ग्रामीण भारत में परम्परात्मक शक्ति संरचना
2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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परम्परागत भारतीय गांवों में शक्ति संरचना के प्रमुख तीन प्राधार थे . जमींदारी प्रथा ए ग्राम पंचायत एवं जाति पंचायत । एक तरफ जमींदारी प्रथा समुदाय के लोगों को भौतिक व आर्थिक हितों एवं प्राकक्षिानों की प्रतिनिधि थी तो दूसरी ओर ग्राम पंचायत तया जाति पंचायतें ग्रामीण राजनीति ; च्वसपजल द्ध की सामाजिक विशेषतानों की प्रतीक थीं ।
ग्रामवासियों का मुख्य व्यवसाय कृषि था । प्रतः भू . स्वामित्व के अधिकार उनके सामाजिक सम्बन्धों में प्रभुता और अधीनता की स्थिति को निश्चित करते थे । भू . स्वामित्व के अधिकार ही समुदायों के लोगों की प्रार्थिक अपेक्षाओं पर नियन्त्रण रखते थे । जमींदारी व्यवस्था गाँव की शक्ति व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थी । धीरे . धीरे जमींदारी व्यवस्था ही गाँवों में शक्ति संस्था के रूप में विकसित हो गई और यही नीतियों का निर्धारण भी करने लगी । इसी प्रथा ने गांव पंचायत व जाति पंचायतों की भूमिकामों को भी प्रभावित किया । जमींदारी प्रथा के बाद ग्रामीण लोगों के व्यवहार ए संस्कार ए परम्परात्मक अपेक्षानों एवं सामाजिक जीवन को प्रभावित करने वाला दूसरा महत्त्वपूर्ण संगठन जाति संगठन था । जाति संगठन ने जमींदारी प्रथा के साथ . साथ अपनी शक्ति संरचना का विकास किया । गांवों में शक्ति संरचना का तीसरा प्रमुख प्राधार ग्राम पंचायतें थीं । वर्तमान पंचायती राज की स्थापना से पूर्व गांवों में सभी जातियों के वयोवृद्ध लोगों द्वारा निमित एक परिषद् अथवा ग्राम पंचायत होती थी । ये पंचायतें जमींदारी की सामुहिक संस्था की शक्ति पर नियन्त्रण रखती थीं । इस प्रकार से जमींदारी प्रथा के ण् उन्मूलन से पूर्व गांव में शक्ति व्यवस्था को निर्धारित करने में जमींदारी व्यवस्था ए गाँव पंचायत व जाति पंचायत की संस्थाएं महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं । कोई भी आर्थिक ए राजनीतिक ए सामाजिक ए सांस्कृतिक और सांस्कारिक विवाद इन तीनों संस्थानों द्वारा ही निपटाये जाते थे । इसका अर्थ यह नहीं है कि इन तीनों के अतिरिक्त गाँवों में शक्ति के अन्य स्रोत नहीं थे । पुरोहित ए प्रथाएँ ए परम्पराएँ एव जनरीतियाँ भी गाँवों में शक्ति के स्रोत थे । इन्हें गाँव के लोग अचेतन रूप से स्वीकार करते थे और इनका उल्लंघन करने पर व्यक्ति के सम्मुख अनेक कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती थीं । ग्रामीण शक्ति के तीनों स्रोत ए जमींदारी प्रथा ए गांव पंचायत एवं जाति पंचायत अपने आप में स्वतन्त्र इकाइयां नहीं थीं वरन् परस्पर एक . दूसरे पर निर्भर भी थीं । इनसे भी ऊपर पुलिस एवं राज्य की शक्ति थी । उन्हीं पर ये तीनों संस्थाएं आश्रित भी थीं और उनसे अपनी शक्ति भी प्राप्त करती थीं ।
भारतीय ग्रामों में शक्ति संरचना के इन तीनों स्रोतों का उल्लेख करेगे जिससे कि गांवों की परम्परात्मक शक्ति संरचना को स्पष्टतः समझा जा सके ।
ण् जमींदारी प्रथा तथा शक्ति संरचना र्; ंउपदकंतप ैलेजमउ ंदक च्वूमत ैजतनबजनतम द्ध
