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सामाजिक संस्था पर उद्योग का प्रभाव

सामाजिक संस्था पर उद्योग का प्रभाव

SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में

 

क) समाज पर औद्योगीकरण के प्रभावों पर प्रकाश डालना।

ख) यह दिखाने के लिए कि परिवार और जाति व्यवस्था में हुए परिवर्तन कैसे अपरिवर्तनीय हैं।

ग) यह कि संरचना में परिवर्तन से बड़े पैमाने पर कार्यों में परिवर्तन होता है।

घ) औद्योगीकरण ने धर्म, परंपरा और विश्वासों की पकड़ ढीली कर दी है।

 

 

औद्योगीकरण ने सामाजिक, आर्थिक और जनसांख्यिकीय पहलुओं में कई बदलाव लाए हैं। औद्योगीकरण ने शहरीकरण को जन्म दिया है। इसने हमारी जीवन शैली, संबंध, खान-पान और पहनावे आदि को प्रभावित किया है। दैनिक दिनचर्या में भी बदलाव आया है, इसने हल्की संयुक्त परिवार प्रणाली को भी तोड़ दिया है, विकृत रिश्तेदारी के बंधन भी टूट गए हैं और टूटने के लिए भी जिम्मेदार है। भारत में जाति व्यवस्था। उद्योगों और कारखानों के विकास के कारण बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है।

 

 

 

यह केवल जाति के प्रतिस्थापनवर्ग, या पारंपरिक ग्रामीण मूल्यों की जगह आधुनिक शहरी मूल्यों का मामला नहीं है। अब भारतीय समाज के साथ जो हो रहा है वह संतुलन का झुकाव है जो पदानुक्रम और समानता के बीच, या निश्चित दरों और प्रतिस्पर्धी व्यक्तिवाद के बीच कभी स्थिर नहीं था, और परिवर्तनों के उद्योगवाद के अलावा कई कारण हैं। यहां तक ​​कि पारंपरिक जाति भी व्यवसाय से निकटता से मेल नहीं खाती थी, केवल उन लोगों को छोड़कर जो पुजारी और नाई और स्वीपर थे, जिनका काम शुद्धता और अशुद्धता के विचारों से निकटता से जुड़ा हुआ था। कृषि और व्यापार धन के स्रोत और बड़े बहुमत का व्यवसाय व्यवहार में लगभग हमेशा किसी के लिए भी खुला था, जिसके पास उन्हें शामिल करने के साधन थे, चाहे उसके पास वापस जाने के लिए जाति का एकाधिकार हो या न हो, और कारखाने का काम जूट का था एक और खुला पेशा।

 

 

2.

 

औद्योगीकरण

औद्योगीकरण के सामाजिक परिणाम

 

 

 औद्योगीकरण नगरीकरण का कारण और परिणाम दोनों ही हो सकता है अक्सर यह देखा जाता है कि जहाँ पर उद्योगधन्धे पनप जाते हैं और मशीनों के बड़े बड़े मिल फैक्ट्रियों में उत्पादन का कार्य होता है वहाँ पर नगरीकरण की प्रक्रिया तेजी से क्रियाशील होती है , भारत में अनेक नगरों का विकास उसी प्रकार हुआ है , इस अर्थ में औद्योगीकरण नगरीकरण का कारण होता है पर ऐसा भी होता है कि अन्य किसी कारण से नगरीकरण की प्रक्रिया सर्वप्रथम क्रियायाशील होता है और अब जब समुदाय नगर का पूर्णरूप धारण कर लेता है तो वहाँ उद्योग धन्धे का धीरेधीरे औद्योगीकरण होता है

 

अवधारणा : मशीनों द्वारा , बड़े पैमाने में उत्पादन कार्यों का सम्पादन उद्योगधन्धों का एक स्थान में विकास की प्रक्रिया को औद्यीकरण कहते हैं कुछ लेखकों का कथन है किऔद्योगीकरण का तात्पर्य बड़े पैमाने के नवीन उद्योगों का प्रारम्भ और छोटे उद्योगों का बड़े पैमाने के उद्योगों में बदलने से है

 

वास्तविक अर्थ में , ओद्योगीकरण उद्योगों के बड़े पैमाने में विकास की एक प्रक्रिया है विलबर्ट मूरे ( W.E.Moore ने औद्योगीकरण की परिभाषा अपनी पुस्तक Social Change , P – 91 में इस प्रकार की है : “ औद्योगीकरण वह शब्द है जिसका उपयोग आर्थिक वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में शक्ति के निर्जीव स्रोतों का व्यापक रूप से उपयोग करने के लिए किया जाता है ” ( Industrialization in its strict sense of the term , entails the extensive use of inanimate sources of power in the production of economic goods and services . ) अतः विल्बर्ट मूरे के अनुसार , औद्योगीकरण की प्रक्रिया का मुख्य लक्ष्य अधिक से अधिक लाभ कमाना है साथ ही औद्योगीकरण का संबंध वस्तु तथा सेवाओं दोनों से है

 

 

 भारत में औद्योगीकरण के कारण : भारत जैसे कृषि प्रधान देश में औद्योगीकरण कारणों में सर्वप्रमुख पंचवर्षीय योजनाओं का योगदान है दूसरी पंचवर्षीय योजना 1956-61 के बीच औद्योगीकरण की शुरुआत व्यापक रूप से हुई साथ ही अन्य कई कारणों को निम्नलिखित बिन्दुओं से समझा जा सकता है

 

  1. उत्पादन की नई तकनीक : उत्पादन की नवीन प्रविधियों के आविष्कार से औद्योगीकरण की दर में काफी वृद्धि हुई है कृषि में नवीन संकर बीजों एवं यंत्रीकरण के फलस्वरूप ही हरित क्रांति संभव हुई नवीन कपड़ा मिलों के आविष्कार ने औद्योगीकरण को नया रूप दिया आज सूचना क्रांति में कम्प्यूटर , इन्टरनेट के आने से विश्व में कहीं भी सूचना भेजने एवं पाने में केवल कुछ सेकेण्ड लग रहे हैं

 

  1. प्राकृतिक संसाधन : औद्योगीकरण की सबसे बड़ी आवश्यकता है प्राकृतिक संसाधन अगर देश में प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता होगी तो औद्योगीकरण की गति समाप्त से

 

जाएगी भारत में लोहे , कोयले , अभ्रक आदि खनिज सम्पत्तियों के विशाल भण्डार हैं पेट्रोलियम भी संतोषप्रद है जल शक्ति के क्षेत्र में भारत संसार के सबसे धनी देशों में एक है यहाँ ऐसे वन हैं जहाँ विश्व विभिन्न बीमारियों के लिए जड़ी बूटी उपलब्ध है

 

  1. यातायात के साधन : औद्योगीकरण की प्रक्रिया में यातायात के साधनों की अवहेलना नहीं की जा सकती है कच्चे माल , मशीन तथा श्रमिकों को उत्पादन केन्द्र तक पहुँचाने में , बने हुए माल को देशविदेश के बाजारों तक ले जाने में तथा उद्योग धन्धों से सम्बन्धित सम्बन्धों को बनाये रखने में यातायात के साधनों के महत्त्व को स्वीकार करना ही पड़ता है अतः यातायात के बिना औद्योगीकरण का कोई महत्त्व नहीं है

 

