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 हरबर्ट स्पेन्सर का योगदान

हरबर्ट स्पेन्सर का योगदान

         19वीं शदाब्दी के समस्त समाजशास्त्रियों की रचनाओं का मूल्यांकन करने से हमे स्पष्ट हो है कि सामाजिक परिवर्तन का अध्ययन समाजशास्त्रियों का केन्द्र बिन्दु रहा है । इस सामारि परिवर्तन की व्याख्या के क्रम में जो सबसे पहला प्रारूप ( मॉडल ) प्रयोग में लाया गया है । ” उद्विकासीय प्रारूप ” ही था ।

       बाद में conflict या cylical या Consensus Model ( सहमति प्रारूप ) के आधार . . सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या करने का प्रयास किया गया । सर्वप्रथम ब्रिटिश वैज्ञानिक ना डार्विन ने अपनी पुस्तक ” The Origin of Species में वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर जी जगत में उद्विकासीय आधार पर व्याख्या प्रदान की । इससे प्रभावित होकर अनेक समाजशास्त्रियां जैसे हरबर्ट स्पेन्सर , लेविस मॉर्गन , एल०टी० हॉवहाउस आदि ने सामाजिक परिवर्तन की व्यास उविकास के आधार पर करने का प्रयास किया।         

  उदविकास दरअसल एक ऐसी प्रक्रिया है जो आन्तरिक कारकों के चलते ह ती है । दास कारकों या मानवीय क्रियाओं में इसका कोई योगदान नहीं होता । यह एक स्वतः चलनेवाली प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया के तहत कोई भी चीज सरलता से जटिलता की तरफ उन्मुख होती है और इस बीच कई स्तरों से गुजरती है । यह धीरे – धीरे पर लगातार चलने वाली प्रक्रिया है । दस तरह स्पष्ट है कि उद्विकास एक वैज्ञानिक अवधारणा है और साथ ही साथ सार्वभौमिक है । उद्विकासीय प्रक्रिया मूलतः दो मान्यताओं पर  धारित है।

                          (a) संस्कृति की समानान्तर वृद्धि 

                          (b) मानव की मानसिक एकता 

 

इन्हीं दो प्रमुख अवधारणाओं के चलते उद्विकासीय प्रक्रिया को एक सार्वभौमिक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया गया है ।

     19वीं शदी के उत्तरार्द्ध में सामाजिक विचारधारा को श्रेष्ठ रीति से प्रस्तुत करनेवालों में H . Spencer का नाम उल्लेखनीय है । इन्होंने समाजशास्त्र की उस रूप रेखा को निखारा एवं उपयोगी बनाया जिसे आगस्त कॉम्ट ने प्रस्तुत किया था । हालाँकि Spencer के अनुसार The First Principle लिखते समय तक उसने कॉस्ट को पढ़ा भी नहीं था । Comte and Spencer दोनों ने समाजशास्त्र को दर्शन के आधार पर खण्डन किया और इसी से प्रेरित होकर कॉस्ट ने समाजशास्त्र की अवधारणा स्पष्ट करने से पहले Positive Philosphy लिखी और Spencer ने Synthetic Philosphy की रचना की । Spencer के प्रमुख सिद्धांतों में समाज के सावयवी सिद्धांत एवं समाज का उद्विकासीय सिद्धांत प्रमुख है । उद्विकास की अवधारणा Spencer से पहले Charles Darwin दे चुके थे मगर उन्होंने इसे सिर्फ जीव जगत पर ही लागू किया था । Spencer ने उद्विकास के विस्तृत अर्थ को अपनाया और कहा कि उद्विकास का नियम दृश्य जगत के सभी वस्तुओं पर लागू हो सकता है । विकासवाद के नियमों का प्रदिपादन Spencer ने अपनी पुस्तक The First Principles के द्वितीय भागों में किया है । Spencer के अनुसार हमारा भौतिक संसार बहुत ही जटिल है । इसमें पदार्थ एक दूसरे से इस प्रकार मिले हुए हैं कि रासायनिक पदार्थों की भाँति उनका विश्लेषण किया जाना संभव नहीं है ।