डलमत को जमींदारी प्रथा गांवों की शक्ति संरचना के बीच सम्बन्ध सम्पत्ति में तथा भूमि में अधिकारों से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध थे । जमींदारी प्रथा से पूर्व गांवों में भू . स्वामित्व का क्या तरीका प्रचलित था ए इस बार में विद्वानों में असहमति है । हेनरी मेन की मान्यता है कि प्राचीन समय में पितृसत्तात्मक परिवार प्रचलित थे । परिवार का मुखिया अपने सदस्यों के साथ मिलकर कृषि कार्य करता था और भमि पर सामूहिक अधिकार की प्रथा विद्यमान थी । मुखर्जी एवं अल्तेकर ने हेनरी मेन के विचारों से प्रसहमति प्रकट की है । बेडन पॉवेल ; ठंकमद च्वूमसस द्ध का मत है कि प्रजातीय आवागमन के परिणामस्वरूप भू . स्वामित्व के अधिकारों में भी परिवर्तन होता रहा । पार्यों से पूर्व रैयतवाड़ी व्यवस्था प्रचलित थी जो अब भी दक्षिणी भारत में पाई जाती है । आर्यों ने भूमि पर गाँव के सामूहिक स्वामित्व की प्रथा प्रारम्भ की । वे कहते हैं कि भूमि पर स्वामित्व दो प्रकार से पैदा होता है ए एक तो अमि पर जो व्यक्ति श्रम करता है और उसे कृषि योग्य बनाता है उसका उस पर अधिकार होता है । दुसरा भूमि पर अधिकार विजय के कारण पैदा होता है । उत्तरी भारत में भूमि का अधिकार एक दारा भमि जीत लेने के कारण प्राप्त हुमा अथवा राजा द्वारा भूमि देने या गौत्र द्वारा भूमि विस्तार के कारण भी । भूमि पर स्वामित्व के आधार पर उत्तरी भारत में दो प्रकार के गाँव देखने को मिलते हैं
; 1 द्ध ताल्लुकेदारी अथवा जमींदारी प्रथा वाले गाँव ।
; 2 द्ध संयुक्त जमींदारी प्रथा वाले गाँव ।
हम जिन गांवों में जमींदारी या ताल्लुकेदारी प्रथा थी वहाँ गाँव की सारी भूमि पर जमींदार अथवा ताल्लू के दार का अधिकार होता था । गांव के दूसरे लोग उनकी प्रजा अथवा रैयत ; त्मलवज द्ध कहलाते थे जिन्हें केवल खेती करने का अधिकार था । भूमि पर कृषि करने के बदले लोग जमींदारों को लगान देते थे । गाँव के बाग . बगीचे ए तालाब ए चरागाह ए भूमि आदि पर जमींदारों का अधिकार होता । इनका उपयोग करने वाले को नकद अथवा वस्तु के रूप में लगान या भूपावजा देना होता था । व्यापारी ए दस्तकारी एवं सेवा करने वाली जाति ए मुआवजे का भुगतान ए उपसार के रूप में करती थीं । जमींदारों को अपनी रयत पर अनेक न्यायिक अधिकार भी प्राप्त थे । जमींदारी प्रथा ने अनेक प्राथिक ए राजनीतिक ए सामाजिक एवं न्यायिक अधिकारों को जन्म दिया । इन अधिकारों में कानून का कोई हस्तक्षेप नहीं था । बिना कानुन के ही जमींदार बहत शक्तिशाली होते थे और गांव के लोग भी कानून से अधिक प्रथामों को स्वीकार करते थे । जमींदारी प्रथा ने गांवों में इस प्रकार से एक विशिष्ट शक्ति संरचना को जन्म दिया । जाति पंचायत के बाद गांव में जमींदार ही सभी प्रकार के व्यावहारिक मामलों में कानून एवं नियमों के प्रतीक एवं संरक्षक थे । वे अपनी कचहरी लगाते ए कागजों का लेखा जोखा रखते ए न्याय करते एवं अपराधियों को दण्डित करते । जमींदार ही गाँव का मुखिया होता था । दूसरे प्रकार के गांवों में जहाँ संयुक्त जमींदारी प्रथा का प्रचलन था । शक्ति . संरचना दूसरे प्रकार की थी । सामूहिक जमींदारी प्रथा में वहाँ सभी भूमिदार श् थोकों श् ; ज्ीवो द्ध में बंटे हुए थे तथा थोक ; पट्टियों द्ध में बंटे हुए थे । एक थोक का एक या अधिक लम्बरदार होता था जो शक्ति की एक स्वतन्त्र इकाई था । गाँव के किसान ए सेवा करने वाली जातियों एवं व्यापारी भी थोक के अनुसार बँटे होते थे और उन पर थोक की ही सत्ता होती थी । इस प्रकार संयुक्त जमींदारी वाले गांव में शक्ति की एक से अधिक इकाइयां होती थीं । इन इकाइयों के जमींदारी से सम्बन्धित कई अधिकार थे जैसे वे भूमि लगान और मकान के टैक्स की वसूली करते थे ए वे अपनी चारागाह भूमि को विवाह ए मृत्यु एवं जन्म के समय जनता में बाँटते एवं अपनी जनता की विभिन्न जाति पंचायतों के विरुद्ध सुनवाई करते । ऐसे गांवों में शक्ति धारण करने वाली एक संस्था होती थी ए जिसमें भू . स्वामी परिवारों के बयोवृद्ध व्यक्ति ए निम्न जाति का सेवक व्यक्ति ए पटवारी ए चौकीदार तथा गांव का पुलिस मुखिया प्रादि होते थे । ताल्लुकेदार गांवों में भी उप . भू . स्वामी होते थे जिन्हें ठेकेदार कहते हैं । ये ठेकेदार ताल्लुकेदार की तरह ही शक्ति का प्रयोग करते थे । कुछ गांवों में ताल्लुकेदार का एक प्रतिनिधि गाँव में उसके नाम से शक्ति का प्रयोग करता था और महत्त्वपूर्ण मामलों में सुनवाई करता था ।