  1. श्रमशक्ति की प्रचुरता : विकसित देशों की तुलना में हमारे देश में श्रमशक्ति कहीं अधिक है गाँव में ऐसे करोड़ों भूमिहीन मजदूर हैं जो वर्ष में अधिकतर बेरोजगार रहते हैं , वे कम मजदूरी पर उद्योगों में श्रमिकों के रूप में काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं इनके द्वारा किये जाने वाले औद्योगिक उत्पादन की लागत भी कम होती है यह एक ऐसी दशा है जिसके फलस्वरूप यहाँ औद्योगिक विकास सरलता से सम्भव हो सका

 

  1. आर्थिक नीतियाँ : हमारे देश में औद्योगीकरण का एक प्रमुख कारण सरकार की अधि कि और औद्योगिक नीतियाँ हैं भारत में स्वतन्त्रता के समय से ही एक मिश्रित अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन दिया गया इसमें आधारभूत उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में विकसित किया गया , जबकि अन्य उद्योगों का विकास निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिया गया श्रम कल्याण एवं श्रम सुरक्षा के लिए ऐसे बहुत से कानून बनाये गये जिससे श्रमिकों के शोषण को रोका जा सके तथा उनकी कार्यकुशलता को बढ़ाया जा सके यह दशा भी औद्योगिकीकरण के विकास में सहायक सिद्ध हुई

 

  1. अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा : भारत में औद्योगीकरण के विकास का एक अन्य कारण अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में भारत द्वारा हिस्सा लेना है वर्तमान युग में कोई भी देश अपनी अर्थिक स्थिति को केवल तभी मजबूत बना सकता है जब वह दूसरे देशों से वस्तुओं का आयात करने के साथ ही स्वयं भी विभिन्न वस्तुओं का बड़ी मात्रा में उत्पादन करके उनका दूसरे देशों को निर्यात कर सके आयात और निर्यात के सन्तुलन से ही हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत बनती है स्वतंत्रता के बाद भारत ने आर्थिक क्षेत्र में जैसेजैसे अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेना शुरू किया , यहाँ औद्योगीकरण में वृद्धि होती गई

 

7.शैक्षणिक संस्थाएँ : भारत में औद्योगीकरण के कारणों में शिक्षण संस्थाओं का बड़ा महत्त्वपूर्ण भूमिका है शिक्षण संस्थाओं के द्वारा विभिन्न कोर्स जो कि आधुनिक उत्पादन से संबंधित है करोड़ों की संख्या में ऐसे विद्यार्थी हैं जो कि हसिल कर रहे हैं अतः उपर्युक्त दशाओं के साथसाथ नये आविष्कार , नगरीकरण की प्रक्रिया तथा बैंकिंग सुविधा तथा सेवा क्षेत्र का विस्तार आदि वे सहायक दशाएँ हैं जिन्होंने औद्योगीकरण के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया

 

औद्योगीकरण के फलस्वरूप सामाजिक आर्थिक परिवर्तन : आज भी भारत आधारभूत रूप में गाँवों का देश है पर आज औद्योगीकरण की प्रक्रिया भी तेजी से अपने प्रभाव का विस्तार करती जा रही है औद्योगीकरण की प्रक्रिया ने हमारे सम्पूर्ण सामाजिक संरचना में परिवर्तन ला दिया है और हमारा सामाजिक , आर्थिक , मानसिक , राजनैतिक , सांस्कृतिक , धार्मिक एवं नैतिक जीवन एक नया मोड़ ले रहा है औद्योगीकरण के ये प्रभाव स्वस्थ भी हैं और अस्वस्थ भी हम संक्षेप में अब दोनों प्रकार के प्रभावों की विवेचना यहाँ करेंगे – 


  1. सामाजिक सांस्कृतिक सम्पर्कों का विस्तृत क्षेत्र : औद्योगीकरण का एक उल्लेखनीय प्रभाव यह है कि इसके फल्स्वरूप सामाजिक सांस्कृतिक सम्पर्कों का क्षेत्र स्वतः ही बढ़ जाता है शहरों के सामाचार पत्रपत्रिका , पुस्तक , रेडियो , केवल नेटवर्क , इंटरनेट , टेलीफोन , मोबाइल आदि के माध्यम से दूसरे प्रातों या देशों के साथ सम्पर्क स्थापित करना सरल होता है ये सभी तत्व सामाजिक सांस्कृतिक सम्पर्क के क्षेत्र को विस्तृत करने में सहायक सिद्ध होते हैं

 

  1. शिक्षा प्रशिक्षण संबंधी अधिक सुविधायें : अपने बच्चों को उचित शिक्षा देने के प्रति झुकाव अधिक होता है इसलिए औद्योगीकरण के साथ साथ शिक्षा प्रशिक्षण सम्बन्धी सुविधाओं का भी विस्तार होता जाता है कुछ नगरों में नगरीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने में शिक्षा प्रशिक्षण संबंधी सुविधाओं का भी विस्तार होता है कुछ नगरों में नगरीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने में शिक्षा प्रशिक्षण संबंध सुविधाओं का अधिक योगदान होता हैं कम्प्यूटर तथा अनेक टेकनिकल कोर्स करके शहरों में नौकरी की सम्भावनायें बढ़ जाती हैं इन्हीं सुविधाओं के कारण नगर का महत्त्व दिनप्रतिदिन बढ़ता जाता है

 

  1. व्यापार और वाणिज्य का विस्तार : नगरों के विकास के साथसाथ व्यापार और वाणिज्य की प्रगति भी निश्चित रूप में होती है क्योंकि औद्योगीकरण के साथसाथ आबादी बढ़ती है और आबादी बढ़ने से आवश्यकतायें बढ़ती हैं और उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यापार और वाणिज्य का विस्तार आवश्यक हो जाता है इसलिए औद्योगीकरण के साथसाथ नए बाजार , हाट , शॉपिक सेटर , सिनेमा , रेस्टोरेन्ट आदि का भी उद्भव होता जाता है

 

