़ितः स्वीकृत वैध मान्यताएँ हैं जिन्होंने अद्विज जातियों को अनेक कर्मकाण्डों को सम्पन्न करते में सहायता इन दो मान्यताओं के कारण सभी हिन्दुओं में , यहाँ तक कि अछूतों में भी संस्कृतिकरण का प्रसार हो सका । संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के दौरान , अद्विज जातियों में ब्राह्मणी संस्थाओं एवं मूल्यों का भी प्रसार होता है । जब एक जातीय समूह का संस्कृतिकरण होता है तो वह किसी उच्च जाति अथ त् िप्रायः ब्राह्मण या किसी अन्य स्थानीय प्रभुत्व सम्पन्न जाति को कर लेता है । जब योगी का संस्कृतिकरण होता है , तब संस्कृत के धर्म – ग्रंथों में प्रयुक्त कुछ शब्दों जैसे पाप , पुण्य , धर्म , कर्म , माया और मोक्ष आदि का प्रयोग उनकी बातचीत में होने लगता है ।

  1. परम्परागत जाति – अवस्था के अंतर्गत कुछ मात्रा में समूह गतिशीलता संभव थी , अर्थात् समूहों की स्थिति में थोड़ा बहुत परिवर्तन हो जाया करता था । ऐसा इस तथ्य के साथ संभव था कि जातीय संस्तरण की प्रणाली के मध्य क्षेत्र में आने वालो जातियों को परस्पर स्थिति के संबंध में अस्पष्टता थी , दो छोरों पर स्थित ब्राह्मणों और अछूतों की स्थिति सामाजिक संस्तरण की प्रणाली में निश्चित थी लेकिन इनके मध्य जातियों में गतिशीलता पायी जाती थी , अंग्रेजों के काल में धन कमाने के अवसरों के बढ़ने से इस समूह की गतिशीलता में वृद्धि हुई , इस समय निम्न जातियों के लोगों को रुपया कमाने के अवसर प्राप्त हुए | काफी रुपया कमा लेने के बाद उन्होंने अपने लिए उच्च स्थिति का दावा किया और कुछ समूह इसे प्राप्त करने में सफल भी हुए ।

  1. प्रो ० श्रीनिवास के अनुसार , आर्थिक स्थिति में सुधार , राजनीतिक शक्ति की प्राप्ति , शिक्षा , नेतृत्व तथा संस्तरण की प्रणाली में ऊपर उठने की अभिलाषा आदि संस्कृतिकरण के लिए संगत कारक हैं । संस्कृतिकरण के प्रत्येक मामले में उपरोक्त सभी संगत अथवा इनमें से कुछ तत्व अलग – अलग मात्रा में निश्चित रूप में रहते हैं । संस्कृतिकरण द्वारा किसी समूह को अपने आप उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो जाती । इस समूह से स्पष्टतः वैश्य , क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण वर्ण से सम्बन्धित होने का दावा प्रस्तुत करना पड़ता है । ऐसे समूह विशेष को अपने रीति – रिवाज , भोजन तथा जीवन – पद्धति को उचित मात्रा में बदलना पड़ता है । यदि उनके दावे में किसी प्रकार की कोई असंगतता अर्थात् कोई कमी हो तो उन्हें इसके लिए कोई उचित काल्पनिक कथा गढ़नी पड़ती है ताकि उनके दावे संबंधी असंगतता दूर की जा सके । इसके अलावा , एक जातीय समूह को जो संस्तरण की प्रणाली में अपनी स्थिति को ऊँचा उठाना चाहता है अनिश्चित काल तक अर्थात् एक या दो पीढ़ी तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है । एक या दो पीढ़ी के पश्चात् यह सम्भावना बनती है कि उच्च प्रस्थिति का दावा लोगों द्वारा स्वीकार कर लिया जाय । परंतु यह आवश्यक नहीं है कि संस्कृतिकरण का परिणाम सदैव संस्कृतिकरण जाति की उच्च प्रस्थिति के रूप में ही निकलेगा और यह बात अछूतों के उदाहरण द्वारा पूर्णतः स्पष्ट भी है । संस्कृतिकरण के बावजूद भी अछूतों की प्रस्थिति ऊँची नहीं हो पायी ।

  1. जब किसी जाति या जाति के किसी एक भाग को लौकिक ( सेक्यूलर ) शक्ति प्राप्त हो जाती है तो वह साधारणतः उच्च प्रस्थिति के प्ररम्परागत प्रतीकों , रिवाजों , कर्मकाण्डों , विचारों , विश्वासों और जीवन पद्धति आदि को अपनाने का अर्थ यह भी था कि विभिन्न संस्कारों के सम्पादन के लिए ब्राह्मण पुरोहित की सेवाएँ प्राप्त करना , संस्कृतीय पंचाग के त्यौहारों को मानना , प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा करना , तथा धर्म – शास्त्रों का अधिक ज्ञान प्राप्त करना , इस तरीके से संस्कृतिकरण की प्रक्रिया कुछ मात्रा में गतिशीलता को संभव बनाती थी । अनुलोम विवाह भी इस प्रकार की गतिशीलता के लिए उत्तरदायी है । एक जातीय समूह अपने से उच्च समझे जाने वाले समूहों में अपने को सम्मिलित करना चाहता था और अनुलोम विवाह ने इसके लिए

सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ संस्थागत साधन प्रस्तुत किये । यहाँ इस बात पर जोर देना आवश्यक है कि परम्परागत काल में जाति की गतिशीलता के फलस्वरूप विशिष्ट जातियों अथवा उनकी प्रशाखाओं में केवल पदमूलक परिवर्तन हो हुए और इसमें कोई संरचनात्मक परिवर्तन नहीं हुए , अर्थात् अलग – अलग जातियाँ तो ऊपर उठी या नीचे गिरी , परंतु पूरी संरचना वैसी ही बनी रही ।

  1. संचार तथा यातायात के साधनों के विकास ने भी संस्कृतिकरण को देश के विभिन्न भागों तथा समूहों तक पहुँचा दिया है जो पहले पहुँच के बाहर थे , तथा साक्षरता प्रसार ने संस्कृतिकरण को उन समूहों तक पहुँचा दिया जो जातीय संस्तरण की प्रणाली में काफी निम्न थे ।