ण् ग्राम पंचायत ; ज्ीम टपससंहम च्ंदबींलंज द्ध
ग्राम पंचायतों का संगठन भी जमींदारी प्रथा के अनुसार ही विभिन्न गांवों में अलग . अलग प्रकार का था । पंजाब और दक्षिणी भारत के गांवों में एक गांव पंचायत होती थी जिसके अधिकार क्या होंगे और सदस्य कौन होंगे यह लगभग तय था । गाँव पंचायत में विभिन्न योकों के लम्बरदार ए ताल्लकेदारों के ठेकेदार ए विभिन्न जाति पंचायतों के वयोवृद्ध व्यक्ति ए चौकीदार प्रादि होते थे । जमींदारी प्रथा जहाँ गाँवों को विभिन्न थोकों और पट्टियों में विभाजित करती थी वहीं पर ग्रामीण शक्ति . संरचना का व्यापक प्राधार भी थी । ये गाँव पंचायतें गाँवों में कानून व्यवस्था को बनाए रखने ए जाति पंचायतों के विरुद्ध अपील सूनने तथा थोक के भू . स्वामियों की शिकायतें सुनने का कार्य करती थीं । सैद्धान्तिक रूप में तो ग्राम पंचायतें ग्रामीण शक्ति . संरचना में सर्वोच्च स्थान रखती थीं किन्तु वास्तविक व्यवहार में इसका प्रभुत्व थोकों के भू . स्वामियों के गुटों के साथ . साथ इधर . उधर सिसकता रहता था और शायद ही यह व्यापक संस्था कभी अपनी शक्ति का प्रयोग सफलतापूर्वक करती थी । सामान्यतः ये ग्राम पंचायतें सुषुप्त अवस्था में ही रहती थीं य किन्तु जब कभी गांव की प्रतिष्ठा और सुरक्षा का प्रश्न पैदा होता था तो गांव पंचायतें क्रियाशील और सर्वोच्च शक्तिमान् दिखाई देती थीं ।
ण् जाति पंचायत ; ज्ीम ब्ंेजम च्ंदबींलंज द्ध
सम्पूर्ण भारतीय गांवों में जाति पंचायतें शक्ति का महत्त्वपूर्ण स्रोत थीं । जाति पंचायत ने ही जाति व्यवस्था को सुरक्षा प्रदान की । जाति पंचायतों की विभिन्न भूमिकानों ने ही अनेक विद्वानों जैसे ब्लैट ए रिजले ए मथाई ए पाल्तेकर ए मुखर्जी और मालवीय आदि का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया । अंग्रेजी राज्य की न्याय . व्यवस्था की स्थापना के साथ ही जाति पंचायतों के कई कार्य भी समाप्त हो गए । जाति पंचायतों के प्रमुख अधिकारी चौधरी ; प्रधान द्ध ए पच ; पंचायत की कार्यकारिणी के सदस्य द्ध चरिदार या सिपाही ; सन्देशवाहक द्ध प्रादि होते थे जो सभी निम्न तथा बीच की जातियों में वंशानुगत होते थे । इन जाति पंचायतों का प्रभाव एक गाँव तक ही सीमित नहीं था वरन् दस या बीस गाँव तक फैला होता था । जाति पंचायतें कई कार्य करती थीं जैसे भोजन के नियमों को तय करना ए विवाह का क्षेत्र व नियम तय करना ए नियमों के उल्लंघन करने वालों को दण्ड देना ए तथा विरोधी जातियों व समूहों से जाति की प्रतिष्ठा एवं सुरक्षा और हितों की रक्षा करना प्रादि । किन्तु समय के साथ . साथ जब जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुअश और नई चयनित पंचायतों का गठन हमा तो गाँवों में जाति पंचायतें क्रियाशील हुई और जातियों के गुट बने । जमींदारी प्रथा में जाति पंचायतों में जातिवाद का तत्त्व दबा हा था और जाति पंचायतें शक्ति का द्वितीयक एवं अपेक्षित स्रोत थी ए किन्तु अब वे गाँव में सामाजिक ए आर्थिक और राजनीतिक सम्बन्धों को नियन्त्रित करने वाली शक्ति बन गई हैं । अब वे ग्रामीण सामाजिक संरचना में सामाजिक तनाव का एक कारण भी हैं । . उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट होता है कि परम्परागत ग्रामीण शक्ति . संरचना का निर्माण कुछ सीमित लोगों से ही होता रहा था । यद्यपि ग्राम पंचायतों के माध्यम से शक्ति के विकेन्द्रीकरण का प्रयास अवश्य किया गया लेकिन स्वतन्त्रता के पूर्व तक ग्राम पंचायतें व्यावहारिक रूप से जमींदारों की हित . साधना का ही माध्यम थीं तथा उनमें स्वतन्त्र रूप से कोई निर्णय लेने की क्षमता नहीं थी । जाति पंचायत के मुखिया भी जमींदार की इच्छाओं की अवहेलना नहीं कर पाते थे ।
