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साम्प्रदायिकता

साम्प्रदायिकता

 

मोटे तौर पर साम्प्रायिकता भारतीय राजनीतिक दाँव – पेचों की ही एक उपोत्पाद ( by – product ) हैं . इसका जन्म एवं लालन – पालन भी भारतीय राजनीतिक रंगमंच पर ही हुआ है । वह रंगमंच आज भी उस साम्प्रदायिकता का पोषण बहुत – कुछ खुले तौर पर , शायद बिना किसी हिचक के साथ , कर रहा है । इसका उत्तरदायित्व किस पर है ? यह दूसरा प्रश्न है , पर समस्या यह है कि इस साम्प्रदायिकता के कारण भारतीय जनकल्याण , राष्ट्रीय एकता और संगठन को आज कितना भयंकर खतरा पैदा हो गया है , जिसका कि लाभ हमारे पड़ोस के दुश्मन तक उठाने की ताक में बैठे हैं । अपने उग्र रूप में यह साम्प्रदायिकता कितनी भयंकर हो सकती है , वह तो विभक्त भारत माँ अपने कटे अंगों सहित हमें हर पल दिखा रही हैं , और अपनी मर्म – व्यथा को मन्तिक मूक शब्दों में व्यक्त कर रही हैं । देश – विभाजन की वह महान् क्षति आज भी पूरी नहीं हो पाई है । जबकि कुछ समय पहले हुए काश्मीर रांची बनारस तथा अलीगढ़ के साम्प्रदायिक दंगों ने उस घाव पर और भी नमक छिड़क दिया है और साथ ही समाज – शास्त्र के प्रत्येक विद्यार्थी को इसके लिए बाध्य किया है कि वह साम्प्रदायिकता को वास्तविक रूप में समझ ले और इस विषाक्त फौड़े को भारतीय जन – जीवन से सदा के लिए काट फेंकने के हेतु कुछ रचनात्मक एवं व्यावहारिक उपायों को प्रस्तुत करे । प्रस्तुत अध्याय इसी दिशा में एक सामान्य प्रयत्न है । साम्प्रदायिकता ‘ शब्द का प्रयोग कभी – कभी बहत ही अस्पष्ट एवं अनिश्चित अर्थों में किया जाता हैं , जैसा कि इस तथ्य से प्रकट है कि कुछ लोग इसके जन्म तथा विकास का स्रोत हिन्दू – पुनर्जागरण में देखने का प्रयास करते हैं और लाला लाजपतराय , पंडित मदनमोहन मालवीय तथा लोकमान्य तिलक जैसे राष्ट्रवादी नेताओं को सम्प्रदायवादी कहकर पुकारते हैं । वास्तव में इससे भारी भ्रम उत्पन्न होने की आशंका रहती है । अतः हम सर्वप्रथम इसके अर्थ को स्पष्ट एवं निश्चित करने का प्रयास करेंगे । वास्तव में , साम्प्रदायिकता के अन्तर्गत वे सभी भावनाएं व क्रियाकलाप आ जाते हैं जिनमें किसी धर्म अथवा भाषा के आधार पर किसी समूह – विशेष के हितों पर बल दिया जाए और उन हितों को राष्ट्रीय हितो के ऊपर भी प्राथमिकता दी जाए तथा उस समूह में पृथकता की भावना उत्पन्न की जाए या उसको प्रोत्साहन दिया जाए ।

पारसियों बौद्धों तथा ईसाइयों के अपने – अपने संगठन हैं , साथ ही वे अपने सदस्यों के हितों की साधना में लिप्त रहते हैं । परन्तु ऐसे संगठनों को सामान्यतः साम्प्रदायिक नहीं कहा जाएगा क्योंकि वे किसी पृथकता की भावना से प्रेरित नहीं हैं । इसके विपरीत मुस्लिम लीग , हिन्दू महासभा , तथा अन्य कुछ संस्थाओं को साम्प्रदायिक कहा जोएगा क्योंकि वे धार्मिक अथवा भाषा – समूहों के अधिकारों तथा हितों को राष्ट्रीय हितों के ऊपर रखते हैं । संक्षेप में , हम