  1. नगर मन्दिर एवं तीर्थ स्थान संस्कृतिकरण के अन्य स्रोत रहे हैं । इस स्थानों पर एकत्रित लोगों में सांस्कृतिक विचारों एवं विश्वासों के प्रसार हेतु उचित अवसर उपलब्ध होते रहे हैं । भजन मण्डलियों , हरिकथा तथा साधु – संन्यासियों ने सस्कृतिकरण के प्रसार में काफी योग दिया है । बड़े नगरों में प्रशिक्षित पुजारियों , संस्कृत स्कूलों तथा महाविद्यालयों , छापेखाने तथा धार्मिक संगठनों ने इस प्रक्रिया में योग दिया है ।

संस्कृतिकरण की अवधारणा : एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण : हम यहाँ संस्कृतिकरण की अवधारणा की कुछ कमियों पर विचार करेंगे जो इस प्रकार हैं

  1. प्रो ० श्रीनिवास ने स्वयं स्वीकार किया है कि संस्कृतिकरण एक काफी जटिल और विषम अवधारणा है । यह भी संभव है कि इसे एक अवधारणा मानने के बजाय अनेक अवधारणाओं का योग मानना अधिक लाभप्रद रहे । इनका मत है कि जैसे ही यहा पता चले कि संस्कृतिकरण शब्द विश्लेषण में सहायता पहुँचाने के बजाय बाधक है । उसे निस्संकोच और तुरंत छोड़ दिया जाना चाहिए ।

  1. प्रो ० श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण की अवधारणा के संबंध में कुछ परस्पर विरोधी बातें बतलाई हैं एवं लिखा है , ” किसी समूह , आर्थिक उन्नयन के बिना भी संस्कृतिकरण हो सकता है ” । एक स्थान पर उन्होंने लिखा है , आर्थिक उन्नयन , राजनीतिक शक्ति का संचयन , शिक्षा , नेतृत्व तथा संस्तरण की प्रणाली में ऊपर उठने की अभिलाषा आदि संस्कृतिकरण के लिए उपयुक्त कारक हैं । ” अन्यत्र लिखा है , ” संस्कृतिकरण के परिणामस्वरूप स्वतः ही किसी समूह को उच्च प्रस्थिति प्राप्त नहीं हो जाती हैं , जातियों के निरंतर संस्कृतिकरण एवं संरचनात्मक परिवर्तन हो जायें ” । प्रो ० श्रीनिवास वे अन्यत्र लिखा है , ” किसी अछूत समूह चाहे कितना ही संस्कृतिकरण क्यों न हो जाये वह अस्पृश्यता की बाधा को पार करने में असमर्थ रहेगा । ” उपयुक्त कथनों से स्पष्ट है कि संस्कृतिकरण की अवधारणा में अनेक असंगतताएँ पायी जाती हैं , परस्पर विरोधी बातें देखने को मिलती हैं ।

  1. प्रो ० श्रीनिवास मानते हैं कि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के द्वारा लम्बवत् सामाजिक गतिशीलता संभव है , इस प्रक्रिया के द्वारा एक निम्न जाति एक या दो पीढ़ी में शाकाहारी बनकर , मद्यपान का त्याग कर तथा अपने कर्मकाण्ड और देवगण का संस्कृतिकरण कर जातीय संस्तरण की प्रणाली में अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने में समर्थ हो जाती है , परंतु यह संदेहजनक है कि क्या वास्तव में ऐसा होता है । इस संबंध में डॉ ० डी ० एन मजूमदार ने लिखा है कि सैद्धांतिक और केवल सैद्धांतिक रूप में ही ऐसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है , जब हम विशिष्ट मामलों पर ध्यान देते हैं तो जाति गतिशीलता संबंधी हमारा ज्ञान और अनुभव रेग्सी सैद्धांतिक मान्यता की दृष्टि से सही नहीं उतरता । चमार अपनी मूल सामाजिक स्थिति में अवश्य कुछ आगे बढ़ पाये हैं : चाहे वे सम्प्रदाय के रूप में संगठित हो गये हों , चाहे उन्होंने शराब पीना , विधवा – विवाह , विवाह – विच्छेद यहाँ तक कि माँस खाना भी बंद क्यों न कर दिया हो , लेकिन

नया सामाजिक संस्तरण की प्रणाली में लम्बवत् ऊपर उठने का कोई एक भी उदाहरण है ? चमारों का फैलाव क्षैतिक प्रकार का है , और यही बात अन्य निम्न जातियों के संबंध में भी सही है । निम्न जातियाँ जाति गतिशीलता को एक क्षैतिज गति ( संचलन ) के रूप में देखती है , जबकि ब्राह्मणों और अन्य उच्च जातियों ने ऐसी गतिशीलता को एक आरोहण अर्थात् ऊपर की ओर चढ़ने के रूप में माना है । जाति गतिशीलता के संबंध में जो कुछ तथ्य प्राप्त हो गये हैं वे लंबवत् गतिशीलता को नहीं बल्कि क्षैतिज गतिशीलता को व्यक्त करते हैं । डॉ ० मजूमदार के इन तथ्यपूर्ण अवलोकनों एवं विचारों से स्पष्ट है कि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के माध्यम से कोई निम्न जाति लम्बवत् रूप से ऊपर नहीं उठ जाती , उच्च जातियों के समान नहीं बन जाती , बल्कि अपने ही समान की अन्य जातियो से अथवा अपनी ही जाति की विभिन्न प्रशाखाओं में वह ऊपर उठ जाती है ।

  1. डा ० योगेन्द्र सिंह संस्कृतिकरण को सांस्कृतिक और सामाजिक , गतिशीलता की एक प्रक्रिया मानते हैं । संस्कृतिकरण सापेक्ष रूप से हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के इन कालों में सांस्कृतिक और सामाजिक गतिशीलता की एक प्रक्रिया है । यह सामाजिक परिवर्तन का एक अन्तरजात स्रोत है । एक सामाजिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संस्कृतिकरण भविष्य में अपनी स्थिति में सुधार लाने की आशा में किसी उच्च समूह की संस्कृति की ओर अग्रिम समाजीकरण के लिए सार्वभौमिक प्रेरणा का एक सांस्कृतिक विशिष्ट मामला है