  1. यातायात संदेशवाहन की सुविधाओं में वृद्धि : नगर के विकास के साथसाथ यातायात संदेशवाहन की सुविधाओं का भी प्रसार होता जाता है क्योंकि इसके बिना नगरवासियों का जीवन सुविधाजनक नहीं हो सकता नागरिक परिस्थितियाँ यह माँग करती है कि यातायात और संदेशवाहन के साधानों को विस्तृत किया जाय इसलिए नगर के विकास के साथसाथ डाकघर , टेलीफोन , रेलवे स्टेशन , केरियर सर्विस , इन्टसेट , साइबर कैफे आदि का भी विकास होता जाता है और नगर के अंदर बस तथा टैक्सी सर्विस , ऑटो रिक्शा आदि उपलब्ध होते हैं ये सभी सुविधायें महंगी हो सकती है जो जल्दी ही नागरिक जीवन के आवश्यक अंग बन जाती हैं
  2. राजनैतिक शिक्षा ( Political Education ) : औद्योगीकरण की प्रक्रिया के साथसाथ राजनैतिक दलों की क्रियाशीलता भी बढ़ जाती है वास्तव में नगर राजनैतिक दलों का अखाड़ा होता है और वे अपनेअपने आदर्शों सिद्धांतों को फैलाने के लिए केवल अत्यन्त प्रयत्नशील रहते हैं अपितु एक राजनैतिक दल दूसरे दल को नीचा दिखाने के लिए भी भरसक प्रयत्न करता रहता है फलतः राजनैतिक दाँवपेच सीखने का अवसर नगरों में जितना मिलता है उतना गाँवों में कदापि नहीं यह इसलिए भी सम्भव होता है क्योंकि नगर में यातायात और संदेशवाहन के साधन उन्नत स्तर पर होते हैं और उनके पुस्तक पत्रिका , सामाचारपत्र , रेडियो , टीवी , पोस्टर , बैनर , स्पीकर आदि के माध्यम से अन्तरराष्ट्रीय राजनैतिक जीवन में भाग होना या कम से कम उसके सम्बन्ध में जानकारी हासिल करना हमारे लिये सम्भव होता है यह राजनैतिक शिक्षा को व्यावहारिक स्तर पर लाने में सहायक सिद्ध होता है
  3. सामाजिक सहनशीलता : औद्योगीकरण का एक उल्लेखनीय प्रभाव यह है कि नगर निवासियों में सामाजिक सहनशीलता पर्याप्त मात्रा में पनप जाता है इसका कारण भी स्पष्ट है नगरीकरण के साथ साथ विभिन्न धर्म , सम्प्रदाय जाति , वर्ग , प्रजाति , प्रान्त तथा देश के लोग आकर बस जाते हैं और प्रत्येक को एकदूसरे के साथ मिलनेजुलने का तथा एक दूसरे को

अधिक निकट में देखने जानने का अवसर प्राप्त होता है इस प्रकार के सर्पक में एकदूसरे के प्रति सहनशीलता पनपती है

 

  1. पारिवारिक मूल्य संधान में परिवर्तन : नगरीकरण के साथ साथ पारिवारिक मूल्यों एवं संरचना में भी तेजी से परिवर्तन होता है नगरों में बच्चे आज पूरी तरह अपने माता पिता का सम्मान नहीं कर रहे हैं , अपनी जिद्द को ही सर्वोपरि मानते हैं , विवाह अपनी पसन्द की लकड़ी या लड़के से करते हैं , कॉलेज जाने के नाम पर रोमांस देखने को मिलता है कामकाजी लड़कियों का एफयर तो नगरों में आम बात हो गई है प्रेम विवाहों की संख्या में वृद्धि और तलाक की में वृद्धि भी नगरों में अधिक देखने की मिलती है मीडिया एवं संचार क्रांति ने युवा वर्ग की अत्यधिक प्रभावित किया है वह अपने रोल मॉडल की तरह ही बनने ( at her Social Economic effects of urbanization ) रहने की चाह में रहता है पारिवारिक कर्तव्यों की ओर उसका ध्यान नहीं है विवाह के बाद लड़की अपने पति को अलग घर में रहने के लिए प्रेरित करती है एकल परिवारों की संख्या बढ़ना तथा संयुक्त परिवारों का विघटन यहाँ लगातार बढ़ रहा है

 

  1. गन्दी बस्तियों का विकास : औद्योगीकरण के साथसाथ जब औद्योगीकरण की प्रक्रिया भी चलती रहती है तो नगर की जनसंख्या अति तीव्र गति से बढ़ती चली जाती है पर जिस अनुपात में जनसंख्या बढ़ती है उसी अनुपात में नये मकानों का निर्माण नहीं हो पाता है इसलिए नगरीकरण का एक प्रभाव गन्दी बस्तियों का विकास होता है

 

  1. सामाजिक मूल्यों तथा संबंधों में परिवर्तन : औद्योगीकरण के साथसाथ व्यक्तिवादी आदर्श पनपता है नगरों में धन तथा व्यक्तिगत गुणों का अधिक महत्त्व होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति केवल अपनी ही चिन्ता करता है और अपने स्वार्थों की रक्षा हेतु जीजान लगा देता है उसका प्रयत्न अपने ही व्यक्ति तत्व का विकास करना तथा अधिकाधिक धन एकत्र करना है क्योंकि इन्हीं पर उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा निर्भर करती है इसलिए नगरीकरण का एक प्रभाव व्यक्तिगत स्वार्थ की वेदी पर सामुदायिक स्वार्थ की बलि चढ़ा देना होता है उसी प्रकार नगरीकरण के साथसाथ व्यक्तिगत संबंध अवैयक्तिक सामाजिक संबंधों में बदल जाता है दिल्ली , कलकत्ता , मुम्बाई जैसे बड़े नगरों में तो आठदस मन्जिल वाले एक ही बिल्डिंग में रहने वाले व्यक्तियों में व्यक्तिगत संबंधों का नितान्त अभाव होता है उसी प्रकार जातिपाँति के आधार पर भेदभाव छुआछूत को भावना आदि नगरीकरण के साथसाथ दुर्बल पड़ जाते हैं और इनसे संबंधित सामाजिक मूल्य बदल जाते हैं सामाजिक दूरी का घटना नगरीकरण का एक उल्लेखनीय प्रभाव कहा जा सकता है एक राजनैतिक दल दूसरे दल को नीचा दिखाने लगते हैं

 

 10.मनोरंजन का व्यापारीकरण : औद्योगीकरण का एक और उल्लेखनीय प्रभाव मनोरंजन के साधनों का व्यापारीकरण है अर्थात् सिनेमा , थियेटर डिस्को क्लब , खेल कूद , केवल नेटवर्क , मोबाइल , इंटरनेट आदि मनोरंजन के सभी साधनों का आयोजन व्यापारिक संस्थाओं द्वारा किया जाता है इसलिये इनमें शीलता या स्वस्थ प्रभाव का उतना ध्यान नहीं रखा जाता है जितना कि उन्हें दर्शकों के लिये अधिकाधिक आकर्षक बनाकर उनसे पैसा लेने के प्रति सचेत रहा जाता है

 

  1. दुर्घटना , बीमारी गन्दगी : नगरों में दुर्घटनायें अधिक होती हैं अधिक प्रदूषण के कारण बीमारियाँ भी अधिक होती हैं विभिन्न उद्योगों से संबंधित अलगअलग बीमारियाँ पनपती हैं इतना ही नहीं नगरों में घनी आबादी होने के कारण गन्दगी भी अधिक होती है गन्दगी के कारण भी अनेक प्रकार की बीमारियाँ नगर निवासियों की घेरती हैं लाख प्रयत्न करने – पर भी औद्योगीकरण के परिणाम स्वरूप होने वाली दुर्घटना , बीमारी तथा गंदगी की समस्या के टाला नहीं जा सकता

 

  1. सामुदायिक जीवन में अनिश्चितता : नगरों की यह एक प्रमुख समस्या है और समस्या इसलिए है कि इस अनिश्चितता के कारण नगरों की सामुदयिक भावना याहमकी भावना पनप नहीं पाती है जिसके कारण नगर के जीवन में एकरूपता पनप नहीं पाती है यहाँ कोई रात को सोता है तो कोई दिन में कोई आज रोजगार में लगा है कल बेकार है यह अनिश्चितता हर पल पर हर क्षण है सुबह घर से गया हुआ व्यक्ति शाम को घर लौटकर आयोग भी या नहीं , इसकी भी कोई निश्चितता नहीं है यह अनिश्चितता सामुदायिक जीवन को विघटित करने वाले तत्वों को जन्म देती हैं

