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सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत

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सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत

रेखीय या उद्विकासीय सिद्धांत : 

साधारण शब्दों में उविकास का अर्थ है , एक सादी और सरल वस्तु का धीरे – धार एक जटिल अवस्था में बदल जाना और भी स्पष्ट रूप में सब कछ निश्चित स्तरों में से गुजरती हुई । सादी या सरल वस्तु एक जटिल वस्तु में परिवर्तित हो जाती है तो उसे उविकास कहते है । श्री मेकाइवर और पेज के शब्दों में , ” उविकास परिवर्तन की एक दिशा है जिसमें कि बदलत हए पदार्थ की विविध दशायें प्रकट होती हैं और जिससे कि उस पदार्थ की असलियत का पता । चलता है । ” 

ऑगवर्न और निमकॉफ ने उविकास की परिभाषा करते हुए लिखा है , ” उद्विकास केवल । मात्र एक निश्चित दिशा में परिवर्तन है । ” 

डार्विन का उद्विकास का सिद्धांत :

 

      चूंकि सामाजिक उविकास का सिद्धांत श्री डार्विन के प्राणिशास्त्रीय उदुविकास पर आधारित है , अतः श्री डार्विन के सिद्धांत को समझ लेना अति आवश्यक होगा । इस सिद्धांत की प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं 

1 . प्रारम्भ में प्रत्येक जीवित प्राणी सरल होता है और उसके विभिन्न अंग इस प्रकार साथ घुले – मिले होते हैं कि उन्हें अलग नहीं किया सकता और न ही उसका कोई निश्चित स्वरूप होता है । यह अनिश्चित अभिन्न समानता की स्थिति है । परन्तु धीरे – धीरे उस वस्तु के विभिन्न अंग स्पष्ट तथा पृथक हो जाते हैं , और साथ ही साथ उसका स्वरूप भी निश्चित हो जाता है । यह निश्चित भिन्नता की स्थिति है । उदाहरण के लिए प्रारम्भ में एक बीज सरल होता है और उसके विभिन्न अंग ( जैसे जड़ , फल , फूल इत्यादि ) अलग – अलग नहीं होते , पर धीरे धीरे ये अंग स्पष्ट हो जाते हैं और उनमें भिन्नता उत्पन्न होती है । इस प्रकार अभिन्न समग्रता का विभिन्न समग्रता में विकसित होना उद्विकास का प्रथम नियम है । । 

2 . जीवित वस्तु के विभिन्न अंग जैसे – जैसे स्पष्ट तथा पृथक होते जाते हैं वैसे – वैसे प्रत्येक अंग एक विशेष प्रकार का कार्य करने लगता है । उदाहरण के लिए मानव शरीर को ही ले लीजिए । मां के पेट में रहते हुए धीरे – धीरे बच्चे के शरीर के विभिन्न अंग जैसे हाथ , पैर , आँख , मुँह , नाक आदि स्पष्ट हो जाते हैं और उसी के साथ – साथ प्रत्येक अंग का एक विशेष कार्य हो जाता है , जैसे पैर चलने का कार्य करता है तो आँख देखने का , मुँह खाने का आदि । यह नहीं हो सकता है कि हाथ कान का कार्य करे , कान पेट का और पेट पैर का । 

3 . यह सच है कि विभिन्न अंगों के विकसित और स्पष्ट होने पर प्रत्येक अंग के कार्य अलग – अलग बंट जाते हैं । परन्तु इस विभिन्नता का यह अर्थ नहीं है कि कोई भी अंग दूसरे अंगों से पूर्णतया पृथक या उनसे परे होता है । वास्तव में विभिन्न अंगों में सदैव अन्तः संबंध तथा अन्तःनिर्भरता बनी रहती है । पेट खराब होने पर दूसरे अंग भी निरर्थक हो जाते हैं । हाथ में चोट लगने पर उसका प्रभाव पूरे शरीर पर पड़ सकता है । 

4 . उविकास की प्रक्रिया एक निरन्तर जारी रहने वाली प्रक्रिया है । एकप्राणी के शरीर में कव कौन सा परिवर्तन हुआ , यह निश्चित रूप से नहीं बताया जा सकता क्योंकि उसमें हर क्षण 

विकास हो रहा है । आपकी ही छोटी बहन आपकी आँखों के समक्ष बड़ी हो र निश्चित रूप से नहीं बता सकते कि वह कव कितनी बड़ी हो रही है । 