  1. बी ० कुप्पूस्वामी संस्कृतिकरण के संदर्भ समूह ‘ प्रक्रिया को संचालन का एक उदाहरण मानते हैं , लेकिन भारतीय समाज में संदर्भ समूह की सदस्यता प्राप्त करना इस कारण असम्भव है कि यहाँ जन्म पर आधारित जाति – व्यवस्था पायी जाती है । ऐसी बन्द अवस्था वाले समाज में व्यक्ति के लिये अपने जातीय समूह को बदलकर किसी अन्य जातीय समूह की सदस्यता ग्रहण करना असम्भव है । एक सापेक्ष रूप में बंद सामाजिक संरचना में अग्रिम समाजीकरण व्यक्ति के लिए अपकार्यात्मक होगा क्योंकि वह जिस समूह का सदस्य बनने की आकांक्षा रखता है , गतिशीलता के अभाव में वह उसका सदस्य नहीं बन पाएगा । बी ० कुप्पूस्वामी से हम सहमत हैं जब वे यह कहते हैं कि कुछ संभव है , वह यही कि वर्ण के अन्तर्गत ही मामूली परिवर्तन हो पाता है । स्पष्ट है कि संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया नहीं है जिसके द्वारा हिन्दू समाज में संरचनात्मक परिवर्तन संभव हो सके ।

  1. प्रो ० श्रीनिवास स्वयं मानते हैं कि भूतकाल में अनेक प्रभुत्व – सम्पन्न जातियों ने संस्तरण की प्रणाली में राजकीय आदेश द्वारा या स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के संगठन द्वारा उच्च स्थितियाँ प्राप्त की हैं । के ० एम ० पनीकर मानते हैं कि ईसा के पांचवीं शताब्दी पूर्व , सभी तथाकथित क्षत्रिय निम्न जातियों के द्वारा सत्ता के अनाधिकार ग्रहण द्वारा अस्तित्व में आये और परिणामतः उन्होंने क्षत्रिय – भूमिका और सामाजिक स्थिति प्राप्त की । डा ० योगेन्द्र सिंह के अनुसार , यहाँ संस्कृतिकरण के प्रक्रिया , ‘ सत्ता के उत्थान और पतन द्वारा संघर्षों और युद्ध द्वारा और राजनीतिक दांव – पेच द्वारा प्रभुत्व सम्पन्न समूहों के भारतीय इतिहास में पद – प्राप्ति या प्रचलन को व्यक्त करती है । ये सब संरचनात्मक परिवर्तनों के उदाहरण हैं जिनका संस्कृतिकरण जैसी अवधारणा के द्वारा पूर्णतः पता नहीं चलता हैं । उपर्युक्त विवरण के स्पष्ट हैं कि सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया का वर्णन करने के लिये यह कोई बहुत उपयुक्त अवधारणा नहीं । इस संबंध में डॉ ० डी ० एन ० मजूमदार ने लिखा है कि सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया का वर्णन करने के लिए हमने जिस उपकरण का प्रयोग किया है , उससे हम प्रसन्न नहीं हैं । यही बात एफ ० जी ० बेली ने अपनी पुस्तक ” कास्ट एण्ड  दी इकोनोमिक फ्रंटियर ‘ में स्पष्ट की है । संस्कृतिकरण अवधारणाओं के एक पूंज को व्यक्त करता है और यह असंयत या ढीली अवधारणा है जो किसी विशेष गुण रहित है । श्री निवास द्वारा इस अवधारणा को दिया गया व्यापक विस्तार इसके उपयोग की न्यायसंगतता को असंभव बना देता है , विशेषतः लम्बवत् और क्षैतिज गतिशीलता के संदर्भ में है ।

पश्चिमीकरण

( Westernization )

अवधारणा : पश्चिमीकरण परिवर्तन की उस प्रक्रिया का द्योतक है जो कि भारतीय जनजीवन , समाज व संस्कृति के विभिन्न पक्षों में उस पश्चिमी संस्कृति के सम्पर्क में आने के फलस्वरूप उत्पन्न हुई जिसे कि अंग्रेज शासक अपने साथ लाए थे । डा ० एम ० एन ० श्री निवास ( Dr.M.N.Srinivas ) ने पश्चिमीकरण की व्याख्या करते हुए लिखा है , मैंने पश्चिमीकरण शब्द को ब्रिटिश राज्य के डेढ़ सौ वर्ष के शासन के परिणामस्वरूप भारतीय समाज व संस्कृति में उत्पन्न हुए परिवर्तनों के लिए प्रयोग किया है और यह शब्द विभिन्न स्तरों जैसे प्रौद्योगिकी , संस्थाओं , विचारधारा , मूल्य आदि में घटित होने वाले परिवर्तनों का द्योतक है । ( I have used the term weternization to characterise the changes brought about in Indian and culture as a result of over 150 years of British rules and the term subsumes changes occurring at different levels , technology , institutions ideology and values : M. N. Srinivas . ” Social change in Modern Indian ” . University of California Press , 1966. P. 47 )

एम ० एन ० श्रीनिवास ने 1952 में दक्षिण भारत में कुर्ग लोगों के सामाजिक व धार्मिक जीवन के विश्लेषण में ‘ संस्कृतिकरण ‘ एवं ‘ पश्चिमीकरण ‘ की अवधारणा विकसित की । सामाजिक परिवर्तन का सिद्धांत यह मानता है कि परिवर्तन के आधार व्यवस्था के भीतर भी पाये जाते हैं एवं बाहर भी । संस्कृतिकरण की अवधारणा जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत गतिशीलता को व्यक्त करती है जबकि पश्चिमीकरण की अवधारणा उन परिवर्तनों को व्यक्त करती है जो पश्चिम विशेषतः ग्रेट ब्रिटेन के सांस्कृतिक सम्पर्क का परिणाम है ।