 

13.सामाजिक विघटन : व्यक्ति तथा संस्थाओं की स्थिति कार्यों में अनिश्चितता अथवा अधिक परिवर्तनशीलता सामाजिक विघटन को उत्पन्न करती है नगरों में सामाजिक परिवर्तन की गति भी तेज होती है जिसके कारण सामाजिक विघटन उत्पन्न होता है नगरों में बैंक फेल करने , विद्रोह होने , क्रांति अथवा युद्ध छिड़ने की भी सम्भावना अधिक होती है जिनके कारण भी सामाजिक विघटन की स्थिति उत्पन्न होती है जो कि स्वस्थ सामाजिक जीवन के लिए घाटक सिद्ध होती हैं

 

 14.परिवारिक विघटन : नगरों में परिवारों के सदस्यों में आपसी संबंध अधिक घनिष्ट नहीं होता है क्योंकि पढ़नेलिखने , प्रशिक्षण प्राप्त करने , नौकरी करने , मनोरंजन प्राप्त करने आदि के लिए घर के अधिकतर सदस्यों को या तो ढंग एक दूसरे हो अलग है या परिवार से बाहर ही अधिक समय व्यतीत करना पड़ता है इस कारण परिवार के सदस्यों का एक दूसरे पर नियंत्रण भी बहुत कम होता है जो कि परिवार को विघटित करने में प्रायः सहायक ही सिद्ध होता है

 

15.व्यक्तिगत विघटन : यह नगरों की एक अन्य उल्लेखनीय समस्या है व्यक्तिगत विघटन के निम्नलिखित पांच स्वरूप नगरों में देखने को मिलते हैं जिनमें से प्रत्येक स्वयं ही एक गम्भीर समस्या है

 

 ( a ) अपराध तथा बालअपराध : नगरों में निर्धनता , मकानों की समस्या , बेरोजगारी , स्त्री पुरुष के अनुपात में भेद , नशाखोरी , व्यापारिक मनोरंजन , व्यापार चक्र , प्रतिस्पर्धा , परिवार का शिथिल नियंत्रण , विद्यमान होते हैं जिनके कारण नगरों में अपराध और बालअपराध अधिक देखने को मिलने हैं

 

( b ) आत्महत्या : नगरों में निर्धनता , बेरोजगारी , असुखी पारिवारिक जीवन , प्रतिस्पर्धा में असफल होने पर जीवन के संबंध में घोर निराशा , रोमांस या प्रेम में असफलता , व्यापार में असफलता आदि की एक राजनैतिक दल दूसरे दल को नीचा दिखाने सम्भावनायें अधिक होती हैं और इनमें से किसी भी अवस्था में व्यक्ति इस प्रकार की एक असहनीय मानसिक उलझन में फंस सकता है , जिससे घुटकारा पाने के लिए वह आत्महत्या को ही चुन लेता है यही कारण है कि गांवों की अपेक्षा नगरों में कहीं अधिक आत्महत्यायें होती हैं

 

( c ) वेश्यावृत्ति : नगरों में श्रमिक वर्ग अधिक होते हैं जो कि नगरों में मकानों की समस्या तथा मंहगाई के कारण अपने बीबी बच्चों के साथ रहकर अकेले ही रहने को बाध्य होते हैं इसके लिए वेश्यालय मनोरंजन का एक अच्छा स्थान होता है नगरों में पाये जाने वाली निर्धनता तथा बेरोजगारी भी अनेक स्त्रियों को वेश्यावृत्ति को बाध्य करती हैं

 

( d ) नशाखोरी : मद्यपान आदि व्यक्तिगत विघटन की ही एक अभिव्यक्ति है नगरों में यह समस्या विशेष रूप से उग्र है इस समस्या का चरम रूप तब देखने को मिलता है जबकि नगरों 

 .. नतिक रूप से तटस्थ होती है में बड़ीबड़ी पार्टियों , ‘ डिनरोंमें जहाँ की समाज के उच्चस्तरीयसज्जनोंका जमघट होता है , मद्यपान को सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रतीक और सामान्य शिष्टाचार के रूप में स्वीकार किया है शहरों में जो अपने जीवन में असफल हुए हैं , ऐसे व्यक्तियों की भी कमी नहीं होती है इसको शराब की दुकानों पर लगी भीड़ से हमें यह और अधिक स्पष्ट हो जाता है

 

( e ) भिक्षावृत्ति : नगरों में लोग केवल नगरों की गरीबी , भुखमारी और बेरोजगारी से तंग आकर भीख मांगते है अपितु भिक्षावृत्ति को एक व्यापारिक रूप भी देते हैं बड़ेबड़े नगरों में भिखारियों के मालिक होते हैं जिनका कि काम भिखरी बनाना , भिखारियों को भीख माँगने के तरीके सिखाना , उनके शरीर को इस भांति विकृत या जराजीर्ण कर देना होता है जिससे लोगों को दयाभाव अपनेआप उभरे

 

.औद्योगीकरण के अन्य सामाजिकआर्थिक प्रभाव : पूँजीवादी अर्थ व्यावस्था का विकास राष्ट्रीय धन का असमान वितरण , आर्थिक संकट , बेकारी , औद्योगिक झगड़े , मानसिक चिन्ता और रोग , संघर्ष प्रतिस्पर्धा , सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि , श्रम विभाजान विशेषीकरणहमकी भावना का प्रभाव आदि औद्योगीकरण के अन्य प्रभाव हैं जो कि भारत में देखने को मिलते हैं

 

 

 

 

औद्योगीकरण के सामाजिक परिणाम

 

 

 

औद्योगीकरण ने सामाजिक-आर्थिक और जनसांख्यिकीय पहलुओं में कई बदलाव लाए हैं। इसने शहरीकरण को जन्म दिया है जिसने जीवन शैली, खाने पीने और कपड़े पहनने की आदतों को बदल दिया है। यह संयुक्त परिवार प्रणाली के टूटने के लिए जिम्मेदार है। ग्रामीण समुदाय और जाति व्यवस्था का टूटना। इसने अवैयक्तिक संबंधों को भी जन्म दिया है। मलिन बस्तियों की बड़े पैमाने पर वृद्धि ने प्रदूषण, अपराध और किशोर अपराध की कई अन्य समस्याएं पैदा की हैं। उद्योगों के विकास के कारण ग्रामीण आबादी का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है।

 

इसने सामाजिक संरचना, सामाजिक संस्थाओं और सामाजिक संबंधों में स्थायी परिवर्तन लाए हैं। रिश्तेदारी में बदलाव के साथ, शादी और परिवार भी हो गए हैं। औद्योगीकरण से पहले भारत में विवाह को एक पवित्र और धार्मिक संस्था माना जाता था। आज विवाह को केवल एक पुरुष और एक महिला के बीच एक सामाजिक अनुबंध माना जाता है। लेकिन औद्योगीकरण के साथ विवाह की उम्र बढ़ती जा रही है। पारंपरिक मान्यताओं की अस्वीकृति के परिणामस्वरूप, बड़े शहरों में कई युवा पुरुष और महिलाएं अविवाहित प्रेम करना पसंद करते हैं। औद्योगिक समाज दिन-ब-दिन अधिक से अधिक जटिल होता जा रहा है; समाज में व्यक्तिवाद का दर्शन फल-फूल रहा है जिसके फलस्वरूप वैवाहिक बंधन बहुत कमजोर हो गया है और तलाक का सहारा लिया जा रहा है; वैवाहिक समस्याओं का एकमात्र समाधान के रूप में।