ग्रामीण शक्ति संरचना के इस परम्परागत स्वरूप से सम्बन्धित प्रमुख विशेषतानों को संक्षेप में निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है
ग्रामीण शक्ति . संरचना जिन व्यक्तियों अथवा समूहों से सम्बद्ध थी ए उनकी शक्ति का स्वरूप मुख्यतः आनुवंशिक था । इस शक्ति का संचरण केवल जमींदार से उसके पुत्र को ही नहीं होता था बल्कि गाँव पंचायत तथा जाति पंचायत के मुखिया का पद भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से आनुवंशिक ही था ।
यह शक्ति . संरचना निरंकुशता की विशेषता से युक्त थी । इसका तात्पर्य है कि जिस व्यक्ति को भी अपने समूह में एक विशेष प्रस्थिति प्राप्त होती थी वह उसका प्रयोग बिना किसी बाधा के स्वतन्त्रतापूर्वक अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए करता था । इस प्रकार शक्ति . संरचना में समूह कल्याण का अधिक महत्व नहीं था । .
परम्परागत ग्रामीण शक्ति . संरचना में जाति . संस्तरण का प्रभाव स्पष्ट रूप से विद्यमान रहा है । साधारणतया निम्न जाति के लोगों को शक्ति संरचना में कभी भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हो सका । जमींदारों तथा ग्राम पंचायतों में निहित शक्ति का उपयोग भी उच्च जाति के व्यक्तियों का संरक्षण करने के लिए ही किया जाता था । थ्सम
वैयक्तिक शक्ति के निर्धारण में भी भू . स्वामित्व तथा परिवार की प्रतिष्ठा का विशेष स्थान था । इसका तात्पर्य है कि छोटे जमींदारों की अपेक्षा बड़े जमींदारों की शक्ति अधिक थी जबकि ग्राम पंचायत का मुखिया भी साधारणतया बड़ी भूमि का स्वामी होने के साथ ही किसी प्रतिष्ठित परिवार से सम्बद्ध हो ।
शक्ति . संरचना का स्वरूप मुख्यतः स्थानीय था । प्रत्येक गाँव शक्ति की एक पृथकइकाई के रूप में ही कार्य करता था तथा जमीदार ए ग्राम पंचायत अथवा जाति पंचायत की शक्ति भी एक स्थानीय क्षेत्र से ही सम्बद्धषी ।
ग्रामीण शक्ति . संरचना एक लम्बी अवधि तक सामाजिक संरचना का भी प्राधार रही । जिस व्यक्ति अथवा समूह में गांव की शकिा निहित थी उसी के निर्देशों के आधार पर जातिगत ए व्यावसायिक तथा धार्मिक व्यवहारों का निर्धारण किया जाता था
शक्ति संरचना में वर्तमान परिवर्तन ; त्मबमदज ब्ींदहमे पद त्नतंस ैजतनबजनतम द्ध
भारत में ग्रामीण शक्ति संरचना याज अपने परम्परागत स्वरूप से हटकर नया परिवेश ग्रहण कर रही है । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करके एक नवीन जनतान्त्रिक पंचायत व्यवस्था की स्थापना की गई । यह सच है कि स्वतन्त्रता से पूर्व 1920 में ब्रिटिश सरकार ने भी ग्राम पंचायतों में कुछ सदस्यों को मनोनीत करने की व्यवस्था की थी लेकिन उस समय जमींदारों का प्रभाव बहुत अधिक होने के कारण पंचायतों को जनतान्त्रिक स्वरूप प्राप्त नहीं हो सका । पंचायत के अधिकारियों का वयस्क मताधिकार के प्राधार पर चुनाव न होने के कारण इन्हें सामान्य ग्रामीणों का समर्थन प्राप्त नहीं होता था । 