एम . एन . श्रीनिवास ( M.N. Srinivas ) ने पश्चिमीकरण की व्याख्या इस रूप में दी है , ” भारत में 150 वर्षों के अंग्रेजी शासन के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में होने वाले परिवर्तन के लिये पश्चिमीकरण का उपयोग किया । भारत में अंग्रेजी शासन – व्यवस्था में कायम हो जाने के बाद से ही हमारा सम्पर्क पश्चिमी संस्कृति से स्थापित हुआ व दिन – प्रतिदिन घनिष्ठ होता चला गया । फलस्वरूप भारतीयों के मूल्य , आदर्श , संस्थाएँ , व्यवस्थाएँ और प्रौद्योगिकी सभी पर अंग्रेजी सस्कृति का प्रभाव देखा गया । भारतीय समाज में तकनीक परिवर्तन शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना , राष्ट्रीयता का उदय , नई राजनीतिक संस्कृति , आधुनिक ज्ञान , जीवन में नवीन विचारधाराओं एवं मूल्यों का समावेश आदि का पश्मिीकरण भारत में दो सौ वर्षों के अंग्रेजी शासन का ही प्रतिफल कहा जा सकता है । एम ० एन ० श्रीनिवास ने पश्चिमीकरण की आवधारणा को कुछ खास भाषाओं के माध्यम से स्पष्ट करने की चेष्टा की है ।

 

 

पश्चिमीकरण की विशेषताएं :

  1. एक व्यापक अवधारणा : पश्चिमीकरण की अवधारणा काफी व्यापक है । इसमें पश्चिम के प्रभाव से उत्पन्न होने वाले सभी तरह के भौतिक और अभौतिक परिवर्तनों का समावेश है । इस सम्बंध में श्रीनिवास के विचारों को स्पष्ट करते हुए कुप्पूस्वामी ने लिखा है कि पश्चिमीकरण का सम्बंध मुख्य रूप से तीन क्षेत्रों से है : ( a ) व्यवहार सम्बंधी पक्ष , जैसे : खान – पान , वेश भूषा , शिष्टाचार के तरीके तथा व्यवहार प्रतिमान आदि ; ( b ) ज्ञान सम्बंधी पक्ष , जैसे : विज्ञान , प्रौद्योगिकी और साहित्य आदि ; ( c ) सामाजिक मूल्य सम्बंधी पक्ष , जैसे : मानवतावाद , धर्मनिरपेक्षता तथा समताकारी विचार , पश्चिम के प्रभाव से समाज के इन सभी पक्षों में होने वाले परिवर्तन पश्चिमीकरण से सम्बन्धित हैं ।

  1. नैतिक रूप से तटस्थ : पश्चिमीकरण की प्रक्रिया में नैतिकता के तत्व होना कोई जरूरी नहीं है अर्थात् पश्चिमीकरण के परिणाम अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी । भारतीय समाज में पश्चिमीकरण केवल अच्छी दिशा में ही हुआ है ; यह बात नहीं है । इस प्रकार यह प्रक्रिया
  2. अंग्रेजों द्वारा लायी गई संस्कृति : ‘ पश्चिमी देश ‘ शब्द से जिन अनेक देशों का जैसे अमेरिका , ग्रेट ब्रिटेन , फ्रांस , जर्मनी , इटली आदि का बोध होता है । उनमें स्वयं आपस में भारी सांस्कृतिक अन्तर है । भारतवर्ष में सामाजिक परिवर्तन के एक कारक के रूप में पश्चिमीकरण की जो प्रक्रिया क्रियाशील है , वह वास्तव में पाश्चात्य संस्कृति के उस स्वरूप का प्रभाव है जिसे कि अंग्रेज शासक अपने साथ लाए और भारतवासियों को उससे परिचित कराया ।

  1. एक जटिल प्रक्रिया : पश्चिमीकरण की प्रक्रिया में अनेक जटिल तत्वों का समावेश है । यह प्रक्रिया केवल प्रथाओं , जाति व्यवस्था , धर्म , परिवार और रहन – सहन में होने वाले परिवर्तनों से भी है जो पश्चिमी को वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक प्रगति के फलस्वरूप उत्पन्न हुए हैं । यह प्रक्रिया इसलिए भी जटिल है कि इसने सम्पूर्ण भारतीय समाज को समान रूप से प्रभावित नहीं किया । गाँवों की तुलना में नगरों में तथा निम्न वर्गों की तुलना में उच्च वर्गों में पश्चिमीकरण का अधिक प्रभाव देखने को मिलता है ।

  1. चेतन – अचेतन प्रक्रिया : पश्चिमीकरण केवल एक चेतन प्रक्रिया ही नहीं अपितु अचेतन प्रक्रिया भी है । दूसरे शब्दों में , पश्चिमीकरण की प्रक्रिया द्वारा भारत में सामाजिक परिवर्तन केवल सचेत रूप में ही हुआ है ; ऐसी बात नहीं है । अंग्रेज द्वारा लाए गए अनेक पश्चिमी सांस्कृतिक तत्वों को हमने अनायास ही कब ग्रहण कर लिया है यह शायद स्वयं हमें मालूम नहीं है । वे तो अचेतन रूप में हमारे जन – जीवन में समा गए हैं और परिवर्तन को घटित किया है ।

  1. एक निश्चित प्रारूप का अभाव : पश्चिमीकरण का कोई एक प्रारूप अथवा आदर्श नहीं है । ब्रिटिश शासनकाल में पश्चिमीकरण का आदर्श इंगलैण्ड का प्रभाव था । स्वतंत्रता के बाद जैसे – जैसे भारत के संबंध रूस और अमेरिका के साथ बढ़ते गए ; हमारी प्रौद्योगिकी तथा सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर इन देशों का प्रभाव बढ़ता गया । पश्चिमी प्रभाव से भारतीय समाज होने वाले वर्तमान परिवर्तनों में से यह बता सकना कठिन है कि यह प्रभाव इंग्लैण्ड , अमेरिका अथवा रूस आदि में से किस देश का है । स्पष्ट है कि हमारे देश में पश्चिमीकरण की प्रक्रिया किसी एक देश के आदर्श पर आधारित नहीं है ।