 

औद्योगीकरण के कारण परिवार के कार्यों में भी परिवर्तन आया है। बच्चों के समाजीकरण का कार्य भी पहले परिवार ही करता था, लेकिन आज परिवार इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया में पिछड़ता जा रहा है। वे डे केयर सेंटर, क्रेच, बेबीसिटर्स आदि की मदद लेते हैं। बड़े शहरों में बच्चों को पालने के लिए माता-पिता दोनों बच्चों को आया और घरेलू नौकरों की दया पर छोड़कर काम पर चले जाते हैं, परिवार के कार्य अधिक औपचारिक हो गए हैं असली से। फिर से औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप, अधिकांश संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और उनका स्थान एकल परिवार ले रहे हैं

 

 

 

परिवारों। उन एकल परिवारों को छोटे परिवार के मानदंडों को ध्यान में रखते हुए भेजा जाता है। अंतिम लेकिन कम महत्वपूर्ण नहीं, महिलाओं की स्थिति में उल्लेखनीय सुधार की दिशा में बड़े कदम उठाए गए हैं।

 

भारतीय समाज में, जाति व्यवस्था की एक अनूठी भूमिका और महत्व है। किसी व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसकी जाति से निर्धारित होती थी। औद्योगीकरण ने जाति की भूमिका को कम कर दिया है इसने ब्राह्मणों की शक्ति को कम करते हुए जाति व्यवस्था को भी विघटित कर दिया है। हम शूद्रों के उत्थान, जाति आधारित व्यवसायों के ह्रास को भी देख सकते हैं। विशेषज्ञता ने श्रम का विभाजन, काम से उन्मूलन लाया है। धार्मिक आस्था और विश्वास को कम महत्व देते हुए जीवन भौतिकवादी हो गया है।

 

 

औद्योगीकरण ने कई सामाजिक परिणामों को जन्म दिया है। इसने हमारी सामाजिक संरचना, सामाजिक संस्थाओं और सामाजिक संबंधों में स्थायी परिवर्तन किए हैं। इसने सामाजिक प्रभाव और नियंत्रण के तरीकों और साधनों में भी परिवर्तन किया है। औद्योगीकरण के कुछ सामाजिक परिणाम इस प्रकार हैं: –

 

क) समुदाय पर प्रभाव :-

 

उद्योग और समुदाय के बीच हमेशा घनिष्ठ संबंध रहा है। उद्योगवाद ने नए समुदायों को जन्म दिया है, या पहले से मौजूद लोगों के तेजी से विकास और परिवर्तन का नेतृत्व किया है। उद्योग आमतौर पर बिजली और कच्चे माल के स्रोतों के पास या साथ में आते हैं। उद्योगों ने तेजी से समुदायों का निर्माण किया और श्रम और विशेष सेवाओं की आसान आपूर्ति का नेतृत्व किया क्योंकि उद्योग और उद्योगवाद आगे विकसित हुए, समुदायों में भी तेजी से बदलाव आया। बाद में शहरी औद्योगिक समुदाय का उदय हुआ, शहरी औद्योगिक समुदाय के उद्भव के लिए जिम्मेदार कुछ कारक थे:

1) एक गतिशील कार्यबल की आवश्यकता, जिसमें परिवर्तन के घटक हों जो समुदाय को बदलने के लिए आवश्यक हों।

2) धन, सुरक्षा, जीवन स्तर और जीवन शैली के बीच असमानता और विषमता।

3) तेजी से विकसित हो रहे उद्योगों को भी श्रम की आपूर्ति की आवश्यकता बढ़ रही है जिसे किसी दिए गए समुदाय के बाहर से भर्ती किया जाना है। इससे विषमता आती है; विभिन्न नैतिकता, सामाजिक धार्मिक और नस्लीय पृष्ठभूमि के लोग आजीविका कमाने के एक सामान्य कारण के लिए एक साथ आते हैं। आधुनिक औद्योगिक समुदाय के सदस्य आज बहुत कम साझा करते हैं

 

 

 

मूल्य और मानदंड। जो सामान्य है वह काफी सतही हो सकता है। आधुनिक औद्योगिक समाज में विचलन सामान्य पाया जाता है।

 

क्योंकि आधुनिक समाज में भूमिकाओं को खंडित किया गया है और एक सामान्य मूल्य प्रणाली की कमी है, एकता या सामंजस्य कमजोर होने की प्रवृत्ति है। अपने काम से तादात्म्य न होने के कारण समूहों का एक-दूसरे से अलगाव, आधुनिक औद्योगिक समाज अव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में प्रवेश करता है कि रोटी, हताशा, असुरक्षा, चिंता, निराशा आदि। ये सभी और अधिक समाज को अपराध और भ्रष्टाचार की ओर ले जाते हैं। . औद्योगीकरण ने सामाजिक संरचना में प्रत्यक्ष परिवर्तन और हमारे पारिवारिक जीवन में अप्रत्यक्ष परिवर्तन लाए हैं।

 

औद्योगीकरण ने जाति की तीव्रता में भी कमी की है क्योंकि सभी जातियों के लोगों ने कारखानों में रोजगार मांगा और प्राप्त किया। A.W के अनुसार। हरा, यद्यपि शूद्र की छाया मात्र से होने वाली उस मलिनता से स्वयं को शुद्ध करने के लिए ब्राह्मण को दीर्घकालीन धार्मिक स्नान करना पड़ता था, फिर भी शहर की भीड़-भाड़ वाली गलियों और व्यस्तता में शूद्र की छाया से बचना संभव नहीं है। लाइनें। औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप सभी जातियों के व्यक्ति कारखानों, होटलों, बाजारों, ट्रेनों और बसों आदि में परस्पर संपर्क में आ गए और अस्पृश्यता को कवर करने वाले कानूनों का पालन असंभव हो गया।

 

 

 

परिवार और रिश्तेदारी पर औद्योगीकरण का प्रभाव

 

औद्योगीकरण की पारंपरिक प्रणाली टूट रही है और दुनिया भर में दांपत्य परिवार प्रणाली का उदय हो रहा है, यह प्रभाव भारत में अधिक स्पष्ट है। औद्योगीकरण का सबसे स्पष्ट प्रभाव संयुक्त परिवार प्रणाली की नींव का कमजोर होना है। एक नए व्यावसायिक ढाँचे के निर्माण, संपत्ति की घटती निर्भरता, कम शक्ति और बड़ों के लिए सम्मान, युवाओं की बढ़ती स्वतंत्रता ने एक बार मजबूत रिश्तेदारी संबंधों को काफी कमजोर कर दिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि पुरुषों और महिलाओं के संबंधों में एक उल्लेखनीय परिवर्तन आया है जिसका श्रेय बेहतरी के लिए महिलाओं की बदली हुई स्थिति को दिया जाता है।

SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में

पारंपरिक समाज में परिवार एक महत्वपूर्ण संस्था थी जिसमें संयुक्त परिवार आत्मनिर्भर कृषि अर्थव्यवस्था की बुनियादी संस्था का गठन करते थे। संयुक्त परिवार विस्तारित रिश्तेदारी संरचना के आधार पर गठित किया गया था और इसमें दो या तीन पीढ़ियों के सदस्य शामिल थे जो या तो पति या पत्नी या बेटे और बेटी के रिश्तेदार थे। संयुक्त परिवार संबंधों, शक्ति और अधिकार के सत्तावादी ढाँचे पर टिका था। संपत्ति का स्वामित्व और संयुक्त रूप से खेती की जाती थी। औद्योगीकरण ने पारिवारिक वातावरण का चेहरा पूरी तरह बदल दिया है। अनुशासन जैसे मूल्य,

 

 

अधिकार, समानता, स्वतंत्रता, समान अधिकार, न्याय आदि जैसे विचारों के प्रति विस्मयकारी सम्मान।

 

दैनिक उपभोग की अधिकांश वस्तुओं का उत्पादन परिवारों के बाहर होता है। बच्चों का पालन-पोषण, धर्म, प्रारंभिक शिक्षा अब परिवारों के आवरण नहीं रह गए हैं। घर बल्कि आराम और आनंद के केंद्र बन गए हैं। व्यक्तित्व के विचार ने उच्च जीवन स्तर विकसित किया है जो शहरी परिवारों की विशेषता बन गया है। जैसा अन्य देशों में हुआ है, वैसा ही भारतीय परिवारों में भी हुआ है, भूमिकाओं का परिवर्तन, कार्यों का विनाश, पारिवारिक संरचना का टूटना, शहरीकरण और औद्योगीकरण के अत्यधिक प्रभाव के कारण लोग अपने अधिकार के प्रति जागरूक हुए हैं। नगरीय समाजों में स्वामित्व कई गौण समूहों और संगठनों का उदय हुआ है जिन्होंने सामाजिक, औद्योगिक और शैक्षिक जीवन में परिवारों के महत्व को कम कर दिया है।

 

एकता की भावना कमजोर होती है। औद्योगीकरण ने रोजगार और शिक्षा की तलाश में संयुक्त परिवारों के कई युवाओं को आकर्षित किया है और इस प्रकार इसकी संरचना को बाधित किया है। औद्योगीकरण ने इसकी कार्यात्मक आत्मनिर्भरता को नष्ट कर दिया है और आज इसने अपनी कई अन्य आवश्यकताओं को खरीदने के लिए अपने कृषि उत्पादों का आदान-प्रदान किया है। बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण के कारण युवाओं के शहरी प्रवासन ने कृषि को अपनी श्रम शक्ति से वंचित कर दिया है और घरेलू उत्पादन प्रभावित हुआ है। अब शहरीकृत युवाओं ने व्यक्तिवाद और समानता के नए दृष्टिकोण विकसित किए हैं और इस प्रकार परिवार की संपत्ति में बराबर का हिस्सा है, जबकि वह अब इसके सामान्य पूल में योगदान नहीं देता है। ब्याज की इस नकदी ने कई बार रखी हुई जोत के विखंडन और रिश्तेदारी और परिवार की संरचना को बाधित किया है। पारंपरिक परिवार अब खुद को चातुर्य में रखने की उम्मीद नहीं कर सकता है, या अपनी जवानी को मिट्टी से जोड़े रखने की उम्मीद नहीं कर सकता है। आवश्यकताएं कई गुना बढ़ गई हैं और परिवार अपनी सभी इच्छाओं को पूरा नहीं कर सकता, परिवार तेजी से लोकतंत्रीकरण कर रहे हैं।

 

औद्योगीकरण ने परिवार की संरचना को बदल दिया है और कामकाजी लोगों को छोटे परिवारों के महत्व का एहसास हो गया है। माता-पिता दोनों काम के लिए बाहर जा सकते हैं। इसका श्रेय समय और ऊर्जा की बचत करने वाले गैजेट्स को जाता है जो उन्नत तकनीक ने हमें प्रदान किए हैं। चूंकि परिवार में पति-पत्नी का रिश्ता समानता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधारित है, न ही बर्दाश्त करने को तैयार हैं, चारों ओर नुकसान हो रहा है और स्थिति पर तलाक की आसान उपलब्धता के साथ, आज की औद्योगिक दुनिया में पारिवारिक अस्थिरता स्पष्ट हो गई है।

 

औद्योगीकरण ने बड़े-बुजुर्गों, विशेष रूप से पिता के सम्मान और स्थिति को नष्ट कर दिया है, जैसा कि बहुत बार देखा जा सकता है, माता-पिता और माता-पिता और बच्चे एक-दूसरे के बराबर काम करते हैं। बच्चे स्वतंत्र रूप से कमाने लगे हैं इससे आजकल विशेष रूप से पिताओं की शक्ति और अधिकार कम हो गए हैं। उच्च प्रौद्योगिकी स्वचालन के प्रभाव से

 

 

लोगों को उनके परिवार के घरों से दूर एक हरे-भरे चरागाह की तलाश के लिए खदेड़ दिया जाता है। यह संबंध कर बनने का कारक कारक है। इस तेजी से भागती दुनिया में जिसमें समृद्धि के जाल दूर-दूर तक फैले हुए हैं, परिवार के सदस्य एक-दूसरे के साथ बहुत कम समय बिता पाते हैं। मन आज की प्रगति से पूरी तरह ग्रस्त है। लोग समूह गतिविधि में अधिक शामिल हैं, पारिवारिक संबंध और पारिवारिक हित आज की औद्योगिक दुनिया में पुराने लगते हैं। परिवर्तन या अंतर यहीं निहित है, पारंपरिक परिवार में पत्नी और बच्चों को परिवार के मुखिया की भावनात्मक जरूरतों पर ध्यान देना पड़ता था। यह सब अब उलटा लगता है; यह पिता ही है जिसे पत्नी और बच्चों की नाजुक भावनात्मक जरूरतों पर ध्यान देना था।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

जाति व्यवस्था और सामाजिक संरचना में परिवर्तन

 

 

पुराने दिनों में जाति व्यवस्था बहुत शक्तिशाली लगती थी। यह वर्ण व्यवस्था से उभरा है। तुलनात्मक रूप से हमारे पारंपरिक समाज में जाति व्यवस्था बहुत कठोर थी

अत्यधिक गतिहीन और पदानुक्रमित, शीर्ष पर ब्राह्मण और नीचे शूद्र के साथ। भारत में व्यवसाय, विवाह, खान-पान और सामाजिक व्यवस्था के संबंध में प्रतिबंध ब्रिटिश शासन से शुरू हुए थे और विभिन्न जातियों के लोगों के कई समूह नए आर्थिक अवसरों की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर गए थे। इस जाति में विभिन्न जाति बंधनों को बनाए रखना संभव नहीं था। नई नौकरियों के लिए व्यक्तियों का चयन औद्योगिक नगरों में अर्जित कौशल पर आधारित था।

 