1948 में कानून के द्वारा जब बालिग मताधिकार के द्वारा पंचायतो के अधिकारियों का चुनाव करने की पद्धति प्रारम्भ की गई तब ग्रामीणों को पहली बार पंचायतों की गतिविधियों में सक्रिय भाग लेने का अवसर प्राप्त हया । इसके फलस्वरूप प्रायिक स्थिति एवं जाति के आधार पर निर्धारित होने वाली पंचायतों की शक्ति में ह्रास होने लगा । इसके स्थान पर एक ऐसी नवीन शक्ति का प्रादुर्भाव हुमा जो प्रानुवंशिकता ए जाति ए धर्म तथा प्रार्थिक स्थिति के प्रभाव से स्वतन्त्र थी । जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हो जाने के फलस्वरूप भारत में ग्रामीण लोकतन्त्रीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई । इस प्रक्रिया के पहले चरण में अनेक भूमि . सुधारों को क्रियान्वित किया गया । इसके फलस्वरूप भूमि अधिकारों के सन्दर्भ में मध्यस्थ वर्ग का उन्मूलन हुग्रा तथा अषकों को जमीदारों ए नम्बरदारों एवं मुखिया के शोषण से मुक्ति मिली । इस समय गांवों में स्थित तालाबों ए चारागाहों तथा सार्वजनिक स्थानों को गांवों की सामूहिक सम्पत्ति घोषित करके उन्हें ग्रामीणों द्वारा चुनी गई पंचायतों को सौंप दिया । इसके फलस्वरूप न केवल पंचायती अधिकारों पर जमींदारों का प्रभाव समाप्त हया बल्कि स्वयं पंचायतों को भी अपनी शक्ति का उपयोग जन . सामान्य के हित में करने का अवसर प्राप्त इया । गाँवों की सामाजिक एवं आर्थिक शक्ति संरचना में उत्पन्न होने वाले ये परिवर्तन निश्चय ही अत्यधिक महत्त्वपूर्ण थे । नवीन शासन व्यवस्था के अन्तर्गत गाँव की जाति पंचायतों तथा न्यायालयों को हस्तान्तरित हो गए । इसका भी परम्परागत ग्रामीण शक्ति संरचना पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा । लोकतन्त्रीकरण की प्रक्रिया एवं शिक्षा के प्रसार के कारण अब ग्रामीण शक्ति संरचना में प्रदत्त स्थिति की अपेक्षा अजित स्थिति का महत्व बढ़ने लगा । यह एक ऐसा परिवर्तन है जिसने ग्रामीण शक्ति संरचना के आधार को ही परिवतित कर दिया ।
नेतृत्व के दृष्टिकोण से ग्रामीण जीवन में शक्ति के दो ही स्रोत प्रमुख रहे हैं . प्रथम जन्म और . कर्मकाण्डों पर आधारित श्रेष्ठता और दूसरा किसी विशेष समूह की संख्या शक्ति । वर्तमान जीवन में जन्म की श्रेष्ठता के स्थान पर संख्या शक्ति का शक्ति संरचना के अन्तर्गत महत्त्व तेजी से बढ़ता जा रहा है । गांव में जिस व्यक्ति प्रथवा जाति समूह को समर्थन देने वाले व्यक्तियों की संख्या अधिक होती है ए शक्ति संरचना में अब उसी व्यक्ति अथवा समूह को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो जाता है । यह सच है कि इस परिवर्तन के फलस्वरूप गाँव में नेतृत्व का परम्परागत स्वरूप दुर्बल होने लगा है किन्तु प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उच्च जातियों का प्रभाव आज भी विद्यमान है । उच्च जाति समूह यदि संख्या में बड़ा होता है तो स्वाभाविक रूप से उसे शक्ति संरचना में भी प्रभावपूर्ण स्थान प्राप्त हो जाता है ए लेकिन कम संख्या होने पर यह स्थिति अक्सर नवीन संघर्षों एवं तनावों को जन्म देती है । अनेक अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि नवीन ग्रामीण शक्ति संरचना में राजनीतिक दलों की भूमिका अधिक प्रभावपूर्ण
बनती जा रही है । प्रत्येक राजनीतिक दल गाँव की जाति संरचना को ध्यान में रखते हुए अपनी राजनीतिक गतिविधियों का संचालन करता है जिसके फलस्वरूप अक्सर अपनी संख्या के प्राधार पर विशेष जाति . समूह को शक्ति . संरचना में उच्च स्थान प्राप्त हो जाता है ।
भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् जिस नवीन जनतान्त्रिक ए धर्मनिरपेक्ष एवं समताकारी शक्ति संरचना को विकसित करने का प्रयत्न किया गया ए उसमें प्रांशिक रूप से सफल होने के पश्चात् भी शक्ति परम्परागत स्रोतों में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हो सके । आज भी ग्रामीण शक्ति संरचना कुछ बाह्य संशोधनों के बाद भी प्रान्तरिक रूप से अपने परम्परागत रूप में विद्यमान है । पहले जातिगत मान्यताओं के प्राधार पर उच्च जातियों के अधिकार अधिक थे जबकि अशज उच्च जातियाँ चुनावों के माध्यम से अपना प्रभाव बनाए हुए है । वास्तविकता तो यह है कि भारत की राजनीति तथा चुनाव का प्राधार अशज भी जाति के आधार पर बनने वाले गुट हैं ।