5 . उद्विकास की प्रक्रिया कुछ निश्चित स्तरों से गुजरकर होती है , जिस दौरान धीरे – धीरे जटिल रूप धारण कर लेती हैं । उदाहरण के लिए , एक बीज को लीजिए कितना सरल होता है , पेड़ के रूप में विकसित हो जाने पर वह कितना जटिल परन्तु इस सादे से जटिल रूप में बदलने के दौरान वह कुछ निश्चित स्तरों से गज बच्चा पहले जन्म लेता है , उसके बाद उसका बचपन शुरू होता है , फिर युवावस्था फिर वृद्धावस्था और अन्त में मृत्यु । 

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सामाजिक उविकास का सिद्धांत :

 श्री हरबर्ट स्पेन्सर का कथन है कि उद्विकास के उपरोक्त नियम समाज और संबंध में भी लागू होते हैं जैसा कि निम्नलिखित विवेचना से स्पष्ट है 

1 . प्रारंभ में या प्राचीन आदिम युग में समाज अत्यधिक सादा और सरल था । इसके लिए अंग इस प्रकार घुले – मिले होते थे कि उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता था । एक परिवार सामाजिक , आर्थिक तथा राजनैतिक सभी प्रकार के कार्यों को करता था । इतना ही नहीं व्यक्ति केवल अपने परिवार के बारे में ही जानता और करता था । सभी प्रकार के कार्यों और विचार प्रायः एक से होते थे । इस दृष्टिकोण से सभी व्यक्ति प्रायः समान था । साथ इस स्तर पर कुछ भी निश्चित तथा , न तो जीवन , न ही सामाजिक संगठन और न संस्कार इस प्रकार उनकी यह अवस्था अनिश्चित व असम्बद्ध समानता की थी । परन्तु धीरे – धीरे अनुभव , विचार तथा ज्ञान में उन्नति हुई , उन्हें मिलकर काम करना आ गया और साथ सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न अंग स्पष्ट होते गए । उदाहरण के लिए परिस राज्य , कारखाना , धार्मिक संस्था , श्रमिक संघ , ग्राम , नगर आदि स्पष्ट रूप में विकसित हुए I

2 . विकास के दौरान समाज के विभिन्न भाग जैसे – स्पष्ट होते हैं , वैसे – वैसे प्रत्येक अंग एक विशेष प्रकार का कार्य करने लगता है , अर्थात् समाज के विभिन्न अंगों के बीच श्रम विभाजन और विशेषीकरण हो जाता है । परिवार एक विशेष प्रकार का कार्य करता है । तो एक राज्य दूसरे का स्कल और कालेज तीसरे प्रकार का कार्य , मिल और कारखाने अन्य प्रकार के कार्य तथा श्रमिक संघ पृथक – पृथक कार्यों को करने लगते हैं । यह हो ही नहीं सकता कि परिवार राज्य का कार्य करे , राज्य श्रमिक संघ का या श्रमिक – संघ धार्मिक संस्थानों का ।

 3 . समाज के विभिन्न अंगों के विकसित हो जाने से उनमें श्रम – विभाजन और विशेषीकरण हो जाता है परन्तु वे एक दूसरे से पृथक या पूर्णतया परे नहीं होते । उनमें कुछ निश्चित अन्तःसंबंध और अन्तःनिर्भरता बनी रहती है । परिवार राज्य से संबंधित तथा उस पर निर्भर है और राज्य परिवार से संबंधित और उस पर निर्भर है , इसी प्रकार शिक्षक , कृषक , धोबी , मेहतर , जुलाहा इन सबमें एक अन्तःसंबंध तथा अन्तःनिर्भरता होती है ।

 4 . उद्विकास की यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है और एक सम्पूर्ण समाज का निर्माण अनेक वर्षों में धीरे – धीरे होता है । 

5 . सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया कुछ निश्चित स्तरों से गुजकर होती है । जिस दौरान समाज का सरल रूप धीरे – धीरे जटिल रूप धारण कर लेता है । उदाहरण के लिए आर्थिक जीवन के प्रारंभ में अदला बदली से काम शुरू किया गया , पर अब उस सादी और सरल व्यवस्था ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का रूप धारण कर लिया है । पहले लोग सीधे – सादे तौर पर पैदल चलते थे , अब हवाई जहाजों की रफ्तार का कहना ही क्या । पहले व्यक्ति का जीवन अधिक से अधिक 15 सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत वही जीवन अन्तर्राष्ट्रीय जीवन हो गया है । यह विकास परिवार तक सीमित था , पर अब वही जीवन अन्तर्राष्ट्रीय जीवन ह धार – धीरे कुछ निश्चित स्तरों में से होकर गुजरा है । जैसे एक दिन में नहीं हुआ है , बल्कि धीरे – धीरे कुछ निश्चित स्तरों में सहा आर्थिक क्षेत्र में उद्विकास के प्रमुख स्तर हैं – 