बढ़ते औद्योगीकरण और शहरीकरण के चलते आर्थिक अन्योन्याश्रितता पर आधारित जाति संगठन ने अपनी ताकत खोनी शुरू कर दी। जाति इकाइयाँ आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो गईं; इससे उच्च जातियों के एकाधिकार में लगातार गिरावट आई। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि ब्रिटिश शासन के दौरान जाति व्यवस्था स्वतंत्र रूप से बदलती है। आजादी के बाद की अवधि के दौरान परिवर्तन की दर में तेजी आई या गति आई। तेजी से बदलाव लाने के लिए कई लोगों ने एक साथ मिलकर मजबूर किया। तकनीकी प्रगति, औद्योगीकरण, शहरीकरण, व्यावसायीकरण, भारत सरकार द्वारा जातिविहीन समाज बनाने के प्रयास, बढ़ती आर्थिक कठिनाइयाँ और संस्कृतिकरण के माध्यम से जातिगत अखंडता में अपनी स्थिति को ऊपर उठाने की निचली जातियों की इच्छा, कुछ ऐसे प्रयास थे जो इसे लाने के लिए जिम्मेदार थे। जाति व्यवस्था में परिवर्तन।

 

संस्कृतिकरण धन, शक्ति और स्थानीय मुद्रास्फीति में लाभ को उच्च जाति की स्थिति में अनुवाद करने का एक तरीका था यदि व्यक्तियों के लिए नहीं, तो ऊपर की ओर मोबाइल स्प्लिटर समूहों के लिए जो उप जाति और सीमाओं की जाति के बारे में अस्पष्टताओं को अपना दावा प्राप्त करने के लिए नियोजित करते थे।

 

 

मान्यता प्राप्त है, और यहाँ तक कि उस जाति में विवाह करने के लिए जिसे पहले अलग और उच्च जातियों के रूप में माना जाता था।

 

इस प्रकार जाति हमेशा कुछ हद तक आर्थिक वर्ग मतभेदों के लिए एक कोड थी, और समूहों की संपत्ति और शक्ति में परिवर्तन के साथ बदली जा सकती है जिसे कोई वर्ग कह सकता है। यह अब नहीं होता है आर्थिक सफलता इसका एक बार औचित्य है और इसे जातिगत रैंक में बदलने की कम आवश्यकता है, भले ही क्षेत्रीय संस्कृतियों के बीच अंतर को छोड़कर एक जाति की नई स्थिति के बारे में स्थानीय सहमति प्राप्त करने की शर्तें अभी भी थीं, और क्षेत्रीय संस्कृतियों के बीच , और विशेष शहरों में औद्योगिक विकास और निपटान और राजनीतिक आंदोलनों के पैटर्न के बीच। अन्य भारतीयों की तरह औद्योगिक श्रमिक, खुद को जातियों के सदस्य के रूप में सोचते हैं, और आम तौर पर अपने बच्चों को मान्यता प्राप्त जातियों या धार्मिक अल्पसंख्यकों, जैसे मुस्लिम और कैथोलिक, की सीमाओं के भीतर विवाह करते हैं, जो कभी-कभी न केवल औद्योगिक शहरों में, बल्कि जाति जैसे समूहों में विभाजित होते हैं, जातियां मौजूद हैं, लेकिन अब अन्योन्याश्रित रैंक वाले समूहों की जाति व्यवस्था के भीतर विशेष लोगों के साथ संबंधों का एक नेटवर्क नहीं है, जिन पर किसी का दावा है, लेकिन जिन्हें दायित्वों और वफादारी और हितों द्वारा अन्य दिशाओं में भी खींचा जाता है, जिनका जाति से कोई लेना-देना नहीं है।

 

 

 

 

 

 

उद्योग और जाति

 

 

नौकरी के बाजार में, एक जाति बंधन सबसे अच्छा संबंध है और रिश्तेदारी के तर्क का विस्तार कम से कम एक व्यापक दायरे में होता है। मदद संबंधों पर एक नैतिक दायित्व है, जो आपकी जाति के होने के लिए झुके हुए हैं, और मदद स्वाभाविक रूप से कुछ समय बाद पारस्परिक रूप से प्राप्त होती है, लेकिन रिश्तेदारी संबंधों का तर्क कम सम्मोहक हो जाता है जब आप कभी-कभी संपर्क करते हैं कि कौन संभावित रिश्तेदार है, या कौन नहीं हो सकता है आपका रिश्तेदार क्योंकि वह ब्राह्मणों या राजपूतों की एक अलग उप जाति से संबंधित है।

एक भयंकर प्रतिस्पर्धी और अनिश्चित दुनिया में प्रयास करना उपयोगी हो जाता है, यह संभव हो सकता है कि कोई आपको नौकरी या रहने की जगह की तलाश में प्राथमिकता देगा क्योंकि वह समान मूल्यों के साथ लाए गए व्यक्ति पर भरोसा करता है, या वह एक भावना साझा करता है जाति के सदस्यों को एक साथ होना चाहिए या कोई और उनकी मदद नहीं करेगा। यही तर्क एक ही गाँव, एक ही राज्य आदि के लोगों पर भी लागू किया जा सकता है। प्रभाव के रूप में उपयोग करने के लिए उन सभी में कोई न कोई बाध्यकारी कारक होना चाहिए।

 

जाति जो इन दो चरम सीमाओं विशेष रूप से रिश्तेदारी और निवास या भाषा के एक व्यापक समुदाय के बीच आती है, वास्तव में समाज का तीन ब्लॉकों में विभाजन है: सभी मध्य जातियों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ एक बड़ा ब्लॉक, और दो अन्य ध्यान देने योग्य छोटे समूह यानी ब्राह्मण। ऊपर और हरिजन सबसे नीचे। दोनों समूह पूर्वाग्रह और भेदभाव से ग्रस्त हैं, साथ में कुछ विशेष लाभ प्राप्त कर रहे हैं, और पर

 

 

 

समय को राजनीतिक सहयोगी के रूप में देखा जाता है। ब्राह्मण किसी भी तरह से हमेशा दुनिया में सबसे अच्छी नौकरियों या हरिजनों में नहीं होते हैं।

 

जातिवाद जाति से जुड़ा हुआ है, क्योंकि यह किसी विशेष जाति के सदस्यों के बीच दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा में वफादारी का निर्माण करता है, जिसमें पदानुक्रम की कोई भावना नहीं बची है। “जातिवाद” एक हिस्सा या शहरी जीवन है, जैसे अमेरिका में जातीयता और एशिया में जनजातीयता अपनी भूमिका निभाती है। ये “असंरचित” स्थिति में केवल स्पष्ट संबंध हैं। हो सकता है कि वे हमेशा एक प्रच्छन्न शक्ति में प्राकृतिक पदानुक्रम के रूप में रहे हों। एक जाति की स्थिति केवल दूसरों के संबंध में उचित है और विशेषाधिकार जिम्मेदारियां और विचार हो सकते हैं जिन्हें कारखाने के जीवन में ले जाया जा सकता है।

 

इसे अलग-अलग उपयोगों में रखा जा सकता है, नौकरी के बाजार में खिंचाव के रूप में, अनुभागीय हितों की रक्षा के लिए एक राजनीतिक दबाव समूह और कभी-कभी राजनेताओं को लुभाने के लिए ब्लॉक वोट की संभावना। हरिजन कम वेतन वाली गंदी नौकरियां करते हैं क्योंकि वे अशिक्षित हैं। वे लोग जो नीचे के दिहाड़ी मजदूरों और अशिक्षित बेरोजगारों को न केवल वहां के सबसे भाग्यशाली लोगों से, बल्कि एक दूसरे से भी काटते हैं। वे वही हैं जो निराश और दयनीय हैं और यह मानने की अधिक संभावना है कि उन्हें जाति और नैतिक भेदभाव में क्या अलग रखता है।

 