साधारणतया गांव में जिस जाति की संख्या शक्ति जितनी अधिक होती है ए वह जाति एक स्थान अथवा क्षेत्र में अन्य जाति . समूह को लाठी के जोर पर अपनी इच्छायों को मनवाने के लिए बाध्य कर देती है । पिछले दो दशकों में राजनीतिक ध्र वीकरण को प्रक्रिया जातिगत प्राधार पर ही स्पष्ट होती जा रही है । इसी प्रक्रिया ने अशज प्रत्येक ग्रामीण क्षेत्र में अपनी जाति की संख्या शक्ति के आधार पर ही एक विशेष समूह की शक्ति संरचना में अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने की प्रेरणा दी है ।
वास्तविकता यह है कि ग्रामीण शक्ति संरचना में विकसित नवीन प्रतिमानों में आज अनेक परिवर्तनों के साथ कुछ परम्परागत विशेषताओं का भी समावेश है । गांवों की नवीन शक्ति संरचना में जो वर्तमान विशेषताएँ विद्यमान हैं ए डॉ ण् योगेन्द्र सिंह के अनुसार उन्हें निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है ।
; 1 द्ध गाँवों में आज भी शक्ति का केन्द्रीयकरण उच्च जातियों ; ब्राह्मण ए क्षत्रिय ए भूमिहार द्ध एवं वर्गों ; जैसे बड़े भू . स्वामी और साहकार द्ध में है ।
; 2 द्ध ग्राज निम्न जातियाँ और निम्न वर्ग . समूह संगठित होकर शक्ति प्राप्त करने के लिए उच्च जातियों तथा वर्गों से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं । जातिगत स्तर पर इस प्रवृत्ति ने गुटवाद को जन्म दिया है । जाति पर अशधारित गुटबन्दी ने न केवल ग्रामीण समुदाय को विघटित किया है बल्कि ग्रामीण जीवन में सामाजिक तनावों तथा असुरक्षा की भावना भी उत्पन्न कर दी है ।
; 3 द्ध नवीन ग्रामीण शक्ति व्यवस्था को जिन धर्मनिरपेक्ष तथा प्रजातान्त्रिक मूल्यों के प्राधार पर विकसित करने का प्रयत्न किया गया था ए वे ग्रामीण मूल्य शक्ति संरचना में अधिक प्रभावपूर्ण नहीं बन सके । इसका कारण यह है कि गाँवों की सामाजिक ए सांस्कृतिक एवं राजनीतिक सहभागिता की इकाई व्यक्ति न होकर परिवार अथवा जाति के आधार पर बने हए गूट हैं ।
; 4 द्ध ग्रामीण शक्ति . संरचना आज भी विभिन्न जातियों एवं वर्गों की आर्थिक सम्पन्नता तथा आर्थिक अधिकारों की प्रथकता से प्रभावित है । इसका तात्पर्य है कि ग्रामीण शक्ति व्यवस्था उन समूहो । में केन्द्रित है जो सामान्य ग्रामीणों की प्रार्थिक आवश्यकताओं को नियन्त्रित करते हैं । इससे स्पष्ट होता है कि भविष्य में ग्रामीण शक्ति व्यवस्था में होने वाले परिवर्तन इस तथ्य से प्रभावित होंगे कि गांव में होने वाले प्राधिक परिवर्तनों का स्वरूप कैसा होगा ।
डॉ ण् योगेन्द्रसिंह द्वारा प्रस्तुत इन सभी निकषों से स्पष्ट होता है कि गांव की शक्ति संरचना में चाहे कितना भी परिवर्तन हो गया हो लेकिन यह परिवर्तन केवल बाह्म है ए प्रान्तरिक नहीं । गांवों में उच्च जातियाँ ए जमींदार और साहकार प्राज भी ग्रामीण निर्णयों तथा ग्रामीण जीवन को प्रभावित करते हैं । अन्तर केवल इतना है कि पहले ये जातियों और वर्ग प्रत्यक्ष रूप से ग्रामीण शक्ति संरचना को प्रभावित करते थे जवराज इनकी भूमिका परोक्ष प्रथा प्रच्छन्न रूप से महत्वपूरणे बनी हुई है । जिन गांवों में निम्न जातियों ने अपनी संख्या शक्ति के प्रावार पर गांव पंचायतों के पदों पर अधिकार कर लिया है ए उन्हें भी उच्च जातियों और उच्च वर्गों की शक्ति के कारण गम्भीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । इस दृष्टिकोण से ग्रामीण शक्ति संरवता अपने मूल रूप से अधिक दूर नहीं जा सकी है ।