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            1 . शिकार करने का स्तर ,  

            2 . चरागाह का स्तर , 

            3 . कृषि का स्तर , और 

            4 . औद्योगिक स्तर । 

 

इस प्रकार कार हम कह सकते हैं कि पहले समाज सरल था और उसके विभिन्न अंग अभिन्न एक – दूसरे से अधिक घले मिले थे । पर धीरे – धीरे सामाजिक जीवन के विभिन्न अग स्पष्ट आर पृथक होते गए और उनमें श्रम विभाजन और विशेषीकरण हुआ , परन्तु यह भिन्नता कान पर भी विभिन्न अंगों में समन्वय बना रहा अर्थात विभिन्न अंग एक – दूसरे से संबंधित तथा एक – दूसरे पर निर्भर हैं । अतः हम कह सकते हैं कि समाज में भिन्नता और समन्वय दोनों ही तत्व पाए जाते हैं । साथ ही इन दोनों तत्वों की क्रियाशीलता के फलस्वरूप ही समाज का आस्तत्व संभव होता है । इसीलिए यह कहा गया है कि समाज समन्वय और विभिन्नता का एक गतिशील सन्तुलन है । 

             इस सिद्धांत के मानने वाले वैज्ञानिकों में हरबर्ट स्पेन्सर , लुइस हेनरी मार्गन , आगस्ट कॉम्ट , इमाइल दुरखिम आदि आते हैं ।

आगस्त कॉम्ट ( 1798 – 1857 ) :

     फ्रांसीसी विचारक आगस्त कॉस्ट जो समाजशास्त्र के पिता हैं , इन्होंने अपनी पुस्तक Positive Philosophy में समाजिक उविकासीय आधार पर समाज में परिवर्तन को दर्शाया है । इनका मानना है कि व्यक्ति के मस्तिष्क का विकास जैसे – जैसे होता है वैसे – वैसे समाज का विकास होता है । समाज के विकास की प्रक्रिया को इन्होंने तीन स्तरों में बाँटते हुए सामाजिक उद्विकास की चर्चा की है Comte के ही शब्दों में – ” Each of our leading conceptions each branch of our knowledge , passes successively through three different theoretical conditions the theological or fictitious , the metaphysical or abstract and the scientific or positive . ” 

उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि मानव ज्ञान में विकास तीन स्तरों के माध्यम से होता है और ये तीन स्तर क्रमशः निम्नलिखित हैं । 

               1 . धार्मिक ( Theological ) 

               2 . तात्विक ( Metaphysical ) 

               3 . प्रत्यक्षवादी ( Scientific ) 

 

इनके अनुसार आरंभ में मानव मस्तिष्क बहुत विकसित नहीं था । अतः उस अवस्था का ज्ञान धार्मिक स्वरूप का था । तात्पर्य यह है कि आरम्भिक अवस्था में मनुष्य सभी घटनाओं की व्याख्या अलौकिक शक्ति के आधार पर करता था । चूँकि मानव मस्तिष्क विकसित नहीं था अतः मानवीय ज्ञान में केवल आस्था एवं विश्वास के तत्व मौजूद थे , तर्क एवं विवेक का अभाव था । फलतः मनुष्य किसी भी घटना के पीछे के कार्य – काल संबंध को नहीं जान पाता । था बल्कि हर घटना के पीछे अलौकिक शक्ति का हाथ मानता था । जैसे हरा – भरा पेड़ क्यों सूख गया कोई व्यक्ति क्यों बीमार पड़ गया इन सबके पीछे वह ईश्वरीय शक्ति को मानता था । ऐसा नहीं है कि इस काल में वैज्ञानिक ज्ञान नहीं थे । मनुष्य ने पेड़ की दो टहनियों के घर्षण को देखकर स्वयं भी इस प्रक्रिया के माध्यम से आग का आविष्कार किया जो उसके बैला ज्ञान होने का प्रमाण है । लेकिन इस तरह के वैज्ञानिक ज्ञान अत्यन्त सीमित ये और भरपर में धार्मिक ज्ञान उपलब्ध था ।