जाति विचारधारा का अपना विषय है और लोगों को कुछ खास तरीकों से कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। कई स्थितियों में जाति के बारे में लोगों के कोडिंग के तरीके और आर्थिक और वर्ग के अंतर के बारे में सोचने के तरीके के रूप में सोचना अधिक उपयोगी होता है, जो शायद संसाधनों और शक्ति के लिए मुश्किल से छिपी हुई प्रतिस्पर्धा ही एकमात्र तरीका नहीं है।

 

चूँकि भारतीय जनता के पास आर्थिक भिन्नताओं पर आधारित वैकल्पिक श्रेणियां थीं और शायद उनके पास वर्ग के पश्चिमी उपयोगों की तरह अधिक थी। लेकिन यदि जाति आर्थिक भिन्नताओं का भेष है, तो यह प्रभावी है। यदि लोगों ने अपनी सामाजिक दुनिया को जातियों में विभाजित कर दिया, तो व्यवस्था कई प्रकार के परिवर्तन और जोड़-तोड़ को समायोजित कर सकती है, लेकिन प्रदूषण, वंशानुगत और अन्योन्याश्रितता के बारे में गहरे विचारों द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर। धन और शक्ति को अक्सर हैसियत में बदला जा सकता है, लेकिन हमेशा या स्वचालित रूप से नहीं।

 

दो चीजों ने श्रम और वर्ग साम्राज्यवाद और संचालित उद्योग के बीच संबंधों की पुरानी चर्चा को बदल दिया जो बाद में और अधिक धीरे-धीरे विकसित हुआ। इनसे कुछ समूहों के लिए नए आर्थिक अवसर खुले और दूसरों को कमजोर कर दिया।

 

साम्राज्यवाद, राष्ट्रवाद, इंजील ईसाई धर्म, नास्तिकता, प्रत्यक्षवाद, उदारवाद, समाजवाद, मार्क्सवाद, ‘प्रबंधन और यहां तक ​​​​कि थियोसोफी जो हिंदू धर्म का एक पश्चिमी संस्करण है, जैसे विदेशी विचारों से भारतीयों को भी अवगत कराया गया था।

 

 

 

 

 

 

औद्योगीकरण और पुराना समाज

 

औद्योगीकरण का मतलब प्रगति के पश्चिमीकृतरास्ते पर चलना जरूरी नहीं है। हम उद्योग पर भी दोष नहीं मढ़ सकते क्योंकि इसने कृषि समाज को इसकी कठोर सामाजिक संरचना और निर्विवाद मूल्य प्रणाली से परेशान कर दिया है। पूर्व-औपनिवेशिक भारत को अनसुलझे तनावों और अंतर्विरोधों से भरे समाज के रूप में कल्पना करना उचित है, जो कठोर सामाजिक संरचना और सामान्य मूल्यों द्वारा समाहित किया जा सकता है, जब तक कि आर्थिक अवसर दुर्लभ थे और शक्तिशाली समूहों द्वारा एकाधिकार किया गया था। पुराने समाज को स्थिर व्यवस्था के रूप में माना जाता था जिसे केवल बाहर से बाधित किया जा सकता था, अंतराल तनाव और विरोधाभासों को नजरअंदाज कर दिया गया था। यद्यपि परम्परागत समाज कई शताब्दियों तक बना रहा, यह विकल्पों के अभाव के कारण था। जब वैकल्पिक अवसर कानूनी संस्था के साथ मजबूत दिखाई देते हैं, पारंपरिक समाज अपनी कमजोरी प्रकट करता है और अंदर से पतन की धमकी दी जाती है।

 

जातिगत गतिशीलता, जो अच्छी तरह से प्रलेखित है, वर्गों के बीच वास्तविक गतिशीलता को दर्शाती है। औपनिवेशिक शासन और फिर उद्योगने व्यापक अवसर पैदा किए, और नए मूल्यों ने संपत्ति को जाति की स्थिति में बदलना कम महत्वपूर्ण बना दिया। यह सच है कि पूर्व औद्योगिकभारत और वर्तमान औद्योगिक समाज के बीच एक समुदाय का पता लगाया जा सकता है। पूर्व-औपनिवेशिक शहरों में और ग्रामीण इलाकों में हाल तक, संपत्ति और सुरक्षा वाले प्रमुख समूहों ने संबंधों से बंधे लोगों की एक विस्तृत श्रृंखला का समर्थन किया। सर्कल के बाहर अन्य समूह थे जो प्रमुख समूहों के साथ कोई विशेष संबंध नहीं होने का दावा कर सकते थे और जिनके पास वास्तविक सर्वहारा वर्ग को बेचने के लिए केवल उनकी अकुशल श्रम शक्ति थी, जिसका अस्तित्व अक्सर अछूतबना दिया गया था, जिसमें सर्कल के अंदर और बाहर के लोग शामिल थे। हम नियोक्ताओं, संगठित क्षेत्र के श्रमिकों, असंगठित क्षेत्र या अस्थायीऔद्योगिक श्रमिकों और भटकते अस्थायी श्रमिकों के बीच वर्तमान संबंधों के साथ एक समानता खींच सकते हैं।

 

अक्सर आश्चर्य होता है कि उद्योग में जातिवादकैसे अपना रास्ता बनाता है क्योंकि यह देखा गया है कि एक विशेष जाति या क्षेत्र या धर्म के लोग अक्सर एक उद्योग में बड़ी संख्या में बनते हैं या कुछ विशेष कौशल के कारण काम के जीवन में प्रवेश करते हैं, या प्राचीन काल से हो सकता है, जैसे कि जब प्रमुख समूहों के युवा पुरुषों को एक अवसर मिला और इसे हड़प लिया, या जब सबसे गरीब समूहों के लोगों को काम लेने के लिए मजबूर किया गया जो कि कोई और नहीं करेगा नियोक्ता उसी मूल से लोगों की भर्ती करना जारी रखेंगे , या श्रमिकों को उनके रिश्तेदारों और दोस्तों में लाया गया और इन लोगों के पास नौकरियों का आंशिक एकाधिकार हो गया जो अब बढ़ती बेरोजगारी और उच्च मजदूरी के साथ दूसरों के लिए अधिक आकर्षक लग सकता है।

 

 

 

जो देखा जाता है उद्योगवादयह है कि यह आम तौर पर गतिशीलता को बढ़ाता है और अवसर की चेतना पैदा करता है। भारत में सार्वभौमिक अनिवार्य शिक्षा के अभाव में उद्योगवाद का इरादा पारंपरिक, सामाजिक असमानताओं को बनाए रखना है। यह उन व्यवसायों के बारे में सच था जिनके लिए शिक्षा की आवश्यकता थी, या शुरुआत से ही वांछनीय के रूप में देखा गया था, लेकिन अन्य प्रकार के औद्योगिक रोजगार भी थे, जो केवल गरीबों और निरक्षरों को आकर्षित करते थे, विशेष रूप से एल।

उच्च जाति; और जो लोग उन व्यवसायों में जल्दी आ गए, वे कभी-कभी अपने बच्चों को बेहतर नौकरियों के लिए शिक्षित करने में कामयाब रहे। तो इस तरह एक विशेष जाति उद्योग में एक विशेष नौकरी पर कब्जा कर लेती है और जब तक वे कर सकते हैं तब तक उस पर कायम रहती है।

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