  1. पश्चिमीकरण का सम्बंध किसी सामान्य संस्कृति से नहीं : पश्चिमीकरण का सम्बंध पश्चिमी देशों के प्रभाव अवश्य है लेकिन सभी पश्चिमी देशों की सांस्कृतिक विशेषताओं में भी कुछ मिलता है । पश्चिमी देश की कोई सामान्य संस्कृति नहीं है । इसके बाद भी डा . श्रीनिवास ने यह माना है कि भारत में होने वाले सामाजिक परिवर्तन के लिए हम पश्चिमीकरण की जिस प्रक्रिया की बात करते हैं , वह वास्तव में ब्रिटिश संस्कृति के प्रभाव से ही सम्बन्धित है । यह कथन अधिक उपयुक्त मालूम नहीं होता है क्योंकि भारतीय समाज में होने वाले परिवर्तन पश्चिम के अनेक देशों के संयुक्त प्रभाव के परिणाम हैं ।

  1. अनेक मूल्यों का समावेश : पश्चिमीकरण में अनेक ऐसे मूल्यों का समावेश है जिनकी प्रकृति भारत के परम्परागत मूल्यों से काफी भिन्न है । उदाहरण के लिए समानता , स्वतंत्रता , व्यक्तिवादिता , भौतिक आकर्षण , तार्किकता तथा मानवतावाद ऐसे मूल्य हैं जिन्हें पश्चिमी संस्कृति में अधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाता है । परम्परागत मूल्यों की जगह पश्चिम के इन मूल्यों को ग्रहण करने की प्रक्रिया का नाम ही पश्चिमीकरण है ।

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 एम ० एन ० श्रीनिवास ने पश्चिमीकरण के परिणामों की व्याख्या दी है-

( 1 ) मानवतावाद का विकास महत्त्वपूर्ण है । श्रीनिवास ने लिखा है , ” पश्चिमीकरण में कुछ मूल्यगत अधिमान्यताएँ निहित हैं । यदि इनके लिए किसी एक शब्द का प्रयोग किया जाय , तो इसे हम मानवतावाद कह सकते हैं ।

( 2 ) भारतीय समाज की परम्परागत संरचना – जाति व्यवस्था , संयुक्त परिवार व्यवस्था व ग्रामीण समुदाय के संदर्भ में अनेक परिवर्तनों को देखा जा सकता है ।

( 3 ) समानता , लोकतंत्र व भौतिकवाद का विकास , सती – प्रथा व बाल – विवाह के विपरीत मूल्यों का विकास , अन्तर्जातीय विवाह व विधवा पुनर्विवाह के अनुकूल मूल्यों का विकास , आदि पश्चिमीकरण की देन है ।

( 4 ) जनकल्याण , समाज – कल्याण व देश की सुरक्षा राज्य के कार्य क्षेत्र बने ।

( 5 ) हिन्दू धर्म की पुनर्व्याख्या ।

( 6 ) अनेक राजनीतिक व सांस्कृतिक ओदोलनों का सूत्रपात ।

( 7 ) शिक्षा का प्रसार व स्त्री शिक्षा पर बल पश्चिमीकरण की देन है ।

भारतीय समाज पर पश्चिमीकरण का प्रभाव :

डा ० एम ० एन ० श्रीनिवास ने पश्चिमीकरण की विस्तृत चर्चा अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Social Change in Modern India ( P – 47 ) में तथा योगेन्द्र सिंह ने अपनी पुस्तक Modernization  of Indian Tradition ( P – 9 ) साथ ही बी ० कुप्पूस्वामी ने अपनी पुस्तक Social Change in India ( P – 62 ) में पश्चिमीकरण के प्रभावों की चर्चा की है ।

पश्चिमीकरण के कारण भारतीय समाज में बहुआयामी परिवर्तन हुआ है जिसे निम्नलिखित बिन्दुओं पर देखा जा सकता है

1.जाति – व्यवस्था में परिवर्तन ( Change in Caste System ) : पश्चिमीकरण का सामाजिक जीवन पर सबसे बड़ा प्रभाव यह हुआ कि जातिगत बन्धन , छुआछूत की भावना समाप्त हुई है । इस प्रक्रिया ने सामाजिक समानता पर अधिक बल दिया । इसके प्रभाव से व्यक्ति धीर – धीरे यह समझने लगा कि जातियों का विभाजन तथा उनके बीच ऊँच नीच की व्यवस्था कोई ईश्वरीय रचना न होकर एक योजनाबद्ध सामाजिक नीति है । इसके फलस्वरूप अधिकांश व्यक्तियों ने जातिगत नियमों का विरोध करना आरंभ कर दिया । इसी का परिणाम है कि आज जाति से संबंधित सामाजिक सम्पर्क खान – पान , छुआछूत तथा व्यवसाय से संबंधित पूरी तरह समाप्त हो चुके हैं । निम्न जातियों ने उच्च जातियों के व्यवहारों का अनुकरण करके अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाना आरंभ कर दिया । आज अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों की सभी सामाजिक और आर्थिक निर्योग्यताएँ समाप्त हो जाने तथा उन्हें विशेष मताधिकार मिलने से जाति – व्यवस्था का सम्पूर्ण ढाँचा चरमराकर टूट गया है ।

  1. स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन : पश्चिकीकरण के कारण स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन होने लगे । इसके प्रभाव से जब वैयक्तिक स्वतंत्रता में वृद्धि हुई , तब स्त्रियों ने भी विभिन्न व्यवसायों और सेवाओं में प्रवेश करके अपनी आर्थिक आत्मनिर्भरता को बढ़ाने का प्रयत्न किया । परिवार विवाह तथा सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों के बढ़ते हुए अधिकार आज इन्हीं दशाओं के परिणाम हैं । स्त्रियों के प्रति पुरुषों की मनोवृत्तियों में होने वाले परिवर्तन भी पश्चिमी संस्कृति की उस विचारधारा से प्रभावित हैं जो मानवतावादी और समतावादी मूल्यों को महत्त्व देती है ।