कॉस्ट के अनुसार धार्मिक स्तर स्वयं निम्नलिखित तीन उप स्तर से गुजरता है । 

1.प्रेतवाद ( Fetishism )

                        2.वहुदेवतावाद ( Polytheism ) एवं

                3.एकदेवतावाद ( Monotheism )

 

 प्रेतवाद के स्तर में प्राकृतिक चीजों का मानवीकृत किया जाता है । पेड़ों , नदियों , पर्वता आदि की पूजा इसलिए की जाती है क्योंकि लोगों में ऐसी धारणा बनी रहती है कि ये प्राक तिक चीजें देवी – देवताओं के निवास स्थान हैं । लेकिन जैसे – जैसे मस्तिष्क में विकास होता । वैसे – वैसे मानव – ज्ञान में परिवर्तन आता है । प्रेतवाद का रूप मिटता जाता है और बहुदेवतावाद की भावना लोगों में आ जाती है । इस प्रक्रिया में घरेलू देवताओं की स्थापना की जाती है । साथ ही लोग एक साथ अनेक देवताओं में न केवल विश्वास करने लगते हैं बल्कि देवताओं का श्रेणीक्रम उनकी पदस्थिति के आधार पर निर्धारित की जाती है । पुनः जैसे – जैसे मानव मस्तिष्क के साथ साथ मानव ज्ञान में वृद्धि होती है वैसे – वैसे बहुदेवतावाद का स्थान समाप्त हो जाता है । इस अवस्था में मनुष्य यह अनुभव करने लगता है कि भले ही देवताओं के नाम अनेक हैं पर देवता एक हैं । कॉस्ट के अनुसार एकदेवतावाद धार्मिक स्तर के चिन्तन का सर्वोच्च स्तर है । 

       ज्ञान के विकास का दूसरा स्तर तात्विक स्तर ( Metaphysical stage ) है । मानव ज्ञान का यह दसरा स्तर धार्मिक और प्रत्यक्षवादी स्तर के वीच एक कड़ी का काम करता है । आगस्त कॉस्ट के अनुसार , जहाँ धार्मिक स्तर कई हजार वर्षों का काल था वहीं तात्विक स्तर कछ सी वर्षों का काल है । दरअसल कॉम्ट ने इसे संक्रमण की अवस्था ( Transition Phase ) कहा है । इस स्तर का ज्ञान न तो पूर्णतया धार्मिक स्तर का होता है और न ही पूर्णतया प्रत्यक्षवादी स्तर का । साफ शब्दों में कहा जाए तो इस स्तर के ज्ञान में विभिन्न घटनाओं की व्याख्या न तो अलौकिक शक्ति के आधार पर की जाती है और न ही तर्क एवं विवेक के आधार पर । दरअसल अदृश्य शक्ति के आधार पर घटनाओं की व्याख्या की जाती है । आगस्त कॉन्ट का कहना है कि इस स्तर के ज्ञान में मनुष्य घटनाओं की पीछे अलौकिक शक्ति का हाथ नहीं मानता बल्कि घटना के कारण को जानना चाहता है । लेकिन ज्ञान में तर्क एवं विवेक के अभाव के चलते वह जान नहीं पाता है और ऐसी स्थिति में वह यह मान लेता है कि अलौकिक शक्ति तो नहीं पर अदृश्य शक्ति ( Invisible Power ) इसके पीछे जरूर कार्यरत है । 

       कॉस्ट का कहना है कि मानव मस्तिष्क में विकास के फलस्वरूप ज्ञान के विकास का तीसरा और अन्तिम स्तर प्रत्यक्षवादी स्तर ( Scientificstage ) है । इस स्तर का ज्ञान तथ्यों के अवलोकन और विश्लेषण पर आधारित होता है । मनुष्य सारी घटनाओं की व्याख्या तर्क एवं विवेक के आधार पर करता है और उसी को सत्य मानता है जो अवलोकन और परीक्षण के आधार पर खड़ा उतरता है । 

       त्रिस्तरीय नियमों की चर्चा करते हुए कॉन्ट का कहना है कि उपर्युक्त तीनों प्रकार के चिंतन का ढंग एक ही मस्तिष्क में या एक ही समाज में अपना अस्तित्व रख सकते हैं । लेकिन तीन तरह के चिंतन हमेशा अपना अस्तित्व बनाए रखने में सफल नहीं होते । इससे साफ जाहिर होता है कि धार्मिक स्तर में भी प्रत्यक्षवादी ज्ञान था पर मात्रा कम थी । और आज के प्रत्यक्षवादी यग में भी अंधविश्वास , कपोलकल्पना आदि मौजूद है पर धीरे – धीरे इनकी मात्रा घटती जा रही है ।