अत: जगत के विश्लेषण के  financer नकासा निकाला जिससे विश्लषण के साथ उसकी समस्याओं का समाधान सरल हो सकाspeneart समाज के विकास के लिए । लगारीको यात लकही बल्कि उनका कहना है कि समाज तो Univerie काहीएक अंग । जता सामाजिक उपविकासमा यही नियम कार्य करते जो सार्वभौमिक उदविकास में । 

     सार्वभौमिक पदविकास की चर्चा करते spencirr का कहना है कि प्रत्येक विचारक पहले कारकों की खोज करता है । Spencer के अनुसार यह शक्ति है , जिसके दो स्वम्प

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( a ) पदार्य एवं ( b) गति है-

 

 शक्ति ( बल ) का अपना रूप अजातकाअत : Spencer के अनुसार खोजना इसे धर्म का काम है । मगर इनका भौतिक स्वरूपात है जिसे योजना विज्ञान का काम है।

         Spencer के अनुसार जब मूल कारण शक्ति (बल) क्रियाशील हो जाता है तो पदार्थ तथा गति में विकास की प्रक्रिया शुरू हो जाती है । पेन्सर भौतिक एवं यांत्रिक

 (Machanics) के नियमों के आधार पर उदविकासीय सिद्धांत को समझने के लिए तीन मालिक एवं चार गौण

 (Secondary) नियमों की चर्चा की । 

मौलिक नियमों की चर्चा करते हुए Spencer ने कहा कि प्रथम नियम ‘ बल के अस्तित्व का नियम ‘ (Law of persistence of force) है । इसका अर्थ यह होता है कि आरम्भ से ही ब्राह्मण्ड ( Universe ) में एक बल ( Force ) पाया जाता है और उसी बल के कारण सभी कुछ गतिमान होते हैं । स्पेन्सर का कहना है कि उदविकास के लिए यह आवश्यक है कि वह आन्तरिक बल के कारण हो और आरम्भ से ही एक बल की उपस्थिति स्वीकार न कर ली जाय तो फिर ब्राह्मण्ड में होने वाले परिवर्तनों को उदविकास नहीं कहा जा सकता. 

                        दूसरे नियम की चर्चा करते हुए , स्पेन्सर ने ” गति को निरंतरता का नियम ‘ ( Law of continuty of motion ) की व्याख्या की है । स्पेन्सर के अनुसार आरम्भ से ही Universe में एक Force रहने के कारण जो गति उत्पन्न होती है वह लगातार कायम रहती है क्योंकि उद्विकासीय प्रक्रिया के लिए लगातार गति होना आवश्यक है । 

        तीसरे नियम की चर्चा करते हुए उसने ( Law of Indespensible of Matter ) ( पदार्थ की नश्वरता नियम ) कही है । स्पेन्सर के अनुसार ब्रह्माण्ड में जो Fo rce रहता है उसके फलस्वरूप पदार्थ ( Matter ) में परिवर्तन आता है मगर पदार्थ सिर्फ अपने ( Internal Composition ) आंतरिक संरचना को ही बदलता है वह समाप्त नहीं होता । इस पर पर्यावरण का असर पड़ भी सकता है और नहीं भी । अतः इनके अनुसार पदार्थ अविनाशी है । सिर्फ यह अपना स्वरूप बदलता है । 

         इन मौलिक नियमों के अलावा स्पेन्सर ने चार द्वितीयक नियम ( Secondary Laws ) भी दिए जो मूलतः Fundamental Laws पर ही आधारित हैं ।