शक्ति का नया प्रतिमान ज्ीम छमू च्ंजजमतद व िच्वूमत द्ध ण्
डॉ ण् योगेन्द्रसिंह ने वर्तमान भारतीय गांवों की शक्ति संरचना की विशेषतामों का उल्लेख इस प्रकार से किया है माह
गांवों में आज भी उच्च जातियों ; जैसे ब्राह्मण ए क्षत्रिय ए भूमिहर द्ध एवं वर्गों ; जैसे स्वामी और साहकार के हायों में शक्ति केन्द्रित है ।
निम्न जातियों एवं वर्ग . संगठित होकर उच्च जातियों एवं वर्गों से शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रतिस्पर्दा कर रहे हैं । यह प्रवृत्ति वर्ग समूह के स्थान पर जाति . समूहों के लिए अधिक सही है । जाति स्तर पर इस सहभागीकरण ने गुटबन्दी को जन्म दिया है । गुटबन्दी ने गांव को विभाजित ही नहीं किया वरन् ग्रामीगा जीवन में तनाव और असुरक्षा भी पैदा की है । राधास्वाम
गाँव में नई शक्ति व्यवस्था में जिन लौकिक और प्रजातन्त्रीय मूल्य . व्यवस्थानों की अपेक्षा की गई थी ए वे गांवों की मूल्य व्यवस्था एवं सामाजिक संरचना में प्रवेश नहीं कर पाए हैं । गांवों में सामाजिक ए सांस्कृतिक व राजनीतिक सहभागीकरण की इकाई व्यक्ति नहीं अपितु गृहस्थी परिवारों का समूह या गुट है ।
गाँव की राजनीति आज भी विभिन्न जातियों एवं वर्गों की आर्थिक सम्पन्नता एवं वंचित रहने के प्रतिमानों द्वारा प्रभावित है । गांव में शक्ति व्यवस्था का झुकाव उन समूहों की अोर है जो ग्रामीण लोगों की प्राथिक प्राकक्षिानों को नियन्त्रित करते हैं । भविष्य में ग्रामीण शक्ति व्यवस्था की गतिशीलता की दिशा गांवों में होने वाले आर्थिक परिवर्तन और आर्थिक वृद्धि पर निर्भर करेगी ।
प्रो ण् बेजनाथ वर्मा की मान्यता है कि ष् शक्ति का प्रयोग व्यक्ति . समूह और समदाय ; ब्वससमबजपअपजल द्ध के हाथ में होता है । शक्ति का प्रयोग एक व्यक्ति द्वारा औपचारिक व अनौपचारिक पद धारण करने के कारण किया जा सकता है । प्राथमिक व द्वतीयक समूहों अथवा समाज द्वारा भी पक्ति का प्रयोग किया जाता है । इसी प्रकार से किसी प्रदेश ए सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्र ण् अविकसित विश्व आदि समदायों के द्वारा भी शक्ति का प्रयोग किया जाता है ।
प्रो ण् बैजनाथ का मत है कि भारत में शक्ति सहचरण के प्रमुख सात स्वरूप हैं जो इस प्रकार हैं
; प द्ध व्यक्ति से व्यक्ति की ओर ; थ्सवू व िच्वूमत तिवउ प्दकपअपकनंस जव प्दकपअपकनंस द्ध
; पप द्ध व्यक्ति से समूह की और ; थ्तवउ प्दकपअपकनंस जव ळतवनच द्ध
; प द्ध समूह से व्यक्ति की पोर ; थ्तवउ ळतवनच जव प्दकपअपकनंसे
; पअ द्ध समूह से समूह की ओर ; थ्तवउ ळतवनच जव ळतवनच द्ध
; अ द्ध समुदाय से समुदाय की ओर ; थ्तवउ ब्वससमबजपअपजल जव ब्वससमबजपअपजल द्ध
; अप द्ध समुदाय से व्यक्ति की ओर ; थ्तवउ ब्वससमबजपअपजल जव प्दकपअपकनंस द्ध
; अपप द्ध समुदाय से समूह की मोर ; थ्तवउ ब्वससमबजपअपजल जव ळतवनच द्ध
; प द्ध व्यक्ति से व्यक्ति की भोर सहचरण . परम्परात्मक ग्रामीण समाज व्यवस्था में . क्ति का केन्द्रीयकरण व्यक्ति के हाथ में था । परिवार में पत्नी पर पति को ए वयोवृद्ध लोगों को युवा लोगों पर ए बड़े भाई . बहिनों को छोटे भाई . बहिनों पर शक्ति प्राप्त थी । परम्परागत व्यवस्था में भूमिकामों व पदों के निर्धारण में समानता के सिद्धान्त का पालन नहीं किया गया था । उत्तराधिकार में बड़े भाई का हिस्सा अन्य भाइयों की तुलना में अधिक था । वर्तमान में पति . पत्नी ए पिता . पुत्र और भाई . भाई के सम्बन्धों में समानता की भावना का प्रवेश प्रा है और शक्ति के स्वरूप में परिवर्तन पाया है ।