  1. संयुक्त परिवार में परिवर्तन : पश्चिमीकरण के प्रभाव के कारण व्यक्तिगत स्वतंत्रता व्यक्ति की आगे बढ़ाने में सहयोगात्मक है । इसी कारण संयुक्त परिवार से व्यक्ति अलग होकर नगरों में एकल परिवार की स्थापना करते हैं । इस संस्कृति ने लोगों को इस बात की प्रेरणा दी कि वे अपनी योग्यता और कुशलता को बढ़ाकर उच्च प्रस्थिति प्राप्त करें तथा अपने द्वारा उपार्जित आय का स्वतंत्रता के साथ उपयोग करें । यह विचार संयुक्त परिवार व्यवस्था के विरुद्ध होने के कारण उन व्यक्तियों ने संयुक्त परिवार को छोड़ना आरंभ कर दिया जो अधिक योग्य और साहसी थे । इसके फलस्वरूप एकाकी परिवारों में तेजी से वृद्धि हुई । पश्चिमीकरण ने समानता तथा भौतिक सुख से संबंधित जो विचारधारा प्रस्तुत की , उससे प्रभावित होकर स्त्रियाँ भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और छोटे परिवार के पक्ष में होने लगी । स्त्रियों ने जब विभिन्न आर्थिक क्षेत्रों में प्रवेश किया तो उनके परिवार का रूप संयुक्त बने रहना संभव नहीं रह गया । इसी का परिणाम है कि आज नगरों के अतिरिक्त गाँवों में भी संयुक्त परिवारों की संरचना में निरन्तर कमी होती जा रही है ।

4.रीति – रिवाज में परिवर्तन : पश्चिमीकरण ने रीति – रिवाज , तौर – तरीके , रहन – सहन , खान – पान , उठाना – बैठना , जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से संबंधित तरीकों में व्यापक परिवर्तन किया । उदाहरण के तौर पर हाथ मिलाना , गुड मार्निंग , सौरी , पैन्ट – शर्ट आदि ।

  1. विवाह में परिवर्तन : पश्चिमीकरण के परिणामस्वरूप , सह – शिक्षा ( Co – education ) , स्त्री पुरुषों का एक साथ काम करने का अवसर , अन्तर्विवाह के नियमों के पालन करने की जगह योग्य जीवन साथी का चुनाव करना अधिक अच्छा समझा जाने लगा । इसके फलस्वरूप एक – ओर विलम्ब – विवाह का प्रचलन बढ़ा तो दूसरी ओर बहुत से शिक्षित और जागरूक व्यक्तियों ने अंतर्जातीय विवाह करना भी आरंभ कर दिया । इस समय विवाह को एक स्वस्थ्य पारिवरिक जीवन के आधार के रूप में देखा जाने लगा । फलस्वरूप एक ओर विवाह – विच्छेदों की संख्या में वृद्धि होने लगी तो दूसरी और अन्तर्विवाह तथा बहिर्विवाह से संबंधित नियम कमजोर पड़ने लगे । इसके साथ ही अपने पसन्द के व्यक्तियों के साथ विवाह का प्रचलन बढ़ा जिसे प्रेम विवाह कहते हैं ।

  1. धार्मिक जीवन में परिवर्तन : पश्चिमीकरण की संस्कृति के प्रभाव से अन्धविश्वासों , कर्मकाण्डों तथा धर्म पर आधारित कुप्रथाओं की मनोवृत्तियों में व्यापक परिवर्तन देखने को मिलता है । ईसाई धर्म प्रचारकों ने जब हिन्दू – धर्म में व्याप्त अन्ध – विश्वासों और कुरीतियों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करके उन्हें ईसाई धर्म को ग्रहण करने की प्रेरणा देना आरंभ किया तब स्वयं हिन्दुओं को भी अपने धर्म पर आधारित रूढ़ियों का मूल्यांकन करने की प्ररेणा मिली । इस समय शिक्षित और विवेकशील व्यक्तियों ने धर्म द्वारा समर्पित देववासी प्रथा , अस्पृश्यता , सती – प्रथा , बाल – विवाह , विधवा – विवाह पर नियंत्रण तथा स्त्रियों की निम्न स्थिति आदि का विरोध करना आरंभ कर दिया । ईसाई मिशनरियों ने व्यक्तियों के सामने मानवतावाद तथा सामाजिक समानता का जो आदर्श प्रस्तुत किया , उससे प्रभवित होकर भारत में अनेक सुधारवादी सम्प्रदायों ने धार्मिक समानता , मानव सेवा और बन्धुत्व के महत्त्व को स्पष्ट करके हिन्दू धर्म में उपयोगी परिवर्तन लाने के प्रयत्न किये ऐसे सम्रदायों में ब्रह्मसमाज , आर्य समाज तथा रामकृष्ण मिशन की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण है । पश्चिमीकरण की विचारधारा के प्रभाव से भूत – प्रेत तथा भावातिता का प्रभाव कम होने लगा साथ ही तार्किकता तथा कर्मवाद की विचारधारा में परिवर्तन हुआ । इसके साथ ही धर्मनिरपेक्षता का विकास हुआ ।

  1. व्यक्तिवादी तथा भौतिक मूल्यों में वृद्धि : पश्चिमीकरण के प्रभाव से परिश्रम के द्वारा अथि कि विकास तथा व्यक्गिता हित में उसके उपयोग को महत्त्व दिया जाता है । यही वे दशाएँ हैं जिनके प्रभाव से हमारे समाज में प्राथमिक संबंधों की जगह द्वितीयक और हित – प्रधान सामाजिक संबंधों में वृद्धि होने लगी । आज पारिवरिक तथा मित्रता के सम्बंधों में भी प्रदर्शन और दिखावे का महत्त्व बढ़ता जा रहा है । अधिकांश व्यक्ति उन्हीं कामों में अधिक रुचि लेते हैं जिनसे उन्हें व्यक्तिगत लाभ मिल सके । परम्परागत रूप से एक व्यक्ति की आय पर उसके सभी निकट रक्त – सम्बन्धियों का नैतिक अधिकार समझा जाता था लेकिन आज व्यक्ति अपनी सफलता का उपयोग केवल व्यक्तिगत हित में करना उचित मानता है । मनोवृत्तियों और विचारों के इस परिवर्तन ने भारत की सभी परम्परागत संस्थाओं के रूप को प्रभावित किया है ।