पहले नियमों की चर्चा इन्हों  ( Law of Uniformity of Law ) नियमों की समानता का नियम के रूप में की । स्पेन्सर के अनुसार अनेक प्रकार के Force , Universe में काम करते हैं जिनके बीच एक समानता ( Equilibrium ) पायी जाती है । तात्पर्य यह है कि Force एक दूसरे पर प्रभाव अवश्य डालते हैं मगर उससे Universe के System में ( ब्रह्माण्ड की व्यवस्था ) बाधा उपस्थित नहीं होती है । संसार में सर्वत्र एक ही नियम है । वस्तुतः जो भिन्न – भिन्न दिखते हैं तत्वतः वे एक ही नियम के विभिन्न रूप हैं । अर्थात नियम केवल बदलता है उसकी आत्मा एक ही रहती है ।

    दूसरा गौण नियम हस्तांतरण अनुरूपता का नियम ( Law of Transformation and Equivalence ) का है । इस नियम के अनुसार किसी भी Force को बर्वाद नहीं किया जा

सकता बल्कि हमेशा एक Force किसी दूसरे Force में परिवर्तित हो जाता है । यानि पदार्थ का नाश नहीं होता उसी प्रकार शक्ति का भी नाश नहीं होता । 

       तीसरा गौण नियम ” अल्प अवरोधों एवं महत्तम आकर्षण का नियम” (law of least Resistence and greatest attraction ) का है । इस नियम के अनुसार  प्रत्येक का में आगे बढ़ती है जहाँ उसे कम – से – कम रुकावट होती है या फिर अधिक से अधि मिलता है ।  

     चौथा गीण नियम ” गति की समरूपता या अदला – बदली का नियम Rhyme or alternation ) का है । इस नियम के अनुसार उद्विकास की प्रक्रिया ” गति में समरूपता नहीं पायी जाती बल्कि गति बदलती रहती है । यानी उदविका ” पदार्थ की एकरूपता ” ( Integration of matter ) की प्रक्रिया में होता है और तब am ( Disintegration ) आरम्भ होती है , जहाँ गति ( Motion ) घट जाती है । इसी तरह Inte and Disintegration के आधार पर उद्विकास की प्रक्रिया को देखा जा सकता है । 

   इसके अलावे स्पेन्सर ने उविकास के जैविकीय के तीनों नियमों 

( a ) अस्तित्व के लिए संघर्ष ( Struggle for existence ) 

( b  ) योग्यता का अस्तित्व ( Survival of fittest ) तथा

 ( c ) प्राकृतिक चयन ( Natural Selection )

       के आधार पर उद्विकास की परिभाषा देते हुए लिखा ” Evolution is an integration of matter and concommitant dissipati . of motion , during which the matter passes from an indefinite , incoheron homogenity to definite coherent heterogenity  and during which the retains motion undergoes a parallel transformation ” .               स्पेन्सर के इस कथन से स्पष्ट है कि प्रारम्भ में प्रत्येक पदार्थ एक अनिश्चित , असम्बत समानता की स्थिति में होता है अर्थात् उसके विभिन्न अंग इस प्रकार एक – दूसरे से घुले – मिले होते हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है और न ही उसका कोई निश्चित स्वरूप होता है । अर्थात् सभी पदार्थ आरम्भ में एक – एक स्वरूप ही न ढ़ेर मात ्र होता है । परन्तु यह दे शक्तिमान होता है और उसमें गति भी होती है । फवस्वरूप समय बितने के साथ – साथ धीरे – धीरे । पदार्थ का स्वरूप बदलता जाता है और उसके विभिन्न अंग – प्रत्यंग स्पष्ट एवं पृथक होने लगते बना रहता है । हैं । लेकिन इस पृथकता एवं भिन्नता के होते हुए भी विभिन्न अंगों में सम्बद्धता या अन्तःसंबंध