        आगस्त कॉस्ट के इन विचारों काटक इन विचारों को निम्नलिखित तालिका के द्वारा भी समझा जा सकता है

 ज्ञान का स्तर         समाज में वर्चस्व                          सामाजिक संगठन 

1 . धार्मिक स्तर       पुरोहित एवं सैनिक                             परिवार

 2 . तात्विक स्तर     पादरी एवं वकील.                      राज्य 

3 . प्रत्यक्षवादी स्तर    पूँजीपति एवं औद्योगिक साहसी    लोकतांत्रिक राज्य

       अतः स्पष्ट है कि आगस्त कॉप्ट ने मानव में होने वाले ज्ञान के विकास के आधार पर सामाजिक संगठन में होने वाले उदविकासीय परिवर्तन को समझाया है पर आगस्त कॉम्ट के इस सिद्धांत की आलोचनाएँ भी कम नहीं हैं ।

 आलोचनाएँ : 

1 . आलोचकों का यह कहना है कि कॉस्ट का यह सिद्धांत उसके मौलिक चिन्तन का परिणाम नहीं है बल्कि उसने उसे सेन्ट साइमन आदि विद्वानों से ग्रहण किया है । अतः कॉस्ट को एक कुशल समन्वयकर्ता ही कहा जा सकता है , मौलिक चिंतक नहीं । 

2 . पी० ए० सोरोकिन का कहना है कि आगस्त कॉस्ट के ये विचार जिसमें वैज्ञानिकता कम तथा दार्शनिकता अधिक है । दरअसल कॉस्ट ने कहीं कोई क्षेत्रीय अध्ययन नहीं किया है बल्कि लोगों के संस्मरण , यात्रावृत्तांत और अन्य द्वितीयक स्रोतों से प्राप्त आँकड़ों के आधार पर यह सिद्धात प्रतिपादित किया है । सोरोकिन के ही शब्दों में , ” All such theories have been nothing buta king of metaphysics . Ogburn और Nimcoff ने भी इसी आधार पर आलोचना की है । 

3 . पैरेटो ने तो कॉस्ट के विचारों को पूर्णतः अवैज्ञानिक एवं नहीं काम करने लायक बताया है । पैरेटो ने कॉस्ट सहित सभी उद्विकासवादियों की आलोचना करते हुए कहा है कि इन विद्वानों ने मानव सभ्यता का अध्ययन भूत से वर्तमान की ओर करना चाहा है जो कि अवैज्ञानिक है । पैरेटो के अनुसार वैज्ञानिकों को किसी भी चीज का अध्ययन ज्ञात से अज्ञात की ओर करना चाहिए । यानि वर्तमान के आधार पर भूत की व्याख्या होनी चाहिए । जबकि उद्विकासीय सिद्धांतदाताओं ने अज्ञात से ज्ञात की ओर बढ़ने का प्रयास किया है जो वैज्ञानिक भावना के विरुद्ध है । 

4 . इतना ही नहीं पैरेटो ने उद्विकासीय सिद्धांत को ही गलत बताते हुए इसे Cinematography की संज्ञा दी है । उनका कहना है कि जिस तरह सिनेमा के एक दृश्य के बाद दूसरा दृश्य आता है और तब पहला दृश्य आँखों से ओझल हो जाता है । ठीक उसी तरह उदविकासवादियों ने अपने सिद्धांत में विभिन्न स्तरों की चर्चा की है जो आलोचनीय है । इसका समर्थन करते हुए सोरोकिन का भी कहना है कि उद्विकासीय सिद्धांत अंधेरी कोठरी में काली बिल्ली खोजने के समान है । तात्पर्य यह है कि उद्विकासीय सिद्धांत का अनुसरण करने पर कभी सत्य की प्राप्ति हो सकती है और कभी न भी । 

      उपर्युक्त सारी चर्चाओं के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि यद्यपि कॉस्ट के सिद्धांत की काफी आलोचना की गई है पर इन सारी आलोचनाओं के बावजूद समाजशास्त्र के क्षेत्र में आगस्त कॉम्ट की देन को नकारा नहीं जा सकता है । 

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