  1. राजनीति में परिवर्तन : पश्चिमीकरण के प्रभाव के कारण ही हमारे देश में लोकतंत्रीय तथा प्रजातंत्रीय संस्थाओं का भी विकास होने लगा । ब्रिटिश शासन व्यवस्था पूँजीवादी आदर्शों पर आधारित थी जो कि स्वयं ही अनेक दो सामाजिक दोषों से संयुक्त हैं । इन दोषों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप साम्यवादी , समाजवादी और व्यक्तिवादी राजनैतिक विचारों व सिद्धांतों का प्रसार भी इस देश में हुआ ।

  1. मानवतावाद का विकास : डा ० एम ० एन ० श्रीनिवास का कथन है कि पश्चिमीकरण में कुछ विशेष मूल्यों का समावेश है जिन्हें हम ‘ मानवतावाद ‘ के नाम से सम्बोधित कर सकते हैं | ‘ मानवतावाद ‘ एक ऐसी भावना है जिसमें व्यक्ति की जाति , आर्थिक स्थिति , आयु , लिंग व धर्म पर ध्यान दिये बिना मानव मात्र के कल्पाण को विशेष महत्त्व दिया जाता है । ऐसी भावनाओं

के फलस्वरूप समाज के सभी वर्गों में मानव अधिकारों के प्रति चेतना उत्पन्न हुई है । हमारे समाज में निम्न जातियों तथा पिछड़ी जातियों को मिलने वाले विशेष अधिकार मानवतावाद में होने वाली वृद्धि को ही स्पष्ट करते हैं । अंग्रेजों की यह मान्यता थी कि समाज के उपेक्षित और पिछड़े वर्गों में जब अपने अधिकारों की चेतना पैदा ही जाएगी तो यह वर्ग स्वयं ही समानता की माँग करने लगेंगे । यह कार्य अंग्रेजी शासनकाल में नहीं हो सका लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात् नगरीय ग्रामीण तथा जनजातियों सभी क्षेत्रों में आज इन वर्गों ने अपने अधिकारों और समानता की माँग करनी आरंभ कर दी है

  1. राष्ट्रीयता का विकास : पाश्चात्य संस्कृति , शिक्षा और विचारधाराओं ने हमें न केवल दुनिया के राष्ट्रीय जीवन के सम्पर्क में ही ला दिया बल्कि देश के अन्दर विभिन्न विपरीत समूहों में एक सांस्कृतिक समानता को भी उत्पन्न किया । इस सांस्कृतिक समानता और अन्य विदेशी राष्ट्रों को देखकर भारतीय जीवन में एकता और राष्ट्रीयता की नवीन लहर दिखायी दी ।

  1. आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन : पश्चिमीकरण के फलस्वरूप यातायात के साधनों में उन्नति हुई और औद्योगीकरण बढ़ता गया जिसके कारण गाँव की आर्थिक आत्मनिर्भरता धीर – धीरे समाप्त होने लगी और खेती का व्यापारीकरण शुरू हो गया । गाँव के आर्थिक जीवन पर दूसरा प्रभाव ग्रामीण उद्योगों का विनाश था , क्योंकि गृह – उद्योग मशीन उद्योग की प्रतियोगिता में न टिक सके । साथ ही गाँव में प्रचलित पुरानी भूमि – प्रणाली को समाप्त कर दिया गया और जमींदारी प्रथा का विकास किया गया । इस प्रकार गाँव में एक शोषणकारी व्यवस्था शुरू हुई । दूसरी ओर शहर में औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप आर्थिक विकास तेज हुआ । बड़ी – बड़ी मिलों और फैक्ट्रियों की स्थापना हुई , मशीनों का प्रयोग दिन – प्रतिदिन बढ़ता गया तथा उत्पादन बड़े पैमाने पर होने लगा । यातायात के साधनों में उन्नति होने के कारण न केवल अन्तर्राज्यीय व्यापार बढ़े अपितु अन्तर्राज्यीय व्यापार भी बढ़ा इससे देश के व्यापार और वाणिज्य में भी उन्नति हुई । आज व्यापार में वैश्वीकरण तथा उदारीकरण की सरकारी नीति भी एक तरह से पश्चिमीकरण का ही परिणाम है

  1. साहित्य में परिवर्तन : विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य पर भी पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति का प्रभाव पड़ा है । अंग्रेजी साहित्य संसार के सब आधुनिक साहित्यों में काफी समृद्ध माना जाता है । इन अंग्रेजी साहित्य तथा यूरोप की अन्य भाषाओं के साहित्य को पढ़ने तथा समझने एवं उससे लाभ उठाने का अवसर भारतीय विद्वानों तथा लेखकों को अंग्रेजी भाषा ने प्रदान किया । इससे हिन्दी के साथ – साथ अन्य सभी प्रान्तीय भाषाओं के साहित्य में पाश्चात्य साहित्यिक शैली , सामग्री तथा विचारों का समावेश होने लगा और उनका आधुनिकीकरण हुआ । प ० ईश्वरचन्द्र विद्यासागर , रवीन्द्रनाथ टैगोर , बंकिमचन्द्र चटर्जी के उपन्यास तथा कहानियों में हिन्दू समाज की प्रमुख समस्याओं को स्थान मिला जो कि अंग्रेजी शासन साहित्य का ही प्रभाव था । 19 णीं शताब्दी के अंतिम चरण में अंग्रेजी शासन तथा शिक्षा से प्रभावित होकर बंगाल के कुछ लेखकों ने समाज – सुधार और राष्ट्रीय जोश की बातें अपने साहित्य में लिखी । उनमें बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा लिखित ‘ आनन्द मठ ‘ को भारतीय राष्ट्रीयता का बाइबिल कहा जाता है । इसी पुस्तक में उसने ‘ वन्दे मातरम् ‘ का राष्ट्रीय गीत 1 लिखा । इस प्रकार पश्चिमीकरण ने भारतीय समाज में बहुआयायी परिवर्तन लाया है जो कि परिवार , विवाह , नातेदारी , धर्म , शिक्षा , साहित्य , कला , संगीत , रीति – रिवाज , अर्थव्यवस्था , राजनीतिक व्यवस्था सभी क्षेत्र को प्रभावित किया है ।