    सामाजिक उद्विकास की चर्चा करते हुए स्पेन्सर ने कहा कि आरम्भ में मानव का कोई संगठन  नहीं था । मनुष्य एक जगह से दूसरी जगह भोजन एवं वस्त्र की खोज में घूमता रहता था । पर धीरे – धीरे जनसंख्या बढ़ी तो भोजन की समस्या उत्पन्न हुई । साधन कम रहने के कारण लोगों में युद्ध की प्रवृत्ति उठी । परिणामतः अस्तित्व के लिए संघर्ष ( Struggle for existence ) की समस्या उठी और टकराव होने के कारण एक समूह ने दूसरे समूह को पराजित किया । इस टकराव के फलस्वरूप दो प्रकार के भय उत्पन्न हए । 

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1 . जीवितों से भय ( Fear of the living ) : राज्य की उत्पत्ति

2 . मृतकों से भय ( Fear of the dead ) धर्म की उत्पत्ति

   

         स्पेन्सर के अनुसार इस टकराव में पहले जबतक मनुष्य एक स्थान से दूसरे स्थान तक इधर – उधर घूमता था वह खानाबदोश ( Nomadic Stage ) था पर जब बार – बार टकराव होने लगे तब आदती संघर्ष (Habitual Conflict) आया परिणामस्वरूप सैनिकत्व (Militarism ) का विकास हुआ ।

                       स्पन्सर के अनुसार इस टकराव के कारण जो दो प्रकार , के भय उत्पन्न हुए उसस राज्य रूपी संस्था एवं धर्म का विकास हुआ । उनका कहना है कि मृतकों से भय के फलस्वरूप धार्मिक संस्था विकसित हुई क्योंकि जो लोग पराजित होते थे उनके अन्दर यह विश्वास आया कि उनके हार का कारण यह है कि उनके पूर्वजों की आत्मा उनसे नाराज थी और दूसरी तरफ जो लोग जितते थे उन्हें यह भय उत्पन्न हुआ कि उनके पूर्वजों की आत्मा उनसे प्रसन्न थी । इसलिए वे जीते . अगर वे उनकी पूजा करना शरू कर दें तो वे हमेशा प्रसन्न रहेंगे और उनकी बराबर जीत होती रहेगी । हारने वालों ने भी पूर्वजों की पूजा इसलिए आरम्भ की उनके पूर्वज खुश हो जायग तब वे भी जीत सकते हैं । फलस्वरूप , दोनों ही समहों ने अपने पूर्वजों की आत्मा की पूजा शुरू कर दाजिससे आगे चलकर धार्मिक संस्थाओं का विकास हुआ । उसी प्रकार जीवितों से भय ( Fear of Living ) से राज्य रूपी संस्था का विकास हआ । दो समूहों में टकराव के कारण जो समूह पराजित होता था उसे जीतने वाले समूह से भय होता था कि वह उसे कहीं जान से न मार डाले और जीतने वाले को हारनेवाले से यह भय होता था कि कहीं हारनेवाला पुनः उसे हराकर या मारकर उस पर नियंत्रण न कर लें । अतः जीतने वाले समूहों ने हारनेवाले समूहों को नियत्रण में रखने के लिए कुछ नियम बनाए । इन्हीं नियमों के फलस्वरूप समाज में असमानता के साथ ही साथ सामाजिक स्तरीकरण का भी सूत्रपात हुआ । 

            आगे चर्चा करते हुए स्पेन्सर ने मत दिया है कि राज्य संस्था बनने के फलस्वरूप राज्यों के बीच टकराव होने लगा और इस आधार पर बडे – बडे राज्यों की स्थापना होने लगी । जब राज्य बड़ा हुआ तो आबादी बढ़ी और इस बढ़ती आबादी के साथ – साथ यह आवश्यक हो गया कि उत्पादन के तरफ ध्यान दिया जाय । परन्तु अब तक सैनिकत्व ( Militarism ) में कोई सभावना नहीं थी । अतः धीरे – धीरे औद्योगिक अवस्था ( Industrial Stage ) आयी । इस अवस्था में बड़ी – बड़ी फैक्ट्री मिल एवं कल – कारखाने खलने लगे जहाँ भारी मात्रा में उत्पादन आरम्भ हुआ । सैनिकत्व की अवस्था में लोगों को जो स्वतंत्रता नहीं थी वह इस अवस्था में प्राप्त होने लगी क्योंकि सामाजिक गतिशीलता ( Social Mobility ) बढ़ी जिससे लोगों के विचारों , मूल्यों आदि में परिवर्तन आने लगे । आदती संघर्ष ( Habitual conflict ) की जगह आदती शांति विकसित ( Habitual peace develope ) की ओर लोग मित्रवत् शांतिपूर्ण ढंग से रहने लगे । 