; पप द्ध व्यक्ति से समूह की पोर . परम्परागत संयुक्त परिवार में परिवार का मुखिया अथवा कर्ता का ही सारे परिवार पर प्रभुत्व था । इसी तरह गुरु और पुजारी का अपने जजमानों पर ए साहूकार का पूरे गांव पर ए गांव पंच का झगड़ा करने वाले दलों पर प्रभुत्व था । गांव के नेता व नेताओं का गुटों पर ए भातृदलों ए जातियों और अन्य संगठनों का उन समूहों पर प्रभुत्व था जिनका वे प्रतिनिधित्व करते थे । यदि कोई नया समूह बनता तो उसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त करनी होती थी । उदाहरण के लिए ए गांव में किसी राजनीतिक दल की शाखा अथवा आश्रम को स्थापित करने से पूर्व सामाजिक सहमति प्राप्त करना आवश्यक था । वर्तमान में भारतीय गांवों में शक्ति का केन्द्रीयकरण उन लोगों के हाथ में है जो गांव वालों को आर्थिक सुविधाएँ दिलाने ए उनकी कठिनाइयों को दूर करने और विकास कार्यों को सम्पन्न करने में सहयोग प्रदान कर सकते हैं ।
; पपप द्ध समूह से व्यक्ति की प्रोर . ग्रामीण क्षेत्रों में समूह का व्यक्ति पर प्रभुत्व पाया जाता रहा है । वहाँ कुछ विशिष्ट समूहों के पास शक्ति केन्द्रित रही है । गांव वालों को राजनीतिक दलों एवं समाज सुधार आन्दोलनों ने जाति पंचायतों व ग्राम पंचायत के विरुद्ध तैयार किया । एक व्यक्ति राजनीतिक दल अथवा सुधार आन्दोलन की सदस्यता ग्रहण करके शक्ति प्राप्त कर सकता था । इस प्रकार गाँव में शक्ति का सहचरण समूह से व्यक्ति की ओर भी रहा है ।
; पअ द्ध समूह से समूह की भोर . इस प्रकार शक्ति के सहचरण में शक्ति सम्बन्ध सत्ता के साथ . माथ व्यवस्थित होते हैं । उदाहरण के लिए ए सर्वोच्च न्यायालय व अधीनस्थ न्यायालय का सम्बन्ध और केन्द्र व राज्यों का सम्बन्ध समूह से समूह की पोर शक्ति सहचरण को प्रकट करता है । कौन . सा समूह उच्च व कौन . सा निम्न होगा घ् यह वैधता के आधार पर तय होता है ।
; अ जव अपप द्ध समुदाय से समुदाय ए समूह तथा व्यक्ति की ओर शक्ति का सहचरण . एक परगना ए मोहल्ला ए भाषायी क्षेत्र और राज्य शक्ति के लिए अपने ही समान इकाइयों ए समूहों व व्यक्तियों से प्रतिस्पर्द्धा करते हैं । सामुदायिक विकास योजना खण्ड भी इस प्रतिस्पर्धा में सम्मिलित हो गए हैं । शक्ति सहचरण के विभिन्न प्रकार यह प्रकट करते हैं कि गाँवों में आज भी शक्ति संरचना में परम्परात्मक शक्ति व्यवस्था का महत्त्व है । परिवार में यह प्रायु के आधार पर टिकी हुई है । गांव में अव भी उच्च जातियां अपने प्रभुत्व का प्रयोग निम्न जातियों पर करती हैं । गांवों में अब भी पंचायतें ग्रामीण क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं । यद्यपि वर्तमान में इन सभी क्षेत्रों में परिवर्तन की लहर दिखाई देती है । परिवार में यदि कोई सदस्य कर्ता से अधिक शिक्षित ए बुद्धिमान और आर्थिक क्षमता रखता है तो वह कर्ता की शक्ति छीन लेता है । उधर निम्न जातियों में शिक्षित ए समृद्ध ए भू . स्वामी व्यक्ति नई पंचायत व्यवस्था में मतदान के प्राधार पर उच्च जाति के लोगों की शक्ति को चुनौती दे रहे हैं ए गांव पंचायत में शक्ति व्यवस्था का मिश्रित रूप देखा जा सकता है । निम्न जातियों के लोग संख्या और सुरक्षित स्थानों के कारण पंचायतों में स्थान ग्रहण कर शक्ति व्यवस्था अपने हाथ में लेने के लिए प्रयत्नशील हैं तो दूसरी ओर भू . स्वामित्व एवं आर्थिक समृद्धि के कारण जमींदार ए साहकार एवं उच्च जातियों के व्यक्ति गांवों में प्रोपवारिक व अनौपचारिक रूप से शक्ति संचालन में अब भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं ।
2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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