भारत में सामाजिक परिवर्तन : दशा एवं दिशा 106

संस्कृतिकरण तथा पश्चिीकरण में अंतर :

  1. पश्चिमीकरण भारतीय समाज में होने 1. संस्कृतिकरण भारतीय समाज में होने वाली एक अन्तःजनित प्रक्रिया है । इसका वाली एक बाह्यजनित प्रक्रिया है । इसका स्रोत स्वयं भारतीय समाज में ही विद्यामन स्रोत भारतीय समाज के बाहर अर्थात् होता है । कोई पश्चिमी देश होता है ।

  1. संस्कृतिकरण एक अत्यन्त प्राचीन प्रक्रिया 2. पश्चिरीकरण अपेक्षाकृत एक आधुनिक प्रक्रिया है ।

  1. संस्कृतिकरण एक संकुचित प्रक्रिया 3. पश्चिमीकरण एक विस्तृत प्रक्रिया है । है क्योंकि इसका सम्बन्ध केवल निम्न क्योंकि इनका सम्बन्ध सभी जातियों एवं जातियों से है । वर्गों से है ।

  1. संस्कृतिकरण में निम्न जाति किसी 4. पश्चिमीकरण में सभी जातियाँ पश्चिमी उच्च जाति का अनुकरण करके अपना संस्कृति का अनुकरण करने का प्रयास परम्परागत सामाजिक स्तर ऊँचा करने का करती हैं । प्रयास करती है ।

  1. श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतिकरण | 5. पश्चिमकरण से पदमूलक तथा संरचनात्मक से केवल पदमूलक परिवर्तन होते हैं , दोनों प्रकार के परिवर्तन होते हैं । संरचनात्मक नहीं ।

  1. संस्कृतिकरण में आदर्श प्रतिमान उच्च 6. पश्चिमीकरण में आदर्श प्रतिमान कोई वर्ण अथवा स्थानीय प्रभु जाति होती है । पश्चिमी देश होता है ।

  1. संस्कृतिकरण में शुद्धतावादी आदर्शों को | 7. पश्चिमीकरण में लौकिक आदर्शों को महत्त्व दिया जाता है । महत्त्व दिया जाता है ।

  1. संस्कृतिकरण द्वारा अपेक्षाकृत 8. पश्चिमीकरण से अपेक्षाकृत अधिक गतिशीलता आती है गतिशीलता आती है ।

  1. संस्कृतिकरण की विपरीत प्रक्रिया को | 9. पश्चिमीगरण की कोई विपरीत प्रक्रिया असंस्कृतिकरण कहते हैं । नहीं है यद्यपि पश्चिमी देश गैर – पश्चिमी देश से प्रभावित होते हैं ।

  1. आर्थिक सम्पन्नता तथा राजनीतिक शक्ति 10. पश्चिमीकरण में सहायक कारकों का संस्कृतिकरण में प्रमुख सहायक कारक हैं । पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है ।

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संस्कृतिकरण तथा आधुनिकीकरण में अंतर :

  1. संस्कृतिकरण भारतीय समाज में होने | 1. संस्कृतिकरण भारतीय समाज में होने वाली एक अन्तःजनित प्रक्रिया है । वाली एक बाह्यजनित प्रक्रिया है । इसका इसका स्रोत स्वयं भारतीय समाज में ही स्रोत भारतीय समाज के बाहर अर्थात् विद्यमान होता है । कोई पश्चिमी देश होता है ।

  1. संस्कृतिकरण एक अत्यन्त प्राचीन प्रक्रिया | 2. आधुनिकीकरण अपेक्षाकृत एक नवीन कम प्रक्रिया है ।
  2. संस्कृतिकरण एक संकुचित प्रक्रिया | 3. आधुनिकीकरण एक विस्तृत प्रक्रिया है है क्योंकि इसका सम्बन्ध केवल निम्न क्योंकि इसका सम्बन्ध सभी क्षेत्रों में जातियों से है । परिवर्तन से है ।
  3. संस्कृतिकरण में निम्न जाति किसी 4. आधुनिकीकरण में सभी जातियाँ उच्च जाति का अनुकरण करके अपना परम्परागत सामाजिक स्तर ऊँचा करने आधुनिक मूल्यों का अनुकरण करने का प्रयास करती हैं । का प्रयास करती है ।

  1. श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतिकरण 5. आधुनिकीकरण से पदमूलक तथा से केवल पदमूलक परिवर्तन होते हैं , संरचनात्मक दोनों प्रकार के परिवर्तन संरचनात्मक नहीं । होते हैं ।

  1. संस्कृतिकरण में आदर्श प्रतिमान उच्च 6. आधुनिकीकरण में आदर्श प्रतिमान कोई वर्ण अथवा स्थानीय प्रभु जाति होती है । भी पश्चिमी देश , अमेरिका अथवा अन्य आधुनिक देश हो सकता है

  1. संस्कृतिकरण में शुद्धतावादी आदर्शों को 7. आधुनिकीकरण में लौकिक आदर्शों को महत्त्व दिया जाता है । महत्त्व दिया जाता है ।

  1. संस्कृतिकरण द्वारा अपेक्षाकृत कम 8. आधुनिकीकरण से अपेक्षाकृत अधिक गतिशीलता आती है । गतिशीलता आती है ।

  1. संस्कृतिकरण की विपरीत प्रक्रिया को 9. आधुनिकीकरण की कोई विपरीत प्रक्रिया असंस्कृतिकरण कहते हैं । नहीं है यद्यपि कुछ देशों में परम्परावाद एवं कट्टरवादिता को प्रोत्साहन दिया जा रहा है ।

  1. आर्थिक सम्पन्नता तथा राजनीतिक | 10. आधुनिकीकरण में विविध सहायक शक्ति संस्कृतिकरण में प्रमुख सहायक कारक होते हैं जिसका पूर्वानुमान नहीं कारक हैं । लगाया जा सकता है ।

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