      स्पेन्सर का मत है कि शांतिपूर्ण समाज में दमन की नीति समाप्त हो जाती है और वैयक्तिक क्रियाशीलता बढ़ जाती है । सामाजिक संगठन प्लास्टिक की भाँति हो जाता है जिसमें व्यक्ति एक जगह से दूसरी जगह जा सकते हैं पर ‘ सामाजिक संगठन ‘ ( Social Cohesion ) के तत्व मौजूद रहते हैं ।              यद्यपि स्पेन्सर ने अपने सिद्धांत को व्यवस्थित ढंग से नियमों के आधार पर समझने का प्रयास किया है फिर भी समाजशास्त्रियों ने इसकी कई त्रुटियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है । 

        Keller ( केलर ) ने स्पेन्सर के इस सिद्धांत की आलोचना करते हुए कहा है कि स्पेन्सर का यह सिद्धांत विज्ञान पर आधारित न होकर दर्शन पर आधारित है । Don Martindale ने भी इस विचार का समर्थन किया है ।                   

         Spencer ने निरीक्षण , प्रमाणीकरण ( Verification ) तथा तर्क ( logic ) की सीमा को पार कर यह सिद्धांत प्रतिपादित किया है । अतः Sorokin का कहना है कि यह सिद्धांत बिल्कुल ही अवैज्ञानिक है । स्पेन्सर ने जिन तीन स्तरों की चर्चा की है वे वैज्ञानिक मतों पर आधारित नहीं हैं । अतः तीन से अधिक या कम स्तरों की भी चर्चा की जा सकती है 

                 मेकाइवर एवं पेज ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि समाज में परिवर्तन केवल आन्तरिक कारकों के चलते ही नहीं होता बल्कि इसमें बाह्य कारकों ( External Factors ) का भी योगदान होता है । पर स्पेन्सर सहित सभी उदविकासवादियों ने बाह्य कारकों की भूमिका को नकार दिया है जो न्यायोन्वित नहीं है ।

    Comte, Morgan की तरह स्पेन्सर में भी एकरेखीय , सामाजिक परिवर्तन की चर्चा की । जब आलोचकों का कहना है कि समाज में ऐतिहासिक तथ्यों से स्पष्ट है कि प्रगति 

(Progress) के साथ साथ अवनति ( Rearess ) भी होते हैं । यानि परिवर्तन विभिन्न दिशाओं में होती है ।

सामाजिक उविकास की वास्तविकता या आलोचना:

 यह सच है कि उधिकास के सिद्धांत के प्रवर्तकों ने अपने सिद्धांतों को बड़े ही क्रमबल रूप में प्रस्तुत किया है , फिर भी समाज या सामाजिक जीवन के कुछ आधारभूत सत्य को ये बिल्कुल ही भूल गए हैं जिसके कार उनके विश्लेषण को आज अधिकतर विद्वान स्वीकार नहीं करता सामाजिक उद्विकास की वास्तविकता निम्नलिखित समालोचनाओं से स्वतः ही स्पष्ट हो जाएगी-

 1 . उद्विकास सिद्धांत के प्रवर्तकों ने यह मान लेने की भूल की है कि प्रत्येक समाज के विकास में एक ही नियम लाग किया जा सकता है । वास्तव में प्रत्येक समाज की भौगोलिक तथा अन्य परिस्थितियाँ पृथक – पृथक होती हैं और इनका प्रभाव सामाजिक विकास की प्रक्रिया ओं पर पड़ना स्वाभाविक है । अतः यह कहना शायद गलत होगा कि परिस्थितियां अलग – अलग होते हुए भी प्रत्येक समाज में उविकासीय प्रक्रिया एक ही समान रही होगी l