 स्मिथ ( W . C . Smith ) के शब्दों में कह सकते हैं कि “ एक साम्प्रदायिक व्यक्ति ( अथवा व्यक्ति – समूह ) वह है जो कि प्रत्येक धार्मिक अथवा भाषायी समूह को एक ऐसी पृथक सामाजिक तथा राजनीतिक इकाई मानता हैं , जिसके हित अन्य समूहों से पृथक होते हैं और उनके विरोधी भी हो सकते हैं । ऐसी ही व्यक्तियों अथवा विष्ठारधारा को सम्प्रदायवाद या साम्प्रदायिकता कहा जाएगा । ” का दृष्टिकोण समाज – विरोधी होता हैं । उसको समाज – विरोधी

 इसलिए कहा जा सकता हैं क्योंकि वह अपने समूह के संकीर्ण हितों को पूरा करने के लिए अन्य समहों के और सम्पूर्ण देश के भी हितों की अवहेलना करने से पीछे नहीं हटता । इस सम्बन्ध में एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि एक साम्प्रदायिक संस्था का उद्देश्य शासकों के ऊपर दबाव डालकर अपने सदस्यों के लिए अधिक सत्ता , प्रतिष्ठा तथा राजनीतिक अधिकार प्राप्त करना होता हैं । और भी स्पष्ट शब्दों में एक साम्प्रदायिक संगठन एक दबाव डालने वाला समूह होता है । इस प्रकार के समूहों का जन्म हमारे देश में अंग्रेजी काल में हुआ था , और वे आज भी उपस्थित हैं , यद्यपि उनको कार्य – पद्धति में काफी अन्तर आ गया है ।

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साम्प्रदायिकता का जन्म तथा विकास

अधिकांशतः व्यक्ति यह स्वीकार करते हैं कि साम्प्रदायिकता का बीज अंग्रेज सरकार ने बोया , जिसने कि भारत में ‘ फूट डालो और शासन करो ‘ ( Divide and Rule ) की नीति अपनाई । प्रो . अब्दुल – मजीद खाँ ने अपनी पुस्तक ‘ कम्युनलिज्म इन इंडिया , इट्स ओरिजिन एण्ड ग्रोथ ‘ ( Com ( munalism in India , its Origin and Growth ) मैं इस बात के अनेक प्रमाण दिए है । सन् 1885 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की राष्ट्रवाद की बढ़ती हुई बाढ़ को रोकने के लिए अंग्रेज सोच रहे थे कि भारत की मुख्य दो जातियों – हिन्दूओं व मुसलमानों के बीच एक दरार उत्पन्न करना आवश्यक हैं । लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल का विभाजन , और उसके उत्तरधिकारी लार्ड मिण्टो द्वारा मुसलमानों के पृथक निर्वाचक मण्डलों की प्रणाली अपनाना – यह दो इस दिशा में जघन्य कार्य थे ।

सन् 1909 में इस प्रणाली को तत्कालीन भारत मन्त्री लार्ड जॉन मार्ले की इच्छा के विरुद्ध लागू भी कर दिया गया । अतः सन् 1906 में मुस्लिम लीग भी बन गई और इसने भारतीय मुसलमानों में साम्प्रदायिक दृष्टिकोण एवं भावना को उत्पन्न करने और उसे तीव्र बनाने में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की । सुप्रसिद्ध सर्वोदयी विचारक श्री सुरेश राम ने हाल ही में ( 11 अप्रैल , 1973 ) प्रकाशित अपनी एक रचना में लिखा है कि ” मुस्लिम लीग के कारनामों से देश का बच्चा – बच्चा वाकिफ हैं , साम्प्रदायिकता ही इसका आधार है , वह सिद्धान्त की दृष्टि से हिन्दू और मुसलमानों को केवल दो अलग – अलग धर्म नहीं , दो अलग – अलग राष्ट्र मानती है , उसने ही भारत के बँटवारे की आवाज उठाई और इसी के परिणामस्वरुप पाकिस्तान बना । ” अपनी पुस्तक ( The Communal Triangle in India ) में श्री अशोक मेहता ने भी – यह मत व्यक्त किया है कि साम्प्रदायिकता की समस्या भारत में अंग्रेज शासकों द्वारा जान – बूझकर उत्पन्न की गई । अपनी रचना ( The Problem of Minorities ) मे डा . के . बी . कृष्ण भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे

साम्प्रदायिकता – वर्तमान भारत में ( Communalism – in modern India ) उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि पुराने भारत में या दूसरे शब्दों में स्वाधीनता से पहले भारत में साम्प्रदायिकता मुख्य रूप में अंग्रेजी की ‘ फूट डालो और शासन करों नीति की ही एक उपय थी । अंग्रेजों ने ही उसको उकसाया । इतनी ही नहीं , अंग्रेजों ने साम्प्रदायिकता के कड़वे विष को सम्पूर्ण भारत में फैलाने – के लिए कोई कसर नहीं उठा रखी । यह तथ्य इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि अंग्रेजों ने सदैव ही मुस्लिम लीग , जो कि मुसलमानों की एक मुख्य रूप से साम्प्रादियकता को बढ़ाने वाली संस्था थी , को आगे बढ़ने का प्रोत्साहन दिया । साथ ही हिन्दू महासभा को सदैव ही हतोत्साहित किया जिसको कि हिन्दुओं की ओर से – एक साम्प्रदायिक संस्था कहा जा सकता हैं । और सम्भवतः इसी का भयंकर परिणाम , जो कि 1947 में हमें देखने को मिला – वह था अखण्ड भारत का खंडित होना । भारत के दो भाग हो गए – ‘ हिन्दुस्तान ‘ और ‘ पाकिस्तान । आज भारत में अब भी कुछ संस्थाएँ ऐसी हैं जो कि किसी न किसी रूप में साम्प्रदायिक कहीं जा सकती हैं , जिसमें कि मुस्लिम लीग , जमायते इस्लामी , मुस्लिम मजलिस , तामीरे – मिल्लत , तेहाद – उलालसिलातनिहाहदू महासभा आदि का नाम लिया जा सकता है । इसमें से कुछ संस्थाएँ राजनीतिक दल के रूप में भी हैं , परन्तु उन्हें राजनीतिक क्षेत्र में कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई है । अतः ये संस्थाएँ अप्रत्यक्ष रूप से ही राजनीति में भाग लेती रहती हैं ।

श्रीनगर ( काश्मीर ) राँची , अलीगढ़ , बनारस , मुरादाबाद , बड़ौदा , मेरठ आदि स्थानों में हुए हिन्द – मस्लिम साम्प्रदायिक दंगों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अब भी भारत में साराशि का बोलबाला कम नहीं हैं । अभी हाल मे ही रामपुर में हुए ‘ मजलिसे – मुशावरत ‘ के सम्मेलन में ‘ मसलमानों के हितों की माँग गई है । हिन्दू मसासभा भी अपने उद्देश्यों को लेकर अपनी मांगों का नारा लगाते ही हैं । अतः यह कहना की स्वाधीनता के बाद भारत में साम्प्रदायिकता कम हुई है , उचित नहीं है । वास्तव में अभी भी उसकी जड़ें अत्यधिक मजबूत हैं । अगर ऐसा न होता तो नवम्बर – दिसम्बर , 1990 में रामजन्म भूमि पर शिलान्यास के प्रश्न पर लखनऊ , आगरा , कानपुर , अलीगढ़ , वाराणसी और देश – प्रदेश के अन्य भागों में भीषण साम्प्रदायिक दंगे कभी न भड़कते । मई 1991 में आम चुनाव से पहले ही वाराणसी , कानपुर , मेरठ , बुलन्दशहर आदि कई शहरों में साम्प्रदायिक दंगों को आग भीषण रूप में फैल गया