 2 . इस सिद्धांत के प्रवर्तकों का यह भी दावा गलत है कि प्रत्येक समाज में सांस्कृतिक या सामाजिक विकास के विभिन्न स्तर एक ही क्रम से आए हैं । आदिम समाजों के अध्ययन से यह पता चलता है कि अनेक आदिम जातियाँ ऐसी भी हैं ( जैसी उत्तरी और दक्षिणी अमेरीका की नहीं मिलता । आदिम जातियाँ ) जो खेती तो करती हैं , पर वे पशुपालन की स्थिति से गुजरी हैं – ऐसा प्रमाण नहीं मिलता l

3 . गोल्डन वीजर ( Golden Wiser ) ने लिखा है कि सामाजिक उविकासीय सिद्धांत की प्रमुख दुर्बलता यह है कि इस सिद्धांत के प्रवर्तक प्रसार के महत्त्व को भूल गए हैं । प्रसार की प्रक्रिया का अर्थ है सांस्कृतिक तत्वों का एक स्थान से दूसरे स्थान को फैलना । वास्तव में एक संस्कृति को मानने वाले लोग जैसे – जैसे दूसरी संस्कृति के सम्पर्क में आते हैं वैसे – वैसे संस्कृति का लेन – देन बढ़ता है जिसके फलस्वरूप संस्कृति का उद्विकास होता है । 

4 . इस सिद्धांत के प्रवर्तक आविष्कार के महत्त्व को भी शायद भूल जाते हैं । सामाजिक उविकास आप से आप कम होता है । आविष्कारों के फलस्वरूप ही उद्विकास की प्रक्रिया को गति मिलती है । 

5 . सर्वश्री मेकाइवर और पेज ( Mclver and Page ) का कथन है कि सामाजिक संबंध या समाज का जन्म एक जीवित प्राणी की भाँति नहीं होता । सामाजिक उदविकास में मानव का अपना प्रयल महत्त्वपूर्ण होता है , जबकि प्राणिशास्त्रीय उद्विकास में प्राकृतिक शक्तियाँ ही सब कुछ है l

6 . श्री जिन्सबर्ग ( Ginsberg ) का मत है कि ‘ यह धारणा कि उद्विकास सरल स्थिति से जटिल स्थिति की ओर होने वाल एक परिवर्तन है , एक गंभीर विवाद का विषय है । ऐसा इस कारण है कि यह आवश्यक नहीं है कि एक स्तर से दूसरे स्तर तक पहुँचने पर सामाजिक जीवन अनिवार्य रूप में अधिक जटिल हो ही जाएगा । मानव का ज्ञान और विज्ञान उसे जटिल को सरल बनाने की अधिकाधिक योग्यता देता जाता है । अतः जटिलता का बढ़ना कोई अनिवार्य शर्त नहीं है । । अधिक से अधिक उसकी संभावना हो सकती है ।

 निष्कर्ष : उपरोक्त विवेचना से यह स्पष्ट है कि सामाजिक उविकास को प्राणिशास्त्रीय उद्विकास के समान मान लेना न तो उचित होगा और न ही वैज्ञानिक । फिर भी इतना अवश्य है कि उद्विकासीय सिद्धान्त के आधार पर सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों के क्रम विकास का अध्ययन करने में हमें कुछ मदद अवश्य मिली है । सर्वश्री मेकाइवर तथा पेज ने भी कहा है कि सामाजिक जीवन के विकास की विभिन्न अवस्थाओं को एक – दूसरे से पृथक करने और उनका गहन अध्ययन करने में इस सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । इस सिद्धांत ने यह दशान का प्रयत्न किया है कि समाज एक आकस्मिक घटना नहीं और न ही समाज के विभिन्न पक्षी का विकास दो – चार दिनों के बाद ही है । जिस रूप में समाज को आज हम देख रहे हैं यह एक क्रम विकास का ही निश्चित प्रतिफल है । 

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सामाजिक उद्विकास की वास्तविकता या समालोचना : 

    सामाजिक उद्विकास के समर्थकों ने अपनी व्याख्या को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत किया है । लोकन इन विद्वानों ने कुछ तथ्यों की इतनी अवहेलना की है कि इस सिद्धान्त को सदैव उचित मानना एक बड़ी भूल होगी । निम्नांकित आधारों पर उदविकास के सिद्धांत की वास्तविकता को समझा जा सकता है l

1 . सर्वप्रथम मेकाइवर ( Mclver ) का समर्थन करते हुए कहा जा सकता है कि समाज और प्राणी का विकास समान रूप से नहीं होता इसलिए प्राणी के विकास में यह सिद्धांत महत्त्वपूर्ण होते हुए भी समाज के विकास को स्पष्ट नहीं करता । सामाजिक संबंध किसी आन्तरिक शक्ति से उतने प्रभावित नहीं होते जितने कि मनुष्य की चारों ओर की सामाजिक दशाओं से । इस प्रकार सामाजिक संबंधों और सामाजिक ढाँचे में होने वाले परिवर्तनों को उविकास जैसे स्वतःचालित प्रक्रिया द्वारा नहीं समझा जा सकता । 

2 . गोल्डनवीजर (Goldenweiser) का कथन है कि सामाजिक परिवर्तन का मुख्य कारण संस्कृति में होने वाला प्रसार ( Cultural Diffusion ) है , इसे उद्विकासीय क्रम के द्वारा स्पष्ट नहीं किया जा सकता । 

3 . इस सिद्धांत के समर्थकों के अनुसार सामाजिक जीवन के सभी पक्ष , सभी समाजों में , समान स्तरों में से गुजरते हुए वर्तमान स्थिति तक पहुँच सके हैं । यदि यह सच है तो क्या कारण है कि आज भिन्न – भिन्न समाजों के सामाजिक संगठन और सामाजिक ढाँचे में इतना अधिक अन्तर पाया जाता है । इससे भी यही प्रमाणित होता है कि विकास के विभिन्न स्तर सभी समाजों में एकसमान नहीं रहे हैं ।

 4 . गिन्सबर्ग ( Ginsberg ) का मत है कि “ यह धारणा कि उद्विकास एक सरल स्थिति से जटिल स्थिति की ओर होने वाला परिवर्तन है , एक गंभीर विवाद का विषय है । ” वास्तव में , सामाजिक जीवन प्रत्येक परिवर्तन के साथ अनिवार्य रूप से जटिल नहीं हो जाता अधिक – से – अधिक इसकी संभावना मात्र की जा सकती है । 

5 . आज अधिकांश समाजशास्त्री इस पक्ष में हैं कि सामाजिक परिवर्तन को उदविकास के द्वारा नहीं बल्कि आविष्कारों , संचय की प्रवृत्ति , सांस्कृतिक प्रसार और अभियोजन की प्रक्रिया के आधार पर ही समझा जा सकता है ।

 6 . अन्त में यह कहना भी उचित होगा कि उद्विकास का  सिद्धांत स्वयं एक भ्रमपूर्ण धारणा है । वर्तमान खोजें यह प्रमाणित करती जा रही हैं कि उद्विकास के जिस सिद्धांत के आधार मर डार्विन ( Darwin ) ने मनुष्य के उद्भव ( rigin ) की चर्चा की वह केवल एक कल्पना मात्र थी । सन् 1966 में इटली में मिले कुछ नर – कंकाल इस कथन की पुष्टि करते हैं । यदि उदविकार का सिद्धांत ही एक भ्रान्ति ( fallacy ) है , तब इस सिद्धांत के आधार पर समाज और सामाजिक जीवन के परिवर्तन को स्पष्ट करना किस प्रकार उचित हो सकता है ?               