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साम्प्रदायिकता के दुष्परिणाम

 आपसी द्वेषः साम्प्रदायिकता से विभिन्न वर्गों में आपसी द्वेष को बढ़ावा मिलता है । केवल बढ़ावा ही नहीं , वरन् आपसी द्वेष का एक बहुत बड़ा कारण ही साम्प्रदायिकता हैं । जब हिन्दू और मुसलमान अपने – अपने हितों के लिए एक ही सरकार से लड़ते हैं , तो आपस में द्वेष , वैमनस्य हो जाना स्वाभाविक ही है । यही द्वेष कभी भयंकर रूप धारण कर समाज में आतंक फैला देता है ; यही द्वेष समाज की शान्ति भंग कर देता है और यही द्वेष समाज के सदस्यों में मार – काट फैला देता है ।

 आर्थिक हानि : साम्प्रदायिकता के कारण गम्भीर आर्थिक हानि भी होती हैं । न जाने कितनी दूकानें लूटी जाती हैं , न जाने कितनी राष्ट्रीय सम्पत्ति नष्ट की जाती है और न जाने कितने व्यक्ति कार्य नहीं कर पाते । इतना ही नहीं , साम्प्रदायिक संस्थाओं पर न मालूम कितना धन व्यय किया जाता है । यदि वही धन जनता की भलाई के लिए व्यय किया जाए तो जनता अधिक सुखी एवं समुद्ध हो सकती हैं ।

  प्राणहानि : शायद इस सत्य को अधिक स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं , कि साम्प्रदायिकता के कारण प्राणहानि भी अत्यधिक होती है । शायद ही ऐसा कोई साम्प्रदायिकता दंगा हुआ हो जिसमें कुछ व्यक्तियों की जाने न गई हों । राँची ( बिहार ) , श्रीनगर , बनारस , अलीगढ़ , बड़ौदा , मेरठ आदि के साम्प्रदायिक दंगों का उदाहरण सामने हैं । इन दंगों में अनेकों व्यक्तियो की जानें तो गई ही , साथ ही अनेकों व्यक्ति जीवन व मृत्यु से संघर्ष करने के लिए घायलवस्था में पड़े रहे ।

 राजनीतिक अस्थिरताः साम्प्रदायिकता का एक दुष्परिणाम राजनीतिक अस्थिरता भी हैं । साम्प्रदायिकता वह परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देती हैं , या उन परिस्थितियों को उत्पन्न करने में सहायक होती है , जिनसे कि देश में राजनीतिक अस्थिरता आ जाती है । राँची के साम्प्रदायिक दंगों के फलस्वरूप संयुक्त विधायक दल के विरोधी दल अपनी – अपनी तरह से जनता को फूसला रहे थे , और जनता को भी एकबारगी सरकार में सन्देह होने लगा था । काश्मीर के साम्प्रदायिक झगड़ों की ओर दृष्टिपात करने से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती हैं । अभी हाल ही में हुए रामपुर के मजलिसे – मशावरत के अधिवेशन में डॉ . अब्दुल जलील फरीदी ने सरकार से मुसलमानों के सही प्रतिनिधित्व की माँग की है । वास्तव में इन सब बातों स , प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप स साम्प्रदायिक राजनीतिक अस्थिरता को प्रोत्साहन ही प्राप्त होता है ।