यद्यपि सामाजिक परिवर्तन की धारणा को स्पष्ट करने में उद्विकास का सिद्धांत अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं बन सका है लेकिन कुछ सामाजिक विशेषताओं को स्पष्ट करने में यह अवश्य ही सहायक मालूम होता है । मेकाइवर ने कहा है कि ” विभिन्न अवस्थाओं को एक – दूसरे से पृयक् करने में इस सिद्धांत ने महत्त्वपूर्ण योग दिया है । इसके अतिरिक्त , समाज की इस प्रकार को स्पष्ट करने में भी यह सिद्धांत विल्कुल सही प्रतीत होती है कि सभ्यता में होने वाली प्रत्येक वृद्धि के साथ समाज का रूप सरल से जटिल होता जाता है । इसमें कोई संदेह नहीं है कि अनेक सामाजिक तथ्यों की उत्पत्ति को स्पष्ट करने में इस सिद्धांत से बहुत सहायता मिली है । जिन तय्या की उत्पत्ति का कोई कारण ढूँढना लगभग असंभव सा या (जैसे – धर्म और परिवार की उत्पत्ति और उनकी वर्तमान अवस्था का कारण), उसे उद्विकास के सिद्धांत ने कुछ समय के लिए बिल्कुल ही सुलझा दिया । इस सम्पूर्ण विवेचना के बाद भी यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘ उद्विकास ‘ एक अत्यधिक अस्पष्ट और भ्रमपूर्ण शब्द है तथा किसी भी संस्था अथवा सामाजिक तथ्य की विवेचना करते समय इसके प्रयोग से अधिक से अधिक बचना ही हमारे हित में है । 

         उद्विकासवादी सिद्धांत के विरुद्ध उठाई गई आपत्तियों से स्पष्ट होता है कि उद्विकास के सिद्धांत में अनेक ऐसे दोष हैं जिनके कारण केवल इसी एक आधार पर सभी तरह के परिवर्तनों को नहीं समझा जा सकता । इन दोषों को दूर करते हुए उद्विकास के सिद्धांत को जिस नवीन रूप में प्रस्तुत किया गया , उसी को हम ‘ नव – उविकास का सिद्धांत ‘ ( Neo – Evolutionary Theory ) कहते हैं । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि नव – उद्विकास डार्विन के उद्विकासवाद का ही एक संशोधित रूप है । नव – उद्विकास के प्रतिपादकों में स्टीवर्ड (Steword) तथा लेग्लीवाइट ( Lesliwhyte ) के नाम विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं । 

           नव – उद्विकास भी इस मान्यता को लेकर चलता है कि किसी भी वस्तु अथवा संस्था में होने वाले परिवर्तन कुछ आन्तरिक शक्तियों के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं तथा इन परिवर्तनों की प्रकृति सरलता से जटिलता की ओर बढ़ने की होती है इसके बाद भी नव – उद्विकास यह नहीं मानता कि प्रत्येक युग में होने वाले परिवर्तन एक सीधी रेखा के रूप में होते हैं । इसके अनुसार परिवर्तन का स्वरूप एक घुमावदार वक्र रेखा ( parabolic curve ) के रूप में होता है । इसका तात्पर्य यह है कि जब किसी विशेषता अथवा सामाजिक संस्था में परिवर्तन होना आरम्भ होता है तो कुछ समय तक यह परिवर्तन मौलिक विशेषताओं से भिन्न विशेषताएँ प्रदर्शित करता है यद्यपि कुछ समय के बाद परिवर्तन पुनः अपने मूल रूप की दिशा में मुड़ जाता है । ‘ मूल रूप ‘ का तात्पर्य किसी संस्था द्वारा अपनी मौलिक विशेषताओं को बिल्कुल उसी रूप में ग्रहण करता है । 

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