 राष्ट्रीय एकता में बाधा  ः साम्प्रदायिकता राष्ट्रीय एकता की गम्भीर शत्रु है । यह दोनों तो परस्पर विरोधी ही है । राष्ट्रीय एकता का तात्पर्य हैं , सभी लोग आपस में एक होकर रहें , सबके हित को अपना हित मानें । जबकि साम्प्रदायिक इसके बिलकुल विरूद्ध हैं – इनका लक्ष्य है कि विभिन्न सम्प्रदाय के व्यक्ति अपने – अपने हितों के लिए संघर्ष करें ! और जब यह संघर्ष विद्यमान होगा , तो फिर राष्ट्रीय एकता । कैसी ?  राष्ट्रीय सुरक्षा को खतर : भारत एक बहु – सम्प्रदायवादी देश है । इसमें अनेक व्यक्ति निवास करते हैं । और इन्हीं अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक के बीच जोकोशिश करें तो भा अपना को फैलाकर भारतवासता से राष्ट्रीय सुरक्षा 186 साम्प्रदायिक झगड़े या तनाव पैदा होते हैं उनसे भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को गम्भीर खतरा पैदा हो सकता है । विनोबा भावे ने कहा है कि , हमारे यहाँ जो मसलमान , ईसाई वगैरह अल्पसंख्यक हैं , उनका उत्तम रक्षण होना चाहिए । प्रेम से उनका बचाव करना चाहिए । यह वृत्ति अगर नहीं होगी , तो आप लाख कोशिश करें तो भी आपकी आजादी नहीं रहेंगी यह आप लिख लीजिए । ” अपने ही कुछ पड़ोसी देश भारत में साम्प्रदायिकता की भावना को फैलाकर भारतवासियों विशेषकर हिन्दूओं और मुसलमानों में फूट पैदा करने का सतत प्रयत्न करते रहते हैं । स्पष्ट ही है कि साम्प्रदायिकता से राष्ट्रीय सुरक्षा को एक गम्भीर खतरा हैं । उपरोक्त दुष्परिणामों के अतिरिक्त भी कई अन्य अप्रत्यक्ष दुष्परिणाम हो सकते हैं । जैसे साम्प्रदायिकता से देश में आर्थिक उन्नति व औद्यौगिक विकास में भी बाधा पड़ती हैं । अन्य राष्ट्रों से भारत के सम्बन्ध पर भी साम्प्रदायिकता का बरा प्रभाव पड़ता हैं । कुछ भी हो साम्प्रदायिकता मानवता का एक भयंकर शत्रु है ।

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साम्प्रदायिकता को दूर करने के सुझाव

जैसा कि उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है साम्प्रदायिकता मानवता के लिए एक गम्भीर अभिशाप है और भारत जैसे देश में तो यह और भी घातक है । हमें इसे किसी भी कीमत पर समाप्त करना होगा । मानवता की भयंकर दात्रु साम्प्रदायिकता को मिटाना ही होगा । साम्प्रदायिकता को दूर करने के लिए कांग्रेस महासमिति में एक प्रस्ताव भी पास किया था । इसके अतिरिक्त गांधीजी , आचार्य विनोबा भावे एवं बाबू जयप्रकाश नारायण ने भी अनेक सुझाव प्रस्तुत किए हैं । आचार्य विनोबा भावे के इस सम्बन्ध में कुछ सुझाव निम्नलिखित है

 1 . सर्वत्र इस भावना को प्रोत्साहन दिया जाए कि सब धर्मों के लोग मिलजलकर रोज मौन प्रार्थना करें । सार्वजानिक अथवा व्यक्तिगत स्थानों पर , जहाँ प्रार्थना आदि के कार्यक्रम होते हैं , ऐसा वातावरण बनाया जाए ।

 2 . शिक्षण में आध्यात्मिक मूल्यों का समावेश किया जाए । साम्प्रदायिक या मजहबी क्रिया – कर्म भित्र चीज है ।

3 . किसी भी सार्वजनिक क्षेत्र में बहुमत के आधार पर कोई प्रवृत्ति पैदा न की जाए । सारा कार्य ऐसे ढंग सो हो , कि अल्पसंख्यकों को अपने अल्पसंख्यक होने का मान ही न रहे ।

 4 . धर्म विशेष से सम्बन्ध न रखने वाले ( सेक्यूलर ) व्यक्तिगत और सार्वजनिक उत्सव – प्रसंगों में सब लोग मिल – जुलकर सहयोग करें ।

5 . विभिन्न धार्मिक तथा सांस्कृतिक उत्सवों में सब धर्मों को लोगों को सम्मिलित किया जाए । आपस में विचारों का आदान – प्रदान किया जाए और इस प्रकार एक – दूसरे के प्रति भय के वातावरण को दूर किया जाए ।

6 . विभिन्न धर्म वालों को , विचार वालों को और विशेषतः मुसलमानों को अध्ययन – मण्डल या विचार – गोष्ठियाँ ( स्टडी सर्किट ) चलानी चाहिए , और उनमें विभिन्न धर्मों के उसूलों ( सिद्धान्तों ) का अध्ययन – चिन्तन हो ।

7 . ग्रामदान , शान्ति सेना तथा खादी सम्बन्धी जो त्रिविध कार्यक्रम बना है , वह सारे देश में लिा REDMINणराव फैलाया जाए ।

उपरोक्त सुझावों के अतिरिक्त भी कुछ अन्य सुझाव इस प्रकार दिए जा सकते हैं

1 . सरकार को सदैव ही इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसके द्वारा ऐसा कोई भी कार्यन हो पाए , जिसके द्वारा साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन मिलता हो ।

2 . सरकार को सदैव ही इस प्रकार के कानूनों का निर्माण करना चाहिए , जो कि हर व्यक्ति पर समान रूप से लागू होते हों । कानून लागू होने में किसी भी प्रकार का जाति , लिंग धर्म , भाषा एवं सम्प्रदाय सम्बन्धी भेद – भाव नहीं होना चाहिए । 3 . सरकार को इस सम्बन्ध मे प्रचार भी करना होगा । कहने का तात्पर्य है कि भारत में विभित्र सम्प्रदायवादी रहते अवश्य हैं परन्तु यदि भारत सरकार इनके आपस के भेद – भाव मिटाना चाहती हैं तो जनता को यह विश्वास दिलाना होगा कि हम सब एक हैं ।

 4 . भारत में विभिन्न समयों पर अनेक सम्प्रदाय सरकार में अपने विशेष प्रतिनिधित्व की माँग करते हैं । सरकार को इन सबके इस प्रस्ताव को केवल साम्प्रदायिकता के आधार पर ठुकराना होगा और उन्हें ‘ एक राष्ट्र का सबक देना होगा क्योंकि इनसे भी साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है ।

 5 . भाषा के सम्बन्ध में भी भारत सरकार को अपनी नीति ठीक करनी होगी । यह भी भारत में साम्प्रदायिकता का एक बहुत बड़ा कारण है ।

 वास्तव में मानव – जाति का भविष्य एकता में है । विज्ञान और मानवता , दोनों का यही संकेत है । हर वह चीज , जो इस रास्ते में बाधा बनकर आएगी चाहे वह राष्ट्र हो , जाति हो , भाषा हो , धर्म हो या सम्प्रदाय ही क्यों न हो , उसे हटाना होगा । भारत को तो इस सम्बन्ध में अपना विशेष पार्ट अदा करना हैं , क्योंकि विश्वबन्धुत्व और मानवता यहाँ की विशेष परम्परा रही है । भारत में तो अनेक जाति , अनेक धर्म , अनेक भाषा और सम्प्रदाय के व्यक्ति निवास करते हैं । अतः यहाँ तो एकता पैदा करना और भी महत्त्वपूर्ण हैं , और हाल के साम्प्रदायिक दंगों ने तो हमें इस विषय में और भी सचेत कर दिया हैं ।

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